ट्रेन पर चढ़ना जिन्हें था ट्रेन उन पर चढ़ गई :
रंजन कुमार झा
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कविता में भावों की तूलिका से अपने समय की विडम्बनाओं,त्रासद स्थितियों और सामाजिक सरोकारों को युवा कवि रंजन झा सलीके से उकेरते हैं। प्रस्तुत इन कविताओं में कहीं कहीं अंग्रेजी शब्दों का बाहुल्य खटकता हैं फिर भी यथार्थ बोधी प्रस्तुत रचनाओं को पढ़कर उनसे भविष्य में और बेहतर की उम्मीद बँधती है।
वागर्थ में आज पढ़ते हैं युवा कवि डॉ.रंजन कुमार झा जी के नौ नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ
(१)
फाँसी के फंदे से खुद ही
लटक रहा है न्याय
स्वास्थ्य व्यवस्था ग्लूकोज पर
अस्पताल सब हैंग
देश बेड पर, लूटे जिसको
लोकतंत्र का गैंग
सड़े गले सिस्टम को भी हम
करते जस्टीफाय
पीएचडी डिग्री धारी भी
होना चाहे प्यून
पहुँच पैरवी नित्य बहाते
प्रतिभाओं का खून
मनरेगा में काम ढूंढते-
एम. ए. भी असहाय
निर्वासित सब फूल हुए हैं
कांटों के सिर ताज
दबा दी गई है शाखों की-
पत्तों की आवाज
जड़ में माली ही डाले विष
क्या हम करें उपाय
(२)
दवा समझकर जिन्हें चुना था
वही असल में दर्द हुए
जिनके तन पर जितने कपड़े
वे उतने बेपर्द हुए
बाहर दिखती चमक-दमक पर
अंतर से हैं मैले
मीठे फल जो दीख रहे हैं
वे हैं तिक्त कसैले
छल व्यापारी,छल नायक सब
छलियों के हमदर्द हुए
सभी मछलियाँ देश निकाले
को अभिशप्त हुई हैं
सितुए घोंघे सबकी जल बिन
साँसें तप्त हुई हैं
देव बने जो जलजीवों के
मगरमच्छ, बेदर्द हुए
कबूतरों को बता दिया है
जंगल ने अपराधी
हिरणों के मग में भूसे भर
बना दिया उन्मादी
राम नाम रटने वाले भी
तोते अब सरदर्द हुए
चूजों के भक्षण में शामिल
जो जो साँप रहे हैं
उन साँपों, कपटी कपियों को
पक्षी भाँप रहे हैं
खौलेंगे शोणित खग के भी,
अभी भले हैं सर्द हुये ।
(३)
गाँव की दारुण कथा
हम क्या बताएँ
वार्ड का मेंबर
गवर्नर से बड़ा है
नाग बन प्रधान
काढ़े फ़न खड़ा है
मुफलिसों पर जुल्म की
सौ यातनाएँ
होम तक अब है
डिलीवरी बोतलों की
राज है बस
मनचलों की, पिस्टलों की
सिसकियों में कैद झुनिया
की व्यथाएँ
सभ्यता के वृद्ध पीपल
मौन साधे
हैं विवश, निज वंशजों में
देख व्याधे
रो रहे दुत्कार सह,
अवहेलनाएँ
गाँव की दारुण कथा
हम क्या बताएँ
(४)
चुप रहना है उसे बारहा
अगर बचानी अपनी जान
रामराज्य में सीताओं को
मुँह में रखना नहीं जुबान
नहीं भूलती अग्निपरीक्षा
का गुजरा वह जलता क्षण
कैसे भूलेगी पाँचाली
द्यूत सभा, वो चीरहरण
त्रेता-द्वापर से कलयुग
तक
झेल चुकी इतने अपमान
गोद अगरचे सूनी है तो
भोर -साँझ गाली खाना
अगर कभी 'उम्मीदों से है'
अल्ट्रासाउंड में जाना
गिरवाना फिर भरी कोख वह
पुत्र नहीं है गर संतान
चर्चाएँ नारी विमर्श की
है समाज की इक हॉबी
प्रगति पंथ में रोड़े बनकर
खड़ी रही है इक लॉबी
अंतस-बाहर चोटिल उसका
भले दिखे न कोई निशान
रामराज्य में सीताओं को
मुँह में रखना नहीं जुबान ।
(५)
हरियाली को निगल रहा है
जंगल का कानून
बरगद गूलर महुआ जामुन
सबके पीले पात हो रहे
छोटे डूब सरीखे पौधे
उगते ही बदजात हो रहे
फल देने वाले तरुवर की
आंखों में है खून
पढ़े-लिखे खरगोश
आजकल
अर्बन नक्सल हैं कहलाते
जो अपराधी हैं गीदड़ वो
वीजा लेकर फुर उड़ जाते
मांग रही थी न्याय गिलहरी
तभी दी गई भून
जब गदहे ने कहा खेत पर
मेरा है अधिकार पुराना
बीवी बच्चों के सँग उसको
हवलदार ले आया थाना
पेस्टीसाइड उसे पिलाया
खींच लिया नाखून
हरियाली को निगल रहा है
जंगल का कानून
(६)
रोटियाँ
फिर हो गई
जालिम सियासत की शिकार
ट्रेन पर
चढ़ना जिन्हें था
ट्रेन उन पर चढ़ गई
फिर विवशताएँ,
कफन की दास्तानें
गढ़ गई
सूट पहने
इस सियासत का दिखा
सब कुछ उघार
भूख के
सब प्रश्न बँटकर
चीथड़ों में रह गए
मांग के
सिंदूर धुलकर
पटरियों पर बह गए
ग्रामवासिन
भारती
रोती रही जेवर उतार
भिंच रही हैं
अब उपेक्षित
रोटियों की मुठ्ठियाँ
इक मुकम्मल
जंग की सब
सज गई है गोटियाँ
हो गयी
पहचान इसकी
कौन है रंगा सियार
(७)
बीज अँधेरे का बोते हम
कैसे हो उजियाली
ढूंढ रहे अब नारों में हम
जल जीवन हरियाली
पहले तरुवर काट काट सब
तहस-नहस कर डाला
अब जल बिन बंजर जमीन
मुंह का छिन रहा निवाला
जिंदा खेतों को दहकाया हमने जला पराली
कदम कदम पर, कंकरीट का
चहुँदिश विपिन उगाकर
दम्भ सभ्य होने का भरते
हम कॉलर फलकाकर
साधु बताते हैं अपने को
दे औरों को गाली
कुदरत ने तो प्यार जताया
हम ही दुश्मन निकले
कहते हैं सब पानी को ले
युद्ध न इक ठन निकले
सूख रहे सब ताल सरोवर
नदी हो गई नाली
(८)
कई घरों से लौटी होली
रंग रहे मुरझाये
युग-युग से झेला कृषकों ने
महाजनी पथराव
कांधे पर लटका सलीब-सा
रहता अर्थाभाव
जब भी निकट पर्व आता है
मन उसका घबराये
सूखा, अधिक वृष्टि जो भी हो
हुई फसल हलकान
ऐसे में मुश्किल खरीदना
बच्चों की मुस्कान
उत्सव फिर बेरंग रहेगा
सोच जिगर जम जाये
उदर भरेंगे, छलिया वादे,
करता जयजयकार
नयन अधखुले टूटे तारों
से भी करे गुहार
वाम विधाता, दक्षिण शासन
कोड़े ही बरसाये
(९)
खोया खोया सा लगता है
कल का मेरा गाँव
गाँव वही था, जिसमें जीवन
होता था खुशहाल
मिलती थी जी भर खाने को
सब्जी- रोटी- दाल
अपने हित में किया किसी ने
जहाँ कभी न कांव
जहाँ परिन्दे भी करते थे
राम नाम का जाप
वहाँ भजन भी लगता सबको
केवल शोर - प्रलाप
रही न तुलसी घर-आँगन में
खोई पीपल-छाँव
जहाँ 'अतिथि देवो भव' वाला
संस्कार-व्यवहार
वहाँ गली हर, घर-घर में अब
मात-पिता ही भार
भाई ही भाई पर नित दिन
खेला करते दाँव ।
परिचय -
रंजन कुमार झा
जन्मतिथि -०१/०२/१९७५
जन्मस्थान-वीरपुर , बेगूसराय
शिक्षा -एम .ए .बी एड
प्रकाशित कृति-मुस्कान तुम्हीं हो जीवन की
संप्रति -प्रधानाध्यापक उत्क्रमित मध्य विद्यालय , फजिलपुर वीरपुर , बेगूसराय
पता -द्वारा : श्री रजनीकांत झा , वीरपुर मंझौल ,बेगूसराय ,बिहार -851127
मो : 9504809769
आपका स्नेह पाकर मैं धन्य हूँ जैन साहब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार व शुभकामनाएं