फेसबुक साझाकरण में प्रस्तुत है
चर्चित पत्रिका 'समय के साखी' की ख्यात संपादक आरती की
एक सशक्त नयी कविता
प्रस्तुति
वागर्थ
______
(बहुत दिनों बाद एक कविता बन पाई)
एक देह को खाक में बदलता देख कर लौटी हूं
-------------
पहली बार, एक जलती चिता को देखकर लौट रही हूं
इत्तेफाकन ही, वह एक औरत की चिता थी
एक देह को खाक में बदलता देखकर लौट रही हूं
शून्य से अनंत भार में बदल चुके पैरों को घसीटती
घर की सीढ़ियां चढ़े जा रही
आंखों की पुतलियां एक बड़ी स्क्रीन में तब्दील होकर दृश्य को रंग, गंध,ध्वनि के साथ बार-बार दोहराए जा रही
सुनहरे बॉर्डर की हरे साउथ कॉटन साड़ी में लिपटी देह लकड़ियों के बीच दबा दी गई
जब पहली लौ ने उठकर अंगड़ाई ली ही कि-
मैं चीख मारकर रोना चाहती थी
लेकिन कसकर दबा दिया अपनी रुलाई का गला
कि अभी सब चिल्ला उठेंगे - इसलिए औरतों को आने की मनाही है
हां, औरतों को मनाही होती है बहुत सी चीजों की
और यदा-कदा अर्जित की हुई आजादियों को जीने का सऊर भी नहीं होता उनके पास
जैसे उनके पास समय हो तो भी वे अपने मन का कुछ नहीं कर पाती
उन्हें हर दिन ऑफिस से जल्दी पहुंचना होता है घर छुट्टी का दिन तो और भी व्यस्त होता है
एक दिन वे थोड़ा सा समय निकालकर
दिल में दबा हुआ गुबार कहने अजीज दोस्त के पास जाती हैं और चाय के घूंट घूंट के साथ
होंठों के कोर तक आया हुआ अनकहा फिर से पी जाती है
वह औरत जब तक जिंदा रही फुर्सत के कुछ घंटे कभी नहीं निकले उसके बटुए से
कि उसके और मेरे पास व्यस्तता के हजार बहाने थे
हम कहते रहे कि हम जल्द मिलेंगे... जल्द मिलेंगे
और एक दिन सुबह एक मैसेज आता है- शी इज नो मोर...
मैं एक पल के लिए अवाक्...
मुझे कोई जरूरी काम याद नहीं आता...
मैं सीधे दौड़कर उस जगह पहुंच चुकी होती हूं
जहां वह औरत नहीं होती बाकी सब कुछ होता है
घर होता है, लोग होते हैं और होती है उसकी देह
इसे अजीब किस्म की विडंबना की तरह ही देख सकते हैं कि
वह औरत मेरी इतनी घनिष्ठ तो ना थी कि महीनों बाद भी मेरी रात उसकी स्मृतियों का घरौंदा बन जाए
हां मैं हर रात उस औरत की देह में कायांतरित हो जाती हूं
मेरी छाती, मेरी जंघायें, मेरी पिंडलियां, तलवे लकड़ियों के ढेर के नीचे दबे जा रहे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें