कृति- धूप भर कर मुट्ठियों में
कृतिकार- मनोज जैन
प्रकाशक -निहितार्थ प्रकाशन, गाजियाबाद
मूल्य – 250 रुपए
सजग गीतों में गूँथी गई जिंदगी
प्रभुदयाल मिश्र
ताजगी भरे 80 गीतों के संग्रह ‘धूप भरकर मुट्ठियों में’ मनोज जैन हिन्दी गीत विधा को एक सम्पूर्ण जीवन के पैबंद में ढाल पाने में पूर्ण समर्थ देखे जा सकते हैं । गीत का आधुनिक कविता के इतने निकट पहुँच कर प्रातिभ संवेदना को जीवन की समग्रता में समेट लेना रचना धर्मिता की एक उत्कृष्ट साधना है ।
जैसाकि पुस्तक का अनुक्रम ही प्रकट कर देता है, इस कृति के संबंध में पंकज परिमल, Rameshwar Mishra Pankaj जी प्रो. रामेश्वर मिश्र, राजेन्द्र गौतम, कैलाशचंद्र पंत और कुमार रवीन्द्र जैसे पृभृति कवि, समालोचक, लोकपारखी महाजनों ने अपना उत्कृष्ट भाव संचालन किया है । मैंने इसके आद्यंत पाठ में अपने आपको प्रायः इसकी छांदस छटा पर ही केन्द्रित रख इस बोध में आश्वस्ति पाई है कि जीवन और संसार में लय तथा तालबद्धता की पहचान सत्य का निकट से साक्षात्कार कराती है । स्वाभाविक तौर पर ऐसे समाराधक को आस्था के किसी अभेद्य, अछेद्य मूल से जुड़ा होना जैसे जरूरी हो जाता है । और यह बात मनोज में परिपूर्णता से है ।
एक सामान्य मानवीय संवाद में किसी भाषा के लय और तालबद्धता की कोई दरकार नहीं होती अत: वह कितना भी गतिमान और विस्तार वाला हो सकता है । किन्तु इसे कदाचित कोई एक ही कभी जब दोहराने की कामना करता है । बल्कि स्वयं वक्ता भी दोबारा इसे कहने की ललक नहीं पालता । किन्तु एक रचना चाहे वह गद्य में ही क्यों न हो जब भाषा का सुकोमल विन्यास ओड़
लेती है तो उसे पीड़ियाँ भी गाते हुये नहीं थकती हैं । जाहिर है कि किसी कला पारखी सर्जक में ही ऐसी क्षमता हो सकती है जो धरती पर बेतरतीब बिखरे कंकड़-पत्थर में से शिवलिंग या शालिग्राम जैसी पहचान तराश कर हमारे जाने पहचाने शब्दों को अभिनव दमक, गमक और महक प्रदान करता है । कला की इन मीनारों के आकार लेने के पहले कितने हाथ, उनके औज़ार और उनमें केंद्रीकृत आँखें विलुप्त नहीं हो गई होती हैं । यह अनुमान करना ही जब कठिन है तब एक कलाकार की तपश्चर्या तो अनुमान के परे की ही बात हो जाती है । इसलिए जब हमारी परंपरा में ‘कवि’ को ‘मनीषी परिभू: स्वयंभू:’ की कोटि में रखा गया है तो इसमें कोई अत्युक्ति प्रतीत नहीं होती ।
कुछ बात इन रचनाओं के संदर्भ में । मनोज ने जीवन के प्रायः सभी आयामों का अपने गीतों में संस्पर्श किया है, जैसे, प्रेम, प्रकृति, मौसम, इतिहास, मिथक, आख्यान, पुरातत्व, राजनीति, समाज, व्यवहार, लोकाचार और संस्कृति आदि सभी । इन्हें देखने और समझने की दृष्टि में पैनापन उनका अपना है जिसका बहुत सारा श्रेय उनके द्वारा सही और उपयुक्त शब्द की पहचान में छुपा मिलता है । लयात्मक शब्द की तलाश में कहीं-कहीं कवि बहुत दूर की छ्लांग लगाता है किन्तु यहाँ कवि का वह कौशल काम कर जाता है जो परस्पर विरोधी भावों और स्थितियों के ‘काक तालीय’ न्याय के परे ही स्थित प्रतीत होता है । यहाँ एक कविता का पूर्ण उदाहरण इस प्रकार दिया जा सकता है –
मौन तो तोड़ो
क्या सही, क्या है गलत
इस बात को छोड़ो
मौन तो तोड़ो
नेह के मधुरिम परस से
खिले मन की पांखुरी
मौन टूटे तो बजे
मनमीत! मन की बांसुरी
अजनबी हम तुम बने
संबंध तो जोड़ो
रचें मिलकर एक भाषा
राग की, अनुराग की
जो कभी बुझती नहीं
उस प्रीत वाली आग की
कामना के पंथ में तुम
प्रेम-रथ मोड़ो (पृष्ठ 60)
यह प्रेम गीत है । प्रेमी प्रेमी से कुछ बोलने की मनुहार कर रहा है। शायद, प्रेमिका किसी सोच, चिंता या आक्रोश में चुप्पी साध बैठी है । प्रेमी के पास चूंकि कविता की एक सशक्त भाषा है, अत: वह उससे अपनी प्रेमिका के हृदय के भीतर झाँकते हुये उसके स्पर्श से लेकर उसके साथ उड़ान भरने की भी सामर्थ्य भी हासिल किए हुये है । कवि अपने संवाद की सार्थकता के लिए ‘पांखुरी’, ‘बांसुरी’, ‘आग’, ‘पंथ’ और ‘प्रेम-रथ’ के जो बिम्ब खड़े करता है, वे इस प्रसंग विशेष में कोई दूर की कौड़ी बिलकुल नहीं हैं ।
अब चूंकि ‘काक तालीय’ न्याय का प्रसंग उठा है ( भारतीय दर्शन शास्त्र की इस विधा के अनुसार किसी संयोग को दो असंगत से परिणामों से जोड़ दिया जाता है। एक पक्षी के उड़ने और एक फल के गिरने की सांयोगिक घटना के उदाहरण से इसे ‘काक तालीय न्याय’ नाम दिया गया है ) तो उसका भी एक उदाहरण ले लेते हैं । ‘राजा जी’ रचना (पृष्ठ 102) का अंतिम चरण इस प्रकार है –
हमें हमारे हक का देदो, हम खुश हैं
जीते-जागते सीधे-सच्चे मानुष हैं
साधारण-सी बात किन्तु सच्चाई है,
मानो या मत मानो, हम तो अंकुश हैं
कवि के सामने की यहाँ प्रबलतर समस्या ‘मानुष’ प्रयोग की लय की मेल के स्थान पर उसे जीवित, जागृत और सीधे, सच्चे के निर्वाह की भी है । प्रश्न है कि ऐसा मनुष्य समग्रत: अपने को तीखे, निर्मम और निदेशक अंकुश की संज्ञा में ढाल कर पूर्व चरित्र से कितनी संगति शेष रख पाता है ?
इस संग्रह का एक गीत ‘भीम बैठका’ (पृष्ठ 69) अपनी पुरातात्त्विक यथातथ्यता में किसी भी गीत रचना के लिए अयोग्य विषयवस्तु कही जा सकती है किन्तु मनोज ‘कुशल हाथ द्वारा सख्त शिला की छाती चीरने’, ‘पेड़ों का प्रहरी बनकर थाती को बचाना’ और ‘वट वृक्षों द्वारा अंगद जैसा पाँव जमाने’ के भाव और भाषा प्रयोग की सटीकता में चमत्कार के सर्जक ठहरते हैं ।
मैं इस कृति के समादर और सिद्धि की अभिकामना करता हूँ ।
35 ईडन गार्डन, चूनाभट्टी, कोलार रोड भोपाल 462016 (prabhudmishra@yahoo.co.in)
परिचय
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प्रभुदयाल मिश्र (PD MISHRA)
जन्म – बर्माडांग (ग्राम), टीकमगढ़ (16 अक्तूबर 1946)
शिक्षा-एम.ए. अंग्रेजी साहित्य, विश्वविद्यालय सागर वर्ष 1968
भ्रमण-(1) वर्ष 1968-69 में महर्षि महेश योगी के साथ आध्यात्मिक
पुनरुत्थान आन्दोलन के सिलसिले में संपूर्ण भारत यात्रा ।
(2) वर्ष 1989 में मध्य एशिया के ताजिकिस्तान और उजवेगिस्तान
गणराज्यों में गीता और भारतीय योग पर व्याख्यान ।
(3) 2004, 2010, और 2017 में संयुक्त राज्य अमेरिका में योग और वैदिक व्याख्यान
(4) 2014 अरब अमीरात (दुवई) ताजिक इण्डियन योगा सीक्रेट का लोकार्पण
(5) 2015 मारीशस, अंतररास्ट्रीय रामायण सम्मलेन
जीवन-यापन- मध्य प्रदेश शासन की वरिष्ठ प्रशासनिक सेवा से निवृत्ति अनन्तर विश्वविद्यालयीन परामर्श, प्राध्यापन, लेखन और अनुसंधान
दीक्षा - साहित्य, योग, शक्तिपात, वेद और वेदान्त
प्रकाशित कृतियां-
1. सौंदर्यलहरी काव्यानुवाद -वर्ष 1990
2. दी गीता फार आल -1994
3. सबके लिए गीता-1996
4. उत्तर पथ 1998
5. मैत्रेयी 1999
6. वेद की कविता (वैदिक सूक्तों का काव्यान्तर) 2001
7. दी होली वेदाज फार आल-2003
8. मध्य प्रदेश स्वायत सहकारिता अधिनियम समीक्षा (हिंदी और अंगरेजी)
9. छत्तीसगढ स्वायत्त सहकारिता अधिनियम की गवेषणात्मक समीक्षा (अंग्रेजी और हिन्दी)
10. वेद की कहानियां - 2004
11. सब के लिए वेद - 2005
12. योग के सात आध्यात्मिक नियम-अनुवाद- 2006
13. सौन्दर्य लहरीः तंत्र दृष्टि और सौन्दर्य सृष्टि- 2007/2012
14. ईश्वर का घर है संसार - 2008
15. वेद पुष्पांजलि भाग- 1 (हिंदी अनुवाद) 2009
16. वेद पुष्पांजलि भाग -2 (हिंदी अनुवाद) 2013
17. यात्रा- अन्तर्यात्रा- 2013
18. केशव की कविता भूमि के दूर्वा- दल-2013
19. The way Farther- 2013
20. World: the abode of God- 2013
21. Tajik Indian Yoga Secrets- 2013
22. देवस्य काव्यम् -2013
23. वेद-कविता-2015
24. उद्धव गीता-2016
25. अर्धालियों के पूर्णाकार- 2016
26. व्यसायियों के लिए गीता (अनुवाद)- 2016
27. वैदिक सूक्तों का साहित्य- सन्देश-2017
28. A Vedic View of Supreme World Order-2019
29. सूर्या (वैदिक उपन्यास)- 2019
30. Veda, Vedant, Yoga and Sanatan Dharm-2019
31. Kshamadevi Rao (Translation) Saahitya Akedemy Delhi- 2020
32. Brahmvaadini Veda Mantra Commentary (Translation)- 2021
प्रकाश्य
1. Krishna: Gita, Bhaagwat and Mahaabhaarat
2. सगुण-निर्गुण ईश्वर: श्री राम-कृष्ण
शोध पत्र प्रकाशन और प्रस्तुतियाँ
राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, विश्वविद्यायीन और विदेश यात्रा काल तथा वेबिनार में साहित्य, दर्शन, अध्यात्म और योग संबंधी 26 शोध आलेख का प्रकाशन और प्रस्तुतीकरण ।
सम्पादन
साहित्य, दर्शन, अध्यात्म और भाषा संबंधी लगभग 10 पुस्तकें, जीवनियाँ और लेख संग्रह
सम्मान
1. मध्य प्रदश संस्कृत अकादमी द्वारा ‘व्यास पुरस्कार’ 1997
2. मध्यप्रदेश लेखक संघ द्वारा पुष्कर सम्मान 2004
3. भारत एक्सीलेन्सी एवार्ड 2006
4. महाकवि केशव सम्मान 2010 (श्री वीरेंद्र केशव साहित्य परिषद, टीकमगढ़)
5. सामाजिक ‘प्रणाम’ हिंदी भवन, भोपाल 2011
6. अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मान 2014
7. देव भारती सम्मान 2015
8. अक्षर शिल्पी सम्मान 2017, अभिनव कला परिषद् भोपाल
9. सारस्वत- साधना सम्मान 2017, भोपाल मेला उत्सव समिति
10. तुलसी सम्मान -2018, मध्य प्रदेश तुलसी साहित्य अकादमी
11. वृजवल्लभ आचार्य सम्मान 2021, मध्य प्रदेश लेखक संघ
सम्प्रति: अध्यक्ष महर्षि अगस्त्य वैदिक संस्थानम् और प्रधान संपादक 'तुलसी मानस भारती' भोपाल
संपर्क: 35ए ईडन गार्डन, कोलार रोड, भोपाल म.प्र.462016 मोबाइल 9425079072
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महाकवि कालिगास