वागर्थ में आज
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महाप्राण निराला की हस्तलिपि में उनकी एक दुर्लभ रचना और उनके दस नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ सम्पादक मण्डल
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निराला के नवगीत
1. खुला आसमान
बहुत दिनों बाद
खुला आसमान!
निकली है धूप,
हुआ खुश जहान।
दिखीं दिशाएँ,
झलके पेड़,
चरने को चले
ढोर-गाय-भैंस-भेड़,
खेलने लगे लड़के
छेड़-छेड़-
लड़कियाँ घरों को
कर भासमान।
लोग गाँव
गाँव को चले,
कोई बाजार,
कोई बरगद के पेड़ के तले
जाँघिया-लँगोटा ले,
सँभले,
तगड़े-तगड़े सीधे नौजवान।
पनघट में
बड़ी भीड़ हो रही,
नहीं खयाल आज
कि भीगेगी चूनरी,
बातें करती हैं
वे सब खड़ी,
चलते हैं
नयनों के सधे बान।
2. स्नेह निर्झर बह गया है
स्नेह-निर्झर बह गया है !
रेत ज्यों तन रह गया है ।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-
जीवन दह गया है ।"
"दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है ।"
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा ।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
कवि कह गया है ।
3. बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु !
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु !
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव, बन्धु !
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बन्धु !
4. टूटें सकल बन्ध
टूटें सकल बन्ध
कलि के, दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गन्ध।
रुद्ध जो धार रे
शिखर - निर्झर झरे
मधुर कलरव भरे
शून्य शत-शत रन्ध्र।
रश्मि ऋजु खींच दे
चित्र शत रंग के,
वर्ण - जीवन फले,
जागे तिमिर अन्ध।
5. रँग गई पग-पग धन्य धरा
रँग गई पग-पग धन्य धरा,---
हुई जग जगमग मनोहरा ।
वर्ण गन्ध धर, मधु मरन्द भर,
तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर
खुली रूप - कलियों में पर भर
स्तर स्तर सुपरिसरा ।
गूँज उठा पिक-पावन पंचम
खग-कुल-कलरव मृदुल मनोरम,
सुख के भय काँपती प्रणय-क्लम
वन श्री चारुतरा ।
6. वे किसान की नयी बहू की आँखें
नहीं जानती
जो अपने को खिली हुई--
विश्व-विभव से मिली हुई,--
नहीं जानती
सम्राज्ञी अपने को,--
नहीं कर सकीं
सत्य कभी सपने को,
वे किसान की
नई बहू की आँखें
ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग
बन्द कर पाँखें;
वे केवल निर्जन के
दिशाकाश की,
प्रियतम के प्राणों के
पास-हास की,
भीरु पकड़ जाने को हैं
दुनिया के कर से--
बढ़े क्यों न वह पुलकित हो
कैसे भी वर से।
7. अट नहीं रही है
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में,
मंद - गंध-पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
8. खेलूँगी कभी न होली
खेलूँगी कभी न होली
उससे जो नहीं हमजोली ।
यह आँख नहीं कुछ बोली,
यह हुई श्याम की तोली,
ऐसी भी रही ठठोली,
गाढ़े रेशम की चोली-
अपने से अपनी धो लो,
अपना घूँघट तुम खोलो,
अपनी ही बातें बोलो,
मैं बसी पराई टोली ।
जिनसे होगा कुछ नाता,
उनसे रह लेगा माथा,
उनसे हैं जोडूँ-जाता,
मैं मोल दूसरे मोली
9. उत्साह
बादल, गरजो !
घेर घेर घोर गगन,
धाराधर जो !
ललित ललित, काले घुँघराले,
बाल कल्पना के-से पाले,
विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो !
बादल, गरजो !
विकल विकल, उन्मन थे उन्मन,
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आये अज्ञात दिशा से अनन्त के घन
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो !
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