गुरुवार, 30 जून 2022

मनोज जैन का एक नवगीत


मानवतावादी चिंतन की
__________________

एकांगी
चिंतन है प्यारे!
यह तो कोई बात नही हैं।

जम्बुद्वीप के भरतखंड के 
आर्य क्षेत्र में हम हों केवल,
हम ही हम हों।

खुशियाँ सारी रहें हमारी,
सदा दुलारी, 
औरों के हिस्से में गम हों।

सच्चाई में 
सपना बदलें
इतनी अभी बिसात नहीं है।

एक सोच जो सदियों से है, 
कहती आई, सिर्फ हमारी, केशर क्यारी
सिर्फ हमारी।

सोच रहा है, रंग धरा का, 
हो केसरिया, बस केसरिया 
भगवाधारी।

मानवतावादी
चिंतन की
प्यारे कोई जात नहीं है।

उन्मादी कुत्सित चिंतन को, 
जन-गण- मन में,
पलने मत दो, मत पलने दो।

बंधु छोड़ दो कठमुल्लापन, 
नई पौध को,
जलने मत दो, मत जलने दो।

रोक सके आशा
का सूरज,
ऐसी कोई रात नहीं है।

मनोज जैन

शुक्रवार, 24 जून 2022

टिप्पणी: सुनील चतुर्वेदी जी

श्री आशीष दशोत्तर और श्री ब्रजेश सिंह जी की समीक्षाएं पढ़ीं । दोनों ही समीक्षकों  द्वारा आपकी पुस्तक "धूप भरकर मुठ्ठियों में" का सूक्ष्म और गहन पठन के बाद लिखी गई हैं । उनके द्वारा जिन-जिन नवगीतों का उल्लेख किया गया है, वे मेरे भी प्रिय नवगीत हैं। आपकी रचनाओं की भाषा और शिल्प इतना सहज है कि इनको पढ़ते-पढ़ते हर पंक्ति के साथ बिम्ब बनता जाता है । 
एक-एक शब्द में गज़ब की तारतम्यता और गेयता है। यदि कविता  आमजन की समझ से बाहर रहे तो वो कविता किस काम की । आपके नवगीतों की यह विशेषता है कि वे साधारण व्यक्ति की समझ की परिधि में हैं। जहां तक मैं समझता हूँ , साहित्य का सृजन आम लोगों के लिए ही किया जाता है, न कि साहित्यकारों के लिए । जो साहित्य सिर्फ साहित्यकारों के लिए सृजित होता है, वो ज्यादा दिन  टिक नहीं पाता है । 
आपके नवगीतों में वे तत्व भी विद्यमान रहते हैं जो आसानी से स्वीकार्य होते हैं । इनमें शब्द-संयोजन के साथ-साथ लयात्मकता और तीखी व्यंग्यात्मकता भी मौजूद रहती है । 
आप सृजन के साथ नवगीत विधा का परचम उठाए हुए है, ये आपकी प्रतिबद्धता, चिंता और चिंतन को दर्शाता है । आपके ये प्रयास निष्फल नहीं होंगे, मुझे पूरा विश्वास है । शुभकामनाएं ।
सुनील चतुर्वेदी
प्रान्तीय 
कोषाध्यक्ष मध्यप्रदेश लेखक संघ
 

सोमवार, 20 जून 2022

मनोज जैन के दो प्रेम गीत

मनोज जैन के दो प्रेम गीत
__________


एक अहसास ने
प्राण मन को 
छुआ ।

प्यार तुमसे 
हमें,
प्यार तुमसे हुआ।

हर घड़ी 
झाँकता 
मन बुलाता तुम्हें।

संग बॉहों के 
झूले
झुलाता तुम्हें।

पूर्व के पुण्य से
लग गई 
है दुआ।

प्यार 
तुमसे हमें
प्यार तुमसे हुआ।

ढाई आखर 
के पर्याय 
तुम मीत हो।

प्रेम का 
पूर्ण संकाय 
दिलजीत हो।

तुम परी स्वर्ण-सी
मैं तुम्हारा
सुआ।


देह भर में 
नहीं
दृष्टि के पार है।

प्रेम ही तो यहाँ             
सृष्टि
आधार है।

खेलता
ही रहूँ धड़कनों का 
जुआ।

दो

चम्पई मुस्कान होंठों पर

___________________________

धड़कनों में,
आ बसे अब,
हैं दुहाई में ।

आज अपना दिल, किसी के, प्यार नें, 
मनुहार से, 
हँसकर अभी जीता।

नेह का संसार, बॉहों में समेटे, मंगलम के 
गीत कब से
गा रही प्रीता।

कैद में जो सुख
कहाँ है वह 
रिहाई में।

चम्पई मुस्कान, होठों पर, खिली
मानों कहीं पर 
झर रहे झरने ।

रेशमी अहसास, तन को छू रहा, 
मन में समायी,
शून्यता भरने ।

क्या कहें, कब हम इकाई से 
स्वतः बदले
दहाई में।

मनोज जैन
106 विठ्ठल नगर गुफा मन्दिर रोड लालघाटी भोपाल 462030

मनोज जैन का एक नवगीत

एक नवगीत

बकरीद

हाँ,मियाँ बकरीद आई ।

मंडियों में 
दिखे बकरे 
जग उठा मन का कसाई।
हाँ,मियाँ बकरीद आई ।

कलमा पढ़कर सिरपर चढ़कर
गर्दन कटनी है।
तीन भाग में बेजुबान की
बोटी बँटनी है।

गोश्त खाने मोमिनों की 
जीभ कैसी 
लपलपाई ।
हाँ,मियाँ बकरीद आई ।

अल्लाह के फ़रमान की 
मिल दे रहे हैं
ये दुहाई। 
हाँ, मियाँ बकरीद आई ।

तड़पा-पड़पा कर निरीह को
ऐसे मारेंगे।
रूढ़ि यही है धर्म नहीं है
कब स्वीकारेंगे।

क्रूरता से जान
लेने में भला 
कैसी खुदाई।
हाँ! मियाँ बकरीद आई।

क्रूर बर्बर रूढ़ियों की
हम नहीं 
देंगे बधाई।
हाँ! मियाँ बकरीद आई।

मनोज जैन

एक नवगीत मनोज जैन

पिता दिवस पर बकरे जैसा
______________________________

सोच रहे हैं पिता,
अरे ये 
कैसे नाते हैं।

अंतर्मन में बाह्य जगत की 
पीड़ा सघन समेटे।
डीपी मेरी हँसने वाली 
लगा रहे हैं बेटे।

रोते रहते भीतर
हम, बाहर 
मुस्काते हैं।

तकती रहती आसमान में
जाने क्या दो आँखें।
मन का पाखी उड़ना चाहे 
किंतु कटी हैं पाँखें।

जीवन के पल जाने
क्या-क्या हमें
दिखाते हैं।

दिन पहाड़-सा रात क़त्ल की
कटना है मजबूरी।
चुप्पी के इस बियाबान की
कौन नापता दूरी।

नकली मुस्कानें 
होठों पर
हम चिपकाते हैं।

सन्नाटों की खुली जेल-सा
जीवन अपना कैदी।
साँसों की आवाजाही पर 
साँसों की मुस्तैदी।

पिता दिवस 
पर बकरे जैसा 
हमें सजाते हैं।

मनोज जैन 

9301337806

#Fathers_Day #पिता_दिवस

टिप्पणी


सीताराम पथिक जी की एक टिप्पणी
एक टिप्पणी


आदरणीय भाई मनोज जी अगर आज से  30 वर्ष पहले आपने यह गीत लिखा होता तो पूरी तरह अप्रासंगिक होता क्योंकि तब बच्चों में संस्कार हुआ करते थे वह अपने माता पिता को भगवान से भी अधिक मानते थे हम सब उसी पीढ़ी के हैं परंतु वर्तमान में समाज क्या ताना-बाना ऐसा टूटा है ऐसा बिगड़ा है की मां बाप अब आधुनिक पीढ़ी के बच्चों के लिए सिर्फ एक सीढ़ी रह गए हैं वह उनके कंधे पर पांव रखकर ऊपर चढ़ जाते हैं इसके बाद उनको लगता है हमारी कमजोरी सिर्फ हमारे मां-बाप ही जानते हैं और वह उन्हें ही सबसे पहले हटाने लगते हैं तुलसी बाबा ने भी लिखा है 

जेहिसे नीच बढ़ाई पबा सफलता ही नशा पर उन्होंने अन्य के लिए लिखा था आज अपनी औलाद भी यही कर रहे हैं जब तक काम आ रहा है जब तक काम कर रहा है उनके लिए उपयोगी है तब तक बच्चे उसका भरपूर दोहन करते हैं इसके बाद जब पिता कुछ करने लायक नहीं हो जाता तो वह सिर्फ नुमाइश की चीज रह जाता है घर में बाहर से कोई आए तब उस दिन पिता के कपड़े अलग होंगे खानपान अलग होगा बाकी अन्य दिन पिता एक-एक रोटी के लिए तरसते हैं यह मैंने अपनी आंखों से समाज में देखा है पुत्र अपने पुत्र को गोद में बिठाकर भविष्य की कल्पना करता है कि यह बच्चा मुझे असीम सुख सुविधाओं से सराबोर कर देगा परंतु खुद अपने पिता को वह स्नेह की दो बूंद देने के लिए तैयार नहीं धिक्कार है ऐसे पुत्रों पर इसमें बहुओं का उतना हाथ नहीं है जितना पुत्र का है क्योंकि होता क्या है बहू ने बाहर से आती हैं उन्हें बताता है कि अगर हमारे पिता अच्छे हैं हमको बहुत प्यार करते हैं श्रद्धा नवत हो जाते हैं और उनकी नजरों में पिता और माता का दर्जा अलग हो जाता है पर अगर पुत्र बहुओं से कह दे कि पिता हम को बहुत मारते थे हमको बहुत पीटते थे तो उन बहुओं का नजरिया पिता और माता के प्रति बिल्कुल बदल जाता है उनको लगता है जब यह हमारे पति को ही इतना कष्ट देते रहे तो हमें सुख नहीं देंगे हमें इसने नहीं मिलेगा और उसी दिन से बहुओं के विरोधी हो जाते हैं बड़ी विसंगति है जो पीता पेंशनर नहीं है


आदरणीय भाई मनोज जी अगर आज से  30 वर्ष पहले आपने यह गीत लिखा होता तो पूरी तरह अप्रासंगिक होता क्योंकि तब बच्चों में संस्कार हुआ करते थे वह अपने माता पिता को भगवान से भी अधिक मानते थे हम सब उसी पीढ़ी के हैं परंतु वर्तमान में समाज क्या ताना-बाना ऐसा टूटा है ऐसा बिगड़ा है की मां बाप अब आधुनिक पीढ़ी के बच्चों के लिए सिर्फ एक सीढ़ी रह गए हैं वह उनके कंधे पर पांव रखकर ऊपर चढ़ जाते हैं इसके बाद उनको लगता है हमारी कमजोरी सिर्फ हमारे मां-बाप ही जानते हैं और वह उन्हें ही सबसे पहले हटाने लगते हैं तुलसी बाबा ने भी लिखा है 

जेहिसे नीच बढ़ाई पबा सफलता ही नशा पर उन्होंने अन्य के लिए लिखा था आज अपनी औलाद भी यही कर रहे हैं जब तक काम आ रहा है जब तक काम कर रहा है उनके लिए उपयोगी है तब तक बच्चे उसका भरपूर दोहन करते हैं इसके बाद जब पिता कुछ करने लायक नहीं हो जाता तो वह सिर्फ नुमाइश की चीज रह जाता है घर में बाहर से कोई आए तब उस दिन पिता के कपड़े अलग होंगे खानपान अलग होगा बाकी अन्य दिन पिता एक-एक रोटी के लिए तरसते हैं यह मैंने अपनी आंखों से समाज में देखा है पुत्र अपने पुत्र को गोद में बिठाकर भविष्य की कल्पना करता है कि यह बच्चा मुझे असीम सुख सुविधाओं से सराबोर कर देगा परंतु खुद अपने पिता को वह स्नेह की दो बूंद देने के लिए तैयार नहीं धिक्कार है ऐसे पुत्रों पर इसमें बहुओं का उतना हाथ नहीं है जितना पुत्र का है क्योंकि होता क्या है बहू ने बाहर से आती हैं उन्हें बताता है कि अगर हमारे पिता अच्छे हैं हमको बहुत प्यार करते हैं श्रद्धा नवत हो जाते हैं और उनकी नजरों में पिता और माता का दर्जा अलग हो जाता है पर अगर पुत्र बहुओं से कह दे कि पिता हम को बहुत मारते थे हमको बहुत पीटते थे तो उन बहुओं का नजरिया पिता और माता के प्रति बिल्कुल बदल जाता है उनको लगता है जब यह हमारे पति को ही इतना कष्ट देते रहे तो हमें सुख नहीं देंगे हमें इसने नहीं मिलेगा और उसी दिन से बहुओं के विरोधी हो जाते हैं बड़ी विसंगति है जो पिता पेंशनर नहीं है

शुक्रवार, 17 जून 2022

पण्डित सुधाकर शर्मा जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

पण्डित सुधाकर शर्मा जी के नवगीत


प्रस्तुति
वागर्थ

 गीत
          

बाहर बाहर हॅसता गाता,
भीतर भीतर रोता हूॅ !
जो दिखता वह होता कब हूॅ?
जो न दिखूॅ वह होता हूॅ !!

कितने ओढ़ रखे आडम्बर ?
फिर भी लोग मानते सादा!
राजनीति जैसा चरित्र है,
हौले से पानी में पादा !

उठते हुए बुलबुलों को मैं
पानी में ही धोता हूॅ !!
जो दिखता वह होता कब हूॅ ?
जो न दिखूॅ वह होता हूॅ !!

तेवर रोज़ बदलते रहते
बस चुनाव में ही टिकते हैं!
बिकने पर आजायें तो फिर
दो कौड़ी में भी बिकते हैं !!

मूल्य और सिद्धांत किताबी
हर भाषण में ढोता हूॅ !!
जो दिखता वह होता कब हूॅ ?
जो न दिखूॅ वह होता हूॅ !!

   दो
         
एक गीत ऐसा भी...

सूर्य!
तू जितना तपा सकता तपा!
मैं तपस्वी की तरह तपता रहूॅगा !!

प्रेम भी तो है तपस्या!
फिर भला क्यों हो समस्या?

तप तपाकर नाम मैं जपता रहूॅगा !!
मैं तपस्वी की तरह तपता रहूॅगा !!

स्वर्ग बाला क्या डिगाये?
इंद्र खुद ही डगमगाये !

हरि - पद s त्रय नाप लें,
नपता रहूॅगा !!
मैं तपस्वी की तरह तपता रहूॅगा !!

यम नियम संयम निरर्थक !
साॅस के संग्राम भरसक...

युगयुगांतर से खपा खपता रहूॅगा !! 
मैं तपस्वी की तरह तपता रहूॅगा !!

   तीन
       

खोलकर रख दी हृदय की पुस्तिका
प्रिए !
ढाई आखर बॉच लो तो बॉच लो !!
मैं नहीं गाता अगर 
बीतती कैसे उमर ?
सॉस ही तो रच रही प्रिए !
प्रणय का मधुरिम 
मुखर स्वर !
ना छिदेगा , ना कटेगा , ना जलेगा !
आँच ही कैसे तपाये आँच को ?
ढाई आखर बॉच लो तो बाँच लो !!

लौ लगन गति ताल लय
बूँद  का  सागर - विलय 
वाष्प फिर घन सघन बन
वन बीहड़ों मरु में
बरस क्षय !
कर रही उद्घोष जय का शुभ सनातन
काल क्या कवलित करेगा 
सॉच को ?
ढाई आखर बॉच लो तो 
बॉच लो  !!
                 चार

मूल्यहीन सिद्धांत - विचार !

उनका बड़ा बिकाऊ घोड़ा!
अश्वमेध सा छुट्टा छोड़ा!
तोड़  लिये  पूरे बावीस ,
"फूलों" का चल पड़ा हथोड़ा!

टस से मस न हुई सरकार !!
मूल्यहीन सिद्धांत- विचार !!
राजनीति के गोरख धंधे !
छल छंदे ,मति मंदे-गंदे !
गुंडे - लुच्चे और लफंगे,
जन-सेवा के पग पग फंदे!
सारी उठा- पटक बेकार !!
मूल्य हीन सिद्धांत- विचार !!

ना ये साधो,ना वे संत!
राजे - म्हाराजे,श्रीमंत!
इक थैली के चुट्टे भुट्टे,
सत्ता के भूखे भगवंत!

राज धर्म...!धंधा - व्यापार !!
मूल्य हीन सिद्धांत- विचार !!

पाँच
                  
दो अक्टूबरी ढकोसले का
गीत....
                   *
तर ब तर थीं जिनकी दाड़ें ख़ून से
भेड़ियों का झुंड वह
कितना अहिंसक हो चला?
     साधु के चरित्र को
     करते प्रमाणित चोर!
     मित्र! यह जो फट रही पौ
     यह नया है भोर !!
वो जो हत्यारा महात्मा का कभी था,
आजकल देखो प्रशंसक हो चला !!
     आँख तो मूॅदो,
     सभी कुछ ठीक ही है!
     यार ! दरबारों में सब
     सटीक ही है !!
सच न कहना,सच तो बाग़ी बोलते हैं,
... फिर न कहना शाह हिंसक हो चला !!
      अब तो गोरों की जगह
      काले लुटेरे हैं !
      सज्जनों को हर घड़ी
      कानून घेरे हैं !!
हाक़िमों की पीठ पर अपराधियों के हाथ... 
तंत्र तो स्साला नपुंसक हो चला !!

बुधवार, 15 जून 2022

वागर्थ प्रस्तुत करता है मीनाक्षी ठाकुर के दो नवगीत



वागर्थ प्रस्तुत करता है मीनाक्षी ठाकुर के दो नवगीत

मीनाक्षी ठाकुर मुरादाबाद से आती हैं और वहाँ के युवाओं में नवगीत का प्रतिनिधित्व करती हैं।
प्रस्तुति
वागर्थ
________

एक
_____
विस्थापित तिनको ने ढूंढा

विस्थापित तिनको ने ढूंढा
फिर  से  कोई ठौर, 

बीते कल ने जब भी गाये
वही पुराने गीत
 मन में दुबकी बूढ़ीं यादें
 हुईं विकल,भयभीत
हाथ जोड़कर विनती करतीं
गा लेते कुछ और...! 

कहलाता था घर जो सबका
अब बन गया मकान
आपस में ही झगड़ रहे हैं, 
दर, चौखट, दालान
पहिये वाली कुरसी पर है
सेवानिवृत्त दौर

ज़िम्मेदारी ने  जब भेजा
अल्हड़पन को मेल
भूले छकड़ी याद रहा बस
 लकड़ी,नून व तेल
भूखे तन को साध रहे हैं
दो रोटी के कौर.. 

दो
____

...रस्मों वाली थाली

किसने ढक दी थालपोश से 
 रस्मों वाली थाली

पत्तल को वनवास हो गया
कुल्हड़ हैं बेचारे
मस्त बफे के फैशन में सब
पंगत राह निहारे
खुशियों की शूटिंग तो होती
पर गायब खुशहाली

चैती मेले जाना लगता
शहरों को देहाती
गेहूँ की बाली भी अब तो 
बैसाखी कब गाती
विदा करा दी किसने रौनक
चौपालें सब ठाली

ढोलक भी गीतों से गुपचुप
करती कानाफूसी
सोहर, मंगल गाना लगता
अब तो दकियानूसी
डीजे के सम्मुख नतमस्तक
कल्चर भोली-भाली

मीनाक्षी ठाकुर, मुरादाबाद

सोमवार, 6 जून 2022

डॉ.कामता नाथ सिंह जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

डॉ.कामता नाथ सिंह
ग्राम- बेवल, पोस्ट-सुजवरिया, जनपद-रायबरेली, 
पिन-229307 
उ.प्र.,भारत
सेवा निवृत्त शिक्षक
सृजन-संसार
जय सुभाष (महाकाव्य)
गीत-गुन्ज (स्वरचित गीतसंग्रह),
बन्जारे गीत (स्वरचित नवगीत संग्रह),
गलबाँहीं (स्वरचित गीतसंग्रह)
"टीसें"(स्वरचित ग़ज़लें)
मुक्तक,दोहा, छन्द, गीत, नवगीत, ग़ज़ल आदि विविध छन्दवद्ध विधाओं और गद्य साहित्य में सृजन,
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, काव्यसंग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित
बहुत से राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय मंचों से काव्यपाठ

एक
धुनी रुई-से हम

धुआँ-धुआँ सी हुई ज़िन्दगी
 धुनी रुई-से हम।
महज़ रह गये सम्बन्धों में
छुईमुई-से हम।।

 किर्च-किर्च बिखरी साँसों के
 दर्पण टूट गए,
हमराही सपनों के सतत्
 समर्पण,छूट गए;

 अनुबन्धों को सीते,धागा
 बिना सुई-से, हम।

व्यथा-कथाएं सदा सुहागन
भर आँचल बैठीं,
आँखों में सावन छलकाए,
अन्तस् तक पैठीं;

धीरे-धीरे सूख रहे हैं,
 खाल मुई-से, हम।

घटवारों-सा छेंके बैठे
 हैं सारी हलचल,
पल-पल का मुजरा लेते हैं
 ये अनजाने पल;

 बन्द मुहाफि़सखाना, फाइल
गुमी हुई -से, हम।।

दो

हैं  अभी जीवित सभी सम्भावनाएँ

लो सुनो नेपथ्य से 
आती हुई आवाज़,
हैं अभी जीवित 
सभी सम्भावनायेंं।

कुछ हवाओं ने कहा 
कुछ सर्जनाओं ने,
मुँह छुपा कर पीठ फेरी
वर्जनाओं ने;

गर्जनाओं ने दहे
यों पीर के अन्दाज़,
हैं अभी जीवित 
सभी संभावनाएं!

फिर उमंगें खोलतीं-सी
 राज़ अपनों के,
कामनायें काटती हैं
कान सपनों के:

भावनाओं के पखेरू के
नये परवाज़,
हैं अभी जीवित 
सभी सम्भावनाएँ

प्रतिक्रियाएं हो रहीं
 मौसमी चालों पर,
चहलकदमी कर रहीं 
यादें रुमालों पर ;

लालिमा लिखती 
कपोलों पर नये अलफाज़,
हैं अभी जीवित 
सभी सम्भावनाएँ

तीन

चिन्तन के ऋजुकोण
  
सूरजवंशी आभाओं के
चिंतन,चित्र,चरित्र सशंकित,
तामस की तमसाओं के
मूल्यांकन नये उछाहों पर है!!

कैसे कीर्तन-भजन सुनाएँ
पर्णकुटी में मन भरमाएँ
जाग उठी लगतीं संसृति की 
सारी सोमरसी इच्छाएँ

खजुराहो अब नये अर्थ में
तक्षशिला तक पहुंच गया है,

कामाख्या की     प्रतिमायें
निर्वस्त्र खड़ी चौराहों पर हैं!!
तामस की तमसाओं के
 मूल्यांकन नए उछाहों पर हैं!!

छद्मकथाओं के क्षेपक में
परीलोक के स्वर्ग दिखाये,
रक्त निचोड़ रहे मायावी
सपनों के नख-दन्त छिपाये;

कालचक्र काशेय पहनकर
कालनेमि-सा   घूम रहा है,

चिन्तन के ऋजुकोण अभी
वंचित-मन के दोराहों पर हैं!!
 तामस की तमसाओं के
मूल्यांकन नये उछाहों पर हैं!!

चार

कन्त बसन्त हुए
****************
कन्त बसन्त हुए
सौतन होने से डरती है ।
नई नवेली धरती
कितने संशय करती है ।।

रसवन्ती रसाल-मंजरियों
से भौंरों की बात,
कई कनखियाँ,सैन, इशारों 
में उठते वे हाथ;

हवा कहाँ किसकी चुगली
करने से डरती है।।

फागुन की आहट से 
सीवाने चैतन्य हुये,
लहकी अमराई,महुआये
सपने धन्य हुए

गीतों की रुनझुन पायल-सी
बन्जर परती है।।

दहके-दहके से पलाश-वन,
बहकी-बहकी रात,
तारों के निकुन्ज में चन्दा 
की बासन्ती-घात ;

पात-पात को चूमचूम
चाँदनी उतरती है ।।
कन्त बसन्त हुये, धरती
सौतन से डरती है।!

पाँच

अँगनाई की धूप

लुकाछिपी-सा खेल रही है
अँगनाई की धूप धूप ।
कभी रोशनी है मुखड़े पर
कभी कुहासी रूप।।

कभी चुलबुली भोरहरी-सी
कभी दुपहरी चंट,
कभी लजाती छुईमुई के
 फूट गये से कंठ;

छिन में नदी पहाड़ी चंचल
बन जाती है कूप।।
लुकाछिपी-सा खेल रही है
अँगनाई की धूप।।

कभी लिपट जाती है मन से
 कभी उड़नछू-सी,
मैल छाँटती अमरूदों-सी
कभी आबनूसी;

पल पल बदले बदले लगते 
कितने रंग अनूप।
लुकाछिपी-सा खेल रही है
अँगनाई की धूप।।

बर्फीला कुहरा कर रहा
 शिकायत किसमत से,
छेड़छाड़ कर रही हवा यह
उसकी अस्मत से;

और जेठौते की गुड़धनियाँ
बाँट रहा है सूप ।
लुकाछिपी सा खेल रही है
अँगनाई कीधूप।।

छह

आंँखें खोलकर देखो

क्या यही है युग नया, परिवेश
आंँखें खोलकर देखो ।।

वे अकिंचन,बोझ सिर का,
और उस पर ज़िन्दगी का
भार, कन्धे पर,

जा रहे, लादे हुए, 
आंँखें हिकारत से भरी, 
भगवान अन्धे पर;

हांँ, मगर जीवन्तता 
है शेष
आंँखें खोल कर देखो।। 

पीर की अठखेलियांँ 
मुख पर, 
थिरकती है युगों से, 
भूख आंँतों में,

चीखती हैं
स्वार्थ में बिकती हुई संवेदनाएं, 
गूढ़ बातों में;

घेर कर बैठे हुए 
सौ क्लेश,
आंँखें खोलकर देखो।।

नित नए सन्त्रास, कुंठायें,
 व्यथायें तैरती हैं, 
फिर हवा में काल बनकर;

तान कर चट्टान-सा सीना
 खड़ा ज्वालामुखी-सा मौन,  
अब भूचाल बनकर;

काल के विद्रूप का
अवशेष,
आंँखें खोल कर देखो।।

सात

आग लगाके नाचे सूरज
 
आसमान कुढ़के धरती पर
 डाल रहा पेट्रोल!
आग लगाके नाचे सूरज 
 बजाबजा के ढोल!!

 रह-रह ज्वालामुखी उगलते
ऊसर, बन्जर, परती,
दुपहरिया. सतहरिया, संझा,
 भोर कुलांचे भरती;

कुंजों के आंगन, मुंहझौंसी
 पछुआ करे किलोल!!

अंग-अंग सौ-सौ अनंग,
 पुरजोर पसीना सींचे,
 तपती कंचन-काया,आतप
 फिर-फिर आग उलीचे;

 आंचर-कोर दबाये
 घुंघुटाही दुलहिन के बोल!!

 ठेठ, जेठ की बोली-बानी
 मगहर जैसी लागे,
बेबस उसके आगे जैसे
 सारे पुन्न अभागे;

 गाछ-गाछ के पात-पात में
 गई अगन है घोल!!

आठ

काले मेघा दे जा पानी

सबके अपने ठाट-बाट हैं,
सबकी अपनी रामकहानी!
  एक अकेला जेठ आ गया,
    मरी हुई है सबकी नानी!!

सन्नाटे का भूत चढ़ा है,
 गली-मुहल्ले सब सूने हैं,
विधवा की बेटी-सी सिमटी
नदिया के भी दु:ख दूने हैं;

ताल-तलैया, पोखर प्यासे 
 लगी रामरट पानी-पानी!!

हंसे गुलमुहर खड़ा दुआरे
 जाने किसकी बाट निहारे,
और अगन-सी तपन,थपेडे़
 सहता अमलतास मन मारे;

सुगना की टिटकोर पियासी,
दुपहरिया की चढ़ी जवानी!

हवा प्यास से व्याकुल हांफे,
 डगर-डगर छेड़े मनमानी,
धरती के हौंसले पस्त हैं
मौसम करता आनाकानी;

आंखों में कुछ पानी हो तो 
काले मेघा दे जा पानी!!

नौ

"हरसिंगार के फूल झरे हैं"

 लगता है मन के आँगन मेंं
 हरसिंगार के फूल झरे हैं।

दूर क्षितिज में बात चली है,
बजने वाली है शहनाई,
ललछौंही लाली ऊषा की
लेती है ऐसी अँगड़ाई;

और लजाती कनबतियों के
लगते राज़ बड़े गहरे हैं!

 कब तक मन मारे बैठे वह
सूरज भी आता ही होगा,
फिर बारात तितलियों,कलियों,
अलियों की,लाता ही होगा;

मधुयामिनी निकट ही होगी
टूट गए सारे पहरे हैं!

 पोर-पोर रस-गन्ध रचाये
ठिठके,सकुचाये अमराई,
और चुहलबाजी करती सी
गली-गली मादक पुरवाई;

 बोला है मुँड़ेर पर कागा
 बिरहिन के भी दिन बहुरे हैं!

 लगता है मन के आँगन में
 हरसिंगार के फूल झरे हैं!!

दस

फिर पलाश वन दहक उठे हैं

फिर पलाश वन
 दहक उठे हैं,
 नयी आग के।।

 धधक उठे हैं
 बहुत दिनों के बाद
 दबे शोले,
रूपवन्त के 
आँगन मेंं
इच्छा के मुँहबोले;

आखर-आखर
 चहक उठे हैं
 दिन सुहाग के।।

थिरक रहे
 कोयल के स्वर में
 अमराई के बोल,
कलियों के 
अधरों से टपके है
 मकरन्द अमोल;

लगता है मन 
बहक उठे हैं,
 वीतराग के।।

सन्त बसन्त हुए,
 दिगन्त तक
 कन्त कहाँ दिखते...
फगुआये आँचल पर 
कितने छन्द
 यहाँ लिखते;

गदराये तन
 लहक उठे हैं,
 अंगराग के!!

ग्यारह

हम क्या जानें

 सूरज इतना
 आगबबूला क्यों है,
आखिर हम क्या जानें !

 नरम तबीयत है
मौसम की, 
गरम माथ है,
धूप तेज़ है,

मृगमरीचिकाओं का 
कोई किस्सा भी,
 सनसनीखेज़ है;

 अनचाहा कुछ
 हुआ यहां पर, 
मगर क्या हुआ, 
हम क्या जानें!

 टन्न हुई खोपड़ी,
 निकलते ही घर से
बैशाख आ गया,

लू का हरकारा,
 स्वाहा करने की
 लेकर डाक आ गया!

दुपहरिया में शिमला,
 जैसलमेर क्यों हुआ
 हम क्या जानें?

बड़े बाप की बेटी हैं
 सूरज की किरनें,
   जो ऐंठी हैं,

फुलबगिया का 
मुंह उतरा है
 मन मारे
 कलियां बैठी हैं;

 कोयल क्यों
 सौ चुप हजार चुप,
सन्न पड़ी है,
 हम क्या जानें ??

बारह

यहां पी गये ताल मछेरे

सपनों का संसार बेंचकर
 कितने मालामाल मछेरे!
बात मछलियों की क्या करना 
यहां पी गये ताल मछेरे!!

जाने कितने जाल छिपे हैं,
बंसी में कैसे चारे हैं,
 झूठे सम्मोहन में फंसते
हम भी कितने बेचारे हैं;

 चारे की तलाश में सारे
बगुले देखो भगत हो गये,

बात मछलियों की क्या करना 
यहां पी गये ताल मछेरे!
सपनों का संसार बेंचकर
 कितने मालामाल मछेरे!!

अपना यह परिवेश अकिंचन
कितना मैला और कुचैला,
और क्षितिज के पार देखना
 देवों का नन्दनवन फैला;

वहां नये आकाशद्वीप में
परियों के मेले में रहना,

 कहते हैं छोड़ो ये दुनियांदारी, 
सब जंजाल, मछेरे!
सपनों का संसार बेंचकर
 कितने मालामाल मछेरे!!

राजनीति की डायन को
 दामाद बहुत प्यारे होते हैं,
बच्चे भी खा जाती, जब
 सत्ता के गलियारे होते हैं;

 अपने मुंह मिट्ठू बनने की
 कोशिश में दिन-रात लगे हैं,

दुनियां भर को ज्ञान बांटते
बजा रहे बस गाल मछेरे!
सपनों का संसार बेंचकर
 कितने मालामाल मछेरे!!

तेरह

मौसम के बोल

बदल गये मौसम के बोल |
प्यार हुआ बाबा के मोल |

बौराये आमों के 
बासन्ती तूर्यनाद,
उल्लसित उमंगों के
समदर्शी सूर्यवाद ;

खुलती सी एक एक पोल !!

सरसों के रंगों में
खिलीं भावनायें,
जलतरंग-सी गुञ्जित
सभी कामनायें ;

आवारा हवा  रही तोल !|

कोमल किसलय 
रचते नये अनुप्रास,
ललक भरे टेसू-वन
करते  परिहास ;

कोयल स्वर में अमृत घोल !!

द्वारे गुनगुनी धूप
प्रणय-पत्र बाँचे,
गदराये अंग-अंग
में अनङ्ग नाचे ;

तन-मन के बदले भूगोल!!
बदल गये मौसम के बोल !!

चौदह

भटके   हुए   कबीर
     
अपनेपन की झरबेरी में
      अटके हुए कबीर।
देहरी-आँगन बाँट रहे हैं,
       भटके हुए कबीर।

 अँधियारे-उँजियारे जैसे
 पाले बँटे हुये,
अपनों के सम्मुख ही अपने
 वाले डटे हुए;

हुए हलाल किसी की खातिर 
झटके हुए कबीर !

मुल्ला पंडित झूठे थे
     अब खु़दाबन्द झूठा,
भाव-भक्ति की शाखें सूखीं
      मन-तरुवर ठूंँठा;

 डाल-डाल, बेताल सरीखे
 लटके हुए कबीर।

झीनी बिनी चदरिया के
 रेशे-रेशे ढीले,
मुई खाल की साँस मुई
 मौसम हैं जहरीले;

क्या काशी, क्या मगहर, 
    किस्से टटके हुए कबीर।
अपनेपन की झरबेरी में
     अटके हुए कबीर।
पन्द्रह

अभिसार के सपन

आँखों ने आँज लिए फिर
अनगिन अभिसार के सपन !!

फूलों को कौन क्या कहे,
कलियाँ भी हुईं बदचलन,
      काँटे महसूस कर रहे
      पोर-पोर से उठी चुभन;

जाने क्यों फूलने लगे
बात-बात में बबूल-वन।।

मन की हर हूक चूककर
सिहरन को ओढ़ सो गई,
   पसुरी-पसुरी की चिलकन
   पावस की पीर हो गई ;

असमन्जस में है मौसम,
सन्दली समीर की छुवन।।

बूंँद-बूंँद नेह की झरे
बदरी गाये गाँव-गाँव,
     मार टिहोका निकल गई
      बिजुरी कोई पाँव-पाँव;

नये-नये  दाँव खेल के
साँस-साँस की बढ़ी तपन।।

 आँखों ने आँज लिए फिर
अनगिन अभिसार के सपन !!

सोलह

घट-घट के हुए कबीर

समयशिला पर कालचक्र
के पटके हुए कबीर।
    ऐसा लगता है जैसे 
     घट-घट के हुए कबीर।

भेदभाव के रंग भरे कब
 अपनी चादर में,
 समरसता के चाव भरे सब
 आखर-आखर में;

द्वेष-जलन को शीतल-जल
 के मटके हुए कबीर। 
      ऐसा लगता है जैसे
       घट-घट के हुए कबीर।।

दुनियाँ के सारे आडम्बर 
को नंगा करके,
खरी-खरी कंचन-सी बानी
 को गंगा करके,

जीते-मरते बोलो कब
 बेखटके हुये कबीर।
     अब तो लगता है जैसे
      घट-घट के हुए कबीर!!

राई को पर्वत करके
उत्तुंग शिखर होना,
   एकीकृत प्रतिरूप कई
     जीवन्त-मुखर होना;

अपने चिन्तन में दरपन से
    चटके हुए कबीर!!
अब तो लगता है जैसे
    घट-घट के हुए कबीर!!