शुक्रवार, 26 मई 2023

पुरुषोत्तम तिवारी 'साहित्यार्थी' कृति चर्चा में

धूप भरकर मुठ्ठियों में

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किसी भी रचनाकार का साहित्यिक सृजन मनुष्य के जीवन का आनन्द और उसकी वेदना दोनों को एक साथ समाहित करते हुए चलता है। वह लोक की अनुभूति को समग्र रूप से अपने अन्तस में आत्मसात करता हुआ फिर अपने संवेदनशील मानस से उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं का मूल्यांकन करता हुआ लोकहित आधारित उस यथार्थ बोध पर अपनी लेखनी से अपने मन्तव्य को चित्रित करता है और इस प्रकार अपनी रचनाधर्मिता को एक स्वरूप प्रदान करता है। रचनाकार जिन बातों से प्रभावित और उद्वेलित होता है उन्हें अपनी कल्पनाशीलता से अपने सृजन में स्थान देता हुआ दिखाई देता है। इस प्रकार रचनाकार का सृजन संसार उसके व्यक्तित्व और चिन्तन का भी परिचायक होती है।

वर्तमान समय के नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर एवं चर्चित नवगीतकार श्री मनोज जैन मधुर का पहला नवगीत संग्रह 'एक बूँद हम' के बाद उनका दूसरा नवगीत संग्रह  'धूप भरकर मुठ्ठियों में' लगभग  एकसाल पहले प्रकाशित हुआ है रचनाएं संग्रहित है। उनके काव्य  में संघर्षों मान्यताओं अपेक्षा, उपेक्षा और संवेदनाओं की दृष्टि का विस्तार बहुत दूर दूर तक है। रचनाकार इन सभी बातों पर अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाल रहा है।

मनोज जी के प्रथम गीत वाणी वंदना में कवि अपने व्यक्तिगत जीवन के लिए प्रार्थना करते हुए सर्वजन कल्याणार्थ भाव में लोक मंगल के लिए भी प्रार्थना करते हुए कहता है ;
हे माँ! तेरे लाल करोड़ों 
वरदान हस्त सबके सिर धर दो
हरो निराशा सबके मन से
भरो कोष प्रज्ञा के धन से

इसी प्रकार प्यार के दो बोल बोलें गीत में वैमनस्यता की अन्त:ग्रन्थि को निर्मूल करने के लिए 
धूप भरकर मुठ्ठियों में 
द्वेष का तम तोम घोलें …का आह्वान करता है। 
मनोज जी के इस नवगीत संग्रह के कई गीतों में आध्यात्मिक चेतना के स्वर प्राय: मुखरित होते दिखाई देते हैं। जैसे;
बूँद का मतलब समन्दर है गीत में -
"कंज सम भव-पंक में
खिलना हमारा ध्येय है
सत्य, शिव, सुंदर, हमारा
सर्वदा पाथेय है"
भव भ्रमण की वेदना गीत में
"भव भ्रमण की वेदना से 
मुक्ति पाना है
अब हमें निज गेह 
शिवपुर को बनाना है"

भाषा की शैली अभिधार्थ है तो कहीं कहीं व्यंजनात्मक भी है। जैसे ; 
"हम बहुत कायल हुए हैं
आपके व्यवहार के
आँख को सपने दिखाये
प्यास को पानी
इस तरह होती रही 
हर रोज मनमानी"

कवि अपनी स्वतन्त्र चेतना की स्वाभिमान धारण करना पसंद करता है। हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के गीत में इस भाव को यह कहकर प्रकट भी करता है कि 
" हम सुआ नहीं हैं पिंजरे के
जो बोलेंगे रट जायेंगे"...
उजियारा तुमने फैलाया
तोड़े हमने सन्नाटे हैं
प्रतिमान गढ़े हैं तुमने तो
हमने भी पर्वत काटे हैं"
इसी चेतना का एक अन्य स्वर ;
" तार कसते हृदय झनझनाने लगे
आपके हाथ के हमतँबूरे नहीं"

विभक्त नवगीतों की पंक्तियाँ जो विराट अर्थ लिए हुए हैं और मन को छू जाती हैं उनका बिना भूमिका के मैं उल्लेख करना चाहता हूं, जैसे ;

सौहार्दपूर्ण वातावरण निर्माण के स्वर 
" काश! हम होते 
नदी के तीर वाले वट
हम निरन्तर भूमिका 
मिलने मिलाने की रचाते"

" चांद सरीखा मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ 
धीरे धीरे सौ हिस्सों में
बँटते देख रहा हूँ….
नई सदी की परम्परा से
कटते देख रहा हूँ "

परम्पराओं का अनुकरण करते हुए कवि कहता है- 
" ढूँढ रहा हूँ मैं साखी को 
तुलसी वाली परिपाटी को
जिन राहों पर चला निराला
शीश लगाने उस माटी को"

साहित्यिक विद्रूपताओं पर सीधा प्रहार करते हुए 
" नकली कवि कविता पढ़कर जब
कविता-मंच लूटता है
असमय लगता है धरती पर 
तब ही आकाश टूटता है…
आचरण अनोखे देख देख
अंतस का क्रोध फूटता है"

आलोचकों के पक्षधर आलोचनाधर्म पर व्यंग्य का भाव
" पारिजात को बबूल 
कहना तू छोड़ दे
हीरे को हीरा कह
एक नया मोड़ दे…
समदर्शी बनकर यदि
धर्म जो निभाएगा
पारस को छू ले तू कुंदन हो जाएगा"

अध्यात्म का एक अन्य राग -
" पावन शिखर सम्मेलन को
शत शत नमन 
शत शत नमन"

कवि की दृष्टि अपने आसपास के शिल्प कलाओं पर भी है -
भीम बेटा का हर पत्थर
कहता एक कहानी
उँगली दाँतों तले दबाता
आकर हर सैलानी…
काश अहिल्या की आँखों सा 
हम बरसाते पानी"

आत्म नीरसता में भी सरस भावाभिव्यक्ति का एक अद्भुत चित्र-
चंदन सम शीतलता बाँटी
जीवन भर दुख के नागों को
मधुर शब्द स्वर रोज दिए हैं
आमन्त्रित कर नव रागों को"

विषमताओं पर कटाक्ष का स्वर -
"पाँव पटकते ही मगहर में
हिल जाती क्यों काशी
सबके हिस्से का जल पीकर 
सत्ता है क्यों प्यासी"

कवि ने राजनीति पर भी अपनी दृष्टि बनाये रखता है -

राजनीति की उठापटक औ' धींगामुश्ती में
केवल जनता ही है जिसको चूना लगता है….

प्रेम और सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाये रखने के लिए कवि के बहुत सुन्दर भाव अभिव्यक्त होते हैं -

नेह के ताप से
तम पिघलता रहे
दीप जलता रहे….
हर कुटी के लिए 
एक संदीप हो
प्रज्ज्वलित प्रेम से
प्रेम का दीप हो

काव्यात्मक साहित्यिक सृजन में कुछ भी लिखे जा रहे काव्य में नीरसता से क्षुब्ध कवि अपने व्यंग्य से प्रहार करता दिखाई देता है -

कथ्य यहाँ का शिल्प वहाँ का
दर्शन ठूँस कहाँ कहाँ का
दो कौड़ी की कविता लिखकर 
तुक्कड़ पंत हुआ 

नवगीत संग्रह की अधिकांश नवगीतों में कवि के हृदय की वेदना के शब्द मुखरित होते हैं, किन्तु साथ ही हृदय का आनन्द और मंगल कामना के स्वर भी अपने नवगीतों में पिरोता हुआ दिखाई देता है - 

खूबसूरत दिन, पहर, हर पल हुआ 
तुम मिले तो सच कहें
मंगल हुआ …..
लाभ शुभ ने धर दिए हैं
द्वार पर अपने चरण
विश्व की हर स्वस्ति ने
आकर किया मेरा वरण
प्रश्न मुश्किल जिंदगी का
हल हुआ 

निश्चित रूप से हमारे प्रिय नवगीतकार मनोज जैन 'मधुर' अपने दूसरे नवगीत संग्रह 'धूप भरकर मुट्ठियों में' मानवीय संवेदनाओं के विविध रूपों को लेखनीबद्ध किया है। उनसे अभी और अधिक सशक्त सृजन की आशायें गीत नवगीत साहित्य प्रेमियों के हृदय में अपेक्षित है। मनोज जी को बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं। 

पुरुषोत्तम तिवारी 'साहित्यार्थी' भोपाल

मंगलवार, 23 मई 2023

एक भावुक बुद्धिजीवी :दिनेश मिश्र.ब्रज श्रीवास्तव

संस्मरण




एक भावुक बुद्धिजीवी :दिनेश मिश्र.
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ब्रज श्रीवास्तव


संसार में ऐसे कम ही शख्स  होते हैं जिनका हर तरह से  कद ऊंचा होता है।जो  आकर्षक होते हैं,जिनके केश वृद्ध हो जाने पर भी नहीं झरते।जिनकी वाणी शीतलता देती है,जो बहुरूचि संपन्न होते हैं और जो लोकप्रिय भी होते हैं।दिनेश मिश्र ऐसे ही शख्स थे।हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी रहे।बड़े किसान रहे।संगीत के तो जैसे दीवानों की हद तक प्रेमी थे।वे फिल्मी संगीत की निंदा सहन ही नहीं कर सकते थे।अंताक्षरी में तक उन्हें कोई हरा नहीं सकता था।उन्हें साधारण बीमारी हरा नहीं सकती थी।यदि कोरोना की दूसरी लहर उन्हें न लीलती तो वे  कम से कम दस बारह साल और  जीकर पचहत्तर पार कर लेते।इतना जीकर वे कम से कम अपने एक कविता संग्रह साया हो जाने की कामना को पूरा होता देख पाते।अपने प्रिय जनों की विकास यात्रा देख पाते।

वे परसों ही कोरोना से लड़ते लड़ते सांसों का  युद्ध हारे हैं।लेकिन बरसों तक  मेरे ह्दय से उनकी छवि नहीं हटेगी,वह उतनी ही ताज़ा,उतनी ही जीवंत और उतनी ही आत्मीय दिखाई देती रहेगी, जितनी आज है।न जाने ऐसा क्यों है कि मुझे उनकी विदा से इस हद तक टीस है कि सपनों में,जागते हुए और कुछ भी करते हुए उनकी याद आ रही है।क्या वे हमारे इतने पारिवारिक रहे हैं,या दिन रात संपर्क में रहे हैं।नहीं,ऐसा नहीं, इसके बावजूद उनकी अनुपस्थिति इस हद तक तड़पा रही हैं तो निश्चित ही उनसे एक स्थायी लगाव का ऐसा संबंध जरूर रहा है जो चेतन से ज्यादा अचेतन में सींचा,संवारा जाता रहा है।

पीछे जाता हूँ तो ऐसा कुछ धुंधला सा याद आता है कि विदिशा के न्यास के कार्यक्रमों में जब मैंंने 98 में जाना शुरू किया तो कुछ सुदर्शन व्यक्ति श्रोता,दर्शकों की दीर्घा में नियमित रूप से मौजूद होते थे,उनके बीच दिनेश जी भी थे।अखबारों में कवि के रूप में अलबत्ता हम जरूर छपते रहते थे, तो यह भान था कि हम लोग लेखक हैं ये लोग नहीं।शहर की लोकल कवि गोष्ठियों में उन दिनों बड़ा भरा भरा लगता था, हमें वहां महत्व मिलना शुरु हो गया था।एक गोष्ठी निकासा में दूसरी मंजिल पर एक सरकारी स्कूल में हुई,संचालक ने माँ वीणावादिनी को प्रणाम के बाद सबसे पहले एक नये कवि को प्रस्तुत किया,उस कवि ने कुछ साधारण सी क्षणिकाएं पढ़ीं।जिनमें से एक थी कुत्ते और अफसर पर।सब लोग हंसे।दिनेश जी पहली ही गोष्ठी से हिट हो गए।हम सोचते रहे हूंह ये क्या कविता हुई।एक चुटकुला हुआ बस।लेकिन ऐसी विचारधारा होने के बावजूद हम भी गोष्ठी का तारीफ करने के चलन का अनुकरण करते रहे ।सच भी है आलोचना के नेलकटर  से तो उनके ही  नाखून काटे जाते हैं जो  लंबी दूरी तक चलने के लिए तैयार दिखाई दे।शौकिया कवि तो बस हर पाठ के बाद वाह वाह के अभिलाषी होते हैं,आलोचना अभिलाषी नहीं होते।दो चार साल बाद मुझे लगा कि दिनेश मिश्र शौकिया कवि नहीं हैं,वे आलोचना अभिलाषी भी हैं।जब वे मेरी कविताओं को पत्रिकाओं में पढ़ते,इस बहाने बातचीत करते,फिर कहते कि मैं आप जैसा क्यों नहीं लिख पाता।मुझे कुछ सिखाइये,मेरी कविताओं में कमी बता कर रहनुमाई कीजिए।इसी व्यवहार से वे अनेक समकालीन कवियों से भी  मुखातिब होते रहे ।और अभ्यास करते करते एक काव्य भाषा अर्जित करके ही माने।देखते ही देखते वे वागर्थ में छपने लगे और समीक्षाएं लिखने लगे।कविताओं को आलोचना और विवेक के चश्मे से देखने लगे।उनका हमेशा यह नारा रहा कि समकालीन  कविता में संप्रेषण होना चाहिए,तभी वह सौद्देश्य होगी।

जब कवि मालम सिंह चंद्रवंशी विदिशा से जा रहे थे, तो वे विदिशा के वसुधा के ग्राहकों पाठकों को मुझे देते हुए यह कह गये कि सदस्य बढ़ाइये।तो मैंनै 5 से 10 करने में जिन अतिरिक्त पांच को और जोड़ा,उनमें एक दिनेश जी भी थे।हर तीन माह में एक बार वसुधा को देने उनके  जाता था।वह अंदर वाले कमरे से पहले बरामदे में आते,सांकल हटाते और एडवोकेट आफिस वाले कमरे में सामने बैठाकर खुद बैठ जाते।उनकी टेबल पर पत्र पत्रिकाओं का करीने से रखा हुआ एक  उर्ध्व ढ़ेर होता।वे उन्हें दिखाना चाहते।पानी का गिलास और दूध ही दूध से बनी चाय के प्याले के आने के बीच हम दोनों की एक औपचारिक संगत हो जाती।तब भी वह यह ज़रूर कहते कि आप कितनी अच्छी कविताएं लिख लेते हो।कैसे लिख लेते हो।ज़ाहिर है यह उनका स्वाभाविक अंदाज था जिससे वह सामने वाले को महत्वपूर्ण व्यक्ति मानकर खुद को छोटा कहकर बड़े बन जाते।एक दो बार आलोक के साथ भी मैं गया।एक बार तो आलोक ने एक विवाद सुलझाने के लिए दिनेश जी का घर ही चुना।विदिशा के कवियों पर केंद्रित दिशा विदिशा संकलन प्रकाशन की तैयारी के दौरान शहर के नाराज़ कविगण आलोक और मुझे टारगेट कर रहे थे।तब एक बैठक का सोचा गया जिसमें बातें साफ साफ होकर सामने आ जायें।सच में दिनेश जी ने अपनी उसी बैठकी में हम सात आठ लोगों को आमंत्रित किया।शायर श्री निसार मालवी, गीतकार कालूराम पथिक,नर्मदेश भावसार,घनश्याम मुरारी पुष्प, शीलचंद पालीवाल, आनंद श्रीवास्तव, मैं और आलोक श्रीवास्तव वहां मौजूद थे।इसके बाद फिर उस संकलन पर कोई विवाद नहीं हुआ।

मित्र आलोक श्रीवास्तव (पत्रकार और शायर)के दिल्ली चले जाने के कारण अब विदिशा में मेरा इतना अपना कोई नहीं था,जिसके पास बैठने और कविता पर बात करने का मन होने लगे।गोया कि मेरी विधा ऐसी थी जिसके अभ्यासी नगण्य थे।ये स्थिति मुझे दिनेश मिश्र के नजदीक लाने लगी।ज्यादा तो नहीं लेकिन हां हमारे संवादों की आवृति अपेक्षाकृत ज्यादा हो चली थी।घर जाते तो अब नेहा भाभी भी हाल पूछने आ जातीं,स्वल्पाहार के लिए आग्रह करतीं।वह उस समय सरपंच थीं,मैं तब सर्व शिक्षा अभियान में समन्वयक  था।तो उनकी दिलचस्पी शिक्षा के विकास में होती।वैसी बातें होतीं।
इधर मैं कुछ  साहित्यिक आयोजन भी करने लगा था ।समकालीन कविता के प्रसिद्ध हस्ताक्षर नरेंद्र जैन ने एक बार  कहा -ब्रज यार मेरी एक किताब आई है अनुवाद की,मैं चाहता हूं कि तुम इसका विमोचन का कार्यक्रम कराओ।भले ही छ सात लोग आएं।मैंनै सबसे पहले दिनेश जी को कहा तो उन्होंने सहर्ष उपस्थिति की सहमति दी।कभी वह संचालन करते,कभी मैं।पर यह भरोसा हुआ कि वह मेरे साथ हैं तो हो ही जाएगा।हालांकि सहयोग के लिए कोई भी इन्कार नहीं करता,मगर दिनेश भाई के साथ होने की मेरे लिए बात ही अलग थी।


दिनेश मिश्र अब मेरे लिए केवल  एक ही संबंध में मौजूद नहीं थे।बातचीत के जितने भी विषय हो सकते हैं उन सब में वे शामिल हो सकते थे।अगर मैं साहित्य की बात करूं तो ये तो था ही सेतु।अगर मैं विभाग की,या रिश्तेदारी की बातें करूं तो भी उनके पास बात आगे बढ़ाने के लिए प्रसंग होते।संगीत और चित्रकला में भी वह हमशौकिया रहे।

और सिनेमा,सिनेमा के नाम पर तो वह बोलने के लिए उतावले हो जाते।उनके लिए भारतीय सिनेमा एक विराट फलक था,जिसके अध्ययन और व्याख्यान में उन्हें भरपूर आनंद मिलता था।वे हर फिल्म के वास्तविक किस्से सुना सकते थे।फिल्म के निर्देशक, संगीतकार, और गायकों के नाम उनकी जुबान पर इस तरह चले आते थे,जैसे दिन रात पाठ याद करके आये किसी विद्यार्थी की जुबान पर प्रश्नों के उत्तर निर्बाध चले आते हैं।वह फिल्मों पर केंद्रित प्रकाशित अद्यतन किताब खरीद लेते थे भले ही कीमत हजारों में हो।पंकज राग रचित धुनों की यात्रा सहित लता मंगेश्कर पर आई किताब उनकी निजी पुस्तकालय में मौजूद है।उन्होंने निम्मीं से फोन पर बात की।राजकुमार केसवानी ,जय प्रकाश चौकसे,अजातशत्रु और युनस खान से वे फोन पर बात करते थे।फिल्म अभिनेत्री रेखा उन्हें सौंदर्य और अदायगी की वजह से बेहद पसंद थीं।हम लोग उन्हें चिढ़ाते कि रेखा में खास कुछ नहीं तो रूठ जाते।हालांकि यह एक नूराकुश्ती होती,।ये वह भी जानते,मैं भी जानता,और हमारे बतरसिया,मधु सक्सेना,प्रवेश सोनी,सुधीर देशपांडे, श्याम गर्ग,पदमा शर्माऔर उदय ढोली भी जानते।बतरस यानि दस बारह साथियों को आत्मीय वाटस एप समूह



उन्हें फिल्मी गीतों की बारीकियां याद थीं।
किसी गीत को मैं अंतरे से शुरू करके उनसे मुखड़े के बोल पूछता वे एकदम बता देते।ये उनकी विलक्षण क्षमता थी।विदिशा के पत्रकार गोविंद सक्सेना ने उनके निधन पर यह सटीक कहा कि विदिशा के राजकुमार केसवानी ने भी विदा ले ली है।यह अजीब बात है कि एक दिन पहले राजकुमार केसवानी की कोरोना मृत्यु हुई।

यदि उन्हें कोई बड़ा मंच मिलता तो वे जरूर अपनी इस प्रतिभा के कारण पूरे देश में प्रसिद्ध हो जाते।इस तरह उनका सिनेमा पर अर्जित विपुल ज्ञान दुनिया के काम आता।मगर ये हो न सका।यद्यपि नाचीज़ ने इंदौर के दैनिक विनय उजाला में उनके पचीस तीस लेख प्रकाशन को भेजे और वे छपे।अपने वाटस एप ग्रुप साहित्य की बात में भी उनका परिचय देश के अनेक से कराया,और वह प्रसिद्ध तो हुए ही।लोकप्रिय भी हुए।शरद कोकास,नरेश अग्रवाल, राजेंद्र गुप्ता, हरगोविंद मैथिल, आनंद,पदमनाभ सहित सभी उनकी कमी को महसूस कर रहे हैं।वे थे ही हर दिल अजीज़।




आज जब उनको  दुनिया ए फ़ानी  से गये तीन ही दिन हुए हैं।मुझे अपने कवि पिता घनश्याम मुरारी पुष्प के देहांत (2008) के बाद दिनेश भाई की आत्मीय रुप से मिली निकटता की भी याद आ रही है।कैसे उन्होंने आकर मुझे गले लगाकर आंख के आंसू पोंछे थे। पुष्प जी की याद के हर वार्षिक आयोजन में वह अतिरिक्त भावुक होकर कुछ कहते,सुझाव देते,हौसला बढ़ाते।अपने आलेख में उन्होंने बार बार कहा कि एक गोष्ठी में पुष्प जी की भावनाओं को ध्यान में न रखकर किसी मनचले कवि ने ऐसी वैसी कविता पढ़ दी थी और वह उठकर चले गए थे।दरसअल भावुक होना उनके स्वभाव का प्रधान गुण था ही।इसलिए उनकी कविताओं के विषय बिटिया,मां,मामा,काम वाली बाई,आदि होते थे,और उनमें एक नोस्टाल्जिया होता था।वह गद्य में भी लिखते थे।उनके गद्य में एक प्रवाहिका होती थी।


माधव उद्यान में जब भोर भ्रमण करने वालों की मंडली बनी तो संगीत के रसिकों के बीच अनौपचारिक संगीत गोष्ठियां होतीं।दिनेश मिश्र केंद्र में होते।उन्होंने संगी त साथी समूह बनाया।वहां उनको चाहने वालों की एक बड़ी कतार थी।उधर वह पहले से ही पंडित गंगा प्रसाद पाठक ललित कला न्यास के कार्यक्रमों में अक्सर संचालन करते ही थे।वह रेखा चित्र भी बनाते और गाने भी गुनगुनाते।फेसबुक पर वह प्रतिरोध की पोस्ट बराबर डालते रहे।सबसे पहले लिखते --साथियों--।यह उनकी स्टायल थी।

संयोग ही था,उनकी छोटी बेटी के रिश्ते का  प्रशासनिक अधिकारी और कवि संगीतकार अविनाश तिवारी जी के बेटे और मेरे प्रिय कवि दुष्यंत के लिए प्रस्ताव  मैंने ही दिया था और वह तय हो गया।फलस्वरूप भी वह मुझसे खुश थे।उनकी भावनाओं में अधिकार आ गया था, मुझे तुम संबोधित करते हुए अंतरंग वार्तालाप करने लगे थे।इसी विश्वास के चलते कदाचित उन्होंने मुझे दिनांक सात मई को एक संदेश भेजा। रिपोर्ट पोजिटिव आई है -अपने तक रखना।यह संदेश डरा रहा था लेकिन उनसे और उनकी तब सेवा समार और परवाह कर रहे अविनाश तिवारी जी से बातचीत से यह आशा बंधी रही कि वे स्वस्थ होकर वापस आएंगे।मगर कुछ आशाएं सिर्फ  नियति से संचालित होतीं हैं।हम बस नियति  को खराब कह सकते हैं।मगर इस विलाप से होना क्या है।अब दिनेश मिश्र अगर कहीं मिलेंगे तो बस उनके  चाहने वालों की बातों में।उनकी कविताओं में और गाये  फेसबुक पर सुरक्षित कुछ गीतों की स्वर लहरियों में।और हाँ ऐसी अनेक स्मृतियों में वह मुझे मिलते रहेंगें जो हजार लिखने पर भी अलिखित रह ही जाएंगीं।



ब्रज श्रीवास्तव
L-40 Godawari Greens 
Vidisha.
9425034312.

संस्मरणकार 
चर्चित कवि लेखक समीक्षक 
ब्रज श्रीवास्तव जी
प्रस्तुति
वागर्थ


शनिवार, 20 मई 2023

मंगलवार, 9 मई 2023

गीत-नवगीत यात्रा : आलेख विजय सिंह प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग


गीत-नवगीत यात्रा।
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आजकल नवगीत पर बहुत चर्चा हो रही है अतः इस विधा पर मैं भी कुछ प्रस्तुत करना चाहूंगा।
मेरे विचार से गीत या नव गीत है तो कविता ही,और यहां पर मैं (नई कविता जो पाश्चात्य से प्रभावित होकर शुरू हुई) उसकी बात नहीं कर रहा। कविता जीवन की हर कार्य प्रणाली और भावना को समाहित करती है। कविता के सतत विकास में नवगीत अपना विशेष स्थान बना चुका है। गीतों का तो आदिकाल से ही लोक से संबंध रहा है इनमें लोकगीतों में कजली चैता बिरहा आल्हा आदि रहे हैं भक्ति काल में इसका और वृहद विस्तार हुआ जो कबीर सूर मीरा तुलसी रसखान जैसे श्रेष्ठ काव्य मर्मज्ञों के द्वारा जन जन तक पहुंचा। वस्तुतः साहित्य के क्षेत्र में गीत ही एक ऐसा माध्यम हुआ है जो जन जन तक पहुंचा है। आगे चलकर छायावाद में गीत और आगे बढ़ा जिसे बढ़ाने में श्री जयशंकर प्रसाद श्री सुमित्रानंदन पंत श्री मैथिलीशरण गुप्त सुश्री महादेवी वर्मा आदि ने अद्भुत योगदान दिया।
अब नवगीत की बात करें तो बहुत से लोग इसे निराला जी से जोड़ते हैं परंतु वही लोग श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी के गीतों की नवता को भूल जाते हैं। नई कविता के काल में श्री अज्ञेय जी,श्री गिरिजा कुमार माथुर जी,केदारनाथ सिंह जी,शमशेर जी,रविंद्र भंवर जी, केदारनाथ अग्रवाल जी आदि ने गीतों में नवता पर बहुत काम किए,परंतु ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने नवगीत को "वंशी और मादल" देकर इसका सतत विकास किया एवं गीतों को एक अलग ही शिल्प वोध दिया, सौंदर्य दिया।श्री धर्मवीर भारती जी ने "सात गीतवर्ष"में एक तीखा यथार्थ बोध दिया। गीतों में अज्ञेय ने नए पन का प्रयोग किया तो भवानी प्रसाद मिश्र ने इनमें लोक तत्वों का संग्रह किया। शमशेर बहादुर सिंह विंबो और भाषा की खोज में थे।धर्मवीर भारती जी ने कड़वे लोक संदर्भों के साथ कड़वे यथार्थ को बल दिया।डॉक्टर शंभुनाथ सिंह ने गीतों में प्रणय,लोकहित और इसके विज्ञान को स्थान दिया। हालांकि इसके पहले तार सप्तक में गिरिजाकुमार माथुर ने नवगीत को एक और दिशा दी थी। धर्मवीर भारती जी ने नवगीतों को बढ़ाने में जितना कार्य किया, शायद किसी ने नहीं।"सात गीत वर्ष"ने नवगीत को नई उर्वरा जमीन दी।
आज की पीढ़ी,लोकगीत पर बहुत अच्छा लिख रही है परंतु इनमें ज्यादातर लोगों के अपने-अपने मंच हैं। कोई केवल और केवल सत्ता और तंत्र की आलोचना में है, वहीं कुछ लोग तंत्र की आलोचना के साथ घर परिवार,पारिवारिक सामाजिक संबंध, कृषक,श्रमिक,गृहस्थी, मानवीय कोमल भाव को महत्व दे रहे हैं । कुछ तो तुक के साथ मात्राओं की भी गणना कर रहे हैं।कुछ वामपंथ, दक्षिण पंथ,वर्ग वाद को लेकर चल रहे हैं।नवगीत के हित पर इस पर विचार किया जाना चाहिए वास्तव में नवगीत गाने के लिए नहीं वरन पढ़ने के लिए है। श्री रविंद्र नाथ टैगोर जी की गीतांजलि में कोई तुक नहीं है जबकि इसे सब ने गीत माना है।
आजकल के नए नव गीतकार जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं उन्हें श्री शलभ श्रीराम सिंह, देवेंद्र कुमार,उमाकांत मालवीय,(जिन्होंने नवगीत को एक नई दिशा दी), गुलाब सिंह, नईम,माहेश्वर तिवारी अनूप अशेष,भगवान स्वरूप सरस,श्रीकृष्ण तिवारी, शिवबहादुर सिंह भदौरिया,कैलाश गौतम,उमाशंकर तिवारी, दिनेश सिंह, सोम ठाकुर, नीलम सिंह,नरेश सक्सेना,महेश अनघ, गणेश गंभीर इत्यादि जो नवे एवं दसवें दशक में दूसरी पीढ़ी के हैं और खूब पढ़े जाते थे को अवश्य पढ़ना चाहिए इन सभी के नवगीत संकलन उपलब्ध हैं।
मेरे विचार में नवगीत में कथ्य को शिल्प और तुक से वरीयता दी जानी चाहिए शिल्प अगर स्वाभाविक रूप से गड़बड़ा रहा है तो उसमें बदलाव संभव है।
एक उदाहरण--
"एक लहर के लिए तड़पते जीना भी क्या जीना।
जीवनधारा की चाहत है सागर को छूना।।"
गुलाब सिंह।
यह गीत 'गीत गागर' पत्रिका भोपाल में प्रकाशित हुआ और संपादक ने बिना गुलाब सिंह जी की अनुमति के छूना को पीना कर दिया यहां छूना को पीना करना गीत के कथ्य के भाव को पूर्णतः बिगाड़ कर रख रहा है सागर को छूना तो स्वाभाविक और प्राकृतिक है पर पीना ठीक नहीं है। इसका अर्थ लहर तक ना होकर सागर तक जाना है हर व्यक्ति अगस्त नहीं हो सकता। नवगीत में लय की प्रमुखता होती है पर लय भंग नहीं हो रहा है तो तुक में बदलाव संभव है और कई श्रेष्ठ कवियों ने किया है। डॉक्टर जगदीश गुप्त जी ने तो कविता में अर्थ के लय को प्रमुखता दी थी ,जबकि लय शब्द की बड़ी है।
"केदारनाथ सिंह जी के अनुसार गीत और नवगीत का विभाजन यदि आवश्यक हो तो साहित्यिक गीत और उन गीतों में  किया जाना चाहिए जो मुख्यतः गाने के लिए लिखे जाते हैं ।दरअसल इस प्रकार के विवेक की आज बहुत आवश्यकता है।
        इस मायने में आधुनिक भारत के सबसे बड़े गीतकार रविन्द्र नाथ ठाकुर का आदर्श काफी हद तक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है। रविन्द्रनाथ जीने दो प्रकार के गीतों की रचना की है।एक वह जिन्हें शुद्ध साहित्यिक गीत कहा जा सकता है और दूसरे वह जो केवल गाने के लिए संगीत की दृष्टि से लिखे गए हैं। इस दूसरे गीत को उन्होंने गान की संज्ञा दी थी और इसे उन्होंने कभी नहीं कहा कि इन्हें साहित्य गीत माना जाए। "
दयाशंकर के अनुसार- नव गीतों का एक स्वर ऐसा भी है जो पारिवारिक सामाजिक संबंधों का महत्व स्वीकारते हुए और व्यापक समस्याओं को साहस उत्साह के साथ तरजीह देता है जैसे-
-पीर मेरी कर रही गमगीन मुझको
 और उससे भी अधिक तेरे नयन का नीर रानी।
 और उससे भी अधिक हरपाँव की जंजीर रानी।
-वीरेंद्र मिश्र।
-धूप में जब भी जले हैं सीना तन गया है।
-रमेश रंजक।
विडंबनात्मक मन: स्थिति के कुछ तत्व-
रह गया पीछे नगर घर द्वार/ सब कुछ रह गया पीछे/ भाई साहब का थका चेहरा/और अम्मा की भरी आंखें/और भाभी की नरम बोली/ और पप्पू की उठी बाहें रह गया पीछे/ तीज तिथि त्योहार/सब कुछ रह गया पीछे।
-ओम प्रभाकर ।'नवगीत अर्ध शती' पृष्ठ संख्या 73.संपादक शंभुनाथ सिंह।
इसी क्रम में एक और बात- "आधुनिक काव्य संदर्भ और प्रकृति," डॉक्टर गंगा प्रसाद गुप्त। हिंदी विभाग शासकीय स्नातकोत्तर विज्ञान महाविद्यालय रायपुर।रचना प्रकाशन इलाहाबाद,1971, में आदरणीय शंभुनाथ सिंह ने अपने आलेख में गीतों पर अपने कुछ विचार इस प्रकार व्यक्त किए हैं-
जयदेव, "चंडीदास,विद्यापति,कबीर,तुलसीदास,रवींद्रनाथ, भारतेंदु,प्रेम धन, श्रीधर पाठक, मुकुट पांडे, मैथिलीशरण गुप्त, पंत,प्रसाद,निराला, और महादेवी जी के गीत आज के किन्ह उत्कृष्ट गीतों से कम हैं । यह अलग बात है कि इन सभी ने अपने को कभी एक अलग विधा बनाकर नव गीतकार कहलाने का लोभ नहीं दिखाया।
स्पष्ट है कि वह अपने समय के नवगीत ही हैं।हर युग में लिखे गए गीत पुरानी परंपरा से भिन्न हैं और वह अपने समय के नवगीत ही हैं।वह उस समय नवगीत थे उन्हें केवल गीत कहा गया।आज के बदले समय में गीतों को नवगीत कहा गया क्योंकि नया कहने की होड़ मची है आगे चलकर जो गीत लिखे जाएंगे उन्हें किस नाम से विशेषित किया जाएगा।"
--आज जिसे हम नवगीत कहते हैं इसका नामकरण उसके प्रतिमान के संदर्भ में डॉक्टर रमेश चंद्र पांडे ने अपने आलेख (अक्षत 2020)में कहा है-गीता आयन की भूमिका में फरवरी 1958 में राजेंद्र प्रसाद सिंह द्वारा प्रकाशित गीतांगिनी नामक गीत संग्रह की भूमिका में नवगीत शब्द का प्रयोग करके राजेंद्र प्रसाद सिंह ने गीत के भीतर से प्रस्फुटित एक नई कविता के लिए एक सार्थक और नया नाम दिया। डॉक्टर जगदीश गुप्त के अनुसार नवगीत संज्ञा को विधिवत प्रतिष्ठा काफी बाद 1964 में मिली जब कविता पत्रिका का लोकगीत विशेषांक प्रकाशित हुआ। ओम प्रभाकर द्वारा संपादित और अलवर से प्रकाशित इस विशेषांक में नवगीत से संबंधित कई आलेख एवं नवगीत छपे थे। इसी क्रम में 1968 में डॉक्टर शंभू नाथ सिंह गीत स्वर्ण जयंती के अवसर पर वाराणसी में आयोजित विचार गोष्ठी तथा उसी वर्ष डॉ धर्मवीर भारती की अध्यक्षता में मुंबई में नवगीत पर आयोजित विचार गोष्ठी तथा 1966 में चंद्रदेव सिंह और महेंद्र शंकर केसंपादकत्व में "पाँच जोड़ बांसुरी" नामक नवगीत के संकलन के प्रकाशन का महत्वपूर्ण स्थान बताया जाता है।
सितंबर 1986 में नवगीत के अर्धशती के अवसर पर वाराणसी में आयोजित एक समारोह में उपस्थित 19 नवगीत कारों के हस्ताक्षर से एक घोषणा पत्र स्वीकृत हुआ था जिसमें नवगीत के 17 प्रतिमान स्थापित किए गए।----
छांदासिकता और लयात्मकता जो गेयता से संबंधित हो,संवेदन धर्मिता या
संस्पर्श शक्ति, ग्राह्यता और रमणीयता,संप्रेषणीयता, बिंब धर्मिता या चित्रात्मकता,अलंकृत और सादगी, खुलापन या स्वायत्तता या अप्रतिबद्धता,लोक संपृक्ति और जन के प्रति संसक्ति ,भारतीयता की चेतना और जातीय बोध, यथार्थ प्रसंग,विसंगतियों के दर्द और सामाजिक पीड़ा की अभिव्यक्ति,जीवन के केंद्र में मानव की प्रतिष्ठा, भारतीय रंग का आधुनिक बोध, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चेतना, परंपरा के भीतर से जन्मी नवता, और सौंदर्य,प्रेम,और मानवीय भावास्थितियों की जीवनी शक्ति के रूप में स्वीकृति,जीवंतता और गत्यात्मक तथा आम आदमी की कविता।
                 अंत में यह कहना है कि नवगीत समकालीन कविता की प्रमुख धारा है आज इसमें तीसरी पीढ़ी के बहुत ही सुप्रसिद्ध नवगीतकार सक्रिय हैं इनमें श्री शिवानंद सिंह सहयोगी जी, श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी, श्री बृजनाथ श्रीवास्तव जी श्री मुकुट सक्सेना जी, श्री मनोहर अभय जी, डॉक्टर ओम प्रकाश सिंह जी, श्री यश मालवीय जी, जगदीश पंकज जी,श्री कृष्ण भारतीय जी, श्री रविशंकर पांडे जी और अनेक लोग हैं जिन्होंने बहुत अच्छे नवगीत दिए हैं और लगातार सक्रिय भी हैं। कुछ लोग तो आलोचना के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं ।इसके बाद जो नई पीढ़ी है वह भी बहुत अच्छा नवगीत लिख रही है इसमें कोई दो राय नहीं है जिनके सबका नाम देना यहां पर बड़ा ही मुश्किल है फिर भी कुछ नाम हैं जो यादआ रहे हैं जिनमें श्री राम किशोरदाहिया जी, श्री मनोज जैन जी, शुभम श्रीवास्तव जी, डॉक्टर कामतानाथ सिंह जी, विनय विक्रम सिंह जी गुण शेखर जी, राजकुमार महोबिया जी, प्रदीप पुष्पेंद्र जी,कुंवर अनुज जी,विजय बागरी जी, डॉ भुनेश्वर द्विवेदी जी, विनय भदौरिया जी, अवनीश सिंह जी,श्री जय चक्रवर्ती जी,सीताराम पथिक जी,डा.रामकुमार रामरिया जी, सुश्री डा.रंजना गुप्ता जी, सुश्री शीला पांडे जी, श्री शम्भु नाथ मिस्त्री जी,श्री जय राम जय जी आदि।
नवगीत का सतत समग्र विकास होता रहे इसी कामना के साथ अथ से इति तक प्रतीक्षा तो रहेगी ही।

विजय सिंह। मांडा,प्रयागराज।
05.05.2022.

गुरुवार, 4 मई 2023

सत्येंद्र कुमार रघुवंशी जी का एक गीत

गीत
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                   तप्त पलों में

        मन शेफाली-सा सुन्दर है,
        इसके फूल न गिन पाओगे।

               हमें उछाल रही हैं सड़कें,
               हो यह जिस्म खिलौना जैसे।
               मगर पास हैं सपने जब तक,
               मानें ख़ुद को बौना कैसे?

        होना मत हैरान, सेज पर
        अक्सर कोई पिन पाओगे।

               जीवन के इन तप्त पलों में
               मुश्किल है अशरीरी होना,
               रूमालों पर फूल काढ़ना,
               किसी झील में पाँव डुबोना।

        ठहरे तुम मासूम, जहाँ को 
        पर हर वक़्त कठिन पाओगे।

               ख़ुशियाँ हैं गिरते पत्तों-सी,
               उनका ढेर लगाना छोड़ो।
               सुनो ओस वाली पंखुडियो!
               तुम ख़ुद को ढरकाना छोड़ो।

        होगे तुम कमज़ोर जिस घड़ी,
        यह दुनिया बैरिन पाओगे।

               जूते में आये कंकड़-सा
               कभी-कभार समय गड़ता है,
               पर यह जो है आस, जन्मदिन
               इसका रोज़-रोज़ पड़ता है।

        तुम न ख़ुशी की खोयी गेंदें
        दोस्त! उजाले बिन पाओगे।

                               सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी