चर्चित कवि मधुशुक्ला जी के नवगीत
_______________________________
प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादन मण्डल
_____________
https://m.facebook.com/groups/181262428984827/permalink/1130627454048315/
1
समय लेकिन चल रहा है
__________________
जिन्दगी ठहरी हुई है,
समय लेकिन चल रहा है ।
मौन, ये गुमसुम दिशायें
क्या न जाने सोचती हैं
रात दिन अपने सवालों
के ही उत्तर खोजती हैं
भटकती इन बियाबानो
में सुबह से शाम तक
प्यास की आकुल चिरैया
पंख अपने नोचती है
सफर है अब तक अधूरा
और सूरज ढल रहा है ।
खनकते सिक्के पलों के
हम खरचते जा रहे हैं
कीमती दिन कौड़ियों के
मोल बिकते जा रहे हैं
रह गये थे रेत से ,
दो चार दिन जो हाथ में
मुट्ठियों से वक्त की पल छिन
सरकते जा रहे हैं
उम्र के सोपान चढ़ते
बर्फ सा तन गल रहा है ।
मनचला शिशु भाग्य का
मुझसे अकारण रूठ जाता
देखती हूँ जिसमें खुद को
वही दर्पण टूट जाता
पकड़ती हूँ फिर वही
तिनका सहारे के लिये
भँवर में हर बार मेरे
हाथ से जो छूट जाता ।
नित नयी काया बदल कर
मोह का मृग छल रहा है ।
मौसमों में अब कहाँ वो रंग,
खुशबू ,ताजगी है
मन के रिश्तों में न दिखती
वो सहजता,सादगी है
खो गयी सुधियाँ सभी
इन अनुभवों की भीड़ में
रह गयी मन को कहाँ
अब किसी से नाराजगी है
गोद में विश्वास के ये वहम
कैसा पल रहा है ?
2
बोझ सदी के ढोए
______________
विश्वासों की दरकी गागर
अब किस घाट डुबोए
सोच रही धनिया किसके
काँधे सिर धर कर रोए
फुर्र हुए आशा के पंछी
मौन हुईं सब डाले
लौट रही अनसुनी पुकारे
पत्थर हुए शिवाले
तार-तार तन की चादर
क्या धोए और निचोए।
कभी बाढ़ से जूझे सपने
और कभी सूखे से
लिये खरोंचे मौसम की
दिन हुए बहुत रूखे से
बंजर रिश्तों में आखिर
कितने समझौते बोए।
आगे कुआ दुखों का
पीछे चिन्ताओ की खाईं
हुईं न घर में शुभ शकुनो की
वर्षों से पहुनाई
दो पल के जीवन की खातिर
बोझ सदी के ढोए।
3
बहुत दिनों से
__________
बहुत दिनों से गीत न कोई मैंने नया रचा
बाँध सके भावों को ऐसे शब्द नहीं सूझे
भेद रहे मौसम की चालों के भी अनबुझे
बिखर गयीं छन्दों की लड़िया आपाधापी में
अहसासों में पहले जैसा स्पन्दन नहीं बचा।
सूखी नदी नेह की मन के पत्ते जर्द हुए
विश्वासों की धूप बिना सब रिश्ते सर्द हुए
बाहर पसरा हुआ दूर तक एक अबोला सा
पर भीतर ही भीतर रहता अन्तर्द्वन्द्व मचा।
समय सारिणी के कोल्हू में जुता हुआ हर दिन
बोझ तले पिस रहीं थकन के इच्छायें अनगिन
पंख नोचते हैं पिजड़े में सपनों के पंछी
रहा समय उंगली में मुझको बस दिन-रात नचा।
लगी झाँकने पानी से धुँधली परछाई- सी
छंटने लगी झील के जल से जैसे काई सी
खोल गया यादों की कितनी एक साथ पर्ते
आज पुराने बटुए का इक मुड़ा-तुड़ा पर्चा।
4
झील के किस्से,समन्दर की कहानी लिख गया
एक बादलफिर नदी की जिन्दगानी लिख गया ।
उँगलियों से बूँद की ,पानी में इक हलचल लिखी
मौन लहरों के सुरों में, थिरकती कलकल लिखी
टूटती दरिया की साँसों में रवानी लिख गया ।
तप्त धरती के ह्रदय के भाव अँकुराने लगे
थरथराते पात तन के अर्थ गहराने लगे
जर्द आँखों में धरा की स्वप्न धानी लिख गया
खोलकर खिड़की फुहारों का झकोरा आ गया
पत्र सोंधी गंध वाले द्वार पर सरका गया
भीगते मन में कई सुधियाँ सुहानी लिख गया ।
डोर ले विश्वास की मन का पपीहा उड़ चला
ढाई आखर के सबद गाता कबीरा मुड़ चला
संग मेरे नाम के मीरा दिवानी लिख गया ।
लिख गया युग के अधूरे प्रेम की कल्पित कथा
यक्षिणी की पीर, शापित यक्ष के मन की व्यथा
फिर कथानक में नये बाते पुरानी लिख गया।
5
काँटे -काँटे देह हो गई,
रेशा-रेशा फूल हो गये ।
राजपथों ने ठुकराया तो
हम जंगली बबूल हो गये ।
किससे कहते पीड़ा मन की
क्यों मैंने वनवास चुना है
इच्छाओं को छोड़ तपोवन
ये कठोर उपवास चुना है
धारा के संग बह न सके तो
नदिया के दो कूल हो गये ।
अनचाहे उग आते भू पर
नहीं किसी ने रोपा मुझको
क्रूर समय ने सदा मरूथलों
के हाथों ही सौपा मुझको
ऐसे गये तराशे हर पल
पोर -पोर हम शूल हो गये ।
रहे सदा ही सावधान हम
मौसम की शातिर चालों से
इसीलिये हैं मुक्त अभी तक
छद्म हवाओं के जालों से
इस जग ने इतना सिखलाया
अनुभव के स्कूल हो गये ।
जब जब बढ़ती तपन ह्रदय की
खिलते फूल मखमली पीले
भरते एक हरापन मन में
रंग धूप के ये चटकीले
सुधियों ने जिसको दुलराया
ऐसी मीठी भूल हो गये ।
भूल सभी संताप ह्रदय के
रहे पथिक को छाँव लुटाते
सांझ लौटते बिहगो के संग
गीत रहे जीवन के गाते
ढाल लिया खुद को कुछ ऐसा
हर युग के अनुकूल हो गये ।
6
चाय तो बहाना है
_____________
रिश्तों के बीच बुना
इक ताना बाना है
संग बैठ तुमसे बस
हँसना बतियाना है
चाय तो बहाना है ।
आ जाना अन्तर की
गिरहें फिर खोलेंगे
फीके इन लम्हों में
कुछ मिठास घोलेंगे
भर लेंगे रंग कई
साँझ के पियालों में
कलियाँ कुछ खुशबू की
साँसों में बो लेंगे
सोये इन सपनों को
नींद से जगाना है
राग नया गाना है ।
सिलसिले चलायेंगे
मेल -मुलाकातों के
दोहरायेंगे किस्से
पिछली बरसातों के
अन्तहीन चर्चे कुछ
मन के कुछ मौसम के
सौ -सौ मतलब होंगे
बेमतलब बातों के
रखना है याद किसे
किसे भूल जाना है
मन को समझाना है ।
चुस्की के साथ -साथ
आँखों में झाँकेंगे
चेहरे के मौसम का
तापमान नापेंगे
भाप की लकीरों से
बनती तहरीरों के
मिलकर हम अनबूझे
शब्द- शब्द बाचेंगे
आँख बचा दुनिया से
चार पल चुराना है
और गुजर जाना है ।
चाय तो बहाना है ।
परिचय
______
संक्षिप्त परिचय
मधु शुक्ला
जन्मस्थान ----लालगंज, रायबरेली (उ. प्र. )
शिक्षा ------एम.ए.(हिन्दी एवं संस्कृत)
लेखन की विधा - गीत, ग़ज़ल, कहानी समीक्षायें एवं साहित्यिक आलेख ।
प्रकाशन --------देश की प्रायः सभी स्तरीय साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन भोपाल द्वारा निरन्तर कविताओं का पाठ व प्रसारण, देश के अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय काव्य मंचों द्वारा काव्यपाठ , हिन्दी संस्थान लखनऊ, साहित्य अकादमी देहरादून, एवं साहित्य अकादमी भोपाल के मंचों से एकल काव्य पाठ एवं आलेखों का वाचन ।
साथ ही नवगीत के नये प्रतिमान, शब्दायन, गीत वसुधा, नवगीत का लोकधर्मी स्वरूप, गीत सिन्दूरी-गन्थ कपूरी , सदी के नवगीत, नवगीत का मानवतावाद,समकालीन गीत कोश आदि नवगीत के प्रायः सभी उल्लेखनीय संग्रहों में सहभागिता ।
प्रकाशित संग्रह --------"आहटें बदले समय की " गीत संग्रह (2015)
सम्मान ----- अनेक सम्मानों से सम्मानित, जिनमें उल्लेखनीय हैं---------------------------- 0 "आहटें बदले समय की " पुस्तक पर म. प्र. साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा दुष्यन्त कुमार सम्मान -2017
0 नटवर गीत सम्मान 2012
0अभिनव कला परिषद भोपाल द्वारा शब्द शिल्पी सम्मान 2017
0निराला साहित्य संस्था डलमऊ (उ. प्र.) द्वारा मनोहरा देवी कवयित्री सम्मान -2016
0 म .प्र. लेखक संघ द्वारा कमला चौबे सम्मान --2008
सम्प्रति --- संस्कृत शिक्षिका
शासकीय कस्तूरबा उ. मा. वि. भोपाल( म. प्र.)
सम्पर्क ------6-साई हिल्स, कोलार रोड,
भोपाल -462042 म. प्र.
Email -----madhushukla111@gmail.com
मधु शुक्ला
भोपाल ।
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=270627854336566&id=100041680609166
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें