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शनिवार, 24 जुलाई 2021

कवि मोहन सगौरिया की समकालीन कवियाएँ

मोहन सगोरिया


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आज के कवि के विषय में कोई विशेष टिप्पणी नहीं है, सिवाय इसके कि उनकी कविता की रेंज बहुत बड़ी हैं | उन्होंने कविता की हर विधा में लिखा है, और टिककर लिखा है - दोहे, छंद, गीत, नवगीत, गजल और मुक्तछंद | बहुत छोटी कविताओं से लेकर लंबी कविता तक | फुटकर कविताएं भी लिखीं और श्रृंखलाबद्घ कविताएं भी | 'नींद' विषय पर उनका एक पूरा संग्रह ही है | उनकी कविताओं में मनोविज्ञान इतना गहरा है कि कविताएं बार-बार पाठ की मांग करती है ; और सरल भी इतनी कि एक बार पढ़ने पर लगता है - यह तो कोई भी लिख सकता था | उन्होंने साहित्य के लिए बहुत संघर्ष किया |  आत्मसंघर्ष इतना कि मुक्तिबोध पर उल्लेखनीय लंबी कविता मिल जाएगी  और सुविधाएं इतनी कि मंत्री के निज सचिव पर भी | दो दर्जन नौकरियां, एक दर्जन पत्रिकाओं का संपादन, आधा दर्जन प्रेम , एक पाव दर्जन बच्चे और एक अदद बीवी... कुल जमा दो कविता संग्रह प्रकाशित | रजा पुरस्कार सहित चार सम्मानों  से अलंकृत | फिर भी अलक्षित| मुंहफट हैं लेकिन बहुत अच्छे पाठक हैं... तो पढ़ते हैं यहां इन की कुछ कविताएं | नाम है मोहन सगोरिया--

क्या कहिए
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अब जनाब
नींद का क्या कहिए

टूट गई
तो रात ढलते ही

और न टूटी तो ताउम्र।


गौरैया की तैयारी 
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खबरदार! होशियार!!  
कोई भूले से न आए इधर ये
कि पहरा है इनका रात पर 

नींद हराम किए है आज ये
कि आज ही जागी हैं अपनी नींद, लज्जा और कुंठा से
आज ये कही जा सकती हैं निर्लज्ज 
कि आज ही ये साबित होंगी लाजवंती 

इस कस्बे से जा चुकी बारात ब्याहने दुल्हन 
जा चुके लोग-जन 
जा चुके घराती 
बच्चे-बूढ़े-बाबा-आजा-दादा-काका-मामा-फूफा-भैया 
सज-धज जा चुके बाराती 

शेष रह गए जो करमजले दुर्भागी! उनकी नहीं खैर 
वे निकल जाएं गाँव से अब्भी के अब्भी 
जा सो पड़े रहें खेत-खलियान, मचान पर

आ जाएँ तो आ जाएँ बुरी आत्माएँ ठेंगे से 
देख लें आज इनका हुड़दंग, खूब जमेगा रंग 

कर ली है तैयारी इन्होंने रात की 
रच लिए हैं स्वांग
पहरेदारी पर तैनात बूढ़ी काकी 
मुन्नी-माँ ले आयी साफा 
गमछे में बाँध रखी है कटार 
बब्बा के पुराने को्ट में ठूस लिए हैं पान 
हिफाजत से रख ली है काजल की डिबिया मूँछ बनाने को
इत्र के फाहे खोंस लिए हैं कान में 
कि आज यह दूल्हा रिझा ही लेगा अपनी नवविवाहिता को

पहले ही दे आयी लिल्लू की बाई 
घर घर बुलउआ- "गौरैया है आज, चली अइयो'
आँख मार कर कह आयी संगातियों को
कि खूब घुटेगी, छनेगी जी भर 
जरूर आना, करेंगे 'रासलीला' मिलकर

सूरज डूबने के साथ ही डूब चुकी लाज 
कोई मत जाना उस ओर, गौरैया है आज 

दोह ली गयीं गायें, बछड़े को दूध पिला कर 
साफ कर ली गई हैं लालटेनें
कि बिजली गुल हो जाने पर बंदोबस्त
जला दी गई हैं नीम की पत्तियाँ ताकि भाग जाए मच्छर
खींच दी गई है सरहदें आँगन-आँगन
नारियल की रस्सी बांध दी गई हैं खूँटे गाड़कर 
तोते को दे दी गई है हरी मिर्च और फल्लियाँ
थोड़ा सा दाल-भात. वृद्ध आजी को पथ्य
मँझली ने सुना भी दी हैं गालियाँ झुँझलाकर
कि सो भी जा बुढ़ऊ अब भला तेरा क्या काम

तो भैया और बिन्ना,
हो चुकी पूरी तैयारी 
खैर नहीं है दुल्हन की 
आज ही होगा सही मायने में रतजगा 
युगों-युगों से दबायी गई कुंठाएँ 
तोड़कर बाहर आएंगी त्वचा की चारदीवारी 
देखकर गदगद हो जाएंगी भटकी आत्माएँ 
रम जाएंगी इस केलिक्रीड़ा के उपक्रम और प्रहसन  में
 जा न सकेंगी हल्दी भरे अंग 
दूल्हे के संग 

और, जो दूल्हा बना है गौरैया में 
कौन पुरुष ही है वह 
जागेगा एक स्त्री देह से आज 

सो खबरदार किए देता हूँ 
कि कोई ना आए जाए उस तरफ 
आज यह रात सुहागिनों के जागने की है 
यह समय भटकती आत्माओं के सो जाने का है।

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(बारात चले जाने पर वर पक्ष की स्त्रियाँ शादी ब्याह का स्वांग रचाती हैं। यह खेल विवाह और विवाह से जुड़े तमाम पहलुओं पर होता है । हँसी-ठिठोली-विनोद रात भर चलता रहता है।  इसे ही गौरैया कहते हैं।)


अपनी यात्रा पर रहा ताउम्र
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मैंने जितना जिया 
मेरा हिया
उसे छोटा करके बतलाते रहा

देखा नदियों, पहाड़ों, गगन, वनस्पतियों को 
और उन्हें अपने पते-ठिकानों में तब्दील करता रहा 
इन पतों पर पहुंचते रहे मुझे जानने वाले
जबकि मैं जिन्हें जानता था उनका जिक्र जरूरी है 
पहुँचना भी उन तक 

अपनी यात्रा पर रहा ताउम्र 
छह नंबर का जूता पहन ।
अंग्रेजी में उकरे इस नंबर को 
कालांतर में लोगों ने नौ पढ़ा।


पुनर्नवा
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मैं महाप्रलय के बाद भी
जीवित रहना चाहूँगा

मैं फिर से जीना चाहूँगा आदम का जीवन
और हव्वा का हाथ थामे थामे
नाप लेना चाहूँगा ब्रह्मांड 

बिताना चाहूँगा
शताब्दियों पर शताब्दियाँ

मैं उस फल की तलाश में भटकूँगा
जिसकी वजह से सिरजा संसार
शताब्दियों से शताब्दी तक
और जन्मान्तरों से जन्म तक।

चीता उर्फ़ निश्चिंतता का गीत 

( मंत्री के निज सचिव के नाम)
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पूरी सफाई से करते हुए शिकार 
और पूरी सफाई से खाना

शिष्ट व्यवहार, कहाँ से सीखा?
         नहीं आया 
                तुम्हें चट कर जाना

बिल्ली जैसा...बाप रे बाप !
         दबे पांव रक्खे 
                 सूखे पात पर
                        आहट... न खड़खड़ाहट!

फुर्ती ऐसी ...जैसे विद्युत 

जंगल-जंगल
         क्यूँ  रोते हो ?
                  बच्चे जैसे 
                          घाघ हो 

बाघ हो 
नहीं-नहीं, बाघ नहीं... शेर नहीं 

देते दस्तक दरवाजे पर 
        आदम जैसे 
                  वाह क्या खूब खूबी 

जाने महबूबी !
         जंगल के राजा नहीं हो तुम 

बस ...रह गई 
         सुई भर कसर 
                    क्या गम !!


बैतूल और बैतूल के कस्बे
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बैतूल नहीं बे-तूल की बातें 
अनुभूति उजले दिन सी
संवेदना 
काली रातें 
गुज़रती ज़िंदगी आदिवासियों की 
एकमात्र बस्तर को छोड़ 
मध्यप्रदेश का सबसे पिछड़ा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र 

भोपाल-नागपुर 60 हाईवे पर 
स्थित कस्बानुमा शहर 
आधुनिकता की दौड़ में शामिल 
झिलमिल...दृश्य देखा पढ़ते यदाकदा 
लड़कियां नज़र आती अब जींस और टी-शर्ट पर

घने जंगलों के बीच 
बसा 
कस्बानुमा शहर...

कभी बेखटके शायद ही 
कोई अंग्रेजी टुकड़ी आयी हो 
गु़लाम भारत में इस तरफ
 कि अब भी मध्य प्रदेश के सबसे बड़े जंक्शन इटारसी से बैतूल के लिए पार करने पड़ते हैं :
केसला, कीरतगढ़, कालाआखर, ढोडरामोहर, बरबतपुर घोड़ाडोंगरी, धाराखोह और मरामझिरी

तगड़े काले गोंड झुणडों  में बसातेे गृहस्थी 
उगाते कोदों कुटकी 
खींचते पसीने से खेत 
पिलाते पेज बच्चों और मवेशियों को 

करते सिंगार पुरखों के सेते चांदी के सिक्कों से 
स्त्रियां भारी वर्क्षजों पर अंगिया कसती
होती नक्काशी जिन पर 
इन्हीं सिक्कों या शीशे के टुकड़ों की

कस्बों-कस्बों लगता हफ्ते में एक दिन 
हाट बारी-बारी 
बड़े ठाट-बाट से आते करने खरीददारी 
झुंड के झुंड 
युवा-वृद्ध, दद्दा, बब्बा, अाजी
दूल्हा-दुल्हन, बाराती 
गाते लोकगीत कोरस में 
'कौन शहर को बाजार दूल्हा 
बैतूल शहर को बाजार दूल्हा'
खत्म हुआ जो इधर गान तो उधर अलाप
गहकाता जाए अपने आप 
'बन्ना के हाथों में बिजना कटारी 
बन्ना खेलत जाए, बन्ना खेलत जाए, बन्ना खेलत जाए'
मिला कोई परिचित जहाँ
पटक झोला करते पालागन 
गले लगते नहीं लजाता ठेठ देहातीपन 
औरों की उपस्थिति में

पहाड़ों की तलहटी में 
खण्ड खण्ड बसे कस्बे
पूरी तरह निमग्न 
भारतीय संस्कृति के प्रतीक 
करते सुरक्षा वक़्त बेवक़्त 
हँसिए पिघलाकर तलवार बनाने को आतुर

खींचती गंध
डंगरे-कलिंदे, तरबूज और ककड़ी की 
कोसों फैले पाट पर बिछी बाड़ी
खीरे की तरह उगलती नदी 
बना करती महुए की शराब वहीं कहीं

बैठते चिलम खींचने जहाँ चार लोग 
कम पड़ जाती है आधा सेर तम्बाखू 
गप्प लड़ाते 
आग तापते ...
देते हवा की किंवदंतियों को :
उतर आती आसमान से परी 
नाचते भूत-प्रेत छमाछम 
डायनें करती घर का सारा काम 
पशु बलि और नर बलि को कबूलते आदिवासी

बेखौफ फल्लाँगतीकिशोरियाँ
पहाड़, नदी, नाले, दर्रे, घाटियाँ 
नहीं कुछ छिन जाने का डर 
पता भी नहीं है कुछ छिन जाने जैसा इनके पास 
नहीं शिकन चेहरे पर 
ना होती कभी उदास 
बेखौफ फल्लाँगती किशोरियाँ अपना समय

मीठी नींद की तरह होते 
कस्बों में चैन से बसते रहते आदिवासी 
श्रम और रोटी के बाद गिनते पाप और पुन्य को 
राजनीति कि नहीं समझ 
बस जानते महात्मा गांधी को 
लच्छेदार सफेद फूल-सा

अकाल के अट्ठाईस बरस पहले कभी 
वे गुजरे थे यहाँ से 
तब पानी पिलाया था मुखिया ने 
तभी से पता है :
"येर कोर सरकार ताक्से-तातौड़"

चस्पाँ हुए दृश्य ऐसे कि तब्दील नहीं होते 
पर नहीं है लिखित ब्यौरा कहीं 
इन कस्बों से गुजरे थे महात्मा गांधी कभी 
न सरदार वल्लभ भाई पटेल 
न पंडित जवाहरलाल नेहरू 
और न इंदिरा गांधी 
नहीं जानता कोई कस्बा सार्त्र या कार्ल मार्क्स को 
नहीं सुना कभी फ्रायड या कीर्क गार्द का नाम 
नहीं पहुँच पाया कोई अरस्तू अब तक यहाँ

कोई छंद नहीं लिखा गया बैतूल पर आज तक 
यहाँ कभी नहीं पी मुक्तिबोध ने बीड़ी।


कर्म-कविता
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1. 

काटो,
झूठ बोलती 
छप्‍पन इंच की जुबान काटो 

काटो, समय के बंध 

खाली अन्‍मयस्‍क समय यूं ही नहीं 
कुछ सार्थक करने काटो 

कभी न कहो 
कि यूं ही कट रही है जिंदगी 
भरपूर जिओ!
सच कहने के लिए 
आ गयी गले में खरास
तो पानी काट कर पियो!

पहचानो शत्रु को 
काटो उनके सिर 

जड़ न काटो किसी की।

2.

गुस्सा आ रहा है तो गरजो
इस कठिन समय पर 
असहिष्णु होते मनुष्य पर 
व्यवस्था पर, सत्ता पर 
आततायी पर 
गरजो अपनी बेडिया काटकर

पहाड़ से गिरकर जैसे झरने गरजते हैं 
नदिया गरजती है बाढ़ में 
घनीभूत होकर गरजते हैं मेघ
जैसे समुद्र गरजते हैं अपनी रौ में

गरजो जैसे शेर गरजता है वन में 
दौड़ता है लहू तन में 
जैसे इंकलाबी गरजता है गुलाम वतन में

गरजो मजलूमों पर हो रहे जुल्म के खिलाफ़
गरजो मजदूरों के हक के लिए 
गरजो किसी निर्भया की अस्मत बचाने 
गरजो गलत फैसलों के खिलाफ़

गरजो, गरज पड़ने पर नहीं
स्‍वभावत: गरजो।

3.

दौड़ो, बहुत तेज दौड़ो 
लोग तालियां पीटेंगे

 बहुत तेज दौड़ते 
अवश्यम्‍भावी है गिरना 
लोग फिर ताली पीटेंगे

दौड़ो, पूरा दम लगाकर 
ताली पीटने पर।

4. 

लाश से बतियाओ, सरकार!
कहेगी वही सच-सच, धारदार जिंदगी अब कुछ नहीं कहती

मूक हैं लोग 
जख्‍़म चीत्कारते हैं 
लाश मुखर

क़त्ल की दास्तान कहती है लाश 
स्थिर है आँखें लाश की 
उससे नजरें मिलाकर बात करो पूछो कातिल का पता

रे सरकार, जल्द पूछो 
नहीं तो सड़ जाएगी लाश
और चीख-चीख कर बतलाएगी अपना दर्द
बतियायेगी तुमसे।

5.

झाँको, खिड़की से बाहर 
ओ,फूल-सी लड़की 
बाहर झाँकते हैं तुम्हारे स्‍वप्‍न 

कभी भी बंद हो सकते हैं 
खिड़की के पट 

अब तो द्वार खुलने ही चाहिए 
तुम्हारे लिए 
बाहर आना है तुम्हें 
अब तो अपने सपनों के संग 

बंद कमरे में मुरझा ही जाते हैं 
हर संभव कोशिश के बावजूद
फूल कहो या सपने 

झाँको 
ओ, फूल-सी लड़की बाहर झाँको।


ओ कबीर!
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एक काम पूरा हुआ आज 
इसके लिए 
खुश होना था मुझे 
लेकिन मैं अपनी खुशी 
ज़ाहिर न कर सका

एक काम 
बन ना सका जो 
मैं दुखी हुआ उसके लिए 

रोज-रोज 
खुश नहीं होता हूँ मैं 
होता हूँ बहुत-बहुत दुखी 

ओ कबीर!
 इस संसार में 
भला कौन है सुखी?

उज्जैन से राजनांदगाँव वाया नागपुर
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यह मैं हूं या शाख पर टिका आखिरी पत्ता नींद में
यह पतझड़ का मौसम या शुष्क हवा जागती सी 
देखना है कृशकाया मेरी चीर देगी पवन का रूख
या कि रुख़सत होने की घड़ी आ गई करीब

धुंधला धुंधला सा वलय  सूक्ष्म से स्थूल घेरता
 घेरा यह लेता अपनी परिधि में 
हवा, पानी, आकाश, अग्नि, धरा को 
मानव तन और समूचा वातायन 
बढ़ते ही जाता, गिरफ्त में लेता साँसें
फिर भी जाने क्यों सुट्टा मारना चाहे मन

जब उज्जैन से चली थी यह सवारी 
पच्चीस बोगियाँ जुड़ी थी वर्षों की
स्ट्रीम इंजन से गूंजती हुई आती सीटी
चीर कर रख देती थी अनुभूतियों का सन्नाटा 
अनुभव का शिशु चौक पड़ता यकसाँ नींद से
इक्का-दुक्का पहचाने चेहरे
डॉ. जोशी, प्रभाकर माचवे उतरते मंगलनाथ के रास्ते

भैरोनाथ के आसपास, वेधशाला के पीछे
सूखी वापी जिसके भीतर धँसती सीढ़ियाँ 
मुहाने तक जमीं हरी-कच्च काई 
नीचे तल में बहुत कम जल
अनाथ कीट-पतंगों और टिड्डों की शरणस्थली वह
जैसे जल तल पर सोया पड़ा हो शब्द

एकांत यह धँसता जाता भीतर गाड़ियों में, भीड़ में
अजनबी चेहरे आशंकित, उत्साहित, भौचक्के से 
स्वयं को अभिव्यक्त करते मुखौटे

बहुत-बहुत घूमें भर्तृहरि की गुफा के रास्ते 
श्मशान घाट के पास दिन पर दिन और रातें भी 
अंतहीन-बहसें, चर्चाएँ दर्शन-राजनीति और साहित्य पर
स्पष्ट कर आरंभ से ही चला था 
कि सफलता नहीं सार्थकता चाहिए

सार्थकता की राह बढ़ चला जीवन 
पीछे झूठे महाकाल, भस्म-आरती, जागरण करते जन
मदिरा-भोग, आस्था आदि 
कुमारसंभव और कालिदास
कब तक निभाते साथ ?
कह गए -- आएंगे कभी कविता में, स्वप्न में, नींद में

किंतु नहीं, मिथ्या ही सिद्ध हुए उनके उद्घोष 
चले आए भीतर धँसकर संग-साथ अपना सौंदर्यबोध ले जैसे अलसाई आँखों में चली आती है लज्जा
तभी तो यह बोध तलाशता रहा सौंदर्य 
समय की शक्ल में आता रहा समक्ष 
जूनी इंदौर के टूटे-फूटे पुलों पर 
किशनपुरे की चंद्रभागा नदी के तट 
पुरातन देवालयों, दरगाहों, मस्जिदों, खंडहरों,वीरान रास्तों
आदिम वृद्ध इमलियों के तलदेशों, निर्जन टापूओं पर
विचरण करते हर एक चीज़ में वही-वही 
सौंदर्य के जाने कितने आयामों के अन्वेषण 
अनावरण करते अस्तित्व कि उद्घाटित होता सत्य

अस्तित्व की तलाश भीतर जारी रही दरहमेश
'हंस' के साथ करना चाहा दूध का दूध, पानी का पानी
बनारस, कलकत्ता, जबलपुर नक्षत्रों की तरह चमके 
लुप्त हुए धूमकेतु-से आकाशगंगाओं के बीच 
आकांक्षाओं के बिम्ब दिखें फिर हो गए

एक गहरी-सी ऊब अभाव व संघर्ष ले आता 
कर्ण का पिता अभिशापित करता आशाओं की कुंती को प्रतिदिन और स्वप्नों के शिशु तिरोहित हो जाते 
कि अंततः नया खून ले आया नागपुर

कोठारिया वह छोटी सी झनझनाते पायदान 
खाली कनस्तर से बजते जल-पात्र 
जैसे काँवड़ ढो रहा श्रवण 
दिनचर्या की शुरुआत यह
दातुन मुँह में दबाए देखता आकाश

संतरे के मौसम में छौंक दाल या गिलकी-तुरई 
साग कोई जंगली कि मेनर का काढ़ा 
टिक्कड़ मोटे-मोटे, दो चार ग्रास ले चल पड़ता 
दफ्तर की मारामारी, यंत्रवत दिनचर्या 
अखबारनवीसी की दुनिया का आगाज यूँ

वक़्त निकाल इसी में लिखता ख़त-ख़तूत  
दोस्तों को नत्थी कर भेजता रिज्यूम 
एक अदद छोटी सी नौकरी की चाह
कमबख़्त यह जिद्दी ज़िंदगी!
बलवती होती कहीं टिककर रहने की इच्छा

धूल उड़ाती पवन आक्रोशी, लू चलती, जलाती त्वचा धूप
भीतर कलेजा इतना पथरीला कि सुट्टा मारना चाहे मन
हड्डियों के ढांचे पर चमड़ी मढ़ी ज्यों काया 
गुजरती ट्रैफिक से बेसाख़्ता, बेपरवाह बेनाम
जैसे कांच की रोशनी धुंध चीर नहीं पाती

गुजरता वह मद्धिम-मद्धिम 
देखता अपने ही जैसे शरीर फुटपाथिए
भीतर मार्क्स देता दस्तकें, डार्विन सोता 
बाहर फ्रायड थपथपाता कंधा 
जुंग हिलाता धमनियों-सी जड़ें 
कि देर रात लौटने पर भी दीखेंगी यहीं सोते 
असुविधा, अभाव में लिथड़ी ये मानव देह
दूभर क्यों हुए टिक्कड़-तरकारी इनसे 
कि सुट्टे का स्वप्न भी दूर-दूरस्थ

बाट जोहते पखवाड़ा बीता,न आए नरेश मेहता
क्यूँ खिन्न हुए वाम से नरेशों के मन 
क्यूँ नहीं दिख रहा सड़कों पर दु:ख 
भला कैसे जा सकेगा कोई अंतस में रमने 
भीतर के उस वियावान में 
कि सुन सकेगा कोमल तान 
अवश्यम्भावी है भीतर भी घेर रहा हो को कुहासा 
जैसे धुआँ धुआँ हुआ जा रहा अंतस्थल

क़दमताल करता शुक्रवारी तालाब तक 
मिल बैठते दोस्त यार शैलेंद्र, विद्रोही वगैरह
मूंगफली खरीद लौटते उन्हीं रास्ते समर्थ भाऊ के साथ
विचरते खुले आकाश में दो बगुले 
कि छोटे भाई का जिक्र छिड़ते  ही विचलित हो जाता मन वह अधिक सौभाग्यशाली अधिक संपन्न

यहाँ तो स्वयं को परिभाषित करने में निष्फल 
ओजवान कलाकार,  आखिर क्यों ? 
मित्रों के षड्यंत्र और संपादकों की उपेक्षा 
क्या अंदेशा है उन निकटतम मित्रों को ? 
पांडुलिपि भी खो गई उपन्यास की 
जैसे सिर पर चश्मा लगा भूल जाए कोई, ढूंढता रहे सर्वत्र
प्रकाशकों की कारगुजारियां ओफ्फ...ओह!

सच, डिग्रियों की बैशाखियों के बिना 
नहीं चला जाता बुद्धिजीवियों से डग भर
बांध दिए हों जैसे घोड़े के पैर गिरमे से 
पंद्रह वर्ष बाद दी फिर स्नातकोत्तर परीक्षा 
इतनी अवधि में तो लौट आए थे राघव अयोध्या 
परित्याग कर चुके थे वैदेही का 
रचा जा चुका था योग वशिष्ठ

पर धिक्  हाय-हाय वही द्वितीय श्रेणी 
कितनी पृथक पृथक है 
साहित्य और समाज की दुनिया 
कि इस नींद से जागना कठिनतर कितना

छूट गई पीछे संतरे की नगरी 
आया राजनांदगांव कस्बानुमा शहर 
नया-नया महाविद्यालय 
बड़ा सा मकान हवेलीनुमा 
घनी छाँह बरगद की 
अतल गहराइयों वाली बावड़ी नापना मुश्किल
मन की भी एक, थाह पाना मुश्किल

जादुई संसार खुलता सामने

अब करीने से दिखा भावी अतीत 
फिर कनेरों पर टिका सूरज व्यतीत

याद आती बारहा वह हर घड़ी 
दीवारों में जड़े धँसाता बरगद 
इठलाता है अजगरी भुजायें फैला सहस्त्रबाहु सा चक्करदार जीनों से उतरता स्वत्व 
बावरियों में निहारता स्वमेव

एक अजगर और है जो लीलता वय
एक मदारी प्रतिबंधित करता है किताबें 
एक मन भीतर से कहता धिक् समय 
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार हो रहा 
जागरण के काल में युग सो रहा

चुनौतियां अब सामने हैं अत्यधिक 
और हैं पर्याप्त खुले 
अभिव्यक्ति के अवसर भी |


    
निहत्था व्यक्ति
----------------
मेरे हाथ में एक खंज़र है
एक निहत्था व्यक्ति खड़ा है मेरे सामने
मुझे उससे डर है

तुम्हारे सामने भी 
एक निहत्था व्यक्ति खड़ा है
कि तुम भी डरे हुए लग रहे हो

लो, मैं उछाल रहा हूँ
तुम्हारी तरफ़ 
यह खंज़र।

 फासला
""""""""""""

पत्थर से गिट्टी बनने के बीच वह पिसता रहा 
चट्टान तपती रही वर्षों भीतर-बाहर 
खदानों में सेंध लगा लगा 
चट्टानों की उरयाती में तपा 
कितनी बार बँटा है वह
डस्ट, कंक्रीट और गिट्टी में
मूलभूत तत्व पत्थर के ये, मनुष्यता के?

खोह के भीतर घुस पत्थर निकालना 
कितना सहज उसके लिए 
खतरनाक लगता है हमें 
कि घिसक न जाए चट्टान 
पर उसके लिए धूप से बचने का एकमात्र ठीया

खदान से लेकर क्रेशर तक की दूरी भी 
तय नहीं कर पाया वह अब तक 
और उसका लौंडा भी
जबकि बब्बू की औलाद जैसे 
मशीन पर ही पैदा हुई थी 
और झुनझुने की तरह स्टार्टर थमा दिया था 
बप्पा ने उसके हाथ

हां, एक बात की तारीफ करनी होगी 
ज़मीन सूँघकर बता सकता था वह 
कि कितना कोपरा हटाने पर 
कितना पत्थर मिलेगा किस जगह
बाबूभाई मिस्त्री का अनुमान भले ग़लत हो 
लेकिन वह बता सकता था 
कि कितना पत्थर चाहिए ट्रॉली भर गिट्टी के लिए

खदान कितना समय लेगी पत्थर पकाने में 
और कितने होल की ब्लास्टिंग करनी है 
वह मशीन की आवाज़ सुनकर बता सकता था 
कि बस अब जाम लगने वाली है

इधर बाबूभाई मिस्त्री ने भी एक भोपाली गाली देते हुए बताया 
साढ़े तीन फुटिया वह आदमी नहीं जानता 
कि पत्थर और गिट्टी के बीच  कितनी बार पिसा है वह

इसके अलावा झुग्गी और झुग्गी के साथ एक अदद बीवी 
जिसे कारू नाम मिस्त्री के घर से 
उड़ा लाया था वह, को छोड़कर 
और कुछ भी नहीं है इस दुनिया में

भारत के नक्शे में वह नहीं जानता 
कि भोपाल शहर के किस दिशा में
यह नीलबड़ नाम का कस्बा है
जहां उसकी लगभग पूरी पीढ़ी खप गयी
और पत्थर से गिट्टी बन गई है उसकी ज़िंदगी भी

वह नहीं जानता कि भोपाल से इसका फासला 
मात्र पंद्रह किलोमीटर का है 
और विधानसभा या लेबर कोर्ट पहुंचने में 
सिर्फ आधा घंटा लगता है 
जहां वह ताउम्र पहुंच नहीं पाया |


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(जीरा = मजदूर कंक्रीट को कहते हैं
 कोपरा= चट्टान पर जमीन मिट्टी की गीली परत
 जाम= क्रेशर में जब कोई पत्थर फँस जाता है तो मशीन बंद हो जाती है.)

प्रस्तुत हैं ब्रज श्रीवास्तव जी की समकालीन कविताएँ

1.

ये सब



मुझे एक बच्चे ने
अपनी तोतली बातों से बताया
कैसे जीता जाता है दिलों को
वाणी से.
एक राह चलते गांव वाले ने 
राम राम कहकर बताया
कैसे माहौल की चुप्पी को चीरकर
संवाद शुरू किया जाता है अजनबी के साथ भी

बेटी ने भी बताया
कि जिस काम को करने का कोई औचित्य न हो
और बार बार करने का मन हो
नशा उसी को कहते हैं

बताया एक सहकर्मी ने बस खामोश रहकर
कि गुस्सा करने से काम नहीं होते
तो दूसरे ने केवल हाँ करके सिखाया
सहमत होने का जादू

मुझे बादलों ने बताया कुछ
कुछ पौधों ने भी बताया
एक रूमाल और एक जोड़ी 
चप्पल ने बताया निष्ठा निभाने का अर्थ.

यहाँ तक कि
एक बिछड़े दोस्त ने पूछा हाल 

बताया कैसे शुरू की जा सकती है
दोस्ती अरसे बाद.

*ये सब मेरे गुरू हैं*

*ब्रज श्रीवास्तव*


2.


कौनसा तत्व कम हो गया है
दुनिया के शरीर में
बढ़ गया है कौनसा बिटामिन

कोई चिकित्सक नहीं है कि जांचे
करे शल्य चिकित्सा
दुनिया के दिमाग में हो गए अल्सर की
वह फलक रहा है
जिससे नींद नहीं आ रही है
सांसों को

इस बदन को मानसिक रोग है या
शारीरिक
भूगोल क्योंकर गमगीन है
क्या इसमें पानी कम हो गया है
या हवा ही जा रही है मुंह और नाक से दूषित
पृथ्वी को बुखार है
कोई नापे इसका तापमान
और रखे आहिस्ते से सर पर पानी की पट्टी

हांफ रहे हैं खड़े खड़े सारे पहाड़
समुंदर दौड़ रहे हैं अपनी ही परिधि में
नदियों में सुस्ती भरी है
किनारे बुजुर्गों की तरह थके हैं
कोई जाए सुनाए उन्हें संगीत
योग कराए कोई रेगिस्तान को

दुनिया इस समय बीमार है
अनेक बेटों की
माँ की तरह गुमसुम है
अपने ही ख़यालों में
कोई जाए 
उसे हंसाए 
अनेक चिकित्सकों और अनेक इंसानों को
सुनाई दे रही होगी
दुनिया के बुदबुदाने की आवाज़
अगर वे ह्दय के कानों से सुनते होंगें



ब्रज श्रीवास्तव


3


खराबियां भी कविताओं में आ जातीं हैं
ताकि सनद रहे
खराब लोगों की चालाकियां
इस तरह आतीं हैं 
कविताओं में
जैसे कोई राक्षसी आती हो
सतर्क करती हो 
एक बदसूरत से खूबसीरत लोगों को

ध्यान से सुनता हुआ 
इन कविताओं को
एक शख्स 
पहचाना नहीं जाता

एक वक्त ओह ऐसा 
आता है
कि वह अपनी ख़राबी के साथ
प्रकट होता है दिलोदिमाग में

ओह उसे नहीं आना चाहिए था
एक इल्जाम के घेरे में
कविता में खलनायक होकर
उसे नहीं आना चाहिए था.


ब्रज श्रीवास्तव

4.




*बचकर रहना*


क्रूरताएं करते हुए
जो नहीं पिघलते  कभी 
अपने गिरोह के साथ
पहुंच भी जाते  हैं अगली पीढ़ियों तक
उनसे बचकर रहना 

पहचान लेना ठीक से  उन्हें
जो मासूमों को मार डालते हैं
और उफ़ भी नहीं करते 


ऐसे ही होते हैं
देह के गिद्ध
उनको परे रखना
हर रिश्ते से

बस सत्ता चाहिए होती है
जिन्हें 
छल, कपट और हठ के सहारे
प्रेम जिनके दिल में रत्ती भर भी नहीं
उनसे दूर रहना


अब तो 
सावधान रहना उनसे भी
जिनको रूपये की इतनी हवस 
होती है कि वे  जीवन को तरसते मरीज़ 
की दवा चुराकर
किसी और  को बेच देते हैं



*ब्रज श्रीवास्तव*

5.


कामना.


अगर अगले जन्म में फल बनाने
का विकल्प हो तो
मुझे आम बनाना
मैं अपने माता पिता की एक टहनी पर
बढ़कर धीरे धीरे
इतराऊंगा अपनी माँग पर.
अगर विधा बनने का विकल्प हो
तो मुझे कविता बना देना

अगर पक्षी बनूं तो गौरेया 
अगर पशु बनूं तो
हिरन
अगर फूल और पत्थर के विकल्प
में से कोई एक चुनना हो
तो अगले बार
फिर से फूल मत बनाना मुझे
कुचल को बहुत भोग चुका हूँ


पत्थर बना देना मुझे
जो होगा सो होगा
देखा जाएगा
सह तो पाऊंगा
हर तरह की मार
काम तो आऊंगा
लोगों के
हर मकाम पर.


ब्रज श्रीवास्तव


6

आदी

मैं पहले नहीं जानता था
धन्यवाद की ध्वनि को
अपने लिए सुनकर 
इत्मीनान में होना



काम करते हुए 
पहले नहीं समझता था
बधाई किस किस काम को करने पर
मिलती है
किस काम को कर लेने से
नहीं मिलती


इतना सीखा 
व्यर्थ गया.

एक  भी  काम नहीं रहा
 निष्काम अब
हर काम 
शुभकामनाओं
धन्यवादों
बधाईयों
और साधुवादों 
के सोपानों में बंध गया है।


मैं हर सीढ़ी पर इनको ग्रहण करने
का आदी सा हो गया हूँ।
मेरे जैसे ही हो गई है शायद
आधी दुनिया


ब्रज श्रीवास्तव

7.


मत करो उसे फ़ोन



जब दिल हो किसी से बात करने का
तो मत करो उसे फ़ोन
एक कविता लिखो

लिखो कि याद आती है तो
क्या गुजरती है दिल पर
लिखो कि इस वक़्त 
तुम्हें और कोई काम नहीं
 याद से ज्यादा ज़रूरी

लिखो कि उसके बात कर लेने भर से तुम कितने हो जाते हो हल्के

लिखो कि मसरूफ़ियत का कोई रिश्ता नहीं बातचीत करने से

और यह भी लिखो कि
बात करने की तीव्र इच्छा को
तुमने  सृजन में बदला
और लिखी एक कविता।


ब्रज श्रीवास्तव.

8.





स्त्रियों ने स्त्रियों का साथ नहीं दिया
शोषण के मुद्दे पर
मजदूरों ने नहीं चुना इकट्ठा होकर 
लड़ना

शोषित लगातार शोषित होते रहे
पर साथ नहीं हुए 
मोर्चे में किसी के विरूद्ध.
सेवकों की ज़ात भी
कुचली जाती रही
स्वामियों द्वारा

एक और प्राणी है दुनिया में
लड़ने वाला झूठ से
कलमकार

वह भी अकेला ही हुआ
शोषितों और स्त्रियों की तरह
किसी  भी कलमकार ने 
उसका नहीं
व्यापारी का साथ दिया
अन्याय का और
स्वारथ का साथ दिया।

ऐसा अक्सर होता रहा
अक्सर अट्टहास करता रहा
आततायी.
अक्सर अकेला खड़ा रहा सच
सदी बदलने तक का भरोसा रखकर.

ब्रज श्रीवास्तव.

10.



जाल कोरोना का
सिमट जाएगा

ब्रज श्रीवास्तव



घट जाएगा, घट जाएगा
तिमिर धरा का घट जाएगा.
1
बस भरोसा रखो
और घर में रहो
ये ही सबसे कहो
कि संभल कर रहो
अकेलेपन  को सहो


मास्क लगा लेने से
दूर रह लेने से
खतरा निश्चित ही फिर
घट जाएगा
घट जाएगा
तिमिर धरा का घट जाएगा.

2
अपने भीतर देखो ज़रा
बैठा है वो ईश है
डर है किस बात का
संग जगदीश है
प्रभु का आशीष है।

अपने सदकर्मों से
उसके आशीषों से
सर महामारी का
कट जाएगा



घट जाएगा
घट जाएगा
तिमिर धरा का घट जाएगा
तिमिर धरा का घट जाएगा


3
सोचो ऐसा अभी
क्या हुआ ये कभी
कि रात के बाद
न आई सुबह कभी
न आया सूरज कभी


ये भी एक रात है
इतनी सी बात है
ये कुहासा क्षणिक है
छंट जाएगा


घट जाएगा
घट जाएगा
तिमिर धरा का घट जाएगा


4.
जिंदगी के सफ़र में
थोड़ा दुख भी रहा
किस किरदार ने 
बोलो  दुख न सहा
आंसू न हो बहा

शाम की आंधी है
हमने आस बांधी है
सफ़र ये भी यूं ही
कट जाएगा

कट जाएगा
कट जाएगा

5.

घायल पथिकों का तुम
एक  सहारा बनो
रात मावस की है
तुम सितारा बनो
तुम किनारा बनो


सब चल रहे धूप में
यात्री के रूप में 
बांटने से ये दुख
बंट जाएगा

घट जाएगा
घट जाएगा.



इस मनुज  ने सदा
पार प्रलय को किया
नहीं बुझने दिया
प्राण का ये दीया

हमने धीरज धरा
हममें साहस भरा
हम यूं ही जिएंगे
तो एक दिन 

जाल कोरोना का
भी सिमट जाएगा

घट जाएगा
घट जाएगा
तिमिर धरा का घट जाएगा



ब्रज श्रीवास्तव






















3.



  


🟣⚫

गुरुवार, 24 जून 2021

प्रतिभाशाली कवयित्री सिमन्तिनी जी की दस समकालीन कविताएँ : प्रस्तुति वागर्थ


1.
कठिनतम परिस्थितियों में 
जब मुट्ठी भर संवेदनशील लोग 
शर्म से गड़े जा रहे हैं 

पांच हज़ार बरसों में 
लगभग चौदह हज़ार 
युद्धों का इतिहास 
चीख़ चीख़ कर कह रहा है 

कोई राजा आज तक 
शर्म से नहीं मरा 

2. 
सियासत के शतरंज में 
सबकी अपनी चाल 
किसी की शै
किसी की मात 
चाल ही चाल में कभी-कभी 
फ़ना हो जाती है 
पूरी बिसात 
ढाई घोड़ा
तिरछा ऊंट थोड़ा-थोड़ा 
मोटा हाथी इस किनारे से उस किनारे 
सीधा ही दौड़ा
राजा ढाई चले सिर्फ़ एक बार 
पर वज़ीर बेधड़क कहीं भी जाने को 
रहता हरदम तैयार 
बेचारा बेऔक़ात प्यादा 
जो एक बार चला 
तो वापस भी न आ पाता है
पर वही प्यादा 
बिसात के आख़िरी ख़ाने में पंहुच कर 
जब हो जाता है वज़ीर 
तब पलट जाती है बाज़ी 
जब प्यादा खोलता है अपनी तक़दीर
वक़्त की शै से बचकर निकला प्यादा 
फिर पलट देता है खेल का रुख़ 
सियासत के शतरंज में


3. 
चुनाव 

मैं छोटी थी तो मेरे पिता मेरे पहले दोस्त बने 
हम चित्र बनाते 
कहानियां सुनते सुनाते 
खेलते पढ़ते 
बातें करते 

मैं बड़ी हुई तो पिता को सुनने लगी 
देखने लगी उनके अलग-2 रूप 
 
कुर्ता और सफ़ेद कॉटन लुंगी में देखती 
तो लगता कोई दक्षिण भारतीय संभ्रांत व्यक्ति 

पैंट शर्ट पहनते तो लगता कि कोई रोबदार अफसर 

कुर्ता-पैंट में होते तो लगता कि एक मस्तमौला लेखक 

और कंधे पर टँगा आर्टिस्टिक झोला उनकी पहचान सा ही था 

समय के साथ दाढ़ी बढ़ती रही 
पहले काली 
फिर अधपकी
फिर सफ़ेद 

बिस्तर पर फैली क़िताबें 
सामने रखा लैपटॉप 
और शेषनाग पर लेटे विष्णु टाइप का डैडी का पोज़ 
और हर वक़्त चेहरे पर बच्चों सी मुस्कान 
जो आख़िरी साँस तक साथ रही
इन सबमें हमेशा एक बेहतरीन दोस्त दिखा जो एक पिता भी था 

हिंदी बोलते तो लगता कि जैसे हिंदी ही इनकी विरासत है

कोंकणी बोलते तो लगता कि मानो सागर का संगीत बह रहा हो 

संस्कृत बोलते तो ओज झरता 

अंग्रेज़ी बोलते तो लगता कि कहीं चेरी ब्लॉसम के गुलाबी फूल बरस रहे हों 

बांग्ला बोलते तो लगता कि टैगोर कहीं आस-पास ही हैं 

मराठी बोलते तो कानों में मिसरी घुलती 

असमिया उड़िया के गाने गुनगुनाते तो लगता था कि उसी में जान है बसी 

पढ़ाते तो लगता कि ये लेसन कभी ख़त्म ही न हो 

हम साथ बाज़ार जाते 
अपनी मर्ज़ी चलाते 
खूब शरारत करते 
वो भी हमारे साथ बच्चे बन जाते 

बेकरी की दुकान में स्वीट केक टोस्ट खरीदते तो 
वेंडर चुपके से कान में कहता 
बाबा इसमें अंडे हैं .. 
और वो धीरे से कहते कोई बात नहीं हम अंडे खाते हैं 
लेकिन किसी से कहना मत
फिर सब हँस पड़ते

चर्च के पादरी घर आते तो यूँ मिलते जैसे ईसाइयत ही हो उनका धर्म 

गणेश पूजा में दादा जी के साथ मंत्र पढ़ते तो लगता कि ये विद्वत्ता की ख़ूबसूरत तस्वीर हैं 

किसी पारसी से मिलते तो अगियारी की आग दिखती भीतर

बाज़ार में नमाज़ के बाद लौटते लोग सलाम करते 
तो वो मुस्कुरा कर अभिवादन देते

घर में माँ के साथ चर्चा होती तो लगता कि अबूझ साहित्यकार हैं 

हर बार आत्मीयता का महसूस होना मानो बुद्ध बैठे हों सामने 

वो कवि थे 
सारा भारत घूमते 
और जहाँ भी जाते 
वहाँ का कुछ हिस्सा अपने में ले आते 

अब वो नहीं हैं 
पर मैं असमंजस में हूँ 
किस धर्म को स्वीकार करूं 
किसे अस्वीकार 

और मैं बस इंसान होना चुनती हूँ 
क्योंकि ये मेरे समय की सबसे बड़ी चुनौती है 
और मेरे पिता की थाती 


(थाती : विरासत )

4.
चैत और फागुन के बीच के मौसम में  
जब चलती रहती हैं सूखी हुई हवाएं 
पेड़ों से पत्तियां झाड़ती 
गाल और होंठ फाड़ती 
सर्दी से बढ़ती हुई गर्मी के बीच 
सब कुछ नहीं सूखता इस वक़्त भी 
सरसों लहलहाती है 
चना भी बेसुरे घुंघरू पहन इठलाता है 
गेहूँ भी ठाठ दिखाता है 
बोगनबेलिया की गहरी हरी बेलों पर आते हैं फूल 
गहरे गुलाबी रंग के 
जंगली घास में फूल खिलते नारंगी गुलाबी नीले 
इस मौसम में जब हवा सर्दी के दुशाले हटाने लगती है  
धौल ढाक के बिना पत्तों वाली शाखों में भी 
लगते हैं ख़ूबसूरत चटख लाल रंग के फूल
और छोटी काली हमिंगबर्ड चुनती है पराग उन्हीं फूलों से 
सूखी हवा में भी प्रेम झरता है 
और लिखता है कविताएं 
गेहूँ की बालियों में 
चने के बूट में 
सरसों में फूलों में 
बोगनबेलिया में 
जंगली घास में 
और ढाक की सूखी शाख़ों पर भी 
चटख लाल फूल टांक कर 
हमिंगबर्ड एक पेड़ से दूसरे पेड़ 
बायने में प्रेम बांट आती है. 


(ढाक के फूलों का परागण ये हमिंगबर्ड ही करती है) 

5.
भविष्य का बच्चा 

जब तुम बूढ़े हो चुकोगे 
और तुम्हारी अगली पीढ़ी जवान 
तब वो भविष्य की सुनहरी किरण
जो तुम्हारी चुप्पी की कालिख में धुंधली हुई है
तुमसे पूछेगी
जब समय इतना क्रूर था 
तब तुमने क्यों नहीं फूँका 
बग़ावत का बिगुल ? 

भविष्य का बच्चा 
पूछेगा एक बूढ़े बुद्धिजीवी से 
क्यों नहीं दिखाई 
नए रास्ते पर रोशनी 

भविष्य का बच्चा 
पूछेगा सवाल अपने माता पिता से 
क्यों नहीं पूछ पाये सवाल 
जब तुम दरकिनार बच्चे थे

भविष्य का बच्चा 
पूछेगा सवाल अपने समाज से 
किस नींद में थे कि 
सोकर ही बर्बाद कर दिया 
हमारा आज 
जो उस वक़्त तुम्हारा ही भविष्य था ? 

भविष्य का बच्चा 
पूछेगा सवाल बूढ़े हो चुके कवि से 
तुम्हारी कलम की सियाही 
आग क्यों नहीं बनी तब 
जब हमारे आज को तबाह करने के लिए तुम्हारे सियासतदां 
पुरज़ोर कोशिश में लगे थे 

भविष्य का बच्चा पूछेगा 
सवाल अपनी पुरानी नस्लों से 
समय बेशक़ अंधेरा रहा होगा 
अंधेरा आँखों को ग़ुलाम कर सकता है 
पर आवाज़ को नहीं 

और तुम्हारे पास कोई जवाब नहीं होगा 
क्योंकि तुम आज सो रहे हो 
भविष्य से आती हुई उस चीख़ से अनजान 
जो तुम्हारी ही आने वाली पीढ़ी की है. 
क्योंकि भविष्य का बच्चा 
ग़ुलामी से दोस्ती नहीं करेगा 


6. 
परमेश्वर ने लोगों के गुनाहों के लिए 
अपने बेटे को सूली पर चढ़ा दिया 
ज़रूर परमेश्वर 
कोई अनपढ़ होगा 
परमेश्वर को किसी कॉलेज में जाकर 
पढ़ना चाहिए 
मनोविज्ञान 
जिसका पहला सबक़ ये है 
कि जब भी तुम बच्चे को कुछ करने से मना करोगे 
बच्चा वही करेगा 
जो उसे मना किया जाएगा

7.
 मन मधुमक्खी के छत्ते सा 
ना जाने कितने कोटर 
सबके अलग अलग 
और कोई भी एक दूसरे से मिलता नहीं 
इतने पास होकर भी 
एक दूसरे से कितने दूर 
मन मधुमक्खी के छत्ते सा 
हर कोटर में शहद सा ज़हर 
सब उगलते हैं 
और कोई भी नहीं पीता किसी का ज़हर 
सब अपने ज़हर से ही बेहोश हैं 
गलतफहमी में 
कि मेरे ज़हर से वो मर गया 
मन मधुमक्खी के छत्ते सा 

8. 
ऐसे समय में 
जब हर तरफ मचा हो 
पीड़ा में होड़ का घमासान 
कवि भी लिख रहे हों 
भारी भरकम शब्दों में 
अकर्मण्यता और निराशा भरी कविताएं 

ऐसे समय में 
मैं नहीं लिख पा रही 
नरसंहार की दशाएं 
नहीं कह पा रही 
तीर और तलवार की महानता 

ऐसे समय में भी 
मैं लिखना चाहती हूं 
प्यास से पानी का प्रेम 
बीजों के जंगल में बदल जाने की कहानी 
हवाओं के परों पर पानी के उड़ने की कहानी 
एक देश का पानी दूजे देश बरसने की कहानी 

हाँ मैं नहीं लिखना चाहती 
थकी हुई हताश ऊर्जा 
मैं थमाना चाहती हूँ बच्चों के हाथों में वो किताब 
जिसमें सिर्फ़ प्रेम लिखा हो 
क्योंकि नफ़रत और जंग की ज़रूरत
सिर्फ़ सियासत को है 
बिल्कुल उसी तरह जिस तरह 
जंगल की ज़रूरत इंसान को है 
जंगल को इंसान की नहीं 
 

9. 
मथुरा के रास्ते से घर लौटते हुए
एक बार  
बीन लाई थी कदम्ब की गेंदों में तुमको 
और तोड़ लाई थी कुछ घुँघरू 
तुम्हारी रासलीला के 
तुम्हारे माथे के मोरपंख को 
कानों के कुंडल बना पहना था मैंने 
तुम्हारी बांसुरी अधरों पर लगा 
और नाचती रही उन घुंघरुओं को पहन 
तुम्हारी त्रिभंगी छवि बना 
गूंजते रहे कवित्त के बोल 
नीर भरत यमुना तट पर 
भर भर नीर उठावत गागर 
मोहे छोड़ छोड़ माधो माधो माधो 
तभी तो मेरा नृत्य 
खींच लाया तुम्हे मेरे आँगन तक 
और तुम छोड़ आये थे वृंदावन
उस निविड़ निशा में 
और तुम्हारी चमकती हुई कृष्ण आभा में 
कस्तूरी ढूंढते हुए नीलाभ मृग से 
मैं ही तो थी तुम्हारी कस्तूरी 
तुम्हीं में समेकित 
तुम्हारी नाभि में स्थित 
अंतर सुगन्धित
तुम हर जगह ढूंढते हो 
मेरा मन 
मन कस्तूरी सा 
ढूढ़ रहा था मृग नाभि 
तुम्हे पाया 
वेदना छलक कर प्रेम हो गई



10.
धरती देती है संकेत 
समय समय पर 
आदमी समझ नहीं पाता 
जंगल जलाता है 
ईंधन जलाता है 
सुविधा बटोरने में जान भी जलाता है 
कई बार घर भी 
और हर बार मन जलाता है 
आदमी कितना जलनखोर है
इसे सिर्फ जलाना आता है 
आदमी
बुझाता कुछ भी नहीं  

✍️ सिमन्तिनी


परिचय : 
नाम : सिमन्तिनी रमेश वेलुस्कर 
उम्र : 35 वर्ष (विवाहित) 
पता: जानकीपुरम विस्तार, लखनऊ 
शैक्षिक योग्यता : जीवन विज्ञान में परास्नातक 
स्वतंत्र लेखन

फ़ोन- 9888695851


बुधवार, 23 जून 2021

ब्लॉग वागर्थ प्रस्तुत करता है वरिष्ठ कवि रामकिशोर मेहता जी की समकालीन कवियाएँ



वागर्थ ब्लॉग में प्रस्तुत हैं कवि रामकिशोर मेहता जी की समकालीन कविताएँ

1

 होली में 
________
           


कुछ चोली की
कुछ दामन की 
श्रृंगार  की
बातें होली में ।
तुम आओ तो 
हो जाएं 
कुछ प्यार की 
बातें  होली में। 

स्मित मुस्कान  हो
होठों  पर 
और  बाँहों  में 
अभिनन्दन  हो
हो मृदुलगात
स्पर्श हटात
और अंगों  मे
स्पन्दन हो
हो अधरों  पे धरे
अधरों  में  जले
श्रृंगार  की बातें 
होली में। 

कुछ रंग के छींटे 
हम पे पड़े 
कुछ तुम  पर भी हो
छींटाकशी ।
सुकुमार उल्हाने
तुमको मिले
कुछ हम पे भी 
तानाकशी। 
हो पिचकारी
हो सिसकारी 
हों बौछार की बातें 
होली में। 

जब झूमती गाती 
भाभी हो
मदमस्त 
दीवाने  हों देवर।
अधबीच हृदय में 
अटकी हो
साली की नजर
तिरछे तेवर।
कुछ चित की हों
कुछ चितवन की 
चितहार की बातें 
होली मे।।


 (कोरोना महामारी के बावजूद लाखों लोगों के कुम्भ  स्नान और चुनाव की रेलियों  में शामिल होने पर) 
2
   गैस चैंबर
             रामकिशोर मेहता 

आश्चर्य हुआ था पढ कर
कि कभी कभी 
कुछ जीव करते है 
सामूहिक आत्महत्या। 

आश्चर्य हुआ
देख कर 
 कि किस तरह
बेग पाईपर की धुन पर
चूहों की तरह 
पीछे पीछे दौड़ने लगे हैं आदमी । 

समझ में आया
कि कैसे 
गैस चैंबर  में
बदलने लगा है देश।
3
 अपने सिपाही बेटे से 
_______________
              

इतना याद रखना
मेरे सिपाही!
मेरे बेटे!
कि तू 
किसी राजशाही के
हुकुम का गुलाम नहीं,
कि तू एक स्वतंत्र  देश का
स्वतंत्र  नागरिक है
कि तेरे हाथ में
जो बंदूक  है
और उसमें जो गोली है
वह मेरे 
गाढ़े पसीने की कमाई  है
और वह गोली
किसी को पहचानती नहीं
पर तू तो पहचानता है
कि कल रात
तू ने जो रोटी खाई थी
वह किसी किसान की
मेहनत की कमाई  थी।
और
वीर तू जानता है 
नमक का मान रखना
और वे जो पूँजीपतियों के दलाल 
वातानुकूलित  कमरों में बैठ कर
हुक्म  दे रहे होते हैं 
कोई खेती  नहीं करते
नमक की भी नहीं।
4
आशंक
 _______       

हो सकता है
कि यह मेरी
अपनो के प्रति
आशंका ही हो
पर मैं  समझ नहीं पाता हूँ
कि कैसे कोई सत्ताधीश
करोड़ो बीमारो की
भूखों,नगो
बे घर बारों की
चिन्ता से मुक्त हो
बजा सकता है बाँसुरी।
मुझे डर लग रहा है
कि महाभारत 
अब दूर नहीं है।

5
 अयाचित उद्घोष
   ___________               

पृथ्वी पर देश है
देश में शहर है
शहर में घर है
घर में पिंजरा है
पिंजरे में कैद है तोता
बंद है दरवाजा पिंजरे का।
उड़ने की 
किसी भी संभावना को
खत्म करने के लिए
कतर दिए गए हैं
तोते के पर
और
बिठा दिया गया है
बिल्ली को पहरे पर।
पूर्व निरधारित कर दिया गया है
तोते का काम
भजना है राम राम
उसके बाद ही मिलती है
तोते को रोटी।
रोटी की एक फितरत है
वह खाली पेट की जरूरत है
और
भरे पेट का नशा।
नशे में
उड़ान भरता 
परकैच तोता
विभ्रम में है।
देखता  क्या है
कि विराट होता जा रहा है
कृष्ण के खुले मुख की तरह
पिंजरे का आकार
जिसमें
समा गया है घर
फिर शहर
उसके बाद देश भी।
आगे देखता  है
कि घर का मालिक 
तोता है
नगर का कोतवाल
और
देश का लोकपाल भी
तोता है
यंत्री , तंत्री, मंत्री और संत्री की
आत्माएं तोतों में हैं
और तोते
समाते जा रहे हैं
काल के गाल में
राम नाम के 
सत्य होने का
उद्घोष. करते हुए।

6
तुम तो केवल निमित्त मात्र थे राम लला

बाल  स्वरूप राम!
इस गलत फहमी में मत रहना
कि तुम 
कभी भी
हमारी आस्था का केन्द्र  थे 

कि तुम्हारे गालों को
तर्जनी से छू भर देने से
खुल जाते थे 
तुम्हारे होठ 
और भर उठता था
हमारा मन 
वात्सल्य  से 

कि तुम्हारी बाल सुलभ 
मुस्कान पर 
खिल उठता था हमारा मन 

कि तुम्हारे
ठुमक ठुमक कर चलने से 
बजती पैजनियों पर
नाच उठता था 
हमारा मन मयूर। 

न, न, न राम!
हमें किसी दाई ने
कोई ऐसी सूचना नहीं दी थी 
कि तुम यहीं 
इसी जगह पर पैदा हुए थे 
जहाँ किसी आततायी  ने
बाद में
बना कर खड़ी कर दी थी 
एक मस्जिद ।
हमें नहीं पता 
कि हजारों साल पहले
यहीं 
इसी जगह पर थी 
वह अयोध्या भी
जिसके राजा थे 
तुम्हारे पिता दशरथ
जिनकी महारानी थी  कौशल्या 

राम !
यहीं कहीं 
आस पास ही
पैदा हुए होंगे 
भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न  भी
हमें उनके जन्म स्थल  का भी 
नहीं पता राम! 

न, न, न राम !
इस सबसे 
हमारा कोई मतलब नहीं था।
हमारा मतलब था 
सत्ता से 
जो हम पा चुके हैं
और 
अब जब तुम्हारे कदम
पड़ ही चुकें है
इस जमीन पर 
अयोध्या बन गई  है
हमारे लिए हिरण्यनगरी
जिसे देख
पुनः जल उठेगी लंका,
फूलने फलने लगा है 
हमारा व्यापार-धर्म। 
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तुम तो केवल
निमित्त मात्र  थे रामलला।

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ईश्वर!
मैं साक्षी हूँ
तुम्हारी मृत्यु का।
वह स्थल था
पूजा घर
जहाँ तुम मारे गए थे
हथियार  था धर्म। 
हत्यारा कोई और नहीं
तुम्हारा ही पुजारी था
फिर 
वहीं, उसी पूजाघर मे ही
बना कर ममी 
तुम्हें रख दिया गया था सुरक्षित 
ताकि नकारा न जा सकें उसका अस्तित्व 
और 
चलती आपकी दुकाने।
रामकिशोर मेहता
प्रस्तुति
वागर्थ ब्लॉग से

  रामकिशोर मेहता 
जन्म तिथि 20-09-1947 जन्म स्थल - ग्राम -बड्ढ़ा बाजीदपुर
जिला - बुलन्द शहर (उ.प्र.) 
विधाऐं
1व्यँग्य  एकाकी 2 नाटक 3 व्यँग्य
4 कविता - नई कविता, गीत, नवगीत, दोहा , कुण्डली , हाइकु, ग़ज़ल 4 लघुकथा 5- कहानी
6 उपन्यास 7- निबंध 4-अखवार में नित्यप्रति काॅलम 9-अंग्रजी से हिन्दी में अनुवाद 10-समीक्षा
पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन आकाशवाणी जबलपुर और अहमदाबाद एवं दूरदर्शन भोपाल से प्रसारण
प्रकाशित पुस्तकें
एकांकी संग्रह- प्रजातंत्र का चौथा पाया 'मुफ्त का मुर्गा' ,'पात्र मुखौटा नौंचते हैं'
नाटक - धम्मघोष( ऐतिहासिक ) ,राख के बीज (ऐतिहासिक), अतिक्रमण( सामाजिक) ' चार लोकधर्मी नाटक।
व्यँग्य संग्रह- वायदों की आधुनिक दुकान, भगवान बचाए उधार मांगने वालों से ,पग में चाकी बाँघ कर.......,  .........हिरना कूदा होय  ,  गुरु फितरती का चुनाव  घोषणापत्र 
कविता संग्रह-गिद्धभोज,  चुप कब तक, पिघलते पात्र से  प्रतीक्षा नही करता समय, अंधेरे का समाजवाद, जोखिमों  के घेरे में, मुखर मौन, ढपोर  शंख का पुनर्जन्म, एक स्वर की तलाश  में,
ग़ज़ल  संग्रह  -बहर से बाहर
उपन्यास - पराजिता का आत्मकथ्य, प्रतिशोध का अनहदनाद (अंग्रेजी अनुवाद भी), वह अंतिम संघर्ष नहीं था। (अंग्रेजी अनुवाद  भी)
निबंध संग्रह - कन्याभ्रूण हत्या और गायब होती 
                      लड़कियाँ
देश में  किसान की दुर्दशा 
भगवद्गीता  - एक पुनर्पाठ 
दिशा और दृष्टि  - समीक्षा  संग्रह। 
प्रकाशनाधीन कविता संग्रह  - तीसरा आदमी।
पुरस्कार /सम्मान
1.मध्य प्रदेश आँचलिक साहित्यकार परिषद जबलपुर द्वारा 1994 में 'दिव्य ' सम्मान।
2.महाकौशल साहित्य एवं संस्कृति परिषद द्वारा 2001-02 में भारत भारती  सारस्वत सम्मान
3 साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद द्वारा नाटक"' धम्मघोष ' पर 2001- 02 का हरिकृष्ण प्रेमी पुरस्कार।
अन्य बहुत सारे सम्मान 

पता 
बी 11  शिवालय बंग्लोज , सरकारी ट्यूबवेल के पास  , बोपल, अहमदाबाद  380058
मो 09408230881 , 
Email rkm_katni @rediffmail.com
ramkishoremehta9@gmail.com


डॉ आरती जी की एक समकालीन कविता प्रस्तुति : वागर्थ

फेसबुक साझाकरण में प्रस्तुत है
चर्चित पत्रिका 'समय के साखी' की ख्यात संपादक आरती  की
एक सशक्त नयी कविता
प्रस्तुति 
वागर्थ
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(बहुत दिनों बाद एक कविता बन पाई)

 एक देह को खाक में बदलता देख कर लौटी हूं
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पहली बार, एक जलती चिता को देखकर लौट रही हूं 
इत्तेफाकन ही, वह एक औरत की चिता थी 
एक देह को खाक में बदलता देखकर लौट रही हूं 

शून्य से अनंत भार में बदल चुके पैरों को घसीटती 
घर की सीढ़ियां चढ़े जा रही 
आंखों की पुतलियां एक बड़ी स्क्रीन में तब्दील होकर दृश्य को रंग, गंध,ध्वनि के साथ बार-बार दोहराए जा रही 

सुनहरे बॉर्डर की हरे साउथ कॉटन साड़ी में लिपटी देह लकड़ियों के बीच दबा दी गई 
जब पहली लौ ने उठकर अंगड़ाई ली ही कि-
मैं चीख मारकर रोना चाहती थी 
लेकिन कसकर दबा दिया अपनी रुलाई का गला 
कि अभी सब चिल्ला उठेंगे - इसलिए औरतों को आने की मनाही है 

हां, औरतों को मनाही होती है बहुत सी चीजों की 
और यदा-कदा अर्जित की हुई आजादियों को जीने का सऊर भी नहीं होता उनके पास 
जैसे उनके पास समय हो तो भी वे अपने मन का कुछ  नहीं कर पाती 
उन्हें हर दिन ऑफिस से जल्दी पहुंचना होता है घर छुट्टी का दिन तो और भी व्यस्त होता है
एक दिन वे थोड़ा सा समय निकालकर 
दिल में दबा हुआ गुबार कहने अजीज दोस्त के पास जाती हैं और चाय के घूंट घूंट के साथ 
होंठों के कोर तक आया हुआ अनकहा फिर से पी जाती है

वह औरत जब तक जिंदा रही फुर्सत के कुछ घंटे कभी नहीं निकले उसके बटुए से 
कि उसके और मेरे पास व्यस्तता के हजार बहाने थे
हम कहते रहे कि हम जल्द मिलेंगे... जल्द मिलेंगे 
और एक दिन सुबह एक मैसेज आता है- शी इज नो मोर... 
मैं एक पल के लिए अवाक्...
मुझे कोई जरूरी काम याद नहीं आता... 
मैं सीधे दौड़कर उस जगह पहुंच चुकी होती हूं 
जहां वह औरत नहीं होती बाकी सब कुछ होता है 
घर होता है, लोग होते हैं और होती है उसकी देह

इसे अजीब किस्म की विडंबना की तरह ही देख सकते हैं कि
वह औरत मेरी इतनी घनिष्ठ तो ना थी कि महीनों बाद भी मेरी रात उसकी स्मृतियों का घरौंदा बन जाए

हां मैं हर रात उस औरत की देह में कायांतरित हो जाती हूं 
मेरी छाती, मेरी जंघायें, मेरी पिंडलियां, तलवे लकड़ियों के ढेर के नीचे दबे जा रहे 
वह देखो! कोई मेरी ओर जलती तीली फेंकने ही वाला है।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2021

देवेंद्र दीपक जी की एक कविता पर टीप प्रस्तुति : वागर्थ

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=3628805550544037&id=100002438833305

कविता वह जो 
पढ़ने के उपरांत देर तक आपके साथ रहे,और मंथन करने को मजबूर करे ।राजधानी की सबसे पुरानी संस्था कला मन्दिर प्रकाशन से प्रकाशित एक दुर्लभ पुस्तक झील के स्वर हाथ लगी जिसका प्रकाशन सन 1981में हुआ इस कृति में उस समय के सभी चमकीले सितारे मौजूद हैं दुर्योग से उनमें से अधिकतर अस्त हो गए हैं।और जो हैं उनकी चमक आज भी बरकरार है आज प्रस्तुत है देशभर में चर्चित राजधानी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ देवेंद्र दीपक जी की एक कालजयी रचना
प्रस्तुत कविता की विशेषता यह है कि यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कल थी और आगे भी उतनी प्रासंगिक रहेगी।
प्रस्तुति 
मनोज जैन मधुर

मेरा देश 
मलूकदास का अजगर

मेरी पत्नी
मंहगाई की मार के कारण परेशान है,
मैं व्यवस्था की 
असंगतियों के कारण परेशान हूँ,
हमारा बच्चा 
हम दोनों की 
परेशानी के कारण परेशान है।
भारत के हर घर की,
कुछ ऐसी ही कहानी है
परेशानी ही परेशानी है।
भारत में फिर भी
ऐसा कुछ नहीं होता
कि भारत
ठीक हो,
रफ़ीक कम से कम 
मय्यत में तो
शरीक हो।
मेरा देश मलूकदास 
का अजगर 
या 
झुम्मन कबाड़ी का
टीन कनस्तर!
मेरे देश में
पानी खौलता है खून नहीं खौलता।
देवेंद्र दीपक

संत कुमार मालवीय जी की कृति पर चर्चा

संत कुमार मालवीय "संत" :खुशियों को बचाये रखने की पुरजोर कोशिश !

प्रवाह 
~~~
अति प्रवाह
दे जाता है, हमें 
एक संदेश ।
सामर्थ्य से अधिक पा लिया 
और ,न कर पाए सदुपयोग 
तो,ले जाएगा बहाकर 
एक दिन 
सभी को,  उस पार।
चाहे, वह जल हो 
वह धन हो
अथवा ज्ञान।
संत कुमार मालवीय "संत"
मध्यप्रदेश के छोटे से कस्बे सांची में जन्मे संत कुमार मालवीय संत जी पिछले कई वर्षों से भोपाल शहर में निवासरत है ।
कस्वाई संस्कृति में पले बढ़े श्री मालवीय जी को,आज भी, शहरी संस्कृति जरा भी न छू सकी। 
मैंने अपने जीवन में बहुत कम लोगों को यथा नाम तथा गुण की युक्ति पर खरा उतरते देखा है। पर यह बात मित्र संत के व्यक्तित्व पर जरूर लागू होती है!
संत होने के लिए कतई जरूरी नहीं है कि, घर छोड़कर जंगल में जाकर धूनी रमा ली जाय! गार्हस्थ्य जीवन में जो अपने भीतर बैठे मनुष्य को मनुष्य बना रहने दे,मेरी दृष्टि में वही संत है। भरत जी घर में ही वैरागी की तर्ज पर मैंने मित्र संत मालवीय जी के जीवन को बहुत निकट से देखा है इनके सुख दुख में निरन्तर भागीदारी की है।
कर्मठता इनके व्यक्तित्व का विशेष गुण हैं ।
  कछुए की तरह मंथर गति से निरन्तर चलते हुए मेरे इस मित्र ने अनेक उपलब्धियों को अपनी कर्मठता के बूते ही अपने खाते में दर्ज किया है ! जिनमें मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का 1.श्री कृष्ण सरल सम्मान रेलवे बोर्ड का 2.मैथिली शरण गुप्त सम्मान 3. तुलसी साहित्य अकादमी का तुलसी शिखर सम्मान के साथ अन्य सम्मान भी नई कविता की इनकी बहुचर्चित  पुस्तक "बची हुई खुशियाँ" के नाम पर दर्ज है।
                       लेखन में विविधता ,स्वभाव में सरलता, व्यवहार में कुशलता,बोली में मिठास,जीवन में कर्मठता, मित्रों के सहयोग में तत्परता, के इस अनूठे समुच्चय का नाम संत कुमार मालवीय 'संत' के अतिरिक्त अन्य दूसरा हो ही नहीं सकता।
सरल और सहज कविताओं के माध्यम से अपने आपको अभिव्यक्त करना इनकी अन्यतम ख़ूबी है।इनकी पुस्तक बची हुई खुशियाँ की कविताएँ प्रेरणा का अद्भुत संचार करती अपने समय की जरूरी कविताएँ हैं जो निराशा के इस माहौल में हौसला देती है।
 पढ़ते हैं 
 खुशियों के अलाव 
सुलगाते रहे 
उनकी खातिर
सदैव हम
अपनी खुशियों के अलाव।
वे सेंकते रहे 
अपने तन मन और धन को
हम जलाते रहे 
लकड़ियां
प्रीत की रीत की 
ईमानदारी और भाईचारे की 
कभी नहीं पूछा उन्होंने 
आखिर 
इतनी सारी लकड़ियां
तुमने 
कहां से 
और कैसे 
एकत्रित कीं।
प्रस्तुत है संग्रह की दो-एक और सहज और सरल कविताएँ!
      यद्धपि कवि का जुड़ाव किसी विशेष विचारधारा से नहीं है ,पर कविधर्म के निर्वहन के लिए वह विषय विशेष को अपने अनूठे अंदाज में अभिव्यक्ति देते हैं।
द्रष्टव्य है आम जन की पैरबी करती उनकी सफलता शीर्षक से एक सुन्दर रचना।
सफलता 
अजीब परिदृश्य रहा 
हड़ताल और बंद के दौरान 
गरीब के घर 
चूल्हे नहीं जले 
मजदूर के बच्चे 
भूखे ही सोए 
हां 
आंदोलन कारी 
और सुखी संपन्न नेता गण 
बंद सफल का 
समारोह मनाते दिखे।
     विषय वैविध्य की बात की करें तो संग्रह में अलग अलग विषयों पर कुल जमा 60 कविताएं हैं ।कवि ने पर्यावरण, प्रकृति भूमण्डलीकरण,बाजारवाद,ग्रहरति, तीज-त्योहार,राजनैतिक-परिदृश्य ,कार्यस्थल,दर्शन-बोध,छरण होते मानवीय सम्बन्धों को अपनी कविताओं का विषय बनाया है।
प्रतीकों में नवीनता और भाषा में सहजता और सरलता है। संग्रह की एक कविता अपेक्षा शीषक से कवि मन की सहजता को सहज ही टटोला जा सकता है।आइये थाह लेते हैं कविता के माध्यम से कवि मन की।
 अपेक्षा
मुझे भय नहीं 
अपनी निंदा का 
न ही शर्मिंदा हूं ,अपने स्वभाव से ,
तलब गार भी नहीं 
क्षणिक सम्मान 
और झूठी प्रतिष्ठा का 
बनाना भी नहीं चाहता 
किसी की आह के ऊपर 
अपनी वाह के महल
हो चुका हूँ अभ्यस्त
स्वाभिमान की झोपड़ी में चैन पाने का 
हां ,जीवन पथ पर 
स्वजनों से अपेक्षा 
और ईश्वर से यही अभिलाषा 
कि, देर सवेर स्पष्ट हो जावे 
निज कर्म, धर्म और मर्म 
जनता जनार्दन के समक्ष 
ताकि, 
हो सके विदाई 
उनके समाज से 
बिना किसी गिले-शिकवे के।

सार संक्षेप में कहें तो कुल मिलाकर संग्रह बचे "हुई खुशियाँ" बार-बार पठनीय है।

टिप्पणी
मनोज जैन मधुर
बची हुई खुशियां 
कवि:संत कुमार मालवीय
प्रकाशक संदर्भ प्रकाशन 
संस्करण प्रथम 2016