मंगलवार, 8 अगस्त 2023

डॉ कैलाश सुमन की कविताएँ

डॉ कैलाश सुमन की कविताएँ

एक

तब बंदर को हुआ जुखाम

हद से ज्यादा खाये आम।
तब बंदर को हुआ जुखाम।।

ठंडा गरम साथ में खाता।
ऊपर से पानी पी जाता।।

खूब नहाता सुबहोशाम।
तब बंदर को हुआ जुखाम।।

छींक छींक कर सर चकराया।
टूटा बदन ताप भी आया।।

नाक हो गई उसकी जाम।
तब बंदर को हुआ जुखाम।।

बंदर ने भालू बुलबाया।
भालू ने काढ़ा पिलबाया।। 

मला माथ पर झंडू बाम।
तब छू मंतर हुआ जुखाम।।

दो

कुंभकार की व्यथा कथा

दिनभर माटी में रहता है,
माटी से बतियाता।
कुंदन जैसा तपा तपा कर,
सुंदर कुंभ बनाता।।

कभी बनाता टेसू झेंझी
डबुआ दीप सरैया।
कभी भव्य प्रतिमा देवी की,
राधा संग कन्हैया।।

भिन्न भिन्न आकृतियाँ देता,
सुंदर उन्हें सजाता।
गोल गोल धरती के जैसी,
गुल्लक सुघड़ बनाता।।

भोर भये से सांझ ढले तक,
दिन भर चाक चलाता।
इतनी मेहनत करने पर भी,
पेट नहीं भर पाता।।

विधुत और मोम के दीपक,
छीन रहे हैं रोटी।
थरमाकौल छीनता उसके,
तन पर बची लंगोटी।।

बिचे खेत खलिहान बिच गये,
गदहा और मढैया।
कुंभकार का चैन छिन गया,
दिन में दिखीं तरैया।।

मत भूलो मिट्टी को बच्चों,
इसका त्याग न करना।
मिट्टी से ही जन्म मिला है,
मिट्टी में ही मरना

तीन


जंगल की दीवाली

जंगल के कोने कोने की,
सबने करी सफाई।
सभी जानवर खुश थे सुनकर,
दीपमालिका आई।।

लीप रही बिल्ली जंगल को,
चिड़िया चौक पुराये।
सरपट भाग भागकर हिरनी,
वंदनवार सजाये।।

लाया शहद बहुत सा भालू,
हाथी गन्ने लाया।
बंदर लाया केक शहर से,
सबको खूब खिलाया।।

लक्ष्मी मां की करी आरती,
मोदक भोग लगाये।
दे मैया आशीष, वनों में,
सुख समृद्धि आये।।

खूब चलाई आतिशबाजी,
होता धूम धडाका।
तभी कहीं से सिंह शिशु पर,
आकर गिरा पटाखा।।

पडा़ रंग में भंग जल गया,
शेर शिशु बेचारा।
नहीं समय पर मिली चिकित्सा,
असमय स्वर्ग सिधारा।।

दूर रहो आतिशबाजी से,
नहीं पास में आओ।
सिर्फ फुलझड़ी और चिटपिटी,
जी भर आप चलाओ।।

 चार

बिल्ली, 
में आऊँ, में आऊँ कहकर, 
में आवाज लगाती। 
दूध,  मलाई, रबडी़, चूहे, 
ढूँढ ढूँढ कर खाती।। 

दी मेने तालीम शेर को, 
सब कुछ उसे पढ़ाया। 
किंतु पेड़ पर चढ़ना बच्चों, 
कभी नहीं सिखलाया।। 

कभी राम का नाम न लेती, 
सौ सौ चूहे खाती। 
पापों का प्रायश्चित करने, 
हज करने को जाती।।

दिखने में बेशक छोटी हूँ, 
नही उड़ाना खिल्ली। 
लगूँ शेर की माँसी बच्चों, 
नाम मेरा है बिल्ली।।

पाँच

पंसारी 
एक हरद की गाँठ मिल गई, 
धनिया, मिर्च, सुपारी।
इन चीजों को पाकर चूहा, 
बन बैठा पंसारी।। 

मद में चूर हुआ पाखंडी, 
सबको आँख दिखायें। 
सिर्फ तनिक सा धन पाकर के, 
वो भारी इतरायें।। 

चोर घुसे चूहे के घर में, 
लूटी हरद सुपारी। 
चूहे राजा पंसारी से, 
पल में हुये भिखारी।। 

अहंकार मत करो कभी भी, 
सहज सरल बन जाओ। 
मीठी वाणी बोल जगत में, 
बच्चों नाम कमाओ।।


छह


सूरज चाचा


उठ भुनसारे सूरज चाचा,
मेरी छत पर आते।
बिना भेद के सब बच्चों को,
जमकर धूप खिलाते।।

में भी उन्हें खिलाने माँ से,
हलवा पूड़ी लाता।
लेकिन उनके मुख तक मेरा,
हाथ पहुँच ना पाता।।

मेरा भाव देखकर चाचा,
मन ही मन मुस्काते।
अगले दिन खाने की कहकर,
बादल में छुप जाते।।

डॉ कैलाश गुप्ता सुमन
मुरैना मध्यप्रदेश

सोमवार, 7 अगस्त 2023

कवि सौरभ पाण्डेय जी की बाल-रचनाएँ प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग

सौरभ पाण्डेय जी की
बाल-रचनाएँ
प्रस्तुति
वागर्थ
ब्लॉग और फेसबुक समूह


    कवि : सौरभ पाण्डेय

एक
ठंढा-ठंढा बहता पानी 

चलो नहायें उछल-कूद के 
ठंढा-ठंढा बहता पानी 

गर्मी के मौसम में आखिर 
चलती गर्मी की मनमानी 
चापाकल का या नदिया का 
या फिर तालाबों का पानी 
राहत देगा अगर नहायें 
क्यों करनी फिर आनाकानी 
चलो नहायें उछल-कूद के 
ठंढा-ठंढा बहता पानी 

कुदरत के वरदान सरीखे 
सतत धार में बहने वाले 
झरनों का व्यवहार समझते 
जंगल-पर्वत रहने वाले  
हम शिक्षित हैं, हम शहरी हैं  
कुदरत की क्यों बात न मानी ? 
चलो नहायें उछल-कूद के 
ठंढा-ठंढा बहता पानी 

स्वच्छ रहे पर्यावरण यह 
तभी अर्थ है इस जीवन का 
घर-बाहर जब गन्दा-मैला 
क्या हित सधता है तन-मन का ?
’जल ही जीवन है’ सब कहते 
बात न कहनी, है अपनानी. 
चलो नहायें उछल-कूद के 
ठंढा-ठंढा बहता पानी 


दो
गर्मी-छुट्टी 
हम हैं क्या ?.. आज़ाद पखेरू ! 
जबसे गर्मी-छुट्टी आई ! 

नहीं सुबह की कोई खटपट 
विद्यालय जाने की झटपट 
सारा दिन बस धमा चौकड़ी 
चिन्ता अब ना, कोई झंझट 
तिस पर रह-रह माँ की घुड़की -
’क्यों बाहर हो, करूँ पिटाई..?’
हम हैं क्या ? आज़ाद पखेरू.. ! 
जबसे गर्मी-छुट्टी आई ! 

होमवर्क भी कितना सारा 
अपनी मम्मी एक सहारा 
प्रोजेक्टों का बोझ न कम है 
याद करें तो चढ़ता पारा 
साथ खेल के गर्मी-छुट्टी 
कितनी--कितनी आफत लाई 
हम हैं क्या ? आज़ाद पखेरू.. ! 
जबसे गर्मी-छुट्टी आई ! 

बहे पसीना जून महीना 
निकले सूरज ताने सीना 
डर से उसके सड़कें सूनी 
अंधड़ लू के, मुश्किल जीना  
शरबत आइसक्रीम वनीला 
चुस्की राहत बरफ-मलाई !
हम हैं क्या ? आज़ाद पखेरू..
जबसे गर्मी-छुट्टी आई ! 

तीन

मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं  

मेरे साथ कई लफ़ड़े हैं  
किसकी-किसकी बात करूँ मैं, 
सबके सब बेहद तगड़े हैं 

एक भोर से लगे पड़े हैं 
घर में सारे लोग बड़े हैं
चैन नहीं पलभर को घर में
मानों आफ़त लिये खड़े हैं
हाथ बटाया खुद से जब भी, 
’काम बढ़ाया’ थाप पड़े 

घर-पिछवाड़े में कमरा है
बिजली बिन अंधा-बहरा है 
इकदिन घुस बैठा तो जाना
ऐंवीं-तैंवीं खूब भरा है
पर बिगड़ी वो सूरत, देखा
बालों में जाले-मकड़े हैं 

फूल मुझे अच्छे लगते हैं  
परियों के सपने जगते हैं
रंग-बिरंगे सारे सुन्दर 
गुच्छे-गुच्छे वे उगते हैं 
उन फूलों से बैग भरा तो 
सबके सब मुझको रगड़े हैं

चार
बालगीत-कथा: चिड़िया और बन्दर
 
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें 
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से ! 

किसी पेड़ पर चिड़िया का था 
एक घोंसला छोटा-सुन्दर 
चीं-चीं करते बच्चे उसके 
साफ-सफाई बहुत वहाँ पर    
दूर कहीं से बन्दर आया 
देख चकित था इतने भर से ! 
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें 
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से ! 

चिड़िया बोली, ’आओ भाई’  
लगी पूछने पता-ठिकाना 
बेघर बन्दर जल-भुन बैठा 
समझा, चिड़िया मारे ताना -
’चिड़िया को औकात बताऊँ 
ज़हर भरी है यह अंदर से..’
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें 
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से ! 
 
बादल आये तभी घनेरे 
लगा बरसने झमझम पानी 
बच्चों के संग छिपी घोंसले 
दुबक गयी फिर चिड़िया रानी 
लेकिन बन्दर रहा भीगता 
उबल रहा था वह भीतर से 
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें 
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से ! 

देखा आव न ताव झपट कर 
बन्दर जा पहुँचा उस डाली 
एक झटक में नोंच घोंसला 
उसने खुन्नस खूब निकाली
तिनका-तिनका बिखर गया था  
उजड़ गया था साया सर से 
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें 
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से ! 

सही कहा है कभी मूर्ख से 
बिना ज़रूरत बात न करना 
करो मित्रता, सोच-समझ कर 
करे डाह जो हाथ न धरना  
समझ गयी ये चिड़िया भी सब 
बेघर आज हुई जब घर से 
बच्चो आओ, तुम्हें बतायें 
क्या सीखी चिड़िया बन्दर से ! 


सौरभ पाण्डेय, 
भोपाल (मप्र) 
सम्पर्क : 9919889911
प्रस्तुति

शनिवार, 5 अगस्त 2023

धरम की ध्वजा ले खड़े चौधरी जी
_________________________

          उठो रे सुज्ञानी जीव, जिनगुण गाओ रे! निशि तो नसाई गई भानु को उद्योत भयो ध्यान को लगाओ प्यारे नींद को भगाओ रे 
             उठो रे सुज्ञानी जीव !
        आदरणीय प्रमोद भाईसाहब से सबसे पहले परिचय का आधार, जहाँ तक मुझे स्मरण है, यही पँक्तियाँ बनी थी। जैन नगर में स्थित नन्दीश्वर जिनालय के किसी आयोजन में भाईसाहब यह पद डूब कर पढ़ रहे थे। पद शैली की अदायगी में एक किस्म का आकर्षण था जिसे सभागार में विराजमान हर एक भावक मन महसूस कर सकता था।
         आरम्भिक परिचय से उनके सरल-तरल मन और भक्ति-भाव की आस्तिकता के आस्वाद को आसानी से पहचाना जा सकता था। भाईसाहब का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी है। उनके कृतित्व का आँकलन उनके द्वारा पोषित, संचालित और निर्देशित संस्थानों से होता जो उनके संरक्षण में निरन्तर फल और फूल रही हैं।
राजधानी भोपाल से पहले ऐतिहासिक नगरी चन्देरी इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। फिर बात चाहे,औषधालय की हो या पाठशाला की या फिर शैक्षणिक संस्थान की। उन्होंने जो काम अपने हाथ में लिया उसे प्राणपण से पूरा किया।
          आज तीर्थ धाम नन्दीश्वर जी की धमक पूरे भारत में महसूस की जा सकती है। अपने आप में अनूठा और अद्वितीय तीर्थ। यह सब प्रमोद भाईसाहब की निष्ठा और लगन का सुपरिणाम है।
      प्रमोद जी, समाजसेवियों में अनूठे और विरल हैं जो, समाज को एकसूत्र में पिरोंने की सोच रखते हैं और तदनुरूप योजनाओं का क्रियान्वयन भी करते हैं।
धर्मआयतनों का संरक्षण हो या कोई अन्य धार्मिक अनुष्ठान भाईसाहब की भूमिका सदैव अग्रणी होती है।
              आज हमारी समाज के गौरव और समाज के रत्न आदरणीय प्रमोद भाई साहब जी का जन्मदिन है। इस अवसर पर प्रसंगवश मुझे तुलसी का एक दोहा याद आ रहा है, जो मैं पूरी समाज की तरफ से, आदरणीय भाईसाहब को पूरी निष्ठा के साथ समर्पित करना चाहता हूँ।
तुलसी कहते है कि-
                      "मुखिया मुख सो चाहिये, खान पान को एक। पाले पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।
                    यह हम सबका सौभाग्य है कि हम लोग भी तुलसी के दोहे में वर्णित ऐसे ही मुखिया के संरक्षण में, विभिन्न संस्थाओं से जुड़कर उनके अनुभव संसार से बहुत कुछ सीख रहे हैं।
               प्रमोद भाईसाहब शतायु हों! स्वस्थ्य रहें! और हम सबको अपने स्नेह और आशीर्वाद से अभिसिंचित करते रहें। भाईसाहब के प्रेरक व्यक्तित्व और कृतित्व से बहुत कुछ ग्रहण किया जा सकता है। आप उन्हें कभी भी, कहीं भी,  किसी भी, समय धार्मिक अनुष्ठान या धर्मायतन की चर्चार्थ आमन्त्रण दें,!
        भाई साहब धरम की ध्वजा लेकर अग्र पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे।

मनोज जैन "मधुर"
_____________
106, विट्ठलनगर
गुफामन्दिर रोड
लालघाटी भोपाल
462030

         





उठो रे सुज्ञानी जीव,जिनगुण गाओ रे
निशि तो नसाई गई भानु को उद्योत भयो
ध्यान को लगाओ प्यारे नींद को भगाओ रे उठो रे सुज्ञानी जीव
भववन चौरासी बीच,भ्रमे तो फिरत नीच
मोहजाल फन्द परयो,जन्म-मृत्यु पायो रे उठो रे सुज्ञानी जीव
आरज पृथ्वी में आय, उत्तम जन्म पाये
श्रावक कुल को लहाये,
मुक्ति क्यों न जाओ रे॥ 
उठो रे सुज्ञानी
विषयनि राचि-राचि, बहुविधि पाप साचि-२
नरकनि जायके, अनेक दुःख पायो रे ॥ उठो रे सुज्ञानी. ॥४॥
पर को मिलाप त्यागि, आतम के जाप लागि-२
सुबुद्धि बताये गुरु, ज्ञान क्यों न लाओ रे॥ उठो रे सुज्ञानी. …॥५॥


शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

जन्म दिन पर विशेष आलेख

जन्मदिन पर विशेष
सौजन्य मुकेश अनुरागी जी

प्रस्तुति वागर्थ

आलेख 
भारत यायावर

सुबह फोन उठाया तो किसी की पोस्ट से पता चला कि आज  Anil Janvijay  जी का जन्मदिन है। फेसबुक नोटिफिकेसन नहीं भेजता, भेजता भी हो तो हमें नहीं दिखता । करीब दो -तीन पहले एक रात गूगल पर कुछ पढ़ने के क्रम में भारत यायावर जी के इस संस्मरण पर नजर पड़ी , पढ़ना शुरू किया तो दम साधे पूरा पढ़ गई और हर बात यह पुख्ता करती चल रही थी कि ऐसे ही तो हैं अनिल जी जैसा भारत जी ने लिखा। उन्होंने मित्रतावश कहीं भी अतिश्योक्ति नहीं लिखी वरन अनिल जी की शख्सियत में जो पाया वह लिखा । आज भारत जी नहीं हैं, उनके न रहने पर एक आनलाइन कार्यक्रम में अनिल जी की सजल आँखें और भर्राया गला आज तक याद है हमें ।
       जब यह संस्मरण ' पहली बार ' पर पढ़ा तो सोचा कि इसे शेयर करूँ , फिर सोचा , फिर कभी । हमें लगता है आज का दिन मुफ़ीद है इसके लिए -

आइए पढ़ते हैं ' पहली बार ' से साभार यह संस्मरण
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साहित्य में मित्रता की तमाम मिसालें हैं। उनमें से एक मिसाल अनिल जनविजय और भारत यायावर  की दोस्ती की है। भारत यायावर ने वर्ष 2012 में अपने मित्र अनिल जनविजय पर  एक संस्मरण लिखा था। यह संस्मरण इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें तमाम वे बातें भी समाहित हैं, जिनसे मिल कर ही हिन्दी साहित्य का वितान बनता है। कवि, अनुवादक और उम्दा इंसान अनिल जनविजय के जन्मदिन पर उन्हें बधाई देते हुए आज पहली बार पर प्रस्तुत है भारत यायावर का संस्मरण

 'यारों का यार अनिल जनविजय'।

 - भारत यायावर

अनिल! दोस्त, मित्र, मीत, मितवा! मेरी आत्मा का सहचर! जीवन के पथ पर चलते-चलते अचानक मिला एक भिक्षुक को अमूल्य हीरा। निश्छल - बेलौस - लापरवाह - धुनी - मस्तमौला - रससिद्ध अनिल जनविजय!

जब उससे पहली बार मिला, दिल की धड़कनें बढ़ गईं, मेरे रोम-रोम में वह समा गया। क्यों, कैसे? नहीं कह सकता। यह भी नहीं कह सकता कि हमारे बीच में इतना प्रगाढ़ प्रेम कहाँ से आ कर अचानक समा गया? अनिल को बाबा नागार्जुन मुनि जिनविजय कहा करते थे। उन्होंने पहचान लिया था कि उसके भीतर कोई साधु-संन्यासी की आत्मा विराजमान है। वह सम्पूर्ण जगत को प्रेममय मान कर एक अखण्ड विश्वास और निष्ठा के साथ उसकी साधना करता है, जिस तरह तुलसीदास इस जगत को राममय मान कर वंदना करते थे – 

जड़ चेतन जग जीव जल - सकल राममय जानि
बंदऊँ सब के पद कमल, सदा जोरि जुग पानि

वह प्रेम का राही है! जो भी प्यार से मिला, वह उसी का हो लिया। इसके कारण उसने जीवन में बहुत दुख-तकलीफ़ उठाई है, काँटों से भरी झाड़ियों में भी कभी गिरा है, कभी अंधेरी खाइयों में। कई बार वह बेसहारा हुआ है। धोखा खाया है, ठगा गया है -- पर कभी किसी को आघात नहीं पहुँचाया है, किसी का नुकसान नहीं किया है। ठोकर खा कर भी फिर ठोकर खाने के लिए तैयार खड़ा रहता है। वह अक्सर शमशेर बहादुर सिंह का यह शेर गुनगुनाता रहता है -

जहाँ में और भी जब तक हमारा जीना होना है
तुम्हारी चोटें होनी है, हमारा सीना होना है

28 जुलाई, 2012 को वह पचपन साल का हो गया, तो मुझे आश्चर्य हुआ। पचपन साल की उम्र कम नहीं होती। आदमी बूढ़ा हो जाता है। तन और मन शिथिल। पर उसका तन अब भी जवान है और मन एक बालक की तरह तरल, सरल, विकार रहित। उसमें अब भी एक भोलापन है वह बेपरवाह है। झूठ-बेईमानी से वह कोसो दूर रहता है।

बचपन उसका अभावों से भरा था। असमय माँ की मृत्यु हो जाने से मानो उसकी हरी-भरी दुनिया ही लुप्त हो गई। एक बंजर और बेजान मनोभूमि में लम्बे समय तक रह कर भी उसने अपनी पढ़ाई को जारी रखा। फिर पढ़ाई करते हुए वह कविताएँ लिखने लगा। कविता ने उसे संबल दिया और एक जीवन-दृष्टि दी। 1977 में बीस वर्ष की उम्र में उसने एक कविता लिखी - ‘मैं कविता का अहसानमंद हूँ’। यह एक युवा कवि की अद्भुत कविता है। इसे आप भी पढ़िए -

“यदि 
अन्याय के प्रतिकार स्वरूप 
तनती है कविता, 
यदि 
किसी आने वाले तूफान का 
अग्रदूत बनती है कविता, 
तो मैं कविता का अहसानमंद हूँ।“

उसकी कविताएँ पहली बार 1977 ई॰ में ‘लहर’ में छपीं और 1978 ई॰ में ‘पश्यंती’ के कविता-विशेषांक में। वह दिल्ली से प्रकाशित उस समय की ‘सरोकार’ नामक पत्रिका से जुड़ा था और उसमें पहली बार उसके द्वारा अनूदित फिलीस्तीनी कविताएँ छपी थीं। यहीं से उसकी कविता और काव्यानुवाद का सिलसिला शुरू हुआ और साथ ही साथ 1978 ई॰ के प्रारम्भ से ही मेरे से पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। मैं भी तब नवोदित था और हजारीबाग से ‘नवतारा’ नामक एक लघु-पत्रिका निकालता था। अनिल ने दिल्ली में हुई एक साहित्यिक गोष्ठी की रपट मुझे भेजी थी, जिसे मैंने प्रकाशित किया था। फिर उसकी कुछ लघुकथाएँ भी मैंने ‘नवतारा’ में प्रकाशित की थी।

हम लोगों में पत्राचार के द्वारा जो संवाद शुरू हुआ वह बाद में प्रगाढ़ आत्मीयता में बदल गया। उससे पहली बार भेंट 1980 ई० के अक्टूबर महीने में हुई जब मैं रमणिका गुप्ता (जी) के साथ दिल्ली गया था और कस्तूरबा गांधी रोड पर उनके पति के निवास पर ठहरा था। तब अनिल का पता था - 4483, गली जाटान, पहाड़ी धीरज, दिल्ली - 6, इसी पते पर वह पत्राचार करता था। यहाँ उसकी बुआ रहती थी, जो अनिल को अपने बेटे की तरह मानती थीं।

मैं खोजते-खोजते जब वहाँ पहुँचा तो अनिल तो नहीं मिला, किन्तु उसकी बुआ जी अनिल के नाम लिखे मेरे पत्रों को पढ़ती रहती थीं और मुझे बखूबी जानती थीं। जब मैंने अपना नाम बताया, तब उन्होंने मुझे नाश्ता-चाय करवाया और देर तक बातचीत की। अनिल ने तब जे०एन०यू० के रूसी भाषा विभाग में अपना दाखिला ले लिया था और सप्ताह में एक दिन अपनी बुआ से मिलने आता था। मैंने अपना दिल्ली-प्रवास का पता वहाँ लिख कर छोड़ दिया। उस समय राजा खुगशाल से भी मेरा पत्राचार होता था। वह नेताजी नगर में रहता था। वहाँ पहुँचा तो मालूम हुआ कि शकरपुर में नया किराये का आवास ले लिया है और वहीं चला गया है। पड़ोसी ने बताया कि अभी कुछ सामान ले जाना बाकी है, इसलिए वे फिर आएँगे। मैंने राजा के नाम भी एक पत्र वहाँ छोड़ दिया। कुछ ही दिनों बाद अनिल और राजा दोनों मेरे से मिलने आए। अलग-अलग। अनिल मुझसे मिला और मुझे अपने साथ जे०एन०यू० ले गया। उसी समय हमने केदारनाथ सिंह का इण्टरव्यू लिया। मैंने तब एक लम्बी कविता लिखी थी -- ‘झेलते हुए’। अनिल ने ही उसे शाहदरा से तीन-चार दिनों के भीतर छपवा दिया था और उस कविता पर एक छोटी-सी टिप्पणी भी लिखी थी जो इस प्रकार है:

 “1980 कविता के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। एक तरह से इस वर्ष कविता पुनः साहित्य की मुख्य विधा के रूप में उभर कर आई है। न केवल आज के प्रमुख कवियों की कविताएँ बल्कि अनेक पुराने और बेहद पुराने कवियों के संग्रह भी इस वर्ष आए हैं। कविता के ऐसे समय में किसी नए कवि के लिए अचानक उभरना और साहित्य में अपना स्थान बना लेना बेहद कठिन है।

भारत यायावर अपनी कविताओं की प्रखरता की वजह से इस संघर्षविपुल वर्ष में ही उभर कर आए हैं। यायावर ने बहुत कम लिखा है; पर जो भी लिखा है, जितना भी लिखा है, उसमें उनकी चेतनासम्पन्न संवेदनशीलता के चलते वे सभी स्थितियाँ उजागर होती हैं, जिनसे आज का आम आदमी जूझ रहा है। हमारे देश का तथाकथित जनतंत्र और निठल्ली व्यवस्था किस तरह व्यक्ति को सामर्थ्यहीन और दुर्बल बना देती है, इसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति वे अपनी कविताओं में कर पाए हैं।

भारत यायावर की कविता ‘झेलते हुए’ उनके उन दिनों की उपलब्धि है, जब वे भयानक मानसिक तनावों से जूझ रहे थे। हो सकता था इन तनावों के रहते वे अन्तर्मुखी होकर निस्संग निजता की रचनाएँ भी रचने लग जाते पर अपने मानवीय बोध की सम्पन्नता, सहजता और निरन्तरता के कारण उनकी दृष्टि आत्मनिष्ठता की न हो कर आत्मनिष्ठ वस्तुनिष्ठता की रही, जिसके चलते वे इतनी सार्थक कृति देने में सक्षम हो सके।"

इतना प्रांजल और सधा हुआ गद्य अनिल जनविजय उस समय लिखता था। मुझे याद है 1982 ई० की गर्मियों में मैं जब उसके साथ लम्बे समय तक जे॰एन॰यू॰ के पेरियार हॉस्टल में था, तब उसने अज्ञेय के कविता-संग्रह ‘नदी की बाँक पर छाया’ पर एक अद्भुत समीक्षा लिखी थी, जो ‘आजकल’ में छपी थी और जिसे अज्ञेय ने बड़ी ही रुचि ले कर पढ़ी थी। और लोगों से इसकी चर्चा भी की थी। अनिल ने छिटपुट गद्य-लेखन किया है, कविताएँ भी कम लिखी हैं, पर बहुत ज्यादा संख्या में विदेशी कविताओं के हिन्दी अनुवाद किए हैं।

अनिल और राजा से मेरी दोस्ती का सिलसिला तब से अब तक बरकरार है और ताउम्र यह चलता रहेगा। जीवन के अनेक प्रसंग हैं, जिन्हें यदि लिपिबद्ध किया जाए तो एक मोटा ग्रंथ बन जाए। उन्हें छोड़ रहा हूँ। अनिल के साथ मैं जितना भी रहा हूँ, वे मेरे प्रेम और हरियाली के क्षण हैं, जिन्हें भुलाना मेरे लिए मुश्किल है।

1981 ई० के दिसम्बर महीने में अनिल पहली बार हजारीबाग आया था। करीब एक सप्ताह के बाद हम दोनों रमणिका गुप्ता के साथ पटना गए थे। वहाँ नंदकिशोर नवल, अरुण कमल से भेंट हुई थी। 1981 ई० में ही पटना से प्रकाशित ‘प्रगतिशील समाज’ (जिसका मैं हंसराज के साथ संपादन करता था) के दो अंक कवितांक के रूप में निकले थे, जिसकी सामग्री अनिल की ही संयोजित की हुई थी। हंसराज का असली नाम श्यामनंदन शास्त्री था और वे पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक थे। हम उनसे भी मिले थे। उनसे कवितांक के अतिथि संपादक के रूप में जो उसने काम किया था, पारिश्रमिक के रूप में दो सौ रुपये अनिल को मिले। इस राशि से राजकमल प्रकाशन के पटना शाखा से उसने किताबें खरीदी थीं और एक नवोदित कवि को भेंट कर दी थी।

पटना से हम भोपाल गए थे और राजेश जोशी के घर ठहरे थे। वहाँ उदय प्रकाश से मेरी पहली बार भेंट हुई थी। भोपाल से फिर जबलपुर गए थे और ज्ञानरंजन जी के यहाँ पहली बार हमारा जाना हुआ था। उसी समय हरि पभटनागर और लीलाधर मंडलोई से पहले-पहल मिलना हुआ था। वहाँ से हम इलाहाबाद आ गए थे। उसी यात्रा के दौरान अनिल और मैंने विपक्ष-सीरीज में वैसे युवा कवियों के संग्रह प्रकाशित करने की योजना बनाई थी,जिनके संग्रह प्रकाशित नहीं हुए थे। इसी सीरीज के अन्तर्गत मैंने मार्च, 1982 ई० में स्वप्निल श्रीवास्तव की कविता-पुस्तिका ‘ईश्वर एक लाठी है’ प्रकाशित की थी। 1982 के जून महीने में मैंने अनिल जनविजय का कविता-संग्रह ‘कविता नहीं है यह’ प्रकाशित किया था। यहाँ यह भी बता दूँ कि इस सीरीज के अन्तर्गत बाद में राजा खुगशाल, श्याम अविनाश, उमेश्वर दयाल और हेमलता के संग्रह मैंने प्रकाशित किए थे। इसी के अन्तर्गत 'समकालीन फिलीस्तीनी कविताएँ’ नामक पुस्तक भी छपी थी, जिसका अनुवाद अनिल ने ही किया था।

अनिल को रूसी भाषा और साहित्य में उच्च अध्ययन के लिए सोवियत सरकार की फेलोशिप मिली ओर अगस्त, 1982 ई० में मास्को विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वह मास्को चला गया। वहाँ उसने 1989 में मास्को स्थित गोर्की लिटरेरी इंस्टीट्यूट से सर्जनात्मक लेखन में एम०ए० की डिग्री हासिल की। वह 1984 ई. में वहीं की एक लड़की नाद्या के साथ विवाह-बंधन में बंध चुका था। 1985 ई० में उसकी बेटी रोली का जन्म हुआ, जो जापानी भाषा में एम०ए० कर एक रूसी विश्वविद्यालय में जापानी भाषा-साहित्य की प्राध्यापक है।

1996 ई॰ में उसने स्वेतलाना कुज़मिना नामक एक लड़की से शादी की, जिससे उसके तीन बेटे हैं - विजय, वितान और विवान। तीनों बेटे अभी पढ़ रहे हैं। नाद्या से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है। वह घर-गृहस्थी में रमा हुआ है। पर उसके हृदय में सबसे अधिक प्यार कविता के प्रति है। यह प्यार ऐसा है जो उसके दिल में इतना रचा-बसा है कि निकलने का नाम ही नहीं लेता। उसने अपनी लाखों की राशि खर्च कर
अन्तर्जाल पर हिन्दी-कविता के लिए ऐतिहासिक महत्त्व का काम करवाया - ‘कविता-कोश’। वह रोज़ कविता लिखना चाहता है, पर बहुत कम लिख पाता है। अपनी पचपन वर्ष की उम्र में अब तक उसने संख्या में सौ कविताएँ भी नहीं लिखी हैं। वह कविता लिखने बैठता है, तो अनुवाद करने लग जाता है। इसलिए वह कवि बनते-बनते रह गया और एक सफल तथा अच्छा अनुवादक बन गया।

‘कविता नहीं है यह’ में उसकी 1982 तक की कविता है। 1990 तक की लिखी कुछ और कविताएँ जोड़कर 1990 ई० में उसका दूसरा कविता-संग्रह छपा ‘माँ बापू कब आएँगे’ इसे उसने उदय प्रकाश के आग्रह पर छपवाया और 2004 में कुछ कविताओं का और इजाफा हुआ तो उसका तीसरा संग्रह आया ‘रामजी भला करें’। यह उसकी एक लघु कविता है किन्तु बेहद अच्छी --

ऐसा क्यों हुआ है आज
हिन्दू से मुस्लिम डरें
कैसा ज़माना आ गया
रामजी भला करें

अब भी वह इस तरह की छोटी मगर सार्थक कविताएँ लिख लेता है, पर कभी-कभार। कभी-कभी वह तुक-बंदियाँ भी कर लेता है। तुक मिलाने में वह आधुनिक कविता का मैथिलीशरण गुप्त है। एक तुकबंदी उसने मुझको भी ले कर लिखी है। इस कविता में मेरे से उसके असीम लगाव के साथ-साथ अपनी धरती से विलग होने की मर्मांतक पीड़ा भी है :

भारत, मेरे दोस्त! मेरी संजीवनी बूटी
बहुत उदास हूँ जबसे तेरी संगत छूटी

संगत छूटी, ज्यों फूटी हो घी की हांडी
ऐसा लगता है प्रभु ने भी मारी डांडी

छीन कविता मुझे फेंक दिया खारे सागर
औ’ तुझे साहित्य नदिया में, भर मीठा गागर

जब-जब आती याद तेरी मैं रोया करता
यहाँ रूस में तेरी स्मृति में खोया करता

मुझे नहीं भाती सुख की यह छलना माया
अच्छा होता, रहता भारत में कृशकाया

भूखा रहता सर्दी-गर्मी, सूरज तपता, बेघर होता
अपनी धरती अपना वतन अपना भारत ही घर होता

भारत में रहकर, भारत, तू खूब सुखी है
रहे विदेस में देसी बाबू, बहुत दुखी है।

अपनी धरती, अपने यार-दोस्त से कट कर मास्को में रहता हुआ वह बेचैन रहता है। इसलिए जब भी आर्थिक स्थिति ठीक होती है वह दिल्ली आ जाता है। साल में एक-दो बार। यहाँ उसे चाहने वालों की भरमार है, पर वह सबसे नहीं मिल पाता। वह चाहता है सब दोस्तों से मिले -- गले लग कर और जी भर कर बतियाए, हँसी-मज़ाक करे, लड़े-झगड़े, मौज-मस्ती करे। मुझसे तो मिले बरसों हो जाते हैं। मैं दिल्ली से दूर रहता हूँ और दूर के मित्रों से मिलना थोड़ा मुश्किल होता है। पर अनिल एक नम्बर का गप्पी है।

बतरस में उसे बहुत मजा आता है। खाना मिले या नहीं, बतरस का सुख होना चाहिए। वह नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन से बराबर मिलता था, पर उसे बतरस का मजा त्रिलोचन के साथ मिलता था। 1980 ई० में उसने संभावना प्रकाशन के लिए त्रिलोचन का कविता-संग्रह ‘ताप के तापे हुए दिन’ शाहदरा में छपवाया था, जिसका संपादन राजेश जोशी के द्वारा किया गया था। 28 जुलाई 1980 को जब अनिल का तेईसवाँ जन्मदिन था, किताब छप कर आई और वह उसकी एक प्रति त्रिलोचन को देने उनके पास पहुँचा। किताब देख कर त्रिलोचन खुश हुए और वह प्रति उन्होंने अनिल को इन शब्दों में समर्पित कर दी -- “अनिल जनविजय को, जो कवि तो हैं ही, बतरस के अच्छे साथी भी हैं।“ अनिल ने उस किताब के अंत में एक तुकबंदी लिख दी, जो उसके कविता-संग्रह में नहीं है -

हिंदी के संपादक से मेरी बस यही लड़ाई
वो कहता है मुझसे, तुम कवि नहीं हो भाई
तुम्हारी कविता में कोई दम नहीं है
जनता की पीड़ा नहीं है, जन नहीं है
इसमें तो बिल्कुल भी अपनापन नहीं है
नागार्जुन तो हैं पर त्रिलोचन नहीं है

पर अनिल जनविजय, जो कवि तो है ही - जो कहता है वह मूर्ख है कि वह कवि नहीं है। कविता तो उसकी आत्मा में रची-बसी है। उसके भीतर यदि नागार्जुन है तो शमशेर भी और बतरस में तो वह त्रिलोचन का पक्का शिष्य है।

मुझे याद आता है, 5-6 जून, 1982 में इन्दौर में प्रगतिशील लेखक संघ के द्वारा ‘महत्त्व त्रिलोचन’ नामक एक आयोजन हुआ था। तब मैं अनिल के साथ ही जे०एन०यू० में ठहरा हुआ था। दिल्ली से उस समारोह में भाग लेने नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, राजकुमार सैनी, दिविक रमेश के साथ हम दोनों भी एक ही रेलगाड़ी के एक ही कोच में बैठ कर गए थे। बाबा नागार्जुन और केदार जी ऊपर के बर्थ पर जल्दी ही सोने चले गए थे। बाकी लोग त्रिलोचन के साथ बतरस में जुट गए। चर्चा के बीच में त्रिलोचन ने बताया कि दिविक रमेश में ‘दिविक’ का अर्थ है - दिल्ली विश्वविद्यालय कवि। मैंने कहा कि इसका दूसरा अर्थ है - दिशा विहीन कवि ! अनिल जनविजय ने तुरत तुक जोड़ दिया - और दिमाग विहीन कवि। दिविक रमेश मुस्कुराते रहे, गुस्सा नहीं हुए - यह उनका बड़प्पन था। फिर त्रिलोचन ने कवित-सवैयों की चर्चा शुरू की। यह विषय राजकुमार सैनी का प्रिय था। मैंने भी तब मध्यकालीन ब्रजभाषा काव्य के कई सवैये सुनाए। त्रिलोचन के पास तो कवित-सवैयों का अपार भण्डार था। उन्हें वे सहज भाव से धाराप्रवाह सुना रहे थे। बाबा नागार्जुन ऊपर के बर्थ पर सोये-सोये इस काव्य-चर्चा का आनंद ले रहे थे। और लगभग साढ़े ग्यारह बजे रात्रि से त्रिलोचन की सॉनेट-चर्चा शुरू हुई। आधा घंटा तक वे अनवरत सॉनेट की शास्त्रीय चर्चा करते रहे, तभी अचानक बाबा नागार्जुन ने तमतमाये चेहरे के साथ नीचे झाँका और त्रिलोचन को डाँटा -- “सॉनेट-सॉनेट सुनते-सुनते कान पक गए। बहुत हो गया सॉनेट ! त्रिलोचन, अब छोड़ो इस सॉनेट की चर्चा, सोने दो!“ त्रिलोचन चुपचाप सिकुड़ कर चादर ओढ़ कर सो गए और हम भी सो गए।

हम सुबह भोपाल पहुँचे। वहाँ राजेश जोशी, भगवत रावत आदि कई कवि अगवानी के लिए मौजूद थे। वहाँ चाय पी कर, सड़क मार्ग से हम लोग इन्दौर गए। ‘महत्त्व त्रिलोचन’ में शमशेर जी भी पहुँच गए थे। दोनों दिनों की गोष्ठी काफी अच्छी रही थी। उस गोष्ठी में उदय प्रकाश भी पहुँच गए थे और मुझे अपने साथ एक घंटे के लिए ले गए थे। अनिल ने पूरी गोष्ठी की रपट मोती जैसे अक्षरों में लिख कर ‘साक्षात्कार’ में छपने दिया था। उसने साक्षात्कार’ के संपादक सुदीप बनर्जी को एक पत्र लिख कर दिया था कि इस पर मिलने वाला मानदेय छपने के बाद भारत यायावर को दे दिया जाए। मुझे याद है, अगस्त, 1982 के अन्त में वह आगे के अध्ययन के लिए मास्को चला गया था, उसके बाद उसकी लिखी रपट का पारिश्रमिक पचास रुपये का मनीऑर्डर मुझे मिला था।

अनिल का ऐसा ही व्यक्तित्व है। बेहद मेहनती। कमाऊ। पर संग्रह करने की उसकी प्रवृत्ति नहीं है। जो भी मिला, उसे घर-परिवार में खर्च कर दिया। और बचा तो मित्रों में बाँट दिया। इतना शाहखर्च मैंने किसी और को नहीं देखा। वह यारों का यार है। सैकड़ों ही नहीं, उसके हजारों मित्र हैं। उस जैसा यारबाज आदमी इस दुनिया में मिलना मुश्किल है। मेरी और उसकी यारी नैसर्गिक है। हमारा दिल का रिश्ता है। इसीलिए मैंने अपना पहला कविता-संग्रह ‘मैं हूँ, यहाँ हूँ’ उसे ही समर्पित किया है। उसने मुझ पर कई कविताएँ लिखी हैं और मैंने भी उसपर जम कर लिखा है। मेरे दूसरे कविता-संग्रह ‘बेचैनी’ में उस पर दो कविताएँ हैं - ‘दोस्त’ और ‘दोस्त ऐसा क्यों हुआ’? ‘दोस्त’ कविता की प्रारम्भिक पंक्तियाँ हैं -

“दोस्त हजारों मील दूर/ विदेश में है/ लिखता है हर सप्ताह पत्र/ दुनिया के एक बड़े महानगर में रहता हुआ/ मेरे गाँव की पूरी तस्वीर देखता है -/ मेरे घर की गोबर लिपी धरती की गंध को/ मेरे खतों में पाता है/ और भावुक हो उठता है।“

 ‘दोस्त, ऐसा क्यों हुआ ?’ नामक कविता में मैंने लिखा था -- 

“दोस्त, ऐसा क्यों हुआ
 कि तुम हमेशा सोचते पागल हुए मेरे लिए
मैं तुम्हारे हेतु क्यों बेचैन घूमता ही रहा? ... 
दोस्त, ऐसा क्यों हुआ
कि अपने मस्तक पर लिये
पत्थर तनावों के चले हम
फिर भी हँसते ही दिखे चेहरे हमारे! 
दोस्त, कब तुमसे कहा?
तुमने कब मुझसे कहा? 
फिर भी हमने तो सुनी बातें हृदय की 
बातों में उलझी हुई साँसें समय की 
समय की आँखों से बहते अश्रुओं को 
 हाथ में रख कर चले हम साथ-साथ !”

अनिल और मेरा प्रारम्भिक जीवन बेहद अभाव और दुख-तकलीफ से भरा रहा है। पर हममें कर्मठता है, क्रियाशीलता है, लगन है, जो हमें जीवंत बनाए रहता है। वह बेलौस आदमी है। निखालिस आदमी -- जो किसी से ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखता, जिसके मन में किसी के प्रति गाँठ नहीं है। वह भोला-भला इन्सान है; ठीक रेणु के हीरामन की तरह। भावुक, संवेदनशील और प्रेमी इन्सान! वह पूरी तरह प्रेम से पगा है। जो भी उससे प्रेम से मिलता है, प्रेम से बातें करता है, वह अपना प्यार भरा दिल उसे सौंप देता है और मुस्कुराता रहता है। इसलिए आज की लाभ-लोभ भरी दुनिया में वह अजब, अलबेला, अनोखा और निराला लगता है। उसे अतीत की परवाह नहीं, भविष्य के बारे में ज्यादा नहीं सोचता -- सिर्फ वर्तमान में जीता है। पचपन की उम्र में भी इसीलिए वह जवान है, जिंदादिल है ।

- भारत यायावर
   2012

@everyone

शुक्रवार, 7 जुलाई 2023

सिंदूर जी का एक गीत


अनिल सिंदूर जी की वॉल से साभार
आज लगभग 40 वर्षों पूर्व एक स्टूडियो में ली गई तस्वीर श्री वीरेन्द्र आस्तिक जी के संग्रहालय से प्राप्त हुई जिसको बाबू जी के गीत के साथ पोस्ट करने का सम्मोहन मैं नहीं त्याग पाया। तस्वीर में बाबू जी तथा उनके अभिन्न सहयोगी रहे श्री वीरेन्द्र आस्तिक जी।
सादर धन्यवाद आदरणीय आस्तिक जी।

रात बीत जाये सपनों में 
दिन काटे न कटे ।
सब कुछ घट जाता है 
लेकिन जो चाहूँ न घटे ।

देहरी मुझको, मैं देहरी को
जैसे भूल गया हूँ ,
आस पास के लिए अजाना
मैं हो गया नया हूँ,
दूरी की खाई गहरी है
कोशिश से न पटे ।

अब भविष्यफल देखूँ-पूंछू 
यह उत्साह नहीं है,
छलनी-छलनी वसन किसी की
कुछ परवाह नहीं है,
आँधी चली, चीथड़ो-जैसे
कपड़े और फटे ।

मन की दशा कि जैसे पल-पल
अतल-वितल होती है,
श्वास-श्वास बरसात सावनी से
आँखें धोती हैं,
बौराये आमों के नीचे
बिसरे गीत रटे ।

मुझ पर गाली याकि दुआ का
असर नहीं होता है,
अंध गुफा में बैठ कौन है
जो कि नहीं रोता है,
मेरे प्राणों में क्या जाने
कितने गीत अटे ।

सहज भाव से अब मैं कुछ भी
सहने का आदी हूँ,
कोई मुझको कह देता है
पागल-उन्मादी हूँ,
जीवन के पट खुले, मृत्यु का
बोझिल भार हटे ।

प्रो. रामस्वरूप 'सिन्दूर'

शुक्रवार, 30 जून 2023

डॉ. अभिजीत देशमुख : लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ते कदम 

               डॉ.अभिजीत देशमुख जी को सबसे पहले निकट से जानने का अवसर आज से यही कोई चार वर्षपूर्व होटल लेकव्यूह अशोका में, उनके जन्मदिवस के उपलक्ष्य में आयोजित एक समारोह में हुआ था,जिसका आमन्त्रण मुझे इस आयोजन के मुख्य संयोजक सुबोध श्रीवास्तव जी के माध्यम से मिला था।
              इस अवसर पर डॉ साहब के उद्बोधन से कुछ ऐसे बिंदु उभरे जो मेरे लिए शोध का विषय थे, जिनका उत्तर खोजने में मुझे पूरे चार वर्ष लगे। मंथन और निष्कर्ष के बाद अब मैं यह कह सकता हूँ कि डॉ. देशमुख जी का उस दिन का उद्बोधन अपनी जगह सौ फीसदी सही था। जिस कथन में उन्होंने अपनी खुशियों को विशिष्ट मित्रों की बजाय साधारण मित्रों के साथ मिल बाँटकर साझा करने की बात स्वीकारी थी।
    डॉ अभिजीत देशमुख जी मूलतः महाराष्ट्र से आते हैं और इन दिनों मध्यप्रदेश की सक्रिय राजनीति से जुड़े हैं। उनका यह राजनैतिक जुड़ाव अनायास नहीं है। वे इस क्षेत्र में पूरी तैयारी और अनुभव के साथ यहाँ हैं। राजनीति राजनैतिक गुण उन्हें विरासत में मिले एक प्रश्न के उत्तर में वे अपने पॉलिटिकल बैकग्राउण्ड का जिक्र करते हुए अपने नाना जी को याद करते हैं जो वर्षों सांसद रहे। बात केवल ननिहाल पक्ष की नही उनकी चार-चार बुआ विधायक रही हैं। सार- संक्षेप में कहें तो मूल्य परक राजनीति से उनका जुड़ाव आरम्भ से है और वह अपने इस जुड़ाव का श्रेय अपने नाना जी को देते हैं। 
                 महाराष्ट्र से मध्यप्रदेश के छोटे से कस्बे शुजालपुर तक आते-आते बालक अभिजीत ने अपनी जीवन यात्रा के अनेक पड़ावों को पार किया और शुजालपुर के वातावरण माता-पिता के संस्कार आशीर्वाद ने उन्हें एक सफल शल्य चिकित्सक बना दिया। चिकित्सक बनने की प्रेरणा उन्हें अपने गृहनगर शुजालपुर में ही उनके एक पड़ोसी चिकित्सक से मिली जिनके यहाँ सैकड़ों की संख्या में बैलगाड़ियाँ कतारबद्ध मरीजों को लेकर डॉ साहब को दिखाने आया करती । उस भीड़ में कुछेक ऐसे भी होते जिनके हिस्से में केबल निराशा ही आया करती। 
           उस नैराश्य भाव को बालक अभिजीत ने ध्यान से पढ़ा और एक सेवाभावी चिकित्सक बनने का दृढ़ संकल्प संजोया। बचपन में संजोए स्वप्न और परिकल्पना को आज डॉ. अभिजीत देशमुख चिकित्सा केम्पों के माध्यम से मूर्तरूप दे रहे हैं। निःशुल्क चिकित्सा केम्पों का अच्छा खासा डाटा उनके समकालीन चिकित्सकों को स्पृहणीय है।
      डॉ.अभिजीत देशमुख जी इन दिनों बीजेपी चिकित्सा प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक हैं। प्रदेश की राजनीति में उनका खासा दखल भी है। एक अन्य प्रश्न के पूरक उत्तर में वे भारत के यशस्वी प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जी की आयुष्मान योजना को स्वयं का देखा स्वप्न मानते हैं। साथ ही ऐसी अनेक योजनाएं लेकर आना चाहते हैं जिनका सीधा जुड़ाव आम जनता से हो, जो धन के अभाव में अपना बेहतर इलाज़ नहीं करा पाते।
  
          मौत के मुँह से जीवन को खींच लाने वाले डॉ. अभिजीत देशमुख जी वर्तमान में अपनी पैथी के अत्यंत सफल शल्य चिकित्सक हैं। एक वार्ता में जब हमनें उनके संवेदनशील मन को छूने की कोशिश की तब उन्होंने एक ऐसी कॉम्प्लीकेटेड सर्जरी (लेप्रोटोमी) का जिक्र किया अत्यधिक रक्तस्राव के कारण असम्भव को सम्भव कर दिखाया। 
       हर सफल ऑपरेशन उन्हें अलौकिक सुख देता है। उनका कहना है कि हम चिकित्सक पूरी तरह रोगी के सुख दुख से स्वाभाविक जुड़ जाते हैं।  डॉ.अभिजीत देशमुख जी जीवन का पूरा आनन्द लेते हैं जब वह ऑपरेशन थियेटर में होते हैं तो राजनीति को बाहर छोड़ देते हैं और जब राजनैतिक भूमिका में होते हैं तब अपने मिशन से ऊपर उस पेशेंट के जीवन को रखते हैं जो उन्हें उस समय पुकार रहा होता है।
                   आज की तिथि में डॉ देशमुख जी जैसे मूल्यपरक नेताओं का राजनीति की बड़ी भूमिकाओं के सम्यक निर्वहन के लिए स्वागत होना चाहिए ।
                डॉ.अभिजीत देशमुख जी की तुलना डॉ बीसी रॉय जी से की जा सकती है जो मरीज को हजारों की भीड़ में भी पहचान लेते थे। डॉक्टर्स समाज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। डॉक्टरों के जीवन में कई बार ऐसे अवसर भी आते हैं, जब उन्हें अपनी खुशियाँ त्याग कर अपना कर्तव्य निभाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
डॉ अभिजीत देशमुख जी के बहाने मैं सभी डॉक्टर्स को आज के विशेष दिन की शुभकामनाएं देता हूँ।
हैप्पी डॉक्टर्स डे
____________

मनोज जैन
106,
बिट्ठलनगर नगर गुफामन्दिर रोड 
भोपाल
462030


मंगलवार, 20 जून 2023

कविता पोस्टर


आज किसी से
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आज किसी से 
मिलकर
यह मन जी भर बतियाया।

लगा कि जैसे
हमने
अपने ईश्वर को पाया।

स्वप्न गगन में मन का पंछी
उड़ता,चला गया।
बतरस के,अपनेपन से, 
मन,जुड़ता चला गया।

लगा कि जैसे किसी
परी ने,
गीत नया गाया।

एक पहर में,कसम उठा ली,
युग जी लेने की।
पीड़ा का विष मिले जहाँ
मिल-जुल पी लेने की।

उमड़ा प्रेमिल भाव 
परस्पर 
पल-पल गहराया।    

सन्दर्भों से जुड़े देर तक
कहाँ-कहाँ घूमे।
मेहँदी रची हथेली छूकर 
मन अपना झूमे।

मोहक मुस्कानों का 
मन को 
पर्व बहुत भाया।
                                                 
आज किसी से 
मिलकर
यह मन जी भर बतियाया।

मनोज जैन
________
पोस्टर 

पोस्टर

गुरुवार, 15 जून 2023

सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन

       


सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ -  आलेख मनोज जैन

इन दिनों, हमारे परम मित्र आदरणीय सुबोध श्रीवास्तव जी, सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे चर्चित अपने अघोषित गुरु प्रेमानन्द जी महाराज के गहरे प्रभाव में हैं। यह महज संयोग ही है, जिसे मैंने गुजरते हुए वक़्त के सिंहावलोकन से जाना। तुलनात्मक दृष्टि से, हम दोनों मित्रों के जीवन की घटनाएँ, स्थितियाँ और उन परिस्थितियों का पड़ने वाला असर और प्रभाव, रेल की दो पटरियों की तरह मेल खाता है।

               हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है। आजकल हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सुबोध जी ने ही मेरे इनबॉक्स में भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। फिर क्या अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा। 

 सुबोध जी वैसे तो सभी के सन्देशों की परवाह करते हैं और उनका रिप्लाई भी। पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने,और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोध जी को डॉ.अभिजीत देशमुख जी द्वारा दिए गये नाम से सम्बोधित करें तो "सुबोधानन्द जी" ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं। सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।  

                  इन दिनों सुबोध श्रीवास्तव जी डॉ.अभिजीत देशमुख जी के सेवा प्रकल्पों से जुड़कर समाज सेवा और राजनीति के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। हम दोनों का सोच कृतज्ञता और कृतज्ञभाव के मामले में आरम्भ से ही एक जैसा रहा है। हम लोग कणभर के बदले मनभर और मनभर के बदले टनभर लौटाने में भरोसा रखते हैं। 

            सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।

  लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं। 

       मित्र, सुबोध जी की  शाही टीम में इक्का, बादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को खेलने में महारत हासिल है।

खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द  का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं। वे ताश के पत्तों से खेलते हैं पर कभी किसी के जज्बातों से नहीं !हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर  अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है। और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।

He holds him with his glittering eye....

                                 यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं। ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं। 

                       कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये।  इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।

           माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। सुबोध जी राजसी अंदाज़ में मित्रों का दरबार सजाने की आदत में है। बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "। वह किसी राजा की तरह अपनी मण्डली में मित्रों से मंत्रणा करते हैं और उन्हें नवरत्न संज्ञा देते हैं।      

       प्रकारान्तर से कहें तो सुबोध जी अपने मित्रों के छिपे टैलेंट को पहचानकर उनकी प्रतिभा को निरन्तर निखारते है।

       इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, उन्हें प्रकृति की सुंदरता  घण्टो को निहारना पसन्द है। पानी के साथ अठखेलियाँ करना, वृक्षों पर मंकी क्लाइम्बिंग सहित नेचर से जुड़ीं बहुत छोटी बड़ी बातें उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। वह अपने सर्किल में, अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; लिव विथ नेचर का जरूरी सन्देश देने वाले परम मित्र जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से अपने मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है, इन्हीं गुणों के चलते वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।

               मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं। 

             कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।

                       मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !

"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"

__________________________


लेखक परिचय



जन्म २५ दिसंबर १९७५ को शिवपुरी मध्य प्रदेश में।

शिक्षा- अँग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर
प्रकाशित कृतियाँ- दो नवगीत संग्रह

1. एक बूंद हम (नवगीत संग्रह)

2. धूप भरकर मुठ्ठियों में (नवगीत संग्रह)

पत्र-पत्रिकाओं आकाशवाणी व दूरदर्शन पर रचनाएँ प्रकाशित प्रसारित। निर्मल शुक्ल द्वारा संपादित "नवगीत नई दस्तकें" तथा वीरेन्द्र जैन द्वारा संपादित "धार पर हम (दो)" में संकलित। एक कविता संग्रह

पुरस्कार सम्मान-
मध्यप्रदेश के महामहिम राज्यपाल द्वारा सार्वजनिक नागरिक सम्मान २००९, म.प्र.लेखक संघ का रामपूजन मिलक नवोदित गीतकार सम्मान 'प्रथम' २०१०,अ.भा.भाषा साहित्य सम्मेलन का सहित्यप्रेमी सम्मान-२०१०, साहित्य सागर का राष्ट्रीय नटवर गीतकार सम्मान- २०११ सहित अनेक सम्मान
संप्रति-
सीगल लैब इंडिया प्रा. लि. में मैनेजर
______________________________________
ईमेल- manojjainmadhur25@gmail.com

पता

मनोज जैन

106,

विट्ठलनगर, गुफामन्दिर रोड 

भोपाल

9301337806


सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन


सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ -  आलेख मनोज जैन


       इन दिनों, हमारे परम मित्र आदरणीय सुबोध श्रीवास्तव जी, सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे चर्चित अपने अघोषित गुरु प्रेमानन्द जी महाराज के गहरे प्रभाव में हैं। यह महज संयोग ही है, जिसे मैंने गुजरते हुए वक़्त के सिंहावलोकन से जाना। तुलनात्मक दृष्टि से, हम दोनों मित्रों के जीवन की घटनाएँ, स्थितियाँ और उन परिस्थितियों का पड़ने वाला असर और प्रभाव, रेल की दो पटरियों की तरह मेल खाता है।
               हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है, इन दिनों हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सबोध जी ने भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा। 

                      मेरे आत्मीय मित्र सुबोध जी को             दुनियाभर के सन्देशों की परवाह हो या ना हो यह मैं नहीं जानता , पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने, और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोधानन्द जी ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं। 

                    सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।  

सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।

  लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं। 

       मित्र, सुबोध जी की टीम में इक्का, वादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को बख़ूबी खेलना आता है।

खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द  का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं वे ताश के पत्तों से खेलते हैं कभी किसी के जज्बातों से नहीं!

हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर  अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।

He holds him with his glittering eye - The Wedding-Guest stood still,And listens like a three years' child:The Mariner hath his will.

The Wedding-Guest sat on a stone:He cannot choose but hear;And thus spake on that ancient man,The bright-eyed Mariner.

यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं।

                    ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं। 

                       कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये।  इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।

           माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। अकबर की तरह उन्हें भी दरबार सजाने की आदत है।बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "। 

अकबर के दरबार में नवरत्न थे। अकबर की तर्ज पर सुबोध जी भी अपने मित्रों के टैलेंट को पहचानते हैं और उन्हें रत्न की संज्ञा से नवाजते हैं। और उनकी प्रतिभा को निखारते है।

       इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, सुंदरता को निहारते हैं। अपने पूरे सर्किल में अकेले अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; और जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है,  इन्हीं गुणों के चलते  वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।।

               मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं। 

             कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।

                       मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !

"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"

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मनोज जैन

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106,

विट्ठलनगर, 

गुफामन्दिर रोड 

भोपाल

9301337806

मंगलवार, 13 जून 2023

सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ - आलेख मनोज जैन


जन्मदिन पर विशेष

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सुबोध श्रीवास्तव : ताश के बावन पत्तों पर मजबूत पकड़ 

मनोज जैन
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       इन दिनों, हमारे परम मित्र आदरणीय सुबोध श्रीवास्तव जी, सोशल मीडिया पर अच्छे-खासे चर्चित अपने अघोषित गुरु प्रेमानन्द जी महाराज के गहरे प्रभाव में हैं। यह महज संयोग ही है, जिसे मैंने गुजरते हुए वक़्त के सिंहावलोकन से जाना। तुलनात्मक दृष्टि से, हम दोनों मित्रों के जीवन की घटनाएँ, स्थितियाँ और उन परिस्थितियों का पड़ने वाला असर और प्रभाव, रेल की दो पटरियों की तरह मेल खाता है।
               हाँ, कभी कभार घटनाओं का क्रम आगे पीछे जरूर हो सकता है। हाल ही में, मैंने समान अभिरुचि के सन्दर्भ में वृंदावन स्थित केलिकुंज आश्रमवासी, पीले बाबा यानी प्रेमानन्द जी महाराज का उदाहरण दिया है, इन दिनों हमारे मित्र सुबोध जी पर, राधावल्लभ श्री हरिवंश जी की विशेष कृपा है ; जिसके चलते उन्होंने अपने मन को 'राधा' नाम पर अटका दिया है ; और पीले बाबा को करोड़ो लोगों की तरह अपने ह्र्दय में बसा लिया है। ऐसा नही है कि यह प्रभाव सिर्फ सुबोध जी पर ही है; बाबा की एक क्लिप जो मुझे कभी सबोध जी ने भेजी थी, उसका सीधा असर मुझ पर भी समानरूप से हुआ। अपना मन भी उसी धारा में बहने लगा। 

                      मेरे आत्मीय मित्र सुबोध जी को             दुनियाभर के सन्देशों की परवाह हो या ना हो यह मैं नहीं जानता , पर मेरे द्वारा भेजी गई एकान्तिक वार्ता की एक-एक कड़ी, उनके मैसेज बॉक्स में सुरक्षित है। यहाँ सुरक्षित से मेरा आशय इन कड़ियों को सुनकर गुनने, और मंथन के लिए संरक्षित किये जाने से है। बाबा के अघोषित शिष्य सुबोधानन्द जी ने, ऐसा ही किया है। वे बाबा की एकान्तिक वार्ता की कड़ियों और इन कड़ियों में व्याप्त तत्वदर्शन पर मेरी गवेषणात्मक टिप्पणियों को अक्सर अपने चिंतन का विषय बनाते रहते हैं। 

                    सुबोध जी साधना के मामले में भले ही नित्य कर्मकाण्डी ना हों, पर उनके सरल और तरल मन में, संवेदनाओं की रसधार नदी सदैव बहती रहती है, जिसे हममें से कोई भी अपने मन की आँखों से देख सकता है ; और उनके संपर्क में आने वाला हर शख्स आसानी से महसूस कर सकता है।  

सोशल मीडिया के निर्मम समय की सबसे बड़ी विडम्बना आभासी रिश्तों के जुड़ने और सच्चे रिश्तों के टूटने की है। हम लोग बाहर से भले जुड़े दिखाई दें, लेकिन वास्तविकता तो यह है, कि यहाँ हर आदमी अपने हिस्से का बनवास काट रहा है। तकनीकी युग ने जहाँ एक ओर मनुष्य को सुविधाएँ मुहैया करायी है तो वहीं दूसरी ओर अकेलेपन का संत्रास भी हमें अभिशाप के रूप में भेंट किया है।

  लोग अपनी दुनियाँ में गुम होते जा रहे हैं, लेकिन जिनके मित्र सुबोध श्रीवास्तव जी जैसे हों, वे कभी अकेले नहीं रह सकते। सुबोध जी अपने से जुड़े हर एक मित्र का ध्यान रखते हैं। वे सोशल मीडिया पर आभासी समूह नहीं बनाते; वह लोगों से सतत संवाद बनाए रखते हैं,और जीवंत लोगों का बड़ा संगठन खड़ा करते हैं। 

       मित्र, सुबोध जी की टीम में इक्का, वादशाह, बेगम से लेकर दुरी, तिरी, चौका, पंजा, सत्ता, अट्ठा नहला, दहला यानि पूरे बावन पत्तें हैं; और उन्हें ताश के सभी पत्तों को बख़ूबी खेलना आता है।

खेलने के सन्दर्भ में प्रयुक्त शब्द खेल शब्द  का उपयोग मैंने व्यंजनात्मक नहीं किया है। यहाँ खेलने के अर्थ ध्वन्यात्मक हैं वे ताश के पत्तों से खेलते हैं कभी किसी के जज्बातों से नहीं!

हममें से लगभग सभी ने अपने बचपन में मूर्ति बनने का खेल देखा भी होगा और खेला भी।उनकी एक स्नेहिल पुकार मित्रों को अपनी ओर खींच लेती है। इस सन्दर्भ में मुझे लगता है सुबोध जी के जीवन में द राइम ऑफ़ द एन्शियंट मेरिनर  अंग्रेज़ी कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज द्वारा रचित कविता ने गहरा प्रभाव डाला है अँग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण यह सही है कि उन्होंने यह कविता पाठ्यपुस्तक या पाठ्यक्रम में पढ़ रखी है और इसकी पंक्तियों को सिद्ध कर लिया है। उनके जीवन में सम्मोहन की जड़ यहीं से मिलती है।

He holds him with his glittering eye....

यही कारण है कि इन्हें सम्मोहित होना और सम्मोहित करना दोनों क्रियाएँ अच्छी लगती हैं।

                    ग्रुप कमान्डर समूह के किसी भी बच्चे को मूर्ति बन जाने का आदेश देता और चिह्नित बालक तत्क्षण ही अगले कमांड तक मूर्ति बना रहता। सुबोध जी के सन्दर्भ में इसे क्या कहा जाय आत्मीयता या आदेश ! कोई भी इनकी बात को मानने से इनकार नहीं करता। अपने पारदर्शी व्यक्तित्व के चलते सुबोध भाई अपनी मित्र मण्डली में अत्यंत लोकप्रिय हैं। वह सबका और सब उनका बहुत ध्यान रखते हैं। 

                       कोविड कालीन, लॉकडाउन के कठोर निर्देश भी सुबोध जी पर अपनी वन्दिशें नहीं लगा पाये।  इस दौरान वह अपने सभी मित्रों के सम्पर्क में रहे उनकी खैर खबर ली, जो मिला ठीक! और जो नहीं मिल सका उससे मिलने वे स्वयं पहुँचे; भले ही यह भेंट बहुत संक्षिप्त क्यों न हो, वे उस दौरान भी मित्रों से उनका संवाद जारी रहा जिस दौरान घरों को और शहर की सड़कों को सन्नाटे ने अपनी गिरफ्त में ले रखा था।

           माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव कहें या फिर दैवयोग यह उनका अपना अर्जित कौशल भी हो सकता है। सुबोध जी के मित्रों की संख्या का ग्राफ दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। समय के पावन्द मित्र सुबोध न खुद खाली बैठते हैं और न ही अपने मित्रों को खाली बैठने देते हैं। सुबोध जी राजसी अंदाज़ में मित्रों का दरबार सजाने की आदत में है। बकौल सुबोध श्रीवास्तव "शो मस्ट गो ऑन विथ यू ओर विथाउट यू "। वह किसी राजा की तरह अपनी मण्डली में मित्रों से मंत्रणा करते हैं और उन्हें नवरत्न संज्ञा देते हैं।प्रकारान्तर से कहें तो सुबोध जी भी अपने मित्रों के टैलेंट को पहचानते हैं। उनकी प्रतिभा को निखारते है।

       इन्हें, मित्रों की वीकनेस देखने की बजाय उनकी स्ट्रेंथ पर काम करना आता है। शायद मित्रों का प्यार पाने की बजह भी यही है। वे प्रकृति से प्रेम करते हैं, उन्हें प्रकृति की सुंदरता  घण्टो को निहारना पसन्द है। पानी के साथ अठखेलियाँ करना, वृक्षों पर मंकी क्लाइम्बिंग सहित नेचर से जुड़ीं बहुत छोटी बड़ी बातें उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। वह अपने सर्किल में, अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी तरफ से दस गुना आशा का संचार करते हैं; लिव विथ नेचर का जरूरी सन्देश देने वाले परम मित्र जरूरत पड़ने पर निरपेक्ष भाव से अपने मित्रों की तन, मन और धन से मदद करते है, इन्हीं गुणों के चलते वह अपने सर्किल में सबके चहेते हैं।

               मित्रों की मण्डली में जहाँ एक ओर सखाभाव वाले हैं तो वहीं दूसरी ओर सुबोध जी के यहाँ सखियों की भी मात्रा भरपूर है। सुबोध भाई को बिना किसी भेद-भाव से जितना प्रेम सखाओं का मिलता है उतना ही उनकी सखी सहेलियों का भी। पिपरिया, जबलपुर, बड़ौदा, बैरसिया के साथ भोपाल के मित्रों का जिक्र अक्सर वह स्नेह से किया करते हैं। 

             कुल मिलाकर सेवा भाव से सराबोर हमारे इन मित्र के पास अपने मित्रों पर, लुटाने के लिए बहुत कुछ है। यह बात और है कि मुझे कभी कुछ माँगने की जरूरत पड़ी ही नहीं। हम लोग एक-दूसरे के भावों को पिछले पैंतीस सालों से बिना कहे ही समझ लेते हैं।

                       मैं, सुबोध जी जैसा मित्र पाकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता हूँ। बचपन के न सही पचपन के अपने इस मित्र से अभी मुझे बहुत कुछ सीखना है। मेरे स्नेहिल आलेख का सही मूल्यांकन तो तनु भाभी को करना है। देखता हूँ दस नम्बर के स्केल पर मुझे कितने अंक मिलते हैं। आज का अवसर तो उनकी खुशियों में चार चाँद लगाने का है।क्यों न हम सब उन्हें मिलकर बधाइयाँ दें !

"जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ"

__________________________

मनोज जैन

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106,

विट्ठलनगर, 

गुफामन्दिर रोड 

भोपाल

9301337806


        




रविवार, 11 जून 2023

डॉ.विनय भदौरिया जी के नवगीत प्रस्तुति: वागर्थ ब्लॉग

डॉ.विनय भदौरिया जी के नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ ब्लॉग

एक
____

मजदूर
                
सुख -सुविधाओं से
वंचित हैं 
दूर हैं।
क्यों कि -
लिखा खातों मे
हम मज़दूर हैं।

पाँव हमारे ही
बिजली के खम्भे हैं,
तार नही ये-
मेरी खिंची अतड़ियाँ हैं।
बल्ब नही ये-
मेरी आँखे टँगी हुई,
हम से रूठी हुई
भाग्य की लड़ियाँ है।

अन्धकार-
जीने में हम
मशहूर हैं।

होकर विनत कभी-
जब माँगा पोखर ने,
अपने हक़ व हिस्से
वाला मीठा जल।
तब प्यासे ओंठो को-
तुमने सौंप दिया
तत्क्षण ही तपती
रेती वाला मरुथल।

कर लो-
अत्याचार कि
हम मज़बूर हैं।

सहन शक्ति की-
सीमा की भी सीमा है,
ज़रा ग़ौर से देखो
इन वैलूनो को।
खडा़ हुआ है वक़्त -
तान कर मुट्ठी फिर,
सबक सिखायेगा
सब अफलातूनो को।

छैनी-
पत्थर को
कर देती चूर है।

दो

     अँजुरी भर-प्यास लिए  

सागर के पास गया।
पता लगा-
सागर ही
सागर भर प्यासा  है।

पोखर सब तालों को
ताल  सभी नालों  को
नाले सब नदियों को
जी भर कर दान करें,
नदियाँ  भी ख़ुद जाकर
 सागर को सौंप रहीं
बिना किसी लालच  के
प्रति पल सम्मान करें

जिनके-जिनके 
बलपर ,है-
धन्नासेठ बना,
समझ रहा
उनको ही
आज वह तमाशा है।

पोखर से नालों  तक
वाजिब कर ले नदियाँ
अपने दायित्व सदा 
बेहचिक निभाती हैं
ये अगाध जल वाला
कोष जो सुरक्षित है
 समझ रहा है सागर
बप्पा की थाती है।

धरती के
स्रोत सभी
हो जाते जब दम्भी
तब जन-मन  
बादल से 
करता प्रत्याशा है।

तीन

नदिया के पानी मे
मगरों का कब्जा है,
मर रहीं 
मछलियाँ है प्यासी।
किन्तु उन्हे
आती  है हाँसी।

चापलूस घड़ियालों ने
ऐसा भरमाया।
सब कुछ उल्टा -पुल्टा 
दरपन मे दिखलाया।

पलते -पलते 
बढकर
अब तो 
छय रोग हुआ
कल तक थी जो 
हल्की खाँसी।।

कउवों व बगुलों के
आपस मे समझौते।
बेचारे हंस आज
क़िस्मत पर हैं रोते।

धारा धारा  भँवरें
दहशत
जीती लहरें,
चेहरों में 
है उगी उदासी।

असली सिक्के समस्त
हैं गा़यब हाट से।
सब नकली सिक्के ही
काबिज हैं ठाट से।

हैं कुत्ते -
हउहाते
और बाघ घिघियाते,
बाते हैं 
केवल आकाशी।

चार

बड़ा पुराना बरगद

गाँव किनारे-
बाईपास निकलने
वाला  है,
बड़ा पुराना-
बरगद जिसमे जाने
वाला है।

झूले हैं चरवाहे  हरदम
जिसकी पकड़  बरोही
जिसके नीचे सँहिताते हैं
हारे-थके बटोही,

सड़कों का संजाल-
काल बन खाने
वाला है।

जिसको पूज  सुहागिन
पति की आयु बढाती हैं
पीढ़ी-दर-पीढी़ श्रद्धा-
का पाठ पढा़ती हैं।

जे.सी.बी.
इस ऋषि को-
मार गिराने  वाला है।

साँझ सकारे  जब मित्रों के
साथ उधर हम जाते,
भूतों का आवास बताकर
बाबा हमे डराते।

दुर्घटनाओं का-
ख़तरा
मड़राने वाला है।

भाँति-भाँति के पक्षी
जिसमे करते रैन  बसेरा,
उल्टा लटके  चमगादड़़
गिद्धों-कउवों  का डेरा।

भवन सामुदायिक
मे मातम  छाने
वाला है।

गाँव हमारे जब बरात-
सँग हाथी  आते हैं
धजा चीर , पत्ते खाकर के
क्षुधा मिटाते हैं।

उपकारी का
'मर्डर '  दिल दहलाने
वाला है।
           विनय भदौरिया
साकेत नगर लालगंज 
राय बरेली( उ.प्र.) 229206
मोबाइल नंबर 9450060729

शनिवार, 3 जून 2023

वागर्थ में आज

गरिमा  सक्सेना के गीत-अनुभूति के नए आयाम
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विगत दिनों गरिमा सक्सेना के दो नवगीत,वागर्थ के पटल पर पढ़े थे,उनके तीन और नवगीत पढ़ने में आये।फौरी तौर पर यह टिप्पणी जायज है कि युवा कवियत्री में नए बिम्बो के साथ,नये विषयों के अनुसंधान की अद्भुत क्षमता है।
प्रसंगवश यह लिखना जरूरी है कि लोगों की आम धारणा है कि जो हिंदी से स्नातकोत्तर है और डॉक्टरेट है,वही हिंदी में लिखता है।इस भ्रांत धारणा के उलट स्तिथी यह है कि बच्चन जी और रघुपति सहाय फिराक इंग्लिश के प्रोफेसर थे किन्तु  उन्होंने क्रमशः हिंदी और उर्दू साहित्य को समृद्ध किया।कवि धर्मेंद्र सज्जन,कवियत्री अंकिता सिंह और खुद गरिमा सक्सेना भी विज्ञान विषय में उच्च शिक्षित है किंतु हिंदी मंच पर शोभित हैं।निष्कर्ष यह है कि जीविका के संसाधन और भावों का प्रस्फुटन दो अलग अलग बातें हैं।
इस आलेख में उनके तीन गीतों पर चर्चा करते हुए,ये कहना उचित होगा कि वे नए विषय के अनुसंधान में निपुण हैं।
उदाहरण के लिए उनके गीत "कब उजियारा आयेगा" में,स्त्री 
विमर्श की बात बहुत बारीक संकेत में कही गयी है।गीत के प्रथम चरण में तो सरल सा स्त्री विमर्श का आख्यान लगता है किन्तु आगे बढ़ते ही वह पूरी जिम्मेदारी से Domestic violence को नए अंदाज में पेश करता है।इसलिये, यह कहना गलत नहीं होगा कि ऐसी सशक्त और संवेदनशील चेतना केवल कल्पना के आधार पर नहीं हो सकती।
दूसरा गीत,"प्यारे लगते ही तुम जैसे, एक अवध की शाम"
पति-पत्नी के प्रेम का परंपरागत गीत है किन्तु इसके नये बिम्ब विधान मन को रोमांचित करते हैं।इस दृश्य पर कई कवियों ने लिखा है।ऐसे गीतों की प्रथम और अंतिम शर्त यही है कि शब्दों और भावों की सरलता बनी रहे क्योंकि ऐसे गीतों में क्लिष्ट शब्दों या अलंकारों का प्रयोग, कथ्य में बनावटीपन भर देता है।कवियत्री ने उसी सरल धरातल पर अपनी भाव व्यंजना को रखा है।
और अंत मे तीसरा और अंतिम गीत "प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल दिल का हर पन्ना खोला था" इस गीत में शब्द चातुर्य से जो व्यक्त किया गया है वह हृदय को न केवल रोमांचित करता है बल्कि साठ के दशक की किसी पुरानी क्लासिक फ़िल्म के नायक,नायिका के मिलन के दृश्य को जीवित कर देता है।रेशमी भावों के साथ शाब्दिक कुशलता से प्रथम मिलन का जो दृश्य निर्मित किया गया है,वह अद्भुत है।
पुनर्पाठ के रूप में उनके पूर्व में प्रकाशित नवगीत भी अंत मे हैं।
गरिमा सक्सेना, विषयों से समृद्ध हैं और गीतों का शिल्प भी नवगीत दायरे से बाहर नहीं जाता।

(एक)
कब उजियारा आयेगा

कई उलझनें खोंप रखी हैं
जूड़े में पिन से 
कब उजियारा आयेगा
वह पूछ रही दिन से 

तेज़ आँच पर रोज़
उफनते भाव पतीले से
रस्सी पर अरमान पड़े हैं
गीले- सीले से
जली रोटियाँ भारी पड़तीं
जलते जख़्मों पर
घर तो रखा सँजोकर
लेकिन मन बिखरा भीतर
काजल, बिंदी, लाली, पल्लू
घाव छिपाते हैं
अभिनय करते होंठ बिना
मतलब मुस्काते हैं
कई झूठ बोले जाते हैं
सखी पड़ोसिन से

छुट्टी या रविवार नहीं 
आते कैलेंडर में
दिखा नहीं सकती थकान
लेकिन अपने स्वर में
देख विवशता, बरतन भी
आवाजें करते हैं
परदे झट आगे आ जाते 
वो भी डरते हैं
डाँट-डपट से उम्मीदें हर 
शाम बिखरती हैं
दीवारें भी बतियाती हैं
चुगली करती हैं
रात हमेशा तुलना करती
रही डस्टबिन से.
(दो)

प्यारे लगते हो तुम जैसे
एक अवध की शाम
आँखें लगतीं भूलभुलैयाँ
बोल दशहरी आम

साथ तुम्हारे चलने से
रंगीन हुई परछाई
सभी दिशाओं में गुंजित अब
खुशियों की शहनाई
जबसे मिले मुझे तुम मुझ पर 
रंग नवाबी छाया
सर्वनाम मैं, 'हम' में बदला 
बदला जब उपनाम 

फिल्मी बातें नहीं प्यार यह
एक हकीकत है
मुझको साँसों से भी ज्यादा 
इसकी कीमत है
धड़कन में संगीत घुल गया
गीत हुई हैं साँसें
गाती रहतीं केवल तुमको 
बनकर यह खय्याम

एक तुम्हारी कहलाने का
मुझे मिला शुभअवसर
मान संग अभिमान बढ़ा है 
प्रियवर तुमको पाकर
हृदय तुम्हारा पावन मंदिर
दीप ज्योत जैसी मैं
आलोकित कर पाऊँ तुमको
चाहूँ आठों याम।
(तीन)

प्रिये तुम्हारी आँखों ने

प्रिये तुम्हारी आँखों ने कल
दिल का हर पन्ना खोला था

दिल से दिल के संदेशे सब
होठों से तुमने लौटाये
प्रेम सिंधु में उठी लहर जो
कब तक रोके से रुक पाये

लेकिन मुझसे छिपा न पाये
रंग प्यार ने जो घोला था

उल्टी पुस्तक के पीछे से
खेली लुका-छिपी आँखों ने
पल में कई उड़ानें भर लीं
चंचल सी मन की पाँखों ने

मैने भी तुमको मन ही मन
अपनी आँखों से तोला था

नज़रों के टकराने भर से
चेहरे का जयपुर बन जाना
बहुत क्यूट था सच कहती हूँ
जानबूझ मुझसे टकराना

कितना कुछ कहना था तुमको
लेकिन बस साॅरी बोला था।

(चार)
आज सुबह से
गुड़िया का मुखड़ा
उदास है

गुड़िया, गुड़िया
को सीने से
लिपटायी है
भींच रही
मुठ्ठी अंदर से
घबरायी है

स्मृतियों ने
पहन लिया 
डर का लिबास है

छुवन-छुवन 
का अंतर
उसको
समझ आ रहा
बार-बार 
उसका घर
आना 
नहीं भा रहा 

डर से दूर
कहाँ जाए
डर आसपास है

सोच रही है
मम्मी को
सबकुछ 
बतला दूँ
एक चोट
भीतर है 
उसको भी
दिखला दूँ

पर क्या बोले
इस घर में वह
बड़ा खास है.
(पाँच)
हम पीपल हैं 
वनतुलसी हैं 
बार- बार उग ही आयेंगे

जंगल हो या 
कंकरीट वन
उपवन या फिर 
कोई निर्जन
कोई पाँव 
उखाड़े चाहें
जिजीविषा से 
हम जाते तन

बिना खाद,
पानी के उगकर
जीवटता से लहरायेंगे

चाहे धूप 
कड़ी हो तन पर
या भीषण 
वर्षा का हो डर
हमने हर मौसम 
स्वीकारा
जीवित रक्खा 
साँसों का स्वर

अपनी जड़ पर 
हमें भरोसा
हाथ नहीं हम फैलायेंगे

जीते आये 
देश बदलकर 
जीवन औ 
परिवेश बदलकर 
सिर्फ़ स्वार्थ ने
अपनाया है
ठगे गये हैं 
भेष बदलकर 

हम श्रम का
पर्याय रहे हैं
निश्चित है हम फिर छायेंगे।

शुक्रवार, 26 मई 2023

पुरुषोत्तम तिवारी 'साहित्यार्थी' कृति चर्चा में

धूप भरकर मुठ्ठियों में

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किसी भी रचनाकार का साहित्यिक सृजन मनुष्य के जीवन का आनन्द और उसकी वेदना दोनों को एक साथ समाहित करते हुए चलता है। वह लोक की अनुभूति को समग्र रूप से अपने अन्तस में आत्मसात करता हुआ फिर अपने संवेदनशील मानस से उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं का मूल्यांकन करता हुआ लोकहित आधारित उस यथार्थ बोध पर अपनी लेखनी से अपने मन्तव्य को चित्रित करता है और इस प्रकार अपनी रचनाधर्मिता को एक स्वरूप प्रदान करता है। रचनाकार जिन बातों से प्रभावित और उद्वेलित होता है उन्हें अपनी कल्पनाशीलता से अपने सृजन में स्थान देता हुआ दिखाई देता है। इस प्रकार रचनाकार का सृजन संसार उसके व्यक्तित्व और चिन्तन का भी परिचायक होती है।

वर्तमान समय के नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर एवं चर्चित नवगीतकार श्री मनोज जैन मधुर का पहला नवगीत संग्रह 'एक बूँद हम' के बाद उनका दूसरा नवगीत संग्रह  'धूप भरकर मुठ्ठियों में' लगभग  एकसाल पहले प्रकाशित हुआ है रचनाएं संग्रहित है। उनके काव्य  में संघर्षों मान्यताओं अपेक्षा, उपेक्षा और संवेदनाओं की दृष्टि का विस्तार बहुत दूर दूर तक है। रचनाकार इन सभी बातों पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाल रहा है।

मनोज जी के प्रथम गीत वाणी वंदना में कवि अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए प्रार्थना करते हुए सर्वजन कल्याणार्थ भाव में लोक मंगल के लिए भी प्रार्थना करते हुए कहता है ;
हे माँ! तेरे लाल करोड़ों 
वरदान हस्त सबके सिर धर दो
हरो निराशा सबके मन से
भरो कोष प्रज्ञा के धन से

इसी प्रकार प्यार के दो बोल बोलें गीत में वैमनस्यता की अन्त:ग्रन्थि को निर्मूल करने के लिए 
धूप भरकर मुठ्ठियों में 
द्वेष का तम तोम घोलें …का आह्वान करता है। 
मनोज जी के इस नवगीत संग्रह के कई गीतों में आध्यात्मिक चेतना के स्वर प्राय: मुखरित होते दिखाई देते हैं। जैसे;
बूँद का मतलब समन्दर है गीत में -
"कंज सम भव-पंक में
खिलना हमारा ध्येय है
सत्य, शिव, सुंदर, हमारा
सर्वदा पाथेय है"
भव भ्रमण की वेदना गीत में
"भव भ्रमण की वेदना से 
मुक्ति पाना है
अब हमें निज गेह 
शिवपुर को बनाना है"

भाषा की शैली अभिधार्थ है तो कहीं कहीं व्यंजनात्मक भी है। जैसे ; 
"हम बहुत कायल हुए हैं
आपके व्यवहार के
आँख को सपने दिखाये
प्यास को पानी
इस तरह होती रही 
हर रोज मनमानी"

कवि अपनी स्वतन्त्र चेतना की स्वाभिमान धारण करना पसंद करता है। हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के गीत में इस भाव को यह कहकर प्रकट भी करता है कि 
" हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के
जो बोलेंगे रट जायेंगे"...
उजियारा तुमने फैलाया
तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो
हमने भी पर्वत काटे हैं"
इसी चेतना का एक अन्य स्वर ;
" तार कसते हृदय झनझनाने लगे
आपके हाथ के हमतँबूरे नहीं"

विभक्त नवगीतों की पंक्तियाँ जो विराट अर्थ लिए हुए हैं और मन को छू जाती हैं उनका बिना भूमिका के मैं उल्लेख करना चाहता हूं, जैसे ;

सौहार्दपूर्ण वातावरण निर्माण के स्वर 
" काश! हम होते 
नदी के तीर वाले वट
हम निरन्तर भूमिका 
मिलने मिलाने की रचाते"

" चांद सरीखा मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ 
धीरे धीरे सौ हिस्सों में
बँटते देख रहा हूँ….
नई सदी की परम्परा से
कटते देख रहा हूँ "

परम्पराओं का अनुकरण करते हुए कवि कहता है- 
" ढूँढ रहा हूँ मैं साखी को 
तुलसी वाली परिपाटी को
जिन राहों पर चला निराला
शीश लगाने उस माटी को"

साहित्यिक विद्रूपताओं पर सीधा प्रहार करते हुए 
" नकली कवि कविता पढ़कर जब
कविता-मंच लूटता है
असमय लगता है धरती पर 
तब ही आकाश टूटता है…
आचरण अनोखे देख देख
अंतस का क्रोध फूटता है"

आलोचकों के पक्षधर आलोचनाधर्म पर व्यंग्य का भाव
" पारिजात को बबूल 
कहना तू छोड़ दे
हीरे को हीरा कह
एक नया मोड़ दे…
समदर्शी बनकर यदि
धर्म जो निभाएगा
पारस को छू ले तू कुंदन हो जाएगा"

अध्यात्म का एक अन्य राग -
" पावन शिखर सम्मेलन को
शत शत नमन 
शत शत नमन"

कवि की दृष्टि अपने आसपास के शिल्प कलाओं पर भी है -
भीम बेटा का हर पत्थर
कहता एक कहानी
उँगली दाँतों तले दबाता
आकर हर सैलानी…
काश अहिल्या की आँखों सा 
हम बरसाते पानी"

आत्म नीरसता में भी सरस भावाभिव्यक्ति का एक अद्भुत चित्र-
चंदन सम शीतलता बाँटी
जीवन भर दुख के नागों को
मधुर शब्द स्वर रोज दिए हैं
आमन्त्रित कर नव रागों को"

विषमताओं पर कटाक्ष का स्वर -
"पाँव पटकते ही मगहर में
हिल जाती क्यों काशी
सबके हिस्से का जल पीकर 
सत्ता है क्यों प्यासी"

कवि ने राजनीति पर भी अपनी दृष्टि बनाये रखता है -

राजनीति की उठापटक औ' धींगामुश्ती में
केवल जनता ही है जिसको चूना लगता है….

प्रेम और सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाये रखने के लिए कवि के बहुत सुन्दर भाव अभिव्यक्त होते हैं -

नेह के ताप से
तम पिघलता रहे
दीप जलता रहे….
हर कुटी के लिए 
एक संदीप हो
प्रज्ज्वलित प्रेम से
प्रेम का दीप हो

काव्यात्मक साहित्यिक सृजन में कुछ भी लिखे जा रहे काव्य में नीरसता से क्षुब्ध कवि अपने व्यंग्य से प्रहार करता दिखाई देता है -

कथ्य यहाँ का शिल्प वहाँ का
दर्शन ठूँस कहाँ कहाँ का
दो कौड़ी की कविता लिखकर 
तुक्कड़ पंत हुआ 

नवगीत संग्रह की अधिकांश नवगीतों में कवि के हृदय की वेदना के शब्द मुखरित होते हैं, किन्तु साथ ही हृदय का आनन्द और मंगल कामना के स्वर भी अपने नवगीतों में पिरोता हुआ दिखाई देता है - 

खूबसूरत दिन, पहर, हर पल हुआ 
तुम मिले तो सच कहें
मंगल हुआ …..
लाभ शुभ ने धर दिए हैं
द्वार पर अपने चरण
विश्व की हर स्वस्ति ने
आकर किया मेरा वरण
प्रश्न मुश्किल जिंदगी का
हल हुआ 

निश्चित रूप से हमारे प्रिय नवगीतकार मनोज जैन 'मधुर' अपने दूसरे नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' मानवीय संवेदनाओं के विविध रूपों को लेखनीबद्ध किया है। उनसे अभी और अधिक सशक्त सृजन की आशायें गीत नवगीत साहित्य प्रेमियों के हृदय में अपेक्षित है। मनोज जी को बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं। 

पुरुषोत्तम तिवारी 'साहित्यार्थी' भोपाल

मंगलवार, 23 मई 2023

एक भावुक बुद्धिजीवी :दिनेश मिश्र.ब्रज श्रीवास्तव

संस्मरण




एक भावुक बुद्धिजीवी :दिनेश मिश्र.
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ब्रज श्रीवास्तव


संसार में ऐसे कम ही शख्स  होते हैं जिनका हर तरह से  कद ऊंचा होता है।जो  आकर्षक होते हैं,जिनके केश वृद्ध हो जाने पर भी नहीं झरते।जिनकी वाणी शीतलता देती है,जो बहुरूचि संपन्न होते हैं और जो लोकप्रिय भी होते हैं।दिनेश मिश्र ऐसे ही शख्स थे।हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी रहे।बड़े किसान रहे।संगीत के तो जैसे दीवानों की हद तक प्रेमी थे।वे फिल्मी संगीत की निंदा सहन ही नहीं कर सकते थे।अंताक्षरी में तक उन्हें कोई हरा नहीं सकता था।उन्हें साधारण बीमारी हरा नहीं सकती थी।यदि कोरोना की दूसरी लहर उन्हें न लीलती तो वे  कम से कम दस बारह साल और  जीकर पचहत्तर पार कर लेते।इतना जीकर वे कम से कम अपने एक कविता संग्रह साया हो जाने की कामना को पूरा होता देख पाते।अपने प्रिय जनों की विकास यात्रा देख पाते।

वे परसों ही कोरोना से लड़ते लड़ते सांसों का  युद्ध हारे हैं।लेकिन बरसों तक  मेरे ह्दय से उनकी छवि नहीं हटेगी,वह उतनी ही ताज़ा,उतनी ही जीवंत और उतनी ही आत्मीय दिखाई देती रहेगी, जितनी आज है।न जाने ऐसा क्यों है कि मुझे उनकी विदा से इस हद तक टीस है कि सपनों में,जागते हुए और कुछ भी करते हुए उनकी याद आ रही है।क्या वे हमारे इतने पारिवारिक रहे हैं,या दिन रात संपर्क में रहे हैं।नहीं,ऐसा नहीं, इसके बावजूद उनकी अनुपस्थिति इस हद तक तड़पा रही हैं तो निश्चित ही उनसे एक स्थायी लगाव का ऐसा संबंध जरूर रहा है जो चेतन से ज्यादा अचेतन में सींचा,संवारा जाता रहा है।

पीछे जाता हूँ तो ऐसा कुछ धुंधला सा याद आता है कि विदिशा के न्यास के कार्यक्रमों में जब मैंंने 98 में जाना शुरू किया तो कुछ सुदर्शन व्यक्ति श्रोता,दर्शकों की दीर्घा में नियमित रूप से मौजूद होते थे,उनके बीच दिनेश जी भी थे।अखबारों में कवि के रूप में अलबत्ता हम जरूर छपते रहते थे, तो यह भान था कि हम लोग लेखक हैं ये लोग नहीं।शहर की लोकल कवि गोष्ठियों में उन दिनों बड़ा भरा भरा लगता था, हमें वहां महत्व मिलना शुरु हो गया था।एक गोष्ठी निकासा में दूसरी मंजिल पर एक सरकारी स्कूल में हुई,संचालक ने माँ वीणावादिनी को प्रणाम के बाद सबसे पहले एक नये कवि को प्रस्तुत किया,उस कवि ने कुछ साधारण सी क्षणिकाएं पढ़ीं।जिनमें से एक थी कुत्ते और अफसर पर।सब लोग हंसे।दिनेश जी पहली ही गोष्ठी से हिट हो गए।हम सोचते रहे हूंह ये क्या कविता हुई।एक चुटकुला हुआ बस।लेकिन ऐसी विचारधारा होने के बावजूद हम भी गोष्ठी का तारीफ करने के चलन का अनुकरण करते रहे ।सच भी है आलोचना के नेलकटर  से तो उनके ही  नाखून काटे जाते हैं जो  लंबी दूरी तक चलने के लिए तैयार दिखाई दे।शौकिया कवि तो बस हर पाठ के बाद वाह वाह के अभिलाषी होते हैं,आलोचना अभिलाषी नहीं होते।दो चार साल बाद मुझे लगा कि दिनेश मिश्र शौकिया कवि नहीं हैं,वे आलोचना अभिलाषी भी हैं।जब वे मेरी कविताओं को पत्रिकाओं में पढ़ते,इस बहाने बातचीत करते,फिर कहते कि मैं आप जैसा क्यों नहीं लिख पाता।मुझे कुछ सिखाइये,मेरी कविताओं में कमी बता कर रहनुमाई कीजिए।इसी व्यवहार से वे अनेक समकालीन कवियों से भी  मुखातिब होते रहे ।और अभ्यास करते करते एक काव्य भाषा अर्जित करके ही माने।देखते ही देखते वे वागर्थ में छपने लगे और समीक्षाएं लिखने लगे।कविताओं को आलोचना और विवेक के चश्मे से देखने लगे।उनका हमेशा यह नारा रहा कि समकालीन  कविता में संप्रेषण होना चाहिए,तभी वह सौद्देश्य होगी।

जब कवि मालम सिंह चंद्रवंशी विदिशा से जा रहे थे, तो वे विदिशा के वसुधा के ग्राहकों पाठकों को मुझे देते हुए यह कह गये कि सदस्य बढ़ाइये।तो मैंनै 5 से 10 करने में जिन अतिरिक्त पांच को और जोड़ा,उनमें एक दिनेश जी भी थे।हर तीन माह में एक बार वसुधा को देने उनके  जाता था।वह अंदर वाले कमरे से पहले बरामदे में आते,सांकल हटाते और एडवोकेट आफिस वाले कमरे में सामने बैठाकर खुद बैठ जाते।उनकी टेबल पर पत्र पत्रिकाओं का करीने से रखा हुआ एक  उर्ध्व ढ़ेर होता।वे उन्हें दिखाना चाहते।पानी का गिलास और दूध ही दूध से बनी चाय के प्याले के आने के बीच हम दोनों की एक औपचारिक संगत हो जाती।तब भी वह यह ज़रूर कहते कि आप कितनी अच्छी कविताएं लिख लेते हो।कैसे लिख लेते हो।ज़ाहिर है यह उनका स्वाभाविक अंदाज था जिससे वह सामने वाले को महत्वपूर्ण व्यक्ति मानकर खुद को छोटा कहकर बड़े बन जाते।एक दो बार आलोक के साथ भी मैं गया।एक बार तो आलोक ने एक विवाद सुलझाने के लिए दिनेश जी का घर ही चुना।विदिशा के कवियों पर केंद्रित दिशा विदिशा संकलन प्रकाशन की तैयारी के दौरान शहर के नाराज़ कविगण आलोक और मुझे टारगेट कर रहे थे।तब एक बैठक का सोचा गया जिसमें बातें साफ साफ होकर सामने आ जायें।सच में दिनेश जी ने अपनी उसी बैठकी में हम सात आठ लोगों को आमंत्रित किया।शायर श्री निसार मालवी, गीतकार कालूराम पथिक,नर्मदेश भावसार,घनश्याम मुरारी पुष्प, शीलचंद पालीवाल, आनंद श्रीवास्तव, मैं और आलोक श्रीवास्तव वहां मौजूद थे।इसके बाद फिर उस संकलन पर कोई विवाद नहीं हुआ।

मित्र आलोक श्रीवास्तव (पत्रकार और शायर)के दिल्ली चले जाने के कारण अब विदिशा में मेरा इतना अपना कोई नहीं था,जिसके पास बैठने और कविता पर बात करने का मन होने लगे।गोया कि मेरी विधा ऐसी थी जिसके अभ्यासी नगण्य थे।ये स्थिति मुझे दिनेश मिश्र के नजदीक लाने लगी।ज्यादा तो नहीं लेकिन हां हमारे संवादों की आवृति अपेक्षाकृत ज्यादा हो चली थी।घर जाते तो अब नेहा भाभी भी हाल पूछने आ जातीं,स्वल्पाहार के लिए आग्रह करतीं।वह उस समय सरपंच थीं,मैं तब सर्व शिक्षा अभियान में समन्वयक  था।तो उनकी दिलचस्पी शिक्षा के विकास में होती।वैसी बातें होतीं।
इधर मैं कुछ  साहित्यिक आयोजन भी करने लगा था ।समकालीन कविता के प्रसिद्ध हस्ताक्षर नरेंद्र जैन ने एक बार  कहा -ब्रज यार मेरी एक किताब आई है अनुवाद की,मैं चाहता हूं कि तुम इसका विमोचन का कार्यक्रम कराओ।भले ही छ सात लोग आएं।मैंनै सबसे पहले दिनेश जी को कहा तो उन्होंने सहर्ष उपस्थिति की सहमति दी।कभी वह संचालन करते,कभी मैं।पर यह भरोसा हुआ कि वह मेरे साथ हैं तो हो ही जाएगा।हालांकि सहयोग के लिए कोई भी इन्कार नहीं करता,मगर दिनेश भाई के साथ होने की मेरे लिए बात ही अलग थी।


दिनेश मिश्र अब मेरे लिए केवल  एक ही संबंध में मौजूद नहीं थे।बातचीत के जितने भी विषय हो सकते हैं उन सब में वे शामिल हो सकते थे।अगर मैं साहित्य की बात करूं तो ये तो था ही सेतु।अगर मैं विभाग की,या रिश्तेदारी की बातें करूं तो भी उनके पास बात आगे बढ़ाने के लिए प्रसंग होते।संगीत और चित्रकला में भी वह हमशौकिया रहे।

और सिनेमा,सिनेमा के नाम पर तो वह बोलने के लिए उतावले हो जाते।उनके लिए भारतीय सिनेमा एक विराट फलक था,जिसके अध्ययन और व्याख्यान में उन्हें भरपूर आनंद मिलता था।वे हर फिल्म के वास्तविक किस्से सुना सकते थे।फिल्म के निर्देशक, संगीतकार, और गायकों के नाम उनकी जुबान पर इस तरह चले आते थे,जैसे दिन रात पाठ याद करके आये किसी विद्यार्थी की जुबान पर प्रश्नों के उत्तर निर्बाध चले आते हैं।वह फिल्मों पर केंद्रित प्रकाशित अद्यतन किताब खरीद लेते थे भले ही कीमत हजारों में हो।पंकज राग रचित धुनों की यात्रा सहित लता मंगेश्कर पर आई किताब उनकी निजी पुस्तकालय में मौजूद है।उन्होंने निम्मीं से फोन पर बात की।राजकुमार केसवानी ,जय प्रकाश चौकसे,अजातशत्रु और युनस खान से वे फोन पर बात करते थे।फिल्म अभिनेत्री रेखा उन्हें सौंदर्य और अदायगी की वजह से बेहद पसंद थीं।हम लोग उन्हें चिढ़ाते कि रेखा में खास कुछ नहीं तो रूठ जाते।हालांकि यह एक नूराकुश्ती होती,।ये वह भी जानते,मैं भी जानता,और हमारे बतरसिया,मधु सक्सेना,प्रवेश सोनी,सुधीर देशपांडे, श्याम गर्ग,पदमा शर्माऔर उदय ढोली भी जानते।बतरस यानि दस बारह साथियों को आत्मीय वाटस एप समूह



उन्हें फिल्मी गीतों की बारीकियां याद थीं।
किसी गीत को मैं अंतरे से शुरू करके उनसे मुखड़े के बोल पूछता वे एकदम बता देते।ये उनकी विलक्षण क्षमता थी।विदिशा के पत्रकार गोविंद सक्सेना ने उनके निधन पर यह सटीक कहा कि विदिशा के राजकुमार केसवानी ने भी विदा ले ली है।यह अजीब बात है कि एक दिन पहले राजकुमार केसवानी की कोरोना मृत्यु हुई।

यदि उन्हें कोई बड़ा मंच मिलता तो वे जरूर अपनी इस प्रतिभा के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध हो जाते।इस तरह उनका सिनेमा पर अर्जित विपुल ज्ञान दुनिया के काम आता।मगर ये हो न सका।यद्यपि नाचीज़ ने इंदौर के दैनिक विनय उजाला में उनके पचीस तीस लेख प्रकाशन को भेजे और वे छपे।अपने वाटस एप ग्रुप साहित्य की बात में भी उनका परिचय देश के अनेक से कराया,और वह प्रसिद्ध तो हुए ही।लोकप्रिय भी हुए।शरद कोकास,नरेश अग्रवाल, राजेंद्र गुप्ता, हरगोविंद मैथिल, आनंद,पदमनाभ सहित सभी उनकी कमी को महसूस कर रहे हैं।वे थे ही हर दिल अजीज़।




आज जब उनको  दुनिया ए फ़ानी  से गये तीन ही दिन हुए हैं।मुझे अपने कवि पिता घनश्याम मुरारी पुष्प के देहांत (2008) के बाद दिनेश भाई की आत्मीय रुप से मिली निकटता की भी याद आ रही है।कैसे उन्होंने आकर मुझे गले लगाकर आंख के आंसू पोंछे थे। पुष्प जी की याद के हर वार्षिक आयोजन में वह अतिरिक्त भावुक होकर कुछ कहते,सुझाव देते,हौसला बढ़ाते।अपने आलेख में उन्होंने बार बार कहा कि एक गोष्ठी में पुष्प जी की भावनाओं को ध्यान में न रखकर किसी मनचले कवि ने ऐसी वैसी कविता पढ़ दी थी और वह उठकर चले गए थे।दरसअल भावुक होना उनके स्वभाव का प्रधान गुण था ही।इसलिए उनकी कविताओं के विषय बिटिया,मां,मामा,काम वाली बाई,आदि होते थे,और उनमें एक नोस्टाल्जिया होता था।वह गद्य में भी लिखते थे।उनके गद्य में एक प्रवाहिका होती थी।


माधव उद्यान में जब भोर भ्रमण करने वालों की मंडली बनी तो संगीत के रसिकों के बीच अनौपचारिक संगीत गोष्ठियां होतीं।दिनेश मिश्र केंद्र में होते।उन्होंने संगी त साथी समूह बनाया।वहां उनको चाहने वालों की एक बड़ी कतार थी।उधर वह पहले से ही पंडित गंगा प्रसाद पाठक ललित कला न्यास के कार्यक्रमों में अक्सर संचालन करते ही थे।वह रेखा चित्र भी बनाते और गाने भी गुनगुनाते।फेसबुक पर वह प्रतिरोध की पोस्ट बराबर डालते रहे।सबसे पहले लिखते --साथियों--।यह उनकी स्टायल थी।

संयोग ही था,उनकी छोटी बेटी के रिश्ते का  प्रशासनिक अधिकारी और कवि संगीतकार अविनाश तिवारी जी के बेटे और मेरे प्रिय कवि दुष्यंत के लिए प्रस्ताव  मैंने ही दिया था और वह तय हो गया।फलस्वरूप भी वह मुझसे खुश थे।उनकी भावनाओं में अधिकार आ गया था, मुझे तुम संबोधित करते हुए अंतरंग वार्तालाप करने लगे थे।इसी विश्वास के चलते कदाचित उन्होंने मुझे दिनांक सात मई को एक संदेश भेजा। रिपोर्ट पोजिटिव आई है -अपने तक रखना।यह संदेश डरा रहा था लेकिन उनसे और उनकी तब सेवा समार और परवाह कर रहे अविनाश तिवारी जी से बातचीत से यह आशा बंधी रही कि वे स्वस्थ होकर वापस आएंगे।मगर कुछ आशाएं सिर्फ  नियति से संचालित होतीं हैं।हम बस नियति  को खराब कह सकते हैं।मगर इस विलाप से होना क्या है।अब दिनेश मिश्र अगर कहीं मिलेंगे तो बस उनके  चाहने वालों की बातों में।उनकी कविताओं में और गाये  फेसबुक पर सुरक्षित कुछ गीतों की स्वर लहरियों में।और हाँ ऐसी अनेक स्मृतियों में वह मुझे मिलते रहेंगें जो हजार लिखने पर भी अलिखित रह ही जाएंगीं।



ब्रज श्रीवास्तव
L-40 Godawari Greens 
Vidisha.
9425034312.

संस्मरणकार 
चर्चित कवि लेखक समीक्षक 
ब्रज श्रीवास्तव जी
प्रस्तुति
वागर्थ