कवि देवेन्द्र सफल जी के नवगीत
1
जाने क्यों मेरा बीता कल
मुझको याद करे
जितना दूर-दूर रहता
उतना संवाद करे।
मेरे सिरहाने आ बैठा
खुलकर बोल रहा
बचपन की खोई किताब के
पन्ने खोल रहा
वह रातों की नींद उड़ाये
दिन बर्बाद करे।
कभी गोद में मुझे उठा ले
कभी गाल चूमे
कभी थाम कर उंगली मेरी
साथ- साथ घूमे
मेरे गूंगे शब्दों का भी
वह अनुवाद करे।
बाग,खेत- खलिहान, पोखरे
तुम कैसे भूले
बता रहा फागुन की मस्ती
दिखा रहा झूले
लौट चलो अपने अतीत में
फिर फरियाद करे ।
कहता, निष्ठुर-निर्मोही तू
मुझसे दूर हुआ
सोंधी रोटी याद क्यों रहे
खाकर मालपुआ
बहस वकीलों जैसी करता
दाखिल वाद करे ।
2
दिन हैं शर्मीले
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सिर पर चढ़ी धूप ने पहने
कपड़े कुहरीले
कांपे तन-मन चुभें शीत के ये शर ज़हरीले ।
चारों ओर
धुंध का घेरा
नजर न कुछ आये
राख मले
जोगी - सा मौसम
जिसे न जग भाये
दबे पाँव आकर छुप जाते
दिन हैं शर्मीले ।
वृक्षों और लताओं
के अब
पीत हुए पत्ते
इन पत्तों पर
गिरे ओस- कण
आँसू- से झरते
उपवन,खेत, मेड़,पगडंडी
सब गीले-गीले ।
पंछी दुबक गये
कोटर में
सूनी अंगनाई
लेकिन चक्की से
चूल्हे तक
नाच रही माई
सर्द अलाव हुआ तो बाबा
हुए लाल-पीले ।
3
प्राण नहीं उमगे
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चर्चा जोर- शोर से है
घर के बंटवारे की
बात फँसी, अम्मा-बापू के
सिर्फ गुजारे की ।
सबकी मंशा
कमरे - आँगन
सँग दालान बंटे
छोटी मेड़ें हों
सब चाहें
जल्दी फसल कटे
चौके तक पाला खींचे
चखचख ओसारे की ।
संग रहेंगे सास- ससुर
सुन
चिहुंकी बहू बड़ी
कहीं न पड़े दबाव
सोचकर
छोटी दूर खड़ी
चैन नहीं मुखिया को
टूटी आस सहारे की ।
देख इंद्र-धनु
बापू के अब
प्राण नहीं उमगे
चटक रंग जो
कल दिखते थे
हल्के आज लगे
चुभे पड़ोसी की हमदर्दी
सांझ-सकारे की ।
4
उनको शाम सुहानी दें ।
आने वाली पीढ़ी को
हम आओ
सुखद जवानी दें
अपने जले पाँव हों चाहे
उनको
शाम सुहानी दें ।
जहरीली जो हुईं हवाएं
उनमें भी वो जहर
न भर दें
बढ़ें कदम तो झंझायें आ
उन्हें कहीं
भयभीत न कर दें
डरें न झुकें उन्हें
हम ऐसा
गैरत वाला पानी दें ।
नये दौर की चाल तेज है
बढ़े जोश को
चलो सराहें
करवट लेने लगा समय अब
बदल गई हैं उनकी चाहें
पिज्जा, बर्गर वे खायें पर
थोड़ी सी
गुड़धानी दें ।
वे अतीत के पृष्ठ सुनहरे
जिन्हें भुलाना
कभी न संभव
आनेवाले कल की खातिर
फिर उनमें रँग भर दें अभिनव
पुरखों के स्वर्णिम
अतीत की ताजा
लिखी कहानी दें ।
5
क्यों हैं ? चौड़े जबड़े
छोटे प्रश्नों के समूह भी
इतने हुए बड़े
हमसे माँग रहे जवाब अब
कई सवाल खड़े ।
कैसे उनके हक आये
जंगल और नदी
क्यों पंछी रटते पिंजरों में
नेकी और बदी
प्रगतिशील भी यहाँ रूढ़ियों में
अबतक जकड़े ।
कुछ के अधरों पर मुस्कानें
कुछ के होंठ सिले
कुछ को फूलों के गुलदस्ते
कुछ को शूल मिले
निर्गुट में गुटबन्दी है
क्यों दिखते कई धड़े ।
जल-थल, वायु, वनस्पतियों ने
सबको सुख बांटे
हम क्यों खुशियां
लुटा न पाये
खींचे सन्नाटे
किसने लिखा हमारी
किस्मत में
अगड़े - पिछड़े ।
क्यों हंगामा बरपा
कोई
गया नहीं तह में
पत्थर इतनी तेज
उछलते
दर्पण हैं सहमें
आदमखोर सियासत के
क्यों हैं चौड़े जबड़े
6
खुश बहुत गिलहरी है
डाल-डाल पर दौड़ रही
खुश बहुत
गिलहरी है।
चादर कुहरे की सिमटी
दिन गये रजाई के
गदराये हैं खेत खुशी में
गेहूँ - राई के
सुबह- शाम ठण्डक
फिर भी
गुनगुनी दुपहरी है ।
कुठला खाली हुआ
भुसौरे एक नहीं तिनका
घर अनाज आये तो कुछ
ऋण चुके महाजन का
सरसों, चना, मटर पियराये
हरी अरहरी है ।
खुशियों ने फिर दस्तक दी
घर में पाहुन आये
होली की मस्ती में तन-मन
झूम-झूम जाये
पकी पकी फसलों की रंगत
हुई सुनहरी है ।
पिछले साल पड़ा सूखा
मर गई भैंस- गइया
पूरी हो इस साल साध
सुन लें देवी मइया
मुन्नी हुई सयानी
लेकिन
अभी छरहरी है ।
7
चारों ओर गंध बारूदी
कंधे झुकने लगे हमारे
थोड़ा लिखा समझना ज्यादा ।
वाणी मूक ,शुष्क आँखें हैं
कटी हुई तर्जनी हमारी
अपनी दूरी बढ़ती जाती
पहरे में जिंदगी तुम्हारी
तुमसे ताकत उसे मिली है
बोल रहा सिर चढ़कर प्यादा ।
अन्तः पुर में तुम खोये हो
चारों ओर गंध बारूदी
सागर की लहरें बन्दी हैं
तुमने आँख अभी तक मूँदी
सुख की नींद सभी सोयेंगे
हँसकर कभी किया था वादा ।
पंछी आँगन उतरे लेकिन
लगता बदला-बदला घर है
गतिविधियां संदिग्ध लग रहीं
अब बिखरे दानों से डर है
चीख सुनी ,कुछ लोग भागते
बहे लहू पर पड़े बुरादा ।
वंशी ने आकर्षण खोया
अब न विरह में आँसू झरते
शब्दों का सम्मोहन टूटा
अक्षर-अक्षर चुगली करते
सहती जीभ दाँत की घातें
बैठी सिर धुनती मर्यादा ।
8
आँगन में पंछी उतरे हैं
देहरी भीतर खुशियां आईं
लगता अपने दिन बहुरे हैं
बहुत दिनों के बाद हमारे
आँगन में पंछी उतरे हैं ।
अच्छी फसल हुई है अबकी
खूब हुए हैं चना औ मटर
कुठला भरा हुआ गेहूँ से
धरे बरोठे राई- अरहर
बेच अनाज चुकाया कर्जा
ईश -कृपा से अब उबरे हैं।
कजरारे नैना शर्मीले
दर्पण से खुलकर बतियाते
सेंदुर टिकुली और महावर
बिन बोले सब कुछ कह जाते
वर्षों बाद बज रही पायल
मेंहदी रचे हाथ निखरे हैं।
शुभशुभ शगुन हो रहे हैं
नित कागा भी मुंडेर पर बोले
चैता, बन्ना गावै तिरिया
भेद जिया के रह रह खोले
गेरू मिले हुए गोबर से
घर औ'द्वार लिपे-सँवरे हैं।
पिछले साल पड़ा सूखा तो
रोई मुनिया की महतारी
देवी की किरपा अबकी
गौना देने की तैयारी
जो सम्बन्धी तने तने थे
लगे तनिक वो भी निहुरे हैं।
9
एक पाँव पर खड़े हुये हैं---
यक्षप्रश्न है वही सामने
पीढ़ी के क्रम अगले हम
निष्ठा की बातें करते हैं
फिर भी कितने बदले हम।
सत्य यही चलना जीवन है
थके- थके कुछ पैर बढ़े
कदम कभी जो गलत पड़े तो
राहों पर ही दोष मढ़े
गिरने का क्रम जारी है पर
समझ रहे हैं संभले हम ।
दीमक चट कर गईं पुस्तकें
तोते ज्ञान बघार रहे
अजगर निगल रहा है मृग को
इस सच को सच कौन कहे
एक पाँव पर खड़े हुए हैं
मौनवृती- से बगुले हम ।
सम की बात विषम मुद्रायें
सभी लोग हैं डरे- डरे
शंकाओं के गहरे बादल
कोई क्यों विश्वास करे
हिमखण्डों - से जमे हुये हैं
सच पूछो कब पिघले हम।
10
चुप रहना,कुछ मत कहना,
दीवारों के हैं कान
चुगली कर देंगे दरवाजे,
खिड़की, रोशनदान ।
खुसुरपुसुर, मूहाचाई से
होगी नींद हराम
घर के बाहर भीड़ जुटेगी
अगर हुआ संग्राम
व्यंग्य-वाण वे संधानेंगे
सुन भइया ब्रजभान ।
सूरजमुखी आग उगलेगी
जब कल होगी भोर
रूठी हुई रातरानी के
होंगे शब्द कठोर
चम्पा, बेला उकसायेंगी
कहाँ तुम्हारा ध्यान ।
शातिर मुखिया क्या जाने कब
चल दे कैसी चाल
चुटकी ले-ले कीच उछालेंगे
नौरंगी लाल
खाई चौड़ी होती ही जायेगी
इस दरम्यान ।
11
आँखें फाड़े उद्धव देखें,
ये सच है या मति भरमाई।
राग-रंग का खेल अजूबा
कोई नहीं प्रेम में डूबा
व्याकुल सभी नजर आते हैं
जन-जन असमंजस से ऊबा
अपनी ढपली अपनी तानें
बेपरवाह दिखी अंगड़ाई ।
अल्हड़पन न दिखी अलमस्ती
रोग-शोकमय बस्ती- बस्ती
कदम-कदम कोहराम मचा है
जान यहाँ पर दिखती सस्ती
रोटी पर मंहगी की छाया
छाती पीट रही अंगनाई ।
गोप- ग्वाल सब दिखें निरंकुश
ताल ठोंकते घर-घर लव-कुश
लम्पट, चोर,नराधम व्यापे
लूटमार जो करके हैं खुश
जाग-जाग कर रात गुजरती
अब न सुरक्षित आना-पाई।
प्यासे तन-मन,प्यासी गागर
वैसे पास हहरता सागर
आँख गड़ाये घूम रहे हैं
जिंदा लाशों के सौदागर
लोग खा रहे झूठी कसमें
प्रीति बनी कब की हरजाई।
12
तुम गाण्डीव धनुर्धारी हो
तुमको कितना याद दिलायें
शोभा तुम्हें नहीं देती हैं
वृहन्नला-वाली मुद्रायें ।
सूरज जैसे तेजस्वी, तुम
रहे उजाले की परिभाषा
शर- शैय्या पर पड़े भीष्म की
तुमने पूरी की अभिलाषा
शंखनाद जब किया युद्ध में
बैरी की बढ़ गई व्यथायें ।
कालजयी, जन-जन के नायक
जग में चर्चित कीर्ति तुम्हारी
बने सारथी युद्ध भूमि में
रहे हाँकते रथ, गिरधारी
कर्मयोग के तुम ज्ञाता हो
नीति भला क्या तुम्हें बतायें।
द्वापर की वो बात और थी
कलयुग में मत वेश बदलना
शर्तों पर अधिकार मिले तो
जीते जी होता है मरना
जब गूँजे स्वर 'देवदत्त' का
गूँज उठें फिर सभी दिशायें।
देवेन्द्र सफल
परिचय
________
नाम-देवेन्द्र कुमार शुक्ल
उपनाम-देवेन्द्र सफल
जन्म-4 जनवरी 1958, कानपुर महानगर
शिक्षा-स्नातक एवं तकनीकी शिक्षण प्राप्त
सम्मान/ पुरस्कार -
श्रृंगवेरपुर क्षेत्र विकास संस्थान, प्रयागराज- 1995
अनमोल साहित्यिक संस्था, कानपुर- 1997
आचार्य प.गोरे लाल स्मृति निधि सम्मान-1998
हिंदी प्रचारिणी समिति,कानपुर प्राज्ञ शेखर सम्मान-2000
मानस संगम,कनपुर-सारस्वत सम्मान-2008
मानस परिषद कानपुर-विशिष्ट साहित्यकार सम्मान
कायाकल्प 'साहित्य श्री सम्मान नोयडा-2010
हिंदी साहित्य सम्मेलन दिल्ली- सारस्वत सम्मान- 2010
साहित्यिक संस्था'अक्षरा'
मुरादाबाद सम्मान-2011
,उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन-सम्मान-पत्र-2011
रामकिशन दास स्मृति साहित्यसम्मान-काठमांडू नेपाल -2013
स्व.मदनमोहन सिंह स्मृति-हिंदी शिखर सम्मान-दुबई ,यू ए ई 2014
एनाल्को यूनिवर्सिटी पेरिस-फ्रांस 'विश्व हिंदी सेवी- सम्मान-2016
उत्तर प्रदेश वस्त्र प्रौद्योगिकी संस्थान, कनपुर सम्मान- पत्र-2018
साहित्यिक यात्राएं- काठमांडू ,दुबई ,शारजाह, आबूधाबी,पेरिस, जर्मनी, इटली, स्विट्जरलैंड, वैटिकन सिटी
प्रकाशित कृतियाँ- पखेरू गन्ध के (गीतसंग्रह)१९९८
नवान्तर (नवगीत -संग्रह)२००७
लेख लिखे माटी ने (नवगीत- संग्रह)2010
सहमी हुई सदी (नवगीत संग्रह)2012
हरापन बाकी है (नवगीत संग्रह)2016
शीशे के मकाँ में (ग़ज़ल-संग्रह)2021
परछाइयाँ हमारी (ग़ज़ल-संग्रह)2022
विशेष- आकाशवाणी के मान्य कवि,स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशन
सम्प्रति-निदेशक/प्रबन्धक- गीतांजलि इंटरनेशनल स्कूल,कानपुर
अध्यक्ष-सरस्वती ट्रष्ट (रजि.)कानपुर
स्थाई पता- 117/क्यू/759ए, शारदा नगर, कानपुर - 208025(उ.प्र)
मो.09451424233, 09005222266
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