हम किसी चट्टान के पत्थर नहीं हैं
यदि कहीं सैलाब कोई,
गोद में हमको उठा ले,
हम नहीं होगे विखंडित,
हम किसी चट्टान के पत्थर नहीं हैं |
शब्द की खिड़की खुली है,
झाँक लो तुम,
झाँकती रहती लिखावट,
आँक लो तुम,
हम हलंतों से कटे हों,
है हुआ अब तक नहीं यह,
अंग हैं अनुभूति के हम,
हम किसी उपनाम के अक्षर नहीं हैं |
क्रांति मन में पल रही हो,
यह नहीं है,
जगत की दुर्नीतियों पर,
सह नहीं है,
हैं कबीरा हम समय के,
नहीं रहते सँग अनय के,
किंतु इसके बाद भी हम,
हम किसी भी चक्क के चक्कर नहीं हैं |
शांति मेरी जिंदगी है,
आवहन है,
गीत मन की शुद्धता का,
आचमन है,
विनय के हैं हम पुजारी,
हैं नहीं हम क्रांतिकारी,
बात मन की मानते हैं,
हम किसी भी बात के कट्टर नहीं हैं |
२.
इस बस्ती के लोग
नारकीय जीवन जीते हैं,
इस बस्ती के लोग |
बर्तन में खजूर के गुड़ की,
नरम आँच पर,
उबल रही है चाय,
कूड़े पर बिखरी पन्नी को
घास समझकर,
निगल रही है गाय,
बात अलग है, हुआ न अबतक
उसको कोई रोग |
सूरज को मिल गया निमंत्रण,
आज शाम को,
जो भेजी है ओस,
किरणों की डोली पीछे है,
पैदल चलती,
अब केवल दो कोस,
पंडित जी मंदिर में रखते,
थाली छप्पन-भोग |
बहुत चला बूंदू का होटल,
ढाबावाला,
हुआ पड़ा है बंद,
कोरोना ने लिखा भूख पर,
डाल अड़ंगा,
कल अभाव का छंद,
गंदे जल से रोज नहाता
गाँव-घरों का सोग |
बिगड़ा पेट नहीं सुनता है,
पाजी भी है
और बड़ा वह दुष्ट,
इधर-उधर, गलियों-गलियों में,
हैं चर्चाएँ,
बात हुई यह पुष्ट,
खुली सड़क पर सत्ता करती,
ऊटक-नाटक योग |
३.
सँवरी नई किरण
सूरज उगा, अवनि पर उतरी
सँवरी नई किरण |
हुआ तिरोहित जब अँधियारा,
चंदा डूब गया,
तारों की शादी में आया,
अगहन ऊब गया,
खेलकूद में मस्त हो गई,
जहाँ अँधेरा और उजाला,
सँवरी नई किरण |
गंध सुगंधित खुश उपवन की,
दिशा दिशा फैली,
फूलों पर है पड़ी ओस की,
चाँदी की थैली,
चरवाहे चल पड़े दियारे.
दूबों की आंगनबाड़ी में,
सँवरी नई किरण |
उत्सुकता के कारण कलियों
ने गाए मुजरे,
डाली को हँसते गाते हैं,
कई बरस गुजरे,
बाघागोटी खेल रही है,
काव्यत्वों की विविध सतह पर
सँवरी नई किरण |
थकी मजूरी जगी और वह
खुद बाजार गई,
यादों की झोली में डाले,
उपविधि नई नई,
तोड़ चुकी है सभी रूढ़ियाँ,
घने घनों की हर झाँकी में,
सँवरी नई किरण |
४.
धुँधले उजले दिन
सूखे पत्तों पर सोते हैं
धुँधले उजले दिन |
नई सुबह ने केवल बदला
है अपना परिधान,
उसने पढ़ा नहीं है अब तक
गणित, जीवविज्ञान,
नहीं निकाल सकी है सुविधा
चुभी पैर में पिन |
जहाँ गरीबी के पाँवों में,
बँधी हुई है छान
और उठाकर ले जाती हैं
सूदखोरियाँ धान,
ऐसी लचर व्यवस्था पर है,
लानत, छी-छी, घिन |
मौलिक अपने अधिकारों को
नहीं सकी जो जान,
ऐसे साइलेंसर बोली की
गई कहाँ है तान,
हलकी जलन और पीड़ा का
लुप्त हुआ है छिन |
लोकतंत्र के सजग पहरुए,
नहीं सके यह सोच,
आम आदमी के जीवन में,
कहाँ कहाँ है लोच,
बौराहिन लछमिनिया जीवित
दाना-दुनका बिन |
५.
कपड़े बदल रही है धूप
कुहरे की मंगल यात्रा पर
निकल रही है धूप |
इस बारिश के बाद ठंड
बढ़ने की आशा है,
सूर्योदय की पगड़ी बाँधे
चला तमाशा है,
मुंडेरों की चोटी पर चुप
टहल रही है धूप |
बिजली के बल्बों के तारे
खम्भों पर हैं लटके,
अँधियारे के लालकिले में
राजमार्ग हैं भटके,
खुली हुई खिड़की के ऊपर
मचल रही है धूप |
जले अलावों पर बैठा है
ठिठुरा ठिठुरा जाड़ा,
हाथ सेंकता है लपटों से
मजदूरी का भाड़ा,
धीरे धीरे घूम घूमकर
बहल रही है धूप |
सर्दी का मौसम है बदली
तापमान की भाषा,
ओढ़ रजाई घर में दुबकी
फसलों की अभिलाषा,
नहा चुकी, अब गीले कपड़े
बदल रही है धूप |
६.
कोयल रह तू मौन
कोयल रह तू मौन
आज कुछ
हम ही गाते हैं |
माना यह वासंतिक मौसम
मधुर सुहाना है,
अपना परिचय घने वनों से
बहुत पुराना है,
हम शहरों का शोर
छोड़ अब
जंगल जाते हैं |
जंगल साथ रहे कुछ दिन तो
जीवन बदलेगा,
वातावरण नया सब होगा
तन मन बदलेगा,
सन्नाटों के साथ
बचा जो
समय बिताते हैं |
बिजली की रोशनियों में हैं
ऊँचे महल खड़े,
छल से भरी लबड़ धोंधों में
धोखे छिपे पड़े,
हरी डाल पर बैठ
सुरों के
साम्य सजाते हैं |
एक अजनबी से, जिस घर में
हम रहते आए,
यादों की गलियों में पीड़ा
के सावन पाए,
अंतर्मन के शब्द
सुनो तो
दर्द सुनाते हैं |
७.
माटीवाला घर
ईंटों के अंदर जा बैठा
माटीवाला घर |
कमरे कुल हैं तीन, रसोई
आँगन में रहती,
बारिश, पाला, धूप, जेठ की
लू को भी सहती,
दरवाजे के बाहर कच्ची
नाली बहती है,
पैर फिसलने का रहता है
मन के अंदर डर |
बाँसों से जो सधी हुई है
पाटन रखता है,
मकई की दलिया का जब तब
राशन रखता है,
जाँता, सिलवट, लोढ़ा, ऊखल
हँसते रहते हैं,
पतुकी, लोटा, थाली, हँड़िया
पड़े हुए जमकर |
ओरी का जो उतरा पानी
सोता पीता है,
बरसाती मौसम में खुलकर
यौवन जीता है,
एक गाय या भैंस द्वार की
शोभा होती हैं,
बैलों की जोड़ी जाती है
खेत, चलाने हर |
बाहर एक पेड़ है उसके
पास लगा है नल,
वह हर मौसम में देता है,
मीठा मीठा जल,
बैठ आम के नीचे गरमी
माथ भिगाती है,
लिपी हुई दीवारों पर है
झूम रहा गोबर |
८.
कविता की चिट्ठी
सूरज का पूरब से पश्चिम
दिन कट जाता है |
मन के अंदर होते रहते
काव्य दृश्य के नाटक,
आँसू के वेगों ने खोले
संवेदन के फाटक,
उमड़ी पीड़ाओं का बादल
झट फट जाता है |
कविता की चिट्ठी ले जाते
शब्दों के हरकारे,
अनुभव के अनुभूति नगर में
जाते द्वारे द्वारे,
अर्थ-तत्व के अर्थापन से
स्वर सट जाता है |
संवादों के जिन विषयों में
व्यंग्य झलकता रहता,
लिखे हुए पन्ने-पन्ने की
कथा कथानक कहता,
और झूठ के वाणों सम्मुख
सच डट जाता है |
भाषा के वाक्यों में शब्दों
के प्रयोग हैं न्यारे,
नई विधा के सप्तद्वीप में
चमक रहे हैं तारे,
संज्ञाओं की अभिधाओं का
पट पट जाता है |
९.
सुन रहा हूँ
बात कहना चाहते जो,
निडर हो कह डालिए वह,
आप जो कुछ कह रहे हैं,
ध्यान से मैं सुन रहा हूँ |
साफ मन है, है न कोई
धृष्टता भी,
हाथ जोड़े सामने है
शिष्टता भी,
धूप है कुछ चुलबुली सी
गीत की फुलवारियों में
फूल मनभावन खिले हैं
मगन हो मैं चुन रहा हूँ |
वेदना के गाँव में हैं
हम अकेले,
पास से दुर्भावना को
हैं ढकेले,
हैं पड़े संदर्भ जितने
याद की अँगनाइयों में
शब्दशः वह सौम्यता से
रोज ही मैं गुन रहा हूँ |
शब्द की कादंबरी भी
उड़ रही है,
सर्जना की एक संगति
जुड़ रही है,
जो बची रूई समय की,
हाथ में है, मुग्ध-कर से,
धैर्य की सौजन्यता से
जन्म से मैं धुन रहा हूँ |
एक बुनकर की तरह जो
जिन्दगी है,
पास उसके कुछ नहीं है
सादगी है,
आज अपनी कल्पना के
हेतु झब्बा सांत्वना का,
ज्ञानगोचर नव्यता से
मैं कबीरा बुन रहा हूँ |
१०.
कपड़े पड़े हुए हैं गीले
धूप न निकली,
पछुआ सर सर,
जो धोए हैं,
ऊनी कपड़े,
कल से पड़े हुए हैं गीले |
सूरज कुहरे की चादर में,
दुबका अब भी दोपहरी तक,
गाँव अलावों का डेरा है,
हीटर पर है हर शहरी तक,
हिलती डालें,
छिप नीड़ों में,
खग सोए हैं,
तुलसी झुलसी,
पत्ते पड़े हुए हैं पीले |
निकियाये हैं, छीमी-दाने
सीझ न पाते घिकुरे हैं वे,
नल के जल इतने ठंडे हैं,
जमे हुए हैं, ठिठुरे हैं वे,
बारिश से है
गेहूँ हँसते,
जो बोए हैं,
आलू के तन,
कुछ कुछ पड़े हुए हैं ढीले |
आम आदमी की अँगुरी में
पड़ी हुई है सर्द अँगूठी,
नदियों की छाती पर लेटी
बर्फीली यह सदी अनूठी,
श्वेत श्वेत हर
दिशा, क्षितिज, घर,
जो मोए हैं,
शीत कणों से,
सिकुड़े पड़े हुए हैं टीले |
११.
दिल्ली के उन राजपथों से
शहरों में हैं,
पर शहरों की चकाचौंध से,
अभी अछूते हैं |
जिसका है घरबार न उसका
आसमान घर है,
मौसम की इस शीत लहर का
असमंजस, डर है,
मजदूरी के,
कई अभावों की छानी के
छप्पर चूते हैं |
दिल्ली के उन राजपथों से
मिलती पगडण्डी,
खपरैलों की छाई छत की
फटेहाल बंडी,
देखा भी है,
कई प्रेमचंदों के पग में,
फटहे जूते हैं |
गरमाहट के लिए न आते
किरणों के हीटर,
बिना किये उपभोग दौड़ते,
बिजली के मीटर,
घासफूस की,
झोंपड़ियों के छेद बूँद का
आँचल छूते हैं |
धुँधलेपन की इस बस्ती की
देह पियासी है.
रामराज्य के व्याकरणों की
भूख उदासी है,
नई नीतियाँ
सब विकास की, कहाँ रुकी है?
किसके बूते हैं ?
१२.
करघे का कबीर
हथकरघे की साड़ी का
पीलापन हँसता है |
बैठा रहता है करघे सँग
श्रम का सहज कबीर,
रोजीरोटी की तलाश का
निर्मल महज फकीर,
गाँवों के उद्योगों का
अपनापन हँसता है |
घरों घरों तक कुटी-शिल्प की
पहुँच रही है धूप,
ताने-बाने के तागों की
खुशियों का प्रारूप,
खादी के उपहारों का
उद्घाटन हँसता है |
सूत कातने की रूई के
काव्यों का नव छंद,
भूख-प्यास का नया अंतरा,
नव प्रत्यय, नव चंद,
गांधीजी के सपनों का
परिचालन हँसता है |
सहकारी होने के अतुलित
भावों का यह गीत,
संवेदन के जलतरंग का
यह गुंजित संगीत,
भाई-चारे का अभिनव
अभिवादन हँसता है |
१३.
शहर जो रुकता नहीं है
इस शहर में आजकल,
कुछ तो कहो?
क्या कार्य उत्तम हो रहा है ?
शहर जो रुकता नहीं है,
आज कुछ कुछ रुक गया,
कमल जो झुकता नहीं है,
आज कुछ कुछ झुक गया,
बोझ दंगे का विवादित
आनुवांशिक
कपट ‘ट्रैक्टर’ ढो रहा है |
राजनीतिक चौसरों पर,
सज चुकी हैं गोटियाँ,
विगत सत्ता सेंकती है,
कुटिलता की रोटियाँ,
बीज, अपनी माँग का हर
कृषक पहुँचा,
सड़क पर ही बो रहा है |
समय भी सहमा हुआ है
सिंधु भी ठहरा हुआ,
जिद खड़ी है टेंट में, है
हल-कुआँ गहरा हुआ,
शांति की संभावना की
दिव्यता का
धैर्य, अवसर खो रहा है |
अँगुलियाँ उठती रही हैं
राज्य के संकल्प पर,
विधि विधायित योजना के
न्यायसंगत तल्प पर,
नीतियों में खामियों के
रोध का हठ-
धर्म रोटी पो रहा है |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें