'आलोक संचालन समिति' की प्रस्तुति-
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【अंक-109】
|| विशेषांक पर एक दृष्टि ||
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विरासत से-
|| सच कहने की अनूठी सामर्थ्य के नवगीत || ----------------------------------------
ईश्वर दयाल गोस्वामी
इस अंक में हम तराना, जिला-उज्जैन [मध्यप्रदेश] में जन्में मानवीय अस्मिता की अभिरक्षात्मक अभिव्यक्ति के बेजोड़ नवगीत कवि स्मृति-शेष डॉ.इसाक 'अश्क' की पटल को प्राप्त चार नवगीत कृतियों से चयनित 10 नवगीतों पर चर्चा कर रहे हैं। सीधे-सादे अनुभव संसार को सत्य की कसौटी पर कसकर नये रूपाकार की अभिव्यक्ति देना सरल कार्य नहीं है, किन्तु डॉ.इसाक 'अश्क' के नवगीत ऐसा ही कुछ कर रहे हैं, उनकी अन्तर्भूत चेतना अपनी बात को प्रभावी ढंग से अपने गीतों में 'नव' उपसर्ग लगा रही है। डॉ.इसाक अश्क के नवगीतों में किसी भी तरह का सम्मोहन,अवैज्ञानिक मोह एवं अनावश्यक बड़बोलापन हावी नहीं है। इनके नवगीतों में सरलता इतनी है कि जो काव्य के जानकर भी नहीं हैं उनके हृदय तक भी ये नवगीत अपनी पैठ बना रहे हैं।
डॉ.इसाक 'अश्क' के नवगीतों में भावों की प्रधानता भी है और विचारों का समन्वय भी है। देश काल की चिन्ता भी है और एक स्वस्थ चिन्तन भी है। जहाँ भावातिरेक मिलता है वहाँ कर्मशीलता भी है। कहने का आशय यह कि कवि के पास अपनी मौलिक दृष्टि है जो तार्किक एवं विज्ञान-सम्मत है। ये नवगीत व्यक्ति के जीवन संघर्षों की झांँकी प्रस्तुत करते हुए मानवीय मूल्यों की यात्रा भी साथ-साथ करते हुए चलते हैं। इशाक 'अश्क' के नवगीत केवल काव्य के उत्तरदायित्व बोधक भर नहीं हैं बल्कि संघर्षों में भी जीवन को उल्लसित कर जीने की नई राह के साथ संबल प्रदान करते हैं। ये नवगीत आज के जीवन की छटपटाहट को नये संवेगों, रंगों से सजाकर समय-सापेक्षता की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं को कालजयी अभिव्यक्ति देते हैं। ये सच कहने की अनूठी सामर्थ्य के नवगीत हैं जिनमें माधुरी भी है और ग्राह्यता भी। वर्ना आजकल सच ग्राह्य कहाँ रह गया है ! यहाँ कवि ने सच कहने का जोखिम भी उठाया और उसे ग्राह्य भी बनाया है। कवि का यह जोखिम भी एक तरह से नयापन ही है क्योंकि कवि अनावश्यक व्यंजनात्मक लीपापोती से नवगीतों को बचाते हुए बड़ी कुशलतापूर्वक सच्चाई के झाड़ू से अपना आँगन बुहारने में सिद्धहस्त है।
मुझे पूरा विश्वास है कि हिन्दी नवगीत का विशाल प्रबुद्ध पाठक वर्ग एवं नवगीत समीक्षकगण इन नवगीतों को संज्ञान में लेते हुए अपना स्नेह प्रदान करेंगे। मैं पटल संचालक दादा रामकिशोर दाहिया जी एवं आलोक संचालन समिति के सभी सम्मान्य सदस्यों का सहयोग हेतु आभार व्यक्त करते हुए स्मृति-शेष डॉ. इसाक 'अश्क' के ही नवगीत की पंक्तियों से उन्हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि प्रस्तुत करता हूंँ। "आ गईं/नदियाँ घरों तक/खून की/मुँह चिढ़ाती भूख-बच्चों की तरह/हो रही जिस पर/जमाने की जिरह/मुश्किल/जुटाना रोटियाँ/दो-जून की/न्याय खुद/अन्याय-ढोने के लिए/अभिशप्त हैं/दिन-रात/रोने के लिए/हाँकते हैं सब यहाँ/बस दून की।"
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सम्पर्क सूत्र : मुकाम- छिरारी, [रहली],
जिला- सागर- 470 227 [मध्यप्रदेश]
मोबाइल : +91 84638 84927
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[19/02, 07:30] Ram Kishore Dahiya: || संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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कविता में नाम : डॉ.इसाक 'अश्क़'
मूल नाम - इसाक मोहम्मद ।
पिता - ज़नाब मुख़्त्यार मोहम्मद ।
जन्मतिथि - 01 जनवरी, 1945 ई०।
जन्म स्थान - तराना, जिला-उज्जैन, मध्यप्रदेश।
शिक्षा - एम.ए हिन्दी, एवं एम.ए.[इतिहास], पी.एच-डी.[अमृत राय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व]
देहावसान : 28 फरवरी, 2016 ई०।
प्रकाशन एवं प्रसारण : देश की समग्र प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएंँ प्रकाशित एवं छः नवगीत संकलन भी। दूरदर्शन इन्दौर, भोपाल, अहमदाबाद, दिल्ली, लखनऊ से रचनाएंँ प्रसारित।
प्रकाशित कृतियाँ - [1] 'सूने पड़े सिवान' [गीत संग्रह] 1983, [2] 'फिर गुलाब चटके' [नवगीत संग्रह] 1996, [3] 'काश! हम भी पेड़ होते' [नवगीत संग्रह] 1997 ई०। [4] 'सुलगती पीर के पर्वत' [नवगीत संग्रह] 2009 ई०
संपादन - 'समांतर' [अर्द्धवार्षिकी] 18 वर्षों तक निरन्तर।
सम्मान एवं पुरस्कार : राष्ट्रीय स्तर के विभिन्न सरकारी/गैर सरकारी/ साहित्यिक/सांस्कृतिक संगठनों द्वारा अनेक पुरस्कारों सम्मानों से सम्मानित।
व्यवसाय - अध्यापन, प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त उपरांत स्वतंत्र लेखन। देहावसान के चार वर्षों पूर्व तक सतत् लेखन।
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सम्पर्क सूत्र : संचालक 'संवेदनात्मक आलोक'
निवास : गौर मार्ग, दुर्गा चौक, पोस्ट- जुहला, खिरहनी, कटनी- 483 501 [मध्य प्रदेश] मोबाइल : +91 97525 39896
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|| बात जो सच है ||
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भीड़ से
हटकर रहेंगे,
बात जो
सच है कहेंगे ।
तुम भले सौ सीखचों में
बन्द कर पहरा बिठाओ,
या खड़ा कर सामने-
बन्दूक-गोली से उड़ाओ,
पर न !
अनुचित को सहेंगे ।
हो चुकी जो भूल होनी थी
न अब होगी दुबारा,
लो कसम चाहे रखो
अस्तित्व यह गिरवी हमारा,
अब न !
मिट्टी-सा ढहेंगे ।
इस तरह देकर प्रलोभन
कील अधरों पर न ठोंको,
दूर शिखरों -सा गिरोगे
वक्त को रुककर न रोको,
बन लपट
उल्का दहेंगे ।
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डॉ.इसाक अश्क
---------------------------------------------------------- 【2】
|| अँधियार जिया है ||
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मैं सूरज का प्रबल वंशधर
मेरी परम्परा उज्ज्वल है ।
मुझे बुझाने को आए दिन
आँधी जाल बुना करती है
मेरी व्यथा-कथा यह धरती
नियति रोज़ सुना करती है
मेरा गात पात्र मिट्टी का
मेरी लौ मेरी हलचल है ।
जाने कितनी बार व्योम से
कालजयी बिजुरी टूटी है
पता नहीं क्योंकर रिपुओं-सी
शरद-रात मुझसे रूठी है
मेरी अन्तर्मुखी साधना
मेरा बहुचर्चित संबल है ।
मैंने सुघर सुबह लाने का
इस सृष्टि को वचन दिया है
खुले हाथ आलोक बाँटकर
गहराता अँधियार जिया है
उत्सर्गित मेरे जीवन का
एक-एक आभामय पल है ।
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- डॉ.इसाक अश्क
--------------------------------------------------------- 【3】
|| बचाने का मोह ||
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दर्द को दबाकर
मुस्काने का मोह -
कहाँ खींच लाया
यह गाने का मोह ।
मंच के विधानों से
होकर अज्ञात
वाह-वाह करता हूँ
मैं सारी रात
गिरतों को गर्त से
उठाने का मोह ।
यहाँ तो सभी अपनी
श्लाघा में डूबे
जिनको सुन श्रोता
भी हैं ऊबे-ऊबे
ऐसों को नींद से
जगाने का मोह ।
चंद घिसे गीतों-
नवगीतों की पूँजी
जिनकी-
ध्वनि शहरों से
कस्बों तक गूँजी
वणिकों से
काव्य को
बचाने का मोह ।
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- डॉ.इसाक अश्क
---------------------------------------------------------- 【4】
|| मुँह चिढ़ाती धूप ||
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आ गयीं
नदियाँ घरों तक
खून की ।
मुँह चिढ़ाती
भूख-
बच्चों की तरह,
हो रही
जिस पर-
जमाने की जिरह,
मुश्किल
जुटाना रोटियाँ
दो-जून की ।
न्याय खुद
अन्याय-
ढोने के लिए,
अभिशप्त हैं
दिन-रात
रोने के लिए,
हाँकते हैं
सब यहाँ
बस दून की ।
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- डॉ.इसाक अश्क
------------------------------------------------------------- 【5】
|| तनाव बहुत हैं ||
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जीवन-तो है
पर ! जीवन में
चारों ओर तनाव बहुत हैं ।
हाथों में बन्दूक
मनों में–
नफरत का लावा
जैसे जंगल-
बोल रहा हो
बस्ती पर धावा
हलचल-तो है
भीड़-भाड़ भी
पर ! पथ में टकराव बहुत हैं ।
चेहरों मढ़े
मुखौटे नकली–
अधरों की भाषा
अपनों तक
रह गई सिमटकर–
सुख की परिभाषा
बाहर दीखें
भले एक, पर !
भीतर छिपे दुराव बहुत हैं ।
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- डॉ.इसाक अश्क
----------------------------------------------------------- 【6】
|| सन्यास नहीं है ||
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एक कली
दो चार फूल का
खिल जाना मधुमास नहीं है ।
जिसको–पा
केवल तन थिरके
वह उत्सव-उल्लास नहीं है ।
कौन भला
जिसने जीवन में
कोई गलती, भूल न की हो
अपनी युवा
उमर के हाथों
कंचन काया धूल न की हो
भगवा पहन
घूमने वालो
भगवापन सन्यास नहीं है ।
किसके हाथ
यहाँ होनी–
अनहोनी की बल्गा थामे हैं
किसकी
सुघर-सुबह से
ज्यादा–
धूप धुली उजली शामें हैं
जो दुहराया
नहीं गया हो
वह नाटक-इतिहास नहीं है ।
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- डॉ.इसाक अश्क
----------------------------------------------------------【7】
|| तहज़ीब अपनी ||
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एकदम अश्लील भद्दे
चुटकुलों पर
खिलखिलाने का नहीं है ।
यह समय–
तहज़ीब
अपनी अस्मिता को
भूल जाने का नहीं है ।
जानता हूँ जिन्दगी है
शीर्षक दुख की कथा का
आँसुओं से
भीगती साकार
पीड़ा का, व्यथा का
किन्तु फिर भी नींद में
युग को
युवाओं को
सुलाने का नहीं है ।
छन्द अधरों पर
हँसी हो तो सुहाते हैं
अन्यथा
बनकर लपट
खुद को दहाते हैं
बार-बाला की तरह
हर झूठ को
शो-केस में-
रखकर सजाने का नहीं है ।
प्यार भर मन में
बसा हो
महमहाती है
उम्र वर्ना व्यर्थ यों-ही
बीत जाती है
सिर्फ खुद को
केन्द्र में रख
रहनुमाओं की तरह
दिखने-
दिखाने का नहीं है ।
•••
- डॉ.इसाक अश्क
------------- 【8】
|| धंधेबाजों से ||
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एक अलग
दुनिया होती है
सीधे-सादों की ।
भीड-भाड़ से हटकर
इने गिनों में-
रहते हैं,
समय हवा के साथ
न पत्तों जैसा
बहते हैं,
भाग-दौड़
नफसा-नफसी में
अनहद नादों की ।
इन्हें नहीं कुछ
लेना-देना-
धंधेबाजों से,
राजनीति के
मूल्यहीन-बेशर्म-
तकाजों से,
तोड़-जोड़
तिकड़म विहीन
संकल्प-इरादों की ।
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- डॉ.इसाक अश्क
------------------------------------------------------------ 【9】
|| हम भी पेड़ होते ||
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काश !
हम भी पेड़ होते ।
जानते तब -
दर्द कटने का,
आग-आरी से -
लिपटने का,
पीठ पर
फल-फूल ढोते ।
इक हरापन-
छाँह गहरी,
बाँटते हम-
भर दुपहरी,
सूखने
देते न सोते ।
आँख खुलती-
रोज गाने से,
पंछियों के
चहचहाने से,
ओस से
मुँह-हाथ धोते ।
काश !
हम भी पेड़ होते ।
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- डॉ.इसाक अश्क
---------------------------------------------------------- 【10】
|| टूट गिरूँ तो ||
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मैंने कभी नहीं
चाहा कि-
जीवन एक
ग़ज़ल बन जाए ।
मेरे इस सूने ललाट पर
कोई कुमकुम-
तिलक निकाले
संघर्षों से टूट गिरूँ तो
झुक करके
तत्काल उठा ले
मुखरित-
चहल-पहल बन जाए ।
मुझे न यह स्वीकार
मानकर दुर्बल कोई
पंथ बुहारे
अपनी बड़ी-बड़ी
आँखों से
मुड़-मुड़ कर
सौ बार निहारे
सद्य खिला
शतदल बन जाए ।
मैं जो कुछ हूँ
ठीक-ठाक हूँ
मुझे न आकर्षक
लालच दो
देना है तो सिर्फ
हार्दिक
आशीषों का
लोह-कवच दो
दुर्लभ
शीशमहल बन जाए ।
•••
- डॉ.इसाक अश्क
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