गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

वर्तमान में नवगीत की उपादेयता ____________________________________


साहित्य भारती उत्तर प्रदेश और पंजाब सौरभ भाषा विभाग पंजाब की पत्रिकाओं में प्रकाशित एक
आलेख

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वर्तमान में नवगीत की उपादेयता 
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                                  मनोज जैन 

              आज के संदर्भों में नवगीत की उपादेयता पर विचार करना भी उतना ही आवश्यक है जितना उसके संबंध में जानना जरूरी है, क्योंकि आवश्यकता ही किसी आविष्कार की जननी होती है। यदि नवगीत है,उसका अस्तित्व काव्य के क्षेत्र को यदि प्रभावित कर रहा है,उसकी रचना धर्मिता अपनी जीवन्तता से यदि गीत की परम्परा को आगे ले जा रही है
               उसका सृजन-सौन्दर्य यदि आज के समय और समाज को आन्दोलित कर रहा है और उसके सिरजनहार उसे आगे लेकर यदि आगे आ रहे हैं तो निश्चित है कि नवगीत, गीत का वंशधर होकर भी आज उसके वर्चस्व को यथावत बनाए रखने में काव्य की किसी भी विधा से पीछे नहीं है। वरन वह आगे बढ़ता जा रहा है। 
                            साथ ही साहित्य के इतिहास में अपने को स्थापित करने का अधिक प्रयास कर रहा है। मेरा तो विश्वास है कि नवगीत का भी अपना इतिहास के अंतर्गत एक इतिहास होगा। मैं नवगीत की उपादेयता पर आपसे कुछ बात करूं उसके पूर्व मैं चाहता हूं कि नवगीत की रचना धर्मिता तथा उसके रचना बोध पर कुछ विचार कर लिया जाए, तो अधिक उचित होगा। छंद मुक्त काव्य के रचनाकारों का सदैव यह कहना रहा है कि गीत मर रहा है और उसका काव्य जगत में कोई अस्तित्व नहीं है। 
               मेरा कहना है कि यह उनकी नकारात्मक सोच ही गीत के अस्तित्व की वकालत करती है, क्योंकि जो कोई रचना प्रक्रिया अस्तित्व में है ही नहीं तो उसका विरोध क्यों और कैसे होगा? विरोध  तो उसी का होगा जो अपने अस्तित्व को लेकर अपने समय और समाज को चुनौती देता हुआ आगे बढ़ रहा होता है। 
         गीत है और उसके अपने अस्तित्व के प्रस्थान बिंदु से लेकर आज तक पूरे काव्य जगत के साथ - साथ सामान्य जगत को भी अपने माधुर्य बोध और कथ्य की सार्थकता के बोध से बड़ी शालीनता के साथ प्रभावित भी किया है और वह भविष्य में भी प्रभावित करता रहेगा। गीत कभी न तो मरा है न मारेगा। गीत तो सही अर्थों में काव्य की आत्मा है। आत्मा गीत के शब्दों में कभी मरती नहीं है,  तो फिर गीत कैसे मरेगा।
                 मरता वह है जो अस्थाई होता है। स्थाई होना उसकी अमरता का सूचक है।मेरा तो यह भी विश्वास है कि छन्द मुक्त कविता भी नहीं मरेगी। गीत की कविता में अपनी एक शाश्वत सत्ता है। मेरा तो पूर्ण निश्चय है कि जब से  मानव द्वारा समाज में अपनी सोच को परिमार्जित किया जाने लगा तो कविता आने लगी और जब कविता ने अपने को परिमार्जित किया तो वह गीत के रूप में अवतरित होने लगी तथा जब गीत अपने में परिमार्जित होने लगा तो नवगीत का रूप धारण करने लगा। यह काव्य का ही सहज, सरल और स्वाभाविक स्वरूप है, जी सहानुभूति की गोद में पलकर रूपायित होता है । 
                    नवाचार की दृष्टि से गीत को कितनी संज्ञाओं से अभिव्यक्त किया गया है- गीत,नवगीत जनगीत नवान्तर गीत अनुगीत परन्तु गीत तो गीत ही है। फिर भी प्रचलन की दृष्टि से नवगीत की अवधारणा अधिक सार्थक सिद्ध होती दिखाई देती है।पिछले कई दशकों से नवगीत की दुनिया ने गीत की अर्थवत्ता को अधिक प्राणवंत किया है। अब प्रश्न यह उठता है कि नवगीत है क्या?    
               उसकी पहचान क्या है, उसको कैसे परिभाषित किया जा सकता है। मैं नवगीत को गीत की परंपरा में उसका ही नव्य रूप मानता हूँ जो अपने समय और समाज के साथ नित्य सुनी जाने वाली अनुगूँजों को अपने में धारण करता हुआ चलता है। जो रचना अपने पीछे मुड़कर न देखते हुए केवल युगबोध को अपने में जीते हुए हर एक प्रकार से नयापन देती हुई अपने रूप दिखाने की प्रतिभा से पारंगत होती हुई अपने रूप से स्वरूप  को प्रभावित करती है, मैं उसे नवगीत मानता हूँ। 
              नए युग का नया गान नवगीत है जो नव्यता को साथ  लेकर आगे बढ़ता है। अपने कथ्य और शिल्प के दोनों रूपों में या भाषा और भावों की दोनों दृष्टियों में।
    वास्तव में गीत एक कठिन विधा है और नवगीत उससे भी कठिन क्योंकि वह अन्तर्मुखी होते हुए भी बहिर्मुखी होता है, उसे अपने युग से भी संघर्ष करना पड़ता है तथा अपने रूप से भी। क्योंकि दोनों में ही नएपन का भाव आना नवगीत की अपनी चरितार्थता है। जब छन्द का सटीक और सहज अनुशासन भावानुभूति की अभिव्यक्ति को लेकर व्यष्टि से सर्वसृष्टि की ओर यात्रा करता हुआ अपने लिए नए प्रतिमान गढ़ता है और उन प्रतिमानों के साथ नई रूप रचना करता है तो वह समाज में नए रूप में ही जाना जाता है। 
        जब गीत अपने को अपने नए रूप में पाता है नवगीत हो जाता है। यदि मैं यह कहूँ कि नवनीत छन्द के स्तर पर, उपमेय उपमानों  के स्वर पर  शब्द विन्यास के स्तर पर, भाषा के प्रयोग के स्तर पर तथा कथ्य के स्तर पर अपनी नूतनता से जन  मानस का आकर्षण बनने लगता है तो वह स्वतः ही नवगीत दिखने लगता है। 
              गीत का नया संस्करण नए संस्कारों को जब धारण करता है, तो नवगीत कहलाने लगता है।व्यक्तित्कता, आत्मानुभूति आत्मनिवेदन अर्थ संकेत की अभिव्यंजना कसंक्षिप्तता तथा नूतन बिम्ब बोध की अवधारणा, संवेदना की गहरी अनुभूति तथा चिर नूतन कथ्य की सम्यकता  नवगीत की विशेषताएँ होती हैं। एक स्वच्छ, स्वरूप पारदर्शी लय को लेकर जो रचना अन्तःकरण तक पहुँचती है,मेरे विचार में नवगीत होती है।
         यह युग नवगीत का ही युग है। नवगीत आज अपनी उठान पर है। नवगीतों का पाखी आज वास्तव में अपनी नवीनतम उड़ानों से गीत की दुनिया को नई दिशा की ओर ले जा रहा है जो युग की दृष्टि से स्वागतेय भी है और नई संभावना का संकेत भी । देश में बहुत काम हो रहा है। मूर्धन्य नवगीतकार इस दिशा में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। यह परिचर्चा भी उसी उत्तरोत्तर बढ़ते हुए नवगीत की विकास यात्रा में एक कड़ी है। जैसा कि मैंने विषय को प्रारम्भ करते हुए कहा था कि आज नवगीत की आवश्यकता है, क्योंकि आज के इस उत्तर  आधुनिकतावाद के इस उत्तर आधुनिकतावाद के समय में गीत के इस नव्य रूप को ही लोग स्वीकार कर रहे हैं।   
          क्योंकि नवगीत अपनी पूरी बात  बहुत थोड़े शब्दों में  कहने का आदी होता है।अतः वह समाज का खपता भी बहुत है।कहानी के क्षेत्र में जो काम लघु कथाएं कर रही हैं, वही काम आज नवगीत कर रहे हैं। आज का समय जिन विभीषिका से गुजर रहा है,समाज में जो विसंगतियां उभर कर आ रही हैं, आज का समाज जिन कठिन यातनाओं का सामना कर रहा है, सभी मूल्यों पर कुठाराघात हो रहा है तथा दुख, पीड़ा संत्रास अपने चरम पर है,ऐसे में लोकगीत की वकालत करना बहुत आवश्यक है। जो रचना मर्म पर चोट नहीं करती,वह रचना कैसे हो सकती है। रचना होने के लिए रचना को भी अपने से संघर्ष करना होता है और यह संघर्ष ही रचना को रचना बनाता है।   
        नवगीत का सबसे बड़ा औचित्य है नवीनता की खोज जो मानव समाज को सही दिशा का बोध करा सके ।
सृष्टि में विधाता ने जो कुछ रचा है,वह सब प्रयोजनीय है। चाहे वह जड़ हो अथवा चेतन। उसी प्रकार कवि भी एक प्रकार का विधाता ही है,वह भी काव्य की सृष्टि करता है।चाहे कविता हो,गीत हो नवगीत हो। उसकी रचना का कोई न कोई प्रयोजन तो होगा ही। यह प्रयोजन ही उसकी उपादेयता को सिद्ध करता है। साहित्य के मर्मज्ञों का यह कहना है कि समाज में यदि परिवर्तन ला सकने की किसी में क्षमता है तो वह साहित्य में ही है। साहित्य वह मशाल है जो भटके हुए समाज को सही मार्ग दिखाता है। नवगीत चूँकि साहित्य की आत्मा है अस्तु वह  समाज को अधिक सहज भाव से सुमार्ग पर ला सकता है।
       दुनिया की इस भाग दौड़ में किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह लम्बी लम्बी कविताएँ सुन सके, लम्बे लम्बे गीतों का अनुसरण कर सके। आज तो सूत्र रूप में कुछ सुनने तथा उसे समझने का समय रह गया है। ऐसी पस्थितियों में छोटा होने का कारण तथा संप्रेषण की दृष्टि से तथा सहज होने के कारण नवगीत का अपना एक अलग स्थान बनता जा रहा है। कम शब्दों में अपनी व्यंजना के द्वारा लोगों को अभिभूत कर देना नवगीत की विशेषता है। अतः यह कहने  में मुझे जरा भी संकोच नहीं है कि नवगीत आज वास्तव में समय और समाज के लिए बहुत उपयोगी है। वर्तमान संदर्भों में उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।
मनोज जैन