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बुधवार, 24 नवंबर 2021

बाल साहित्य में प्रस्तुत हैं कवि लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव जी के बाल गीत : प्रस्तुति वागर्थ

   हम से भी प्यास बुझे

खरबूज बोल पड़ा तरबूज से,
गर्मी आई अब हो जा तैयार।
गर्मी बढ़ते ही हम खूब बिकेंगे,
मुझ से सज जाएँगे बाजार।

इतने में खीरा व ककड़ी बोली,
हम भी नहीं हैं बिल्कुल कम।
हमारे भी गर्मी में भाव बढ़ते,
गला तर करने का हममें दम।

चारों मिल कर के झटपट ही,
लगे खूब झूमने व गाना गाने।
गर्मी आते ही सारे दुकानदार,
प्यार से लगते हमें सजाने।

हम को  खाकर प्यास बुझाते,
पानी  की कमी हम करते दूर।
खाकर आती ताजगी लोगों में,
खरीदने को लोग होते मजबूर।
★★★★★★★★★★★★
 
 *वसंत ऋतु आया*

कक्षा में मेरे टीचर ने,
हम सब को बतलाया।
जाड़े का हो रहा अंत,
वसंत ऋतु अब आया।

वसंत है प्यारा मौसम,
यह ऋतुराज कहलाएँ।
पेड़ों में हो गया पतझड़,
अब नई कोंपलें आएँ।

सरसों के फूल खेतों में,
पीले पीले व प्यारे प्यारे।
आम पर आ जाते हैं बौर,
लगते कितने न्यारे न्यारे।

फूल खिले होते चहुँओर,
फूलों पर तितली मड़राएँ।
हरियाली दिखती है सर्वत्र,
वसंत ढेरों खुशियाँ लाएँ।
★★★★★★★★★

*तितली उड़ जाती है*

बार बार मैं पकड़ूँ तितली
मेरे पकड़ में न आती है।
हाथ लगाता, ज्यों ही त्यों
फुर्र से वह उड़ जाती है।

चाहूँ पकड़ कर मुट्ठी में,
झट पट मैं बंद कर लूँ।
मेरी आहट समझ वो ले,
कितना भी मैं धीरे चलूँ।

रंग बिरंगी ये तितलियाँ,
मेरे मन को खूब भाती हैं।
दौड़ दौड़ कर थक जाऊँ,
मेरे पकड़ में न आती हैं।

माँ कोई उपाय बता दो,
तितली को पकड़ लाऊँ।
बैग में बंदकर तितली को,
स्कूल साथ मैं ले जाऊँ।
★★★★★★★★

*हरी भरी मटर की फली*

खूब हरी भरी मटर की फली,
मटर की फली मटर की फली,
हरे मटर की सब्जी अच्छी हो,
हरे मटर की पूड़ी लगे भली।

जाड़े में हरे मटर की बहार,
हरे मटर से सभी को प्यार,
खाने को मन करे बार बार,
सब्जी, पुलाव या हो पराँठे,
सब में हरे मटर की दरकार।

हरे मटर फाइबर से भरपूर,
दिल की बीमारी करते दूर,
प्रोटीन व विटामिन-के मिले,
सब्जी, पराठा और पुलाव,
मम्मी मुझे खाना है जरूर।

ज्यादा मटर खाएँ, हानि करता,
हमारे शरीर में गैस भी बनता,
डकार भी आए, हमें बार बार,
पेट दर्द से हो जाता है दुश्वार,
कब्ज व पेट भी फूल सकता।
★★★★★★★★★★

*हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी*

गर्व मुझे है राष्ट्र पर अपने,
नित लिखते नई कहानी,
देश पे कोई आँख उठाएं,
हम हो जाते हैं तूफ़ानी,
हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी।

प्रेम की भाषा से करते हैं,
हम लोगों की आगवानी,
प्रेम के बदले जो छल करते,
उसकी न बचे कोई निशानी,
हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी।

भारतवासी ऐसा न काम करें,
जिससे न हो कोई परेशानी,
हम सब हैं सच्चे देशभक्त,
मुश्किल में बच्चा भी सेनानी,
हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी।।

सरहद पे जो आँख उठाएं,
ऐसा वीर न कोई सानी,
तड़पा कर उसको मारे,
मिले न उसे दाना पानी।
हम हैं सच्चे हिंदुस्तानी।
★★★★★★★★

*शूरवीर महाराणा प्रताप*

( 09 मई 1540--जन्म दिवस)

नौ  मई  को  कुंभलगढ़  में,
इक शूरवीर का जन्म हुआ।
राज्याभिषेक  गोगुन्दा   में,
प्रताप नाम से अमर हुआ।

ऐसे योद्धा को करूँ प्रणाम,
विश्व प्रसिद्ध जिसका नाम।
प्रताप जिसे हम कहते  है,
अनुसरण उसी का करते है।

पूरे भारत वर्ष  में शायद ही,
इकलौते महाराणा वीर हुए।
जीवन में मुगल अकबर की,
अधीनता न स्वीकार किए।

उनका प्रिय घोड़ा चेतक था,
वह  भी बहुत  बहादुर  था।
बैठा कर पीठ पर राणा को,
लंबी  छलांग  लगाता  था।

दृढ़ संकल्पित ऐसा योद्धा,
भारत वर्ष में जन्म लिया।
घास की रोटी खा कर भी,
दुश्मन से खूब संघर्ष किया।

हल्दी घाटी का प्रसिद्ध युद्ध,
मुगलों की सेना बहुत भारी।
बीस हजार योद्धा से राणा ने,
अकबर को टक्कर दे मारी।
★★★★★★★★★★
      
*सबसे अच्छे मेरे पापा*

सबसे अच्छे हैं मेरे पापा,
ऑफिस से घर जब आते।
चॉकलेट व टॉफी ले आएँ,
आकर तुरंत मुझे बुलाते।

जब मैं आता, त्यों ही पापा,
गोदी में झट ही मुझे उठाते।
चॉकलेट और टॉफी देकर,
मुझ से ख़ूब प्यार जताते।

नित सुबह मुझे जगाकर,
बैठा के खूब मुझे पढ़ाते।
जो सवाल हल न मुझसे,
अच्छे से वह समझाते।

पढ़ने से अच्छा बन जाऊँ,
ये भी अक्सर मुझे बताते।
महापुरुषों और वीरों की,
गाथाएं नित मुझे सुनाते।

कभी कभी शाम समय को,
पापा मार्केट मुझे ले जाते।
मनपसंद खिलौना व चीजें,
झट खरीद के मुझे दिलाते।

स्कूल में जब हो लंबी छुट्टी, 
मम्मी संग हम बाहर जाते।
घूम घूम नई जगह को देखे,
छुट्टी में खूब मौज मनाते।

कितने  प्यारे, मेरे पापा।
न गुस्साते, बस मुस्काते।।
★★★★★★★★★
    
      *मेरी पिचकारी*

सजी हुई कितनी पिचकारी,
कोई हल्की, कोई है भारी।
मुझे भी पापा एक खरीदो,
कितनी सुंदर लगती सारी।

कोई बड़ा है कोई है छोटा,
कोई पतला कोई है मोटा।
पापा लो बड़ी पिचकारी,
जो लगता दादा का सोटा।

हरा पीला लाल रंग भरकर,
पिचकारी से करूँ फुहार।
रंगों से मैं सरोबार करूँगा,
जो कोई गुजरेगा मेरे द्वार।

मैं पिचकारी से रंग डालूँगा,
भैया दीदी संग खेलूँ होली।
जो रंग कोई  नुकसान करें,
रंग न डालना मम्मी बोली।

होली खेल कर मैं खाऊंगा,
गुझियाँ, नमकीन, मिठाई।
रंगों का मैं त्यौहार मनाऊँ,
खुशियाँ हैं होली संग आई।
★★★★★★★★★★

*गर्मी में खूब नहाते*

ठंडे  ठंडे पानी से हम,
गर्मी आते खूब नहाते।
कभी तो भूल से शॉवर,
खुला छोड़ आ जाते।

सुबह शाम रोज नहाते,
धमा चौकड़ी करते हम।
कभी नहा बेड पे चढ़ते,
बिस्तर भी कर देते नम।

गर्मी में जब मन होता,
हम बच्चे खूब नहाते हैं।
बालों में हम शैम्पू करके,
ढेरों सा झाग बनाते हैं।

गर्मी में तो हम रोज नहाते,
सर्दी में नहाने से होता डर।
बिना नहाए स्कूल को जाते,
मिस जी लेती खूब खबर।

मम्मी कहती रोज नहाओ,
तन और मन स्वस्थ रहेगा।
दिमाग  रहेगा तरो ताजा,
पढ़ने में भी मन लगेगा।

स्कूल में मिस जी कहती,
अच्छी आदत अपनाओ।
पढ़ो और खेलों भी जम के,
अपने को सफल बनाओ।
★★★★★★★★★★

*गर्म मूँगफली*

गर्म मूँगफली खाने में,
अच्छा लगता है स्वाद।
जाड़े में मूँगफली लाना,
पापा को रहता है याद।

बच्चे बड़े सभी को सर्दी में,
खाने में मूँगफली है भाता।
चटनी संग मूँगफली हो तो,
सबके मन को ललचाता।

जाड़े में शाम समय हम,
मूँगफली रोज ही खाते।
हर चौराहे पर ठेलों पर,
मूँगफली बिकते पाते।

प्रोटीन और मिनरल का,
मूँगफली होता खजाना।
कितना हो चट कर जाते,
अच्छा लगता है खाना।

भुनी हुई हो मूँगफली की,
सोंधी होती है खूब महक।
ज्यादा मात्रा में मूँगफली,
खाने में हम जाय बहक।

गर्मागर्म हो जब मूँगफली,
जाड़े में बिक्री बढ़ जाती।
धनिया पत्ती की चटनी हो,
मूँगफली बहुत सुहाती।
★★★★★★★★

*नए साल में स्कूल खुल जाएँ*

नए साल में हम सब के स्कूल खुल जाएँ,
कितने खुश होंगे कि हम सब पढ़ने पाएँ।
नई किताबे, नए पाठ पढ़ने का मन करता,
दोस्तों संग मिल कर घूमने को जी कहता।

हम सब बच्चों की विनती कर लो स्वीकार,
स्कूल खुल जाए, प्रभु करो ऐसा चमत्कार।
ऑनलाइन क्लास हमारे पल्ले न पड़ रहा,
हम बच्चों पर कर दो बस! यही उपकार।

घर में रहते हुए हम बहुत हो चुके हैं बोर,
पढ़े लिखें व खाली कक्षा में हम करें शोर।
दोस्तों संग मस्ती करने का बहुत है मन,
घर में रहने का न मन करता अब मोर।

जब टीचर हमें पढ़ाते तब अच्छा लगता,
ब्लैकबोर्ड पर लिखा हुआ सच्चा लगता।
ऑनलाइन क्लासेज बहुत समझ न आएँ,
नए साल में हम सब के स्कूल खुल जाएँ।
★★★★★★★★★★★★★

*सफाई का रखो ध्यान*

बंदर से बंदरिया बोली
तुम्हें हो गया जुकाम।
पड़े पड़े खास रहे हो,
नाक भी हुआ जाम।

दूर देश से आई बीमारी,
कोरोना जिसका नाम।
खतरनाक बहुत होती,
महामारी जैसा आयाम।

सफाई का रखो ध्यान,
नहीं तो होगे परेशान।
छुआछूत की ये बीमारी,
ले रही लोगों की जान।

दो गज दूरी बहुत जरूरी,
टीवी पर हो रहा प्रचार।
जीवन के लिए जरूरी
दूरी का करें व्यवहार।

इस बीमारी से इंसानों में,
मचा हुआ है त्राहिमाम।
हाथ धुल कर खाना खा,
वरन बुरा होगा अंजाम।
★★★★★★★★★

*जाड़े का मौसम होता प्यारा*

जाड़ा आया सूरज दादा ने मद्धिम कर दिया धूप,
चारों ओर छाया कुहरा, मौसम का बदला रूप।
अब दिन छोटे होने लगें, बड़ी हो रही है रात,
गरमा गरम पकौड़ा और अच्छा लग रहा सूप।

स्वेटर, कोट, टोपी और निकला अब मफलर,
ठंडे ठंडे पानी से नहाने में लग रहा अब डर।
धूप में बैठना अब तो कितना लग रहा अच्छा,
कुछ दिनों में शायद शुरु हो जाए शीत लहर।

अब तो सुबह न छोड़ने का मन मेरा करे रजाई,
जाड़ा बहुत ही प्यारा होता, मानो इसको भाई।
जो कुछ भी खाओ, सब पच जाता आराम से,
सुबह शाम अब अच्छा लगता हीटर से सिकाई।

घंटों हम बच्चे क्रिकेट खेलते, पसीना न बहता,
खेल में मजा आता, घर जाने का दिल न करता।
सच में जाड़े का मौसम बहुत ही सुहावना होता,
पढ़ने लिखने व खेल कूद में हमारा मन लगता।
★★★★★★★★★★★★★★★★

*मेरा प्यारा स्कूल*

कितना सुंदर प्यारा प्यारा,
अच्छा लगता  मेरा स्कूल।
नित यहाँ पर पढ़ने आते,
घर को हम जाते हैं भूल।

टीचर यहाँ बहुत ही अच्छे,
हर विषय खूब समझाते हैं।
जीवन में कैसे आगे बढ़ना,
यह  भी  मुझे   बताते हैं।

पढ़ लिख सूरज सा चमको,
बनना तुम्हें एक नेक इंसान।
मात-पिता का नाम हो रोशन,
दुनिया में हो श्रेष्ठ पहचान।

शिक्षक मुझको खेल खेलाते,
कविता कहानी गीत सुनाते।
अनुशासन जीवन में जरूरी,
नैतिकता का पाठ सिखाते।

गणित अंग्रेजी लगे मुश्किल,
टीचर बताते आसान सा हल।
दोस्त यहाँ खूब मुझे हैं भाते,
पढ़ने लिखने में साथ निभाते।

कितने हरे भरे पेड़ों से घिरा,
सुंदर प्यारा सा मेरा  स्कूल।
खुशबू से खूब महक जाता,
महके यहाँ गुलाब के फूल।
★★★★★★★★★

*वीरों का यह देश*

भारत वर्ष है, वीरों का देश,
जनता सच में है यहाँ नरेश।
महात्मा बुद्ध महावीर स्वामी,
पूरी दुनिया को दिए संदेश।

चारों तरफ दिखती हरियाली,
घर घर जन जन में खुशहाली।
मिल कर हम त्योहार मनाते,
क्रिसमस ईद होली दीवाली।

सब की हम खुशियाँ चाहे,
न रखते हम किसी से बैर।
मेहनतकश हम भारत वाले,
मनाते हैं, हम सबकी खैर।

प्राण न्यौछावर कर देते हैं,
जाने न देते हैं, देश की शान।
ऐसा कोई न कोई कार्य करें,
देश का मिटे जिससे सम्मान।

सुभाष चंद्र भगत सिंह आजाद,
जैसे रणबांकुरों ने जन्म लिया।
वर्षों से हिंदुस्तान गुलाम रहा,
जान गवां कर आज़ाद किया।

भारतवर्ष बन चुका है स्वतंत्र,
चलता न अब यहाँ राजतंत्र।
संविधान से देश का शासन,
अब कोई नही यहाँ परतंत्र।
★★★★★★★★★★

     *शहर की सैर*

कई जानवर जंगल से यूँ,
इक दिन साथ चल पड़े।
हमें घूमना शहर में आज,
चौराहे पर आ हुए खड़े।

सबसे पहले पहुँचे वे माल,
आँखें फाड़े ये माल है टाल।
माल से खूब सामान खरीदे,
फिर चले गए सिनेमा हाल।

पिक्चर में गाना शुरू हुआ,
सब लगे झूम झूम कर गाने।
सिनेमा हाल में किया हंगामा,
मालिक आया उन्हें मनाने।

दिन भर बीत गया सभी को,
अब लग गई सभी को भूख।
होटल में पहुँच खाना खाया,
फिर किया जंगल का रुख।

जंगल जब पहुँचे हो गई रात,
थक कर के हो गए सब चूर।
जम कर खर्राटे ले कर सोए,
नींद आज उन्हें आई भरपूर।
★★★★★★★★★★★

       *चाचा नेहरू*

चाचा नेहरू का जन्म दिवस,
'बाल दिवस' कहा जाता है।
बच्चों से चाचा को खूब प्रेम,
हमें उनकी याद दिलाता है।

हम बच्चे मिल जुल करके,
आज 'बाल दिवस' मनाएँगे।
चाचा नेहरू को गुलाब प्रिय,
हम उससे स्कूल सजाएँगे।

गुलाब लगाते थे अचकन में,
हर समय वह मुस्काते थे।
देश के वे प्रथम प्रधानमंत्री,
बच्चों से प्रेम जताते थे।

हमें आज न पढ़ना लिखना,
खूब खेलेंगे और हम गाएँगे।
चाचा नेहरू की बात करेंगे,
अच्छी आदत अपनाएंगे।

देश के गौरव थे चाचा नेहरू,
बच्चों से खूब लगाव रखते थे।
बच्चों से सत्पथ पर चलने को,
सदैव कहा वह कहते थे।

उन्होंने जो पथ बतलाया है,
पढ़ लिखकर कदम बढ़ाएंगे।
मात पिता गुरु से शिक्षा पा,
हम राष्ट्र को महान बनाएँगे।
★★★★★★★★★★

     *बस की सवारी*

पों पों करते आई लाल बस
सवारी भरी खूब ठसाठस।
जाना बहुत ही रहा जरूरी,
मुश्किल से चढ़े राम दरस।

सीट पर बैठने के लिए लड़े,
बीच में जाकर हो गए खड़े।
खड़े खड़े आ गई उन्हें नींद,
मोटी औरत पर  गिर पड़े।

वो इतने जोर से चिल्लाई,
जैसे हो कोई आफत आई।
राम दरस झटपट से उठे,
मुश्किल से जान बचाई।

सभी लोग तब लगने हँसे,
आ कर के हम कहाँ फँसे।
राम दरस हुए पानी पानी,
बस में याद आ गई नानी।

बस से उतर के घर को भागे,
बस से न जाने के अब इरादे।
घर पहुँच लिया चैन की सांस,
कई दिन आई बस की यादे।



साहित्यिक परिचय
लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
पिता--स्व. श्री अमरनाथ लाल श्रीवास्तव
माता--स्व. श्रीमती लीला श्रीवास्तव
स्थायी पता--ग्राम-कैतहा, पोस्ट-भवानीपुर, जिला-बस्ती
                 272124 (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा--बी. एससी., बी. एड., एल. एल बी., बी टी सी.
(शिक्षक, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता)
व्यवसाय--शिक्षण कार्य
सामाजिक कार्यब-प्रदेश सचिव, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा, उत्तर प्रदेश (अवैतनिक)
सचिव जॉगर्स क्लब बस्ती (अवैतनिक)
सदस्य प्रगतिशील लेखक संघ-बस्ती (उ. प्र.)
लेखन की विधा --कविता/कहानी/लघुकथा/लेख/व्यंग्य/बाल साहित्य/समीक्षा
मोबाइल 7355309428
ईमेल laldevendra204@gmail.com
प्रकाशन

पत्रिका-- (अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय)
छत्तीसगढ़ मित्र, भाषा, संवाद, साहित्य अमृत, सरस्वती सुमन, मुद्राराक्षस उवाच, हरिगंधा, वीणा, प्रगतिशील साहित्य, साहित्य परिक्रमा, सेतु, नव निकष, संवदिया, सर्वभाषा, अभिनव प्रयास, चाणक्य वार्ता, आलोक पर्व, साहित्य समय, नेपथ्य,  हिंदुस्तानी ज़बान, हिंदुस्तानी युवा, आत्मदृष्टि, साहित्य संस्कार, प्रणाम पर्यटन, लोकतंत्र की बुनियाद, सत्य की मशाल, क्षितिज के पार, आरोह अवरोह, यथार्थ, उजाला मासिक, संगिनी, सृजन महोत्सव, साहित्य समीर दस्तक, सुरभि सलोनी, अरुणोदय, हॉटलाइन, फर्स्ट न्यूज़, गुर्जर राष्ट्रवीणा, कर्मनिष्ठा, नया साहित्य निबंध, शब्द शिल्पी, साहित्य कलश, कर्तव्य चक्र, हॉटलाइन, देव चेतना, प्रकृति दर्शन, टेंशन फ्री, द इंडियन व्यू, साहित्य वाटिका, गोलकोण्डा दर्पण, अपना शहर, पंखुड़ी, अविरल प्रवाह, ध्रुव निश्चय वार्ता, कला यात्रा, आर्ष क्रांति, कर्म श्री, मधुराक्षर, साहित्यनामा, सोच-विचार, भाग्य दर्पण, सुबह की धूप, अरण्य वाणी, नव किरण, तेजस, अक्षय गौरव,  प्रेरणा-अंशु, साहित्यञ्जली प्रभा, कविताम्बरा, मरु-नवकिरण, संपर्क भाषा भारती, सोशल संवाद, राष्ट्र-समर्पण, रचना उत्सव, मुस्कान-एक एहसास, साहित्यनामा (द फेस ऑफ इंडिया), खुशबू मेरे देश की, माही संदेश पत्रिका, हिंदी की गूँज, पुरुरवा, समर सलिल, सच की दस्तक, रजत पथ, द अंडर लाइन, जगमग दीपज्योति, साझी विरासत, आदित्य संस्कृति, इंडियन आइडल, साहित्य कुंज, सृजनोन्मुख, सोशल संवाद, समयानुकूल, अनुभव, परिवर्तन, चिकीर्षा, मानवी, सहचर, राष्ट्र समर्पण, प्रतिध्वनि, शबरी, शालिनी, विश्वकर्मा वैदिक समाज, कौमुदी, साहित्यरंगा, साहित्य सुषमा, काव्य प्रहर, काव्यांजलि कुसुम, संगम सवेरा, हिंदी ज्ञान-गंगा, एक कदम, संगम सवेरा, स्वर्णाक्षरा काव्य धारा, अविचल प्रभा, काव्य कलश, नव साहित्य त्रिवेणी, भावांकुर, अवसर, पृथक, तमकुही राज, विचार वीथिका, लक्ष्य भेद, साहित्य अर्पण, सुवासित, तेजस, युवा सृजन, जय विजय, जयदीप, नया गगन आदि पत्रिकाओं में 1000 से अधिक कविताएँ, कहानियाँ व लघुकथाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं और सतत प्रकाशित हो रही हैं।

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काव्य संग्रह

(साँझा काव्य संकलन)
"साहित्य सरोवर", "काव्यांजलि", "बंधन प्रेम का" "अभिजना", "अभीति", "काव्य सरोवर", "निभा", "काव्य सुरभि", "अभिजना", "पिता,"कलरव वीथिका" "इन्नर", "आयाति", "नव किरण", "चमकते कलमकार", "मातृभूमि के वीर पुरोधा", "रंग दे बसंती", "शब्दों के पथिक", "कलम के संग-कोरोना से जंग" प्रकाशित व लगभग छह साँझा काव्य संकलन, एक लघुकथा साँझा संकलन प्रकाशनाधीन।

(एकल काव्य संग्रह)
1- "मृत्यु को पछाड़ दूँगा" (काव्य संग्रह - प्रकाशनाधीन)
2- "वो सुबह तो आएगी" (काव्य संग्रह - प्रकाशनाधीन)
3- "सूरज की नई जमीन" (कहानी संग्रह - प्रकाशनाधीन)

बाल कविता संग्रह-
1- "प्यारा भारत देश हमारा" (प्रकाशित)
2- "बच्चे मन के सच्चे" (प्रकाशनाधीन)

संचालन
 "नव किरण साहित्य साधना मंच" बस्ती (उत्तर प्रदेश)

*सम्मान/पुरस्कार*-- राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित कलमकार मंच द्वारा आयोजित प्रतिष्ठित 2019-20 के 'कलमकार पुरस्कार' में तृतीय स्थान के लिए चयनित, "साहित्य सरोवर", साहित्य साधक अलंकार सम्मान-2019, "काव्य भागीरथ सम्मान", "अभिजना साहित्य सम्मान", "अभीति साहित्य सम्मान", "मधुशाला काव्य सम्मान", "वीणा वादिनी सम्मान-2020", " काव्य श्री सम्मान-2020", "काव्य सागर सम्मान" सहित तीन दर्जनों से अधिक साहित्यिक सम्मान व प्रशस्ति पत्र व कई सामाजिक संस्थाओं व संगठन द्वारा सम्मानित।

संपादन

(पत्रिका)
1-  'नव किरण' मासिक ई-पत्रिका का संपादन।
2- 'बाल किरण' मासिक ई-पत्रिका का संपादन।
3- 'तेजस' मासिक ई-पत्रिका का सह-संपादन।

(पुस्तक)
1- राष्ट्रीय साझा काव्य संकलन
"नव किरण", "नव सृजन" व "सच हुए सपने" का संपादन।
2- एकल काव्य संग्रह 
"प्रेम पीताम्बरी", "दरख़्त की छांव", "अनूठे मोती", "जीवन धारा", "अनुभूति-1", "अनुभूति-2," व "देहरी धरे दीप" का संपादन।
3- एकल कहानी संग्रह*- "प्रेम-अंजलि" का संपादन।

लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
बस्ती (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 7355309428

सोमवार, 6 सितंबर 2021

बालगीत

 बालगीत
----------
आसमान से छम-छम करती आई बरखा रानी।
देखो बरस रहा है कित्ता, ठंडा-ठंडा पानी।

ओढ़ चुनरिया धानी सुंदर लगती ये धरती है ।
पर्वत से पानी कि धारा,झर,झर झर झरती है।
काले बादल खूब कर रहे हैं अपनी मनमानी।

रात चमकते जुगनू, झींगुर गाते रहते गाना।
और छेड़ते हैं मेंढक भी, हरदम वही तराना।
ठीक कर रहे मनसुख कक्का छतरी वही पुरानी।

छलक रही हैं सारी नदियाँ, ताल तलैये झीलें।
बूढी काकी सेंक रही है, हम सब भुट्टे छीलें।
बाहर जाना सख्त मना है, कैसे हो शैतानी।

अम्मा ने तल कर रख्खे हैं, गर्मागर्म पकौडे।
चुन्नू, मून्नू, गन्नू आए खाने दौड़े-दौड़े।
खाएँगे हम सब फिर मिल कर, गुड़पट्टी, गुड़धानी।

जोत रहा खुश होकर अपने खेत अन्नदाता है।
सबसे ज्यादा ये मौसम ही तो उसको भाता है।
बिना अन्न के हो जाएगी वर्ना खतम कहानी।

मुझे बताती ही रहती है, मेरी प्यारी नानी।
जीवन तब तक है जब तक है,ये बरखा ये पानी।
इसे व्यर्थ करने से ज्यादा नहीं कोई नादानी।

सत्यप्रसन्न


परिचय-
______
नाम-         सत्यप्रसन्न
जनक-      स्व. प्रभाकर राव
जननी-      स्व. पद्मावती
जन्म दिनांक- 3-5-1949
मातृभाषा-   तेलगु
शिक्षा-       यांत्रिकी में पत्रोपाधि
सेवा क्षेत्र-   छत्तीसगढ़ राज्य विद्युत उत्पादन कंपनी मर्यादित
संप्रति-      उपरोक्त संस्थान से अधीक्षण अभियंता के पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वाध्याय, और लेखन। सामाजिक गतिविधियों में सहभागिता।
अन्य- यदाकदा आकाशवाणी से रचनाओं का प्रसारण। एकाधिक बार स्थानीय दूरदर्शन से भी। लगभग दर्जन भर साझा संकलनों में कविताएँ प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।
एक एकल संकलन- चातक मन की...।
अधिकतर लेखन स्वांत:सुखाय ही है।



                                                                              

बाल गीत : प्रस्तुति वागर्थ


डा० नीलिमा मिश्रा 
विधा- बालगीत 

आओ हम सब योग करें 
काया को नीरोग करें ।

नहीं कहीं बीमारी हो ,
सबकी ज़िम्मेदारी हो ।
दौड़ लगा नाचें कूदे ,
ऐसा हम उद्योग करें ।।
आओ हम सब योग करें ।

यौगिक क्रिया कलापों से,
शक्तिमान बन जाना है ।
तन मन को मजबूत करें ,
इसमें छुपा खजाना है ।

साँस साँस से ओम जपें 
ईश्वर से संयोग करें ।।
आओ हम सब योग करें ।

गहरी-गहरी साँस भरें,
हम अनुलोम-विलोम करें।
कभी भस्त्रिका कभी भ्रामरी ,
सरल- सहज व्यायाम करें।

आँख मूँद के ध्यान लगाएँ ,
संतों जैसा जोग करें ।।
आओ हम सब योग करें ।

खुले बगीचे में जाएं,
पेड़ों से भी बतियाएँ।
हम खाना ऐसा खाएँ,
लम्बे चौड़े हो जाएँ।

मैदे वाली चीजों का
कम से कम उपयोग करें ।।
आओ हम सब योग करें ।

पानी और हवा दूषित  ,
करना नहीं कभी हमको ।
रोपें पेड़ जनम दिन पर
ख़ुशियाँ मिलें तभी हमको ।

संसाधन को बचा-बचा 
अधिकाधिक उपभोग करें ।।
आओ हम सब योग करें ।।

नीलिमा मिश्रा
___________



परिचय

डा० नीलिमा मिश्रा 


प्रयागराज 

परिचय - 
नाम - डा० नीलिमा मिश्रा, कवयित्री/ शायरा 
शिक्षा- एम० ए० , पी० एच० डी० इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
शिक्षिका - केन्द्रीय विद्यालय आई० आई० आई० टी० झलवा, प्रयागराज 
पता- 3ए लाउदर रोड साउथ मलाका प्रयागराज उ० प्र० 
मो० न० -8127713641


शनिवार, 4 सितंबर 2021

मधु शुक्ला जी का एक बाल गीत प्रस्तुति वागर्थ

बाल गीत 

माँ मुझको भाती गौरैया। 
पास न पर , आती गौरैया। 

कभी अलगनी, कभी झरोखे 
खिड़की कभी बरोठे में  
कभी फुदकती फिरती आँगन 
 उड़ जाती  झट चौके में 
 बड़े  सबेरे  आती  घर में 
मुझे जगा जाती गौरैया ।

देख रहा हूँ कई दिनों से 
तिनका- दुनका जमा रही है 
फोटो के पीछे छुप- छुप कर 
एक घोंसला बना रही है 
मैं भी हाथ बटाना चाहूँ 
ची -ची चिल्लाती गौरैया। 

देखो कितना सुन्दर सा घर 
इसके लिए बनाया मैंने 
दाना- पानी औ' छोटा सा 
झूला एक सजाया मैंने 
पर जाने क्यों इसे देखते 
से ही कतरायी गौरैया। 

क्यों मुझसे इतना चिढ़ती है 
रूठी सी हरदम रहती है
मन करता इसके  संग खेलूँ 
पर ये दूर- दूर रहती है 
पल में छूमंतर  हो जाती 
हाथ नहीं आती गौरैया। 

सोच रही है माँ,  मन ही मन  
उत्तर में,   आखिर क्या बोले? 
'छोटू' की भोली बातों में 
बिहस रही बस होले- होले 
बचपन की कोमल सुधियों सी 
मन को  दुलराती  गौरैया। 

मधु शुक्ला, भोपाल।

रविवार, 29 अगस्त 2021

बलदाऊ राम साहू के बालगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

अपनों से नाता जोड़ो

अब  शाला  में  नहीं  पढ़ाई 
मुन्नू   खाओ   गप्प  मिठाई।
मुनिया क्यों रहती हो  रूठी
और करती क्यों है  ढिठाई।

कोरोना   आया    महामारी 
क्या  करेगी  जनता बेचारी
छुट रहे  हैं  सब  नाते-रिश्ते 
खत्म  हो  गई,  दुनियादारी।

कहते  हैं  सब  रहो  दूर-दूर
और मुँह पर मास्क लगाओ
सुरक्षित होगा जीवन अपना
कोरोना  को  सदा  डराओ।

इसीलिए  कहता  हूँ मुनिया 
रूठा-राठी  तुम  भी   छोड़ो
जीवन   बहुत  महत्वपूर्ण है 
अपनों से तुम  नाता  जोड़ो।

मुन्नू  रार  मचाये  जब -जब 
आकर हमको तुम बतलाना।
कभी  जिद्द  मत करना तुम 
हँसना  और  खूब  मुस्काना।

-बलदाऊ राम साहू

देखो जी अब सूरज आया 

धूप सुबह  चुपके  से आयी
दादा  आकर  हमें  जगाये
देखो जी अब सूरज आया।

मुर्गों ने भी  अलख  जगाया
चिड़ियों ने जी भरकर गाया
देखो जी अब  सूरज आया।

मुस्काते   पनिहारिन  आई
कुएँ का यह  जगत हर्षाया 
देखो जी अब सूरज आया।

मुन्नू    दौड़े  -  दौड़े  आया
दादा को  उसने  बतलाया
देखो  दादा   लंबी   छाया।
देखो जी अब सूरज आया।

-बलदाऊ राम साहू

शिशु-गीत 

मेरी गुड़िया 

देखो  अम्मा  मेरी   गुड़िया 
अम्मा-अम्मा मुझे  बुलाती।
जब मैं उसको थपकी देती
वह अपनी आँखें मटकाती।

पें-पें  कर  रोती  है  हरदम 
और कभी चुप हो जाती है 
तुमको कहती दादी अम्मा 
लोरी सुनकर सो  जाती है।

अम्मा-अम्मा  मेरी गुड़िया 
को, एक फ्राक बनवा देना
उस पर तुम कुछ नन्हे तारें 
चमकीले  हों, टकवा  देना।

-बलदाऊ राम साहू


बाल कविता 

सूरज आ जाता 

रोज   नया   सूरज  आ  जाता 
आभा नवीन  वह  दिखलाता।

पंछी   आते,    शोर     मचाते 
तरह - तरह   के  गीत  सुनाते।

ठंडी     बहती     है     पुरवाई 
समझो दिन अब निकला भाई।

चलो-चलो अब  उठ भी जाओ
पढ़ना   है  शाला  तुम   जाओ।

-बलदाऊ राम साहू

बाल गीत 

चुन्नु,  मुन्नु,   मुनिया  आओ,
नन्हे  सुंदर  पौध    लगाओ।

पौधे     जब     लहलहाएँगे,
प्यारे   फूल  खिल   जाएँगे।

मँडराएँगे   भौंरे    उन    पर,
तितली भी  आएँगी उड़कर।

फूलों   से   महकेगा  आँगन,
हर्षित होगा सबका तन-मन।

गुड़िया  देखकर  ललचाएगी,
चुपके  से  तोड़  ले  जाएगी।

-बलदाऊ राम साहू

नन्हे राही

पूछ  रहा  था   मुझसे  नानू
चाँद  कहाँ  से  आया  होगा
औ' सितारों को  आसमाँ में 
जाने  कौन  फैलाया  होगा।

रोज   सवेरे   पूरब   में   ही
सूरज  कैसे   आ   जाता  है
और शाम को जाने क्यों वह
पश्चिम  में  ही  सो  जाता है।

जाने   कैसे    सीखा   होगा
कोयल ने  यह  नया  तराना
औ'  पंछी  से  पूछें  तो  हम
कैसे   वे   सीखे   हैं   गाना। 

कैसे   दिशा   बदलती   होगी
शीतल  पवन  और  पुरवाई 
इन  पहेलियों  को  बूझ कर
चतुर   कहाएँ   नन्हे    राही।

-बलदाऊ राम साहू

क्रिसमस का त्यौहार 

रानू,   शानू,    भोलू   आओ
पोनी,  मोनी,  जूली   आओ।
आओ   राजू,  बबलू  आओ 
खुशी-खुशी त्यौहार मनाओ।

क्रिसमस का त्यौहार है प्यारे
जड़े   हुए  हैं   देखो  सितारे
झूम कर  आई है खुशियाली 
लगता   है    जैसे    दीवाली।

माँ - बापू   के   सँग  जाएँगे
कुछ ना  कुछ लेकर आएँगे
दादी - दादा  हमें   प्यार  से
कपड़े  तो  कुछ  दिलवाएँगे।

सांता  क्लाज़  आएंगे भाई 
उपहार   वह  लाएंगे   भाई
बच्चों को वह  प्यार  जताते
इसीलिए तो हर साल  आते।

-बलदाऊ राम साहू

प्यारी नानी 

गुस्सा  छोड़ो  प्यारी नानी
कहो न तुम कथा-कहानी 
मेघ कहाँ  से  लाता होगा
भर-भर कर इतना  पानी।

चंदा  मामा  दूर-दूर  क्यों 
हमदम   हमसे   रहते  हैं
आसमान  से सूरज दादा 
आकर क्यों वह तपते हैं।

हमको तुम बतलाओ नानी
कलियाँ  कैसे  खिल आतीं
और बाग  में  तितली रानी 
आकर क्यों  रस पी जाती।

बोलो - बोलो,  बोलो नानी
सागर जल  क्यों  है  खारा 
औ' बादल भैया जाने क्यों 
दे   जाता   है  पानी  सारा।

-बलदाऊ राम साहू


प्यारे बच्चे हैं 

मन से जो भी सच्चे हैं 
वे सब अच्छे-अच्छे हैं। 

जो हरदम  मुस्काते है
प्यारे - प्यारे  बच्चे  हैं।

दूसरों की  करें भलाई
वे  फूलों  के  गुच्छे  हैं।

मिहनत से आगे आते
वे  ही  बच्चे अच्छे  हैं।

बाधाओं   से   घबराएँ 
समझो वे अधकच्चे  हैं।

झूठ   बोलने   वाले  ही
हरदम   खाते  गच्चे  हैं।

-बलदाऊ राम साहू

ईश्वर दयाल गोस्वामी जी के टीं लोरी गीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

डॉ अजय जनमेजय के लोरी गीत प्रस्तुति वागर्थ

कुछ लोरी गीत भेज रहा हूँ


           (१)
झल्लर के मल्लर के गीत सुनाऊँगी
मैं अपने लल्ला को  अभी सुलाऊँगी 
धरती    का    राजा  तू
राजा      अम्बर      का 
तू    ही     तो    राजा है
हरे       समुन्दर       का
सूरज  या  चंदा  तब  तुझे बुलाऊँगी  

परियों   की   जुगनू की
नन्हीं      तितली     की
कोयल की बुलबुल की
उड़ती     बदली       की 
सो जा अब कल इनकी कथा सुनाऊँगी 

चन्दा       भी     देखेगा
तुझको     जी    भरकर
परियाँ      भी    नाचेंगी 
तुझको     छू -छू    कर
नहला कर कल को जब तुझे सजाऊँगी 


               (२)
सपन सलोने आते हैं सब 
पंख     तेरे     चढ़     कर
ममता वाली गोद लिए तू
सबसे      है     बढ़    कर

लगती   है   माँ   जैसी तू
निंदिया सबसे   प्यारी तू

अपनी गोदी में ले सबके
कष्टों     को         हरती
दूर थकावट करती, सब में 
मस्ती           है      भरती 

राजा रंक सभी को लगती
प्यारी,   बड़ी    दुलारी  तू 

चाहे कोई   भी मौसम हो
तेरी        बात       अलग
दिन भी माना बहुत ज़रूरी
पर     है     रात     अलग

सपने, चन्दा , परियों वाली
तू   है   सबसे    न्यारी   तू 

        (३)

खिड़की   से   ही   झाँके  क्यूँ 
दूर    है    तू   मुन्ना    से   क्यूँ
आ   जा   निंदिया   आ जा री!

तारें       देखें         ऊपर     से 
सोएगा        मेरा           मुन्ना 
सपनों      में     सब     आएँगें;
नाचेंगे      ता-धिक्      धिन्ना 
पास   न     मेरे    क्यों    आए
दूर    खड़ी    क्यों     इठलाए

तेरे         लिए       बनाए    हैं 
हलवा     पूरी    खा   जा   री!

सोई    तितली     फूलों    पर
भूल    गई    घर   को    जाना
पेड़    सो    गए     खड़े   खड़े
कह   चिड़िया को कल आना
तू   अब   तक क्यों तुनक रही
दूर    खड़ी   क्यों   ठुनक रही

कहना     मान      हमारा    री
बजा    रही     क्यों   बाजा री
आ    जा   निंदिया  आ जा री 

(४)


ला सुन्दर इक सपना री
मेरी  गुड़िया को
आ जा री आ निंदिया री
मेरी बिटिया को —

दूर चली क्यों आँखों से
पल-पल जाती है
पलकों को  तू मुनिया की 
छल-छल जाती है

समय बहुत बाँटा करती
बाक़ी दुनिया को—-

जल्दी तुझे बहुत रहती
कहाँ  कहाँ  जाती
मेरे घर  तो  अक्सर तू
देर     गए   आती
गई    सुलाने   होगी तू
काली बछिया को —-

हुमक हुमक कर आना तू
पर  धीरे- धीरे 
शीतल पवन भी लाना तू
जा नदिया  तीरे
मिलने तो जाती होगी
तू भी  नदिया को ——-

   (५)
नींद   पलकों   के   आई  किनारे
सो जा  सो  जा तू प्यारे———-

नींद   सबको   सुलाने  थी निकली
जल भरा था अचानक वो फिसली
बड़ी   मुश्किल   से   रस्ता मिला रे 
सो जा  सो जा  तू प्यारे————

साथ    लेकर    सपने    चली  थी
नींद   वैसे    तो   चंगी   भली   थी
स्वप्न    लुटने    का डर था हुआ रे
सो जा सो जा तू प्यारे————

है   अकेली   न   रातों   की   रानी
हर   जगह   नींद   है   जानी मानी
साथ   तारों   का   है  काफिला रे
सो  जा  सोचा तू प्यारे————

     (६)
मीठी    नींद   सुला   दे   निंदिया 
मीठी नींद सुला दे—————

ताऊ   जी   की   छत   के  ऊपर
फैला   आया दाने
ताई    अभी      गई    है    देकर
मुझको  मीठे ताने
दिन   भर   की   इसकी शैतानी
आकर नींद भुला दे ————

लोरी   के   तो   लिए   रोज़ ही 
मेरे पास ठुनकता
मगर    दूध    पीने   से   बचता
रोता और तुनकता 
सोएगा    अब   इसको  झूला 
आकर नींद झुला दे———-
मीठी   नींद सुला दे ————

ईश्वर दयाल गोस्वामी जी के टीं लोरी गीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग




लोरी गीत 
------------

बिटिया !
सो जइए री !
किसने 
हरी तेरी निंदिया ?

बाहर सोया,
भीतर सोया ।
चिड़िया सोई,
तीतर सोया ।
ताल,कूप को 
सुला-सुला कर
सोई गहरी नदिया ।

चूल्हा सोया,
लकड़ी सोई ।
अंगारों की
आगी सोई ।
सटी हुई
चूल्हे से भूखी
सोई कानी कुतिया ।

गुड्डा सोया,
गुड़िया सोई ।
बँधी सार में
बछिया सोई ।
थके और
सुंदर माथे पर
माँ के,सोई बिंदिया ।

बिटिया ! 
सो जइए री ! 
किसने 
हरी तेरी निंदिया ?

                --- ईश्वर दयाल गोस्वामी
                    छिरारी (रहली),सागर
                    मध्यप्रदेश ।
लोरी गीत 
------------

सोईए 
गोपाल लाल !
पहर चढ़ी रैना ।

पालने की डोर थकी,
काजरे की कोर थकी ।
थक चुका है
शोर सब, 
और थकी चैना ।

थक चुकी खटाई सब,
दूध औ' मलाई सब ।
थक चुकीं
जलेबियाँ भी
और थका छैना ।

सोईए
गोपाल लाल !
पहर चढ़ी रैना ।

               -- ईश्वर दयाल गोस्वामी
                  छिरारी (रहली),सागर
                  मध्यप्रदेश ।
लोरी गीत 
-------------

नींद  मेरे  लाल  की 
जो उड़ी,तो क्यों उड़ी ?

थपकियाँ  मचल रहीं,
लोरियाँ  सिसक  रहीं ।
पालना  की  डोर  भी,
हाथ से  खिसक  रहीं ।

आस  में  निराश  की,
आ कड़ी ये क्यों जुड़ी ?

लाल होके लाल की,
आँख क्यों तनी-तनी ?
नींद  और  रात की
रार  क्यों  ठनी-ठनी ?

लाड़  की जुड़ी कड़ी,
लाड़ले से क्यों छुड़ी ?

नींद को बना कजर,
आँख  में  सजाऊँगी ।
डोर खींच रात की,
पालना   झुलाऊँगी ।

प्यार की दशा-दिशा
जो मुड़ी,तो क्यों मुड़ी ?

नींद  मेरे  लाल  की 
जो उड़ी,तो क्यों उड़ी ?

                  --- ईश्वर दयाल गोस्वामी 
                      छिरारी (रहली),सागर
                      मध्यप्रदेश ।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2021

कवि उदय अनुज के बाल गीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ

चींटी की शादी
___________

चींटी  की  शादी  में आये, 
उसके चींटा मामा। 
बड़े अखाड़ेबाज लड़इया, 
पहलवान ज्यों गामा। 

बड़ी-बड़ी  मूँछें थीं उनकी, 
सुगठित  भरी भुजाएँ। 
सारे   पाहुन   उनसे  डरते, 
निकट न कोई  जाएँ। 

चींटी  के  चाचा  थे  दुबले, 
ज्यों-त्यों चलती गाड़ी। 
पहलवान मामा जब छींकें, 
ढीली   होती   नाड़ी। 

जितने लड्डू बनते घर में, 
मामा आधे  खाते। 
फिर भी वे मैदान न  छोडें, 
पाहुन  भूखे   जाते। 

लड्डू  खाकर गामा मामा, 
घर में खूब डकारें। 
सारे  पाहुन  थर-थर  काँपें, 
हिलती थीं दीवारें। 

टैंट किराये  का  बुलवाया,
मंडप खूब सजाया। 
चींटी रानी को  सजा-धजा, 
दूल्हे  संग  बिठाया। 

तभी  जोर से  छींकें  मामा, 
टेंट  ढह  गया  सारा। 
टाँगें    टूटीं   दूल्हा   पहुँचा, 
अस्पताल    बेचारा। 
             
गिलहरी
_______

बिजली  जैसी  चपल  सलोनी।
लगे  रुई   की   कोमल   पोनी।

दौड़   लगाये   डाली  -  डाली।
रुके   अचानक  ठोंके    ताली।

 खड़ी  हुई  पिछले   पैरों   पर।
 दाना  खाये  कुतर-कुतर  कर।

 तेज - तेज  यह  पूँछ  हिलाये।
 नन्हीं    मूँछें    भी   दिखलाये। 

 सेतु  -  बंध   में    ढोई    रेती। 
 प्रभू   राम  की   बनी   चहेती। 

 बिठा  गोद  में  जब  पुचकारी। 
 तीन   धारियाँ    पीठ   सँवारी। 
 
  दिखे  गाँव  में  कह लो शहरी। 
  अजी  जानिए  नाम  गिलहरी। 
                     
हाथी का रूमाल
_____________
अपने हाथी दादा इक दिन , 
पहुँचे दरजी पास।
दो मीटर में ड्रेस बना लें , 
यही लिये मन आस।

दरजी ने जब बात सुनी तो , 
बोला  दादा  जान। 
छोटी आँखों से कपड़े की,
कर लो कुछ पहचान।

नापो इसको देखो यह है , 
केवल दो ही हाथ।
ऐसे में कैसे सिल सकता, 
शर्ट-सूट इक  साथ।

हँसी खूब आई दरजी को, 
हँसा  हुआ बेहाल। 
बोला दादा इसे बना लो , 
नाक पोंछ  रूमाल। 
                
चाँद पर
______


गया चाँद पर सबसे पहले,
मानव का उड़न-खटोला।
चाँद हुआ तब हक्का-बक्का,
हाथ जोड़कर वह बोला। 

ऊबड़ - खाबड़ मेरा चेहरा, 
दुनिया को दिखलाओगे। 
अरे नील औ' एल्ड्रिन मेरा, 
तुम तो मान घटाओगे। 

धरती पर जब वापस पहुँचो, 
सही हाल मत बतलाना। 
जितना सुंदर लगूँ धरा से, 
फोटो वैसी दिखलाना। 

वर्ना युगों पुराना नाता, 
मिट्टी में मिल जायेगा। 
मेरे प्यारे गीत धरा पर, 
कभी न कोई गायेगा। 

मामा नहीं कहाऊँगा मैं, 
नहीं काव्य में आऊँगा। 
इतनी दूर अकेला मैं तो, 
घुट-घुट कर मर जाऊँगा। 
              
चुहिया का झगड़ा
______________
(निमाड़ जनपद की लोककथा पर आधारित काव्य-कथा)

चूहा - चुहिया दोनों  मिल , 
इक  बर्तन में  सोये।
दिन  भर  के थे थके  हुए, 
गहरी निंदिया खोये।

पलक झपकते दोनों को, 
नींद लगी  थी   भारी।
और   नींद  में  चूहे  ने  ,  
लात भूल   से   मारी।

बहुत  खपा  थीं चुहियाजी, 
सुबह  देर तक सोई।
और  रात  की  बात  लिये , 
बार  - बार थी  रोई।

बहुत मिन्नतें कीं लेकिन , 
नहीं   तनिक मुस्काई।
बात  लात  की फिर  उसने, 
रह- रह कर दुहराई।

वही  बहाना  ले  चुहिया , 
पड़ती उस  पर  भारी। 
"अरे समझते क्या मुझको! 
मुझे लात क्यों मारी।" 

नहीं  रहूँगी  अब  इस  घर , 
कोरट में  जाऊँगी। 
तुमसे   लूँगी   मैं   तलाक ,  
तभी चैन   पाऊँगी। 

बात  सुनी  जब  कोरट की  ,  
तो चूहा  घबराया। 
कान  पकड़  माफी  माँगी ,  
रगड़ी  नाक मनाया। 

काम  घरेलू  सब  निबटा , 
चूहा  कुछ  सुस्ताया।
बहुत लगन से फिर अच्छा ,
भोजन गया  बनाया।

फिर  दौड़ा  उसे  मनाने ,  
वह झट से  उठ आई। 
बोली   प्यारे   राजाजी   !   
बीती  बात   भुलाई।

आप लगाओ अब खाना , 
साथ   बैठकर  खायें। 
और आज है फिर संडे , 
मिलकर   मौज  मनायें। 
                   
वर चाहिए
________
गुड्डे  वालों  सुनो  सुनो  जी!
बात  पते की  जरा गुनो जी!

मेरे  घर   है  प्यारी  गुड़िया।
है शक्कर की मीठी पुड़िया।

वो दिन भर बन-ठन रहती है।
फिर खुद को हेमा  कहती है।

वो  नये  चलन  की  छोरी  है।
वो   गोरी   दूध   कटोरी    है। 

भले  ही  गाँव  में   रहती  है। 
पर साथ समय के  बहती  है। 

पढ़ी - लिखी  वह ग्रेजुएट  है।
फैशन  में   भी  अपटुडेट  है। 

उसका  कोई   नहीं  तोड़   है। 
फटी जीन्स तो आठ जोड़  है। 

वो  मोबाइल   की   मारी   है। 
वो  सारे   घर  पर   भारी   है। 

फेसबुक  औ'  वाट्सअप   में। 
व्यस्त रहे दिन भर गपशप  में। 

काम   बताएँ   झल्लाती    है। 
आँख बड़ी कर  दिखलाती है। 

हमें   चाहिए   प्यारा    दूल्हा। 
कभी   नहीं  फुँकवाए  चूल्हा। 

जा  सकती है शापिंग   करने। 
कभी  न   जाए  पानी   भरने। 

पढ़ा-लिखा वर समझदार  हो। 
काना  हो  पर   मालदार   हो।
                

बैठी आज मुँडेरे चिड़िया
__________________

नयी सुबह का गीत सुनाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।
नन्हे मुन्नों तुम्हें जगाने, 
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया। 

अभी-अभी तो सुबह हुई है,
भूख लगी पर जोरों की है, 
आँगन में कुछ दाना पाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया। 

रट्टा खूब लगाते हो तुम,
भूल मगर फिर जाते हो तुम, 
फिर से भूला पाठ सिखाने, 
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया। 

पापाजी ने डाँटा है या,
मम्मी ने चपत लगाई है, 
रूठे बेटों तुम्हें मनाने,
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।

धूप - छाँह के मेले में जब, 
बूँदें झरतीं प्यारी-प्यारी। 
अपने बच्चों संग नहाने, 
बैठी आज मुँडेरे चिड़िया।
                      
दिन और रात
___________

दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली।

दिन लाता है जलता सूरज,
रात चाँद ले आती है।
मुस्काती तारों की टोली, 
नभ में मन को भाती है।
आसमान में तारे चमकें,
खिलती दिल की कली-कली। 
दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली। 

दिन ज़्यादा कुछ देता है कब,
यह तो दे बस उजियारा। 
संग ज्योत के रात हमें दे, 
मोती-सा ओस पिटारा। 
इसीलिए दिन को हम बच्चे,
बात सुनाएँ जली-जली। 
दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली। 

दिन तो होता पत्थर दिल है, 
हमसे बस काम कराए। 
कोमल दिल की होती रजनी,
थपकी दे हमें सुलाए। 
कैसी गहरी आये निंदिया,
जब हौले से पवन चली। 
दिन खराब औ' रात भली जी! 
दिन खराब औ' रात भली। 

दिन को याद करो बस गिनती,
नहीं करो तो मार पड़े। 
मम्मी कान पकड़ कर कहती,
नहीं निरर्थक रहो खड़े। 
दादी कहती रात कहानी,
राणा की तलवार चली।
दिन खराब औ' रात भली जी!
दिन खराब औ' रात भली। 

साथी दिन में करें परेशाँ,
             हमें चैन कब मिलता है। 
होमवर्क की मारामारी,
       हृदय-कमल कब खिलता है। 
और रात जब आती सजकर,
            चुप हो जाती गली-गली। 
दिन खराब औ' रात भली जी!
          दिन खराब औ' रात भली। 
                   
रेल चली जी!
__________

खेलम   खेला   रेल   चली   जी!
लो  बच्चों  की  रेल   चली   जी!

आगे  -  आगे     बढ़ती    जाती।                               कभी   नहीं   पीछे    मुड़  पाती।

पर्वत    घाटी     नदिया    नाला।
इंजन    कब   है   रुकने   वाला।

सरपट   है    वह   दौड़ा   जाता।
कभी-कभी  थकता  रुक  जाता।

चुन्नू    इंजन    खींच  न    पाता। 
मुन्नू    इंजन     जोर      लगाता। 

सीटी     देता     और   उछलता। 
दौड़े - दौड़े     कहीं    फिसलता। 

पैसेंजर      घायल     हो    जाते।                              लम्बू       खम्बू     भागे     आते।

झूठे     घायल     खूब   कराहते।                                पानी   -  पानी      हैं    चिल्लाते। 

पिल्लूजी   डाॅक्टर    बन   जाते। 
नकली     टीका     खूब   लगाते। 

देख   सभी  यह  खुश  हो  जाते। 
फिर   से   मिलकर  रेल   बनाते।

खिलती दिल की कली-कली जी।
खेलम    खेला    रेल   चली  जी। 
              
वर्षा का काला बादल
________________

दूर देश सेआता है, 
वर्षा का काला बादल।
आकर शोर मचाता है, 
 वर्षा का काला बादल।

सूखी नदियाँ रीती झीलें, 
खाली ताल तलैया, 
पानी से भर जाता है, 
वर्षा का काला बादल। 

रिमझिम-रिमझिम खूब बरसता,   
यह सावन का संगी, 
वन में मोर नचाता है, 
वर्षा का काला बादल। 

हम खुश होते और नहाते, 
अपने घर के आँगन, 
मम्मी से  पिटवाता है, 
वर्षा का काला बादल। 

स्वयम् घूमता यहाँ-वहाँ पर,   
मास्टरजी से कहकर, 
शालाएँ खुलवाता है,
वर्षा का काला बादल। 

सब है अच्छा पर है इसकी, 
यह इक आदत गंदी, 
कीचड़ खूब मचाता है, 
वर्षा का काला बादल। 
                     
अभिजित का सपना
_______________

रात दिवाली अभिजित ने,
देखा मीठा सपना।
मीठा-मीठा खूब हुआ, 
मिट्टी का घर अपना।

रबड़ी से पुती हुई थीं, 
घर की सब दीवारें।
टँगी जलेबी दरवाजे,  
पेठा लगती  कारें।

रसगुल्लों इमरतियों से, 
सजी फूल की क्यारी।
गेंदा पौधे पर लटकी, 
मावाबाटी प्यारी।

पानी के मटके में थी ,  
मीठी दूध मलाई।
नल की टोंटी खोली तो, 
खीर वहाँ बरसाई।

घर पिछवाड़े घेवर-से, 
दिखते गोबर-कंडे। 
बालूशाही-सी मुरगी,  
दे लड्डू-से अंडे। 

पापाजी कोने में ज्यों,
मालपुए मुस्काते। 
गुड़ की भेली-सी मम्मी , 
चूहे उनको खाते। 

बहन संजना कलाकंद, 
कनु मिश्री की डल्ली। 
क्रीम रोल से कोने में, 
लगते डंडा-गिल्ली। 

चाचा दिखते बर्फी-से, 
चाची बेसन-चकती। 
वीर हुआ गुलाब जामुन, 
चींटी उसको तकती। 

कविता की डायरियाँ थीं ,  
जैसे पूरण-पोली। 
"अभिजित ने खा ली"-दादी,
 दादाजी से बोली। 




उदय सिंह अनुज

परिचय ~
कुँअर उदयसिंह अनुज
जन्म तिथि - १५ जुलाई १९५०
शिक्षा - हिन्दी साहित्य में एम. ए., विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन (मप्र) 

जन्म स्थान /स्थाई पता--
ठिकाना पोस्ट - धरगाँव (मंड़लेश्वर) 
जिला - खरगोन (मध्यप्रदेश) 
पिन. 451-221 

प्रकाशित पुस्तकें-
1- लुच्चो छे यो जमानों दाजी! 
निमाड़ी लोकभाषा ग़ज़ल संग्रह - 2007 में प्रकाशित 
2- अभिजित का सपना - बाल साहित्य हिन्दी कविताएँ - 2011 में प्रकाशित 
3- यह मुक़ाम कुछ और - - दोहा संग्रह (600 दोहे) - 2 017 मे प्रकाशित 

पत्रिकाओं में प्रकाशन-- हंस, समकालीन भारतीय साहित्य, पाखी, हरिगंधा, अभिनव प्रयास, समावर्तन, अक्षर पर्व, हिन्दी विवेक, सरस्वती सुमन, अनन्तिम, शेषामृत, शब्द प्रवाह, अर्बाबे क़लम, शिखर वार्ता, मेकलसुता, यशधारा पत्रिकाओं में दोहे व गीत प्रकाशित। 
समाचार पत्र--नईदुनिया, नवभारत टाइम्स, दैनिक ट्रिब्यून, में रचनाएँ प्रकाशित। 
सम्मान-- सौमित्र सम्मान इंदौर 2004,
वयम सम्मान खरगोन 2007,
कस्तूरीदेवी लोकभाषा सम्मान भोपाल - 2012
गणगौर सम्मान खंडवा - 2012
लोक सृजन सम्मान मंड़लेश्वर - 2014
लोक साहित्य सम्मान खरगोन - 2015 
सम्प्रति - सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंक मर्यादित खरगोन से 2008 में वरिष्ठ शाखा प्रबंधक पद से सेवा निवृत्त 
मोबाइल - 96694-07634 
  Email - uday.anuj2012@gmail.com
                   

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

बाल गीत मेरार रज़ा प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग

कविता- सुनो पेड़ जी

खड़े-खड़े हरदम रहते हो,
कुछ ना कहते, चुप रहते हो!
नीम, आम, जामुन, बहेड़ जी,
सुनो पेड़ जी, सुनो पेड़ जी!

कभी बैठकर हमसे बोलो,
दही-जलेबी खा ख़ुश हो लो!
ललचाए से खड़े भेड़ जी,
सुनो पेड़ जी, सुनो पेड़ जी!

मिट्टी से तुम जल लेते हो,
मीठे-मीठे फल देते हो!
खाएँ बच्चे औ' अधेड़ जी,
सुनो पेड़ जी, सुनो पेड़ जी!

करो सुखी जीवन की राहें, 
जो भी तुम्हें काटना चाहें; 
हम उनको देंगे खदेड़ जी,
सुनो पेड़ जी, सुनो पेड़ जी!



कविता- बीज की चाह

दाना हूँ मैं नन्हा-मुन्ना,
मिट्टी में हूँ गड़ा-गड़ा!
कैसी होगी दुनिया बाहर,
सोच रहा हूँ पड़ा-पड़ा!

मीठा-मीठा पानी पीकर, 
अंकुर मैं बन जाऊँ! 
बढ़िया खाद मिले तो खाकर,
खिल-खिलकर मुस्काऊँ!

बाहर आकर धीरे-धीरे,
बड़ा पेड़ बन जाऊँ!
नीले-नीले अंबर नीचे,
हवा संग लहराऊँ!

नन्हीं चिड़िया मेरे ऊपर,
अपना नीड़ बनाए!
सुंदर मीठे गीत सुनाकर,
मेरा मन बहलाए!

तपती गर्मी से थककर जब,
राहगीर भी आए!
शीतल-शीतल छाया पाकर,
खुश तुरंत हो जाए!

तेज हवा के झोंके खाकर,
मीठे फल बरसाऊँ!
मेरे पास चले जब आओ,
तुमको ख़ूब खिलाऊँ!


बालगीत- बुढ़िया के बाल

खा लो, खा लो, जी भर खा लो,
मिठाई बेमिसाल।

घूम-घूम घिरनी से निकली,
मुँह में जाते ही मैं पिघली।
देखो, तो स्पंज लगूँ मैं,
रंग गुलाबी-लाल।

गली-मुहल्ले में जब जाऊँ,
सब बच्चों को मैं ललचाऊँ।
हल्की हूँ मैं रुई सरीखी,
रेशा-रेशा जाल।

मज़ेदार हूँ मैं खाने में,
चीनी मेरे हर दाने में।
हवा-मिठाई कह लो मुझको,
या बुढ़िया के बाल। 



कविता- जूँ

इल्लम-बिल्लम, झिल्लम झूँ,
काली-काली जूँ! जूँ! जूँ! 

बालों में की घुस-पैठी,
खून चूसकर है बैठी !

मुनिया का सिर खुजलाया,
उसको तो ग़ुस्सा आया!

जल्दी से कंघी लाई,
फिर जूँ की शामत आई!



कविता- सो गया घोड़ा खड़े-खड़े

नीचे सड़क, ऊपर पहाड़ी,
सड़क पर चली घोड़ा गाड़ी!

आगे गाड़ी, पीछे गाड़ी,
जाम हुआ अगाड़ी-पिछाड़ी!

पीं पो, पीं पो, चिल्लम चो,
धक्का-मुक्की, पिल्लम पो!

क्या हुआ भाई अरे, अरे,
सो गया घोड़ा खड़े-खड़े!



पहेली कविता- उजाला लाऊँ

सूरज चाचू सो जाएँ जब,
चुपके-चुपके आऊँ!
काले-काले गाँव-शहर में,
ख़ूब उजाला लाऊँ!

नीलगगन के चंदा-तारे,
नहीं दिया, ना बाती!
दही-बड़े, ना आइसक्रीम,
बिजली मुझको भाती!

बाबा एडीसन लाए थे, 
मुझको इस संसार में!
मेरा नाम बताकर झटपट,
रहो सदा उजियार में! 



कविता- पेड़ बहुत उपकारी

हरे-हरे पत्तों वाला मैं,
पेड़ बहुत उपकारी!
हरी-भरी धरती है मुझसे,
मैं कितना हितकारी!

फूल-पत्तियों और फलों से,
है गुणकारी काया!
थककर राहगीर जब आते,
पाते ठंडी छाया!

पाकर खूब हवाएं ताज़ी,
चलती जीवन-धारा!
हमें काट क्यों लाते अपने,
जीवन में अंधियारा!



बालगीत- अटकूं-मटकूं

अटकूं-मटकूं,
छत से लटकूं।

हौले-हौले
घर में आऊँ।
लारों से मैं
जाल बनाऊँ।
उन जालों पर
दौड़ूं, झटकूं।

मक्खी-मच्छर,
कीट फसाऊँ।
बहुत मजे से
उनको खाऊँ।
बच ना पाए
जिसको पटकूं।

सुलझे धागे
को उलझाऊँ।
बच्चों मकड़ी
मैं कहलाऊँ।
देख छिपकली
पास न फटकूं।

बालगीत-  आओ बतियाओ मम्मी

करो नहीं जी कुट्टी हमसे,
आओ बतियाओ मम्मी!

की गलती जो मैने उसकी,
सजा नहीं ये दो ना!
लगती बातें भली आपकी,
गुमशुम चुप बैठो ना!
मुझे बिठा गोदी में अपनी,
मुझको समझाओ मम्मी!

जानबूझ ना करना चाहूं,
गलती हो जाती है!
आप बताओ भला किसी को,
गलतियां सुहाती है?
माना हुई तकलीफ आपको,
अभी मुस्कुराओ मम्मी!

अरे आप हो प्यारी मम्मी,
मैं हूं बिटिया रानी!
वादा है जी नहीं करूंगी,
अब कोई शैतानी!
मीठा-मीठा गीत सुनाओ,
रस बरसाओ मम्मी!



बालगीत- दूँगा दाना-पानी

मेरा प्यारा गाँव छोड़कर,
कहाँ उड़ चली हो गोरैया!

दरवाजे पर देखो सूना,
खड़ा नीम का पेड़!
है आवाज़ लगाती तुमको,
वो छत की मुंडेर!
भूल गईं क्या गाँव सलोना,
यहीं पली थीं तुम गोरैया?

बना नीम पर एक घोसला,
करना यहीं बसेरा!
गूँजे मीठा कलरव फिर से,
जीवन डाले डेरा!
साथ चिरौटे को भी लाना,
भला एक भोली गोरैया!

जो आओगी आँगन मेरे,
दूँगा दाना-पानी!
रातों को मेरी दादी से,
सुनना रोज़ कहानी!
फुदक-फुदक आँगन में खाना,
भात, बाजरा, फल गोरैया! 



कविता- लगती साँप-सपोली

दौड़ूँ सर-सर पटरी-पटरी,
धूल उड़ाती आऊँ!
भीड़-भड़क्का, धक्कम- धक्का,
ख़ूब सवारी लाऊँ!

दिल्ली, पटना और आगरा, 
सारे शहर घुमाऊँ!
एक शहर से शहर दूसरे,
चक्कर रोज़ लगाऊँ!

दिखे जहाँ पर स्टेशन कोई,
वहीं ज़रा रुक जाऊँ!
चलने के पहले तेज़ी से,
दो सीटियाँ बजाऊँ!

बहुत दूर से देखो तो मैं,
लगती साँप-सपोली!
मुसाफ़िरों को लादे ख़ुद पर,
दौड़ूँ लेकर खोली! 



उत्तर दे दो 

पतली-दुबली काया मेरी,
लंबी, लाल, लचीली!
बहुत रसीली मैं रहती हूँ,
हरदम रहती गीली!

कैंची-सी चलती हूँ हरपल,
रहती नहीं हठीली!
दूध-मलाई मुझे लुभाए,
चाटूँ चार पतीली! 

खुश हो जाएँ लोग सभी,
जब बोलूँ बात चुटीली!
लेकिन बिगड़ी अगर कहीं तो,
बन जाऊँ जहरीली! 

कच्ची अगर मिले इमली तो,
होती बहुत पनीली!
दातों के पिंजरे में छुपकर,
रहती हूँ शर्मीली!

प्यारी-प्यारी गुड़िया रानी,
बनो नहीं नखरीली!
झट से इसका उत्तर दे दो, 
बोली बोल सुरीली!



चाँद मियां

बैठे हो कि खड़े हो,
या खाट पर पड़े हो!
झूल रहे झूला या
कहीं लटके पड़े हो!

ताड़ पर या झाड़ पर
कहाँ अटके पड़े हो!
घर के अंदर अपने
कितने बल्ब जड़े हो?

तारों के आंगन में
आकर भटके हो?
सच में चाँद मियां तुम
सबसे हटके हो!



बालगीत- नाच दिखाने आऊँ

रंग-बिरंगे पंख सुनहरे,
सबके मन को भाऊँ!

काले-काले बादल नभ में,
घुमड़-घुमड़ कर आए!
सन सन चले हवा सुहानी,
भौंरा गीत सुनाए!
तभी पंख फैलाए अपने,
नाच दिखाने आऊँ!

इंद्रधनुष से रंग चमकते,
सुंदर मेरे पँख!
लगता उनपर बने हुए हों,
नन्हे-नन्हे शंख!
अपने ऊपर ताज सजाकर,
राजा मै बन जाऊँ!




जीवन परिचय
मेराज रज़ा
पिता- मो. सिराज उद्दीन
माता- खैरूल निशा
जन्म स्थान- ग्राम- बाजिदपुर, थाना- विद्यापतिनगर, जिला- समस्तीपुर, राज्य- बिहार-848503
जन्मतिथि- 06.03.1988
शिक्षा- एम० ए० (राजनीतिशास्त्र), डी.एल.एड.
प्रकाशित पुस्तक- मेरे मन का फूल
प्राप्त पुरस्कार- 
हिन्दी बाल साहित्य शोध संस्थान, दरभंगा द्वारा आचार्य रामलोचन शरन शिखर बाल साहित्य सम्मान 2020।
संप्रति- शिक्षक
प्रकाशन- नंदन, चकमक, बालवाटिका, पाठक मंच बुलेटिन, अभिनव बालमन, उजाला, बच्चों का देश, साहित्य समीर दस्तक, संगिनी, बाल भास्कर,  बाल साहित्य की धरती, बाल किलकारी,  दी अंडरलाइन, बाल प्रभा, चिरैया बाल पत्रिका, प्रेरणा-अंशु, खुशबू मेरे देश की, संभावना सुरभि, हमारा बाल प्रभात, पंजाब केसरी, प्रभात खबर सुरभि, डेली हिंदी मिलाप हैदराबाद, पायस, पत्रिका समाचार भोपाल, पत्रिका समाचार पत्र जबलपुर, दैनिक वर्तमान अंकुर, हम हिन्दुस्तानी(USA), जय-विजय मासिक पत्रिका आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
संपर्क सूत्र- 9113731588
ईमेल- merajraza.bazidpur@gmail.com
--
सादर
मेराज रज़ा
ग्राम+पोस्ट- बाजिदपुर,
थाना- विद्यापतिनगर,
जिला- समस्तीपुर,
बिहार-848503
मोबाइल-9113731588




सोमवार, 21 जून 2021

मनोज जैन का एक बाल गीत

एक और बाल गीत
______________

 बात हमारी
       पूरी हो
 मोबाइल से 
       दूरी हो

             साध्य नहीं 
          यह साधन है
               न ही यह 
              नारायन है
           क्या है इसमें
                 ऐसा जी
               जो इतना
            मनभावन है

     देखें इसको
      जी भरकर
 जब जब बहुत
       जरूरी हो

              यह भी एक
                  महामारी
               मजबूरी या
                    लाचारी
                चस्का बुरा 
                 इसे छोड़ो
           समझा समझा 
                    माँ हारी

  सजा दिलाए 
     इसकी जो
      ऐसी कोई
         जूरी हो

                  रिश्ते कभी 
                    अटूट रहे
              वे सब के सब 
                       छूट रहे
                  नेट कम्पनी 
                     वाले सब 
                      मिलकर 
               चाँदी कूट रहे

    झाँको बाहर 
         भाई जी
     सन्ध्या जब 
        सिंदूरी हो

                    हमसे बचपन
                         छीन रहा
                          बना हमें 
                     यह दीन रहा 
                      जड़ से जुड़े
                           हुए दादू
                       उनका यही 
                       यकीन रहा

     छोड़ो झूठी
      दुनिया को
    सुनते हैं धुन 
           सन्तूरी 

    ©मनोज जैन

रविवार, 11 अप्रैल 2021

मनोज जैन का एक बाल गीत

एक और बाल गीत
______________

 बात हमारी
       पूरी हो
 मोबाइल से 
       दूरी हो

             साध्य नहीं 
          यह साधन है
               न ही यह 
              नारायन है
           क्या है इसमें
                 ऐसा जी
               जो इतना
            मनभावन है

     देखें इसको
      जी भरकर
 जब जब बहुत
       जरूरी हो

              यह भी एक
                  महामारी
               मजबूरी या
                    लाचारी
                चस्का बुरा 
                 इसे छोड़ो
           समझा समझा 
                    माँ हारी

  सजा दिलाए 
     इसकी जो
      ऐसी कोई
         जूरी हो

                  रिश्ते कभी 
                    अटूट रहे
              वे सब के सब 
                       छूट रहे
                  नेट कम्पनी 
                     वाले सब 
                      मिलकर 
               चाँदी कूट रहे

    झाँको बाहर 
         भाई जी
     सन्ध्या जब 
        सिंदूरी हो

                    हमसे बचपन
                         छीन रहा
                          बना हमें 
                     यह दीन रहा 
                      जड़ से जुड़े
                           हुए दादू
                       उनका यही 
                       यकीन रहा

     
        चलो चलें
   उस झरने पर
    जिसकी धुन 
       सन्तूरी हो

    ©मनोज जैन