डॉ. जगदीश व्योम जी के दो नवगीत-
【1】
'इतना भी आसान कहाँ है'
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– डा.जगदीश व्योम
इतना भी
आसान कहाँ है
पानी को पानी कह पाना!
कुछ सनकी
बस बैठे ठाले
सच के पीछे पड़ जाते हैं
भले रहें गर्दिश में
लेकिन अपनी
ज़िद पर अड़ जाते हैं
युग की इस
उद्दण्ड नदी में
सहज नहीं उल्टा बह पाना!
इतना भी......... !!
यूँ तो सच के
बहुत मुखौटे
कदम-कदम पर
दिख जाते हैं
जो कि इंच भर
सुख की ख़ातिर
फुटपाथों पर
बिक जाते हैं
सोचो!
इनके साथ सत्य का
कितना मुश्किल है रह पाना!
इतना भी......... !!
जिनके श्रम से
चहल-पहल है
फैली है
चेहरों पर लाली
वे *शिव* हैं
अभिशप्त समय के
लिये कुण्डली में
कंगाली
जिस पल शिव,
*शंकर* में बदले
मुश्किल है ताण्डव सह पाना
इतना भी........।।
•••
【2】
'हिरना क्यों उदास मन तेरा'
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हिरना!
क्यों उदास मन तेरा।
अभी बची
बाकी हरियाली
उजड़ा नहीं बसेरा
कुछ नन्हें
बिरवे मुरझाये
कुछ
बनचर घबराये
सहमे–सहमे तोता–मैना
कुछ भी बोल न पाये
बूढ़ा बरगद
खड़ा अकेला
अवसादों ने घेरा
हिरना!
क्यों उदास मन तेरा।
जंगल में
मंगल होगा
ये सपने गये दिखाये
सिंहासन
मिल गया
भला फिर
वादे कौन निभाये ?
जाने
कौन घड़ी रुख बदले
फिरे
हवा का फेरा
हिरना!
क्यों उदास मन तेरा।
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बहुत अच्छे नवगीत
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