कृति : धूप भरकर मुठ्ठियों में
रचनाकार - मनोज जैन
प्रकाशक : निहितार्थ प्रकाशन- एम आई जी-ग्राउण्ड फ्लोर- ए -29 शालीमार गार्डन एक्सटेंशन साहिबाबाद गाज़ियाबाद 201005
मूल्य-250 रूपये
मानवीयता के चेहरे पर खरोंच मारती अतिवादी संवेदनाएं
● राधेलाल बिजघावने
विचार और संवेदनाएं कभी स्थायी भाव संवेदनों में नहीं रहते। सामाजिक,सांस्कृतिक और प्राकृतिक बदलाव के साथ मानवीय विचार और संवेदना बदल जाते हैं। सुखद आनंदमयी संवेदनाएं तथा दुखद पीड़ित अतिवादी संवेदनाएं भी बदल जाती हैं।
यही स्थिति गीतों की भी है।
मध्यकाल में आनन्दप्रद गीत लिखे गये।बाद में रहस्यवादी और प्रकृति परिदृश्यों को प्रस्तुत करने वाले! साठ से अस्सी के दशक में प्रगतिशील ,रूमानी और प्राकृतिक संवेदनों के नये रूप में गीत के भाव भाषा और शिल्प के साथ में गीत आये। जिनके भाषा, भाव और शिल्प के साथ फार्म में बदलाव आया। और पाठकीय रुचि और मानवीय अन्तर्पीडा, दुख दर्दों की अनुभूति से जुड़ गये।
अब बाजारवाद, उपभोगतावाद की संस्कृति ने गीतों की प्रकृति प्रवृत्ति और संस्कृति को बदल दिया। भाषा शिल्प और भाव ,आत्म संवेदनों सभी स्तरों पर ! यहां तक कि 1960 से 1980 के नवगीतों की रिदम और रचनात्मक शिल्प की प्रतिछवि में भी बदलाव आ गया। यह बदलाव कुछ अलग तरह का है जिसका रिफ्लेक्शन मनोज जैन के नवगीत संग्रह "धूप भरकर मुठ्ठियों में" की गरमाहट से महसूस किया जा सकता है। धूप की गरमाहट और वैचारिक दीप के प्रकाश की गरमाहट की संवेदनाएं की अन्तर्संवेदनों में फैलकर किस तरह विस्तारित होती हैं इसकी दृष्यानुभूति इस तरह मन में स्वतः अंकित हो जाती है।
"उजियारा कर लिया
हमनें मन के समीप
श्रद्धा का एक दीप
अंधियारा हर लिया"
मन के समीप पृष्ठ 85
इक्कीसवीं सदी के गीतों की अवधारणा समयानुरूप मानवीय संवेदनों और चरित्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। 'धूप भरकर मुठ्ठियों में' संग्रह के मनोज जैन के नवगीतों की तासीर समय की ऊष्मा के नाप का थर्मामीटर कहा जा सकता है। क्योंकि इनमें आज के आदमी के चरित्र और आचरण की यथार्थपरक तस्वीर की आत्मस्वीकृति अन्तर्निहित है।
जैसे-
"चारों तरफ अराजकता है /कैसा यह परिवेश/है कैसा यह देश/खुले आम /
हत्या करती है/टोपी, ख़ाकी बर्दी/
नेता अफसर /बाबू सबकी /
सहना गुंडागर्दी/
लोक तंत्र में /
पूजे जाते /ऐसे कई विशेष/
है बोतल में बंद /आजकल
घोटालों का जिंद/
यहाँ वहाँ से /काटें तुझको
तेरे बेटे हिन्द/दर्शक बनकर
देखा करते/ब्रह्मा,विष्णु,महेश/
खुली आँख में /मिर्ची भुरकें /
समझें हमें अनाड़ी/
मरणासन्न देश की /हालत फिर भी
चलती नाड़ी/अब भी माला /
पहन रहे हैं/शर्म नहीं है शेष/
(कैसा है यह देश)
'धूप भरकर मुठ्ठियों में' संग्रह के मनोज जैन के नवगीत मानवीयता के चेहरे पर खरोच मारती अतिवादी संवेदनाओं के हैं। जिनमें निरंतर बढ़ती हत्याएं,अतिवाद, शोषण, भ्रष्टाचार दुख -पीड़ा का आत्मदर्प मनुष्य के भीतर भरा पड़ा है।और सामाजिक सांस्कृतिक चेहरे को निरन्तर विद्रूप बना रहा है।
"राजनीति की उठापटक और धींगा मस्ती में
केवल जनता ही है जिसको चुना लगता है
अपना आशय नहीं कि जनता
राजनीति से दूर रहे
अर्थातों में उनके फंसकर
बेसुध और मगरूर रहे
गठबंधन की नोकझोंक और नूरा कुश्ती में अपना नेता पूरा एक नमूना लगता है।"
(राजनीति की उठापटक में पृष्ठ क्रमांक 76)
"धूप भरकर मुठ्ठियों में ' संग्रह के मनोज जैन के नवनीत प्राकृतिक परिदृश्यों के आत्मतुष्टि और आत्म स्वीकृति का आन्तरिक हर्ष ध्वनि के साथ स्वीकारते हैं। इनके साथ रूमानी संवेदना के विभिन्न रंग रूप की ग्रेविटी भी है। जो अपने समय सामाजिक भावनात्मक संवेदनों और संवेगों का मूल चरित्र के साथ उछलती हैं।
"धूप भरकर मुठ्ठियों में" संग्रह के मनोज जैन के नवगीत आर्थिक विषमता और अभावों की मनःस्थितियों से गुजरते हुए दुर्दशा के दुर्दिनों का गहन आत्म दुख का अहसास कराते हैं तथा जुझारू चिंता और चेतना को नई ताकत और उम्मीदें देते हैं।
" मुस्कुरा रे मन
हैं अभी भी सौ बहाने
जिन्दगी तुझ को बुलाती है।"
(जिन्दगी तुझ को बुलाती है पृष्ठ क्रमांक 107)
'धूप भरकर मुठ्ठियों में' संग्रह के मनोज जैन के नवगीत कभी अपेक्षा कभी उपेक्षा की संवेदनाओं के बीच से आगे के संसार की ओर बढ़ते चले जाते हैं।
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राधेलाल विजघावने
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