मंगलवार, 22 जून 2021

रामकुमार कृषक जी के नवगीत भाग दो प्रस्तुति : समूह वागर्थ

भाग-दो 

समापन किश्त
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यों बैठा खग्रास त्रास के परचम फहराए :रामकुमार कृषक 
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प्रस्तुत हैं 
सान्ध्य बेला में रामकुमार कृषक जी के पाँच नवगीत जिनका संचयन हमने उनकी चर्चित फेसबुक वॉल से किया है।
समूह वागर्थ में आज की दूसरी और समापन कड़ी है।
समूह वागर्थ आज के कवि को यहाँ प्रस्तुत कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।
प्रस्तुत हैं पाँच नवगीत
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प्रस्तुति
मनोज जैन 
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(१)
दिन बहुत ठंडे 
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दिन 
बहुत ठंडे , 
एक कुर्ती पहन कुहरे की
ठिठुरते बेचते अंडे 
दिन बहुत ठंडे ! 

आग ... 
जिस पर 
उबलती है भूख उनकी 
और की खातिर , 
पसलियां गिनने 
निकल आई कहां से 
यह हवा शातिर , 

एक चिथड़ा खेस 
उनके पास भी था 
बन गए झंडे , 
दिन बहुत ठंडे ! 

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(२)

एक गन्ना चूसकर हम 
इस शहर में 
गाम जी लेंगे , 
गाम जी लेंगे कि अपना नाम जी लेंगे ! 

धूल - धूसर पंथ गोहर गंध 
खेतों का खुलापन 
और कोल्हू - बैल के तन में अभी 
ज़िंदा हिरन - मन , 

चौकड़ी भरते खयालों को संजोए 
एक आंगनहीन घर बेनाम जी लेंगे ! 

दूब -  जैसा नेह 
आंगन - गेह चौपालें - कथाएं 
नागफन ब्योहार अंधियारा घुटन 
गूंगी बिथाएं , 

देखने - भर को बड़प्पन हम बड़ों का 
हर गली कूचा सड़क बदनाम जी लेंगे ! 

धान - गेहूं -  ईख - जैसी सीख
पिसना और पिरना 
टूटकर उम्मीद जुड़ने की लिए 
पल - छिन बिखरना , 

ज़िंदगी की हर किरच फिर भी समेटे 
बेमज़ा - बेसूद सुबहो - शाम जी लेंगे !

(३)

छुरियों - कांटों से खाने का 
शौक आदमी का 
बहुत साफ संकेत 
नखूनों के बढ़ आने का 
हाथ छोटे पड़ जाने का ! 

देह स्वाद हो गई देह का 
खून हुआ पानी 
बिंब देख हंसती प्यालों में
आदिम शैतानी ,

झूठ-मूठ जूठन खाने का 
चाव आदमी का 
बहुत साफ संकेत 
मित्र - चारा उग आने का 
हाथ से हाथ मिलाने का ! 

राजरोगिणी हुई सभ्यता 
दर्शन अय्याशी
जा बैठे जनखे जनवासे 
जन को शाबाशी , 

हर चेहरे में ढल जाने का 
हुनर आदमी का 
बहुत साफ संकेत
नए नारे गढ़ लाने का 
मंच से उन्हें भुनाने का ! 

(४)

हार हुई तो 
प्रश्नों के संबोधन
उग आए 
पराजित उत्तर बिसुराए ! 

दाएं - बाएं हाथ हो गए
आएं - बाएं पैर
कुछ ऐसे दिन लगे 
कि अपने  / अपने रहे न गैर ,

यों टूटा आकाश 
धरा के आंसू ढुर आए ! 

शंका - शंका बेंत हो गई
नंगी - नंगी पीठ
कुछ ऐसा बुन लिया 
कथानक / पात्र हुए सब ढीठ ,

यों बैठा खग्रास
त्रास के परचम फहराए ! 
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(५)

नहीं मुझे इस बरस फसल में 
घाटा नहीं हुआ , 
हुआ असल में यही कि 
हिस्सा - बांटा नहीं हुआ ! 

मेहनत मेरी धरती तेरी 
यह क्या बात हुई , 
जेठ - भायटा मैं झुलसा 
तेरी बरसात हुई ; 

हलवाले का हाल 
भूख - भर आटा नहीं हुआ ! 
हुआ असल में यही कि 
हिस्सा - बांटा नहीं हुआ .... 

मैंने जोता - बोया - काटा 
तूने लूट लिया , 
मुझे महज़ दालान बैठ 
हुक्के - सा घूंट लिया ; 

चमरौधा अब लौं पांवों में 
बाटा नहीं हुआ ! 
हुआ असल में यही कि 
हिस्सा - बांटा नहीं हुआ ....

मेरी ढही झोंपड़ी / तेरी 
संसद - सौध बनी , 
गेहूं मेरी घुनी / हुई पर 
तेरी सोन - कनी ; 

शोषण का दानव अंगुल - भर 
नाटा नहीं हुआ ! 
हुआ असल में यही कि 
हिस्सा - बांटा नहीं हुआ .

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