रघुविन्द्र यादव जी के दोहों में "हलधर के हालात" : मनोज जैन
27, सितम्बर 1966 गाँव नीरपुर नारनौल हरियाणा में जन्मे ख्यात साहित्यकार आदरणीय रघुविन्द्र यादव जी से परिचय के परोक्ष अवसर का श्रेय उनके द्वारा सम्पादित शोध और साहित्य की राष्ट्रीय पत्रिका "बाबू जी का भारत मित्र" को जाता है,पत्रिका का नाम मैंने पहली बार कीर्तिशेष दादा देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी से सुना था।
यह बात सम्भवतः 2013 की है जब देवेन्द्र शर्मा इन्द्र जी पर उनके दो शिष्य एक विशेषांक की तैयारी कर रहे थे। पत्रिका में प्रकाशनार्थ तत्कालीन अतिथि सम्पादकद्वय डॉ पंकज परिमल जी और सञ्जय शुक्ल जी दोनों; दादा इन्द्र जी से मेरी निकटता से परिचित थे। इसी सन्दर्भ के चलते डॉ. पंकज परिमल जी ने पत्रिका के इस विशेषांक के लिए मुझसे भी सामग्री आमन्त्रित की थी। यह बात और है कि न मैंने सामग्री भेजी और न उन्होंने पुनः स्मरण दिलाया।
अंक प्रकाशित होने के बाद पता चला कि इस पत्रिका के प्रधान संपादक सुप्रसिद्ध दोहाकार रघुविन्द्र यादव जी हैं जो मेरी फेसबुक सूची में मित्र हैं और जिनके दोहों का मैं पहले से ही मुरीद हूँ । मेरे परिचय का प्रस्थान बिंदु यहीं से आरम्भ होता है। हम दोनों परस्पर व्यक्तित्व से भले ही अब तक अपरिचित हों पर एक दूसरे के कृतित्व से भलीभाँति परिचित हैं।
रघुविन्द्र यादव जी का लेखन संसार मूलतः दो रूपों में निरन्तर विस्तार पा रहा है। विधा चाहे गद्य की हो या फिर पद्य की वह अपनी रुचि के अनुसार सबसे छोटे फॉर्मेट को चुनते हैं। गद्य में लघुकथा तो पद्य में दोहा !
वे लघुता में विराटता भर देने के कारण अपने पाठकों के मध्य काफी लोकप्रिय हैं। उनके तथ्य में छुपे रहस्य को उनकी फेसबुक वॉल पूरी तरह उजागर करती है।
अब तक उनके द्वारा प्रकाशित और सम्पादित लगभग दो दर्जन से भी ज्यादा पुस्तकों के भण्डार में सृजनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो समकालीन दोहों के साथ समसामयिक विषयों पर उनका काम बोलता है। विषय वैविध्य की दृष्टि से रघुविन्द्र जी के दोहों का फलक बहुत बड़ा है।
एक अच्छा कवि या साहित्यकार अपनी कलम की ताकत का इस्तेमाल जनसामान्य के पक्ष में अपनी प्रतिबद्धताओं के चलते आम जनता के समर्थन में अपनी तरफ से प्रतिपक्ष की भूमिका तैयार करता है। और अपनी बात बेबाक़ तरीके से वहाँ पहुँचाता है जहाँ जो बात सही मायने में पहुँचनी चाहिए।
रघुविन्द्र यादव जी के लेखन का मूल स्वर भी यही है वे प्रतिरोध के कवि हैं।वह एक ओर जहाँ अपने दोहों में अपने समय के खुरदरे यथार्थ और सामाजिक सरोकारों पर पैनी नजर रखते हैं तो वहीं दूसरी ओर उनके दोहों में प्रकृति चित्रण है, पर्यावरणबोध है, स्त्री विमर्श है पाखण्ड पर करारी चोट है। विषयों की विविधता से उन्हें प्रेम है कथ्य को पकड़कर संदर्भित विषय में ढालने में कवि को महारत हासिल है। वे समाज की जड़ों में गहरी जमी विद्रूपताओं पर भी नजर रखते हैं। थोथली राजनीति पर गहरे कटाक्ष चुटीले अंदाज़ में करते हैं। शैली में व्यंग्य और स्वभाव में सहजता उनकी अन्यतम विशेषताओं में से एक है।
हममें से लगभग सभी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि विश्व में किसी भी भाषा का साहित्य किसान जीवन के सुख-दुख,आशा- निराशा, जीवन और मृत्यु के सरोकारों से अछूता नहीं रहा यदि हम वैश्विक साहित्य को बारीकी से खंगालें तो कृषि और कृषक जीवन पर बड़ी तादाद में साहित्य की उपलब्धता है।
भारत के कृषि प्रधान होने से यहाँ लोक से लेकर समकालीन साहित्य तक ग्राम्य जीवन और कृषकों से गहरे सरोकार जुड़ते हैं। हर कलमकार कृषक जीवन की हर एक भंगिमा को शब्दों में ढालने के लिए सदैव तत्पर और लालायित रहता है।
रघुविन्द्र यादव जी को यदि दोहा का पर्याय कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूँकि कवि की जड़ें नीरपुर, नारनौल हरियाणा के ग्राम्य परिवेश से जुड़ी रहीं यहीं से सृजनात्मक संवेदनाओं को ख़ूब खादपानी मिलता रहा। रघुविन्द्र यादव जी के दोहों में खेती किसानी के साथ-साथ ग्रामीण परिवेश एवं इससे जुड़े सरोकार प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। समय कितना परिवर्तनशील है देखते-देखते कब करवट ले लेता है हमें पता ही नहीं चलता। एक समय था जब लोक में यह मान्यता प्रचलन में थी जिसे लोग मिसाल के तौर पर प्रस्तुत करते थे।
" उत्तम खेती मध्यम बान
निशिद चाकरी भीख निदान"
खेती किसानी को सर्वोत्तम कार्य माना जाता था लेकिन कालान्तर में यह स्थिति एक दम उलट नजर आती है। रघुविन्दर यादव जी इसी भावभूमि पर अपनी बात बड़े प्रासंङ्गिक तरीके से कुछ इस तरह हमारे सामने रखते हैं। उनका एक-एक दोहा हमारे सामने सरकारी दाँवों के उलट हलधर के हालात का कच्चा चिट्ठा खोलता है। द्रष्टव्य हैं उनके सृजित कुछ
अवलोकनार्थ दोहे :-
1.
हलधर को मिलते नहीं,बिजली पानी खाद।
केवल वक़्त चुनाव के, आती उसकी याद।।
2.
भूख गरीबी बेवसी, घर में सुता जवान।
शासन सुध लेता नही,मरते रोज किसान।।
3.
हलधर हो जिस देश का, भूखा औ' बदहाल।
कैसे होगा देश वो, हरा-भरा-खुशहाल?
4.
पूजे केवल कर्म को, छोड़ भाग्य की आस|
फिर भी हलधर को मिले, पीड़ा दुख संत्रास
5.
जिनकी मंशा काटना, हलधर के भी हाथ।
मुखिया उनके साथ है,हम दुखिया के साथ।
कहते हैं कि किसी भी देश की सच्ची तस्वीर देखना हो तो वहाँ के साहित्य को खँगालिये! प्रस्तुत दोहे हलधर के वर्तमान हालात का बयान करते हैं। और एक सच्चे क़लमकार की प्रतिबद्धता का भी तभी तो कवि कहता है ;-"हम दुखिया के साथ"।
खेती किसानी विषयक दोहों का समग्र अध्धयन करने से कवि रघुविन्द्र यादव की सूक्ष्म संवेदनात्मक दृष्टि का पता चलता है। वह अपने दोहों में एक ज्वलन्त मुद्दा उठाकर देश के रहनुमाओं के समक्ष प्रश्न खड़े करते हैं, उन्हें किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के वह दृश्य दिखाते हैं जिनसे तमाम राजनेता और सरकारें जानबूझकर मुँह फेर लेना चाहती हैं।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष औसतन 15168 किसान आत्महत्या को मजबूर होते हैं ; इनमें से 72% तो ऐसे छोटे किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। उक्त संदर्भित तथ्य को कविवर बहुत कम शब्दों में जनता जनार्दन के समक्ष किसान आत्महत्या जैसे विषय को प्रस्तुत करते हैं :-
कथन की प्रतिपूर्ति के लिए उदाहरणार्थ कुछ दोहे देखें: -
1.
माटी में जिस देश की, थी सोने की खान।
ज़हर निगल कर मर रहे,उसके आज किसान॥
2.
चिंतित रहता हर घड़ी, कर्ज़े दबा किसान।
कैसे पीले हाथ हों, बेटी हुई जवान॥
3.
कनक कर्ज़ में खप गई, सस्ती बिकी कपास।
रामदीन रुखसत हुआ, खा गोली सल्फास।
4.
जाले आँखों में लगे, सत्ता की श्रीमान।
उसको दिखते ही नहीं, मरते हुए किसान॥
5.
हलधर पर फेंके गए, तरह तरह के जाल।
भोले थे समझे नहीं, मरते रहे अकाल॥
किसानों को उनके उत्पाद की सही कीमत न मिलने का एक बड़ा कारण बिचौलिए भी रहें हैं इनके खासे हस्तक्षेप और बढ़ते दख़ल के कारण किसानों को बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस आशय के कई संकेत दोहाकार रघुविन्द्र यादव जी अपने दोहों में समय-समय पर देते रहे हैं।
वे कहते हैं कि
1.
कनक हुई जब खेत में, दो कौड़ी था मोल।
लाला के गोदाम से, बिकी कनक के तोल॥
2.
भाव कौड़ियों के बिके, हलधर का सब माल।
लाभ कमाते आढ़ती, भरते जेब दलाल।।
3.
रोटी जो पैदा करे, वही रहे मुहताज।
साहूकार, बिचौलिये, करें देश पर राज॥
4
चाहे बेचा बाजरा, चाहे बेचा धान।
हुआ मुनाफा सेठ को, हलधर को नुकसान॥
5
मिनरल वाटर बेचकर, लाला मालामाल।
खाली पेट ज़मीन का, भीषण पड़ें अकाल
6
रात- रातभर जागकर, सींचा करता खेत|
उपज बिचौले ले गये, बची हाथ में रेत।।
7
जीवनभर हलधर लड़ा, हुआ न दुख का अंत|
मगर बिचौलों का रहा, सारी उम्र बसंत||
चंद सयाने, भले ही आढ़ती और किसान के रिश्ते को दिल और धड़कन का रिश्ता बताकर प्रचारित और प्रसारित क्यों न करें ? पर इसकी तह में जाकर किसानों को जो कड़वे अनुभव मिले उनसे स्वतः सिद्ध होता है कि ; यह रिश्ता दिल और धड़कन का ना होकर 'गिद्ध' और 'चील' जैसा ही है। सम्भवतः इन सब बातों को आधार बनाकर रघुविन्द्र यादव जी का कवि मन किसानों की पैरवी करते हुए कहता है कि - रोटी पैदा करने वाला किसान ही यहाँ मुहताज है जबकि साहूकार, बिचौलिये, देश पर राज कर रहे हैं भला यह कौन सा न्याय है ?
चूँकि कवि का सीधा जुड़ाव खेती किसानी से गहरा होने के कारण कवि की दृष्टि उन अछूते सन्दर्भों तक पहुँचती है। ऐसा नहीं कि कवि ने सिर्फ समस्याएं ही उकेरी हैं।उन्होंने विषय के साथ न्याय किया है। शासन की बुदनियत को दोहों में अभिव्यक्ति देकर छल को उजागर किया है। दोहा के सन्दर्भ में एक बात कही जाती है कि यह सबसे छोटा छन्द होने के नाते अपने आप में कोट किये जाने की ताकत रखता है।
आशा है सभी दोहे दोहाकार ने जिस निमित्त से सृजित किए हैं,और जिनको सृजित किए हैं, वहाँ बड़ी आसानी से पहुँचेंगे और अपने उद्देश्य को पूरा करेंगे। सत्ता की आँखों में लगे जाले हटाने में सौ फीसदी सफल होंगे। राजपथ पर इन दोहों की आवाज गूंजेगी। संसद अपना मौन तोड़कर नीतियाँ बनाएगी। कर्ज़ में डूबे हलधर को जल्द न्याय मिल सकेगा।
मनोज जैन
106 विठ्ठलनगर गुफामन्दिर रोड
भोपाल 462030
मोबाइल 9301337806
16 सितम्बर 2022
भोपाल
बेहतरीन आलेख साधुवाद 💐💐
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