गीत-नवगीत यात्रा।
----------------------
आजकल नवगीत पर बहुत चर्चा हो रही है अतः इस विधा पर मैं भी कुछ प्रस्तुत करना चाहूंगा।
मेरे विचार से गीत या नव गीत है तो कविता ही,और यहां पर मैं (नई कविता जो पाश्चात्य से प्रभावित होकर शुरू हुई) उसकी बात नहीं कर रहा। कविता जीवन की हर कार्य प्रणाली और भावना को समाहित करती है। कविता के सतत विकास में नवगीत अपना विशेष स्थान बना चुका है। गीतों का तो आदिकाल से ही लोक से संबंध रहा है इनमें लोकगीतों में कजली चैता बिरहा आल्हा आदि रहे हैं भक्ति काल में इसका और वृहद विस्तार हुआ जो कबीर सूर मीरा तुलसी रसखान जैसे श्रेष्ठ काव्य मर्मज्ञों के द्वारा जन जन तक पहुंचा। वस्तुतः साहित्य के क्षेत्र में गीत ही एक ऐसा माध्यम हुआ है जो जन जन तक पहुंचा है। आगे चलकर छायावाद में गीत और आगे बढ़ा जिसे बढ़ाने में श्री जयशंकर प्रसाद श्री सुमित्रानंदन पंत श्री मैथिलीशरण गुप्त सुश्री महादेवी वर्मा आदि ने अद्भुत योगदान दिया।
अब नवगीत की बात करें तो बहुत से लोग इसे निराला जी से जोड़ते हैं परंतु वही लोग श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी के गीतों की नवता को भूल जाते हैं। नई कविता के काल में श्री अज्ञेय जी,श्री गिरिजा कुमार माथुर जी,केदारनाथ सिंह जी,शमशेर जी,रविंद्र भंवर जी, केदारनाथ अग्रवाल जी आदि ने गीतों में नवता पर बहुत काम किए,परंतु ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने नवगीत को "वंशी और मादल" देकर इसका सतत विकास किया एवं गीतों को एक अलग ही शिल्प वोध दिया, सौंदर्य दिया।श्री धर्मवीर भारती जी ने "सात गीतवर्ष"में एक तीखा यथार्थ बोध दिया। गीतों में अज्ञेय ने नए पन का प्रयोग किया तो भवानी प्रसाद मिश्र ने इनमें लोक तत्वों का संग्रह किया। शमशेर बहादुर सिंह विंबो और भाषा की खोज में थे।धर्मवीर भारती जी ने कड़वे लोक संदर्भों के साथ कड़वे यथार्थ को बल दिया।डॉक्टर शंभुनाथ सिंह ने गीतों में प्रणय,लोकहित और इसके विज्ञान को स्थान दिया। हालांकि इसके पहले तार सप्तक में गिरिजाकुमार माथुर ने नवगीत को एक और दिशा दी थी। धर्मवीर भारती जी ने नवगीतों को बढ़ाने में जितना कार्य किया, शायद किसी ने नहीं।"सात गीत वर्ष"ने नवगीत को नई उर्वरा जमीन दी।
आज की पीढ़ी,लोकगीत पर बहुत अच्छा लिख रही है परंतु इनमें ज्यादातर लोगों के अपने-अपने मंच हैं। कोई केवल और केवल सत्ता और तंत्र की आलोचना में है, वहीं कुछ लोग तंत्र की आलोचना के साथ घर परिवार,पारिवारिक सामाजिक संबंध, कृषक,श्रमिक,गृहस्थी, मानवीय कोमल भाव को महत्व दे रहे हैं । कुछ तो तुक के साथ मात्राओं की भी गणना कर रहे हैं।कुछ वामपंथ, दक्षिण पंथ,वर्ग वाद को लेकर चल रहे हैं।नवगीत के हित पर इस पर विचार किया जाना चाहिए वास्तव में नवगीत गाने के लिए नहीं वरन पढ़ने के लिए है। श्री रविंद्र नाथ टैगोर जी की गीतांजलि में कोई तुक नहीं है जबकि इसे सब ने गीत माना है।
आजकल के नए नव गीतकार जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं उन्हें श्री शलभ श्रीराम सिंह, देवेंद्र कुमार,उमाकांत मालवीय,(जिन्होंने नवगीत को एक नई दिशा दी), गुलाब सिंह, नईम,माहेश्वर तिवारी अनूप अशेष,भगवान स्वरूप सरस,श्रीकृष्ण तिवारी, शिवबहादुर सिंह भदौरिया,कैलाश गौतम,उमाशंकर तिवारी, दिनेश सिंह, सोम ठाकुर, नीलम सिंह,नरेश सक्सेना,महेश अनघ, गणेश गंभीर इत्यादि जो नवे एवं दसवें दशक में दूसरी पीढ़ी के हैं और खूब पढ़े जाते थे को अवश्य पढ़ना चाहिए इन सभी के नवगीत संकलन उपलब्ध हैं।
मेरे विचार में नवगीत में कथ्य को शिल्प और तुक से वरीयता दी जानी चाहिए शिल्प अगर स्वाभाविक रूप से गड़बड़ा रहा है तो उसमें बदलाव संभव है।
एक उदाहरण--
"एक लहर के लिए तड़पते जीना भी क्या जीना।
जीवनधारा की चाहत है सागर को छूना।।"
गुलाब सिंह।
यह गीत 'गीत गागर' पत्रिका भोपाल में प्रकाशित हुआ और संपादक ने बिना गुलाब सिंह जी की अनुमति के छूना को पीना कर दिया यहां छूना को पीना करना गीत के कथ्य के भाव को पूर्णतः बिगाड़ कर रख रहा है सागर को छूना तो स्वाभाविक और प्राकृतिक है पर पीना ठीक नहीं है। इसका अर्थ लहर तक ना होकर सागर तक जाना है हर व्यक्ति अगस्त नहीं हो सकता। नवगीत में लय की प्रमुखता होती है पर लय भंग नहीं हो रहा है तो तुक में बदलाव संभव है और कई श्रेष्ठ कवियों ने किया है। डॉक्टर जगदीश गुप्त जी ने तो कविता में अर्थ के लय को प्रमुखता दी थी ,जबकि लय शब्द की बड़ी है।
"केदारनाथ सिंह जी के अनुसार गीत और नवगीत का विभाजन यदि आवश्यक हो तो साहित्यिक गीत और उन गीतों में किया जाना चाहिए जो मुख्यतः गाने के लिए लिखे जाते हैं ।दरअसल इस प्रकार के विवेक की आज बहुत आवश्यकता है।
इस मायने में आधुनिक भारत के सबसे बड़े गीतकार रविन्द्र नाथ ठाकुर का आदर्श काफी हद तक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है। रविन्द्रनाथ जीने दो प्रकार के गीतों की रचना की है।एक वह जिन्हें शुद्ध साहित्यिक गीत कहा जा सकता है और दूसरे वह जो केवल गाने के लिए संगीत की दृष्टि से लिखे गए हैं। इस दूसरे गीत को उन्होंने गान की संज्ञा दी थी और इसे उन्होंने कभी नहीं कहा कि इन्हें साहित्य गीत माना जाए। "
दयाशंकर के अनुसार- नव गीतों का एक स्वर ऐसा भी है जो पारिवारिक सामाजिक संबंधों का महत्व स्वीकारते हुए और व्यापक समस्याओं को साहस उत्साह के साथ तरजीह देता है जैसे-
-पीर मेरी कर रही गमगीन मुझको
और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी।
और उससे भी अधिक हरपाँव की जंजीर रानी।
-वीरेंद्र मिश्र।
-धूप में जब भी जले हैं सीना तन गया है।
-रमेश रंजक।
विडंबनात्मक मन: स्थिति के कुछ तत्व-
रह गया पीछे नगर घर द्वार/ सब कुछ रह गया पीछे/ भाई साहब का थका चेहरा/और अम्मा की भरी आंखें/और भाभी की नरम बोली/ और पप्पू की उठी बाहें रह गया पीछे/ तीज तिथि त्योहार/सब कुछ रह गया पीछे।
-ओम प्रभाकर ।'नवगीत अर्ध शती' पृष्ठ संख्या 73.संपादक शंभुनाथ सिंह।
इसी क्रम में एक और बात- "आधुनिक काव्य संदर्भ और प्रकृति," डॉक्टर गंगा प्रसाद गुप्त। हिंदी विभाग शासकीय स्नातकोत्तर विज्ञान महाविद्यालय रायपुर।रचना प्रकाशन इलाहाबाद,1971, में आदरणीय शंभुनाथ सिंह ने अपने आलेख में गीतों पर अपने कुछ विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
जयदेव, "चंडीदास,विद्यापति,कबीर,तुलसीदास,रवींद्रनाथ, भारतेंदु,प्रेम धन, श्रीधर पाठक, मुकुट पांडे, मैथिलीशरण गुप्त, पंत,प्रसाद,निराला, और महादेवी जी के गीत आज के किन्ह उत्कृष्ट गीतों से कम हैं । यह अलग बात है कि इन सभी ने अपने को कभी एक अलग विधा बनाकर नव गीतकार कहलाने का लोभ नहीं दिखाया।
स्पष्ट है कि वह अपने समय के नवगीत ही हैं।हर युग में लिखे गए गीत पुरानी परंपरा से भिन्न हैं और वह अपने समय के नवगीत ही हैं।वह उस समय नवगीत थे उन्हें केवल गीत कहा गया।आज के बदले समय में गीतों को नवगीत कहा गया क्योंकि नया कहने की होड़ मची है आगे चलकर जो गीत लिखे जाएंगे उन्हें किस नाम से विशेषित किया जाएगा।"
--आज जिसे हम नवगीत कहते हैं इसका नामकरण उसके प्रतिमान के संदर्भ में डॉक्टर रमेश चंद्र पांडे ने अपने आलेख (अक्षत 2020)में कहा है-गीता आयन की भूमिका में फरवरी 1958 में राजेंद्र प्रसाद सिंह द्वारा प्रकाशित गीतांगिनी नामक गीत संग्रह की भूमिका में नवगीत शब्द का प्रयोग करके राजेंद्र प्रसाद सिंह ने गीत के भीतर से प्रस्फुटित एक नई कविता के लिए एक सार्थक और नया नाम दिया। डॉक्टर जगदीश गुप्त के अनुसार नवगीत संज्ञा को विधिवत प्रतिष्ठा काफी बाद 1964 में मिली जब कविता पत्रिका का लोकगीत विशेषांक प्रकाशित हुआ। ओम प्रभाकर द्वारा संपादित और अलवर से प्रकाशित इस विशेषांक में नवगीत से संबंधित कई आलेख एवं नवगीत छपे थे। इसी क्रम में 1968 में डॉक्टर शंभू नाथ सिंह गीत स्वर्ण जयंती के अवसर पर वाराणसी में आयोजित विचार गोष्ठी तथा उसी वर्ष डॉ धर्मवीर भारती की अध्यक्षता में मुंबई में नवगीत पर आयोजित विचार गोष्ठी तथा 1966 में चंद्रदेव सिंह और महेंद्र शंकर केसंपादकत्व में "पाँच जोड़ बांसुरी" नामक नवगीत के संकलन के प्रकाशन का महत्वपूर्ण स्थान बताया जाता है।
सितंबर 1986 में नवगीत के अर्धशती के अवसर पर वाराणसी में आयोजित एक समारोह में उपस्थित 19 नवगीत कारों के हस्ताक्षर से एक घोषणा पत्र स्वीकृत हुआ था जिसमें नवगीत के 17 प्रतिमान स्थापित किए गए।----
छांदासिकता और लयात्मकता जो गेयता से संबंधित हो,संवेदन धर्मिता या
संस्पर्श शक्ति, ग्राह्यता और रमणीयता,संप्रेषणीयता, बिंब धर्मिता या चित्रात्मकता,अलंकृत और सादगी, खुलापन या स्वायत्तता या अप्रतिबद्धता,लोक संपृक्ति और जन के प्रति संसक्ति ,भारतीयता की चेतना और जातीय बोध, यथार्थ प्रसंग,विसंगतियों के दर्द और सामाजिक पीड़ा की अभिव्यक्ति,जीवन के केंद्र में मानव की प्रतिष्ठा, भारतीय रंग का आधुनिक बोध, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चेतना, परंपरा के भीतर से जन्मी नवता, और सौंदर्य,प्रेम,और मानवीय भावास्थितियों की जीवनी शक्ति के रूप में स्वीकृति,जीवंतता और गत्यात्मक तथा आम आदमी की कविता।
अंत में यह कहना है कि नवगीत समकालीन कविता की प्रमुख धारा है आज इसमें तीसरी पीढ़ी के बहुत ही सुप्रसिद्ध नवगीतकार सक्रिय हैं इनमें श्री शिवानंद सिंह सहयोगी जी, श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी, श्री बृजनाथ श्रीवास्तव जी श्री मुकुट सक्सेना जी, श्री मनोहर अभय जी, डॉक्टर ओम प्रकाश सिंह जी, श्री यश मालवीय जी, जगदीश पंकज जी,श्री कृष्ण भारतीय जी, श्री रविशंकर पांडे जी और अनेक लोग हैं जिन्होंने बहुत अच्छे नवगीत दिए हैं और लगातार सक्रिय भी हैं। कुछ लोग तो आलोचना के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं ।इसके बाद जो नई पीढ़ी है वह भी बहुत अच्छा नवगीत लिख रही है इसमें कोई दो राय नहीं है जिनके सबका नाम देना यहां पर बड़ा ही मुश्किल है फिर भी कुछ नाम हैं जो यादआ रहे हैं जिनमें श्री राम किशोरदाहिया जी, श्री मनोज जैन जी, शुभम श्रीवास्तव जी, डॉक्टर कामतानाथ सिंह जी, विनय विक्रम सिंह जी गुण शेखर जी, राजकुमार महोबिया जी, प्रदीप पुष्पेंद्र जी,कुंवर अनुज जी,विजय बागरी जी, डॉ भुनेश्वर द्विवेदी जी, विनय भदौरिया जी, अवनीश सिंह जी,श्री जय चक्रवर्ती जी,सीताराम पथिक जी,डा.रामकुमार रामरिया जी, सुश्री डा.रंजना गुप्ता जी, सुश्री शीला पांडे जी, श्री शम्भु नाथ मिस्त्री जी,श्री जय राम जय जी आदि।
नवगीत का सतत समग्र विकास होता रहे इसी कामना के साथ अथ से इति तक प्रतीक्षा तो रहेगी ही।
विजय सिंह। मांडा,प्रयागराज।
05.05.2022.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें