कृति चर्चा में आज
समीक्षक रमेश गौतम जी
कृति - नवगीत संग्रह
नाम - धूप भरकर मुट्ठियों में
कृतिकार - मनोज जैन
संस्करण - 2021
आवरण - के. रविन्द्र
प्रकाशक - निहितार्थ प्रकाशन, गाजियाबाद
मूल्य - 250 रुपए
संग्रह के गीतों की मुखरता सन्नाटों को तोड़ती है
-रमेश गौतम
मनोज जैन लब्धप्रतिष्ठ नवगीतकार हैं उनका ताजा नवगीत संग्रह ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ जीवन में सम्भावनाओं को तलाश करता है। ऐसी परिस्थितियाँ जहाँ मनुष्य इकाई होकर सामाजिक पृष्ठभूमि से कट जाता है तब मनोज जैन की गीत-पंक्तियाँ प्रेरक तत्व के रूप संशय की धुंध को छाँटती हैं-‘कुछ नहीं दें किन्तु हँसकर/प्यार के दो बोल बोलें/हम धनुष से झुक रहे हैं, तीर से तुम तन रहे हो/हैं मनुज हम, तुम भला फिर क्यों अपरिचित बन रहे हो/हर घड़ी शुभ है चलो, मिल नफरतों की गाँठ खोलें/दरअसल जीवन जीने की प्रक्रिया को हमने इतना जटिल बना लिया है कि हम अपनी रचनात्मक चेतना से ही विमुख हो गए हैं। और इस विमुखता के मूल में ऐसी आत्ममुग्धता है जो अलगाव के द्वार खोलती है। अपने व्यक्तित्व से छद्म आत्ममुग्धता बाँध लेने में तो हम निपुण हो गए किन्तु लगाव की बुनियाद रखने में असफल ही रहे। कवि की सजग चेतना इसी हेतु आखरों की शरण में जाने का आग्रह करती है क्योंकि ढाई आखर ही इसका अंतिम विकल्प है, लगाव यहीं तो अंकुरित और पल्लवित होता है, ऐसी उर्वरा भूमि इस कठिन समय में चुनौती अवश्य है पर असम्भव नहीं कवि की गीत-आस्था में ऐसी ही उर्वरता के सूत्र निहित हैं-‘स्वर्ग वाली संपदाएँ यों कभी चाही नहीं हैं हम किन्हीं अनुमोदनों के, व्यर्थ सहभागी नहीं हैं/शब्द को वश में करें हम/अ़ाखरों की शरण हो लें’ कवि की रचनाधर्मिता भौतिकवाद की चपेट में आई समूची मनुष्यता को सचेत करती है। भौतिकता के विरुद्ध संवेदना की जो दृढ़ता जनमानस में व्याप्त थी उसका लुप्त हो जाना चिंताजनक है। संवेदना में जितनी गहराई होती है मनुष्यता उतनी ही ऊँचाई प्राप्त करती है। इसी संवेदना को भौतिकता ने ग्रस लिया है, आज भौतिक संसाधनों के संग्रह में हम संवेदना को विस्मृत कर बैठे हैं। जो संग्रह के पीछे भागते हैं संवेदना उनके भीतर नहीं ठहरती कवि की चार पंक्तियाँ इस सत्य का साक्ष्य हैं-‘खोजते हम सुख रहे/भौतिक शरीरों में/हर्ष हम ढूँढ़ा किए/मणि, रत्न, हीरों में/‘बूँद का मतलब समंदर है’ गीत में कवि का जीवंत स्वर होता है। कवि के गीत का सारसत्त्व अन्तर्जगत में निहित लोक शक्ति का अभ्युदय है। जिसके बिना मनुष्य अपनी ही सामथ्र्य से अपरिचित रहता है। आत्मा की सूक्ष्म सत्ता में प्रवेश पर ही भीतर की अपराजित शक्ति से उसका परिचय होता है। बूँद को अपने अस्तित्व का परिचय समंदर मंे विलीन होने पर ही अनुभव होता है जहाँ वह स्वयं सिन्धु बन जाती है। पूरे गीत में आत्मिक अनुभूतियों की अभिवृद्धि का सतत प्रवाह है-‘दृष्टि है एक बाहरी/तो एक अन्दर है/बूँद का मतलब समंदर है/कौन है जो साँस देकर/सुध हमारी ले रहा/देह नौका, भव-जलधि में रात-दिन जो खे रहा/तेज से जिसके दमकता/सूर-चंदर है।’
गीतकार का स्वर आशा, विश्वास और परिवर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित करता है आशा ही वह जीवनी शक्ति है जो अंधकार में दीये की तरह दमकती है। और आत्मनिष्ठ विश्वास ही मनुष्य को लीक से हटकर, सृजन को प्रेरित करता है। लोक मंगल की भावना यहीं से अर्जस्वित होती है। ‘करना होगा सृजन बंधुवर/हमें लीक से हटके/छंदों में हो आग समय की/थोड़ा सा हो पानी/हँसती दुनिया संवेदन की/अपनी बोलो-बानी/कथ्य आँख में आलोचक रह-रह कर जो खटके।’
मनोज जी के गीत जीवन की गहरी व्यंजना करते हैं। उनके गीतों में अपनी जड़ों से जुड़े रहने का उपक्रम प्रतिध्वनित होता है, यही उपक्रम उन्हें नदी, पर्वतों, वृक्षों से जोड़ता है। भारतीय चिंतन एवं दर्शन में प्रकृति को समग्र दृष्टि से देखने का प्रयास हुआ है। यही वह प्रस्थान बिन्दु है जहाँ नदी, वृक्ष, पर्वत हमें जीवन-तत्त्व से भरे हुए दृष्टिगोचर होते हैं हमारे सोच की यही सार्वभौमिकता केवल मनुष्य मात्र से ही नहीं अपितु प्रकृति से भी अपने सामाजिक संबन्धों का निर्वाह करती है इसी संवेदना से अभिभूत होकर कवि कहता है-‘काश/ हम होते/नदी के तीर वाले वट/हम निरन्तर भूमिका/मिलने-मिलाने की रचाते/पाँखियों के दल उतरकर नीड़ डालों पर सजाते/चहचहाहट सुन/छलक जाता हृदय का घट।’
अन्धानुकरण की बढ़ती प्रवृत्तियों से कवि स्वर आहत हो उठा है। अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं से कट कर हम त्रिशंकु से लटक रहे हैं। पाश्चात्य संस्कृति हमारे परिवेश के प्रतिकूल है इस सत्य को हमें समझना होगा। हमारी संस्कृति में ही ऐसे गुण हैं जो समाज में सहिष्णुता एवं सहकारिता के का वातावरण विनिर्मित करते हैं। वर्तमान विद्रूपताओं का मूल कारण अपनी संस्कृति से विमुख हो जाना ही है, कवि अपनी चिंता व्यक्त करता है-‘चाँद सरीखा मैं अपने को/घटता देख रहा हूँ/धीरे-धीरे सौ हिस्सों में/बँटते देख रहा हूँ/तोड़ पुलों को बना लिए हैं/अपने बेढब टीले/देख रहा हूँ मैं संस्कृति/के नयन हुए हैं गीले/नई सदी को परम्परा से कटते देख रहा हूँ। पश्चिमीकरण की चालाक प्रवृत्तियों ने हमारी सोच पर गहरा असर डाला है। हमारी विचार शक्ति को पंगु किया है एक तरह से हमारी मौलिकता को ही अपने भुजपाश में समेट लिया है-‘तन-मन सब कुछ हुआ विदेशी/फिर भी शोक नहीं है/बोली-वाणी-सोच नदारद/अपना लोक नहीं है/छद्म शोध से शुद्ध बोध को/हटते देख रहा हूँ। कवि कबीर, तुलसी, निराला की परम्परा का अनुगायक है। आयातित आधुनिकता के अपने अन्तर्विरोध होते हैं अतः ‘यह पथ मेरा’ गीत एक ओर साहित्य में गहरे मूल्य बोध और अपने परिवेश की सोंधी गंध की चिन्ता करता है तो दूसरी ओर बदलाव की मुहिम भी शुरु करता है। मनोज जैन के गीतों में आस्था और सांस्कृतिक विवेक की खोज निहित है। एक ऐसी सांस्कृतिक संवेदनशीलता जो समाज में पसरे अन्तराल और विभ्रम की स्थितियों को स्पष्ट करती है, परम्परा से विछन्न हमारी आधुनिकता को आईना दिखाती है-‘अधुनातन शैली से पूछे/क्या खोया, क्या पाया/कठ पुतली-से नाच रहे हम/नचा रही है छाया/घर-घर में ज्वालामुखियों को फटते देख रहा हूँ।’
मनोज जैन के गीतों में सामयिक आशय निहित हैं। संग्रह के गीतों में कोई काव्यात्मक चमत्कार पैदा करने की कोशिश नहीं है बल्कि कविता में उनकी सोच का संवेदन-रूपान्तरण होता है जो एक नए अर्थ-सन्दर्भ के साथ पाठकों से संवाद करता है उदाहरणार्थ-जय बोलो एक बार/मिलकर किसान की अथवा गिने गए खास कभी/और आम में/मिले कभी दक्षिण में/और कभी वाम में/दो धड़ में बाँट रहे/उसको ही काट रहे/बैठे जिस डाल पर अथवा आज नीरवता चतुर्दिक/कल-तलक था एक मेला/कौन से पथ पर बता दें मन! मुझे तू ले चलेगा/कब पुरस्कृत तू करेगा/किस घड़ी या फिर छलेगा/इन तटों से पूछता हूँ/क्या नियति ने खेल खेला अथवा क्या सही, क्या है गलत/इस बात को छोड़ो/मौन तो तोड़ो अथवा संघर्षों की शर-शैया पर/सोना सीख लिया है/हारे नहीं, न बाधाओं से हम घबराते हैं/अंधकार में हम आशा के दीप जलाते हैं/साहस अपना दिन-दिन दूना बढ़ता जाता है/चींटी की मानिद भींट पर चढ़ता जाता है/हमने सब पा लिया, कि जब से खोना सीख लिया अथवा चारों तरफ अराजकता है कैसा यह परिवेश, कैसा यह देश अथवा एक प्यारी-सी मधुर मुस्कान देकर/आपने दिन शुभ हमारा कर दिया/अनमना हर आदमी/बेहद दुःखी है, मौन है/हर तरफ फैली उदासी/मुस्कुराता कौन है अथवा चार दिन की ज़िंदगी/लिख दी तुम्हारे नाम/पी गए हमको समझ तुम/चार कश सिगरेट/आदमी हम आम ठहरे/बस यही है रेट/इस तरह दिन बीत जाता/घेर लेती शाम अथवा ठूँठ बसंत हुआ/कष्ट अनंत हुआ/कथ्य यहाँ का शिल्प वहाँ का/दर्शन ठूँसा कहाँ-कहाँ का/दो कौड़ी की कविता लिखकर तुक्कड़ पंत हुआ अथवा मैं नदी थी/रह गई अब एक मुट्ठी रेत/घूमती बेघर हुई अब ज्यों भटकता प्रेत अथवा ज़िन्दगी/अब मैं खुले में साँस लेना चाहता हूँ/त्रासदी नश्तर चुभोए जा रही पैने/देवता समझो मुझे, कब यह कहा मैंने/इस भंवर से दूर अपनी/नाव खेना चाहता हूँ अथवा टूट या बिखर जाऊँ/काँच या पारा नहीं हूँ/वहम से आरम्भ होकर/अहम पर आकर खड़ी है/बात छोटी-सी नहीं है बात सचमुच ही बड़ी है/तुम अभी जीते नहीं हो और मैं हारा नहीं हूँ। इस तरह गीतकवि की भाव-भंगिमाएँ विस्तृत होती हैं। उनकी कविता जीवन-जगत के यथार्थ को भी मीठी चुभन के साथ प्रस्तुत करती है।
पूँजीवादी नई सभ्यता में ग्रामीण भारत की स्थितियाँ बदतर हुई हैं। शहरों की चमक-दमक बड़ी है और इस चमक-दमक से गाँवों की पारम्परिक जीवन शैली तहस-नहस हो गई है। नए उद्योग-धंधों के पनपने से हरित वनों और खेतों पर संकट गहरा हो गया। किसान अपने पुरखों की जमीन छोड़कर पेट भरने के लिए पलायन को विवश हो गया। किसान से मजदूर बनकर शहरों में भटक रहा है। उसकी सांस्कृतिक विरासत लुट चुकी है। नितान्त किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में आज हाशिए पर पड़ा है। कवि की संवेदना इन दारुण स्थितियों में मुखर हो उठती है-फिक्र नहीं की उसने/अपनी पहचान की/आशाएँ बोता है/चिंताएँ ढोता है/मुस्काने गिरवी रख/जीवन भर रोता है/आरती उतारें हम भूखे भगवान की।’ संग्रह के बहुत से गीत कवि की जनपक्षधरता को व्यक्त करते हैं। युगीन विसंगतियों, विद्रूपताओं के प्रति उनका प्रखर आक्रोश व्यक्त होता है। सामाजिक सरोकारों के प्रति अपने दायित्वबोध के कारण मनोज जैन मँहगाई के दुष्चक्र पर भी अपनी नजर रखते हैं-‘मैं पूछँू तू खड़ा निरुत्तर बोल कबीरा बोल/चिंदी चोर विधायक के घर प्रतिभा भरती पानी/राजाश्रय ने वंचक को दी संज्ञा औधड़ दानी/खाल मढ़ी है बाहर-बाहर/है अन्दर तक पोल/अथवा मन को साल गया/सुरसा जैसा मुँह फैलाया, मँहगाई ने अपना/हुई सुदामा को हर सुविधा, ज्यों अंधे को सपना/शकुनि, सरीखी नया सुशासन, चलकर चाल गया।’ यहाँ यह भी दृष्टव्य है कि मनोज जैन की कविता मेें व्यवस्था की असंगतियों के प्रति जितना गहरा असन्तोष है, उतना ही अपने जनतान्त्रिक चयन पर आक्रोश-‘किस कदर हालात के मारे हुए हैं लोग/दोष इतना-भर कि तुमको/चुन लिया हमने/जाल मकड़ी सा स्वयं ही बुन लिया हमने/क्या कहें/हम इसे घटना/या महज संजोग।’
मनोज के गीतों की कथ्यगत विविधता और गहनता प्रभावित करती है। संग्रह में उनके प्रेम विषयक गीत अनायास ही अपनी स्निग्धता और प्रांजल प्रवाह से बाँध लेते हैं। गीतों की कोमलकांत पदावली और प्रवाहमयी सुललित शैली दर्शनीय है-‘हो रहे हैं नयन अपने चार/देखकर शृंगार/हो रहे मन प्राण घायल/देखकर मुस्कान/लग रहा साकार होंगे/पूर्व के अनुमान/भर रही है फिर कुलाँचें/प्रीत की मनुहार/ जहाँ उनके यथार्थवादी जनपक्षीय तेवर के गीत मन मस्तिष्क पर एक तीर की तरह आघात करते हैं। पूरी तरह से झिंझोड़ देते हैं वहीं उनके प्रेम विषयक गीत अपनी निर्दोष व्यंजना से आबद्ध कर लेते हैं-‘क्या सही है क्या है गलत/इस बात को छोड़ो/मौन तो तोड़ो/नेह के मधुरिम परस से/खिले मन की पाँखुरी/मौन टूटे तो बजे/मन-मीत मन की बाँसुरी/अजनबी हम तुम बने/संबंध तो जोड़ो। उनके प्रेमगीतों में ऐसी व्यंजकता विद्यमान है जो अपनी विदग्धता से सहज ही भीतर तक उतर जाती है-‘उजियारा कर लिया/हमने मन के सभीप/सच्ची श्रद्धा का एक दीप/हँस कर धर लिया।’ प्रकृति पर्यावरण के सन्दर्भ उनके कई गीतों में आते हैं जो स्पष्ट करते हैं कि मनोज जैन की गीत चेतना केवल मनुष्य तक सीमित नहीं है वह निसर्ग की चिंता करती है-मैं नदी थी, मेघ आए, धरती का रस, आदि गीतों में प्रकृति के विभिन्न रूपों, दृश्यों, सौन्दर्य, वेदना और बिम्बों का अपूर्व संयोजन है।
वस्तुतः ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ संग्रह की रचनाएँ कवि की प्रतिबद्धताओं की व्याख्या करती हैं, अपने समय और संस्कारों की अभिव्यंजना हैं वे अपनी संवेदनाओं में समाज की धूसर उदासी और अन्तव्यथाओं को समेटती हैं। उनके गीतों की मुखरता सन्नाटों को तोड़ती हैं तथा हमारी तटस्तथा को आन्दोलित करती है अस्तु मनोज जैन के नवगीत सामयिक संवेदनहीनता के बीच संवेदना के बीज बोते हैं।
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संक्षिप्त परिचय
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रमेश गौतम
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सुपरिचित नवगीतकार, लघुकथाकार व आलेखकार/अध्यापन कार्य से अवकाश प्राप्त। लम्बे समय तक हिन्दी दैनिक समाचार पत्र विश्व मानव में साहित्य/आलेख संपादक (अंश कालीन) के रूप में कार्य किया। अब स्वतंत्र लेखन व चित्रांकन (2012 में पहली कला प्रदर्शनी विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रेखाचित्रों का प्रकाशन) माया भारती मासिक पत्रिका, तितली बाल पत्रिका (विशेषांक), ‘कथादृष्टि’ लघुकथा व ‘अन्वेषण’ कविता फोल्डर, विविध संवाद पत्रिका, गीतकार किशन सरोज विशेषांक व अनुगुंजन पत्रिका के लघुकथा अंक का अतिथि सम्पादन आदि। नवगीत संग्रह ‘इस हवा को क्या हुआ’ व दोहा संग्रह ‘बादल फेंटें ताश’ प्रकाशित दूसरा नवगीत संग्रह व लघुकथा संग्रह प्रकाशनाधीन। ‘श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन’ (स. कन्हैया लाल नन्दन), नवगीत सृजन और समीक्षा (स. डाॅ. भगवान शरण भारद्वाज, गीत वसुधा, समकालीन गीत कोश, समकालीन गीत सोहराई (स. नचिकेता), नवगीत का लोक धर्मी सौन्दर्य बोध; नवगीत का मानववाद (स. राधेश्याम बन्धु), भव्य भारती (स. विष्णु विराट), गीत दशक (स. कृष्णकांत शुक्ल), उत्तरायण (स. निर्मल शुक्ल), सन्नाटा मत बुनो (स. हरिशंकर सक्सेना), समकालीन दोहा कोश (स. हरे राम समीप), समकालीन भारतीय लघुकथाएँ, बीसवीं सदी की लघुकथाएँ, स्त्री, पुरुष सम्बन्धों की लघुकथाएँ महानगर की लघुकथाएँ (स. सुकेश साहनी), संरचना (स. कमल चोपड़ा), आधुनिक साहित्य संयुक्तांक (स. आशीष कंधवे), हिन्दी चेतना-कैनेडा (स. श्याम त्रिपाठी), गीत सिन्दूरी गंध कपूरी (स. योगेन्द्र शर्मा), कविता अनवरत-2 (स. प्रभा सूद) अप्रतिम हिन्दी गीत शतक (स. वीरेन्द्र कुमार सिंह), नई सदी के नवगीत (स. डाॅ. ओम प्रकाश सिंह) सहित अनेक नवगीत, लघुकथा, दोहा संग्रहों में संकलित। अमृतसर व कोट कपूरा में लघुकथा सम्मान (1993), राष्ट्रवादी विचारमंच सम्मान, बरेली (1997), पत्रकार शिरोमणि सम्मान, जि.क.एसो., बरेली (1998), 12वाँ पत्रकारिता सम्मान, बरेली (1999), स्व. सीताराम अग्रवाल साहित्य पुरस्कार, बरेली (1999) काव्यगंधा सम्मान, बरेली (2000), मंत्रालय राजभाषा कार्यान्वयन समिति (2006), संस्कार सेवा सम्मान, बरेली (2007), निराला साहित्य सम्मान, बरेली (2012), वाणी प्रकाशन संस्थान, कानपुर (2013), संस्कार भारती साहित्य सम्मान, बरेली (2015), शायर पं. देवी प्रसाद गौड़ मस्त स्मृति सम्मान, बरेली (2015), बटोही संस्थान, कानपुर (2017), बरेली पारस रत्न (2017), अन्तर्राष्ट्रीय साहित्यकला मंच (2017), डाॅ. ओम प्रकाश वर्मा सम्मान, सहारनपुर (2018), हिन्दुस्तानी भाषा काव्य प्रतिभा सम्मान, नई दिल्ली (2018), अ.भा. नवगीत सम्मेलन नवगीत गौरव सम्मान लालगंज, रायबरेली (2018), साहित्यक संघ वाराणसी सेवक स्मृति साहित्यश्री सम्मान, वाराणसी (2018), शिक्षाविद् पृथ्वीनाथ भान श्रेष्ठ कविता संग्रह सम्मान, जयपुर (2019), हिन्दी प्रचारिणी सभा कैनेडा, (हाइकु प्रतियोगिता) प्रथम पुरस्कार (2020) आदि। जन्म 28 सितम्बर 1948, पांचाल ब्राह्मण परिवार में, माता-पिता स्व. चम्पा देवी शर्मा-स्व. मथुरा प्रसाद शर्मा (जनपद पीलीभीत), स्थाई निवास: ‘रंगभूमि’ 78-बी, संजय नगर, स्टेडियम रोड, बरेली (उ.प्र.) मोबाइल: 8394984865, 9411470604,E-mail : rameshg78b@gmail.com
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