बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

धूप भरकर मुट्ठियों में : मेरी नजर में : डाक्टर मृदुला सिंह



 धूप भरकर  मुट्ठियों में : मेरी नजर में 
                                 : डाक्टर  मृदुला सिंह प्राध्यापक हिन्दी शासकीय विज्ञान महाविद्यालय जबलपुर मध्यप्रदेश ।

              'धूप  भरकर मुट्ठियों में ' शीर्षक  पंक्ति से हम तथ्य  की सार्थकता  सिद्ध  करते हैं ।कवि  ने आनंद और उत्साह,  सकारात्मक  भाव  संचेतना  को  मुट्ठी में कैद करने  की बात  की। जीवन के दो ही पहलू हैं तो क्यों  न हम जीवन के सुखात्मक पहलुओं  के साथ  जीवन  को गति प्रदान  करें ।'कर लो आकाश  मुट्ठी में 'हम दुनिया  को  खुशियाँ ही खुशियाँ  दे सकते  हैं, यदि  हमारा  नजरिया सर्व हितग्राही हो,सर्व चिन्तन  संलग्न  हो।बहुत  आवश्यक है कि तीर-सा तनाव  नहीं बल्कि  धनुष-सा झुकाव हो।यही विनम्रता  हमारे संपूर्ण  परिवेश  को उत्तम  उर्जा  से परिपूरित करती है । क्योंकि  झुकना ऊँचे उठने का प्रतीक  है ।हम हार के भी जीतते  हैं ।समाज  हमसे मात्र 'प्यार  के  दो बोल ' की अपेक्षा  करता  है । 'बैर की बुनियाद ' के कारक हम नहीं  हो सकते।ईर्ष्या-द्वेष का शमन उपयुक्त  सामाजिक  व्यवस्था  हेतु  आवश्यक  है ।करुण भाव  से परिपूरित  व्यक्ति पर दुख कातरता को महसूस  करता है और इसीलिए  वह प्राणिमात्र  को आहत करना नहीं  चाहता ।ईश्वरीय  सत्ता  सर्वोपरि है और वह प्राणिमात्र   का हित चिन्तन  चाहने  वालों  का ही समर्थन  करती है ।कवि  के हम इस मूल भाव  के पक्ष  में हैं  कि 'शब्द  को  वश में  करें हम/ आखरों की शरण हो लें।' और हम कह सकें- आज हसरत यहाँ  हर्ष के छाँव  की/आओ सौगात  दे  धर्म  के  नाम  की/याद  आती रही  प्यार  की रोशनी/दीप जलते रहे नफरतें  बुझ गई।
        संकलन की दूसरी  प्रमुख  कविता 'घटते देख  रहा हूँ 'भी हमारा ध्यान  अपनी  ओर आकर्षित करती है । समाज  की  विषम स्थिति, पूर्व  और पश्चिम की मिश्रित जीवन  शैली  को बयां  कर  रही है ।आज का आदमी  बढने की  कोशिश  में  घटता ही जा रहा है ।' चाँद  सरीखा मैं अपने को घटते  देख  रहा हूँ ।' अच्छा  प्रयोग  है कवि  का,जहाँ  आम आदमी  आधुनिकता  की  दौड़ में भागता हुआ  अपने  मूल अस्तित्व  को खो रहा है । 'संस्कृति  के  गीले  नयन' इस बात  का संकेत  दे रहे हैं  कि बदलाव  ने हमारी  अस्मिता  पर प्रश्न चिह्न अवश्य  लगाये  हैं । भूमंडलीकरण  की यह स्थिति हमारी परंपराओं को छिन्न-भिन्न करने के साथ-साथ हमारी  सोच  को भी आहत कर रही  हैं ।विकास  के  नाम  पर, आधुनिक  होने  के नाम  पर हम अपनी  बुनियाद को  ही विस्मृत करते जा रहे हैं और इसीलिए  हमारी परिवर्तित अवधारणा 'हर कंकर में शंकर  वाला चिन्तन  पीछे  छूटा ' का स्वरूप  स्थापित  कर रही है ।
मिश्रण की परिपाटी काव्य-रचनाओं  के  क्षेत्र  में  भी दिखाई  देती है ।समाचार-पत्रों  के  माध्यम  से  प्रचार-प्रसार  की  कला'नकली कवि ' की विशेषता  है । आवरणमयी आचरण  की प्रस्तुति कवि के साथ-साथ सत्यगामी मानस को भी तकलीफ  देती है ।'आचरण  अनोखे देख-देख /अंतस का क्रोध  फूटता है ।' कवि हमें  संदेश  देते हैं  कि'लिख लेख ऐसे' ' कि हम हमेशा  याद  किये जायें ।मनुज-तन और जीवन- सुमन हमें  बमुश्किल  प्राप्त  होता  है उसे अर्थ युक्त  कार्यो  से सार्थक  किया  जाए ।संघर्ष  और चुनौतियों  का सामना  निश्चित ही हमारे  हिस्से  में  विजय की पताका  फहरायेगा।
'इस जमीन  को छोङो अब' काव्य-पंक्तियाँ इतिहास  रचने  की  बात करती  हैं और यह तभी  संभव  है कि जब हम उन अवधारणाओं को, परंपराओं  को तोड़ने  की  हिम्मत रख सकें जो हमारे  विकास  के  मार्ग में  बाधक  है ।'दृढ़  इच्छाशक्ति, समर्पण  से' असंभव लगने वाले  कार्य  भी संभव  हो पाते हैं ।और ऐसा  कर पाने  में  जो सक्षम  होते है वे 'सृजन-पंथ' के  राही  होते हैं, जमाना  उन्हें  हमेशा  याद  रखता है । आलोचक  भी वही श्रेष्ठ  कहलाते  हैं जो नीर- क्षीर विवेक की नजर  रखते  हैं ।जौहरी बनकर हीरे की  परख कर  पाते  हैं ।राग-द्वेष से ऊपर उठकर 'अमरत की धार' की पहचान  कर पाते हैं ।आलोचक  की उत्तम  छवि समदर्शी  बनकर  ही हो सकती है । राजनीति  जीवन  से जुङे एक महत्वपूर्ण  पक्ष  है । इतिहास  गवाह  हैं  और समसामयिक  परिदृश्य  यह स्पष्ट करता  है कि राजनीतिक भंवरजाल पदधारियों को लाभ  भले ही  दे पर आम जनता  निरंतर  सत्ता धारियों  के  कुचक्रों का शिकार  होती रहती है ।'हम हक की लङाई  लङना चाहते है ',अपना अधिकार  चाहते हैं  पर पदलोलुपता और स्वार्थपरकता समरसता  को समाप्त  कर अन्याय  का कारक बनती है ।
कुछ  भी हो पर  अंत  में 'मंगल  हुआ 
।'एक सकारात्मक  चेतना  साथ हो तो फिर शुभ ही शुभ  है। कुछ  ऐसा  ही  ये पंक्तियाँ  कहतीं  हैं-'लाभ शुभ ने धर दिये हैं/ द्वार पर अपने चरण/ विश्व  की हर स्वस्ति ने आकर किया मेरा वरण।' शुभ उर्जा, शुभ चेतना जिन्दगी  की  सारी समस्याएं हल कर देती हैं । इस तरह संपूर्ण  संकलन नवगीत  की मूल  प्रकृति  का  आईना  है ।वह आध्यात्मिक  संचेतना  को भी जगह-जगह  व्यक्त   कर पाने में  सफल  है।'वाणी वंदना ' से लेकर ' साध कहाँ  पाता हर कोई','हम काँटों  से  खिले फूल  से','बोल कबीरा बोल ','दीप जलता रहे','कांप  रहे गाँव 'और फिर 'पूछकर तुम  क्या  करोगे, ' सहित  सारी की सारी  कविताएँ जनमानस  का, पाठक  का संस्कार  करतीं हैं ।आदरणीय  मनोज  जैन  जी ने हमें  अपनी  सृजन धर्मिता से   चिन्तन  और मनन के अवसर  प्रदान  किये, हम आपके  प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं और यह विश्वास  करते हैं  कि  आप साहित्य-जगत को  नित नयी कृतियाँ सौंपकर दिशा-दर्शन  करते  रहेंगे।

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