❗समीक्षा ......१❗
धूप भरकर मुट्ठियों में देख ली पर
गोल सूरज हाथ पे रखते नहीं
मुँह में रख लेते हैं रवि हनुमान जी
स्वाद लेकिन धूप का चखते नहीं
ठीक इसी तरह की परम्परा का निर्वहन करते हुए शिवपुरी ( म० प्र० )में जन्मे आदरणीय मनोज जैन जी ने रचा है :- " धूप भरकर मुट्ठियों में " नवगीत संग्रह। " एक बूँद हैं हम " वर्ष 2011 में प्रकाशित इनका प्रथम नवगीत संग्रह था जो मैंने नहीं पड़ा है लेकिन 2021 में प्रकाशित कृति " धूप भरकर मुट्ठियों में " पढ़ने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ।
काश ! अहिल्या की आँखों सा
हम बरसाते पानी
कुशल चितेरे ने विकास के
भित्ति-चित्र उकेरे
नाच रहे हैं वह समूह में
बना हाथ के घेरे
आदिमानवों ने छोड़ी है
अपनी अमिट निशानी
भीमबेटका का हर पत्थर
कहता एक कहानी
ये गीत मेरे नज़रिये से जैन साहब की उस विकास यात्रा का प्रमाण है जिसमें उन्होंने अपनी साहित्यक अभिरुचि को अपनी क़लम की छैनी से तराश के उसे जीवन्त रूप प्रदान किया है।
मिले भूमिका जो हमें जब जहाँ भी
भले हो कठिन किन्तु जीवन्त कर दें
नहीं है असंभव मनुज के लिए कुछ
दुखों का सदा के लिए अंत कर दें
सुनिश्चित करें वर्ष या मास , दिन , पल
घड़ी कोई खाली नहीं बीत पाए
ये पंक्तियाँ स्वयं इस बात की साक्षी हैं कि मनोज जी ने अपने लेखन को किस तरह एक नया आयाम दिया और किस तरह अपने और समाज के लिए एक सार्थक दिशा का चयन किया और जब व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करने की बारी आयी तो मनोज जी पीछे नहीं हटे और लिख डाला -
खुली आँख में मिर्ची बुरके
समझें हमें अनाड़ी
मरणासन्न देश की हालत
फिर भी चलती नाड़ी
अब भी माला पहन रहे हैं
शर्म नहीं है शेष
चारों तरफ अराजकता है
कैसा यह परिवेश है कैसा यह देश
इसी तरह मनोज जी की नज़र जब देश की संस्कृति के उस कोने पर पड़ती है जहाँ चेतना जड़ के आगे झुकती हुई प्रतीत होती है तो जैन साहब कटाक्ष करते हैं -
चाँद सरीखा मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ
धीरे-धीरे सौ हिस्सों में
बँटते देख रहा हूँ
तोड़ पुलों को बना लिए हैं
हमने बेढब टीले
देख रहा हूँ मैं संस्कृति के
नयन हुए हैं गीले
नई सदी को परम्परा से
कटते देख रहा हूँ
गुरु शिष्य की परम्परा को कलंकित करने वाले एक असंवैधानिक दृष्टान्त को भी भेद के रख दिया है मनोज जी के दृष्टि-बाण ने
गुरु वसिष्ठ ने कहा द्रोण से
माँगे चलो अँगूठा
एक तीर से बैठे-ठाले
हिलीं हमारी चूलें
कल का लौंडा आज उजागर
कर सकता सब भूलें
चलो मढ़ें आरोप शीश पर
कुछ सच्चा कुछ झूठा
ऐसा नहीं कि मनोज जी स्नेहमयी भावनाओं से अछूते रहे हों -
बलखाती नदिया के
हँसते हैं कूल
बेला के फूल खिले
बेला के फूल
उम्मीदें करती हैं ,
सोलह सिंगार
मौसम ने बाँहों के
डाल दिए हार
होने को आतुर है
मीठी सी भूल
एक और अन्तरा जो मन को छूता है :-
सुनहरी-सुनहरी
सुबह हो रही है
कहीं शंख-ध्वनियाँ
कहीं पर अजानें
चली शीश श्रद्धा
चरण में झुकाने
प्रभा तारकों की
स्वतः खो रही है
कुल मिलाकर मनोज जी ने एक उत्कृष्ट , संवेदनशील और अन्तर्मन को छूने वाला नवगीत संग्रह अपने पाठकों के हाथ में दिया है पाठकों की भी ये ज़िम्मेदारी बनती है कि इसे अपने स्मृतिपटल पर यथोचित सम्मान के साथ अंकित करें और मनोज जी को इतना प्रेरित करें कि मनोज जी एक और बेहतरीन संग्रह आपको उपहार स्वरूप दे सकें। व्यस्तता के कारण मैं अपना मन्तव्य इस कृति के बारे में देर से दे सका इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ ............अभी और भी 2 कृतियाँ शेष हैं भले ही देर से सही उन पर भी अपना मन्तव्य अवश्य दूँगा।
विवेक चतुर्वेदी
निवासी :- उझानी ( बदायूँ ) उत्तर प्रदेश