रविवार, 29 मई 2022

शेखर अस्तित्व जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

चर्चित नवगीतकार शेखर अस्तित्व जी के चार नवगीत
                         शेखर अस्तित्व जी बालाघाट मध्यप्रदेश से आते हैं बहुत अच्छे कवि के साथ ही आप बहुत प्यारे इंसान हैं । ध्यातव्य है कि अस्तित्व जी इन दिनों वॉलीवुड के लिए भी गीत लिख रहे हैं।
फ़िल्म संजू का एक गीत "कर हर मैदान फतह" के हिस्से का यश अस्तित्व जी के खाते में दर्ज होता है। 
                      ऐसी ही और भी तमाम उपलब्धियों की रोचक चर्चाएं हम आप से समय-समय पर करते रहेंगे! फिलहाल प्रस्तुत अस्तित्व जी के नवगीत इन नवगीतों का कथ्य बड़ा प्रभावी बन पड़ा है। शेखर अस्तित्व जी को समूह वागर्थ की अनन्त शुभकामनाएँ
प्रस्तुति वागर्थ
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एक

मुस्कुराने को न बोलो, 
जान के लाले पड़े हैं ।

साथ लाईट कैमरों के,
आ गए हैं दुख जताने ।
बैठकर फुटपाथ पर, 
फिर लग गए लोरी सुनाने ।
क्या बताएं सुनते सुनते 
कान में छाले पड़े हैं ।

सात दशकों से गरीबी,
को हटाने में लगे हैं ।
वो तो हट ना पाई, अब
फिर से पटाने में लगे हैं ।
खुद टमाटर हो गए, 
हम धूप से काले पड़े हैं ।

कसमसाती मुट्ठियां हैं,
किन्तु हैं जेबों के अंदर ।
हैं भिंचे जबड़े परन्तु,
क्षीण शक्ति का समंदर ।
कंठ में हैं शब्द सहमे, 
होंठ पर ताले पड़े हैं ।

भीड़ बोलो, भेड़ कह लो,
दोनों हैं पर्यायवाची ।
चल पड़े, हांका जिधर को,
कब स्वयं की चाह बांची !
हर गड़रिए को पता है, 
सोच पर जाले पड़े हैं ।

दो

यह कड़वी सच्चाई है
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यह कडवी सच्चाई है
हर पत्थर पर काई है

कान उगे दीवारों के
होंठ खुले गलियारों के।
सुर्खी पाकर दमक उठे
काले मुँह अखबारों के

हँसकर बोला चपरासी
साहब अपना भाई है।
यह कडवी सच्चाई है
हर पत्थर पर काई है।

मस्ती है मनमानी है
लज्जा पानी पानी है।
हारा थका बुढापा है
घुटनाटेक जवानी है।

पंखुडियों के चेहरों पर
खुरची हुई ललाई है।
यह कडवी सच्चाई है
हक पत्थर पर काई है।

तीन

जैसे तैसे दिन बुनता हूँ
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जैसे - तैसे दिन बुनता हूं, रात 
उधड़ जाती है।
जितना पांव सिकोडूँ चादर 
छोटी पड़ जाती है ।

रोज़ हथेली के छाले कुछ और 
कड़े हो जाते,
रोज़ हृदय के घाव फूटकर और 
बड़े हो जाते 
सींचू ख़ून पसीना फिर भी, 
फसल उजड़ जाती है ।

व्यथा कथा के गीले आखर कागज़ 
पर फैलाते,
छिनी धूप की बात जोहते, खुद पर ही झल्लाते ।
दिनचर्या की थकी थकी सी, सांस उखड़ जाती है ।

बुझती आंखों में पथराए स्वप्न 
लिये जाता हूं ।
लम्हों पर पैबंद लगाकर उम्र 
सिये जाता हूं ।
उम्मीदों की लाश सुबह तक, और अकड़ जाती है ।

चार

लुटे हुए पोलिंग बूथों पर,
लोकतन्त्र के नारों जैसे ।
हम बासी अखबारों जैसे ।

मन ही मन इच्छा घुटती है,
सपनो की दुनिया लुटती है ।
रिश्वत के कांधों पे हर दिन,
डिग्री की अर्थी उठती है ।
रोज़गार दफ्तर के बाहर,
भटक रहे बेकारों जैसे ।
हम बासी अखबारों जैसे ।

दिन अंधियारे, रातें काली,
उजड़ी बगिया, बेसुध माली ।
चोरों के हाथों में हमने,
थाने की चाबी दे डाली ।
लॉक अप के पंखे से लटके,
मृत मानव अधिकारों जैसे ।
हम बासी अखबारों जैसे ।

पीर वही है, आग वही है,
चोट वही है, दाग वही है ।
सत्ता की बातें क्या करना,
केंचुल बदली, नाग वही है ।
बेबस, अंधी, गूंगी, बहरी,
संसद की दीवारों जैसे ।
हम बासी अखबारों जैसे ।

- शेखर "अस्तित्व"

1 टिप्पणी:

  1. वागर्थ पटल पर उपस्थित शेखर अस्तित्व जी के नवगीत अपने टटके बिंब और नई कहन के साथ अस्तित्व में आते ही पाठकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं,जब जब पाठक इन गीतों से दो चार होता है स्वयं को उन गीतों का संवाहक महसूस करता है। शेखर जी के बिंब हर जनमानस के अपने भोगे यथार्थ की अभिव्यक्ति के वायस बन जाते हैं और नवगीतकार के साधारणीकरण के अनुपम उदाहरण भी। चारो के चारों नवगीत पठनीय के साथ संग्रहणीय भी बनपड़े हैं। "जैसे तैसे दिन बुनता हूं,रात उधड़ जाती है , जितना पांव सिकोड़ूं चादर छोटी पड़ जाती है," हारा थका बुढ़ापा है,घुटना टेक जवानी है,"कसमसाती मुट्ठियां हैं किन्तु हैं जेबों के अंदर,कंठ में हैं शब्द सहमे,होंठ पर ताले पड़े हैं" जैसी कई पंक्तियां हैं जो अंतस में ठीक से लगकर अपनी पैठ बना लेती हैं। यही रचनाकार की लेखनी की सामर्थ्य और सार्थक सृजन अनुष्ठान होता है। शेखर जी की लेखनी को नमन करते हुए मनोज मधुर जी को साधुवाद देता हूं इतने सुन्दर नवगीत पढ़वाने के लिए।
    डॉ मुकेश अनुरागी शिवपुरी

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