बिटिया जब भी घर से निकलो बैग में चाकू रखना : मुकेश अनुरागी
_____________________________________
वागर्थ प्रस्तुत करता है डॉ मुकेश अनुरागी जी के पाँच नवगीत
मुकेश अनुरागी जी लगातार पिछले दो दशकों से छंदोबद्ध रचनाएँ रचते आ रहे हैं नवगीत में भी इनका खासा रुझान हैं मुकेश जी डॉ विद्यानन्दन राजीव जी की शिष्य मण्डली से आते हैं और नवगीत लेखन की प्रेरणा का श्रेय भी वह राजीव जी को ही देते हैं।
मिलनसार,बहुमुखी प्रतिभा के धनी मित्रों के मित्र परम्परापोषी अनुरागी जी के नवगीतों में पीढ़ीगत अंतराल खुलकर आता है नए भारत के स्वरूप को भी स्वीकारते हैं और अपनी जड़ों को भी सींचना नहीं भूलते!
मुकेश जी ने कुछ नवगीत प्रकृति और पर्यावरण को केंद्र में रखकर भी रचे हैं। इन दिनों समीक्षाकर्म में निमग्न निरन्तर साधनारत मुकेश जी से और भी बेहतर की उम्मीद है। यदि वह इसी तरह टिककर लिखते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब इनका अपना निजी नवगीत संग्रह मुकेश जी के तमाम पाठकों के हाथों में होगा।
शुभकामनाओं सहित
________________
प्रस्तुति वागर्थ
सम्पादक मण्डल
प्रस्तुत हैं
कुछ नवगीत
बिटिया जब भी घर से निकलो बैग में चाकू रखना : मुकेश अनुरागी
_____________________________________
_________
1
जीवन भर भागा सुख पाने
इससे हांफ रहा।
हुआ थकन से चूर, वृध्द
दरवाजा कांप रहा।
चहल-पहल न दालानों में
सूना तुलसी चौरा।
गिल्ली-डंडा,सावन-झूले
भूले चकरी भौंरा।
घर का जोगी छोड़
विदेशी मंतर जाप रहा।
हुआ थकन से चूर
वृद्ध दरवाजा कांप रहा।
आंगन का बंटवारा
कैसे हो ये सोच रहे।
अपने मन की पूरी होवे
लेकिन बिना कहे।
लेकर फीता हाथ लाड़ला
घर को नाप रहा।
हुआ थकन से चूर
वृद्ध दरवाजा कांप रहा।
घी से भरा दीप पूजा का
अब तो रीत रहा।
खूब जला हर सुख- दुःख झेला
कोई न मीत रहा।
कोई मुझको अपना कह दे
ये संताप रहा।
हुआ थकन से चूर
वृध्द दरवाजा कांप रहा।
2
सिंहासन पर बैठा बूढ़ा
आंखें बन्द किए।
मदहोशी केआये झोंके
जब-जब नथुने में।
कभी नहीं महसूसा
केवल उनके कहने में।
दोनों कानों में उंगली,और
मुंह पाबंद किए।
बदनामी की चली आंधियां
अपना तन ढांका।
धूलधूसरित कक्ष हुए पर,
उनमें न झांका।
आज कटा कल कट जायेगा
नीति बुलंद किए।
बिगड़ गया जो ढर्रा भैया
कैसे होगा ठीक।
तभी सुधर पायेगा "सिस्टम"
जब छोड़ोगे लीक।
खुद भी न बच पाओगे,गर
फिर छलछंद किए।
3
खिड़की पर बैठा है बचपन
नजरें सड़कों पर।
सुबह के निकले मम्मी-डैडी
लौटें सांझ पहर।
ब्रेड-बटर का किया नाश्ता
बाई लंच बनाती।
भूख लगे तो दूध रखा है
मम्मी कह कर जाती।
सिर्फ रात को साथ बैठकर
करते संग डिनर।
मोबाइल है साथी- भैया
टीवी संग रहना है।
दिन भर आंसू आते-जाते
सबको ही सहना है।
इकलौता है वारिस रहता घर पर
दिन-दिन भर।
किड्स गार्डन बंद हो गये
भूले सभी पढ़ाई।
बाबा दादी नानी को भी
मेरी याद न आई।
बैठ अकेला मन की बातें
किससे कहे कुंअर।
4
किसको फुरसत
कौन सुनेगा
कथा-व्यथा छप्पर की
सूरज है अलमस्त बोलता
मस्त भरी अवाज।
बादल भी आवारा नित नित
खोल रहा है राज
भोर उनींदी थका हौंसला
गौरैया पर-घर की
चूल्हा ठण्डा द्वार अटपटा
माटी नहीं पोतनी।
खिड़की-दरवाजे हैं बेबस
अनमन हुई अरगनी।
टूटा छप्पर रिसता पानी
देहरी भी दरकी
बूढ़ा बाप खाँसता द्वारे
भीतर अम्मा लेटी।
फटे बसन लज्जा तन ढांके
हुई सयानी बेटी।
खाली बैठा सरजू बागी
बात कहे हर-घर की
5
बिटिया जब भी घर से निकलो
बैग में चाकू रखना
पगडंडी अब सड़कें हो गईं
बहुत फिसलनी हैं
सूपों में अब छेद ढूँढ़तीं
फिरती चलनी हैं
बहुत कठिन
हो गया
व्यवस्थाओं पर काबू रखना
पता नहीं कब कोई आकर
झूठी आस बँधाये |
मन में पाले कैसी इच्छा
तुम्हें समझ ना आये |
नहीं भरोसा
करना बिल्कुल
नजरें आजू-बाजू रखना
नजरें वहशी हो गईं
तोड़ें उम्र के सारे बन्धन
मानवता और
सच्चाई की
रहती मन से अनबन
इसीलिये
अब ना कुरते में
कोई खुशबू रखना
6
अब न कभी उर झंकृत करते
मुख से निकले बोल
अब तो इन्हें सम्हारौ भइया
मन की आंखें खोल
नीमतले न दद्दा दिखते ,
न घर में भौजाई
नहीं दीखती बैरिन रतिया
मूंज बुनी चारपाई
भोर कलेवा,संझा ब्यारू
गौरय्या भी गोल
जीने रिश्ते तार-तार हैं
बखिया बिन तुरपाई
अम्मा खांसें सूनी बाखर
बड़की हुई पराई
भइयू जिज्जी कक्का हुक्का
सभी बिके बेमोल
नहीं खनकती खनखन चूड़ी
नहीं जगाते प्रभाती
नहीं बुलाने को अब बहुरी
दरवज्जा खटकाती
आंगन भी सकरा सा लगता
बहू फिरे सिर खोल
7
आ गई धूप
बिना कहे
चुपचाप आ गई
दालानों में धूप
रंग सुनहरा
पतली काया
लिए गुनगुना रूप
ठिठुरे-ठिठुरे
हाथ पैर हैं
सांँसें भी हैं ठण्डी
तेज हवा के
झोंके मचलें
कुहरे की है मण्डी
अंग-अंग में
सिहरन सरसे
नदी-किनारे कूप
नन्ही गौरेया
जा दुबके
कोटर में पेड़ों के
डरकर पीले
खेत हो गये
बदले रंँग मेड़ों के
थर-थर कांँपे
सरसों-गेंहू
बना बाजरा भूप
रोज तमकना
गुस्सा खाना भी
काफूर हुआ है
जल्दी घर को
लौट पड़े पर
घर भी दूर हुआ है
कैसे फटके किरनें
अम्मा
घर में टूटा सूप
मुकेश अनुरागी
___________
परिचय
_____
मुकेश अनुरागी
(डॉ मुकेश श्रीवास्तव अनुरागी)
बी.एससी.एम.ए.(हिन्दी)पीएच.डी.(लोकसाहित्य)
छंदधर्मी नवगीतकार
१०-११-१९६६
प्रकाशित---
आस्था के गांव से (गीत कलश)
सुबह की धूप ( नवगीत कुंज)
सुर बांसुरी के (कवित्त, सवैया,घनाक्षरी)
प्रकाशनाधीन----
हम समंदर हैं (ग़ज़ल गुलदस्ता)
लोकगीत-(आंचलिक भाषा के लोकगीतों का संग्रह)
प्रसारण__ आकाशवाणी शिवपुरी से समय-समय पर गीतों का प्रसारण
समवेत संकलन--
गीतायन, गीत अष्टक प्रथम,शब्दायन, गीत वसुधा, समकालीन गीतकोष, अंजुरी भर अनुराग, नवगीतों का लोकधर्मी सौंदर्य बोध, नवगीतों में मानवता वाद साथ ही साक्षात्कार,हरगंधा, उत्तरायण, साहित्य सागर, गीत गागर, आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित
सम्मान--
सारस्वत सम्मान, साहित्य शलाका सम्मान,प्रज्ञाभारती समयमान, हिन्दी सेवी सम्मान, शब्दरत्नाकर सम्मान, उत्कृष्ट कर्मचारी सम्मान, साहित्यकार सम्मान ,श्रीहरिओमशरण चौबे स्मृति गीतकार सम्मान
आत्मकथ्य-- जब-जब मन की पीर घनीभूत होकर उद्वेलित करती है तो मन के भाव लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त हो जाते हैं,वर्ष १९८० से साहित्य पर का पथिक हूं, परन्तु सदैव साहित्य का विद्यार्थी ही रहा हूं,
संप्रति--
स्व श्रीमति इंदिरा गांधी शासकीय कन्या महाविद्यालय शिवपुरी में शासकीय सेवा में
चलित वार्ता-- ९९९३३८६०७८
सम्पर्क सूत्र--
बहुत बहुत बधाई भैया, मैं भैया अनुरागी जी के नवगीतों का नियमित पाठक हूं, वे जहां अपनी संस्कृति, परंपरा को गीतों में पोषित करते हैं, वहीं आधुनिकता कोभी साथ लेकर चलते हैं, वे कई बार ऐसे विषयों को छूते हैं जिन पर गीत का निर्वाह करना आसान नहीं होता, लेकिन वह बखूबी छंद विधान के साथ अपनी बात कह जाते हैं। बिटिया जब भी घर से निकलो बैग में चाकू रखना गीत बेटियों की सुरक्षा की चिंता के साथ उन्हें बचाव का तरीका देता, साहित्य में ऐसे गीत कम मिलते हैं। उनकी कलम ज्यादातर घर, परिवार और समाज की विसंगतियों पर प्रहार करती है। उनकी भाषा माटी की सोंधी खुशबू जैसी है। वे कई बार ऐसे प्रतीकों से अपनी बात कह जाते हैं जो साहित्य में कम मिलते हैं और पढ़ने वाले को आश्चर्य में डाल देते हैं।
जवाब देंहटाएं(राहुल आदित्य राय)
वागार्थ ने आज शिवपुरी के डा,मुकेश अनुरागी जी के गीतों से बखूबी परिचय कराया है।
जवाब देंहटाएंकवि ने आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी की मुश्किलो की सच्ची तस्वीर सामने रखी है।
"हुआ थकन से चूर वृद्ध दरवाजा कांप रहा "सामाजिक विसंगतियों को उजागर करता हुआ हृदय स्पर्शी है।
जिन परिवारों में पति-पत्नी दोनों नौकरी पेशा है, उन परिवारों के बच्चे आया और नौकरानियो के भरोसे अपना सारा दिन निकालते हैं। उस स्थिति के सजीव चित्रण ने कवि की लेखनी को नमन करने को बाध्य कर दिया
"भूख लगे तो दूध रखा है मम्मी कहकर जाती "
डॉ मुकेश अनुरागी जी ने जहाँ अपने गीतो में परम्परागत, लोकलुभावन बिम्बों का भरपूर उपयोग किया है,जैसे-सूना तुलसी चौरा, चकरी भौंरा, बाखर, कैसे फटके, मूंज बुनी चारपाई, ब्यारू इत्यादि वहीं आम बोलचाल की भाषा में प्रचलित अंगरेजी शब्दों से भी परहेज नहीं करते हुए उनका भी खूब प्रयोग किया है, जैसे-सिस्टम, मोबाइल, डिनर, बैग, किड्स गार्डन इत्यादि।
कुल मिलाकर अपनी माटी की सोधी महक और समसामयिक संदर्भों का स्पष्ट चित्रण है डा मुकेश अनुरागी जी के गीत
भाई मनोज जैन मधुर जी का इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार
सुन्दर लोकलुभावन गीतों के लिए डा मुकेश अनुरागी जी को बधाई
गोविन्द अनुज , गीत गोविंद
तीखे तेवर, नवप्रतीकों की बहुतायत, प्रजातंत्र के विसंगतियों पर प्रहार अनुरागी जी के इन नवगीतों में दिखाई देते है। ये एक ऐसा साहित्यकार जो वर्तमान.उन समस्याओं के प्रति सजग रहकर उनके समाधान का प्रयास इस लाईन में दिखाई देता है बिटिया बाहर निकला
जवाब देंहटाएंपर हाथ चाकु रखना। अनुरागी जी लड़कियों को.असहाय
नहीं समझते हुये नवयुग के लिए तैयार रहने के लिए सक्षम बनाते है
आदरणीय अशोक शर्मा जी की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी
उषा सक्सेना जी की एक टिप्पणी
जवाब देंहटाएंछंदोबद्ध रचना में प्रवीण अनुरागी जी के नवगीतों में प्रकृति और पर्यावरण साथ चला है ।उनके नव गीत समाज की विवेचना करते उसकी विषमताओं और अने विसंगतियों पर तीखा प्रहार करते
सत्य के ठोस धरातल पर खड़े होकर ललकारते हैं । नये बिम्ब गढ़कर शब्द शिल्प उंकेरते नव्य नवल लगते ।तथ्यों के आधार पर कथ्य की अद्भुत कहन गीतों को अपनी संवेदनशीलता के संप्रेषण मे पाठकको अपनी धारा के साथ प्रवाहित कर तिरोहित कर देती है ।
उनके गीतों मे टटकेपन की ताजगी का आभास होता है ।
प्रथम गीत:-
जीवन भर भागा सुख पाने
इससे हांफ रहा ।
हुआ थकन से चूर ,वृद्ध
दरवाजा कांप रहा ।
व्यक्ति जीवन भर सुख पाने की लालसा में सारे कष्टों को सहता भागता ही तो रहता है जिससे अंत मे थक कर हांफने लगता है ।वृद्ध व्यक्ति की व्यथा कथा कहता थकन से चूर हुआ वह घर के पुराने हुयै दरवाजे की तरह कांपने लगता है अब गिरा की तब ।अब घर का जोगी विदेशी मत्र जपता हुआ पाश्चात्य संस्कृति में डूबकर घर के आंगन के बंटवारे की बात वह आंगन जो सभी के लिये महत्वपूर्ण था अब उसे फीता लेकर नाप रहे घर के लाड़ले हाथ ।
"घी से भरा दीप पूजा का
अब तो रीत रहा ।
खूब जला हर सुख-दू:ख झेला
कोई न मीत रहा "।
अंत मेंकहने को विवश कि-
कोई तो मुझको अपना कह दे
ये संताप रहा ।
हुआ थकन से चूर
वृद्ध दरवाजा कांप रहा ।
एक वृद्ध की दरवाजे को प्रतीक बनाकर मार्मिक पीड़ा को अभिव्यक्ति देता समसामयिक नवगीत । बहुत गंभीर चिंतन लिये ।
दूसरा गीत:-
सिंहासन पर बैठा बूढ़ा
आंखें बंद किये ।
मदहोशी के आये झौंके
जब-जब नथुनों में।
कभी नहीं महसूसा
केवल उनके कहने में ।"
अंधे धृतराष्ट्र अपने राज्य सिंहासन पर बैठे सत्ता के मद में चूर हुये ।उनके कान और मुंह भी बंद थे ।इस प्रकार से राज्य का राजा जो कि बूढ़ा होकर सिंहासन को छोड़ना भी नही चाहता। इसके लिये चाहे उसका कौई भी कितना अपमान करे आज की राजनीति पर कटाक्ष करते हुये वह चूकते नही आगे कहने से कि-
"आज कटा कल कट जायेगा
नीति बुलंद किये ।"
अंत में समस्या का समाधान भी करते हुये कहते हैं कि-
"तभी सुधर पायेगा "सिस्टम"
जब छोड़ोगे लीक ।
खुद भी न। बच पाओगे गर
फिर छलछंद किये ।"
बहुत साहस के साथ इ
सिस्टम के लीकसे हटकर परिवर्तन की बात और उसके बाद
चेतावनी भी कि यदि फिर कोई छलछंद किया तो बच नही पाओगे।
तीसरा नवगीत :-
आज के पारिवारिक माहौल और बच्चों के बचपन पर बहुत ही संवेदन शील गीत ।
"खिड़की पर बैठा है बचपन
नजरें सड़कों पर ।
सुबह के निकले मम्मी डैडी
आये सांझ पहर "।
अकेला बच्चा बिचारा क्या करे दिन भर घर में ।कोई दूसरा भी तो नहीं । इसीलिए खिड़की पर सड़कों पर लोगों का आना जाना ही देखता रहता है ।कब मम्मी -डैडी आयेंगे उन्हीं की प्रतीक्षा में उसका दिन बीतता ।
इसके आगे उसकी बेबसी देखिये कि -"ब्रेड बटर का किया नाश्ता
बाई लंच बनाती
भूख लगे तो दूध रखा है मम्मी
कह कर जाती ।
गये वह दिन जब मातायें अपने
बच्चों को कितने लाड़ प्यार से मना कर खिलाती थीं ।किंतु हाय रे वैश्वीकरण के युग ने बच्चों से उनका बचपन और माताओं से उनकी ममता छीन ली ।अब मां के पास बच्चों के लिये समय कहां ।
उषा सक्सेना जी की एक टिप्पणी
जवाब देंहटाएंछंदोबद्ध रचना में प्रवीण अनुरागी जी के नवगीतों में प्रकृति और पर्यावरण साथ चला है ।उनके नव गीत समाज की विवेचना करते उसकी विषमताओं और अने विसंगतियों पर तीखा प्रहार करते
सत्य के ठोस धरातल पर खड़े होकर ललकारते हैं । नये बिम्ब गढ़कर शब्द शिल्प उंकेरते नव्य नवल लगते ।तथ्यों के आधार पर कथ्य की अद्भुत कहन गीतों को अपनी संवेदनशीलता के संप्रेषण मे पाठकको अपनी धारा के साथ प्रवाहित कर तिरोहित कर देती है ।
उनके गीतों मे टटकेपन की ताजगी का आभास होता है ।
प्रथम गीत:-
जीवन भर भागा सुख पाने
इससे हांफ रहा ।
हुआ थकन से चूर ,वृद्ध
दरवाजा कांप रहा ।
व्यक्ति जीवन भर सुख पाने की लालसा में सारे कष्टों को सहता भागता ही तो रहता है जिससे अंत मे थक कर हांफने लगता है ।वृद्ध व्यक्ति की व्यथा कथा कहता थकन से चूर हुआ वह घर के पुराने हुयै दरवाजे की तरह कांपने लगता है अब गिरा की तब ।अब घर का जोगी विदेशी मत्र जपता हुआ पाश्चात्य संस्कृति में डूबकर घर के आंगन के बंटवारे की बात वह आंगन जो सभी के लिये महत्वपूर्ण था अब उसे फीता लेकर नाप रहे घर के लाड़ले हाथ ।
"घी से भरा दीप पूजा का
अब तो रीत रहा ।
खूब जला हर सुख-दू:ख झेला
कोई न मीत रहा "।
अंत मेंकहने को विवश कि-
कोई तो मुझको अपना कह दे
ये संताप रहा ।
हुआ थकन से चूर
वृद्ध दरवाजा कांप रहा ।
एक वृद्ध की दरवाजे को प्रतीक बनाकर मार्मिक पीड़ा को अभिव्यक्ति देता समसामयिक नवगीत । बहुत गंभीर चिंतन लिये ।
दूसरा गीत:-
सिंहासन पर बैठा बूढ़ा
आंखें बंद किये ।
मदहोशी के आये झौंके
जब-जब नथुनों में।
कभी नहीं महसूसा
केवल उनके कहने में ।"
अंधे धृतराष्ट्र अपने राज्य सिंहासन पर बैठे सत्ता के मद में चूर हुये ।उनके कान और मुंह भी बंद थे ।इस प्रकार से राज्य का राजा जो कि बूढ़ा होकर सिंहासन को छोड़ना भी नही चाहता। इसके लिये चाहे उसका कौई भी कितना अपमान करे आज की राजनीति पर कटाक्ष करते हुये वह चूकते नही आगे कहने से कि-
"आज कटा कल कट जायेगा
नीति बुलंद किये ।"
अंत में समस्या का समाधान भी करते हुये कहते हैं कि-
"तभी सुधर पायेगा "सिस्टम"
जब छोड़ोगे लीक ।
खुद भी न। बच पाओगे गर
फिर छलछंद किये ।"
बहुत साहस के साथ इ
सिस्टम के लीकसे हटकर परिवर्तन की बात और उसके बाद
चेतावनी भी कि यदि फिर कोई छलछंद किया तो बच नही पाओगे।
तीसरा नवगीत :-
आज के पारिवारिक माहौल और बच्चों के बचपन पर बहुत ही संवेदन शील गीत ।
"खिड़की पर बैठा है बचपन
नजरें सड़कों पर ।
सुबह के निकले मम्मी डैडी
आये सांझ पहर "।
अकेला बच्चा बिचारा क्या करे दिन भर घर में ।कोई दूसरा भी तो नहीं । इसीलिए खिड़की पर सड़कों पर लोगों का आना जाना ही देखता रहता है ।कब मम्मी -डैडी आयेंगे उन्हीं की प्रतीक्षा में उसका दिन बीतता ।
इसके आगे उसकी बेबसी देखिये कि -"ब्रेड बटर का किया नाश्ता
बाई लंच बनाती
भूख लगे तो दूध रखा है मम्मी
कह कर जाती ।
गये वह दिन जब मातायें अपने
बच्चों को कितने लाड़ प्यार से मना कर खिलाती थीं ।किंतु हाय रे वैश्वीकरण के युग ने बच्चों से उनका बचपन और माताओं से उनकी ममता छीन ली ।अब मां के पास बच्चों के लिये समय कहां ।
आज पटल डॉ. मुकेश अनुरागी के मनमुग्धकारी सशक्त नवगीतों से सरसित.है ।प्रस्तुत नवगीत कवि के संवेदनात्मक ह्रदय की सृष्टि हैं जो बाह्य अनुभूतियों को अपने अंतस की अनुभूतियों से तदाकार करने की संभावनाओं से परिपूर्ण हैं । गीत समसामियकता के अद्भुत शब्दांकन के साथ मनोभावों की सम्यक और सटीक अभिव्यक्ति का सच्चा दर्पण हैं । कवि जैसा देखता है, जैसा सोचता है और जैसा उस दृष्टिबोध को अपने से जोड़ता है, उसका रचना संसार तद्नुरूप होता चला जाता है । यही कवि का जीवन बोध, प्रतिभा और अन्तर्दृष्टि है जो गीतों को अभिनव प्रतीकों से सुसज्जित कर विशिष्ट और प्रभावी बना रहे हैं। डॉ. अनुरागी को बधाई और ऐसे सुगठित नवगीत पढ़ने का अवसर प्रदान करने के लिए समूह को साधुवाद।
जवाब देंहटाएंसुप्रसिद्ध समीक्षक और गीतकार श्रीमती कांति शुक्ला उर्मि जी की स्नेहिल टीप