कॉलम
"धरोहर"
में पढ़ते हैं 'एक बूँद हम' पर एक महत्वपूर्ण समीक्षा
यह समीक्षा सागर के प्रख्यात समालोचक संतोष तिवारी जी ने लिखी थी,चूँकि डॉ संतोष तिवारी जी,अब हमारे बीच नहीं हैं,
इसलिए उनके लिखे दो शब्द मेरे लिए किसी अनमोल धरोहर से कम नहीं हैं।
प्रस्तुत हैं संग्रह पर उनके महत्वपूर्ण विचार आपकी प्रतिक्रियार्थ।
मनोज मधुर:अंतर्मन में दर्द का अध्याय
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डॉ संतोष कुमार तिवारी
21/10/12
सागर
गीतात्मक संवेदनों के धनी और शब्दों की अन्तर्व्याप्त लय की सटीक पहचान रखने वाले मनोज जैन मधुर का पहला नवगीत संग्रह 'एक बूंद हम 'अपनी रचनाओं में वयस्कता का परिचय देता है।मैंने प्रौढ़ता शब्द का उपयोग नहीं किया क्योंकि वयस्कता की स्फूर्ति,उत्साह,जीवंतता और कुछ कर गुजरने की मानसिकता सदैव सराहनीय रही है।उसमें वसंत का वैभव और कबीराना फलसफा स्वयं समाविष्ट हो जाता है।कई बारप्रौढ़तायथास्थितिवादी हो जाती है और अपने प्रचलित मुहावरों का अतिक्रमण भी नहीं कर पाती।हमारे गुरु डॉ प्रेमशंकर अक्सर कहते थे कि कई लेखक तो जीवन भर वयस्क नहीं हो पाते प्रौढ़ता का जीवन दर्शन तो बहुत दूर की बात है।
बहरहाल हमें मनोज की गीत/नवगीत संबंधी मान्यताओं और धारणाओं पर विचार करना जरूरी है।रचनाकार कर्म -शक्ति का उपासक है, वह गत्यात्मक जीवन सौंदर्य का आराधक है इसीलिए घनघोर अंधेरे में संघर्ष करता हुआ दीपक -सा जल कर आलोक फैलाना चाहता है।
जब तक सांसे हैं /इस तन में /दीपक जैसा जल /सदा रहा संघर्ष दिए का /घोर अंधेरों से /आशा की लौ /कब डरती है /दुख के फेरों से/मेरे मन मत कम होने दे /अंतर का सम्बल/
किसी शायर ने लिखा है
अंधेरे मांगने आये थे हमसे रोशनी की भीख/हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते यही कवि कर्म है,दायित्व है।मनोज मधुर ने युग चिंतक के रूप में सर्जक की साधना स्वीकार करते हुए गीत को धरा का संस्कार,विश्व की आशा शक्ति का तेजपुंज ,ह्रदय की भाषा कहा है जो अन्तर्मन का कल्मष धोते हैं।उनके गीत तप्त मन को छाँव देते हैं ।कालातीत सत्य के रूप में नये युग की अगुआई करने वाले कवि का सुनिश्चित राग विश्व चिंता से अनुप्राणित और उद्वेलित हैं।
मैं सुकवि की आत्मा हूं/प्राण का पर्याय भी हूं/विश्व की चिंता समय के दर्द का अध्याय भी हूं/ शारदा की साधना का जागता प्रतिरूप हूँ मैं/जाहिर है मनोज मधुर की काव्य चेतना विश्व मानव की जागृत चेतना है जो काल और सरहदों में नहीं बनती/ यह मानववाद अंतरराष्ट्रीय का पर्यायवाची है जो जमाने की पीर को अपने आप में समेटे हुए है।
किसी शायर की पंक्तियां हैं 'बेताबियां समेटकर सारे जहान की/जब कुछ न बन पड़ा तो मेरा दिल बना दिया/ पहले संग्रह में भावनाओं के मंथन का नवनीत नवगीत को ऊपर उठाता है।यह सच है कि गांव और शहर के दो धड़ों ने आपसी स्नेह अपनत्व और रिश्तो की डोर कमजोर कर दिया है ।बंटवारे ने घर की बुनियाद हिला दी है प्यार भरे घर को ईंट गारे का मकान बना देने से जीवन खंडित विश्रृंखलित हो गया है। हम जड़ों से कट गए शायद इसीलिए वे वैमनस्यता के ठूँठे सबके मन में फूट पड़े /बंटवारे के लिए सभी गिद्धों से टूट पड़े /धीरे-धीरे बदल रही है छत मचान में/नफरत चिंता चुभन निरन्तर /बढ़ती जाती है /शंका अमरबेल -सी ऊपर चढ़ती जाती है /युग भी कम पड़ता है/घर के समाधान में/पीढ़ीगत अंतराल ने प्रेम के ढाई अक्षर को अखाड़ो में बदल दिया जाहिर है मनोज मधुर ने गांवों और शहरों के परिवेश को बड़ी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करते हुए यंत्रवत आदमी के भौतिक चिंतन से उद्भूत भूमंडलीकरण के खतरों का भी संकेत दिया है।
गांव जाने से मुकरने वाला मन निर्वासित तुलसी को विस्मृत कर चुका है क्योंकि राजपथों के सम्मोहन में/ पगडंडी उलझी /निर्धनता अनबूझ पहेली कभी नहीं सुलझी /अनाचार के काले कौवे उड़ करते काँव/राजनीत की बांहें पकडीं घेर लिया है मंच /बटवारा बंदर सा करते सचिव सरपंच /पश्चिम का परिवेश जमाए अंगद जैसा पाँव/कवि को शहर मदारी सा लगता है क्योंकि प्रदर्शनकारी मुद्राओं ने उसे ढक लिया है।सत्ता और विज्ञापन गरीब आदमी की चिंता ग्रस्त रोगी की पीड़ा भूल गए हैं।
मनोज ने गांव और शहरों के कॉन्ट्रास्ट को प्रतीकों और बिंबों के जरिये जिस गहरी संवेदनशीलता का परिचय दिया है वह श्लाघ्य है सत्ता और व्यवस्था ने डगर डगर पर छल किया है, इसीलिए आज हमें बहुत अमानवीय युग मे जीना पड़ रहा है।प्रकृति जन्य संवेदना पर आधारित रचनाएं हमारा ध्यान स्वतः आकृष्ट करती हैं।मेंड़ों से बतियाते चुपके से खेत/पोर पर भींज उठी नदिया की रेत/मदमाई धरती की/अलसाई देह/झरर झरर मेघों से फूट पड़ा नेह/पनघट ,महुवा ,अमुआ,पपीहा,सावन आदि के चित्रण में मनोज सिद्धहस्त हैं।समग्रता में पूरा समग्रता में पूरा चित्र उभरकर सामने आ जाता है।इसी प्रसंग में पारिवारिकता के चित्र गहरी आत्मीयता लगाव और जुड़ाव की सघन अनुभूति से संपृक्त हैं।
बाबूजी के चले जाने पर घर की गतिविधियों और मनःस्थितियों पर कवि का ध्यान हमें भी गंभीर दर्द में डुबो देता है ।ताने सुनती कैसे-कैसे /अम्मा शिलाखण्ड हो जैसे
/लिए गोद में कुंठा बैठी/ अपने दोनों हाथ जोड़कर/गहन उदासी अम्मा ओढ़े/शायद ही अब चुप्पी तोड़े/चिड़िया सी उड़ जाना चाहे/तन पिंजरे के तार तोड़कर/
मनोज मधुर का ध्यान पर्यावरण पर भी केंद्रित है चाहे वृक्ष लगाने की बातें हो या विलुप्त होते प्राणियोंकी,अथवा जल की बूंद सहेजने की ,कवि धरती की हरियाली रंगत रौनक संगीतमय वातावरण के प्रति जागरूक नागरिक होने का परिच देता है।
संकल्पित मन का यह अभियान आज के युग की पहली मांग है।नवगीत के वारे में मुझे एक शिकायत रही है
उसमें उसका इतना लोच लचीलापन ज्यादा है शब्द विन्यास का आंचलिक लालित्य इतना ज्यादा रहा है कि आक्रोशपूर्ण मुद्रा में शासन व्यवस्था से टकराने का माद्दा कम ही दिखलाई दिया।
प्रकृति चित्रण गांव के दृश्य और आंचलिक छवियों में नागार्जुन केदारनाथ अग्रवाल या भवानी प्रसाद मिश्र की टक्कर दी की रचना दिखलाई देती है किंतु आंदोलित करने वाली पुरुषार्थी फल का अभाव ही बना रहा।
मनोज मधुर की रचना 'अंकुर नहीं फूटा ' रचना में किसी सीमा तक यह व्यंजना अमिधा के जरिए हमें उद्वेलित करती है यद्धपि ऐसी रचनाएँ बहुत कम है ।कुछ पंक्तियां देखिए तुम्हारे हाथ में सरकार सौंपी थी समझ आपना /मुझे डर है न थम जाय /कहीं गणतंत्र का पहिया/किसी भी योजना के बीच का /अंकुर नहीं फूटा/ किया वादा उसी क्षण काँच की मानिंद वह टूट/ मुकदमे फौजदारी के लगे थे सैकड़ों जिस पर वही शठ न्याय के हाथों हमेशा जेल से छूटा /अगर तुम हाथ रख दो तो धनी हो जाए भिखमंगा/ अगर मर्जी तुम्हारी हो /शुरू हो जाएगा दंगा/ सदा जनतंत्र के शोषक रहे हो/तुम पहन चेहरे/ नहाया आपने जब से अपावन हो गई गंगा/
मुझे लगता है कि इस दिशा में नवगीत मधुर जैसे रचनाकारों को पाठकों/ श्रोताओं के सामने अधिक तल्खी के साथ पेश करेगा। जिस तरह प्रयोगवाद का दूसरा चरण नई कविता के नाम से अभिहित हुआ इसी तरह गीत का विकास यात्रा का जिस तरह अगला मुकाम नवरीत बन गया।
नयी कविता में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के श्रेष्ठ तत्वों का समाहार दिखलाई देता है ,उसी तरह नवगीत में गीतों और अन्य छांदसिकरचनाओं के वैशिष्ट्य का अनायास ही सम्मिश्रण देखा जा सकता है।
यह समावेश प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष समझा जा सकता है कथ्य और शिल्प दोनों छोरों पर। मैं कहना चाहूंगा कि गीतों की आत्मपरकता का वस्तु परकता की ओर प्रयाण कथ्य की दृष्टि से नवगीतों में सराहनीय है ।यहां व्यक्ति को सामूहिकता दी गई है ।मुक्तिबोध ने लिखा था कि मुक्ति अकेले में नहीं मिलती/ अगर वह है तो सबके ही साथ है। भवानी भाई ने तो अपने व्यक्तिगत को व्यक्ति और व्यक्तिगत का बना दिया।किंतु सामूहिकता के साथ समाज में जो साहसिकता आनी चाहिए उनके उत्प्रेरक तत्व नवगीत के विरले रचनाकारों में है।उनकी नाजुक मिजाजी को तेज -तर्रार बनाना भी विषयानुसार जरूरी है।कलेवर भाषा लोकांचल ग्राम नागर बोध आदि का जिक्र मनोज ने किया है। इस दृष्टि से भी गाने लगे नवगीत रचना बहुत मायने रखती है लक्ष्य भेदी होने के लिए तीव्रता और तीक्ष्णता दोनों जरूरी हैं ।किसी भी विधा का रचनाकार हो वह अपना एक विजन देकर जाता है जो अप्रत्यक्षतः कहीं न कहीं उभरता है और पाठक उसमें आंखों आंखें चार करता है ।यह विजन ही रचनाकार का प्रति संसार है।
यदि यह विजन न हो तो आशा आस्था आस्था संघर्ष के साथ सुनहरे क्षितिज की ओर हम प्रस्थान ही न कर पाएंगे। कम-से-कम खुरदरे यथार्थ के बीच इतनी बात तो उभरकर आना चाहिए कि आम आदमी अपनी छत के नीचे निर्भय होकर हर्ष के दोहे ,और प्रसन्नता की चौपाइयां, गुनगुना सके जब किसी नवोदित रचनाकार का पहला संग्रह हाथ में आता है तब मुझे मुझ मुझ पर दो प्रतिक्रिया होती है पहली यह कि चलो मां सरस्वती के चरणों में एक पुष्प और अर्पित हुआ ,दूसरी बात यह है कि हमारे लेखकीय गोत्र में इजाफा हुआ तीसरी बात यह उभरती है कि पहले संकलन को आदर्श पैमाने से नहीं नापना चाहिए जब इन रचनाओं से गुजरा तो वह तीसरी तो दिलचस्प अनुभव और सुखद आश्चर्य हुआ कि मनोज मधुर की काव्य साधना जिस वयस्क परिपक्वता का परिचय दे रही है ,उससे नवगीत जैसी विधा के सार्थक रचनाकारों की जमात में संभावनाओं के नए क्षितिज दिखाई दे रहे हैं।
इस संग्रह की विशेषता यह भी है कि बतौर भूमिका वीरेंद्र आस्तिक ने जो लिखा है वह काबिले तारीफ है क्योंकि ऐसे लेखक कम है जो कविता की थ्योरी को बदलते युग और परिवेश से जोड़ते हुए अपनी कहन से हमें आश्वस्त करते हैं
और हमारी समझ में नया जोड़ते हैं । ऐसे लेखकों की भूमिकाएं अवश्य पढ़ीं और समझीं जाती हैं।
हमें मनोज के दूसरे संकलन की आतुरता से प्रतीक्षा है ।
डॉ संतोष कुमार तिवारी
L I G-6
पद्माकर नगर
सागर मप्र
470004