मंगलवार, 30 अगस्त 2022

रत्नदीप खरे के चार नवगीत प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग

(१) 

एक अरसा हो गया है
                 ख़त पढ़े.

       दूरभाषों से सतत्
                 संलिप्तता, 
क्या लिफ़ाफ़ों पर लिखें
                  भूले पता, 

             सिर्फ़ नंबर ही 
            जुबानों पर चढ़े.

           ना रहे आशीष
         ना ही वो दुआयें, 
    हैं अपाहिज़ सी पड़ीं
                 संवेदनाएं, 

भाव तक शुभकामनाओं
                        के बढ़े.

         कौन रखता याद
            अब नाते भला, 
      घोंटकर संवेदनाओं
                    का गला, 

     सिर्फ़ सुविधा से नये
                   रिश्ते गढ़े.

                (२) 

काग नहीं बैठा मुड़ेर पर
              बहुत दिनों से.

         रिश्ते बोझिल हुए
       किंतु ढ़ोना मजबूरी, 
         दूरभाष की वज़ह
        डाकियों से है दूरी, 

      वैसे भी संबंध बचे हैं
                  इनों गिनों से.

लुप्त हुआ शीशम जंगल से
                     बांस मरे हैं, 
दुखी धावड़ा,सागवान के
                     घाव हरे हैं, 

नहीं बुलाती वनपाखी अब
                    शालवनों से.

    सूख रही हैं रस्म रिवाज़ों
                   वाली नदियाँ, 
  इस पीढ़ी का दर्द उठायेंगी
                     अब सदियाँ, 

     भूल गए आशीष मांगना
                    वृद्ध जनों से.


                (३) 

      दुख नहीं देखा किसी
                 ने भी नदी का.

   क्या न सहती धूप,बरखा                                            
                     और जाड़े, 
        कुछ न ओढ़े,है पड़ी
                   ये तन उघाड़े़, 

       ढ़ो रही अभिशाप जाने
                 किस सदी का.

       छिल गयी है देह कंकर
                       पत्थरों से, 
         और कर्कट ही मिला
                 आकर घरों से, 

          पढ़ रही जैसे पहाड़ा
                      त्रासदी का.

     घाट पर होती सियासी
                    कुश्तियों ने, 
    खूब नोंचा तट पे बसती
                     बस्तियों ने, 

          हो गयी पर्याय मानो
                     द्रौपदी का.

                 (४) 

  सुर्खाबों के पंख हुए सुख, 
               दुख परछाई है.

  ताल,झील,पोखर पीले से, 
               अरसे से बीमार, 
    कुयें कुयें से उठती खांसी
           नदियों चढ़ा बुखार, 

        खेतों की ऐंड़ी में जैसे
                 फ़टी बिवाई है.

     डाल डाल रोया है सेमल
         मन पलाश अकुलाये, 
     और धूप ने पत्थर इतनी
               जोरों से बरसाये, 

   भरी दोपहर लुटी छांव की
                  जमा कमाई है.

    हुई धौंकनी सांस,लुहारों
            जैसी लगती काया, 
       बुरे दिनों के हाथों चिट्ठी
             देकर के बुलवाया, 

  हुआ अदालत वक्त न जाने
                 कब सुनवाई है.


                   रत्नदीप खरे

गुरुवार, 25 अगस्त 2022

कवि धनञ्जय सिंह जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

  धनञ्जय सिंह जी के गीत : प्रस्तुति वागर्थ
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संक्षिप्त जीवन परिचय 


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जन्म : 29 अक्टूबर, 1945 ई0।
ग्राम : अरनिया, जनपद बुलंदशहर [उत्तर प्रदेश]
शिक्षा : एम.ए. हिन्दी, पी-एच.डी।
माँ : स्व.श्रीमती प्रेमवती देवी।
पिता : स्व.श्री अमरसिंह आर्य 'पथिक'।

व्यवसाय : पत्रकारिता एवं लेखन। पूर्व  मुख्य कॉपी सम्पादक 'कादम्बिनी' अब स्वतंत्र लेखन।

प्रकाशित कृतियाँ : [1] 'पलाश दहके हैं' 1997 शुभम् प्रकाशन, दिल्ली। [2] 'दिन क्यों बीत गये' 2017 अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद, दिल्ली।

अन्य प्रकाशन : साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, कादम्बिनी, सारिका, कल्पना, लहर, उत्कर्ष, मधुमती, हिमप्रस्थ, शीराजा,  आजकल, उत्तर प्रदेश, गीत गागर, सरस्वती सुमन, रविवारीय हिन्दुस्तान आदि अनेक प्रतिष्ठित एवं स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। नवगीत अर्द्धशती, श्रेष्ठ हिन्दी नवगीत, हिन्दी के लोकप्रिय गीतकार आदि लगभग दो दर्जन समवेत संकलनों में गीत संकलित एवं प्रकाशित। लगभग साठ काव्य-संकलनों का सम्पादन। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के अतिरिक्त देश-विदेश के काव्य-मंचों  से काव्य-पाठ। 

अन्य गतिविधियाँ : प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के आजीवन सदस्य। ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के आजीवन सदस्य। अमर भारती साहित्य संस्कृति संस्थान [अंतर्राष्ट्रीय] के संस्थापक-अध्यक्ष। लगभग बीस देशों की साहित्यिक यात्राएँ। दिल्ली हिन्दी अकादमी की संचालन समिति के सदस्य [1998 से 2008 तक] एवं इंडियन जनर्लिस्ट यूनियन के आजीवन सदस्य। जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य।

साहित्यिक गतिविधियाँ : अमृता प्रीतम, कालिन्दीचरण पाणिग्रही, विष्णु प्रभाकर, वारान्निकोव एवं हमजुल गमजातोव रूसी लेखक के साक्षात्कार लिये। दूरदर्शन के राष्ट्रीय कवि सम्मेलन 'चेतना के स्वर' का 1980 से 2011 तक संयोजन। दूरदर्शन के आर्काइव्ज विभाग में दो वर्ष संपादन कार्य किया।

सम्मान पुरस्कार : 'साहित्य भूषण' सहित अनेकानेक सम्मान पुरस्कारों से अलंकृत समादृत। विशेष : फीचर फिल्म 'अन्तहीन' में गीतकार। 

सम्पर्क सूत्र : 1084 विवेकानंद नगर, गाज़ियाबाद - 201002 [उत्तरप्रदेश] चलभाष : 098106-85549

[एक]
मौन की चादर 
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आज पहली बार मैंने
मौन की चादर बुनी है
काट दो, यदि काट पाओ तार कोई!

एक युग से
ज़िन्दगी के घोल को मैं
एक मीठा विष समझकर पी रहा हूँ
आदमी
घबरा न जाए
मुश्किलों से
इसलिये मुस्कान बनकर जी रहा हूँ

और यों
अविराम गति से बढ़ रहा हूँ
रुक न जाए राह में, मन हार कोई!

बहुत दिन पहले
कभी जब रौशनी थी
चाँदनी ने था मुझे तब भी बुलाया
नाम चाहे जो इसे
तुम आज दो पर
कोष आँसू का नहीं मैंने लुटाया

तुम
किनारे पर खड़े आवाज़ मत दो
खींचती मुझको इधर मँझधार कोई!

एक झिलमिल -सा
कवच जो देखते हो
आवरण है यह उतारूँगा इसे भी
जो अँधेरा
दीपकों की आँख में है
एक दिन मैं ही उजारूँगा उसे भी

यों प्रकाशित
दिव्यता होगी हृदय की
है न जिसके द्वार बन्दनवार कोई!

नित्य ही होता
हृदयगत भाव का संयत प्रकाशन
किन्तु मैं अनुवाद कर पाता नहीं हूँ
जो स्वयं ही
हाथ से छूटे छिटककर
उन क्षणों को याद कर पाता नहीं हूँ

यों लिये वीणा
सदा फिरता रहा हूँ
बाँध ले शायद तुम्हें झनकार कोई!
                  •••
   
 [दो]
फिर घिर आई शाम 
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पिघला सोना लिये
तटों पर
फिर घिर आई शाम !

खड़े हुए
सागर के तीरे
देख रहे हम
धीरे-धीरे

अँधियारे से लड़
सूरज का
होते काम तमाम !

अब
चमकेंगे
नभ में तारे
छिपे रहे
जो दिन भर
सारे

इनके बल पर
रजनी की छवि
होगी ललित-ललाम !

फिर से
नभ में
तौल परों को
लगे
लौटने
विहग घरों को

बाँट-बाँट
खुशियाँ आपस में
होंगे सब उपराम !
       •••
  
[तीन]
मूर्च्छाओं से 
---------------------
निकल आये हम
गहन अंधी गुफाओं से।

था न जिनका
रोशनी से
नाम भर नाता
शब्द भूले से
नहीं कोई जहाँ जाता

जहाँ केवल घुटन
मिलती थी हवाओं से।

भावनाओं का
नहीं था
ज्वार या भाटा
हर दिशा में
गूँजता था एक सन्नाटा

विष जहाँ विद्वेष
रखते थे दवाओं से।

नहीं कोई
छुअन तन-मन को
जगा पाती
चाह कोई भी न मन में
सुगबुगा पाती

था घिरा जीवन
जहाँ बस वर्जनाओं से।

साँप-बिच्छू-गोजरों 
का वास था
चतुर्दिक बस
मरघटी एहसास था

प्राण-स्पंदन
घिरा था मूर्च्छाओं से।
                      •••
          
[चार]
अब डर लग रहा है 
--------------------------
सीटियाँ
देने लगी है रात
अब डर लग रहा है !

एक जंगल
आग में जलता हुआ
एक पर्वत का
शिखर गलता हुआ
बीच में से
कारवाँ चलता हुआ

एक पल में
बीस उल्कापात
अब डर लग रहा है !

एक सूरज का
बदन काला हुआ
ताप किरणों का
जमा पाला हुआ
हर शहर में
एक 'चसनाला' हुआ

भृगु-चरण का
वक्ष पर आघात
अब डर लग रहा है !

अश्वत्थामा के
व्रणों का स्राव
ले रहा
दिक्काल में फैलाव
शून्य में
चीत्कार का बिखराव

खड़खड़ाते
शुष्क पीपल पात
अब डर लग रहा है !
           •••
      ■ धनञ्जय सिंह

 [पाँच]
।। उग आई नागफनी ।।
-----------------------------
हमने कलमें
गुलाब की रोपी थीं
पर गमलों में
उग आई नागफनी !

जीवन
ऐसे मोड़ों तक आ पहुँचा
आ जहाँ
हृदय को सपने छोड़ गये
मरघट की
सूनी पगडंडी तक ज्यों
कंधा दे
शव को अपने छोड़ गये

सावन-भादौं के
मेघों के जैसा
मन भर-भर आया
पीड़ा हुई घनी !

आशा के सुमन
महक तो जाते पर
मुसकानों वाले
भ्रम ने मार दिया
पतझर को तो
बदनामी व्यर्थ मिली
हमको
मादक मौसम ने मार दिया

पूजन से तो
इनकार नहीं था पर
अपने घर की
मन्दिर से नहीं बनी !

रंगों - गंधों में
रहा नहाता पर
अपनापन
इस पर भी मजबूरी है
कीर्तन में चाहे
जितना चिल्लाएँ
मन की ईश्वर से
फिर भी दूरी है

सौगंधों में
अनुबन्ध रहे बँधते
पर मन में कोई
चुभती रही अनी !

समझौतों के
गुब्बारे बहुत उड़े
उड़ते ही सबकी
डोरी छूट गई
विश्वास किसे
क्या कह कर बहलाते
जब नींद
लोरियाँ सुनकर टूट गई

सम्बन्धों से
हम जुड़े रहे यों ही
ज्यों जुड़ी
वृक्ष से हो टूटी टहनी !
           •••
      
 [छः]
नहीं धूप की गर्मी ......
----------------------------------
कैसी अजब
शिशिर ऋतु आयी 
गहन कुहासा है।

ओढ़े कम्बल रोज़ 
देर तक 
सूरज सोता है 
भीड़ भरी
राहों पर भी 
सन्नाटा होता है 

सर्द हवाओं का
डर भी तो 
अच्छा-ख़ासा है।

फिर-फिर
बजें अलार्म 
किन्तु
हम सोये रहते हैं 
सपनों की
उड़ान भर 
नभ में खोये रहते हैं 

उजियारा
अँधियारे में घिर 
हुआ रुआँसा है।

रेलें ठहरी हैं 
विमान की रुकीं
उड़ानें हैं 
इधर घोंसलों में
बंदी कलरव की तानें हैं 

नहीं धूप की
गर्मी फिर भी
मन क्यों प्यासा है ?
                •••
       ■ धनञ्जय सिंह.

 [सात]
।। दिन क्यों बीत गये ।।
-----------------------------
कौन, किसे
समझा पाया
लिख-लिख गीत नये
दिन क्यों बीत गये।

चौबारे पर
दीपक धर कर
बैठ गई संध्या
एक-एक कर
तारे डूबे
रात रही बन्ध्या

यों स्वर्णाभ-
किरण-मंगल घट
तट पर रीत गये।

छप-छप करती
नाव हो गई
बालू का कछुआ
दूर किनारे पर
जा बैठा
वंशीधर मछुआ

फिर
मछली के मन पर काँटे
क्या-क्या चीत गये।
         •••
    
 [आठ]
 नींदों के सिमट गये माप...
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गीतों के
मधुमय आलाप
यादों में जड़े रह गये 
बहुत दूर
डूबी पदचाप
चौराहे पड़े रह गये।

देख-भाल
लाल-हरी बत्तियाँ
तुमने सब रास्ते चुने
झरने को झरीं
बहुत पत्तियाँ
मौसम आरोप क्यों सुने

वृक्ष देख
डाल का विलाप
लज्जा से गड़े रह गये।

तुमने दिनमानों के
साथ-साथ 
बदली हैं केवल तारीखें
पर बदली घड़ियों का
व्याकरण हम
किस महाजन से सीखें

बिजली के
खम्भे से आप
एक जगह खड़े रह गये।

वह देखो
नदियों ने बाँट दिया 
पोखर के
गड्ढों को जल
चमड़े के
टुकड़े बिन प्यासा है
आँगन-चौबारे का नल 

नींदों के
सिमट गये माप
सपने ही बड़े रह गये!
                 •••
             ■ धनञ्जय सिंह
--

रामबाबू रस्तोगी के पाँच नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग



 नवगीत --1

शब्द जीते हो
उसे ही आजमाते हो
गीत की पदचाप पर
पहरे लगाते हो ।

जीत कर भी हर जाना
सीख लो 
आंसुओं को घर बिठाना 
सीख लो ।

दर्द के वन में 
नए बिरवे उगाते हो ।

सोचना था तो सफर में 
रोक लेते
जो हृदय में था भरा
वो बोल देते ।

चीख होठों पर सजा कर
मुस्कराते हो ।

चांदनी का मर्म भी कुछ
जान जाओ
रात को आवाज़ से
पहचान जाओ ।

बादलों को धूप से लड़ना
 सिखाते हो ।

ये सियासत है किसी
कछुए सरीखी 
है जो जगबीती 
वही है आपबीती ।

तुम इसी मनहूस के 
किस्से सुनाते हो ।



नवगीत--2

हम सरल कितने
कहीं मुश्किल नहीं हैं
पर तुम्हारे नेह के 
काबिल नहीं हैं ।

जिंदगी को फूल समझे 
चोट खाई
क्यों चढ़े तूफान में 
कश्ती चलाई ।

इस थकन में
हमसफर शामिल नहीं हैं ।

बोनसाई बन गईं 
अपनी कथाएं 
चार शब्दों में 
समाई भूमिकाएं ।

हैं नदी के साथ
पर साहिल नहीं हैं ।

पी रहा है रोज़ सूरज
रोशनी घट
भाग्य में अपने लिखी है
सिर्फ तलछट ।

क्या बताएं किस तरफ
क़ातिल नहीं हैं ।



नवगीत---3

बादलों का 
धूप से रिश्ता नहीं होता ।


रोशनी की  
डबडबाई आंख क्या बोले
भावना खोले कि वो
संभावना खोले ।

दर्द कोई भी 
बड़ा छोटा नहीं होता ।

किस कदर 
कड़वाहटें फैली हुई हैं
चाहतों की तीलियां 
सीली हुई हैं ।

मौसमों का  
चीखना अच्छा नहीं होता।

हम सियासत की जबानी
कुछ नहीं कहते 
किस तरफ है राजधानी
कुछ नहीं कहते ।

लोग चुप हों
वक्त तो गूंगा नहीं होता ।


नवगीत--4

चले समय के साथ
मगर अब 
खोज रहे पगडंडी ।

साधू बाबा ,ज्ञानी , साधक
शौर्यवान,विद्वान ,विचारक
चोटीवाला ,कोटीवाला 
पहलवान ,संगीत सुधारक।

जो जैसा हो 
भाव लगाती
राजनीति की मंडी ।

सुचिता दरवाज़े के बाहर
धूर्त दिखाते अपना तेवर
एक दाम में माल सभी है
रसगुल्ला , गुझिया, गुड़ ,घेवर।

सब कुछ तो दिखता है 
पहनो
वायल या अरगंडी ।

निष्ठावान सहायक देखे 
कितने भांड विदूषक देखे
राजनीति इस नगरी में 
सबके सब खलनायक देखे ।

धुआं , राख कुछ नहीं
सुलगती
इच्छाओं की कंडी

नवगीत--5

समय का 
अपना गणित है 
हम नहीं जाने ।

तीर अर्जुन के , शकुनि का
गृह विनाशक दांव
राज पर भारी पड़े थे
पांच याचित गांव ।

सह सका गांडीव कब
इतिहास के ताने ।

आज भी हावी वही
धृतराष्ट्र के वंशज
सामने हैं पौत्र ,बाबा 
भ्रात औ भ्रातज ।

स्वार्थ कब संबंध 
रिश्ते नात पहचाने ।

राम का सौजन्य बदला
युग बदलते ही 
कृष्ण के रथ ने किया 
कोहराम चलते ही ।

योगियों का रूप समझे 
सिर्फ दीवाने ।


समय का अपना गणित है 
हम नहीं जाने ।

बुधवार, 24 अगस्त 2022

धीरज श्रीवास्तव जी के गीत प्रस्तुति : वागर्थ


वागर्थ में पढ़िये एक ऐसे कवि के गीत जो हमारे समाज की विसंगतियों को हू-ब-हू प्रस्तुत करते हैं । भाषाई सहजता पाठक से मानसिक श्रम नहीं कराती । अपने गीतों की भाषा से ही सरल , संवेदनशील कवि धीरज श्रीवास्तव जी के गीत वागर्थ और पाठकों को निश्चित ही समृद्ध करेंगे ।

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(1)

चुप रहना मत रोना अम्मा
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अपने घर का हाल देखकर चुप रहना, मत रोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना- कोना अम्मा !

खेत और खलिहान बिक गये
इज्जत चाट रही माटी !
अलग अलग चूल्हों में मिलकर
भून रहे सब परिपाटी !

नज़र लगी जैसे इस घर को या कुछ जादू टोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना कोना अम्मा !

बाँट लिए भैया भाभी ने
बाग बगीचे गलियारे !
अन ब्याही बहना है अब तक
बैठी लज्जा के मारे !

दुख की गठरी इन कंधों पर जाने कब तक ढोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना कोना अम्मा !

छोटे की लग गयी नौकरी
दूर शहर में रहता है !
पश्चिम वाली हवा चली जो
संग उसी के बहता है !

सिर्फ रुपैय्या खाता पीता या फिर चाँदी सोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना कोना अम्मा !

सिसक रहे हैं बर्तन भाड़े
मेज कुर्सियाँ अलमारी !
जो आँगन में तख्त पड़ा था
उस पर आज चली आरी !

तुम होती तो देख न पाती यों रिश्तों का खोना अम्मा !
सन्नाटे में बिखर गया है घर का कोना कोना अम्मा !

(2)

फटे पाँव हाथों में छाले
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फटे पाँव हाथों में छाले।
मगर मस्त हैं रिक्शे वाले।

रोज थिरकतीं मदहोशी में,
सांझ ढले आशाएं भोली।
स्वप्न अधूरे ठर्रा पीकर,
नमक चाट कर करें ठिठोली।
फुटपाथों पर नग्न गरीबी
पड़ी अगौंछा मुँह पर डाले।

सेंक रही है बैठ विवशता
ईंटों के चूल्हे पर रोटी।
प्यासा गला ढूंढता फिरता
सड़क किनारे नल की टोटी।
भूख निगलती प्याज तोड़कर
हरी मिर्च के साथ निवाले।

अक्सर करते जाम सड़क को,
रैली ,धरने बैनर झंडे।
खिसियाई खाकी बरसाती,
रिक्शे के कूल्हों पर डंडे।
भद्दी भद्दी गाली खाकर,
अपमानों के पीते प्याले।

ठंड गिराती आसमान से,
साथ ओस के भाई-चारा।
एक फटे कम्बल में करते,
राधे-जुम्मन साथ गुजारा।
भिड़ें अजानें शंखों के संग ,
या मस्ज़िद से लड़ें शिवाले।

(3)

सँवरकी
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आज अचानक हमें अचम्भित,
सुबह-सुबह कर गयी सँवरकी।
कफ़ ने जकड़ी ऐसे छाती,
खाँस-खाँस मर गयी सँवरकी।

जूठन धो-धोकर,खुद्दारी,
बच्चे दो-दो पाल रही थी।
विवश जरूरत जान बूझकर,
बीमारी को टाल रही थी।
कल ही की तो बात शाम को
ठीक-ठाक घर गयी सँवरकी।

लाचारी पी-पीकर काढ़ा
ढाँढस रही बँधाती मन को।
आशंकित थी, दीमक बनकर,
टीबी चाट रही है तन को। 
संघर्षों से हाथ छुड़ाकर
भव सागर तर गयी सँवरकी।

करवानी थी जाँच खून की,
मदद पाँच सौ माँग रही थी।
हमको लगा गरीबी शायद,
रच फिर कोई स्वाँग रही थी,
फूट-फूट कर रोई पीछे,
सम्मुख हँसकर गयी सँवरकी।

देती रही दुहाई सेवा,
कुटिल स्वार्थ ने व्यथा न जानी।
करती रही याचना झोली
अडिग रहा बटुआ अभिमानी।
वैभव के पनघट से लेकर,
खाली गागर गयी सँवरकी।

खड़ी हुई लज्जित निष्ठुरता,
शव के आगे शीश झुकाये।
पूछ रहा सामर्थ्य स्वयं से,
अब वह किससे खेद जताये।
जाते-जाते, पढ़ा प्रेम के,
ढाई आखर गयी सँवरकी।

(4)
कल्लू काका
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चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

घर में भूजी भाँग न बाकी 
भूखा पेट बहुत हठधर्मी।
आलस पड़ा भरे खर्राटे
गर्दन तक ओढ़े बेशर्मी।
सैर स्वप्न में करें इरादे 
लन्दन पेरिस दुबई ढाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

उछल उछल लँगड़ी आशाएं
दिखा रहीं फोकट में सर्कस।
बीड़ी,जर्दा,चिलम,चुनौटी
अद्वी,पौव्वा करें चकल्लस।
पंचायत की धूर्त सियासत
लगा रही बिंदास ठहाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

नाकामी गढ़ रही बहाने
कुटिल कर्ज की भौंह तनी है।
ब्याज उसे कैसे दे मोहलत
रूठी जिससे आमदनी है।
खर्च डालता मूँछ ऐंठकर,
मिट्टी की गुल्लक पर डाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

(5)

रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील
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रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील!
उसकी खुशियाँ उसके सपने वक्त गया सब लील!

बिन पानी के मछली जैसे
तड़प रहा वह आज!
बिटिया अपनी ब्याहे कैसे
और बचाये लाज!

संघर्षों में सूख चली है आँखों की भी झील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

शहर दिखाये ले जाकर जब
दो हजार हों पास!
संगी साथी कौन दे रहा
नहीं किसी से आस!
ठोक रही बीमारी माँ की छाती में बस कील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

कर्म भाग्य का नहीं संतुलन
बनी गरीबी गाज!
देखे जो लाचारी इसकी
ताक लगाये बाज!

व्यंग्य कसे मुस्काये अक्सर खाँस-खाँस कर चील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

फिर भी हिम्मत क्यों हारे वो
जीना है हर हाल।
पटरी पर ला देगा गाड़ी
आते-आते साल।

रोज-रोज आशाएँ दौड़ें जाने कितने मील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

(6)

एक अचम्भा
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एक अचम्भा देखा हमने
आज गाँव के पास।
आसमान से परी उतरकर
छील रही थी घास।

सुंदरता को देख देवियाँ
रहीं स्वयं को कोस !
श्रम की बूँदें यों माथे पर
ज्यों फूलों पर ओस !

चूड़ी की खन खन सँग उसके
नृत्य करे मधुमास।
आसमान से परी उतर कर
छील रही थी घास।

चटक धूप में कोमल काया
दिखे कुंदनी रूप !
धूल सने हाथों से गढ़ती
पावन दृश्य अनूप !

करती जाती कठिन तपस्या
साथ लिए विश्वास।
आसमान से परी उतर कर
छील रही थी घास।

डलिया, खुरपा हरी धरा पर
छेड़ रहे थे तान !
अंग अंग से छलक रहा था
मेहनत का अभिमान !

साथ हवा के करती जाती
मधुर हास-परिहास।
आसमान से परी उतरकर
छील रही थी घास।

   - धीरज श्रीवास्तव

परिचय
----------

संक्षिप्त -परिचय

नाम-   धीरज श्रीवास्तव                                             
पिता-  स्व. रमाशंकर लाल श्रीवास्तव                                  
माता- स्व. श्रीमती शान्ती                                     
जन्मतिथि- 01-09-1974
वर्तमान पता- ए- 259, संचार विहार मनकापुर जनपद--गोण्डा (उ.प्र.)  पिन - 271308
स्थायी पता- ग्राम व पोस्ट - चिताही, जनपद- सिद्धार्थ नगर (उ.प्र.)

संपादन- मीठी सी तल्खियाँ (काव्य संग्रह), नेह के महावर (गीत संग्रह) साहित्य सरोज पत्रिका (उप संपादक)

प्रकाशन-  मेरे गांव की चिनमुनकी (गीत संग्रह) 'धीरज श्रीवास्तव के गीत( डॉ.सुभाष चंद्र द्वारा संपादित) सहित अनेक साझा संग्रह एवं राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं, व ई पत्रिकाओं में रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन।

सम्मान--अनेक सम्मान एवं पुरस्कार।

संप्रति --- संस्थापक सचिव, साहित्य प्रोत्साहन संस्थान, एवं "साहित्य रागिनी" वेब पत्रिका।                        *्मोबाइल नंबर- 8858001681
ईमेल- dheerajsrivastava228@gmail.com

मंगलवार, 23 अगस्त 2022

नवगीतकार राम सेंगर जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग



राम सेंगर
_______

राम सेंगर के नवगीत समाज व सत्ता की जनविरोधी प्रवंचनाओं में स्वस्तित्व हेतु संघर्ष करते हाशिए में पड़े आम आदमी की त्रासद पीड़ाओं को अपने कथ्य में प्रभावशाली किन्तु बिल्कुल अलग धज से रखते हैं। विविध विषयों को केन्द्र में रखकर रचे गए आपके नवगीतों के कथ्य की सम्प्रेषणीयता का परास व्यापक है। आपके गीत बँधे-बंधाएँ छंद प्रारूपों को तोड़, शब्दप्रयोग के अलग प्रतिमान रचते हैं,जिनकी विशिष्ट कहन नवीन छंद ,सुगठित कथ्य,अलहदा शब्द विन्यास जीवंत दृश्य उपस्थित करती है,जिसकी व्याप्ति अन्यत्र विरल है।
         संपादक 
         आलाप





【1】
 पानी है भोपाल में 
---------------------------

भैंस कटोरा ताल में. 

हम भी क्या हैं
आधे पागल
छलका डाली
पूरी छागल
अटक गयी है प्यास हलक़ में
पानी है भोपाल में 

ऊधो कहते
माधो सुनते
अपनी-अपनी
तानी बुनते
बहस छिड़ी जीने-मरने पर
पान दबे हैं गाल में 

धींगामुश्ती का
आलम है
गुल चिराग है
पगड़ी ग़ुम है
फुदक रही है एक चिरैया 
बहेलिया के जाल में  
             •••

【2】
 दिल रखने को 
-----------------------
                                      
दिल रखने को
नहीं छिपायी
मन की कोई झोल 

कोशिश की धड़कनें समेंटीं
था कुछ और न पास
जाने किस खोये को
हरदम-
करते रहे तलाश
पुनरभ्यासों में सुने-सहे
सारे बोल-कुबोल

सालों-साल
रहे ठहरे
जिन अपरिचयों के बीच
उन्हें अंततः
खुले गटर में
आये हमीं उलीच
ख़लल-खोट से
लड़ी-निभी को
रखा हर तरह खोल 

समझ निरापद
घुस अतीत में 
की राहत की खोज
लेकर लौटे 
उम्मीदों पर
नये दुखों का बोझ

अमंगलों ने हौंस जगायी
दुनिया गयी न डोल 

इसी हाल में हर बवाल से
हुए रहे दो-चार
यही लतीफ़ा
जिजीविषा है
लदे-फँदे की पार
लबाड़ियों के चित्तराग में
मिले न इसकी तोल 
          •••

【3】
बात न कोई बात 
--------------------------

हार गये हैं
बात न कोई बात है
नयी परिस्थिति की
रौनक का साथ है

कालमेघ ने-
बुद्धि भाव की
आँच को
बुझा दिया यह झूठ है
फिर-फिर हरा हुआ है
पूरा सूखकर-
मन झाऊ का ठूँठ है
सहज धर्म की-
सर्पकुंडली खुल रही
बीती दुःस्वप्नों की
काली रात है

एक जुझारू
आत्मजयी हुंकार का
भीतर हाँका चल रहा
सिर पर पांँव धरे
भागेंगे दैत्यक्षण-
प्रण यकीन में पल रहा
डर का हौवा-
गीदड़ ख़ामख़याल का
अपने आगे
इसकी कौन विसात है
            

【4】
नये दौर में 
------------------

उम्मीदों के फूल संँजोकर
नज़र गड़ाये हैं भविष्य पर
नये दौर में सब कुछ खोकर 

रिश्ते-नाते ढोंग-धतूरे
हों जैसे बारिश के घूरे
सामाजिकता को चलते हैं
किसी तरह कंधों पर ढोकर

 अपसंस्कारी हर मंडी है
लड़की यह बेबरबंडी है
लुभा रही ग्राहक के मन को
पतहीना नंगी हो-होकर

गीदी गाय गुलेंदा खाये
बेर-बेर महुआ तर जाये
ज़ज़्बे को रौंदा चक्के ने
रख डाला विवेक को धोकर 

काजी के मूसल में नाड़ा
पंडित मठ में नंगा ठाड़ा
धर्म हुआ कुत्तों की बोटी
विहंँस रहा मन ही मन जोकर

भरे मूत का चुल्लू पस में
जबरा-मूढ़ लड़ें आपस में
भभका मार रही बरसों से
सड़े हुए पानी की पोखर

मरे लोक विश्वास अभागे
प्रगति काल के पंचक लागे
सोच शुभाशुभ की मिथ्या है
घुने बीज मिट्टी में बोकर

गरज-बावरा अपनी गाये
हाय पड़ी कैसी यह हाये
ऊंँट चढ़े कुत्ते ने काटा
समय मारता ऐसे ठोकर

लम्बा सांँप, गोह है चौड़ी
कहीं न दीखे हर की पौड़ी
जहांँ मिले राहत कुछ मन को
गमछा सिर पर रखें भिगोकर
               •••

【5】
 छिलें भले पगथलियाँ 
-------------------------------

इतना विष !
इतना अपमान !!
मिट्टी का पुतला
औचित्य-अनौचित्य सब बिसारता
धधकते अवे की
समाधि तोड़-ताड़ कर
प्रकटेगा बाँहें फैला
सीना तान !

जीवन के पिछवाड़े
तेरे अँधियारे के
इस खूनी पंजे में
दबे-दबे अब न कसमसाना.
बिलकुल नामुमकिन है
इस बूचड़खाने के मिर्चीले भभके में-
मितली को
और अब दबाना.
खेत समझता
पट्टेदारों की चालाकी-
अंधी-बहरी इस पंचायत पर
मारेंगे कुल्ला तेज़ाब का-
करलें जो चाहे
सरपंच या प्रधान !
इतना विष !
इतना अपमान ! !

ठूँठ नहीं समझेंगे
आँख की इबारत को-
अर्थेतर बातों में
अब न उलझना
किसी बहाने.
छिलें भले पगथलियाँ
भिंचे हुए होंठों से
पंजों पर दौड़कर
पा ही लेंगे कहीं ठिकाने.
वक़्त आत्मरक्षा के लिए बहुत थोड़ा है-
निकल भगें किसी तरह
बच-खुचकर-
पूरी जलमग्न हुई जाती है
क्या मालुम कब लेले
प्राण यह खदान !
इतना विष !
इतना अपमान !!
          •••
       - राम सेंगर


सत्यनारायण जी के नवगीत


सत्यनारायण जी के नवगीत


संक्षिप्त जीवन परिचय 
 ---------------------------------

 कवि का नाम : सत्यनारायण।
जन्म : 13, सितम्बर, 1935 ई.।
ग्राम- कौलोडिहरी, अंचल सहार, जिला-भोजपुर [बिहार]
शिक्षा : एम.ए.[इतिहास], 

प्रकाशित कृतियाँ : 'तुम ना नहीं कर सकते' [कविता संग्रह], 'टूटते जल बिम्ब' [नवगीत संग्रह], 'धरती से जुड़कर' नुक्कड़ कविता [पत्रिका-संपादन], 'सभाध्यक्ष हंँस रहा है' [गीत-कविता संग्रह], 'समय की शिला पर' [संस्मरण], 'प्रजा का कोरस' [काव्य संग्रह] 'नवगीत अर्द्धशती' संपादक- डॉ.शंभुनाथ सिंह, 'धार पर हम' संपादक- वीरेन्द्र आस्तिक, 'समर शेष है' [बिहार आंदोलन से जुड़ी नुक्कड़ कविताएंँ] संपादक- डॉ.रवीन्द्र राजहंस जैसे महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में रचनाएंँ संग्रहीत।

अन्यान्य : हिन्दी की प्रायः सभी पत्र-पत्रिकाओं में नवगीत कविताओं का प्रकाशन एवं आकाशवाणी, दूरदर्शन के विभिन्न प्रसारण केन्द्रों से प्रसारण। सन् 1974 के बिहार आंदोलन में सक्रिय भागीदारी एवं जनजागरण हेतु नुक्कड़ों पर काव्य पाठ।

सम्मान एवं पुरस्कार : 'टूटते जल बिम्ब' को सर्वश्रेष्ठ नवगीत संग्रह के लिए बिहार सरकार का 'गोपाल सिंह नेपाली पुरस्कार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,बिहार का विशिष्ट साहित्य सेवा सम्मान, राज्यपाल डॉ.ए.आर. किदवई द्वारा सम्मानित एवं अनेक साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं द्वारा अभिनंदित।

विशेष : साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन में विशिष्ट कवि के रूप में सम्मिलित।

सम्प्रति : आरम्भ में प्राध्यापक, तत्पश्चात बिहार सरकार की सेवा से 1993 में राजकीय अधिकारी पद से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन।

सम्पर्क : बी.पी.सिन्हा पथ, डी ब्लॉक, कदम कुआं, पटना- 800-003 [बिहार]
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【1】
  रंगीन मुखोटे 
  ---------------------

चेहरों पर रंगीन मुखोटे
हाथों में दस्तानें
असली चेहरे
रंँगे हाथ-
कैसे, पकडें, पहचानें ?

वर्ग शत्रु है
कौन यहांँ
वर्ग मित्र है कौन ?
दागदार है
कौन यहांँ पर
सद्चरित्र है कौन ?
संविधान
क्या करे अकेला
संसद ही जब मौन
छुट्टा घूम रहे
सब कोई
मानें या ना मानें

इस बेहद
निर्लज्ज समय में
अंधभक्त हम जिनके
मूछें सबकी
ऐंठी-अकड़ी
हर दाढ़ी में तिनके
ऐसों की
भरमार गिनाएँ
नाम भला किन-किनके ?
वैसे तो
मालूम सभी को
इनके पते-ठिकानें

पीर औलिया हों
अथवा हों
संत और संन्यासी
सबका
अपना-अपना
काबा
अपनी-अपनी काशी
सूरदास प्रभु
सुन लो ऊधो-
कहते साँच न हाँसी
बड़े मजे में
रहे फूल-फल
इनके कल-कारखाने
      •••    

【2】
मत कहना 
-------------------

ख़बरदार
‘राजा नंगा है‘...
मत कहना

राजा नंगा है तो है
इससे तुमको क्या
सच को सच
कहने पर
होगी घोर समस्या
सभी सयाने चुप हैं
तुम भी चुप रहना

राजा दिन को
रात कहे तो
रात कहो तुम
राजा को जो भाये
वैसी बात करो तुम
जैसे राखे राजा
वैसे ही रहना

राजा जो बोले
समझो कानून वही है
राजा उल्टी चाल चले
तो वही सही है
इस उल्टी गंगा में
तुम उल्टा बहना

राजा की तुम अगर
खिलाफ़त कभी करोगे
चौराहे पर सरेआम
बेमौत मरोगे
अब तक सहते आये हो
अब भी सहना
        •••

【3】
हादसों की फसल 
---------------------------

चलो !
अच्छा हुआ
ऐसे लोग पहचाने गये

आस्तीनों में
सपोले पालकर
और जलती आग में
घी डालकर
देखिये- नरमेध
यों ठाने गये

हादसों की फसल
हरसू बो रहे
और अपने किये पर
खुश हो रहे
व्यर्थ सब शिकवे
गिले, ताने गये

जो अंधेरों की
इबारत लिख गये
उजालों में साफ-
सुथरे दिख गये
रहनुमा इस दौर के
माने गये
        •••

 【4】 
  झूठों की बन आई 
  ----------------------------

साधो!
सचमुच समय विकट है

असी घाट पर
सिमटे-सिकुड़े
तुलसीदास पड़े हैं
बिना लुकाठी
बीच बजारे
दास कबीर खड़े हैं
मीरा का
इकतारा चुप है
सब कुछ उलट-पुलट है

पानीपत हो
या कलिंग हो
अथवा हल्दीघाटी
कुरुक्षेत्र को
धर्म क्षेत्र
कहने की है परिपाटी
चली आ रही
तब से अब तक
यह अजीब संकट है

सच की कसमें
खाने वाले
झूठों की बन आई
दो पाटों के
बीच पड़ी 
सांँसें गिनती सच्चाई
यह कैसा
परिदृश्य कि-
लगता जैसे अंत निकट है
           •••

【5】
बने रहेंगे 
-----------------

सपने
आने वाले कल के
टूट-टूट कर
होंगे पूरे
आज भले
अधबने-अधूरे
नाम पते ये
उथल-पुथल के

आएंँगे जब
अपनी जिद पर
रख देंगे सब
उलट-पलट कर
मानेंगे
परिदृश्य बदल के

खत्म न होंगे
बने रहेंगे
कठिन समय में
तने रहेंगे
ये संगी-
साथी मंजिल के
       •••

【6】
एक अल्ला मियांँ 
---------------------------

एक तो
मुंँहजोर मौसम
और फिर
अपनी बलाएंँ
क्या करें, कैसे निभाएँ

चल रहे हैं
दीन-दुनिया के
सभी व्यापार ऐसे
छूट है
विनिवेश की-
रिश्ते हुए
बाजार जैसे
और हम
सेंसेक्स
पता क्या! कब चढें
कब लुढ़क जाएंँ ?

देखना था-
जिन्हें सब कुछ
आंँख मूंँदे सो रहे हैं
जो न होने थे
तमाशे, अब
खुले में हो रहे हैं
इस तरह लाचार तो
पहले न थे
हम क्या बताएंँ

हो समाजी
या सियासी
आग हर कोने लगी है
मांँगती-फिरती
पनाहें
यह हमारी जिंदगी है
एक अल्ला मियांँ
कैसे आग
चौतरफा बुझाएँ
        •••

【7】
 अजीब दृश्य है 
------------------------

सभाध्यक्ष हंँस रहा 
     सभासद
   कोरस गाते हैं

जय-जयकारों का
    अनहद है
जलते जंगल में
कौन विलाप सुनेगा
     घर का
इस कोलाहल में
पंजों से मुंँह दबा
     हमारी
चीख दबाते हैं

चंदन को
अपने में घेरे
सांँप मचलते हैं
अश्वमेघ के
    घोड़े बैठे
झाग उगलते हैं
आप चक्रवर्ती हैं-
    राजन!
वे चिल्लाते हैं

अजब दृश्य है
   लहरों पर
जालों के घेरे हैं
तड़प रही मछलियांँ
   बहुत खुश
आज मछेरे हैं
कौन नदी की सुने
कि जब
यह रिश्ते-नाते हैं
        •••

【8】
 धूप के हो लें 
---------------------

अब बहुत
छलने लगी है छाँव
चलो! चलकर धूप के हो लें

थम नहीं पाते
कहीं भी पाँव
मानसूनी इन हवाओं के
हो रहे
पन्ने सभी बदरंग
जिल्द में लिपटी कथाओं के
एक रस वे बोल
औरों के
और कितनी बार हम बोलें

दाबकर पंजे
ढलानों से
उतरता आ रहा सुनसान
फ़ायदा क्या
पत्तियों की चरमराहट पर
लगाकर कान
मुट्ठियों में
फड़फड़ाते दिन
गीत-गंधी पर कहांँ तोलें
           •••

【9】
और एक तुम 
----------------------

आंँसू धोये
सपने हो
जैसे भी हो
तुम अपने हो

काजल के रंग
रंँगे हुये तुम
सूने नभ में
टंँगे हुए तुम
बिन बरसे भी
मेघ घने हो

तट की रेत
तनिक नम करके
पास फेन या
सीपी धरके
लौटी जो, वह
लहर बने हो

मैं झुक गया
धनुष -सा मुड़कर
और एक तुम
मुझसे जुड़कर
तीर सरीखे
नित्य तने हो
     •••

【10】
आखर-आखर 
-----------------------

बड़े सगे दिन
नेह पगे दिन
चलकर आये

किरण बावरी
बड़े सकारे
बैठ मुँड़ेरे
सगुन उचारे
आंँगन-आंँगन
धूप बिछाये
उबटन लाये

आखर-आखर
चिट्ठी सोना
पढ़-पढ़ दुहरा-
तिहरा होना
भीतर-भीतर
कुछ अँखुवाये
मन उड़ जाये

अल्हड़ नदिया
पानी-पानी
लहर-लहर में
कथा-कहानी
भँवर-भँवर
भटियाली गाये
पास बुलाये
    •••

   - सत्यनारायण

मंगलवार, 16 अगस्त 2022

हरगोविन्द ठाकुर के पाँच नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

हरगोविन्द ठाकुर के पाँच नवगीत


1
समय कठिन है,
घर बाहर का मौसम बदल रहा।
घर के अंदर संसद जैसा प्रश्नकाल जारी। 
बाजारों में सब विज्ञापन का कमाल जारी। 
होम लोन का आकर्षक ऋण,
सांसें निगल रहा। 

घर में धान सूखता लेकिन धूप फुनगियों पर।
हवा विषैली, कोई अंकुश नहीं चिमनियों पर। 
रोज एक वक्तव्य,
हुक्मनामें का निकल रहा।

अंदर भटकन लिए, खोजते उजियारी रातें। 
गोदी में सर रख कर कह दें,आँसूं की बातें। 
बाहर हिम प्रदेश,
पर अंदर लावा उबल रहा। 
2
सत्ता के गंगातट पर इतने सारे पंडे।
अलग सभी की बोली बानी,
अलग अलग झंडे। 

निंदा और स्वस्तिवाचन का प्रतिदिन पाठ करें। 
मगर रात को बियर बार मे जाकर ठाट करें। 
इन तक नहीं पहुँच पाते हैं,रामू या घीसू,
हर पल पहरेदारी करते
गुंडे मुस्टंडे।

खादी के उद्योग चल रहे,इनके बलबूते। 
इनके लिए नये निकले हैं,कबूतरी जूते। 
शुद्ध अहिंसावादी हैं,
पिस्तौल नही रखते,
गाड़ी में रहते हैं चाकू,
कट्टे औ डंडे।

गमलों की खेती से इनकी आय निराली है। 
और किसी ने लगता जैसे कपिला पाली है। 
भला आयकर वाले भी,
इसको कैसे समझें?
उनके फार्म हाउस में 
गोबर से ज्यादा कंडे।

माला अगर न दो दिन पहनें तो दुबला जायें। 
श्रोताओं की भीड़ देख लें,
तो पगला जायें। 
रोज राशिफल लिखते रहते,वे सरकारों का,
शकुनी मामा से भी घातक 
इनके हथकंडे। 

3

चलो कबीरा पोनी कातें।
दीन दुखी के लिए धर्म है,
धनवानों के लिए रुपैया।
बिन चारे के दूध न देती,
कितनी ही भोली हो गइया।
सबद सुनाकर ख्याति मिली पर,
भूखे पेट बितायीं रातें।

खेत,मढ़ैया,रोटी,
कपड़ा,
छूट गया अब काफी पीछे। 
धन के पीछे धनकुबेर भी,
दौड़ रहे हैं,आंखें मींचे। 
संतोषी ही सदा सुखी है,
ये सब हैं कहने की बातें।

गाते, गाते संत हो गये,
कई भजन,कीर्तन गवैया। 
तुम बस निराकार में उलझे,
टूटा करघा,सड़ी मढ़ैया। 
आखिर कब तक और सहोगे,
दुनियाँ की घातें, प्रतिघातें। 

4
काट दिये थे जो पौधे,
वे हरे मिले।
फूल मगर खिलने से पहले
झरे मिले। 

हरे पान सा उन्हें सहेजा।
सिखा, पढ़ा कर रण में भेजा।
पानीपत तक आये,तो सब 
डरे मिले।

गंगा में इतना कुछ डाला।
भागीरथी बन गयी नाला। 
तरते क्या पुरखे फिर,
सब अधमरे मिले।

बंटी महल में जब खैरातें। 
चली लाठियाँ, खायीं लातें। 
चुप तो थे सब,पर
गुस्से से भरे मिले।

कथा गाँव में हुई शान से। 
हुआ समापन राष्ट्रगान से। 
परसादी में ले दे कर,
मुरमुरे मिले। 

5

आपदाएँ गौस जैसी निर्दयी हैं,
जिन्दगी मरते हुये 
जैसे कन्हैयालाल।

कब गला रेतें अजाने ही 
अचानक से।
दिखें टीवी पर कथानक बन 
भयानक से। 

लोग चिल्लाते रहेंगे,
बाद में बेहाल।

जांच,सख्ती,सजा के 
एलान होंगे। 
मदद के अखबार में,
एलान होंगे। 

फिर निजामत चल पड़ेगी,
ऊँट वाली चाल।

हरगोविन्द ठाकुर 
ग्वालियर

सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी का एक गीत प्रस्तुति: वागर्थ


सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी का एक
गीत 
-----


   
         सदियों तक हम शिला रहेंगे
        
              
        हमने शाप बटोरे इतने, 
        सदियों तक हम शिला रहेंगे। 

                  कहाँ गये अपने हिस्से के 
                  मोरों वाले जंगल सारे,
                  उल्लासों की लाल पतंगें 
                  ख़ुशियों के नीले ग़ुब्बारे!

        चीख़-चीख़कर इस अरण्य में 



        किससे अपनी व्यथा कहेँगे?  

                  जिनको गुँथना था माला में, 
                  वे गुलाब कितने बासे थे!
                  कागों को क्या पता कि घर के 
                  सारे नल ख़ुद ही प्यासे थे!

        कब तक मृग बनने की धुन में 
        हर दिन सौ-सौ बाण सहेंगे!

                  हाँ, क़न्दीलों ने बुझ-बुझकर 
                  और घनी कर दी हैं रातें।
                  देखो कमरे में घुस आयीं 
                  तिरछी हो-होकर बरसातें।

        चट्टानों से भरी नदी में 
        हम तुम कितनी दूर बहेंगे!

                  अपने ख़ुशबूदार झकोरे
                  रख आयी हैं कहाँ बयारें !
                  बैठी हैं नंगे तारों पर
                  चिड़ियों की मासूम क़तारें।

        दस्तानों में दुबके हैं सब,
        हम किसकी उँगलियाँ गहेंगे!

                  हैं पाँवों के पास बाँबियाँ,
                  यह किन बीनों की साज़िश है!
                  क्यों सिर पर रूमाल बाँधकर
                  ज़ख़्म छिपाने की कोशिश है।

        कट-कटकर हम-तुम कगार-से
        कब तक यूँ चुपचाप ढहेंगे!

                          सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी

परिचय धीरज श्रीवास्तव प्रस्तुति वागर्थ


1

रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील

रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील!
उसकी खुशियाँ उसके सपने वक्त गया सब लील!

बिन पानी के मछली जैसे
तड़प रहा वह आज!
बिटिया अपनी ब्याहे कैसे
और बचाये लाज!

संघर्षों में सूख चली है आँखों की भी झील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

शहर दिखाये ले जाकर जब
दो हजार हों पास!
संगी साथी कौन दे रहा
नहीं किसी से आस!
ठोक रही बीमारी माँ की छाती में बस कील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

कर्म भाग्य का नहीं संतुलन
बनी गरीबी गाज!
देखे जो लाचारी इसकी
ताक लगाये बाज!

व्यंग्य कसे मुस्काये अक्सर खाँस-खाँस कर चील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

फिर भी हिम्मत क्यों हारे वो
जीना है हर हाल।
पटरी पर ला देगा गाड़ी
आते-आते साल।

रोज-रोज आशाएँ दौड़ें जाने कितने मील।
रामपाल अब नहीं लगाता है कुर्ते में नील।

2

 रिक्शे वाले

फटे पाँव हाथों में छाले।
मगर मस्त हैं रिक्शे वाले।

रोज थिरकतीं मदहोशी में,
सांझ ढले आशाएं भोली।
स्वप्न अधूरे ठर्रा पीकर,
नमक चाट कर करें ठिठोली।
फुटपाथों पर नग्न गरीबी
पड़ी अगौंछा मुँह पर डाले।

सेंक रही है बैठ विवशता
ईंटों के चूल्हे पर रोटी।
प्यासा गला ढूंढता फिरता
सड़क किनारे नल की टोटी।
भूख निगलती प्याज तोड़कर
हरी मिर्च के साथ निवाले।

अक्सर करते जाम सड़क को,
रैली ,धरने बैनर झंडे।
खिसियाई खाकी बरसाती,
रिक्शे के कूल्हों पर डंडे।
भद्दी भद्दी गाली खाकर,
अपमानों के पीते प्याले।

ठंड गिराती आसमान से,
साथ ओस के भाई-चारा।
एक फटे कम्बल में करते,
राधे-जुम्मन साथ गुजारा।
भिड़ें अजानें शंखों के संग ,
या मस्ज़िद से लड़ें शिवाले।

3

फूटकर अम्मा रोयीं

आँगन में दीवार पड़ गयी सन्नाटा है द्वारे पर।
फूट फूटकर अम्मा रोयीं चाचा से बँटवारे पर।

साँझ लगाती मरहम कैसे
भला भूख के कूल्हे पर !
दुख की चढ़ी पतीली हो जब
आशाओं के चूल्हे पर !

हमने ढलते आँसू देखे तुलसी के चौबारे पर।
फूट फूटकर अम्मा रोयीं चाचा से बँटवारे पर।

तनिक दया भी नहीं दिखायी
सुख जैसे मेहमानों ने !
हृदय दुखाया पल पल जी भर
चाची के भी तानों ने !

एक एककर हवन हो गयीं सब खुशियाँ अंगारे पर।
फूट फूटकर अम्मा रोयीं चाचा से बँटवारे पर।

भाग्य गया वनवास भोगने
हँसी उड़ायी लोगो ने !
नाव हमेशा रही भँवर में
फँसा दिया संयोगो ने !

देख देख बस हँसे जमाना बैठा सिर्फ किनारे पर।
फूट फूटकर अम्मा रोयीं चाचा से बँटवारे पर।

4

छील रही थी घास


एक अचम्भा देखा हमने
आज गाँव के पास।
आसमान से परी उतरकर
छील रही थी घास।

सुंदरता को देख देवियाँ
रहीं स्वयं को कोस !
श्रम की बूँदें यों माथे पर
ज्यों फूलों पर ओस !

चूड़ी की खन खन सँग उसके
नृत्य करे मधुमास।
आसमान से परी उतर कर
छील रही थी घास।

चटक धूप में कोमल काया
दिखे कुंदनी रूप !
धूल सने हाथों से गढ़ती
पावन दृश्य अनूप !

करती जाती कठिन तपस्या
साथ लिए विश्वास।
आसमान से परी उतर कर
छील रही थी घास।

डलिया, खुरपा हरी धरा पर
छेड़ रहे थे तान !
अंग अंग से छलक रहा था
मेहनत का अभिमान !

साथ हवा के करती जाती
मधुर हास-परिहास।
आसमान से परी उतरकर
छील रही थी घास।

5

 सँवरकी

आज अचानक हमें अचम्भित,
सुबह-सुबह कर गयी सँवरकी।
कफ़ ने जकड़ी ऐसे छाती,
खाँस-खाँस मर गयी सँवरकी।

जूठन धो-धोकर,खुद्दारी,
बच्चे दो-दो पाल रही थी।
विवश जरूरत जान बूझकर,
बीमारी को टाल रही थी।
कल ही की तो बात शाम को
ठीक-ठाक घर गयी सँवरकी।

लाचारी पी-पीकर काढ़ा
ढाँढस रही बँधाती मन को।
आशंकित थी, दीमक बनकर,
टीबी चाट रही है तन को। 
संघर्षों से हाथ छुड़ाकर
भव सागर तर गयी सँवरकी।

करवानी थी जाँच खून की,
मदद पाँच सौ माँग रही थी।
हमको लगा गरीबी शायद,
रच फिर कोई स्वाँग रही थी,
फूट-फूट कर रोई पीछे,
सम्मुख हँसकर गयी सँवरकी।

देती रही दुहाई सेवा,
कुटिल स्वार्थ ने व्यथा न जानी।
करती रही याचना झोली
अडिग रहा बटुआ अभिमानी।
वैभव के पनघट से लेकर,
खाली गागर गयी सँवरकी।

खड़ी हुई लज्जित निष्ठुरता,
शव के आगे शीश झुकाये।
पूछ रहा सामर्थ्य स्वयं से,
अब वह किससे खेद जताये।
जाते-जाते, पढ़ा प्रेम के,
ढाई आखर गयी सँवरकी।

6

 कल्लू काका


चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

घर में भूजी भाँग न बाकी 
भूखा पेट बहुत हठधर्मी।
आलस पड़ा भरे खर्राटे
गर्दन तक ओढ़े बेशर्मी।
सैर स्वप्न में करें इरादे 
लन्दन पेरिस दुबई ढाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

उछल उछल लँगड़ी आशाएं
दिखा रहीं फोकट में सर्कस।
बीड़ी,जर्दा,चिलम,चुनौटी
अद्वी,पौव्वा करें चकल्लस।
पंचायत की धूर्त सियासत
लगा रही बिंदास ठहाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

नाकामी गढ़ रही बहाने
कुटिल कर्ज की भौंह तनी है।
ब्याज उसे कैसे दे मोहलत
रूठी जिससे आमदनी है।
खर्च डालता मूँछ ऐंठकर,
मिट्टी की गुल्लक पर डाका।

चौराहे पर कल्लू काका।
दिन भर मारें गप्प सड़ाका।

7

करना राम

मन मैंना का इमली जैसा
तन ज्यों कच्चा आम।
घूर रही हैं कामुक नजरें
रक्षा करना राम।

गली गली टर्राकर मेंढक
खूब जताते प्यार  !
मारें बाज झपट्टे निश दिन
टपकाते हैं लार !
उल्लू अक्सर आँख मारते
गिद्ध करे बदनाम ।

दारू पीकर  कछुए ताड़ें
सर्प रहे फुफकार !
गिरगिट करें इशारे फूहड़
घोंघों की सरकार !
अचरज क्या फिर, करें केंचुए
मगरमच्छ का काम ।

जाए कहाँ भला बेचारी
खतरे में है जान !
घूम रहे हैं चूहे तक जब
बन करके हैवान !
धूर्त भेड़िए आँगन कूदें
सुबह दोपहर शाम ।

सोच रहे चमगादड़ बैठे
कर लें इसको कैद !
चोंच मारते कौवे सारे
बगुले हैं मुस्तैद !
किन्तु लिखा है उसके दिल पर
बस तोते का नाम ।

8

 रामधनी


जैसे तैसे कटी अभी तक
मगर भूख से रही ठनी।
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

कोरे स्वप्न बिछाये कब तक ,
सोये वह उम्मीदें ओढ़।
कैसे भला छिपाए आखिर,
लिए गरीबी का जो कोढ़।
पक्का याद नहीं इस घर में
कब अरहर की दाल बनी
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

आसमान की ओर निगाहें
खपा रहा धरती पर प्रान ।
सींचे खेत पसीने से पर,
तनिक न घर में गेंहू धान।
जहाँ कहीं पर बीज बिखेरे
उगी वहाँ बस नागफनी।
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

जीवन पथ की खुशियाँ अक्सर
क्रूर भाग्य लेता है छीन।
निष्ठुर समय उड़ाता खिल्ली
उसको देख विवश अतिदीन।
और विधाता भी करता है
जब देखो तब राहजनी!
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

रधिया,मुन्नू और सँवरकी
दिखते सबके सब हलकान।
खींस निपोरे खड़ी जरूरत
कर्जा भरे कुटिल मुस्कान।
घर का खर्च रुपइया हर दिन
नहीं अठन्नी आमदनी।
शेष बचे दिन कैसे काटे
सोच रहा है रामधनी।

9

जाने कितनी बार ठगा


मन के भोलेपन को तुमने
जाने कितनी बार ठगा।

जो कुछ भी था मेरा अपना
कर डाला सब तुमको अर्पण !
देख तुम्हारे छल प्रपंच को,
जी भर रोया व्यथित समर्पण !
स्वप्न दिखाकर केवल झूठे
सच्चा पावन प्यार ठगा।

मन के भोलेपन को तुमने
जाने कितनी बार ठगा।

छाती से चिपकाकर सुधियाँ
पीड़ाओं ने लोरी गायी !
सहलाया दे- देकर थपकी
पर जाने क्यों नींद न आयी !
कर्तव्यों की अनदेखी कर
मनचाहा अधिकार ठगा।

मन के भोलेपन को तुमने
जाने कितनी बार ठगा।

निष्ठुरता ने भला प्रेम के
गीत सुकोमल कब हैं गाये !
पाषाणों ने कब लहरों की
धड़कन पर हैं कान लगाये !
ठगा सिन्धु सी गहराई को
नभ जैसा विस्तार ठगा।

मन के भोलेपन को तुमने
जाने कितनी बार ठगा।

10

लिखकर गीत रात भर रोये


अक्षर -अक्षर प्राण सँजोये
लिखकर गीत रात भर रोये

मतलब के सब रिश्ते नाते
देख देखकर बस मुस्काते
जकड़े बैठी हमें विवशता
हम मुस्कान कहाँ से लाते
कब बुनते नयनों में सपने?
गुजरी उम्र न पल भर सोये
लिखकर गीत रात भर--

निठुर नियति के राग पुराने
दुख बैठे हैं लिए बहाने
किस किससे हम ठगे गये हैं
पीड़ा कहे खड़ी सिरहाने
जीवन भर हम व्यथित हृदय को
सिर्फ निचोड़े और भिगोये
लिखकर गीत रात भर--

साथ नहीं हैं भले उजाले
पर कब हारे लिखने वाले
बात अलग है कदम- कदम पर
फूट रहे पाँवों के छाले
इन छालों की पीड़ाओं को
हम गीतों में रहे पिरोये
लिखकर गीत रात भर--

----- धीरज श्रीवास्तव




संक्षिप्त -परिचय
नाम-   धीरज श्रीवास्तव                                             
पिता-  स्व. रमाशंकर लाल श्रीवास्तव                                  
माता- स्व. श्रीमती शान्ती                                     
जन्मतिथि- 01-09-1974
वर्तमान पता- ए- 259, संचार विहार मनकापुर जनपद--गोण्डा (उ.प्र.)  पिन - 271308
स्थायी पता- ग्राम व पोस्ट - चिताही, जनपद- सिद्धार्थ नगर (उ.प्र.)

संपादन- मीठी सी तल्खियाँ (काव्य संग्रह), नेह के महावर (गीत संग्रह) साहित्य सरोज पत्रिका (उप संपादक)
                                                       प्रकाशन-  मेरे गांव की चिनमुनकी (गीत संग्रह) 'धीरज श्रीवास्तव के गीत( डॉ.सुभाष चंद्र द्वारा संपादित) सहित अनेक साझा संग्रह एवं राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं, व ई पत्रिकाओं में रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन।

सम्मान--अनेक सम्मान एवं पुरस्कार।

संप्रति --- संस्थापक सचिव, साहित्य प्रोत्साहन संस्थान, एवं "साहित्य रागिनी" वेब पत्रिका।                        मोबाइल नंबर- 8858001681
ईमेल- dheerajsrivastava228@gmail.com

बुधवार, 10 अगस्त 2022

भूमिका जैन "भूमि" के दो गीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग


भूमिका जैन 'भूमि" के दो गीत
_______________________

एक

कभी कभी अपनी पलकों पर
तुम मेरा सावन रख लेना
चाहे थोड़ा बेमन से ही
पर मेरा भी मन रख लेना

मुझको कोई वचन न देना
कभी न होठों से कुछ कहना
दृष्टि अगर लड़ ही जाये तो
फिर पत्थर बनकर मत रहना
उस पल अपनी आँखों में तुम
किंचित आलिंगन रख लेना

चाहे थोड़ा बेमन से ही
प्रिय मेरा भी मन रख लेना

मैं मांगूं जब नेह तुम्हारा
मन अपना अनमना न करना
मुश्किल तो होगी तुमको पर
हाथ झटककर मना न करना
कुछ बूँदें दे देना चाहे
बदले में जीवन रख लेना

चाहे थोड़ा बेमन से ही
प्रिय मेरा भी मन रख लेना

हाथ पकड़ना नहीं चाहते
मत पकड़ो,अफ़सोस नहीं है
पर इतना तो कर सकते हो 
इसमें कोई दोष नहीं है
कभी कभी अपने हाथों में
मेरा ये कंगन रख लेना

चाहे थोड़ा बेमन से ही
प्रिय मेरा भी मन रख लेना

अंतिम इच्छा है जीवन की
मुझको बस ये अवसर देना
प्रेम निमंत्रण पत्र भले ही
द्वारे से वापस कर देना
पर उसमें जो आमंत्रण हो
तुम वो आमंत्रण रख लेना

चाहे थोड़ा बेमन से ही
प्रिय मेरा भी मन रख लेना

सहमत हूँ! मेरा मन रखना
इतना भी आसान नहीं है
पर ये कितना आवश्यक है
तुमको ये संज्ञान नहीं है
और न हो कुछ,तो देने को
झूठा आश्वासन रख लेना

 चाहे थोड़ा बेमन से ही
प्रिय मेरा भी मन रख लेना

दो
____
बरसो तो बादल हो जाना
तरसो तो मरुथल हो जाना
प्यार करो तो करना ऐसे
कम से कम पागल हो जाना 

लोग मुझे घूरेंगे, उनसे 
हाथापाई सहस न करना
उनकी आँखें नोच न लेना
उनसे कोई बहस न करना

बस मुझको आंखों मे रखना 
या मेरा काजल हो जाना

प्यार करो तो करना ऐसे
कम से कम पागल हो जाना ।

लाख दिखावे की दुनियाँ है
तुम मत प्रेम प्रदर्शित करना
ना ख़ुद चर्चाओं में रहना
ना ही खुद को चर्चित करना
 
होना तो हो जाना मंदिर 
तुम मत ताजमहल हो जाना

कर लेना भी बहुत सरल है
प्यार निभाना भी आसाँ है
प्यार निभाने के मस्अले में
करना केवल इतना सा है

विष का प्याला पी न सको तो
राधा की पायल हो जाना 

प्यार करो तो करना ऐसे
कम से कम पागल हो जाना ।

अनबन झगड़ों से मत डरना
झगड़े अपनो से होते हैं
जिनसे खुलकर झगड़ न पायें
वो रिश्ते फंदे होते हैं

लड़ना तो लड़ लेना लेकिन
अगले पल शीतल हो जाना

प्यार करो तो करना ऐसे
कम से कम पागल हो जाना ।

जब जीवन मे मुश्किल आयें
ना घबराना, ना डरना है
हर मुश्किल को हल करने को
केवल इतना ही करना है

मैं तेरा संबल हो जाऊं 
तू मेरा संबल हो जाना

प्यार करो तो करना ऐसे
कम से कम पागल हो जाना ।

कभी जो तुम गुस्सा होगे तो
मैं उसका सम्मान करूँगी
लेकिन उस पल में भी तुम पर
इतना तो अधिकार धरूंगी

मैं तुमसे आहत हो जाऊं
तो तुम भी घायल हो जाना

प्यार करो तो करना ऐसे
कम से कम पागल हो जाना ।

इच्छाओं को सीमित करना
धीरे धीरे सीख रही हूँ
बाक़ी कुछ देना, मत देना,
माँग प्रिये ये भीख रही हूँ

जब हो मेरा अस्थि विसर्जन,
तुम गंगा का जल हो जाना ।

प्यार करो तो करना ऐसे
कम से कम पागल हो जाना ।

भूमिका जैन "भूमि"

परिचय

_______

नाम-भूमिका जैन
उपनाम-"भूमि"
शिक्षा -स्नातकोत्तर
जन्म तिथि -21/7/1982
जन्म स्थान-मैनपुरी, (उत्तर प्रदेश)
परिवार-श्री राजेश चंद्र जैन(पिता),श्रीमती रानी जैन(माता),श्रीमान अतिन जैन(पति),
स्वस्ति जैन(पुत्री),स्वास्तिक जैन(पुत्र)
व्यक्तिगत परिचय-गृहिणी
(आकाशवाणी आगरा पर आकस्मिक उद्घोषिका के रूप मे कार्यरत) 
व्यवसायिक प्रतिष्ठान -जैन इलैक्ट्रॉनिक्स एवं जैन डिजिटल स्टोर
संपर्क सूत्र-13A/P-3p,नुनिहाई,यमुना ब्रज,आगरा,उत्तर प्रदेश।282006
मोबाइल नं-8279942648,
                9319325287
ईमेल आईडी-bhoomikajain68780@gmail.com
प्रकाशित कृति-"उन्वान तुम्हीं दे देना"(समग्र संग्रह)
काव्य यात्रायें-देश के कई प्रतिष्ठित मंचों से कविता पाठ।
स्थानीय तथा ग़ैर स्थानीय पत्र पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में कवितायें प्रकाशित। 
ज़ी न्यूज़ एवं सुदर्शन टीवी चैनल्स पर कविता पाठ
आकाशवाणी आगरा से निरंतर रचनाओं  का प्रसारण।


शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

विजय किशोर मानव जी के नवगीत

1
नवगीत

अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।

माथे मिले
लकीरों वाले
हाथ चोट खाए
क्या तक़दीर
लिखी है मालिक
हम तो भर पाए;
खुली हवा में उड़ें
कहाँ ऐसे नसीब अपने
गुम चाभी के ताले हैं
बाहर की सांकल के।
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।

ढोते पेट
छिल गए कन्धे
भूख कि दूब हरी,
भीड़ों में
लगती है अपनी
देह पाल भरी;
सूरज रहे किसी का
हमको क्या लेना-देना
आँख खुली जब से
हम हैं दड़बे में काजल के।
अभी मिटे भी नहीं,
पीठ पर से निशान कल के
और पाँव आने वाले भी
लगते हैं छल के।

2

पाकर जल उधार का,
सारा गाँव डुबो दे
मुझको ऐसी नदी नहीं बनना।

पीठों पर हों घाव
आदमी इक्के के
मरियल घोड़े हों,
न्याय माँगते बटमारों से
हंसों के कातर जोड़े हों;
जिसका हंसना फिर-फिर
सूखी आँख भिगो दे
मुझको ऐसी सदी नहीं बनना।

गुलदस्ते हैं चमन यहाँ के
सहमी ख़ुशबू डरे बिखरते,
नागफनी की पौ-बारह है
भरे पड़े हैं गमले घर-घर के;
जिसका खिलना
काँटों का संसार संजो दे
हमको ऐसी कली नहीं बनना।

3

घर पड़ोसी का जला, हम चुप रहे 
घर पड़ोसी का जला
हम चुप रहे
गांव पूरा चुप रहा कोई नहीं बोला।

दस्‍तकें देता रहा
पहरों खड़ा कोई
चीख़-चुप्‍पी से लिपट कर
रातभर रोई
खिलखिलाया खूब
ज्‍वालामुखी रह-रह कर
एक पिंजरे ने
अकेले यातना ढोई

धुएँ में घुट-घुट मरी मैना मगर
सभ्‍य पालनहार ने पिंजरा नही खोला।

जलती आँखें,
कसी मुट्ठियाँ
भटक गई या हुई पालतू
इस इमारतों के
जंगल में

ऐसी दौड़
कि सर ही सर हैं
पाँवों के नीचे कंधे हैं
या तो आदमखोर नजर है
या फिर लोग निपट अंधे हैं
कौम कि
जैसे भेड़ बकरियाँ
पैदा होते हुई फ़ालतू
होने चली जिबह मकतल में

जिसे पा गए
उस पर छाए
सब में गुण हैं अमरबेल के
सीढ़ी अपनी, साँप और के
ऐसे हैं कायदे
खेल के
मिली जुली
हो रहीं कुश्तियाँ
ऊपर वाले, देख हाल तू
कोई नियम नहीं दंगल में

4

गाँव छोड़ा
शहर आए
उम्र काटी सर झुकाए
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में

माँ नहीं सोई
भिगोकर आँख रातों रात रोई
और हर त्योहार बापू ने किसी की
बाट जोही
मीच आँखे सो नहीं पाए
बाँध कर उम्मीद
पछताए
हाँ हुजूरी में सलामों में
खो गए बेटे निजामों में
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में

घर नहीं कोई
यहाँ दरबार हैं या हैं दुकानें
जो हँसी लेकर चले उस पर पुती हैं
सौ थकानें
कामयाबी के लिये सपने
बेच डाले रात दिन
अपने
सिर्फ कुछ छोटे छदामों में
खो गए रंगीन शामों में
ढूँढ ली खुशियाँ इनामों में
जुड़ गए कुछ खास
नामों में

उदय प्रताप सिंह जी का एक प्रेम गीत

उदय प्रताप सिंह जी का एक प्रेम गीत


मैं धन से निर्धन हूँ पर मन का राजा हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

मन तो मेरा भी चाहा करता है अक्सर
बिखरा दूँ सारी ख़ुशी तुम्हारे आँगन में
यदि एक रात मैं नभ का राजा हो जाऊँ
रवि, चाँद, सितारे भरूँ तुम्हारे दामन में
जिसने मुझको नभ तक जाने में साथ दिया
वह माटी की दीवार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

मुझको गोकुल का कृष्ण बना रहने दो प्रिय!
मैं चीर चुराता रहूँ और शर्माओ तुम
वैभव की वह द्वारका अगर मिल गई मुझे
सन्देश पठाती ही न कहीं रह जाओ तुम
तुमको मेरा विश्वास सँजोना ही होगा
अंतर तक हृदय उधार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

मैं धन के चन्दन-वन में एक दिवस पहुँचा
मदभरी सुरभि में डूबे साँझ-सकारे थे
पर भूमि प्यार की जहाँ ज़हर से काली थी
हर ओर पाप के नाग कुंडली मारे थे
मेरा भी विषधर बनना यदि स्वीकार करो
वह सौरभ युक्त बयार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

काँटों के भाव बिके मेरे सब प्रीति-सुमन
फिर भी मैंने हँस-हँसकर है वेदना सही
वह प्यार नहीं कर सकता है, व्यापार करे
है जिसे प्यार में भी अपनी चेतना रही
तुम अपना होश डूबा दो मेरी बाँहों में
मैं अपने जन्म हज़ार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

द्रौपदी दाँव पर जहाँ लगा दी जाती है
सौगंध प्यार की, वहाँ स्वर्ण भी माटी है
कंचन के मृग के पीछे जब-जब राम गए
सीता ने सारी उम्र बिलखकर काटी है
उस स्वर्ण-सप्त लंका में कोई सुखी न था
श्रम-स्वेद जड़ित गलहार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ 

मैं अपराधी ही सही जगत के पनघट पर
आया ही क्यों मैं सोने की ज़ंजीर बिना
लेकिन तुम ही कुछ और न लौटा ले जाना
यह रूप-गगरिया कहीं प्यार के नीर बिना
इस पनघट पर तो धन-दौलत का पहरा है
निर्मल गंगा की धार तुम्हें दे सकता हूँ
तुम जितना चाहो प्यार तुम्हें दे सकता हूँ ! 

-उदयप्रताप सिंह

ममता सिंह के पाँच नवगीत

समूह वागर्थ नवगीत में रुझान रखने वाले रचनाकारों को प्रोत्साहन देता आया है। इसी क्रम में प्रस्तुत है
ममता सिंह के पाँच नवगीत

1
गीत 
जाने कब हो भोर

मन का पंछी व्याकुल बैठा 
जाने कब हो भोर ।

आशा और निराशा के दो 
पलड़ो में मैं झूलूँ 
पंख कटे हैं फिर भी मन है 
आसमान को छू लूँ। 
कैसे बाँधू गति चिंतन की 
चले न कोई जोर। 

टूट गई मोती की माला 
निकला धागा कच्चा 
इस दुनिया में ढूँढे से भी 
मिला न कोई सच्चा 
कोयल बनकर कौआ बैठा
मचा रहा है शोर। 

सम्बन्धों के मकड़जाल में 
फँस गई अब तो जान 
उस पर रिश्ते गिरगिट जैसे 
होती नहीं पहचान। 
तड़़प रहा है कैदी मनवा 
देखे अब किस ओर। 

2
गीत ----

महँगी है मुस्कान

दर्द यहाँ पर सस्ता यारो।
महँगी है मुस्कान।।

जीवन की आपाधापी में,
संगी साथी छूटे।
मृगतृष्णा से बाहर आकर,
कितनों के दिल टूटे।
कस्तूरी पाने को फिर भी।
भटक रहा इंसान।।

मक्कारी में मिला झूठ ही, 
राज़ दिलों पर करता।
सच की खातिर लड़ने वाला,
चौराहों पर मरता।
मोल चवन्नी के ही देखो।
बिकता है ईमान।।

फुर्सत किसको है जो अपने,
मन के अंदर झांके।
घर में रक्खा आईना भी,
धूल यहाँ पर फांके।
मुश्किल है ऐसे में *ममता*।
खुद की भी पहचान।।

3
डूब रहा संसार

आज रंग में भौतिकता के,
डूब रहा संसार ।

सम्बन्धों में गरमाहट अब,
नज़र नहीं है आती 
आने वालो की छाया भी 
बहुत नहीं है भाती।
चटक रही दीवार प्रेम की, 
गिरने को तैयार।

होता खालीपन का सब कुछ, 
होकर भी आभास।
लगे एक ही छत के नीचे,
कोई नहीं है पास। 
आभासी दुनिया ने बदला,
जीने का ही सार ।

खुले आम सड़कों पर देखो, 
मौत कुलाचें भरती। 
बटुये की कै़दी मानवता, 
कहाँ उफ़्फ भी करती।
खड़ी सियासत सीना ताने,
बनकर पहरेदार। 

4
गीत -----
कठिन बहुत तुरपाई

उलझ न पाएं 'मैं' या 'तुम' में 
सम्बन्धों के तार।।

अपनेपन की चादर ताने,
बैठे कुछ अनजाने।
ऐसे में मुश्किल है कैसे
उनको फिर पहचाने।
बैठ बगल में छुप‌ कर करते,
जो मौके से वार।।

उधड़े रिश्तों की होती है,
कठिन बहुत तुरपाई।
जिसको अब तक समझा अपना
सनम वही हरजाई।
चंदन में लिपटे विषधर से
संभव कैसे प्यार।।

जिस माली ने पाला पोसा
उसने ही है तोड़ा।
साथ सदा देने वालों ने
बीच भंवर में छोड़ा।
ऐसे में निश्चित है अपनी
अपनों से ही हार।।

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गीत -----
सोचें क्यों अन्जाम

हम वासी आज़ाद वतन के। 
सोचें क्यों अन्जाम।। 

नियम ताक पर रख कर सारे, 
वाहन तेज भगाएं। 
टकराने वाले हमसे फिर, 
अपनी खैर मनायें ।
सही राह दिखलाने की हर, 
कोशिश है नाकाम। 

चोला ओढ़े सच्चाई का, 
साथ झूठ का देते। 
गुपचुप अपनी बंजर जेबें, 
हरी-भरी कर लेते। 
हर मुद्दे का कुछ ही पल में, 
करते काम तमाम। 

सुर्खी में ही लिपटे रहना, 
हमको हरदम भाता। 
भूल गए मेहनत से भी है, 
अपना कोई नाता। 
जिसकी लाठी भैंस उसी की, 
जपते सुबहो-शाम।

प्रो ममता सिंह 
मुरादाबाद



परिचय
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नाम- प्रो ममता सिंह 
निवास-
गौर ग्रेशियस कालोनी 
कांठ रोड ,मुरादाबाद ।
चलभाष -9759636060
शिक्षा- एम ए ,पी़ एच डी ,नेट ,एम बी ए 
सम्प्रति -
प्रोफेसर ,समाजशास्त्र ,के0 जी0 के0  कालेज ,मुरादाबाद 
एसोसिएट एनसीसी आफिसर 
लेखन - ग़ज़ल, गीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु आदि
प्रकाशित कृति: भाव कलश काव्य संग्रह ,काव्य धारा ,ग्लोबल न्यूज ,दैनिक आज , काव्य अमृत, प्रेरणा अंशू, स्वर्णाक्षरा काव्य संग्रह, धरा से गगन तक, नीलाम्बरा आदि काव्य संग्रह और समाचारपत्रों में रचनाएँ प्रकाशित