नवगीत का नया आसमान: नब्बे घाव बदन में प्यारे
नवगीत को नयी भाषा , नया शिल्प और नयी संवेदना देने वाले सुधांशु उपाध्याय का नया नवगीत संग्रह ' नब्बे घाव बदन में प्यारे ' मेरे सामने है और पृष्ठ दर पृष्ठ खुल रहा है । सुधांशु जी उन नवगीत कवियों में हैं जो निरन्तर नए होते चले गए हैं । अपने को सतत अन्वेषित करते चले जाना उनकी फ़ितरत है। वह हर नए नवगीत में जैसे अपना ही साँचा तोड़ देते हैं और भावक मन के सामने एक नया आसमान पसार देते हैं । समकालीन कविता के कथ्य को जब वह गीत की खराद पर चढ़ाते हैं तो कविता स्वयं को ही विमोचित करती सी दिखाई देती है । उनकी नवगीत कविता का खुरदुरापन आज की हिन्दी कविता का सच है । अरुण कमल , राजेश जोशी , हरीश चन्द्र पाण्डे , मदन कश्यप और कुमार अम्बुज जो कथ्य अपनी छंद मुक्त कविताओं में दे रहे हैं लगभग वही या उससे बढ़कर कथ्य को संश्लिष्ट ढंग से और धारदार बनाकर वह गीत के छंद में व्यक्त कर रहे हैं । वह अपने सधे हुए कथ्य से छंद को तोड़ते - मरोड़ते और झिझोड़ते भी हैं और इस प्रक्रिया में नवगीत का एक अपना नितांत मौलिक छंद भी रच देते हैं । यह काम नवगीत में अकेले सुधांशु ही कर रहे हैं , इसीलिए वह नवगीत के शामिल बाजा नहीं हैं । उनका अपना भिन्न स्वर है जो हर प्रकार से विरल और अनोखा है । वह आलोचकों और समीक्षकों को रत्ती भर सेंटते नहीं । सम्भवतः इसीलिए चमकदार और चटख अभिव्यंजनाएँ दे पाते हैं।वह समकालीन कविता और नवगीत के बीच एक पुल बाँध देते हैं।ऐसी स्थिति में नवगीत का एक अभिनव व्याकरण चमत्कृत सा कर देता है।नवगीत का नया स्थापत्य केवल चौंकाता भर नहीं है वरन इस विधा विशेष को समझने बूझने के लिये एक सम्यक अंतर्दृष्टि भी देता है।नवगीत का उनका अपना करघा है, जिसके महीन रेशों से बुने गीत एकदम पृथक सा आस्वाद देते हैं, शीर्षक गीत को ही लें-
साध तुम्हारी रहे अधूरी
कौन चाहता है ये दूरी
जहाँ खड़े हो वहीं से चल दो
लात मार दो हर मजबूरी
जहाँ चाहते,वहीं घोंप दो
नब्बे घाव बदन में प्यारे!
इस नवगीत संग्रह'नब्बे घाव बदन में प्यारे!' को इलाहाबाद के रुद्रादित्य प्रकाशन ने बहुत मन से प्रकाशित भी किया है।
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