बुधवार, 25 जनवरी 2023

जय चक्रवर्ती जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग


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चर्चित नवगीत कवि 
जय चक्रवर्ती जी की फेसबुक वॉल से साभार दो नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ
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एक
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हो गया शामिल समूचा गांव
दर्शक-मंडली में
एक जोकर मंच पर 
बहला रहा है दिल सभी का.

झूठ के लाखों 
सुनहरे 
संस्करण हैं पास उसके
सत्य को 
दुत्कारते संवाद सारे 
खास उसके

है गज़ब अंदाज़ 
उसकी इस अजब जादूगरी का.

चाल है ऐसी 
कि 
जैसे आ गया भूचाल कोई
तालियां फटकारता है 
यों कि 
ज्यों कव्वाल कोई

टाँग खूंटी पर दिया है
भेष-भाषा का सलीका.

पात्र नाटक मंडली के 
कैद हैं 
नेपथ्य में सब
चीखती है 
विदूषक की अदाएं ही 
मंच पर अब

बाँधता है डोर सबसे
है नहीं लेकिन किसी का

दो
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किस मिट्टी के हो तुम गाँधी
रोज तुम्हारी हत्या का-
हो रहा रिहर्सल,
पर तुम वैसे के वैसे हो
किस मिट्टी के हो तुम गाँधी ?

यूँ तो धर्म सभा में हो तुम
मगर यहाँ
गोडसे बड़ा है.
सभाध्यक्ष खुद हत्यारे के
आगे
धनुषाकार खड़ा है.

पीना पड़ता रोज तुम्हें विष
लेकिन जैसे के तैसे हो
किस मिट्टी के हो तुम गाँधी?

दहशत में हैं सत्य, अहिंसा, प्रेम
और 
सद्भभाव तुम्हारे.
मंदिर मस्जिद के चेहरे पर
चस्पा हैं
नफ़रत के नारे.

रोम रोम है छलनी, आखिर
इतना सब सहते कैसे हो
किस मिट्टी के हो तुम गाँधी?

नाम तुम्हारा लिखकर
नुक्कड़ नुक्कड़ हैं 
मुस्तैद सलीबें.
रोजाना ईजाद हो रहीं
तुम्हें
मिटाने की तरकीबें.

तनिक नहीं बदले हो लेकिन
तुम बिल्कुल पहले जैसे हो
किस मिट्टी के हो तुम गाँधी?

तीन
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कुछ ज़मीनें अब नई तोड़ो!
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गीत की फसलें उगाने के लिए 
कुछ ज़मीनें  
अब  नई तोड़ो!

कब तलक बोते रहोगे 
शब्द अपने  एक धरती पर 
कब तलक रोते रहोगे
दैन्य को-दुख को परस्पर

उठो,अब तेवर नए लेकर 
बढ़ो
ये पुराने अस्त्र सब छोड़ो!

लोग बदले,
वक्त बदला,वक्त की रफ्तार बदली 
तुम युगों से हो खड़े
जिस धार पर, वह धार बदली 

वक्त से आंखें मिलाकर चलो 
या फिर 
वक्त अपनी ओर मोड़ो!

फूल बरसाओगे कब तक
हाँ-हुज़ूरी की डगर में 
गीत को लेकर चलो अब
असहमतियों के नगर में 

आग लिक्खो आग को ,
और फिर- 
यह आग जीवन-राग से जोड़ो!

जय चक्रवर्ती

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