वागर्थ में आज
शैलेन्द्र शर्मा जी के नवगीत
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नई सदी के.....
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नई सदी के
नये गीत हैं
कहीं ताप हैं, कहीं शीत हैं
कुहरीले हैं कहीं
कहीं पर
मधुऋतु जैसे धूप धुले हैं
रोशनदानों
और खिड़कियों
दरवाजों से खुले- खुले हैं
ऊॅंची- नीची
पगडण्डी पर
कहीं हार हैं, कहीं जीत हैं
देशकाल में
विचरण करते
संवेदन में ये प्रवीण हैं
ये ही किंकर
ये ही शंकर
नित्य सनातन, चिर नवीन हैं
इनकी आन-बान
अपनी है
यें पंकिल हैं, पर पुनीत हैं
चट्टानों को
पिघलायेंगे
दलदल का पानी सोखेंगे
परती, ऊसर में
ये उगकर
धरती का श्रंगार करेंगे
ये कलाम हैं
ये कबीर हैं
अधुनातन हैं, शुभ अतीत हैं
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फड़क रही नस-नस
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रामजियावन बाँच रहे हैं
रामचरितमानस
"होइहैं सो जो राम रचि राखा
को करि तरक बढ़ावहि साखा"
बचपन से पचपन तक पहुँचे
रटी यही जीवन परिभाषा
आँख खुली तो नथुने फूले
फड़क रही नस-नस
"ढोल-गँवार-सूद्र-पसु-नारी
सकल ताड़ना के अधिकारी"
राजतंत्र से लोकतंत्र तक
उक्ति शोषितों पर यह भारी
तीर वही हैं,वही निशाने
बदला है तरकश
"रामकथा सुन्दर करतारी
संसय विहग उड़ावनहारी"
कलजुग में त्रेता की गाथा
कितनी सच है,हे त्रिपुरारी
संशय के इस विहग जाल में
जकड़ रहे बरबस
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मन भटके दर-दर
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ऊँची-ऊँची मीनारों में
बौने-बौने घर
तन तो छत के नीचे रहता
मन भटके दर-दर
बाहर से दिखते हैं जैसे
कोई राजमहल
पर भीतर के सन्नाटे से
जी है रहा दहल
घर में रहते हुए सैकड़ों
रहते हैं बेघर
वैसे तो सारी सुविधाएँ
हैं मीनारों में
लेकिन तंगी रहती है
घर-घर दीवारों में
जीवन सहज नहीं फिर भी कुछ
उड़ते हैं बेपर
"ऊँच निवास, नीच करतूती"
दिखती है अक्सर
गुरबत रह-रह जिसके आगे
धुनती अपना सिर
मानुषता पर पशुता हावी,
चुभते हैं नश्तर
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नई सदी
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नई सदी बाजार है बाबा
जिन्सों का भण्डार है बाबा
आँख खुले तो घर में हरदम
आँख बिछाये मिलता है
अमुक-अमुक आकर्षक सस्ता
लो खरीद यह कहता है
विज्ञापन ही विज्ञापन हैं
कहने को अखबार है बाबा
टी.वी.चैनल, सैर-सपाटे
घर-आँगन,रिश्ते-नाते
सब पर यह भारी पड़ता
सब इसके अंतर्गत आते
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा
इसका ताबेदार है बाबा
इसका सम्मोहन कुछ ऐसा
हम आ जाते झाँसे में
जैसा चाहे ढ़ाल रहा यह
सबको अपने ही साँचे में
मुखमण्डल से नभमण्डल तक
इसका कारोबार है बाबा
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कमतर हुए गुलाब
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दस रुपये की गुड़िया बिकती
'टेडीबियर' हजार का
कसने लगा गले में फंदा
विश्वग्राम-व्यापार का
आलू भरे पराठे भूले
जीरा डाला छाछ
'पीज़ा-बर्गर'अच्छे लगते
'कोल्डड्रिंक' के साथ
'स्लाइस-माज़ा' मन को भाये
आम लगे बेकार का
चटनी और मुरब्बे फीके
'सॉस-जैम' की धूम
लम्बा पेग चढ़ाकर 'डॉली'
रही नशे मे ं झूम
पानी-पानी जिसके आगे
झोंका सर्द बयार का
क्यारी-क्यारी उगे कैक्टस
कमतर हुए गुलाब
लोकसंस्कृति लगती जैसे
दीमक लगी किताब
भूल गए इतिहास पुराना
हम अपने बाज़ार का
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अलग-अलग साँचे पीढ़ी के
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खुली 'फेसबुक',हुई दोस्ती
शीला-श्याम मिले
सोलह की शीला थी केवल
सत्रह के थे श्याम
'इंटरनेटी 'चैटिंग' करना
मनभावन था काम
सच कहते हैं दूर ढ़ोल के
लगते बोल भले
धीरे-धीरे बढ़ी गुटुर-गूँ
फिजां हुई मदमस्त
चाहे-अनचाहे समाज की
हुई वर्जना ध्वस्त
फिर उड़ान के पहले ही
पाँखी के पंख जले
'आनरकिलिंग' श्याम के हिस्से
शीला को एकान्त
और कोख में ही 'विप्लव' को
किया गया फिर शान्त
अलग-अलग साँचे पीढ़ी के
किस में कौन ढ़ले
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प्रेक्षारानी
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प्रेक्षारानी सुनो कहानी
आनेवाले कल की
होगी हर तस्वीर भयावह
बस्ती की,जंगल की
वन सिमटेंगे उपवन में
उपवन कल क्यारी में
मिला करेगी प्राणवायु
कालाबाजारी में
मात्र अजायबघर में होगी
तब लकड़ी संदल की
सेतु और तटबंध रहेंगे
नदी नहीं होगी
तन-मन से सब रोगी होंगे
भोगी क्या जोगी
खून से बढ़कर बेशक ज्यादा
कीमत होगी जल की
धड़ तो होगा मानुष का
पर सिर होगा पशु का
ताली बजा करेंगे स्वागत
परखनली शिशु का
कीमत लेकिन दो टके न होगी
बहते काजल की
'वेलेंटाइन-डे' के आगे
जश्न सभी फीके
नाचेंगी विकृतियाँ सिर चढ़
'रम-ह्विस्की' पी के
याद किसे फिर रह जायेगी
'खिचड़ी-पोंगल' की
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रामभरोसे देख रहे हैं
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जर्जर है पर रंगी-पुती है
चौखम्भे पर टिकी इमारत
चरों खम्भे हैं बड़बोले
चारों के चारों अलबेले
अपने-अपने गाल बजाकर
फेंक रहे औरों पर ढ़ेले
देखो,इनके चेहरे देखो
समय आ गया पढ़ो इबारत
हर खम्भे का सीना चौड़ा
दरपन से अपना मुँह मोड़ा
अलग-अलग ब्यौरा है सबका
झूठा ज्यादा, सच्चा थोड़ा
कदम मिलाकर चलना था, पर
अपनी-अपनी करें कवायद
जब जी चाहे रंग बदल दें
जब जी चाहे ढ़ंग बदल दें
खुद चेहरे पर लगा मुखौटे
जिसपर चाहें कालिख मल दें
रामभरोसे देख रहे हैं
लोकतंत्र की यही रवायत
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फोटो में शिव-पारबती
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भूतपूर्व परधान 'अनोखे'
वर्तमान परधान-पती
परधानी अब भी उनकी है
कहने को है 'रामरती'
माला पहन रामरती संग
फोटो खिंचवाई
पैसा देकर पेपर में फिर
फोटो छपवाई
अब भी अपने 'हल्के'के वे
एकमात्र हैं क्षत्रपती
पंचायत हो जिला अदालत
वे ही निपटाते
कल्लू-मुल्लू,चोर-सिपाही
उनकी ही गाते
टीप दिया करती कागज पर
सिर्फ अँगूठा रामरती
जिसका एक अँगूठा करता
है वारे-न्यारे
वही उपेक्षित महफिल में
रहती एक किनारे
घर भर की दासी है लेकिन
फोटो में शिव-पारबती
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विरासत
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मिली विरासत में है हमको
उथली बहुत नदी
अवरोधों को ढ़ोते- ढ़ोते
नदी हुई असमर्थ
शनैः शनैः जीवित होने के
खोये अपने अर्थ
तिस पर आयातित कचरे को
झोंके नई सदी
अपनी रौ में समय बेरहम
सटकाये चाबुक
घुट- घुट कर दम तोड़ रहे हैं
प्राणी जो नाजुक
बुरी तरह से हाॅंफ रही है
पीढ़ी बोझ लदी
सूने तट, वंशीवट सूने
बहुत बुरा है हाल
अट्टहास कर रहे कीच में
जलकुम्भी- शैवाल
थककर हार रही है नेकी
खुश हो रही बदी
माॅंग समय की यही कि अब हम
इसको साफ करें
करके यत्न भगीरथ वाले
तट पर दीप धरें
आँख फाड़ फिर जिसकी छवि को
देखे नई सदी
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हाँ ,देखना
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हाॅं, देखना
इस झील में ही एक दिन
फिर नये शतदल खिलेंगे
आज जलकुम्भी
भले छायी हुई हो
नीर- निर्मल सतह पर
काई हुई हो
यत्न कर इनको हटाओ
और देखो
झाॅंकते बादल मिलेंगे
फिर दिखेंगे
तैरते जल में शिकारे
इन्द्रधनुषी
रंग वाले छोर सारे
बाॅंह में फिर बाॅंह डाले
इसी जल को
छींटते करतल दिखेंगे
फिर अजानें
शंख- ध्वनियाँ साथ होंगी
अर्घ्य देती
युगल छवियाँ साथ होंगी
फिर तरंगित पंक्तियों में
दीप अनगिन
डोलते झिलमिल मिलेंगे
परिचय
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नाम : शैलेन्द्र शर्मा
जन्मतिथि : 14 अक्टूबर 1947
जन्मस्थान : बिन्दकी, जनपद-फतेहपुर( उ. प्र.)
शिक्षा :स्नातक
सम्प्रति : भारतीय रिज़र्व बैंक से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के
पश्चात स्वतंत्र लेखन.
विधाएँ : गीत-नवगीत, ग़ज़ल, दोहे, दुमदार दोहे,
कुण्डलिया, मुक्तक, अतुकांत रचनाएँ,
साहित्यिक/सामाजिक लेख एवं यात्रा संस्मरण
आदि
प्रकाशन : 'सन्नाटे ढ़ोते गलियारे'(गीत-नवगीत संग्रह, वर्ष-
2009)
'रामजियावन बाँच रहे हैं'( नवगीत संग्रह, वर्ष-
2018)
'ऊसर में टेसू खड़े'(दोहा संग्रह, वर्ष-
2019)
अन्य : देश की स्तरीय पत्र/पत्रिकाओं में रचनाओं का
अनवरत प्रकाशन एवं दो दर्जन से अधिक समवेत संकलनों में रचनाएँ संकलित.
पुरष्कार एवं सम्मान : देश की अनेक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित.
स्थायी पता : 248/12, शास्त्री नगर, कानपुर-208005
दूरभाष : 6387100753/9336818330
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