सोमवार, 21 जून 2021

कवि उद्भ्रान्त के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

~ ।। वागर्थ ।। ~ 

        में आज प्रस्तुत हैं आदरणीय रमाकान्त शर्मा ' उद्भ्रांत ' जी के गीत ...' उद्भ्रान्त ' एक ऐसी शख्सियत जिसे हिन्दी की मुख्यधारा से किनारे करने की कोशिशें सदैव हुईं और कुछ हद तक सफल भी रहीं । उनका रचना संसार इतना व्यापक होते हुए भी उन्हें ढंग से पढ़ने वाले कुछ ही लोग हुए और समग्र रूप से पढ़ने वाले नहीं के बराबर । ऐसा इसलिए हुआ कि वह किसी धड़े विशेष से जुड़कर नहीं रहे , ऐसा स्वयं कवि का मानना है ।
      कारण कुछ भी रहे हैं हिन्दी साहित्य में किया गया उनका कार्य इतना विशद रहा फिर भी उस पर चर्चा करने के सम्यक प्रयास नहीं हुए और उनके साहित्य पर वह विमर्श नहीं हो सका जिसके वह हकदार थे ।
      वर्ष १९९९ में जब उद्भ्रांत जी लेखन म़े कुछ शिथिल पड़े उस समय डॉ. नामवर सिंह  जी का यह कहना कि आपके भीतर ‘प्रतिभा का विस्फोट’ होगा   और रवीन्द्रनाथ टैगौर जी से उनकी तुलना करने पर जो लोग उनके कृतित्व पर शांत थे , उनम़े भी हलचल हुई । 
स्वयं रमाकान्त उद्भ्रान्त जी ने इसे नामवर जी का अपने प्रति स्नेह माना ।
      चूँकि उनकी क़लम साहित्य की अनेक विधाओं पर अनवरत चली है और खूब चली है , ऐसे में वह किसी साक्षात्कार में पूछने पर कम लिखने वालो़ पर कहते हैं कि जाहिर है उनमें आग कम है , जिसमें अधिक आग होगी वह काम भी अधिक करेगा ।

     वागर्थ नवगीत को समर्पित समूह है अतः आज हम चर्चार्थ उनके नवगीत यहाँ प्रेषित कर रहे हैं । 
आप सभी से वागर्थ उम्मीद करता है कि समस्त पूर्वाग्रह से इतर आप सुधीजन अपनी समग्र दृष्टि रमाकान्त उद्भ्रांत जी के गीतों पर डालें और  बौद्धिक प्रतिक्रियाओं से उनके रचनाकर्म को स्नेह व समस्त पाठकों को लाभान्वित करें ...
25 गीत
उद्भ्रांत

1. राग यह आग है

शब्द की
साध है
शब्द को साध ले!

प्राण की घाटियाँ
शब्द से भर रहीं
अर्थ के फूल को
रागमय कर रहीं
राग यह
आग है
आग को बाँध ले!

शब्द को साधना
शून्य को साधना
ज्योति के सूर्य को
छंद में बाँधना
ब्रह्म है
सिद्ध यह शब्द
आराध ले!

शब्द की
साध है
   शब्द को साध ले!
 
2. महक रहा है कब से यह प्रतीक

महक रहा है कब से यह प्रतीक 
शब्दों के जंगल में

समझ नहीं पाता हूँ
बहुत खूबसूरत यह फूल दृष्टि में कैसे खिल गया 
मैं उस प्राचीन मार्ग से ही तो चला था
रास्ता नया कैसे मिल गया?

दहक रही है रक्तिम नयी लीक 
राहों के जंगल में
शब्दों के जंगल में 
महक रहा है कब से यह प्रतीक!

विगत कई सदियों से चिपके जो बासे संस्कार
सुनो, दूर बहुत छूट गए
पुरखों के कर्मकाण्ड के अंधे मानदण्ड
प्रातःकालीन सूर्य के स्वर से
टकराकर टूट गए

चहक रही है ताज़ी युवा सीख 
वृद्धों के जंगल में
महक रहा है कब से यह प्रतीक 
   शब्दों के जंगल में
 
3. एक बेचैनी

सोते हुए,
जगते हुए,
रोते हुए,
हँसते हुए,
गुंजलक में बाँध अपनी
एक बेचैनी मुझे-
पागल किये रहती सदा।

जन्म से लेकर अभी तक
मुक्त मैं इससे नहीं हो सका हूँ;
शीश धुनता रहा हूँ इसका रहस्य जानने,
किन्तु वह अबूझ ही रहा है और
एक क्षण के लिए भी मैं-
चैन से प्यारे! नहीं सो सका हूँ

सूखा तन
रूखा मन
सावन की रिमझिम के बीच
सपनों के पानी से विहीन
यह जीवन;

किन्तु फिर भी-
अचीन्हे आवेग में
तीव्रगामी गरुड़-पंखों पर बिठा
अन्तर के मटियाए नभ में उड़ाते हुए यहाँ-वहाँ
एक बेचैनी मुझे
बादल किए रहती सदा।

सत्य के गर्भ से निकली
एक बेचैनी मुझे-

हाँ वही बेचैनी मुझे
   पागल किये रहती सदा।
 
4. हज़ारों अभियोग-पत्र

पूरब से
सूर्य-कुंड में गोता मार कर
 निकली है
 प्रश्नों की भीड़

धूप में नहाई है, उजली है
आज बहस करने को मचली है
हज़ारों अभियोग-पत्र लिये है
वारुणी उन्मादों की पिये है

अंतर से
दर्प-कुंड में गोता मार कर
 निकली है
 प्रश्नों की भीड़
.
हल्ला-गुल्ला ज़ोरों से करती
क़द्दावर गूँज शून्य में भरती
मन की शंकाओं को जगा रही
नारे विध्वंसक है लगा रही

दिशि-दिशि से
शक्ति-कुंड में गोता मार कर
 निकली है
 प्रश्नों की भीड़
 
5. शून्य के इस खेत में

एक अंधी सदी में
खोये हुए हैं हम

सार्थकता को हमारी
रोशनी दिखती नहीं,
हमारी पहचान
हमें पत्र ही लिखती नहीं

शून्य के इस खेत में
बोये हुए हैं हम

भावनाएँ सुलगती हैं
राख के इस ढेर में,
हो चुके हैं ख़त्म कब के
ज़िंदगी के फेर में!

आग की इस सेज पर
   सोये हुए हैं हम
 
6. इस आदिम जंगल से

एक रिक्तता
मुझको पढ़ती है

मैं जो एक खुली हुई पुस्तक हूँ
काल के करों द्वारा
हौले-से दी जाती दस्तक हूँ।
ऊपर से दीख रहा जो
सचमुच नहीं हूँ
भू में,
नभ में,
सागर में हूँ-
सब कहीं हूँ;
बोध
बहुत ज़्यादा का होता है
लेकिन कुछ नहीं हूँ!
मुझ पर छा गई मूच्र्छना है
मेरी ऐसी विडंबना है-

कोलाहल को पहने
घूम रहा हूँ, लेकिन-
ऊँची मीनारों से फिसलकर
एक शून्यता
मुझ पर चढ़ती है!
एक रिक्तता मुझको पढ़ती है

मैं जो
चलता हूँ लिये शहर-शहर
मुझमें
विस्ताऽर ले रहे हैं
कोणार्क-सरीखे खँडहर।
रोशनी मुझे 
दिखलाई देती नहीं है
चेतना समय की
थी जहाँ अभी वहीं है
अँधियारे की सत्ता
फैली सब कहीं है

कई सभ्यताओं को
जीत चुका हूँ लेकिन,
इस आदिम जंगल से निकलकर
एक सभ्यता मुझसे लड़ती है!

   एक रिक्तता मुझको पढ़ती है
 
7. पूजाघर: तीन चित्र

एक ,जानवर

एक जानवर
पूजाघर में बैठा है!

नेत्र बंद हैं,
फूल नोंचता,
पंखुरियों को चबा रहा;
रह-रह खून-सने हाथों को
गंगाजल में डुबा रहा;
अपनी ताक़त में फूला है, 
ऐंठा है!
एक जानवर पूजाघर में 
बैठा है!

दो ,क़त्लघर

एक क़त्लघर
पूजाघर में चालू है!

इसके भीतर 
भोले, नाजुक भावों की हत्या होती,
संवेदना हमारी
पत्थर पर सिर पटक-पटक रोती
यह पथ जो
मरघट को जाता, ढालू है!
एक क़त्लघर पूजाघर में चालू है!

तीन ,नाचघर

एक नाचघर 
पूजाघर में जिन्दा है

वस्त्र उतारे इसमें 
संस्कृति नंगी होकर नाच रही
पतनोन्मुख समाज का सारा-
लेखा-जोखा बाँच रही
इसकी गर्दन में फाँसी का फंदा है!
   एक नाचघर पूजाघर में जिन्दा है!
 
8. बर्फ़ जम गयी है

खुल कर हम-तुम कैसे बात करें
यहाँ-वहाँ सब जगह
बर्फ़ जम गयी है

कच्चे नाखूनों से इसे कौन तोड़े
पता नहीं कहाँ गये दर्प के हथौड़े

गति में कैसे झंझावात भरें
तेज़ी से भागती
सदी थम गयी है

मन से टकराता है ऐसे सन्नाटा
कंठ में फँसे जैसे मछली का काँटा

कैसे हम क़दम साथ-साथ धरें
कठिन आग ये
ठौर-ठौर रम गयी है
बर्फ़ जम गयी है
   कैसे हम-तुम खुल कर बात करें।
 
9. बहुत दिनों बाद

बहुत दिनों बाद एक गीत लिखा है
लेकिन यह गीत नहीं पिछले गीतों जैसा

इसमें रोमांटिकता नहीं है
सच! इसमें भावुकता नहीं है
यह यथार्थ की टेढ़ी गलियों में घूमा है
इसने-खुरदुरा- वक़्त का चेहरा चूमा है
यह पानीदार ख़्वाब नहीं है
फिर भी इसका जवाब नहीं है
बहुत दिनों बाद एक स्वप्न दिखा है
लेकिन यह स्वप्न नहीं पिछले स्वप्नों जैसा

इसमें लिजलिजी गंध नहीं है
वही घिसा-पिटा छंद नहीं है
इसमें संस्पर्श गद्य का भी मिल जायेगा
शब्द-शब्द अनगढ़ साँचे में ढल जायेगा
यह पिघली हुई पीर नहीं है
इसकी कोख में नीर नहीं है
बहुत दिनों बाद एक ज़ख्म पका है
लेकिन यह ज़ख्म नहीं पिछले ज़ख्मों जैसा

   लेकिन यह गीत नहीं पिछले गीतों जैसा
 
10. अजगर काँपने लगे

एक प्रखर किरण-पुंज उछला
काले-काले अजगर काँपने लगे

कितने ही श्वेत-बिंदु
 लाल हुये
दर्पण थे, फ़ौलादी
 ढाल हुये

एक आग का पहाड़ पिघला
तटवर्ती मेघ हाथ तापने लगे

क्षण ने फैलाईं
 अपनी बाँहें
मिल गयीं नवीन
 सृजन को राहें

नक़्शे का विगत रूप बदला
नये सिरे से नक़्शा छापने लगे
मोरपंखी

फैलाया विषधर ने जाल मोरपंखी
चंदन की देह को सम्हाल मोरपंखी

घुमड़ रहे है काले आवत्र्तों में
बोझिल प्रश्नचिह्न
टकराते हैं आपस में सबके
दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न
सदियों के बाद आज ले बैठा है करवट काल मोरपंखी

छाया है कुहरा, अब नहीं नज़र
आती है कहीं धूप
लगता जैसे नभ के प्रांगण में
उग आया अंध-कूप
भर कर बिजली मन में जोर से अस्तित्व निज उछाल मोरपंखी

भूल जा तू भूतकाल के स्वर्ण-
स्वप्न का किरण-वितान
सामने पड़ा तेरे क्षत-विक्षत
होकर यह वत्र्तमान
   डाल दे दिशाओं की गरदन में वैजंतीमाल मोरपंखी
 
12. विशेषण से दूर

चलो थोड़ी देर की ख़ातिर
विशेषण से दूर हम हो जायँ

परिधियों में
बंद होकर रहें, यह अच्छा नहीं
दोस्त मेरे!
ज़िंदगी का अर्थ यह सच्चा नहीं
चलो थोड़ी देर की ख़ातिर
आवरण से दूर हम हो जायँ

द्वार-जो हैं बंद-मन के-
उन्हें बिलकुल खोल दें
गद्य की अंधी गुफा के बीच
कविता बोल दें
चलो थोड़ी देर की ख़ातिर
व्याकरण से दूर हम 
हो जायँ;

आवरण से दूर,
चलो थोड़ी देर की खातिर
   विशेषण से दूर हम हो जायँ!
 
13. एक उजला गीत

चाहता हूँ
एक ताज़ी गंध भर दूँ
सब दिशाओं में

तोड़ लूँ फिर 
आम्र-वन के ये अनूठे बौर
पके महुए आज
मुट्ठी में भरूँ कुछ और

खिलखिलाते
फूल वाले छंद धर दूँ
मृत हवाओं में

आज प्राणों में उतारूँ
एक उजला गीत
भावनाओं में बिखेरूँ
चित्रमय संगीत

जोड़ दूँ
बेजोड़ कोई श्लोक
जीवन की ऋचाओं में

   एक ताज़ी गंध भर दूँ सब दिशाओं में
 
14. पलकों की ओट-तले

सुस्मृतियों की चूनर
जब मुझको हौले-से छेड़ गयी तो
 पलकों की ओट-तले
घिर आई नूतन कादंबिनी

उतर चलीं ज्योति की घटायें
अंजलि में प्राण की
माटी भी गमकने लगी फिर
सुधि के दालान की

मुझ भूले-भटके को
ज्यों ही वह स्वप्न-राशि टेर गयी तो
 दर्पण की ओट-तले
तिर आई नूतन कादंबिनी
घिर आई नूतन कादंबिनी

पोर-पोर में सरसों फूली
आँखें रसमसातीं
मधु अतीत की सुगंध पीकर
पाँखें कसमसातीं

बीत गये की तरंग
जब मेरा वर्तमान घेर गयी तो
 गीतों की ओट-तले
इठलाई नूतन कादंबिनी
   घिर आई नूतन कादंबिनी
 
15. नील झील में

नील-झील में नीलम तैरे
देही पर कंचन
 अमर वे क्षण
 आज मैं कैसे भूलूँ
 बताओ कैसे भूलूँ

 डोल रही थी वायु पहनकर
 सुरभिमयी चूनर
 अँगड़ाई ले उठी प्राण की
 बगिया में केसर
रोम-रोम में मुखर हो गए
प्रीति भरे बंधन
 अमर वे क्षण
 आज मैं कैसे भूलूँ
 बताओ कैसे भूलूँ

 सपनों की बाँहों में 
 इंद्रधनुष थे झूल रहे
 मृगमरीचिका के घेरे
 साँसों में फूल रहे
भुवनमोहिनी छवि को लखकर
सहम गया दरपन
 अमर वे क्षण
 आज मैं कैसे भूलूँ
 बताओ कैसे भूलूँ

 किरणों के अवगुंठन में थे
 बँधे हुए हम-तुम
 गूँज रहे थे तन-मन पर
 गुलमोहर के सरगम
महक रहा था मौसम के
भुजपाशों में यौवन
 अमर वे क्षण
 आज मैं कैसे भूलूँ
 बताओ कैसे भूलूँ
 
16. घाटी में परछाईं

घाटी में काँप रही परछाईं
कब से आलिंगन में बाँधने खड़ा हूँ

मृगमरीचिकाओं के जंगल से
सत्य का गुलाब तोड़ता हूँ
जिनका जुड़ना नितान्त मुश्किल है
यादों के अंक जोड़ता हूँ

मुँह अपना ढाँप रही परछाईं
कब से मैं दरपन में बाँधने खड़ा हूँ

चूम रहा हूँ बेसुध हो कर मैं
इस मायावी विडम्बना को
एक-एक साँस जी रही है
आग भरी इस प्रवंचना को

पल में बन साँप रही परछाईं
   कब से मैं चन्दन में बाँधने खड़ा हूँ
 
17. क्यों बाँध लिया?

टूट जायँ
जो हल्के झटके से
ऐसे बेहद कच्चे
धागों से हमने
क्यों अपने प्राणों को बाँध लिया

घाटी में डोल रहे थे हम स्वच्छंद
आलिंगनबद्ध किए थी मादक गंध
सरगम ने साँसों में नृत्य था किया
सोम-कलश चुपके-से हृदय ने पिया

गिरवी रख अपनी स्वच्छंदता
और ओढ़कर यह निस्पंदता
शंका के ज़हरीले नागों से हमने
क्यों अपने प्राणों को बाँध लिया

चाँदनी बरसती रहती मन के बीच
देती थी भावों का कल्पवृक्ष सींच
हिलते थे प्रीति-किन्नरी के केयूर
उड़ता रहता था दिशि-दिशि में कर्पूर

साधों की वह नगरी छोड़कर
ज्योतिपर्व से नाता तोड़कर
अब इन ढलते दीपक-रागों से हमने
क्यों अपने प्राणों को बाँध लिया?

चटकी थी अवचेतन की हल्की पर्त
खिलखिला उठी तन की अलबेली शर्त
आँगन में झुक आई केसरिया डाल
गूँजने लगे मृदंग-ध्वनि से चैपाल

त्याग पारिजाती अमराइयाँ
आँख में समेटे परछाइयाँ
अब इन उजड़े-उजड़े बागों से हमने
क्यों अपने प्राणों को बाँध लिया?

टूट जायँ मामूली झटके से
ऐसे बेहद कच्चे धागों से हमने-
   क्यों अपने प्राणों को बाँध लिया? 
18. अब चलना है

यह पाल उठा दे
रे माँझी!
 अब चलना है

तट से अब तेरा कोई
सम्बंध नहीं है मीत,
क्यों तू इससे जोड़ रहा है
निश्छल अपनी प्रीति,
चार दिना की चाँदनियाँ
-यह बड़ी पुरानी रीति।

तू जिसके पीछे दौड़ रहा,
मृगछलना है;
जो अभी लिखा-
वह गीत उठा दे
रे माँझी!
 अब चलना है

जानबूझकर
नहीं महकते हैं
प्रातः के फूल
फैल रहा तम
क्योंकि बिछे हैं-
यहाँ
शूल ही शूल
कब से यहाँ उड़ रही है
यह-अवसादों की धूल;

यह
पछताकर
हाथों को फिर-फिर मलना है,
जो छिपी हुई-
वह गंध उठा दे
रे माँझी!
 अब चलना है

अब क्यों यहाँ खड़ा है माँझी,
क्यों बाँधे है नाव?
देख रहा जिस ओर
नहीं है-
अब वह तेरा गाँव,
खूब चमकने दे
मन के
ये रंगबिरंगे घाव

यह पलकों की सीपी से
मोती ढलना है
जो जनम गया-
वह दर्द उठा दे
रे माँझी!
 अब चलना है

यह पाल उठा दे
   रे माँझी!
 
19. बिंधी हुई मछली का गीत

मछुआरे!
अब यह निर्मल बंसी खींच ले!

बंसी जिस पल तूने डाली थी
उस पल से बिंधी हुई है;
एक आग -अँधियारे की-
निर्जल प्राणों में रुँधी हुई है।

अंधियारे!
अब तो पापी पलकें मींच ले!

इस पत्थर-सन्नाटे के दिल में,
एक बोल महक रहा है;
प्यास कर रही चिरौरियाँ, लेकिन,
यह पानी दहक रहा है।

बदरा रे!
कण-कण को अमृत से सींच दे!
   मछुआरे!
 
20. एक तमाशा उर्फ़ बाजीगर का गीत

आ बंजारे!
तुझे दिखाऊँ एक तमाशा

आग कि जो इस हवन-कुंड में दहक रही है
मेरे भीतर फूल-सरीखी महक रही है;
बोल रही है जल की भाषा,
आ बंजारे!
तुझे दिखाऊँ एक तमाशा

यह पहाड़ जो, गर्वोन्नत, सिर तान खड़ा है
मेरी छाती पर कैसा चुपचाप पड़ा है;
बना हुआ है तोला-माशा,
आ बंजारे!
तुझे दिखाऊँ एक तमाशा

मीठा झरना घाटी के भीतर बहता था,
अपनी प्यास बुझाओ यह सबसे कहता था,
मैं जब लौटा, प्यासा-प्यासा,
आ बंजारे!
तुझे दिखाऊँ एक तमाशा

जिसकी माँग बीच मैंने तारे बिखराये,
और पाँव में मोती के बिछुए पहनाये
निकली वही तवायफ़ आशा,
आ बंजारे!
तुझे दिखाऊँ एक तमाशा

पत्थर है, लेकिन पल-पल में पिघल रही है,
मेरे मन में दुष्ट निराशा मचल रही है,
बाँट रही है दूध-बताशा,
आ बंजारे!
तुझे दिखाऊँ एक तमाशा

जीवन की चैपड़ खेलते बहुत दिन बीते
रहा मुक़द्दर ऐसा, हर बाज़ी हम जीते,
अबकी पलट गया हर पाँसा,
आ बंजारे! 
तुझे दिखाऊँ एक तमाशा

जीवित रहने, इंच-इंच जो खिसक रही थी,
मरुथल के बीच में पड़ी जो सिसक रही थी,
अमृत पीती वही पिपासा,
आ बंजारे!
तुझे दिखाऊँ एक तमाशा

जल की तलाश करते-करते आग हुई जो
जलते अनंत मरु में हिरना राग हुई जो
अमृत पीती वही पिपासा
आ बंजारे!
   तुझे दिखाऊँ एक तमाशा
 
21. सुबह छंद जो धोए थे

तेरी तन-बगिया की विविध विधाओं में
मौलसिरी के बिरवे फूल रहे

कामायनी चाँदनी की चूनर ओढ़े
क्षीरोदधि में डुबकी लगा रही
श्लोक ‘स्वप्न-वासवदत्ता’ के रस-भींगे
प्राण-बाँसुरी अब गुनगुना रही

सोम-कलश में सुबह छंद जो धोए थे
पलक-अरगनी पर अब झूल रहे

रोम-रोम में योजनगंधा की खुशबू
घुँघरू पहन नाचती आती है
साँस-साँस पर मधु से लिखी अमर गीता
पगली प्रीति बाँचती जाती है

चूम रहे हैं इन अधरों को वे ही क्षण
   जो अब तक हरदम प्रतिकूल रहे
 
22. एक बिम्ब

एक याद देता हूँ
जूड़े में 
गूँथ लो

छंद-सेतु 
टूट रहा है
प्रण 
पीछे छूट रहा है
एक गीत देता हूँ
होठों में 
गूँथ लो

यह क्षण 
अब फूल गया है
हमें-तुम्हें 
भूल गया है
एक बिम्ब देता हूँ
प्राणों में 
गूँथ लो

फूल नहीं 
महक रहे हैं
रंग सभी 
दहक रहे हैं
एक ज्योति देता हूँ
सपनों में 
गूँथ लो

एक याद देता हूँ
जूड़े में 
   गूँथ लो
 
23. खोज कर रहा हूँ

दूर कर दिया जिसने हमें-तुम्हें
खोज कर रहा हूँ मैं उस रहस्य की

मन का दुर्गम तिलिस्म खुल गया
धूप में अँधेरापन घुल गया
वक़्त को पछाड़ने चला था जो
कहाँ खो गई संज्ञा उस सदस्य की

हृदय हो गया है अंधा कुआँ
निकल रहा कब से काला धुआँ
खुद को भी समझ नहीं पाता है
कैसी है यह विडंबना मनुष्य की

ढहती जा रही यह इमारत है 
धुँधली पड़ गई हर इबारत है
वर्तमान ज़ख्मी उसका हुआ
   लिपि जिसने पढ़ रक्खी थी भविष्य की
 
24. प्राण हुये सूर्यमुखी

किरण याद की
ज्यों ही
झुकी
प्राण हो गये मेरे सूर्यमुखी

समय की भुजाओं में
कस्तूरी बलखाने लगी
एक सनातन गाथा
नये सिरे से गाने लगी

पंक्ति गीत की
ज्यों ही
लिखी
प्राण हो गये मेरे सूर्यमुखी

एक गंध अलबेली
फिर से अँगड़ाई ले उठी
साँस-साँस में कोई
मीठी शहनाई बज उठी

छटा जादुई
ज्यों ही
दिखी
   प्राण हो गये मेरे सूर्यमुखी
 
25. मरुस्थल का बयान

मैं सदियों से घोषित मरुथल हूँ
प्रीति के सरोवर में डूबा आकंठ
भटक गया कैसे यह मेघ!

यह रस में डूबा टुकड़ा बादल का
कैसे इस मरुथल में आ गया?
आते ही आखि़र, कैसे यह मेरे मन के-
आसमान पर पूरा छा गया!

मैं सदियों से सोयी हलचल हूँ,
गीत के सरोवर में डूबा आकंठ
भटक गया कैसे यह मेघ!

कितने ही युग से ख़ामोश पड़ा हूँ,
चहलपहल मुझमें होती नहीं
प्राणों की धरती उर्वर है, लेकिन-
प्रकृति बीज मुझमें बोती नहीं!

मैं तो सदियों से अस्ताचल हूँ,
जीत के सरोवर में डूबा आकंठ
   भटक गया कैसे यह मेघ!

-बी-463, केंद्रीय विहार,
सेक्टर-51, नोएडा-201303
संपर्क: 9818854678
udbhrant@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें