शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

कवि राजीव राज जी के दो गीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ

~।। वागर्थ ।। ~

    प्रस्तुत करता है कवि राजीव राज जी के दो गीत
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  सर्वविदित है कि राजीव राज जी एक ऐसे सुयोग्य शिक्षक हैं जिनके कुशल शैक्षणिक अवदान के लिए कम उम्र में शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए श्रेष्ठ शिक्षक के रूप में राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाजा गया है।
   वे न सिर्फ़ एक जिम्मेदार शिक्षक ही हैं बल्कि एक बेहतरीन गीतकार हैं , ऐसे गीतकार जिन्हें सुनकर मुग्धता भी मुग्ध हो जाए , गीत तो आपके बेहतरीन होते ही हैं मगर जब यही गीत  आपका स्वर पाते हैं तो मणिकांचन संयोग बनता है । इस सबसे ऊपर वे एक नायाब इन्सान हैं । शिक्षा और साहित्य को समर्पित बेहद सहज सरल और विनम्र व्यक्तित्व।  राजीव जी , चाहे वह छोटा ,बड़ा या हमउम्र हो , सबके बेहतर प्रयासों को  अवश्य ही सराहते  हैं ,यदि उसका लेखन प्रभावी है ।
   लाकडाउन पीरियड में अपनी साहित्यिक संस्था #पहल ' के जरिए लगातार अनथक सक्रिय रहे जिसमें उन्होंने शानदार तरीके से निस्वार्थ भाव से नवोदितों को बड़ा प्लेटफार्म देकर वाचिक परम्परा और साहित्य की उल्लेखनीय सेवा की है  ।

     तो आइए बिना कुछ अधिक कहे पढ़ते हैं अपने साहित्यिक भाई बहनों का मनोबल बढ़ाने में सदैव तत्पर रहने  वाले ,  संवेदनशील व्यक्तित्व के दो बहुत प्यारे व चर्चित गीत ...

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(१)

पतंगें 
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उड़तीं     हैं    चहुँओर   पतंगें।
लगतीं    हैं   चितचोर   पतंगें।
सबको ख़ुश करने की ख़ातिर,
नाचें   बन   के    मोर    पतंगें।
उड़ें  गगन में  मगर  पतंगों  सा  है  कौन अभागा।
उतनी ही परवाज़ मिली जितना चरखे में धागा।।

अम्बर का  विस्तार  नयन  में  स्वप्न सँजोता है।
दूर क्षितिज तक उड़ पाने की ख़्वाहिश बोता है।
सपने  तो   सपने  हैं   अपने  कभी   नहीं   होते,
बन्धन  चाहे   जैसा   भी   हो   बन्धन  होता  है।
ठुमक रहीं कठपुतली बनकर,
घूम  रही  हैं  तकली  बनकर।
क़िस्मत की  थापों पर  बेबस,
बजती आयीं  ढपली  बनकर।
जगीं युगों की सुबहें लेकिन इनका भाग्य न जागा।
उतनी  ही  परवाज़  मिली जितना चरखे में धागा।।

पहले पहल पिता के हाथों में जी भर खेली।
उम्र चढ़ी प्रिय  के इंगन पर डोली अलबेली।
रंग ढला जर्जर तन, कन्ने जब कमज़ोर हुए,
चरख़ा-डोर  हाथ  में अगली पीढ़ी ने ले ली।
यही निरन्तर क्रम जारी है।
यहाँ तरक़्क़ी भी  हारी  है।
औरों  के  हाथों  में  रहना,
ही  पतंग  की  लाचारी है।
नुची लुटेरों  से  जिसने  चरखे का बन्धन त्यागा।
उड़ें गगन में  मगर  पतंगों  सा  है  कौन अभागा।।

देख  थिरकती  देह  पतंगों की अम्बरतल पर।
ताली दे हँसती जो दुनियाँ ख़ुश होती जमकर।
वही  लगाकर  दाँव, फँसाकर पेच, काट देती,
ऊपर  उठती  हुयी  पतंगें  क्यों  लगतीं नश्तर।
क्या उनको अधिकार नहीं है।
क्या   उनका  संसार  नहीं है।
ख़ुद  से   ऊपर  उनका  होना,
बोलो  क्यों  स्वीकार नहीं है।
कब तक शबनम पर जाएगा अहम का शोला दागा।
उड़ें  गगन   में  मगर  पतंगों  सा  है  कौन  अभागा।।

(२)

बारिश
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 हुयी तो हर बरस बारिश कभी सावन कभी भादौं,
     मगर  जो  बात  इस बारिश में है , पहले नहीं थी वो।।

धुले पत्तों पे छम - छम नाचती बूँदें  पहन पायल।
रिझातीं  लोच भर  कर  देह  में, नैना करें घायल।
वो छूते ही परस्पर  घुल के  एकाकार  हो  जाना।
कि  जैसे  कह रहीं सबसे, यही है प्यार हो जाना।

 ये बूँदें  कब  नहीं  थिरकीं, हवाओं  के इशारों पर,
      मगर  जो बात  इस  जुंबिश में है , पहले नहीं थी वो।।

भिगोये  तन   बदन   देखो,  तने  को  चूमती  डाली।
न  रहने   दे  रही   चैतन्य,   सौंधी  गन्ध   मतवाली।
घटाओं के खुले जूड़े,  लुढ़कता  जल,  धरा  बेसुध।
विफल तटबंध, संयम खो न दे ऐसे में क्यों सुधबुध।

 इरादों   का  हिमालय  कब  नहीं   घेरा  घटाओं  ने,
     जो शोख़ी आज की साज़िश में है , पहले नहीं थी वो।।

पपीहे  गा  रहे  रह  रह   के  मीठे  प्रेम  के  दोहे।
कपोतों  की जुगलबंदी  लुभाये सबका मन मोहे।
खड़े हैं जो कि बरसों से  शिलाएँ  मौन की लादे।
निभाने आ गयीं हैं  बिजलियाँ  उनसे  किये वादे।

  मेहरबाँ हो गया मौसम, फिरे दिन पर्वतों के भी
      जो मस्ती आज इस बंदिश में है, पहले नहीं थी वो।।

                                     - डॉ राजीव राज़

प्रस्तुति
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नवगीत पर एक जरूरी टिप्पणी : योगेन्द्र दत्त शर्मा

नवगीत विधा छह दशक पुरानी हो चुकी है। पिछले कुछ दिनों से यह विधा चर्चा का विषय बनी हुई है। नवगीत की सीमाएं और संभावनाएं विमर्श के केन्द्र में हैं। लोग अपनी-अपनी मान्यताएं और अवधारणाएं प्रस्तुत कर रहे हैं।  लेकिन कोई निश्चित स्वरूप सामने नहीं आ पा रहा। 

नवगीत का संसार बहुत विशाल है। उसमें आज का युग यथार्थ, आम आदमी का संघर्ष, सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक विसंगतियों-विडंबनाओं से लेकर प्रेम-प्रकृति-परंपरा-इतिहास-संस्कृति-उच्चतर मानव मूल्य... सब कुछ समाहित हो सकता है। नवगीत का फलक अपनी शुरुआत से ही व्यापक रहा है। इसके शुरुआती दौर में केदारनाथ अग्रवाल, शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, नईम, देवेन्द्र शर्मा इंद्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय, विद्यानंदन राजीव, शिव बहादुर सिंह भदौरिया, माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, गुलाब सिंह, ओम प्रभाकर, रमेश रंजक, नचिकेता, कुमार रवीन्द्र,शांति सुमन, राजकुमारी रश्मि,  राम सेंगर, विनोद निगम आदि वरिष्ठ रचनाकारों का अपनी-अपनी तौर से योगदान रहा है। 

ये सभी रचनाकार एक ही विचारधारा के नहीं थे, फिर भी सबने नवगीत को समृद्ध करने में अपना अमूल्य योगदान किया और महत्वपूर्ण बात यह है कि विचारधारा के स्तर पर किसी भी रचनाकार को किसी अन्य रचनाकार से किसी भी किस्म की कोई दिक्कत नहीं थी। इनमें से कुछ रचनाकार नवगीत के सांचे में स्वयं को सहज अनुभव नहीं कर पा रहे थे, तो उन्होंने जनगीत नाम से एक अलग काव्य विधा का आंदोलन खड़ा किया और उसके अंतर्गत रचनाएं प्रस्तुत करते रहे। हालांकि अंततः जनगीत भी नवगीत का ही हिस्सा बन गया। 

नवगीत का फलक इतना व्यापक और विस्तृत है कि उसमें लगभग हर समकालीन संवेदना समा सकती है। ऐसे में किसी भी विषय को नवगीत के लिए हेय, त्याज्य, निषिद्ध ,अस्पृश्य अथवा अप्रासंगिक समझना उसके विस्तार को संकुचित करके उसके साथ अन्याय करना होगा।  सौभाग्यवश नवगीत की शुरुआती पीढ़ी के कई रचनाकार अभी हमारे बीच मौजूद हैं और कई तो अभी भी सक्रिय हैं। इस संदर्भ में उनके विचारों से भी लाभान्वित हुआ जा सकता है। 

नवगीत का मूल्यांकन करते समय उसकी व्यापकता वाले आयाम को ध्यान में रखने पर ही उसका समग्र मूल्यांकन उचित होगा। सीमाबद्ध होकर हम उसे समझ सकने में पूर्णतया सफल नहीं हो सकते। तब तो 'हाथी और चार अंधे' वाली कहानी ही चरितार्थ होगी। सीमित अथवा संकीर्ण दृष्टि से किया गया कोई भी समीक्षात्मक, समालोचनात्मक या मूल्यांकनपरक कार्य रचना ही नहीं, नवगीत विधा के प्रति भी अन्याय ही होगा।

प्रभु त्रिवेदी



चूल्हा-लकड़ी-रोटियाँ, धुआँ-भोंगली आग
माँ ने आँखें झोंककर, बाँट दिया अनुराग

एक ओर गूगल जले, एक ओर लोबान
एक बह्म को बाँटता, ऐ! मूरख नादान

उलटे पासे पड़ गए, कल तक थे अनुकूल
कितनी पीड़ा दे गई, ‘दशरथ’ की इक भूल

सच्चा सौदा है वही, जो दे ख़ुशी अपार
यूँ तो झूठों के सदा, फलते दिखे विचार

धन की सत्ता मोह ले, करवा दे दुष्कर्म
होने में निर्वस्त्र अब, कहाँ आ रही शर्म

पहने मंगल-सूत्र को, बचा रखे वह लाज
विधवा की निर्लज्जता, कहता लोक-समाज

झूठ कभी छुपता नहीं, दिल में रहता साँच
अगर छुपाया झूठ को, चटकेगा फिर काँच

मन को पढ़ने की कला, समझ लीजिए आप
घर बैठे ख़ुशियाँ मिलें, मिटें शोक- संताप

जीते जी पूछा नहीं, कभी न झाँका द्वार
मरते ही कहने लगे, हम भी हैं हक़दार

आँखें रोतीं बाप की, जीवन में दो बार
बेटा जब मुँह मोड़ता, बेटी छोड़े द्वार

माना आँखें थीं नहीं, हृदय कहाँ था पास
एक पिता की धृष्टता, बदल गई इतिहास

यद्यपि हो वामांगिनी, कहता यही समाज
दोनों अंगों पर मगर, करो नित्य ही राज

बेटी जैसा प्यार जब, मिले सास के पास
सारा सुख संसार का, उस घर करे निवास

कुछ दुख किस्मत ने दिये, कुछ मिल गये उधार
सुख बस चर्चा में रहा, जीवन भर निस्सार

पूजन-अर्चन-धर्म का, एक रसायन मान
पुण्य-भाव से है जुड़ा, रोटी का विज्ञान

मिलते हैं प्रारब्ध से, पैसा-पत्नी-पूत
व्यर्थ सभी अभ्यर्थना, पूजन-पाठ-भभूत

पद-पैसे के मोह ने, ऐसा फेंका जाल
धूनीवाले संत भी, फिसल गए तत्काल

उभय पक्ष की मित्रता, मिले सभी को नेक
चाहे हों दस-बीस पर, ख़ास मित्र हो एक

मीठे जल को पी रहा, रत्नाकर यह जान
खारेपन का हो कभी, नदियों से अवसान

दादा का बरगद मरा, पापाजी का नीम
नई सड़क से हो गई, पीढ़ी तीन यतीम

राम नहीं, पर राम-सम,गढ़ना अगर चरित्र |
फिर कोई वशिष्ठ बने, या फिर विश्वामित्र ||

तत्त्व-ज्ञान से हैं भरे,गीता-वेद-पुराण |
माटी में भी फूँककर , पैदा कर दे प्राण ||

जहाँ उच्च थी भावना , -ज्ञान रहा आदर्श |
वहाँ अर्थ से जुड़ गया,शिक्षण और विमर्श ||

शर्मिंदा तब हो गए, गुरुओं के सद्कार्य |
गए कोरवों के यहाँ , जब से द्रोणाचार्य ||

वृद्ध शब्द को भूलिये , रखिये याद वरिष्ठ |
ये अनुभव सम्पन्नता,यों ही नहीं प्रतिष्ठ ||

बूढ़ा - बुज़ुर्ग शब्द ये , करें कोष में बंद |
रचते रहिये नित्य ही,नई सुबह के छंद ||

दुश्मन जैसे लग रहे , मौसम के बदलाव |
शहर संक्रमण से भरा, गाँव भूख के घाव ||

जननी-जन्मभूमि यहीं, यहीं जाह्नवी मित्र |
जनक-जनार्दन भी यहीं,यहीं जकार सचित्र ||

नई पीढ़ियाँ सीख लें, झुकने के निहितार्थ |
झुकने से मिलते यहाँ, भैया सकल पदार्थ ||

चपल-चपल चपला करे,घन गरजे घनघोर |
प्रिये! आँजना आँख की, तभी कजीली कोर ||

दमक-दमककर दामिनी,हृदय करे भयभीत |
धरा-गगन की शुष्कता, सचमुच शब्दातीत ||

अश्रु सूख कर आँख में , -भोग रहे वैधव्य |
व्यर्थ-व्यर्थ लगने लगा,गाड़ी-कोठी-द्रव्य ||

जन्म-मृत्यु निश्चित यहाँ,व्यर्थ हमें आश्चर्य |
यही जीवनी शक्ति है, ----जग का नैरन्तर्य ||

लहर-लहर में गरल है, भूल-भूल अमरत्व |
काल खड़ा निर्लज्ज अब, भुला रहा देवत्व ||

रक्तवाहिनी में पिता, दौड़ रहे दिन- रात |
जीवित लगते है सदा, छायाप्रति अज्ञात ||

मोबाइल में हैं फँसे , --कोठी और कुटीर |
उसमें ही भगवान हैं, आओ भक्त कबीर ||

कुरता-धोती-चप्पलें,चश्मा-क़लम-दवात |
पिता छोड़कर चल दिए , यादों की बारात ||

ठेले पर पुस्तक दिखीं,रोका गया कबाड़ |
सोचा रोयें सड़क पर , --मारें ख़ूब दहाड़ ||

रद्दी में 'बच्चन' पड़े,सिसके स्वयं 'प्रसाद' |
'महाप्राण ' के छंद का, ठेले पर अनुवाद ||

फटे पृष्ठ मस्तक धरे, पहले किया प्रणाम |
क्षमा याचना की बहुत, मुँख बोला हे राम ||

सदी छीनने को खड़ी, पुस्तक का उपहार |
जिन्हें सहेजा प्यार से, हमने सौ-सौ बार || 41

-प्रभु त्रिवेदी 

कवि ,चित्रकार कुँवर रवीन्द्र जी प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

रंग-संसार
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वागर्थ प्रस्तुत करता है कवि, चित्रकार कुंअर रवीन्द्र जी के रंग संसार की कुछ झलकियाँ
      कुँवर रवीन्द्र जी भाऊ समर्थ के बाद हिन्दी के पाठकों और हिन्दी प्रेमियों के बीच बेहद लोकप्रिय चित्रकार हैं। कला को समर्पित कुँअर जी के कला साधक ने आज तक किसी कवि-लेखक और प्रकाशक को उनकी किताबों का आवरण बनाकर देने से मना नहीं किया। उनकी सहजता विनम्रता और शालीनता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है। ऐसा नहीं कि उन्हें यह पता नहीं या लोक व्यवहार में प्रयुक्त वह इस रीत को नहीं जानते हैं कि यहाँ, जलती तो वर्तिका है और लोग श्रेय दीपक को देते हैं। एक कला साधक का उत्स भी तो यही है ,वह अपनी कला साधना को अपनी तरफ से शत - प्रतिशत देने के बाबजूद भी श्रेय नहीं लेते। इस बात का अंदाज़ा इसी उदाहरण से लगाया जा सकता है आज तक १८७ किताबों के आवरण छापने के बाद लेखकों, कवियों और उनके प्रकाशकों ने पारश्रमिक तो दूर  उन्हें किताबें ही नहीं भिजवाईं।
                कुँअर रवीन्द्र जी अब तक सैकड़ों कवियों की कविताओं पर सैकड़ों चित्र बना चुके हैं। रवीन्द्र जी के चित्रों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमें जीवन गूँजता है। जहाँ तक मैंने उनके वारे में जाना यद्धपि वह अमूर्त चित्रों के चित्रकार नहीं हैं फिर भी उनकी अमूर्तता में भी जीवन अपनी पूरी ताक़त के साथ उभरता है। उनके चित्रों से जुड़ा सबसे बड़ा रोचक तथ्य यह है कि कुँवर जी के यहाँ - श्रम करने वाले फिर चाहे वह किसान हों, श्रमिक हों, फ़ैक्टरी वर्कर हों या मकान बनाने वाले राजगी या कविता लिखने वाला कवि, 
रवीन्द्र जी हर तरह के श्रम को अपने चित्रों में उभारते हैं। श्रम का और श्रम करने वालों का सम्मान उनके यहाँ जिंदादिली के साथ है और यही उनके चित्रों की ख़ूबी है।
 वागर्थ ब्लॉग ,वागर्थ फेसबुक समूह का मेरी आने वाली दूसरी नवगीत कृति 'धूप भरकर मुठ्ठियों में' सारे रंग उनके ही भरे हुए हैं।
वागर्थ उनकी कला साधना को नमन करता है।
    प्रस्तुति
©वागर्थ सम्पादक मण्डल

सोमवार, 26 जुलाई 2021

मनीष बादल के समकालीन दोहे प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ


मनीष बादल के समकालीन दोहे
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गन्ने से गुड़ बन रहा, गमका सारा गाँव।
दोना  लेकर  आ  गये, बच्चे  नंगे पाँव।।

पंचायत महुआ तले, हुक्का पीती जाय।
बेला  है  गोधूलि ये, लौटें  घर को  गाय।।

ओसारे खटिया  पड़ी, लेटे  पाहुन ख़ास।
सरहज पूड़ी तल रहीं, बेना झलती सास।।

समय-समय पर कीजिये, समय-समय की बात।
समय-समय की सीख से, समय   सुधारें   तात।।

अरुणोदय की  रश्मियाँ, निशा  न  पाई   रोक।
अतुल अरुण आभा करे, सकल जगत आलोक।।

हार नहीं है सोचता, नहीं सोचता जीत।
"बादल"  चाहे  तैरना, धारा के विपरीत।।

हार नहीं हरदम बुरी, जीत न हरदम  नेक।
सीमा में अच्छे सभी, बुरा सदा अतिरेक।।

रिश्तों की तुरपाइयाँ, अब करता है कौन।
रिश्ते  झीने क्या  हुए, सब हो जाते मौन।।

जहाँ पनपता है नहीं, शक़ का छूआ-छूत।
रिश्तों  की  होती  वहीं, बुनियादें  मजबूत।।

अक्सर  मारा वो गया, करता सच की बात।
विष का प्याला आज भी, पीता है सुकरात।।

बूँद ओस की कर रही, फूलों पर विश्राम।
सेज न उनकी तोड़िये, ले पूजा का नाम।।

आनन से पढ़ लीजिये, उसके मन को आप।
खुल कर कहता है नहीं, वो   अपने   संताप।।

सोच-समझ कर बोलिये, रहे न कोई खेद।
नाव  डुबोने  के  लिये, एक  बहुत है  छेद।।

कोई   चैती  गा  रहा, गाता   कोई  फाग।
सभी अलापे जा रहे, अपना-अपना राग।।

सतयुग-त्रेता  में मिले, द्वापर-कलयुग संग।
हर युग में हमको दिखे, श्वेत- श्याम से रंग।।

युगों - युगों  से   देखिए, लोभ   रहा  बलवंत ।
प्रभु सांसें गिनकर दिए, ख़्वाहिश दिए अनंत।।

पूनम  की  है  चाँदनी, कभी  अमावस  रात।
इससे ज़्यादा कुछ नहीं, जीवन की औक़ात।।

प्रतिभा का सम्मान से, दिखे नहीं अब मेल।
मुकुट उसे जो जीतता, साम-दाम का खेल।।

बादल  से बूंदें लिया, लिया  धरा से धूल।
वादी  में  फैला  रहा,  हर सूँ  ख़ुश्बू फूल।।

"बादल" बादल से कहे, बादल हो तुम ख़ास।
बादल-बादल  बूँद  हो, बादल-बादल प्यास।।

छोटी - छोटी  हार  पर, मम्मी  लेतीं  "पेन"।
पर मुझको समझा रहीं, "बेटा ट्राय अगेन" ।।

बच्चों  को हूँ  डांटता, जब वो  करते भूल।
बच्चे कहते आज के, "कम ऑन डैड, कूल"।।

विपदा में रखिए सदा, मति पर निज विश्वास।
कंकर, गागर  डालकर,  काग  बुझाए  प्यास।।

चाकू-खंजर  से  लगे,  कभी किये हैं ख़ून।। 
कभी नोच घायल किये, जिह्वा के नाखून।।

दिनकर के सँग आचरण, मानव करे विचित्र।
गर्मी  भर  दुश्मन   कहे,  सर्दी   आते   मित्र।।

आख़िर क्यों बदनाम वो, क्या उसमें है खोट।
छेनी  तो  मूरत  गढ़े,  ख़ुद पर  खाकर चोट।।

छत भी जिनकी है नहीं, ऊनी वस्त्र न गात।
उनको हत्यारिन  लगी, ठिठुरन वाली रात।।

दोहन   दोनों  कर  रहे,  ग्वाला - साहूकार।
दुग्धामृत दे एक तो, एक ब्याज की मार।।

उलट-पलट  पढ़ते  रहें, जीवन  के  अध्याय।
'निज अनुभव' ही श्रेष्ठ है, पुस्तक का पर्याय।।

सेहत से रोटी बड़ी, तभी रहा वो खाँस।
भर गुब्बारा  बेचता, बूढ़ा  अपनी साँस।।

नहीं जमेगी स्वार्थ की, दही कभी भी मीत।
मानवता - मथनी  मथे, मिले  नेह  नवनीत।।

हिम्मत देती है बहुत, 'बादल' को ये सीख।
सत्य नहीं है माँगता, कभी समर्थन-भीख।।

ग़ज़ल लिखे, दोहे लिखे, मुक्तक या फिर गीत।
'बादल' ने  जब भी  लिखे, या आंसू  या प्रीत।।

दोनों का  व्यवहार ये,  कितना है विपरीत।
युवा भविष्य जीता सदा, बूढ़ा सदा अतीत।।

झूठों का  आदर यहाँ, झूठों की ही ठाठ।
हरियाली है  झूठ से, सच है सूखी काठ।।

नयनों में ही झाँकिये, जब पढ़ना हो मौन।
नयन सदा सच बोलते, इनसे सच्चा कौन।।

मुस्कानों में  खोजिए, उसके  सारे घाव।
चेहरे पर वो लेपता, ख़ुशहाली के भाव।।

ख़ामोशी से कर लिया, मैंने सब स्वीकार।
हारा  तो हारा  हुआ, जीता  तो  भी  हार।।

क्षिति जल नभ पावक हवा, पाँच तत्व हैं मूल।
इनसे   देह   मनुष्य  की, जीवन  के  अनुकूल।।

निज भाषा, निज संस्कृति, निज सीमा, निज ज्ञान।
जो   इनका   सुमिरन  करे, मानुष    वही   सुजान।।

मुश्किल ने फिर मान ली, उससे अपनी हार।
तुमको ये किस्मत लगे, कोशिश हमें अपार।।

लिखते-लिखते लिख गया, वो कुछ ऐसी बात।
मौन लगा  फिर बोलने, शब्द - शब्द  की  मात।। 

अंतर्मन में  जब  हुआ, अंधियारे  का  शोर।
आशा-किरणें आ गयीं, लेकर उजली भोर।।
  
सद्गुण सारे धुल गए, अहम् बिगाड़े काम।
ज्यों  नींबू  की बूँद  भी, फाड़े  दूध  तमाम।।
                             
फूलों  से  यारी  रखो , मुझे  न  जाओ भूल।
मैं माटी तो क्या हुआ, मुझसे ही फल- फूल।।
                             
सच को मैंने सच कहा, कहा झूठ को झूठ।
बस मुझसे मेरे सभी, गये  तभी  से  रूठ।।

मुखिया बैठा सोचता, हुई कहाँ पर भूल।
मैंने बोया आम था, उपजे मगर बबूल।।

गंगा-जमुना का मिलन, दे ढोलक पर थाप।
बहनों से आकर मिलीं, सरस्वती चुपचाप।।

निष्ठावान   नयन   सदा, धरते   दृश्य   पुनीत।
नित-नित नायक लिख रहा, नेह-पूर्ण नवगीत।।

अतिशयता अच्छी नहीं, हो चाहत या रार।
सीमा में रखिये सदा, अपने सब व्यवहार।।

अंतस में जो घोलते, हैं पुस्तक के ज्ञान।
मनसा वाचा कर्मणा, मानुष हुए महान।।

सबसे ही मुश्किल रहा, अंतर्मन का युद्ध।
राम-लखन जानें इसे, या फिर गौतम बुद्ध।।

परिचय

परिचय 
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नाम ---    मनीष बादल
पिता --- श्री विभूति प्रसाद श्रीवास्तव (से.नि. मुख्य प्रबंधक, भारतीय स्टेट बैंक)
माता --- श्रीमती विमला श्रीवास्तव (से.नि. प्रधानाचार्या)
शिक्षा ---एम.बी.ए. 
वर्तमान पेशा --- विगत चार वर्षों से व्यवसाय 
अतीत पेशा --- वोडाफ़ोन मोबाइल कंपनी, भोपाल म.प्र. में रिटेल हेड और अन्य कंपनियों में अलग-अलग पदों और स्थानों पर कार्यरत
लेखन विधा --- मुख्यतः ग़ज़ल, दोहे, मुक्तक, गीत, पैरोडी, कहानी, संस्मरण
प्रकाशन --- साझा प्रकाशित पुस्तकें.. 
(1) "कोरोना काव्यांजलि" 
 (2) परवाज़-ए-ग़ज़ल -5  
(3) काव्य प्रहरी। 
(4) दो अन्य ग़ज़ल साझा संग्रह (प्रकाशनाधीन)
समय-समय पर देश की अग्रणी समाचार पत्रों/और अग्रणी पत्रिकाओं में प्रकाशन
प्रसारण ---- दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं अन्य नेशनल/प्रादेशिक टीवी चैनलों पर समय-समय पर प्रसारण
प्रकाशन - हंस, छपते-छपते एवं अन्य विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं समेत सभी राष्ट्रीय और प्रादेशिक समाचार पत्रों में प्रकाशन
अन्य --- 1.भोपाल में आयोजित सभी काव्य गोष्ठियों में भागीदारी 
2.राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों/मुशायरों में भागीदारी 
प्रमुख उपलब्धि ---  क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर पर लिखी सम्पूर्ण "सचिन चालीसा: द एंथम", मीडिया हॉउस - टी.वी. चैनल्स, समाचार पत्रों/ पत्रिकाओं/ एफ.एम. रेडियोज़ में प्रमुखता से  साक्षात्कार के साथ प्रमुख स्थान 
रुचि ---- लेखन के साथ-साथ लुप्तप्राय हो रहे "हवाइयन गिटार" बजाना, पुराने गाने गाना, चित्रकारी करना और समाज सेवा
वर्तमान पता --- फ्लैट न. टॉप - 3,  नर्मदा ब्लॉक,
अल्टीमेट कैंपस, शिर्डीपुरम, कोलार रोड, भोपाल - 462042 म. प्र.
मूल निवास - वाराणसी, उ.प्र.
मो न. - 8823809990



कैलाश मनहर के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग



                                    कैलाश मनहर 

             स्वामी मुहल्ला,मनोहरपुर(जयपुर-राज.)

                            मोबा.9460757408



(एक) 

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भोग-लोभ के अंध-कूप में,

जान-बूझ कर मरना भी क्या ?


कब तक सहन करें,झूठों को,

सच कहने से डरना भी क्या ?


अपने पर्वत,अपनी नदियाँ, 

अपनी धरती,अपने जंगल I

पर विकास का कपट-ढोंग रच, 

ऐश करे धनपति-शासक दल II 


प्रकृति को ही नष्ट करे जो, 

उस विकास का करना भी क्या ?


सब संसाधन गिरवी रखकर, 

जो पूँजी निवेश करवाये I

उस शासक का क्या यक़ीन यदि, 

देश समूचा बेचे खाये II 


पराधीन बन खाना-पीना, 

सजना और सँवरना भी क्या ?

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(दो) 

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पावस रूप सरूप पिया का |


गगन घटा चढ़ आये मेघा 

भाग जगा कुछ लिया-दिया का ||


धरती ओढ़े धानी चूनर,

बूँदें डाल रही हैं घूमर |

हुलस रहा गौरी का तन-मन,

हरियाली को आँखों में भर ||


स्वाद मधुर-सा लागे अब तो,

कच्ची कच्ची-सी अमिया का ||


मकई बीज दी है धरती में,

चाही अनचाही परती में ||

करे निराई साजन के संग,

रिमझिम-सी बारिश झरती में ||


उमग रहा जोबन अरु बंधन,

कसमस करे हाय अँगिया का ||


पावस रूप सरूप पिया का |


हहराती आई है नदिया,

उमग रहा है मन रसिया का ||

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(तीन) 

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कंक्रीट के  

भर जंगल में,

नदी ढूँढ़ता है 

इक पागल ||


गलियाँ संकरी 

लोग हैं चौड़े |

हर कोई 

जल्दी में दौड़े ||

पथिक भटकता 

किससे कोई, 

अन्तर्मन का 

नाता जोड़े ||


चल रे मन 

चल कहीं और चल||


सूनी छतें 

धूप है तीखी |

जन-जिजीविषा 

कहीं न दीखी ||

प्रेम प्रतीक्षा 

भी लगती है,

दह-दह दहकी 

ज्वाल सरीखी ||


निकल गये 

बिन बरसे  बादल ||

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(चार) 

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तुम ही मेरे भीतर हो और

तुम ही मेरे बाहर भी हो

तुम ही मेरे अपने हो और

तुम ही साफ़ पराये भी हो


ओ मेरे मन!


भीतर हो लिप्साओं में ईमान ढूँढ़ते

बाहर हो सुविधाओं का सामान ढूँढ़ते

मेरे हो तो मुझको ही सुख-देते हो

और पराये हो कि याद उनको करते हो


ओ रे जीवन!


बहुत बुरे हो तुम कि बहुत पीड़ायें दी हैं

किन्तु तुम्हारे संग बहुत क्रीड़ायें की हैं

बार बार थकता हूँ और हार जाता हूँ

किन्तु प्रयत्नों से भी कहाँ पार पाता हूँ


ओ मेरे धन!


शब्द कमाये हैं उनसे ही कोष भरा है

स्वप्न कमायें हैं उनसे संतोष भरा है

जो भी जग से मिला उसे सहता आया हूँ

अपने जन की बात सदा कहता आया हूँ


चाहता हूँ बस साहस बना रहे इतना-सा

मू्ल्यांकन कर सकूँ स्वयं का मैं जितना-सा

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(पाँच) 

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टूटा दर्पण

टूटा है मन

टूटा सपनों का सांझापन |

किन्तु बचाये रखना

साथी! 

अपने भीतर का संवेदन ||


उनका काम घृणा फैलाना

अंधास्था के छद्म-जाल से |

किन्तु सचेत बने रहना तुम

शैतानों की हर  कुचाल से ||


धर्म  औ" मज़हब

ख़ुदा,  राम,  रब

हरा-भरा रक्खें मन-आँगन |

सदा बनाये रखना

साथी! 

अपने भीतर  का  संवेदन ||


राजनीति  ने  किया धर्म से

जब भी अपवित्र  गठबंधन |

वैमनस्य  फैला  समाज  में

लोकतंत्र  करता  है  क्रन्दन ||


जन-मन में भय

मेल-जोल   क्षय

आपाधापी में जन-जीवन ||

संभल बनाये रखना 

साथी! 

अपने भीतर का संवेदन ||

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(छह) 

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झूठी सौगन्ध उठाते हैं

पाखण्डी बात बनाते हैं 

अँधास्था फैलाते हैं जो

ज़हरीली फसल उगाते हैं


जो बात बात पर देश का सिर

दुनिया में झुकाते आये हैं 

वे बेशर्मी से कहते हैं 

मैं देश नहीं झुकने दूँगा


जो तलवारें लहराते हैं

मंदिर-मस्ज़िद को ढहाते हैं

मुँह पर है झूठा राम-नाम

जो छुप कर छुरी चलाते हैं 


मिट्टी में मिला कर मानवता

जो हत्यायें करवाते हैं

वे बेशर्मी से कहते हैं 

यह देश नहीं झुकने दूँगा


जब लालकिला तक गिरवी है 

गिरवी हैं रेल्वे स्टेशन

गिरवी हैं हवाई अड्डे तक

है लोकतंत्र भी मरणासन्न 


चुपचाप विदेशी बैंकों में

जो सोना गिरवी रखते हैं 

वे बेशर्मी से कहते हैं 

मैं देश नहीं बिकने दूँगा


करते रैलियाँ चुनावी जो

और भीड़ इकठ्ठी करते हैं 

अपने वोटों के लालच में

जो महामारी फैलाते हैं 


अपनी अधकचरी भाषा से 

औरों की हंसी उड़ाते हैं 

जो भेष बदल कर बार बार

बहुरूपी स्वाँग रचाते हैं

वे बेशर्मी से कहते हैं 

मैं देश नहीं झुकने दूँगा 


जो राम के हैं ना अल्लाह के

न गंगा के न यमुना के 

जो विश्वनाथ की काशी में

अपनी जय-जय बुलवाते हैं


जो हर हर महादेव को तज

अपनी हर हर करवाते हैं 

वे बेशर्मी से कहते हैं 

मैं देश नहीं झुकने दूँगा 


जनता इनका सच जान चुकी

इनका चरित्र पहचान चुकी

ये हैं दलाल धनपतियों के

सारी दुनिया यह मान चुकी


सब लोग कह रहे साफ़-साफ़

अब नहीं करेंगे इन्हें माफ़


अब इन्हें तनिक भी देश में हम

अन्याय नहीं करने देंगे 

इस देश की आज़ादी को हम

ख़तरे में नहीं पड़ने देंगे

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(सात) 

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गड़बड़,सड़बड़,बड़बड़ मत कर

बातें मत कर,घसड़-फसड़ तू |

मेरी छाती क्यों छीले है,

जा ज़ुल्मी का गला पकड़ तू ||


हिन्दू-मुसलमान में बाँटे 

जति-धर्म-ईमान बखाने |

गाय-भैंस और ऊँट-गधे के

प्राणों में भी अन्तर माने ||


झूठी-सच्ची ज़ुमलेबाज़ी

तड़ीपार की धमकी-बोली ||

खट्टन की षड्यन्त्री चालें

सड़कों पर हैं गाली-गोली ||


चरड़-चरड़ सुन लोकतन्त्र की

बन थोड़ा,अग्गड़ तग्गड़ तू |


बेरुजगार बाप-बेटे की

घर-घर में हर रोज़ लड़ाई ||

सभा-सम्मिलन में शासन की

भक्त करें लयबध्द बड़ाई ||


प्राणवायु बिन मर रही जनता

लाशें गंगा की लहरों पर |

हैं लाखों किसान आँदोलित 

असर नहीं होता बहरों पर ||


बना रहे कानून ये काले

मनमर्जी करता है शासन |

जीडीपी पाताल पहुँच गई

निर्धन को मिलता नहीं राशन ||


राजनीति के इस कबाड़ में

बना है जर्जर लोह-लक्कड़ तू |

मुरझा चुका कमल तो कब का

दुर्गंधित कीचड़ में सड़ तू ||


ऊपर से सलवारी बाबा

बना हुआ सरकारी दल्ला |

फैला कर बेबात वितण्डा

मचा रहा पाखण्डी हल्ला ||


देश-भक्ति की बजी डुगडुगी

जय-जय,जय-जय,बम-बम गूँजे ||

घास छीलते हैं घसियारे

भाड़ झोंकते हैं भड़भूँजे ||


झूठी खड़-खड़,भड़-भड़ मत कर

सच के हक़ के ख़ातिर अड़ तू ||


मुझ से पंगा क्यों लेता है

हिम्मत कर गुण्डों से लड़ तू |

मेरे पथ का काँटा मत बन

सत्ता की आँखों में गड़ तू ||


सिर्फ़ हवा में फड़-फड़ मत कर

धरती की भी सुन धड़-धड़ तू |

माला में गुँथ कर मत इतरा

शूलों को भी दिखा अकड़ तू ||


फिर भी यदि डर लगता है तो

भग,दल्लों के पाँवों पड़ तू |

ला,दे मेरी सुल्फ़ी-साफ़ी

फूट,सा'ब की चिलम रगड़ तू ||

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(आठ) 

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आते जाते  बात बनाते 

घाट घाट पर  शीश नवाये I

औने पौने  ओछे बौने 

बन नहीं पाये  किन्तु सवाये II 


अरुणिम स्वस्तिक चिह्न रचा कर 

मंगल मंत्र  बहुत उच्चारे I

यश-धन की लिप्सा में लिथड़े 

पड़े रहे  देवों के द्वारे II 


गिनते चुनते  कहते सुनते 

देहरी देहरी  फूल चढ़ाये I

औने पौने  ओछे बौने 

बन नहीं पाये  किन्तु सवाये ||


पथ पर श्रीफल भी तोड़ा और

नींबू मिर्ची  भी लटकाये |

दिशाशूल भी  वाम रखा और

मिश्री मेवे  भी बंटवाये ||


शुभ मुहूर्त पर  प्रदक्षिणा कर

सारे रीति-रिवाज़  निभाये |

औने पौने  औछे बौने

बन नहीं पाये  किन्तु सवाये ||


झूठों की  विष-बेल  बढ़ाई 

सुख-सुविधा हित  पचते पचते I

सिद्धान्तों को  रखा ताक पर 

संघर्षों से  बचते बचते II 


जोड़ तोड़ कर  भाग दौड़ कर 

पकड़ रहे  सत्ता के पाये I

औने पौने  ओछे बौने 

बन नहीं पाये  किन्तु सवाये ||

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(नौ) 

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बादल बरसें जन मन हरसें

जीवन में आशायें सरसें


बाट जोहतीं अँखियाँ अनथक बरसो रे |


कड़कड़ गड़गड़ घरड़ घरड़ घर |

सपट सड़ाका धूम धड़ाका

दमक-दामिनी दिवस-यामिनी

जल-थल थल-जल एकमेक कर ||


पेड़ पात हो जायें लकदक बरसो रे |


नदी नाल सब लहर उफनतीं |

सर-तड़ाग डबरे सब भरतीं

तटबंधों को तोड़ वेग से होड़ लगें ज्यों 

चहुँदिशी हो जलराशि उमगतीं ||


मिटें लोक के सारे पातक बरसो रे |

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(दस) 

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गर्जन-तर्जन ही मत कर हाँ बरस

बरस कुछ और ज़ोर से |


मैदानों में बरस 

खेत में बरस 

मरुस्थल में भी जा |

वन-बीहड़ में 

तृषित भटकते

मृग-छौनों की 

प्यास बुझा ||


सूखे में हरियाली ले आ

खुशियाँ लहकें पोर पोर से |


बरस बरस कुछ और ज़ोर से ||


बरस गाँव और

ढाणी-ढाणी 

बरस नगर हर बस्ती में |

मिट जायें 

सारे अभाव और

जन-जन झूमें 

मस्ती में ||


धरती के आँचल में उपजें

हर्षित अंकुर नव-नकोर-से |


बरस बरस कुछ और ज़ोर से ||

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(ग्यारह) 

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हम नहीं तो काहे के तुम शाह जी


राज कर लो भींतड़ों पर

हर तरफ़ ड्योंडी पिटा दो

सच कहणिये सब जनों को

ज़मीं पर से ही मिटा दो 


अँधभक्तों से बुलाओ हर बखत वाह वाह जी


हैं भले सरकार यह जैकार

बुलवाओ खुशी से

बेच सारा मुल्क मस्ती में इसे

खाओ खुशी से


मत सुनो मरते गरीबों की तनिक भी आह जी


हैं अभी ये लोग सोये

चाहे जितना लूट लो तुम

इनको आपस में लड़ा कर

चाम इनकी च्यूँट लो तुम


जग गई जिस दिन ये जनता तो तुम्हें फिर

भागने की भी नहीं मिल पायेगी कुछ राह जी

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(बारह) 

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डर लगता है

प्रधान जी की

खँजर-सी चुभती आँखों से

डर लगता है


डर लगता है

मंत्री जी की

खुल कर दी जाती धमकी से

डर लगता है


डर लगता है

मुखिया जी की

बदला लेने की बातों से

डर लगता है


डर लगता है

प्रवक्ताओं के

बात बात पर हर कुतर्क से

डर लगता है


डर लगता है

अभिनेत्री के

झूठे पाखण्डी अभिनय से

डर लगता है


डर लगता है

पुलिस-फौज के

कीलित बूटों की धम धम से

डर लगता है


डर लगता है

छुटभैय्यों की

लाठी गाली और गोली से

डर लगता है


डर लगता है

कभी किसी दिन

जनता उनसे नहीं डरेगी

उनको भी तो

डर लगता है

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(तेरह) 

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विस्मृतियों  के  बीहड़  वन में, 

स्मृतियों का   पथ   ढूँढ़  रहे हैं ||


रहे    संधियों   से   आशंकित, 

संघर्षों    पर   किया    भरोसा |

हमने  अपनी थाली  में  खुद,

पीड़ाओं   का   गरल   परोसा ||


कह न सके जो  कहना चाहा, 

शेष वह   अकथ   ढूँढ़   रहे हैं ||


सिध्दान्तों के प्रति  संकल्पित,

रहे   जूझते   तिमिर-काल   में ||

समता-स्वप्न नहीं  फँस  पाया,

विषम जगत के  छद्म-जाल में ||


छूट गया  जो जीवन-रण   में, 

वह    टूटा   रथ   ढूँढ़   रहे  हैं ||

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(चौदह) 

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बिन  नदियों  के  पुल बनते हैं

सड़कें  बनतीं . पेड़  काट कर |

खेत  छीन कर  बने  कम्पनी

सत्ता  मिले  समाज  बाँट  कर ||


गौरक्षा   के  नाम  पे  की  हैं,

जाने    कितनी    ही   हत्यायें |

ढूँढ़   रहीं   खोये   बेटों   को,

कई    नज़ीबों    की   अम्मायें ||


अँधास्था   यूनिवर्सिटीज   में,

फैलाने . .का   लिये  लक्ष्य  वे |

छात्र-युवाओं  के  स्वप्नों   को,

बना   रहे   प्रतिशोध  भक्ष्य वे ||


झूठ  बोल  कर  राज करें  वे,

नोट  बंद   कर   खुशी  मनावें |

जनहित में वे टैक्स  लगा कर

जनता . को  नित मूर्ख  बनावें ||


बोलो  तो  ऐसे   विकास  को

कैसे    समझदार  मानें    हम |

घी  बेचे   और   तैल   खरीदे,

भला उसे  क्या  पहचानें  हम ||


बेरुजगार   युवाओं को   अब

नहीं  आ रहा  क़तई  रास यह |

मूर्ख  लग रहा है  विकास यह,

पागल लगता है विकास  यह ||

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(पन्द्रह)

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खिले हुये हैं मनोभूमि पर

पीले फूल उदासी के |


यह आश्विन की धूप,स्मृतियाँ 

चमक रहीं हैं हर पादप पर |

निखर रही भादों की बारिश, 

दिन की कड़ी धूप में तप कर ||


रेत भरी है नदी किन्तु हैं

गीले कूल उदासी के ||


इस जंगल में से जाती हैं,

महानगर तक जो भी राहें |

कभी खुशी से आँखें चमकें,

कभी हृदय से निकलें आहें ||


मीठा-मीठा दर्द दे रहे

चुभते शूल उदासी के ||

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(सोलह) 

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अँधास्था में डूबे रह कर 

कहो मुबारक आज़ादी |

ज़ुल्म-ओ-तानाशाही सह कर 

कहो मुबारक आज़ादी ||


उनकी जुमलेबाजी सुन कर 

कहो मुबारक आज़ादी |

प्रतिपल अपना सिर धुन-धुन कर 

कहो मुबारक आज़ादी ||


रुपया सत्तर पार हो गया

कहो मुबारक आज़ादी |

पम्फलेट अखबार हो गया

कहो मुबारक आज़ादी ||


टी.वी. चैनल हैं ग़ुलाम सब

कहो मुबारक आज़ादी |

सच्चाई प्रतिबंधित है अब

कहो मुबारक आज़ादी ||


मची हुई है हाहाकारी

कहो मुबारक आज़ादी |

बढ़ती जाये बेरुज़गारी

कहो मुबारक आज़ादी ||


कट्टर हत्यारों से घिर कर

कहो मुबारक आज़ादी |

गटर गर्त में गहरे गिर कर

कहो मुबारक आज़ादी ||


छद्मी राष्ट्रवाद में फंस कर

कहो मुबारक आज़ादी |

दुर्गंधित दलदल में धंस कर

कहो मुबारक आज़ादी ||


महामारी से मरते मरते

कहो मुबारक आज़ादी |

संभल संभल पग धरते धरते

कहो मुबारक आज़ादी ||


निर्धन जन का निशिदिन शोषण

कहो मुबारक आज़ादी |

धनपतियों का होता पोषण

कहो मुबारक आज़ादी ||


नष्ट हुई निजता की गरिमा

कहो मुबारक आज़ादी |

गाओ बस सरकारी महिमा

कहो मुबारक आज़ादी ||

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(सत्रह) 

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उथले उथले से जीवन का

तल जाने है कहाँ अतल में ?


चेहरा तो निश्चिन्त किन्तु है

मन में चिन्ताओं का डेरा |

उड़े उड़े-से मन पाखी को

सदा चाहिये नीड़ बसेरा ||


कल की आशा संजो रहे हैं

सब अपने इस आज विकल में ||


धरा-गगन के बीच हमेशा

साँसों की सरगम बहती है |

संवेदित शब्दों में भाषा

अपने सब दु:ख-सुख कहती है ||


शमन कर रहे हैं काया का

स्वप्न लोक के दावानल में ||

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(अठारह)--स्वयं के बारे में

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फिर पाँवों में चप्पल पहनी, 

फिर बाज़ार चले मनहरिया I

लगे आज भी वैसे ही वे, 

जैसे थे पहले मनहरिया II 


उस गुमटी पर बीड़ी पी कर,

मंदिर में लेटे अध-घण्टे I

चिलम मण्डली में कश खींचे,

भूल गये घर के सब टण्टे II 

हरेक बात पर ठोकें अक्सर,

नहले पे दहले मनहरिया II 


अज़ब उमर है,गज़ब ज़िन्दगी,

अज़ब-गज़ब हैं बातें इनकी I

दिन जैसे ठेंगे पर बैठा, 

और ठोकर में रातें इनकी II 

सुबह पीर, दोपहरी फक्कड़,

जोगी शाम ढले मनहरिया II 


राजनीति और अर्थ-तन्त्र में, 

लापरवाह रहे जीवन भर I

चलते रहे डगर पनघट की,

समगति, समलय संभल-संभल कर II 

खुद की ख़ातिर बहुत बुरे हैं, 

सब के लिये भले मनहरिया II


ठाकुर प्रसाद सिंह जी के नवगीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागार्थ

#नदी_के_उस_पार_तुम_इस_पार_हम_छोड़ो_विदा_दो

 ~।।वागर्थ ।।~

         प्रस्तुत करता है कवि ठाकुर प्रसाद सिंह जी के नवगीत -

   
       ठाकुर प्रसाद सिंह जी का नाम भारत में नवगीत विधा के कवियों में प्रमुखता से लिया जाता है। इन्होंने हिन्दी तथा प्राचीन भारतीय इतिहास व पुरातत्व में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। कई वर्षों तक अध्यापन और पत्रकारिता के बाद ठाकुर प्रसाद सिंह उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में चले गए। वहाँ हिन्दी संस्थान के निदेशक रहे। ठाकुर प्रसाद सिंह ने कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। नाटक तथा उपन्यास भी लिखे। कविता के क्षेत्र में इनके 'महामानव (प्रबंध-काव्य) एवं 'वंशी और मादल (गीत-संग्रह) विशेष चर्चित रहे।

बहुमुखी सृजन प्रतिभा के रूप में ठाकुर प्रसाद सिंह अपनी पीढ़ी के रचनाकारों में प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित रहे हैं। उपन्यास, कहानी, कविता, ललित निबन्ध, संस्मरण तथा अन्यान्य सभी विधाओं में उनका कृतित्व अपनी मौलिकता के कारण उल्लेखनीय है, किन्तु संथाली लोकगीतों की भावभूमि पर आधारित गीतों के संग्रह ‘वंशी और मादल’ के द्वारा वे हिन्दी नवगीत के प्रतिष्पाठक रचनाकारों में अग्रगण्य हैं।

साहित्यकार होने के साथ-साथ नयी प्रतिभाओं के निर्माण में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। वे एक विशिष्ट रचनाकार के साथ ही बेहतरीन इंसान भी थे। उनकी रचनाओं में पीड़ा की सामाजिकता दिखती है लेकिन जीवन में उनकी बातचीत हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण रहती थी ।  
    ठाकुर प्रसाद सिंह ने कई महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर कार्य किया और साहित्य में अपनी कृतियों के जरिए अवदान किया लेकिन वे मूलतः पत्रकार ही  रहे ।
     उनका स्वभाव रहा  कि  वह स्वयं  के प्रति एकदम निरपेक्ष थे। उन्होंने सैकड़ों लोगों की पुस्तकें छपवाई किन्तु उनके समय में उनकी रचनाएँ नहीं छप सकीं ।

ठाकुर प्रसाद सिंह जी को परिस्थितियों ने काशी से सुदूर संथाल परगना में पहुँचा तो दिया पर उनका जीवन थमा नहीं। जीवन के सतत अन्वेषणों ने उन्हें जीवन-लक्ष्य दे दिया आदिवासियों के मध्य रहकर उनके आदिम संवेगों को निरखने परखने का ।

     जैसा कि ज्ञात है कि राजेन्द्र प्रसाद जी ने १९५६ -१९५७ में  नवगीत को ’नवगीत’ नाम दिया था। उससे पहले १९५३ से १९५६ के बीच ठाकुर प्रसाद सिंह ने वे गीत लिखे थे, जिन्हें राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने नवगीत कहकर पुकारा था। बाद में निराला के पास भी उसी शैली के कुछ गीत मिले, जो निराला ने १९४०-४६ में लिखे थे । 

    उनके छोटे अंतरों के  गीतों में प्रेम के संगीत की अनूठी स्वरलिपि है जिसमें  संथाल के आदिवासियों का सामाजिक ताना-बाना है, ठाकुर प्रसाद सिंह जी के गीतों में संथाल की सघन अनुभूतियों का अद्भुत बोध है। यहाँ पग-पग पर भाषा की कोमल चारुता की अनन्य झाँकी मिलती है ।
           
                                             प्रस्तुति 
                                        ~।।वागर्थ ।।~
                                       सम्पादक मण्डल
           

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(१)

पाँच जोड़ बाँसुरी
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पाँच जोड़ बाँसुरी
वासन्ती रात के विह्वल पल आख़िरी
पर्वत के पार से बजाते तुम बाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी

वंशी स्वर उमड़-घुमड़ रो रहा
मन उठ चलने को हो रहा
धीरज की गाँठ खुली लो लेकिन
आधे अँचरा पर पिय सो रहा
मन मेरा तोड़ रहा पाँसुरी
पाँच जोड़ बाँसुरी ।

(२)

नदी के उस पार तुम 
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नदी के उस पार तुम, इस पार हम
छोड़ो, विदा दो
नहीं सम्भव है कि हम-तुम एक तट
पर हों, विदा दो

तनिक आँचल खोलकर स्मृति का
करो स्वीकार माला, मुद्रिका या
याद इससे ही करोगी आज की सरि
चन्द्रिका या
चांदनी का तीर मावस का हृदय
जैसे भिदा हो
विदा दो

वही मान्दोली मुझे दो
मैं अवश हूँ धड़कनों से
यह बनेगी प्यार की थपकी
मुझे पागल क्षणों में
स्वप्न-सा जीवन मिला दु:स्वप्न-सा
उसको बिता दो

(३)

बेला लो डूब ही गई
झलफल बेला
झिलमिल बेला
बेला लो डूब ही गई

रो-रोकर नदी के किनारे
धारे, धारे
प्राण विकल तेरे रे हारे
दिशा तुम्हें भूली रे
नइहर के दूर हैं सहारे

वही हुआ, नाव की तुम्हारे
लो डोरी छूट ही गई
बेला लो डूब ही गई ।

(४)

आछी के वन
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आछी के वन अगवारे
आछी के वन पिछवारे
आछी के वन पूरब के
आछी के वन पच्छिमवारे

महका मह-मह से रन-बन
आछी के वन

भोर हुई सपने-सा टूटा
पथ मंह-मंह का पीछे छूटा
अब कचमच धूप

हवाएँ सन सन
आछी के वन ।

(५)

चिड़ियों ने पर्वत पर घोंसला बनाया
दिन में रो रात-रात जी भर कर गाया

फिर पलाश फूले रंगते वन के छोर
रंग की लपट से छू जाती है कोर
आँखें भर आईं प्रिय मन यह भर आया

कोंपल के होंठों ने बाँसुरी बजाई
पिड़कुलियों ने सूनी दोपहर जगाई
पतझर ने आज कहाँ सोने मुझको दिया
तुड़े-मुड़े पत्तों ने खिड़की खटकाई
मन ने पिछले सपनों को फिर दुहराया 

(६)

आने को कहना
पर आना न जाना
पर्वत की घाटियाँ जगीं, गूँजीं
बार-बार गूँजता बहाना

झरते साखू-वन में
दोपहरी अलसाई
ढलवानों पर
लेती रह-रह अंगड़ाई
हवा है कि है
केवल झुरमुर का गाना
बार-बार गूँजता बहाना ।

(७)

पर्वत पर आग जला वासन्ती रात में
नाच रहे हैं हम-तुम हाथ दिए हाथ में

धन मत दो, जन मत दो
ले लो सब ले लो
आओ रे लाज भरे
खेलो सब खेलो
होठों पर वंशी हो, हवा हँसे झर-झर
पास भरा पानी हो, हाथों में मादर

फिर बोलो क्या रखा
दुनिया की बात में ?
हाथ दिए हाथ में ।

(८)
कटती फसलों के साथ
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कटती फसलों के साथ कट गया सन्नाटा
बजती फसलों के साथ ब्याह के ढोल बजे
मेरे माथे पर झुक-झुक आते पीत चन्द्र
तुम इतने सुन्दर इसके पहले कभी न थे

चांदनी अधिक अलसाई सूनी घड़ियों में
बाँसुरी अधिक भरमाई टेढ़ी गलियों में
कितनी उदार हो जाती कनइल की छाया
कितनी बेचैनी है बेले की कलियों में

पीले रंगों से जगमग तेरी अंगनाई
पीले पत्तों से भरती मेरी अमराई
पर्वती.सरीखी तुम्हें कहूँ या न भी कहूँ
हर बार प्रतिध्वनि लौट पास मेरे आती

अच्छा ही हुआ कि राहें उलझ गईं मेरी
यदि पास तुम्हारे जाती तो तुम क्या कहते ?

(९)

देह यह बन जाए केवल पाँव
केवल पाँव
अब न रोकेंगे तुम्हें घर-गाँव
घन लखराँव

पाँव ही बन जाएँ
तेरी छाँव

ये अधूरे गीत
टूटे छन्द
जूठे भाव
इन्हें लेकर खड़ें कैसे रहें
बीच दुराव ।

(१०)

पात झरे फिर -फिर हरे होंगे
-----------------------------------

पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे

साखू की डाल पर उदासे मन
उन्मन का क्या होगा
पात-पात पर अंकित चुम्बन
चुम्बन का क्या होगा
मन-मन पर डाल दिए बन्धन
बन्धन का क्या होगा
पात झरे, गलियों-गलियों बिखरे

कोयलें उदास मगर फिर-फिर वे गाएँगी
नए-नए चिन्हों से राहें भर जाएँगी
खुलने दो कलियों की ठिठुरी ये मुट्ठियाँ
माथे पर नई-नई सुबहें मुस्काएँगी
गगन-नयन फिर-फिर होंगे भरे

पात झरे, फिर-फिर होंगे हरे

(११)

तिरि रिरि, तिरि रिरि, तिरि रिरि

बजी बाँसुरी

चन्दन बन

मलयागिरी

तिरि रिरि

रात का बिराना पल

आखिरी

बजी बाँसुरी

तिरि रिरि

________________________________________________

जन्म- २६अक्टूबर, १९२४, वाराणसी, उत्तर प्रदेश

ठाकुर प्रसाद सिंह की मुख्य रचनाएँ इस प्रकार हैं-

महामानव (१९४६)
वंशी और मादल कबीर (१९७७)
कुब्जा सुन्दरी (१९६३)
आदिम (१९७८)
हिन्दी निबंध और निबंधकार (१९५२)
पुराने घर नये लोग (१९६०)
बाबू राव विष्णु प्राणकर (१९८४)
स्वतंत्र आन्दोलन और बनारस (१९९०)
१५अगस्त
पहिए
कठपुतली
गहरे सागर के मोती

शनिवार, 24 जुलाई 2021

कवि मोहन सगौरिया की समकालीन कवियाएँ

मोहन सगोरिया


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आज के कवि के विषय में कोई विशेष टिप्पणी नहीं है, सिवाय इसके कि उनकी कविता की रेंज बहुत बड़ी हैं | उन्होंने कविता की हर विधा में लिखा है, और टिककर लिखा है - दोहे, छंद, गीत, नवगीत, गजल और मुक्तछंद | बहुत छोटी कविताओं से लेकर लंबी कविता तक | फुटकर कविताएं भी लिखीं और श्रृंखलाबद्घ कविताएं भी | 'नींद' विषय पर उनका एक पूरा संग्रह ही है | उनकी कविताओं में मनोविज्ञान इतना गहरा है कि कविताएं बार-बार पाठ की मांग करती है ; और सरल भी इतनी कि एक बार पढ़ने पर लगता है - यह तो कोई भी लिख सकता था | उन्होंने साहित्य के लिए बहुत संघर्ष किया |  आत्मसंघर्ष इतना कि मुक्तिबोध पर उल्लेखनीय लंबी कविता मिल जाएगी  और सुविधाएं इतनी कि मंत्री के निज सचिव पर भी | दो दर्जन नौकरियां, एक दर्जन पत्रिकाओं का संपादन, आधा दर्जन प्रेम , एक पाव दर्जन बच्चे और एक अदद बीवी... कुल जमा दो कविता संग्रह प्रकाशित | रजा पुरस्कार सहित चार सम्मानों  से अलंकृत | फिर भी अलक्षित| मुंहफट हैं लेकिन बहुत अच्छे पाठक हैं... तो पढ़ते हैं यहां इन की कुछ कविताएं | नाम है मोहन सगोरिया--

क्या कहिए
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अब जनाब
नींद का क्या कहिए

टूट गई
तो रात ढलते ही

और न टूटी तो ताउम्र।


गौरैया की तैयारी 
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खबरदार! होशियार!!  
कोई भूले से न आए इधर ये
कि पहरा है इनका रात पर 

नींद हराम किए है आज ये
कि आज ही जागी हैं अपनी नींद, लज्जा और कुंठा से
आज ये कही जा सकती हैं निर्लज्ज 
कि आज ही ये साबित होंगी लाजवंती 

इस कस्बे से जा चुकी बारात ब्याहने दुल्हन 
जा चुके लोग-जन 
जा चुके घराती 
बच्चे-बूढ़े-बाबा-आजा-दादा-काका-मामा-फूफा-भैया 
सज-धज जा चुके बाराती 

शेष रह गए जो करमजले दुर्भागी! उनकी नहीं खैर 
वे निकल जाएं गाँव से अब्भी के अब्भी 
जा सो पड़े रहें खेत-खलियान, मचान पर

आ जाएँ तो आ जाएँ बुरी आत्माएँ ठेंगे से 
देख लें आज इनका हुड़दंग, खूब जमेगा रंग 

कर ली है तैयारी इन्होंने रात की 
रच लिए हैं स्वांग
पहरेदारी पर तैनात बूढ़ी काकी 
मुन्नी-माँ ले आयी साफा 
गमछे में बाँध रखी है कटार 
बब्बा के पुराने को्ट में ठूस लिए हैं पान 
हिफाजत से रख ली है काजल की डिबिया मूँछ बनाने को
इत्र के फाहे खोंस लिए हैं कान में 
कि आज यह दूल्हा रिझा ही लेगा अपनी नवविवाहिता को

पहले ही दे आयी लिल्लू की बाई 
घर घर बुलउआ- "गौरैया है आज, चली अइयो'
आँख मार कर कह आयी संगातियों को
कि खूब घुटेगी, छनेगी जी भर 
जरूर आना, करेंगे 'रासलीला' मिलकर

सूरज डूबने के साथ ही डूब चुकी लाज 
कोई मत जाना उस ओर, गौरैया है आज 

दोह ली गयीं गायें, बछड़े को दूध पिला कर 
साफ कर ली गई हैं लालटेनें
कि बिजली गुल हो जाने पर बंदोबस्त
जला दी गई हैं नीम की पत्तियाँ ताकि भाग जाए मच्छर
खींच दी गई है सरहदें आँगन-आँगन
नारियल की रस्सी बांध दी गई हैं खूँटे गाड़कर 
तोते को दे दी गई है हरी मिर्च और फल्लियाँ
थोड़ा सा दाल-भात. वृद्ध आजी को पथ्य
मँझली ने सुना भी दी हैं गालियाँ झुँझलाकर
कि सो भी जा बुढ़ऊ अब भला तेरा क्या काम

तो भैया और बिन्ना,
हो चुकी पूरी तैयारी 
खैर नहीं है दुल्हन की 
आज ही होगा सही मायने में रतजगा 
युगों-युगों से दबायी गई कुंठाएँ 
तोड़कर बाहर आएंगी त्वचा की चारदीवारी 
देखकर गदगद हो जाएंगी भटकी आत्माएँ 
रम जाएंगी इस केलिक्रीड़ा के उपक्रम और प्रहसन  में
 जा न सकेंगी हल्दी भरे अंग 
दूल्हे के संग 

और, जो दूल्हा बना है गौरैया में 
कौन पुरुष ही है वह 
जागेगा एक स्त्री देह से आज 

सो खबरदार किए देता हूँ 
कि कोई ना आए जाए उस तरफ 
आज यह रात सुहागिनों के जागने की है 
यह समय भटकती आत्माओं के सो जाने का है।

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(बारात चले जाने पर वर पक्ष की स्त्रियाँ शादी ब्याह का स्वांग रचाती हैं। यह खेल विवाह और विवाह से जुड़े तमाम पहलुओं पर होता है । हँसी-ठिठोली-विनोद रात भर चलता रहता है।  इसे ही गौरैया कहते हैं।)


अपनी यात्रा पर रहा ताउम्र
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मैंने जितना जिया 
मेरा हिया
उसे छोटा करके बतलाते रहा

देखा नदियों, पहाड़ों, गगन, वनस्पतियों को 
और उन्हें अपने पते-ठिकानों में तब्दील करता रहा 
इन पतों पर पहुंचते रहे मुझे जानने वाले
जबकि मैं जिन्हें जानता था उनका जिक्र जरूरी है 
पहुँचना भी उन तक 

अपनी यात्रा पर रहा ताउम्र 
छह नंबर का जूता पहन ।
अंग्रेजी में उकरे इस नंबर को 
कालांतर में लोगों ने नौ पढ़ा।


पुनर्नवा
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मैं महाप्रलय के बाद भी
जीवित रहना चाहूँगा

मैं फिर से जीना चाहूँगा आदम का जीवन
और हव्वा का हाथ थामे थामे
नाप लेना चाहूँगा ब्रह्मांड 

बिताना चाहूँगा
शताब्दियों पर शताब्दियाँ

मैं उस फल की तलाश में भटकूँगा
जिसकी वजह से सिरजा संसार
शताब्दियों से शताब्दी तक
और जन्मान्तरों से जन्म तक।

चीता उर्फ़ निश्चिंतता का गीत 

( मंत्री के निज सचिव के नाम)
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पूरी सफाई से करते हुए शिकार 
और पूरी सफाई से खाना

शिष्ट व्यवहार, कहाँ से सीखा?
         नहीं आया 
                तुम्हें चट कर जाना

बिल्ली जैसा...बाप रे बाप !
         दबे पांव रक्खे 
                 सूखे पात पर
                        आहट... न खड़खड़ाहट!

फुर्ती ऐसी ...जैसे विद्युत 

जंगल-जंगल
         क्यूँ  रोते हो ?
                  बच्चे जैसे 
                          घाघ हो 

बाघ हो 
नहीं-नहीं, बाघ नहीं... शेर नहीं 

देते दस्तक दरवाजे पर 
        आदम जैसे 
                  वाह क्या खूब खूबी 

जाने महबूबी !
         जंगल के राजा नहीं हो तुम 

बस ...रह गई 
         सुई भर कसर 
                    क्या गम !!


बैतूल और बैतूल के कस्बे
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बैतूल नहीं बे-तूल की बातें 
अनुभूति उजले दिन सी
संवेदना 
काली रातें 
गुज़रती ज़िंदगी आदिवासियों की 
एकमात्र बस्तर को छोड़ 
मध्यप्रदेश का सबसे पिछड़ा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र 

भोपाल-नागपुर 60 हाईवे पर 
स्थित कस्बानुमा शहर 
आधुनिकता की दौड़ में शामिल 
झिलमिल...दृश्य देखा पढ़ते यदाकदा 
लड़कियां नज़र आती अब जींस और टी-शर्ट पर

घने जंगलों के बीच 
बसा 
कस्बानुमा शहर...

कभी बेखटके शायद ही 
कोई अंग्रेजी टुकड़ी आयी हो 
गु़लाम भारत में इस तरफ
 कि अब भी मध्य प्रदेश के सबसे बड़े जंक्शन इटारसी से बैतूल के लिए पार करने पड़ते हैं :
केसला, कीरतगढ़, कालाआखर, ढोडरामोहर, बरबतपुर घोड़ाडोंगरी, धाराखोह और मरामझिरी

तगड़े काले गोंड झुणडों  में बसातेे गृहस्थी 
उगाते कोदों कुटकी 
खींचते पसीने से खेत 
पिलाते पेज बच्चों और मवेशियों को 

करते सिंगार पुरखों के सेते चांदी के सिक्कों से 
स्त्रियां भारी वर्क्षजों पर अंगिया कसती
होती नक्काशी जिन पर 
इन्हीं सिक्कों या शीशे के टुकड़ों की

कस्बों-कस्बों लगता हफ्ते में एक दिन 
हाट बारी-बारी 
बड़े ठाट-बाट से आते करने खरीददारी 
झुंड के झुंड 
युवा-वृद्ध, दद्दा, बब्बा, अाजी
दूल्हा-दुल्हन, बाराती 
गाते लोकगीत कोरस में 
'कौन शहर को बाजार दूल्हा 
बैतूल शहर को बाजार दूल्हा'
खत्म हुआ जो इधर गान तो उधर अलाप
गहकाता जाए अपने आप 
'बन्ना के हाथों में बिजना कटारी 
बन्ना खेलत जाए, बन्ना खेलत जाए, बन्ना खेलत जाए'
मिला कोई परिचित जहाँ
पटक झोला करते पालागन 
गले लगते नहीं लजाता ठेठ देहातीपन 
औरों की उपस्थिति में

पहाड़ों की तलहटी में 
खण्ड खण्ड बसे कस्बे
पूरी तरह निमग्न 
भारतीय संस्कृति के प्रतीक 
करते सुरक्षा वक़्त बेवक़्त 
हँसिए पिघलाकर तलवार बनाने को आतुर

खींचती गंध
डंगरे-कलिंदे, तरबूज और ककड़ी की 
कोसों फैले पाट पर बिछी बाड़ी
खीरे की तरह उगलती नदी 
बना करती महुए की शराब वहीं कहीं

बैठते चिलम खींचने जहाँ चार लोग 
कम पड़ जाती है आधा सेर तम्बाखू 
गप्प लड़ाते 
आग तापते ...
देते हवा की किंवदंतियों को :
उतर आती आसमान से परी 
नाचते भूत-प्रेत छमाछम 
डायनें करती घर का सारा काम 
पशु बलि और नर बलि को कबूलते आदिवासी

बेखौफ फल्लाँगतीकिशोरियाँ
पहाड़, नदी, नाले, दर्रे, घाटियाँ 
नहीं कुछ छिन जाने का डर 
पता भी नहीं है कुछ छिन जाने जैसा इनके पास 
नहीं शिकन चेहरे पर 
ना होती कभी उदास 
बेखौफ फल्लाँगती किशोरियाँ अपना समय

मीठी नींद की तरह होते 
कस्बों में चैन से बसते रहते आदिवासी 
श्रम और रोटी के बाद गिनते पाप और पुन्य को 
राजनीति कि नहीं समझ 
बस जानते महात्मा गांधी को 
लच्छेदार सफेद फूल-सा

अकाल के अट्ठाईस बरस पहले कभी 
वे गुजरे थे यहाँ से 
तब पानी पिलाया था मुखिया ने 
तभी से पता है :
"येर कोर सरकार ताक्से-तातौड़"

चस्पाँ हुए दृश्य ऐसे कि तब्दील नहीं होते 
पर नहीं है लिखित ब्यौरा कहीं 
इन कस्बों से गुजरे थे महात्मा गांधी कभी 
न सरदार वल्लभ भाई पटेल 
न पंडित जवाहरलाल नेहरू 
और न इंदिरा गांधी 
नहीं जानता कोई कस्बा सार्त्र या कार्ल मार्क्स को 
नहीं सुना कभी फ्रायड या कीर्क गार्द का नाम 
नहीं पहुँच पाया कोई अरस्तू अब तक यहाँ

कोई छंद नहीं लिखा गया बैतूल पर आज तक 
यहाँ कभी नहीं पी मुक्तिबोध ने बीड़ी।


कर्म-कविता
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1. 

काटो,
झूठ बोलती 
छप्‍पन इंच की जुबान काटो 

काटो, समय के बंध 

खाली अन्‍मयस्‍क समय यूं ही नहीं 
कुछ सार्थक करने काटो 

कभी न कहो 
कि यूं ही कट रही है जिंदगी 
भरपूर जिओ!
सच कहने के लिए 
आ गयी गले में खरास
तो पानी काट कर पियो!

पहचानो शत्रु को 
काटो उनके सिर 

जड़ न काटो किसी की।

2.

गुस्सा आ रहा है तो गरजो
इस कठिन समय पर 
असहिष्णु होते मनुष्य पर 
व्यवस्था पर, सत्ता पर 
आततायी पर 
गरजो अपनी बेडिया काटकर

पहाड़ से गिरकर जैसे झरने गरजते हैं 
नदिया गरजती है बाढ़ में 
घनीभूत होकर गरजते हैं मेघ
जैसे समुद्र गरजते हैं अपनी रौ में

गरजो जैसे शेर गरजता है वन में 
दौड़ता है लहू तन में 
जैसे इंकलाबी गरजता है गुलाम वतन में

गरजो मजलूमों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ़
गरजो मजदूरों के हक के लिए 
गरजो किसी निर्भया की अस्मत बचाने 
गरजो गलत फैसलों के खिलाफ़

गरजो, गरज पड़ने पर नहीं
स्‍वभावत: गरजो।

3.

दौड़ो, बहुत तेज दौड़ो 
लोग तालियां पीटेंगे

 बहुत तेज दौड़ते 
अवश्यम्‍भावी है गिरना 
लोग फिर ताली पीटेंगे

दौड़ो, पूरा दम लगाकर 
ताली पीटने पर।

4. 

लाश से बतियाओ, सरकार!
कहेगी वही सच-सच, धारदार जिंदगी अब कुछ नहीं कहती

मूक हैं लोग 
जख्‍़म चीत्कारते हैं 
लाश मुखर

क़त्ल की दास्तान कहती है लाश 
स्थिर है आँखें लाश की 
उससे नजरें मिलाकर बात करो पूछो कातिल का पता

रे सरकार, जल्द पूछो 
नहीं तो सड़ जाएगी लाश
और चीख-चीख कर बतलाएगी अपना दर्द
बतियायेगी तुमसे।

5.

झाँको, खिड़की से बाहर 
ओ,फूल-सी लड़की 
बाहर झाँकते हैं तुम्हारे स्‍वप्‍न 

कभी भी बंद हो सकते हैं 
खिड़की के पट 

अब तो द्वार खुलने ही चाहिए 
तुम्हारे लिए 
बाहर आना है तुम्हें 
अब तो अपने सपनों के संग 

बंद कमरे में मुरझा ही जाते हैं 
हर संभव कोशिश के बावजूद
फूल कहो या सपने 

झाँको 
ओ, फूल-सी लड़की बाहर झाँको।


ओ कबीर!
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एक काम पूरा हुआ आज 
इसके लिए 
खुश होना था मुझे 
लेकिन मैं अपनी खुशी 
ज़ाहिर न कर सका

एक काम 
बन ना सका जो 
मैं दुखी हुआ उसके लिए 

रोज-रोज 
खुश नहीं होता हूँ मैं 
होता हूँ बहुत-बहुत दुखी 

ओ कबीर!
 इस संसार में 
भला कौन है सुखी?

उज्जैन से राजनांदगाँव वाया नागपुर
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यह मैं हूं या शाख पर टिका आखिरी पत्ता नींद में
यह पतझड़ का मौसम या शुष्क हवा जागती सी 
देखना है कृशकाया मेरी चीर देगी पवन का रूख
या कि रुख़सत होने की घड़ी आ गई करीब

धुंधला धुंधला सा वलय  सूक्ष्म से स्थूल घेरता
 घेरा यह लेता अपनी परिधि में 
हवा, पानी, आकाश, अग्नि, धरा को 
मानव तन और समूचा वातायन 
बढ़ते ही जाता, गिरफ्त में लेता साँसें
फिर भी जाने क्यों सुट्टा मारना चाहे मन

जब उज्जैन से चली थी यह सवारी 
पच्चीस बोगियाँ जुड़ी थी वर्षों की
स्ट्रीम इंजन से गूंजती हुई आती सीटी
चीर कर रख देती थी अनुभूतियों का सन्नाटा 
अनुभव का शिशु चौक पड़ता यकसाँ नींद से
इक्का-दुक्का पहचाने चेहरे
डॉ. जोशी, प्रभाकर माचवे उतरते मंगलनाथ के रास्ते

भैरोनाथ के आसपास, वेधशाला के पीछे
सूखी वापी जिसके भीतर धँसती सीढ़ियाँ 
मुहाने तक जमीं हरी-कच्च काई 
नीचे तल में बहुत कम जल
अनाथ कीट-पतंगों और टिड्डों की शरणस्थली वह
जैसे जल तल पर सोया पड़ा हो शब्द

एकांत यह धँसता जाता भीतर गाड़ियों में, भीड़ में
अजनबी चेहरे आशंकित, उत्साहित, भौचक्के से 
स्वयं को अभिव्यक्त करते मुखौटे

बहुत-बहुत घूमें भर्तृहरि की गुफा के रास्ते 
श्मशान घाट के पास दिन पर दिन और रातें भी 
अंतहीन-बहसें, चर्चाएँ दर्शन-राजनीति और साहित्य पर
स्पष्ट कर आरंभ से ही चला था 
कि सफलता नहीं सार्थकता चाहिए

सार्थकता की राह बढ़ चला जीवन 
पीछे झूठे महाकाल, भस्म-आरती, जागरण करते जन
मदिरा-भोग, आस्था आदि 
कुमारसंभव और कालिदास
कब तक निभाते साथ ?
कह गए -- आएंगे कभी कविता में, स्वप्न में, नींद में

किंतु नहीं, मिथ्या ही सिद्ध हुए उनके उद्घोष 
चले आए भीतर धँसकर संग-साथ अपना सौंदर्यबोध ले जैसे अलसाई आँखों में चली आती है लज्जा
तभी तो यह बोध तलाशता रहा सौंदर्य 
समय की शक्ल में आता रहा समक्ष 
जूनी इंदौर के टूटे-फूटे पुलों पर 
किशनपुरे की चंद्रभागा नदी के तट 
पुरातन देवालयों, दरगाहों, मस्जिदों, खंडहरों,वीरान रास्तों
आदिम वृद्ध इमलियों के तलदेशों, निर्जन टापूओं पर
विचरण करते हर एक चीज़ में वही-वही 
सौंदर्य के जाने कितने आयामों के अन्वेषण 
अनावरण करते अस्तित्व कि उद्घाटित होता सत्य

अस्तित्व की तलाश भीतर जारी रही दरहमेश
'हंस' के साथ करना चाहा दूध का दूध, पानी का पानी
बनारस, कलकत्ता, जबलपुर नक्षत्रों की तरह चमके 
लुप्त हुए धूमकेतु-से आकाशगंगाओं के बीच 
आकांक्षाओं के बिम्ब दिखें फिर हो गए

एक गहरी-सी ऊब अभाव व संघर्ष ले आता 
कर्ण का पिता अभिशापित करता आशाओं की कुंती को प्रतिदिन और स्वप्नों के शिशु तिरोहित हो जाते 
कि अंततः नया खून ले आया नागपुर

कोठारिया वह छोटी सी झनझनाते पायदान 
खाली कनस्तर से बजते जल-पात्र 
जैसे काँवड़ ढो रहा श्रवण 
दिनचर्या की शुरुआत यह
दातुन मुँह में दबाए देखता आकाश

संतरे के मौसम में छौंक दाल या गिलकी-तुरई 
साग कोई जंगली कि मेनर का काढ़ा 
टिक्कड़ मोटे-मोटे, दो चार ग्रास ले चल पड़ता 
दफ्तर की मारामारी, यंत्रवत दिनचर्या 
अखबारनवीसी की दुनिया का आगाज यूँ

वक़्त निकाल इसी में लिखता ख़त-ख़तूत  
दोस्तों को नत्थी कर भेजता रिज्यूम 
एक अदद छोटी सी नौकरी की चाह
कमबख़्त यह जिद्दी ज़िंदगी!
बलवती होती कहीं टिककर रहने की इच्छा

धूल उड़ाती पवन आक्रोशी, लू चलती, जलाती त्वचा धूप
भीतर कलेजा इतना पथरीला कि सुट्टा मारना चाहे मन
हड्डियों के ढांचे पर चमड़ी मढ़ी ज्यों काया 
गुजरती ट्रैफिक से बेसाख़्ता, बेपरवाह बेनाम
जैसे कांच की रोशनी धुंध चीर नहीं पाती

गुजरता वह मद्धिम-मद्धिम 
देखता अपने ही जैसे शरीर फुटपाथिए
भीतर मार्क्स देता दस्तकें, डार्विन सोता 
बाहर फ्रायड थपथपाता कंधा 
जुंग हिलाता धमनियों-सी जड़ें 
कि देर रात लौटने पर भी दीखेंगी यहीं सोते 
असुविधा, अभाव में लिथड़ी ये मानव देह
दूभर क्यों हुए टिक्कड़-तरकारी इनसे 
कि सुट्टे का स्वप्न भी दूर-दूरस्थ

बाट जोहते पखवाड़ा बीता,न आए नरेश मेहता
क्यूँ खिन्न हुए वाम से नरेशों के मन 
क्यूँ नहीं दिख रहा सड़कों पर दु:ख 
भला कैसे जा सकेगा कोई अंतस में रमने 
भीतर के उस वियावान में 
कि सुन सकेगा कोमल तान 
अवश्यम्भावी है भीतर भी घेर रहा हो को कुहासा 
जैसे धुआँ धुआँ हुआ जा रहा अंतस्थल

क़दमताल करता शुक्रवारी तालाब तक 
मिल बैठते दोस्त यार शैलेंद्र, विद्रोही वगैरह
मूंगफली खरीद लौटते उन्हीं रास्ते समर्थ भाऊ के साथ
विचरते खुले आकाश में दो बगुले 
कि छोटे भाई का जिक्र छिड़ते  ही विचलित हो जाता मन वह अधिक सौभाग्यशाली अधिक संपन्न

यहाँ तो स्वयं को परिभाषित करने में निष्फल 
ओजवान कलाकार,  आखिर क्यों ? 
मित्रों के षड्यंत्र और संपादकों की उपेक्षा 
क्या अंदेशा है उन निकटतम मित्रों को ? 
पांडुलिपि भी खो गई उपन्यास की 
जैसे सिर पर चश्मा लगा भूल जाए कोई, ढूंढता रहे सर्वत्र
प्रकाशकों की कारगुजारियां ओफ्फ...ओह!

सच, डिग्रियों की बैशाखियों के बिना 
नहीं चला जाता बुद्धिजीवियों से डग भर
बांध दिए हों जैसे घोड़े के पैर गिरमे से 
पंद्रह वर्ष बाद दी फिर स्नातकोत्तर परीक्षा 
इतनी अवधि में तो लौट आए थे राघव अयोध्या 
परित्याग कर चुके थे वैदेही का 
रचा जा चुका था योग वशिष्ठ

पर धिक्  हाय-हाय वही द्वितीय श्रेणी 
कितनी पृथक पृथक है 
साहित्य और समाज की दुनिया 
कि इस नींद से जागना कठिनतर कितना

छूट गई पीछे संतरे की नगरी 
आया राजनांदगांव कस्बानुमा शहर 
नया-नया महाविद्यालय 
बड़ा सा मकान हवेलीनुमा 
घनी छाँह बरगद की 
अतल गहराइयों वाली बावड़ी नापना मुश्किल
मन की भी एक, थाह पाना मुश्किल

जादुई संसार खुलता सामने

अब करीने से दिखा भावी अतीत 
फिर कनेरों पर टिका सूरज व्यतीत

याद आती बारहा वह हर घड़ी 
दीवारों में जड़े धँसाता बरगद 
इठलाता है अजगरी भुजायें फैला सहस्त्रबाहु सा चक्करदार जीनों से उतरता स्वत्व 
बावरियों में निहारता स्वमेव

एक अजगर और है जो लीलता वय
एक मदारी प्रतिबंधित करता है किताबें 
एक मन भीतर से कहता धिक् समय 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार हो रहा 
जागरण के काल में युग सो रहा

चुनौतियां अब सामने हैं अत्यधिक 
और हैं पर्याप्त खुले 
अभिव्यक्ति के अवसर भी |


    
निहत्था व्यक्ति
----------------
मेरे हाथ में एक खंज़र है
एक निहत्था व्यक्ति खड़ा है मेरे सामने
मुझे उससे डर है

तुम्हारे सामने भी 
एक निहत्था व्यक्ति खड़ा है
कि तुम भी डरे हुए लग रहे हो

लो, मैं उछाल रहा हूँ
तुम्हारी तरफ़ 
यह खंज़र।

 फासला
""""""""""""

पत्थर से गिट्टी बनने के बीच वह पिसता रहा 
चट्टान तपती रही वर्षों भीतर-बाहर 
खदानों में सेंध लगा लगा 
चट्टानों की उरयाती में तपा 
कितनी बार बँटा है वह
डस्ट, कंक्रीट और गिट्टी में
मूलभूत तत्व पत्थर के ये, मनुष्यता के?

खोह के भीतर घुस पत्थर निकालना 
कितना सहज उसके लिए 
खतरनाक लगता है हमें 
कि घिसक न जाए चट्टान 
पर उसके लिए धूप से बचने का एकमात्र ठीया

खदान से लेकर क्रेशर तक की दूरी भी 
तय नहीं कर पाया वह अब तक 
और उसका लौंडा भी
जबकि बब्बू की औलाद जैसे 
मशीन पर ही पैदा हुई थी 
और झुनझुने की तरह स्टार्टर थमा दिया था 
बप्पा ने उसके हाथ

हां, एक बात की तारीफ करनी होगी 
ज़मीन सूँघकर बता सकता था वह 
कि कितना कोपरा हटाने पर 
कितना पत्थर मिलेगा किस जगह
बाबूभाई मिस्त्री का अनुमान भले ग़लत हो 
लेकिन वह बता सकता था 
कि कितना पत्थर चाहिए ट्रॉली भर गिट्टी के लिए

खदान कितना समय लेगी पत्थर पकाने में 
और कितने होल की ब्लास्टिंग करनी है 
वह मशीन की आवाज़ सुनकर बता सकता था 
कि बस अब जाम लगने वाली है

इधर बाबूभाई मिस्त्री ने भी एक भोपाली गाली देते हुए बताया 
साढ़े तीन फुटिया वह आदमी नहीं जानता 
कि पत्थर और गिट्टी के बीच  कितनी बार पिसा है वह

इसके अलावा झुग्गी और झुग्गी के साथ एक अदद बीवी 
जिसे कारू नाम मिस्त्री के घर से 
उड़ा लाया था वह, को छोड़कर 
और कुछ भी नहीं है इस दुनिया में

भारत के नक्शे में वह नहीं जानता 
कि भोपाल शहर के किस दिशा में
यह नीलबड़ नाम का कस्बा है
जहां उसकी लगभग पूरी पीढ़ी खप गयी
और पत्थर से गिट्टी बन गई है उसकी ज़िंदगी भी

वह नहीं जानता कि भोपाल से इसका फासला 
मात्र पंद्रह किलोमीटर का है 
और विधानसभा या लेबर कोर्ट पहुंचने में 
सिर्फ आधा घंटा लगता है 
जहां वह ताउम्र पहुंच नहीं पाया |


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(जीरा = मजदूर कंक्रीट को कहते हैं
 कोपरा= चट्टान पर जमीन मिट्टी की गीली परत
 जाम= क्रेशर में जब कोई पत्थर फँस जाता है तो मशीन बंद हो जाती है.)