मंगलवार, 22 जून 2021

डॉ भगवान प्रसाद सिन्हा जी वागर्थ के सजग पाठक हैं समूह में प्रस्तुत कवयित्री रूपम झा जी की प्रस्तुति पर सिन्हा साहब ने एक लघु आलेख लिखा है जो वागर्थ के पाठकों के लिए उनकी वॉल से साभार प्रस्तुत है।प्रस्तुति : वागर्थ संपादक मण्डल।

वागर्थ में डॉक्टर मनोज जैन  ने जनपक्षीय नवगीतों की धारा में इस बार बेगूसराय (बिहार) जनपद की मैथिली और हिंदी की सशक्त रचनाकारा  कवियत्री रूपम झा के छ:नवगीत प्रस्तुत किए हैं। एक पाठक की नज़र से की गई मेरी टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है। इस प्रस्तुति से मुझे बहुत ही प्रसन्नता और संतोष मिला है क्योंकि मुझे भी आत्मविवेचना का अवसर प्राप्त होता है। इस अवसर से मुझमें भी चीज़ों को देखने, परखने, समझने और ग्रहण करने का माद्दा बनता है। मैंने अपनी टिप्पणी की शुरुआत हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार और प्रोफ़ेसर अरुण प्रकाश मिश्र के उस उद्धरण से की है जो रूपम के लिए एक रचनाकारा के रूप में सटीक बैठती है । 
 Arun Prakash Mishra   ने अपनी प्रसिद्ध आलोचनात्मक पुस्तक "काव्य भाषा और भाषा की भूमिका" में लिखा है कि कवि/कवियत्री या रचनाकारा अपनी रचना में जब भी शब्दों की तलाश करता
लेखक जब भी शब्दचयन करता/करती है वह अपने वर्ग , विचारधारा और चेतना तथा हितों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाता/पाती । अगर किसी कारण से, किसी दबाव ,तनाव , शैथिल्य, अवहेलना में वह ऐसा नहीं कर पाती तब वैसी स्थिति में जीवन की वास्तविकताओं को पूर्णतः अभिव्यक्त भी नहीं कर सकता/सकती है । अपने अचेतन में वह कहीं न कहीं वर्गीय चरित्र और आधार से सम्बद्ध-प्रतिबद्ध होता है जो रचना प्रक्रिया में काव्यभाषा के सभी स्तरों पर प्रतिबिंबित होता चलता है। 
 रूपम के गीतों में यह निष्कर्ष सौ फ़ी सदी सही देखने को मिलता है। उनकी "घसगढ़नी " इसका प्रतिमान है। यह गीत इतना भावपूर्ण ढंग से यथार्थ को बयान करता है कि ख़ुद मैं कभी रूपम से कोई गीत या रचना सुनना चाहता हूँ तो प्राथमिकता में "घसगढ़नी" होती है। खेतमज़दूर से भी इनकी दारिद्र्य स्थिति बदतर होती है। इनके अधिकतम श्रम से न्यूनतम उत्पाद पैदा होता है उसपर इनकी जीविका व ज़िन्दगी की उम्र तय होती है। उस पर कलम चलाना किसी मज़बूत वर्गीय चेतना का ही परिणाम हो सकता है। रूपम की इस चेतना के  प्रतिविंब में ही उनकी दूसरी रचनाओं को देखा परखा जा सकता है। वह अपने चतुर्दिक परिवेश की रचनाकारा हैं। उनकी दूसरी रचना में भी शब्दों को देखिए गीत में जिसका विन्यास उस ज़िंदगी के गीत के रूप में उभरे हैं जिन्हें वे अभिन्नता के साथ अपने परिवेश में जीते हुई पातीं हैं:
बेच रहा है वक़्त काल बन 
अब रोटी का गंध ... 
चाह रहे हैं बोया जाए  
फिर खेतों में दाँत! 
क्या विंब खड़ा है "रोटी" और "खेत" के साथ! इसे जीनेवाले के लिए कितनी सुक़ूनदेह ये पंक्तियाँ होंगी यह सहज समझा जा सकता है। 
जुमले जुमले होते हैं, ठगी के साधन होते हैं। उसको नंगा करतीं ये पंक्तियाँ सत्ता को नंगा करतीहै और वह भी "झुग्गी" से आवाज़ देकर। शब्द पर ग़ौरतलब है:
 नई किरण लेकर आयी है
झुग्गी में सरकार (जुमला) ... 
.. लेकिन केवल बातों से ही 
हुई भूख कब शांत (यथार्थ के चीत्कार से जुमलेबाज का नंगापन!) पूरा गीत इसी  दिशा में सार्थक प्रयास के साथ  गति पाता है। 
स्त्री संवेदना से जुड़ी तीसरी रचना में जब वह कहतीं हैं: 
    बनो प्रेरणा जग के ख़ातिर 
    छोड़ो रोना और कलपना
और भी
     सीखो तुम लोहे से तपना 
तब वह पूरे अपने लिंगवर्ग को ख़ुद तक सीमित रहने की निष्क्रिय संज्ञा तथा संकीर्णता से मुक्त कर इस तरह परिणत करने की कोशिश करती हैं कि वह समग्रता में सामाजिक न्याय के संघर्ष में जूझते टकराते सभी वर्गों की चेतना प्रक्रिया का हिस्सा बनाना चाहती हैं । 
 अपनी अगली रचना में उनकी आकुलता घनीभूत हो जाती हैं और ज़यादे बेचैनी के साथ हमें परिदृश्य की ओर खींचतीं हैं  । मुक्तिबोध ने समय की इसी मांग की पूर्ति में  कविता के "ऐतिहासिक स्पंदन के लाल रक्त" से लिखे जाने का प्रस्ताव तुलसीदास से किया था अपनी पीड़ा का रामायण लिखने। रूपम ने अपनी पीड़ा की बेचैनी और आकुलता को लाल रक्त के विंब में इंक़्लाबी तेवर में इन पंक्तियों में परोसा हैजो स्त्री स्पंदन के सार को एक ऊँचाई पर ले जाने का प्रयास है:
" ... जिस दरख़्त से भय लगता है
काटो मिलकर उसकी शाख़ें "

  यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि दरख़्त की शाख़ "मिलकर " ही काटी जा सकती है। यह उस समाज विज्ञानी प्रस्थापना के सातत्य का स्वीकार है जिसमें समाज बदलने में  किसी नायक या नायिका गाथा को श्रेय न देकर इतिहास  की सामूहिक संगठनात्मक एकता को अपरिहार्य माना गया है। 

  दरअसल, यह गीत और अन्य भी स्त्रियों को हजार सालों की पितृसत्ताक संजाल में ठहरी आत्मग्रस्तता से मुक्ति का संदेश देना चाहतीं हैं जो ख़ुद स्त्री संवर्ग के लिए ऐसी आत्मप्रवंचना का निर्माण करती है जो  दिमाग़ में घर जाने के बाद भौतिक शक्ति बन यथास्थिति की सत्ता की  निरापदता के लिए अमोघ अस्त्र बन जाते हैं । 

  पांचवा गीत थोड़ा निजत्व लिए हुए प्रतीत होता है जो प्रेमबोध की उत्कृष्ट रचना है। प्रेमभाव का निजत्व अक्सर वितानित होकर समाज के फलक तक पसर जाता है। वह एक ऐसा प्रेरणा स्रोत बनता है जिससे  हम उर्जस्वित होते रहते हैं। चे ग्वेवारा ने कहा था सच्चा इंक़्लाबी प्रेम के उदात्त भाव से दिग्दर्शित होता है। रूपम की इस प्रेमभाव में अभिव्यक्त गीत समाज के लिए गाए जाने वाले गीत के लिए उर्जा का स्रोत हो सकता है। इस गीत में जो रस है वह एक रोचक साहित्य का अंग हो सकता है। 

 इसी की शृंखला में अंतिम गीत भावबोध को संवेदनात्मक ज्ञान तक पहुँचा दे रहे हैं जहाँ यथार्थ प्रेम और भाव से सिक्त होकर निखर उठता है। 

रूपम एक अध्ययनशील रचनाकारा हैं। वे प्रसिद्ध दार्शनिक सिसरो के उस कथन के साथ दिखतीं हैं जिसमें उसने कहा था कि तुम्हारे पास पुस्तकालय है तो बहुत कुछ है। और कहने में कोई संकोच नहीं है कि  यह "बहुत कुछ" उनके पास है तो यह उस व्यक्ति का अवदान है जिसके लिए उन्होंने सही लिखा है: 
जब से तुम आए जीवन में
मेरी सांस बनी शहनाई... 

शैलपट्ट भी इन आँखों को
दर्पण के जैसे दिखते हैं 
संदेशा मन का हम दोनों
बिन बोले लिखते पढ़ते है
श्याम तुम्हीं ने इस जीवन को
सुख की वरमाला पहनाई!

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