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मंगलवार, 23 दिसंबर 2025

आलेख मनोज जैन

बाल मन के कुशल चितेरे – डॉ. प्रभुदयाल श्रीवास्तव
हाल ही में भीलवाड़ा, राजस्थान की चर्चित मासिक पत्रिका बालवाटिका के दिसम्बर अंक में, सेकेंड कवर पेज और इससे पूर्व बाल किरण के
जुलाई अगस्त अंक में, छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश के चर्चित साहित्यकार आदरणीय प्रभुदयाल श्रीवास्तव जी का ‘पिताजी’ शीर्षक से, प्रकाशित एक गीत मेरे पढ़ने में आया। ऐसा नहीं है कि इस विषय पर पहले किसी ने नहीं लिखा या मैंने नहीं पढ़ा। इससे पूर्व इस शीर्षक से कई रचनाओं से गुजरना हुआ। मगर यह सच है कि इससे पहले और इससे अच्छा ‘बाल’ गीत मैंने इस विषय पर कभी नहीं देखा। यद्यपि लेखक या कवि ने रचना के सन्दर्भ में कहीं कोई ऐसा दावा नहीं किया कि अमुक गीत बालगीत ही है। गीत का कंटेंट इतना ज़बरदस्त है कि इसकी भीतर की व्यंजना इसे बालगीत भी बनाती है और स्मृति गीत भी।
              मैं जिस गीत के सन्दर्भ में अपनी बात यहाँ अपने पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ, उस गीत का नायक एक मासूम भोलेमन का बच्चा है, जो अपने पिता को केंद्र में रखकर उनकी पूरी दिनचर्या का ज़िक्र, जिस अंदाज़ में करता है, उससे अंतरा-दर-अंतरा पिता के क्रिया कलापों की सुंदर तस्वीर खिंचती चली जाती है और अंतिम अंतरा आते-आते पिता का आदर्श रूप पाठकों के मन-मस्तिष्क में उभरने लगता है। 

                 जहाँ तक मैं, इस गीत के टारगेट ऑडियंस को जान सका हूँ, इसमें कवि ने चौथी कक्षा से लेकर आठवीं कक्षा के विद्यार्थी को लक्ष्य में रखा होगा, लेकिन कविता की जद में बच्चे और बुज़ुर्ग दोनों सायास या अनायास आ जाते हैं। गीत रचेयिता प्रभुदयाल श्रीवास्तव जी, जो बाल मनोविज्ञान में दक्ष हैं, यह बात भली-भांति जानते और समझते हैं, कि आज के बच्चे सीधे तौर पर उपदेश हो या आदेश और यहाँ तक कि कोरा आदर्श, सीधे तौर पर बिल्कुल भी ग्रहण नहीं करना चाहते। तभी तो वे गीत में अपने मन की बात खुद न कहकर एक बच्चे के मुख से बुलवा रहे हैं।
                      हमारे नीतिकारों ने जीवन के सभी सुखों में सबसे ऊपर और पहले पायदान पर पहला सुख निरोगी काया को माना है और पहले क्रम पर रखा है। इस गीत के गीतकार प्रभुदयाल श्रीवास्तव जी ने भी अपने इस प्यारे से बालगीत में पहला सुख निरोगी काया को मानकर इसी सूक्तिवाक्य से बड़ी खूबसूरती और सूझबूझ से गीत का आरम्भ किया है; और अपने बाल पाठकों को ही नहीं, बल्कि उन सभी पाठकों या श्रोताओं को स्वस्थ रहने और स्वास्थ्य के प्रति सजग रहने का सन्देश दिया है।
द्रष्टव्य हैं पंक्तियाँ—

सूरज निकले इससे पहले
करते हैं व्यायाम पिताजी
फिर करते हैं धीरे-धीरे
घर के ढेरों काम पिताजी

घर के पीछे की बगिया में,
पौधों को पानी देते हैं।
दादा-दादी के कमरे में
जाकर उनकी सुध लेते हैं।

उनकी ढेर दुआएँ पाकर
लेते बड़ा इनाम पिताजी

यदि आप पंक्तियों पर ज़रा-सा गौर करें, तो कारण और परिणाम का सिद्धांत या कहें दैनन्दिन कार्यों की पूरी सुसंबद्ध श्रृंखला एक के बाद एक अंत तक निरंतर चलती रहती है। एक छोटे-से गीत में जहाँ कर्तव्यपरायणता, दायित्व-बोध, आपसी समझ, सह-अस्तित्व जैसे मानवीय गुणों की सुंदर झलक मिलती है, तो वहीं दूसरी ओर पर्यावरणीय चिंता के साथ पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिए हमारी ज़िम्मेदारी और मूक जीवों के प्रति करुणा, गहरी संवेदना, जीव-दया के संस्कारों सहित अनेक जीवंत अनुभूतियों के कई चित्र पाठक के सामने खुलते हैं। सिर्फ चित्र ही नहीं खुलते, बाल मन यहीं से संस्कार ग्रहण करना आरम्भ करता है। ऐसी रचनाएँ पाठकों के सीधे हृदय में उतरती हैं और लंबे अंतराल तक, और कभी-कभी तो ताउम्र, स्मृति के किसी कोने में बनी रहती हैं। पुनः गीत की चंद पंक्तियों पर लौटता हूँ, या यों कहूँ कि पंक्तियाँ स्वयं ही आकृष्ट कर रही हैं कि इन पर और बात की जाए—

गायों को रोटी देते हैं,
उन्हें पिलाते ठंडा पानी।
और गरम पानी निरमा से
धोते हैं हर रोज़ नहानी।

फिर खाते हैं काजू-किशमिश,
थोड़े-से बादाम पिताजी।

               संदर्भित गीत की पंक्तियों में शब्द और उनके प्रयोग अपने समय के आस्वाद का पता देते हैं कालखंड की परतें खोलते हैं। छोटा सा गीत कई गूढ़ार्थ की ओर संकेत करता है। यह गीत-रचना, जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ, तक़रीबन तीन से चार दशक पहले के समय में ले जाकर खड़ा करती है, क्योंकि आज अमूमन घरों का आकार, ख़ास तौर से शहरों में, बहुत छोटा है और जिनके यहाँ बड़ा है, वहाँ गाय-पालन लगभग न के बराबर ही है। अपवाद के लिए मैं, भी हाशिया छोड़ देता हूँ। इसी गीत में एक शब्द आया है ‘छदाम’, तो आज का कॉन्वेंट-प्रवेशी बालक ‘दाम’ शब्द से ही परिचित नहीं है, फिर ‘छदाम’ तो बहुत दूर की बात है। फिर भी इन बारीकियों से गीत के सौंदर्य और गीत की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। आज का जिज्ञासु बच्चा इन शब्दों को गूगल कर लेगा और फिर स्वतः ही अर्थ से भी परिचित भी हो सकेगा। 
                 प्रकारान्तर से कहें तो यह गीत अपने दमदार कथ्य के चलते आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना अपने समय में रहा होगा।
गीत में यही ताक़त होनी चाहिए और यह गीतकार के कौशल पर निर्भर करता है। देखिए, कितने सलीके से उत्तम स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए आयुर्वेद की नेक सलाह बात-बात में कवि दे जाते हैं कि सामान्य व्यक्ति को अच्छे स्वास्थय को ध्यान में रखते हुए तारीर में गरम बादाम का सेवन कम मात्रा या अत्यल्प मात्रा में ही करना चाहिए। तभी तो वह गीत की पँक्ति में कहते हैं।
      फिर खाते हैं काजू-किशमिश,
      थोड़े-से बादाम पिताजी।
                  दरअसल ऐसे गीतों की सर्जना लंबी साधना, अध्ययन और जीवनानुभव के बाद ही हो पाती है। प्रभुदयाल जी का गद्य हो या पद्य, दोनों में सरिता के जल की तरह प्रवाह विद्यमान है। हज़ारों पन्नों की बालोपयोगी सामग्री लिखने वाले ऐसे साधक विरल हैं। इधर, मेरे देखने में जो बाल-साहित्य के नाम पर आया है, ऐसे में मैं उन सभी अधकचरे रचनाकारों, जिन्हें बाल-साहित्यकार बनने या कहलवाने की बहुत जल्दवाजी है, को प्रभुदयाल श्रीवास्तव जी जैसे स्थापित मूर्धन्य साहित्य-मनीषियों के समग्र साहित्य को खँगालने की सलाह ज़रूर देना चाहूँगा। और यह सलाह देने से पहले मैंने उन्हें कई रूपों और उनके रूपाकारों को पढा है गुना है और सुना भी है। विभिन्न प्रदेशों के पाठ्यक्रम में सैकड़ों पन्नों की भागीदारी होने पर भी उन्हें अभिमान नहीं छू सका। उनकी यही सादगी और साफगोई उन्हें बड़े फलक पर जाकर खड़ा करती है। सोशल मीडिया हो, अंतर्जाल की पत्रिकाएँ हों—उनकी उपस्थिति सर्वत्र है।
    ऐसे निरभिमानी रचनाकार की मैं वंदना करता हूँ, जिनका लिखा हज़ारों-लाखों बच्चों में संस्कार रोप रहा है। सराहना करना चाहता हूँ बाल किरण के कुशल संपादक आदरणीय लाल देवेंद्र श्रीवास्तव जी की, जिन्होंने बाल-साहित्य के कुशल चितेरे श्रद्धेय प्रभुदयाल श्रीवास्तव जी पर अंक एकाग्र करने का निर्णय लेकर बाल-साहित्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया।
मेरी अनंत बधाइयाँ
          कहते हैं कि जो दूसरों को सम्मान देना जानता है वह एक दिन स्वयं भी एक दिन बड़े सम्मान का अधिकारी बनता है। ऐसे सम्मानीय रचनाकारों का सम्मान सिर्फ कविताओं में ही नहीं यथार्थ के धरातल पर भी होना चाहिए। मैं पूरे मन से श्रद्धा और सम्मान से उन्हीं के गीत का अंतिम अंतरा उन्हें समर्पित करना चाहता हूँ जो अपने पिता को मंदिर गुरुद्वारा और सारे तीर्थ और धामों से भी ऊपर रखते हैं और इन सभी आयतनों से बढ़कर मानते हैं।
        देखिए गीत का अंतिम बंध;---
इस कारण ही पुण्य पिताजी,
का घर में होता सम्मान।
घर के सभी लोग रखते हैं,
उनके भी दुःख-सुख का ध्यान।
खुद ही मंदिर, खुद गुरुद्वारा,
सारे तीर्थ धाम पिताजी।

मनोज जैन मधुर
106,
विठ्ठल नगर
गुफामंदिर रोड
लालघाटी
भोपाल – 462030
मो. 9301337806