सीताराम पथिक जी की एक टिप्पणी
एक टिप्पणी
आदरणीय भाई मनोज जी अगर आज से 30 वर्ष पहले आपने यह गीत लिखा होता तो पूरी तरह अप्रासंगिक होता क्योंकि तब बच्चों में संस्कार हुआ करते थे वह अपने माता पिता को भगवान से भी अधिक मानते थे हम सब उसी पीढ़ी के हैं परंतु वर्तमान में समाज क्या ताना-बाना ऐसा टूटा है ऐसा बिगड़ा है की मां बाप अब आधुनिक पीढ़ी के बच्चों के लिए सिर्फ एक सीढ़ी रह गए हैं वह उनके कंधे पर पांव रखकर ऊपर चढ़ जाते हैं इसके बाद उनको लगता है हमारी कमजोरी सिर्फ हमारे मां-बाप ही जानते हैं और वह उन्हें ही सबसे पहले हटाने लगते हैं तुलसी बाबा ने भी लिखा है
जेहिसे नीच बढ़ाई पबा सफलता ही नशा पर उन्होंने अन्य के लिए लिखा था आज अपनी औलाद भी यही कर रहे हैं जब तक काम आ रहा है जब तक काम कर रहा है उनके लिए उपयोगी है तब तक बच्चे उसका भरपूर दोहन करते हैं इसके बाद जब पिता कुछ करने लायक नहीं हो जाता तो वह सिर्फ नुमाइश की चीज रह जाता है घर में बाहर से कोई आए तब उस दिन पिता के कपड़े अलग होंगे खानपान अलग होगा बाकी अन्य दिन पिता एक-एक रोटी के लिए तरसते हैं यह मैंने अपनी आंखों से समाज में देखा है पुत्र अपने पुत्र को गोद में बिठाकर भविष्य की कल्पना करता है कि यह बच्चा मुझे असीम सुख सुविधाओं से सराबोर कर देगा परंतु खुद अपने पिता को वह स्नेह की दो बूंद देने के लिए तैयार नहीं धिक्कार है ऐसे पुत्रों पर इसमें बहुओं का उतना हाथ नहीं है जितना पुत्र का है क्योंकि होता क्या है बहू ने बाहर से आती हैं उन्हें बताता है कि अगर हमारे पिता अच्छे हैं हमको बहुत प्यार करते हैं श्रद्धा नवत हो जाते हैं और उनकी नजरों में पिता और माता का दर्जा अलग हो जाता है पर अगर पुत्र बहुओं से कह दे कि पिता हम को बहुत मारते थे हमको बहुत पीटते थे तो उन बहुओं का नजरिया पिता और माता के प्रति बिल्कुल बदल जाता है उनको लगता है जब यह हमारे पति को ही इतना कष्ट देते रहे तो हमें सुख नहीं देंगे हमें इसने नहीं मिलेगा और उसी दिन से बहुओं के विरोधी हो जाते हैं बड़ी विसंगति है जो पीता पेंशनर नहीं है
आदरणीय भाई मनोज जी अगर आज से 30 वर्ष पहले आपने यह गीत लिखा होता तो पूरी तरह अप्रासंगिक होता क्योंकि तब बच्चों में संस्कार हुआ करते थे वह अपने माता पिता को भगवान से भी अधिक मानते थे हम सब उसी पीढ़ी के हैं परंतु वर्तमान में समाज क्या ताना-बाना ऐसा टूटा है ऐसा बिगड़ा है की मां बाप अब आधुनिक पीढ़ी के बच्चों के लिए सिर्फ एक सीढ़ी रह गए हैं वह उनके कंधे पर पांव रखकर ऊपर चढ़ जाते हैं इसके बाद उनको लगता है हमारी कमजोरी सिर्फ हमारे मां-बाप ही जानते हैं और वह उन्हें ही सबसे पहले हटाने लगते हैं तुलसी बाबा ने भी लिखा है
जेहिसे नीच बढ़ाई पबा सफलता ही नशा पर उन्होंने अन्य के लिए लिखा था आज अपनी औलाद भी यही कर रहे हैं जब तक काम आ रहा है जब तक काम कर रहा है उनके लिए उपयोगी है तब तक बच्चे उसका भरपूर दोहन करते हैं इसके बाद जब पिता कुछ करने लायक नहीं हो जाता तो वह सिर्फ नुमाइश की चीज रह जाता है घर में बाहर से कोई आए तब उस दिन पिता के कपड़े अलग होंगे खानपान अलग होगा बाकी अन्य दिन पिता एक-एक रोटी के लिए तरसते हैं यह मैंने अपनी आंखों से समाज में देखा है पुत्र अपने पुत्र को गोद में बिठाकर भविष्य की कल्पना करता है कि यह बच्चा मुझे असीम सुख सुविधाओं से सराबोर कर देगा परंतु खुद अपने पिता को वह स्नेह की दो बूंद देने के लिए तैयार नहीं धिक्कार है ऐसे पुत्रों पर इसमें बहुओं का उतना हाथ नहीं है जितना पुत्र का है क्योंकि होता क्या है बहू ने बाहर से आती हैं उन्हें बताता है कि अगर हमारे पिता अच्छे हैं हमको बहुत प्यार करते हैं श्रद्धा नवत हो जाते हैं और उनकी नजरों में पिता और माता का दर्जा अलग हो जाता है पर अगर पुत्र बहुओं से कह दे कि पिता हम को बहुत मारते थे हमको बहुत पीटते थे तो उन बहुओं का नजरिया पिता और माता के प्रति बिल्कुल बदल जाता है उनको लगता है जब यह हमारे पति को ही इतना कष्ट देते रहे तो हमें सुख नहीं देंगे हमें इसने नहीं मिलेगा और उसी दिन से बहुओं के विरोधी हो जाते हैं बड़ी विसंगति है जो पिता पेंशनर नहीं है
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