शुक्रवार, 17 जून 2022

पण्डित सुधाकर शर्मा जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

पण्डित सुधाकर शर्मा जी के नवगीत


प्रस्तुति
वागर्थ

 गीत
          

बाहर बाहर हॅसता गाता,
भीतर भीतर रोता हूॅ !
जो दिखता वह होता कब हूॅ?
जो न दिखूॅ वह होता हूॅ !!

कितने ओढ़ रखे आडम्बर ?
फिर भी लोग मानते सादा!
राजनीति जैसा चरित्र है,
हौले से पानी में पादा !

उठते हुए बुलबुलों को मैं
पानी में ही धोता हूॅ !!
जो दिखता वह होता कब हूॅ ?
जो न दिखूॅ वह होता हूॅ !!

तेवर रोज़ बदलते रहते
बस चुनाव में ही टिकते हैं!
बिकने पर आजायें तो फिर
दो कौड़ी में भी बिकते हैं !!

मूल्य और सिद्धांत किताबी
हर भाषण में ढोता हूॅ !!
जो दिखता वह होता कब हूॅ ?
जो न दिखूॅ वह होता हूॅ !!

   दो
         
एक गीत ऐसा भी...

सूर्य!
तू जितना तपा सकता तपा!
मैं तपस्वी की तरह तपता रहूॅगा !!

प्रेम भी तो है तपस्या!
फिर भला क्यों हो समस्या?

तप तपाकर नाम मैं जपता रहूॅगा !!
मैं तपस्वी की तरह तपता रहूॅगा !!

स्वर्ग बाला क्या डिगाये?
इंद्र खुद ही डगमगाये !

हरि - पद s त्रय नाप लें,
नपता रहूॅगा !!
मैं तपस्वी की तरह तपता रहूॅगा !!

यम नियम संयम निरर्थक !
साॅस के संग्राम भरसक...

युगयुगांतर से खपा खपता रहूॅगा !! 
मैं तपस्वी की तरह तपता रहूॅगा !!

   तीन
       

खोलकर रख दी हृदय की पुस्तिका
प्रिए !
ढाई आखर बॉच लो तो बॉच लो !!
मैं नहीं गाता अगर 
बीतती कैसे उमर ?
सॉस ही तो रच रही प्रिए !
प्रणय का मधुरिम 
मुखर स्वर !
ना छिदेगा , ना कटेगा , ना जलेगा !
आँच ही कैसे तपाये आँच को ?
ढाई आखर बॉच लो तो बाँच लो !!

लौ लगन गति ताल लय
बूँद  का  सागर - विलय 
वाष्प फिर घन सघन बन
वन बीहड़ों मरु में
बरस क्षय !
कर रही उद्घोष जय का शुभ सनातन
काल क्या कवलित करेगा 
सॉच को ?
ढाई आखर बॉच लो तो 
बॉच लो  !!
                 चार

मूल्यहीन सिद्धांत - विचार !

उनका बड़ा बिकाऊ घोड़ा!
अश्वमेध सा छुट्टा छोड़ा!
तोड़  लिये  पूरे बावीस ,
"फूलों" का चल पड़ा हथोड़ा!

टस से मस न हुई सरकार !!
मूल्यहीन सिद्धांत- विचार !!
राजनीति के गोरख धंधे !
छल छंदे ,मति मंदे-गंदे !
गुंडे - लुच्चे और लफंगे,
जन-सेवा के पग पग फंदे!
सारी उठा- पटक बेकार !!
मूल्य हीन सिद्धांत- विचार !!

ना ये साधो,ना वे संत!
राजे - म्हाराजे,श्रीमंत!
इक थैली के चुट्टे भुट्टे,
सत्ता के भूखे भगवंत!

राज धर्म...!धंधा - व्यापार !!
मूल्य हीन सिद्धांत- विचार !!

पाँच
                  
दो अक्टूबरी ढकोसले का
गीत....
                   *
तर ब तर थीं जिनकी दाड़ें ख़ून से
भेड़ियों का झुंड वह
कितना अहिंसक हो चला?
     साधु के चरित्र को
     करते प्रमाणित चोर!
     मित्र! यह जो फट रही पौ
     यह नया है भोर !!
वो जो हत्यारा महात्मा का कभी था,
आजकल देखो प्रशंसक हो चला !!
     आँख तो मूॅदो,
     सभी कुछ ठीक ही है!
     यार ! दरबारों में सब
     सटीक ही है !!
सच न कहना,सच तो बाग़ी बोलते हैं,
... फिर न कहना शाह हिंसक हो चला !!
      अब तो गोरों की जगह
      काले लुटेरे हैं !
      सज्जनों को हर घड़ी
      कानून घेरे हैं !!
हाक़िमों की पीठ पर अपराधियों के हाथ... 
तंत्र तो स्साला नपुंसक हो चला !!

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