कीर्तिशेष कुँवर बेचैन जी के दो नवगीत
प्रस्तुति
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अनुराधा "अंजनी"
एक
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जीने का एक दिन
मरने के चार
हमने लिए हैं उधार
मटमैले मेज़पोश
लँगड़े ये स्टूल
ग़मलों में गंधहीन
काग़ज के फूल
रेतीली दीवारें
लोहे के द्वार
हमने लिए हैं उधार
दो गज़ की देहों को
दस-इंची वस्त्र
इस्पाती दुश्मन को
लकड़ी के शस्त्र
झुकी हुई पीठों पर
पर्वत के भार
हमने लिए हैं उधार
घाव-भरे पाँवों को
पथरीले पंथ
अनपढ़ की आँखों को
एम.ए. के ग्रंथ
फूलों-से हृदयों को
कांटों के हार
हमने लिए हैं उधार
दो
मन बेचारा एकवचन
लेकिन
दर्द हजार गुने
चाँदी की चम्मच लेकर
जन्में नहीं हमारे दिन
अँधियारी रातों के घर
रह आए भावुक पल-छिन
चंदा से सौ बातें कीं
सूरज ने जब घातें कीं
किंतु एक नक्कार-
गेह में तूती की ध्वनि
कौन सुने
बिके अभावों के हाथों
सपने खील-बताशों के
भरे नुकीले शूलों से
आँगन-खेल तमाशों के
कुछ को चूहे काट गए
कुछ को झींगुर चाट गए
नए-नए संकल्पों के
जो भी
हमने जाल बुने
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