मंगलवार, 21 सितंबर 2021

परिचय : मनोज जैन


25, दिसम्बर,1975
 जन्म स्थान :ग्राम बामौर कला ,जिला शिवपुरी मध्य प्रदेश
शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य में स्नात्कोत्तर, डी .एड.
प्रकाशित कृतियाँ- 
एक बूँद हम (नवगीत संग्रह 2011) 
धूप भरकर मुट्ठियों में (नवगीत संग्रह 2021)
अनेक शोध सन्दर्भ ग्रन्थों में नवगीत सम्मिलित
सोशल मीडिया के चर्चित (नवगीत पर एकाग्र साहित्यिक) समूह
 ~ ।।वागर्थ।। ~
      के संचालक
प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन 
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से समय समय पर प्रसारण
पता :106 विट्ठल नगर गुफामन्दिर रोड़ लालघाटी भोपाल 462030
मोबाइल 9301337806

सोमवार, 20 सितंबर 2021

परिचय डाक्टर मृदुला सिंह

  परिचय 
------------------------ 
नाम-  डाक्टर मृदुला सिंह प्राध्यापक हिन्दी शासकीय विज्ञान महाविद्यालय जबलपुर 
शिक्षा - एमए, पी- एच डी 
सम्प्रति- प्राध्यापक हिन्दी शासकीय विज्ञान महाविद्यालय जबलपुर ( मप्र)
सेवा अवधि-37 वर्ष 
प्रयास- 1   आकाशवाणी अंबिकापुर (सरगुजा)एवं  आकाशवाणी  जबलपुर  से कविताओं  और आलेखों  का  प्रसारण ।
2 राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय  सामाजिक ,साहित्यिक संगोष्ठियों में  सहभागिता ।
3 विभिन्न  पत्र-पत्रिकाओं में  गद्य व पद्य अभिरचनाओं का प्रकाशन ।
संस्थागत  संबद्धता-1 संबोधन  साहित्य एवं  कला परिषद, मनेन्द्रगढ 
2महिला  समिति, मनेन्द्रगढ 
3 रोटरी पश्चिम, जबलपुर 
4पाथेय,जबलपुर 
लेखन-कविता, आलेख एवं  समसामयिक विषयों पर चिंतन 
प्रकाशन-वैज्ञानिक अध्यात्मवाद-पुस्तक
विविध  शोध  आलेख और चिंतन
और प्रकाश  बढ़ता ही गया-अनुदित कृति
आस्था के अक्षत-काव्य-संग्रह 
सम्मान-1 मधुरिमा  रत्न,इतिहास  एवं  पुरातत्व शोध संस्थान  ,बालाघाट(मप्र)31 दिसम्बर 2005
2 शिक्षाविद् सम्मान, पाथेय जबलपुर (मप्र)
3 सर्वश्रेष्ठ लेखिका  रत्न, 
इतिहास  एवं  पुरातत्व शोध संस्थान, बालाघाट (मप्र) 2007
न्यू ऋतम्भरा साहित्य  सम्मान, 2008 छत्तीसगढ़ 
5 सृजन  अलंकरण, पाथेय संस्था जबलपुर 
6 राष्ट्रीय  विद्या विभूति विद्श्री,पुरातत्व शोध  संस्थान  बालाघाट (मप्र) 2016
 7 राष्ट्रीय  काव्य  कल्पज्ञ विद्श्री, पुरातत्व  शोध  संस्थान, बालाघाट 17फरवरी 2017
8 राष्ट्रीय स्वर्णलता विद्श्री, इतिहास  एवं पुरातत्व शोध संस्थान बालाघाट ,18फरवरी  2018
9 राष्ट्रीय  साहित्य प्रसार भूषण  विद्श्री इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान बालाघाट (मप्र)19 फरवरी 2019
10 भानु साहित्य  सम्मान, भानु प्रतिष्ठान, सिनामंगल,काठमांडू, नेपाल 
साहित्य  संचय शोध संवाद, फाउण्डेशन, सोनिया  विहार,दिल्ली, संयुक्त तत्वावधान 
11 साहित्य  शिरोमणि-पुरातत्व  संग्रहालय बालाघाट 21 मार्च  2021
12 राष्ट्रीय  राष्ट्र  भाषा  स्वाभिमान विद्श्री, इतिहास  एवं पुरातत्व शोध संस्थान बालाघाट 21 मार्च 2021
इतिहास विद्श्री  विश्व  पुरातत्व  धरोहर  दिवस,इतिहास  एवं  पुरातत्व शोध संस्थान बालाघाट मार्च 2020 प्राप्त 2021
उपलब्धियां- 1इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान बालाघाट, संस्था सदस्य 
2 अनुसंधान  रिसर्च  जनरल, शासकीय  मोहन हरगोविन्ददास गृहविज्ञान एवं  विज्ञान  महिला  महाविद्यालय, जबलपुर  ( मप्र) सलाहकार  बोर्ड  सदस्य 
3 इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान बालाघाट-अध्यक्ष,जबलपुर  इकाई
प्रकाशित  रचनाएँ-उत्सव, यादें-हिन्दी  त्रैमासिक-अंक 1,वर्ष  16
2-कविताएं-गंगोत्री, अंक19 पृ 32
शोध  पत्र-40 राष्ट्रीय  संगोष्ठी 
04 अन्तर्राष्ट्रीय  संगोष्टी
हिन्दी विभाग  की सदस्य  डाक्टर मृदुला सिंह प्राध्यापक हिन्दी शासकीय विज्ञान महाविद्यालय जबलपुर, ने भानु प्रतिष्ठान  काठमांडू, एवं  शोध संवाद  फाउण्डेशन, दिल्ली  की अन्तर्राष्ट्रीय  संगोष्ठी  29-30नवम्बर 2020 साथ  ही जिज्ञासा  की कार्यशाला 24 से 29 नवम्बर 2020 में  अपनी  सहभागिता  दी।इनकी  एक पुस्तक  काव्य  संग्रह  के  रूप  में 'आस्था  के अक्षत' शीर्षक  से प्रकाशित  हुई ।इनके इस वर्ष  के  अन्य  प्रकाशन कविता  के रूप  में 'उत्सव ', आशायें  जीवन  की और 'जीवन गीत 'रहे । सम्मान  जो इन्हें  इस वर्ष  प्राप्त  हुए, वे हैं- भानु साहित्य सम्मान काठमांडू एवं  दिल्ली, इतिहास विद्श्री, राष्ट्रीय  राष्ट्र  भाषा स्वाभिमान विद्श्री, इतिहास  एवं पुरातत्व शोध संस्थान, बालाघाट (म प्र)। अनुसंधान, रिसर्च  जनरल, शासकीय मोहन
लाल  गोविन्ददास विज्ञान  एवं गृहविज्ञान  महिला  महाविद्यालय, जबलपुर- सलाहकार-बोर्ड सदस्य, इतिहास एवं पुरातत्व शोध संस्थान बालाघाट-अध्यक्ष, जबलपुर  इकाई  एवं मिनिस्ट्री ऑफ फायनेंस का सर्टिफिकेट ऑफ एप्रीसियेशन'ब्रान्ज कैटिगरी,इनकी  उपलब्धि रही।
2423,पुष्प कुञ्ज  कालोनी, गणेश  मंदिर के पास गोरखपुर, जबलपुर  पिन  482001

रविवार, 19 सितंबर 2021

कवि प्रदीप के अमर गीत प्रस्तुति : वागर्थ

समूह वागर्थ की सितम्बर माह की तालिका के अनुसार आज वागर्थ में केन्द्रीय पोस्ट का दिन है वागर्थ आज की केन्द्रीय पोस्ट कवि प्रदीप के अमर गीतों पर केन्द्रित कर अपने पाठकों को इन गीतों के वैशिष्ट्य से जोड़ता है।
आज भी कवि प्रदीप अपने चाहने वालों के दिलों में राज करते हैं ।
    आइए पढ़ते हैं कवि प्रदीप के अमर गीत

     *
वागर्थ फिल्मी गीतों और गीतकारों के योगदान को समय समय पर अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता रहेगा।
 

प्रस्तुति
वागर्थ
सम्पादक मण्डल
______________________________

1

पिंजरे के पंछी रे, तेरा दर्द ना जाने कोए

कह ना सके तू, अपनी कहानी
तेरी भी पंछी, क्या ज़िंदगानी रे
विधि ने तेरी कथा लिखी आँसू में कलम डुबोए
तेरा दर्द ना जाने कोए

चुपके चुपके, रोने वाले
रखना छुपाके, दिल के छाले रे
ये पत्थर का देश हैं पगले, यहाँ कोई ना तेरा होय
तेरा दर्द ना जाने कोए

2

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान्
कितना बदल गया इंसान कितना बदल गया इंसान
सूरज न बदला चाँद न बदला न बदला रे आसमान
कितना बदल गया इंसान कितना बदल गया इंसान

राम के भक्त रहीम के बन्दे
रचते आज फरेब के फंदे
कितने ये मक्कार ये अंधे
देख लिए इनके भी फंदे
इन्ही की काली करतूतों से
बना ये मुल्क मसान
कितना बदल गया इंसान

क्यूँ ये नर आपस में झगड़ते
काहे लाखों घर ये उजड़ते
क्यूँ ये बच्चे माँ से बिछड़ते
फूट फूट कर क्यूँ रो
ते प्यारे बापू के प्राण
कितना बदल गया इंसान
कितना बदल गया इंसान

3

हमने जग की अजब तस्वीर देखी
एक हँसता है दस रोते हैं
ये प्रभु की अद्भुत जागीर देखी
एक हँसता है दस रोते हैं

हमे हँसते मुखड़े चार मिले
दुखियारे चेहरे हज़ार मिले
यहाँ सुख से सौ गुनी पीड़ देखी
एक हँसता है दस रोते हैं
हमने जग की अजब तस्वीर देखी
एक हँसता है दस रोते हैं

दो एक सुखी यहाँ लाखों में
आंसू है करोड़ों आँखों में
हमने गिन गिन हर तकदीर देखी
एक हँसता है दस रोते हैं
हमने जग की अजब तस्वीर देखी
एक हँसता है दस रोते हैं

कुछ बोल प्रभु ये क्या माया
तेरा खेल समझ में ना आया
हमने देखे महल रे कुटीर देखी
एक हँसता है दस रोते हैं
हमने जग की अजब तस्वीर देखी
एक हँसता है दस रोते हैं

4

तूने खूब रचा भगवान्
खिलौना माटी का
इसे कोई ना सका पहचान
खिलौना माटी का

वाह रे तेरा इंसान विधाता
इसका भेद समझ में ना आता
धरती से है इसका नाता
मगर हवा में किले बनाता
अपनी उलझन आप बढाता
होता खुद हैरान
खिलौना माटी का
तूने खूब रचा खूब गड़ा
भगवान् खिलौना माटी का

कभी तो एकदम रिश्ता जोड़े
कभी अचानक ममता तोड़े
होके पराया मुखड़ा मोड़े
अपनों को मझधार में छोड़े
सूरज की खोज में इत उत दौड़े
कितना ये नादान
खिलौना माटी का
तूने खूब रचा खूब गड़ा
भगवान् खिलौना माटी का

5

चल अकेला चल अकेला चल अकेला
तेरा मेल पीछे छूटा राही चल अकेला

हजारों मील लम्बे रस्ते तुझको बुलाते
यहाँ दुखड़े सहने के वास्ते तुझको बुलाते
है कौन सा वो इन्सान यहाँ पे
जिसने दुःख ना झेला
चल अकेला चल अकेला चल अकेला...

तेरा कोई साथ न दे तो
तू खुद से प्रीत जोड़ ले
बिचौना धरती को करके
अरे आकाश ओढ़ ले
पूरा खेल अभी जीवन का
तूने कहाँ है खेला
चल अकेला चल अकेला चल अकेला
तेरा मेल पीछे छूटा राही चल अकेला

6

तुमको तो करोड़ो साल हुए बतलाओ गगन गंभीर
इस प्यारी प्यारी दुनिया में क्यूँ अलग अलग तक़दीर

मिलते हैं किसी को बिन मांगे ही मोती
कोई मांगे लेकिन भीख नसीब ना होती
क्या सोच के है मालिक ने रची ये दो रंगी तस्वीर
इस प्यारी प्यारी दुनिया में क्यूँ अलग अलग तक़दीर

कुछ किस्मत वाले सुख से अमृत पीते
कुछ दिल पर रख कर पत्थर जीवन जीते
कहीं मन पंछी आकाश उड़े कहीं पाँव पड़ी ज़ंजीर
इस प्यारी प्यारी दुनिया में क्यूँ अलग अलग तक़दीर

7

चलो चलें मन सपनो के गाँव में
काँटों से दूर कहीं फूलों की छाँव में
चलो चलें मन...

हो रहे इशारे रेशमी घटाओं में
चलो चलें मन...

आओ चलें हम एक साथ वहां
दुःख ना जहाँ कोई गम ना जहाँ
आज है निमंत्रण सन सन हवाओं में
चलो चलें मन...

रहना मेरे संग में हर दम
ऐसा ना हो के बिछड़ जायें हम
घूमना है हमको दूर की दिशाओं में

चलो चलें मन सपनो के गाँव में
काँटों से दूर कहीं फूलों की छाँव में
चलो चलें मन...

8

सुख दुःख दोनों रहते जिसमें, जीवन है वो गाँव
कभी धूप कभी छाँव, कभी धूप तो कभी छाँव
भले भी दिन आते जगत में, बुरे भी दिन आते
कड़वे मीठे फल करम के यहाँ सभी पाते
कभी सीधे कभी उल्टे पड़ते अजब समय के पाँव
कभी धूप कभी छाँव, कभी धूप तो कभी छाँव
सुख दुःख दोनों रहते जिसमें, जीवन है वो गाँव

क्या खुशियाँ क्या गम, यह सब मिलते बारी बारी
मालिक की मर्ज़ी पे चलती यह दुनिया सारी
ध्यान से खेना जग नदिया में बन्दे अपनी नाव
कभी धूप कभी छाँव, कभी धूप तो कभी छाँव
सुख दुःख दोनों रहते जिसमें, जीवन है वो गाँव

परिच
______
कवि प्रदीप का मूल नाम 'रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी' था। उनका जन्म मध्य प्रदेश प्रांत के उज्जैन में बड़नगर नामक स्थान में हुआ। कवि प्रदीप की पहचान 1940 में रिलीज हुई फिल्म बंधन से बनी। हालांकि 1943 की स्वर्ण जयंती हिट फिल्म किस्मत के गीत "दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है" ने उन्हें देशभक्ति गीत के रचनाकारों में अमर कर दिया। गीत के अर्थ से क्रोधित तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उनकी गिरफ्तारी के आदेश दिए। इससे बचने के लिए कवि प्रदीप को भूमिगत होना पड़ा.

पांच दशक के अपने पेशे में कवि प्रदीप ने 71 फिल्मों के लिए 1700 गीत लिखे. उनके देशभक्ति गीतों में, फिल्म बंधन (1940) में "चल चल रे नौजवान", फिल्म जागृति (1954) में "आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं", "दे दी हमें आजादी बिना खडग ढाल" और फिल्म जय संतोषी मां (1975) में "यहां वहां जहां तहां मत पूछो कहां-कहां" है। इस गीत को उन्होंने फिल्म के लिए स्वयं गाया भी था।

आपने हिंदी फ़िल्मों के लिये कई यादगार गीत लिखे। भारत सरकार ने उन्हें सन 1997-98 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया।

कवि प्रदीप कुमार के सम्‍मान में मध्‍यप्रदेश सरकार के कला एवं संस्‍कृति विभाग ने कवि प्रदीप राष्‍ट्रीय सम्‍मान की स्‍थापना वर्ष 2013 में  की ।[मृत कड़ियाँ] पहला कवि प्रदीप राष्‍ट्रीय सम्‍मान पुरस्‍कार उत्‍तर प्रदेश के प्रसिध्‍द गीतकार गोपालदास नीरज को दिया गया।

आज की सामग्री 
सन्दर्भ
कविताकोष और गूगल से साभार ली गयी है।

शनिवार, 18 सितंबर 2021

युवतम कवि अनुभव राज के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

¶¶

     वागर्थ प्रस्तुत करता है
     उड़ान कॉलम
     में आज नन्हें कवि
     अनुभव राज की कुछ गीतनुमा कविताएँ
_______________________________________

1
चलते चलते रहना है
----------------------- 

मुझको चलना हरदम चलना
चलते चलते रहना है

मैं ज़िद्दी हूँ तूफानों में 
दीप जलाना चाहूँ
पंख हैं कोमल फिर भी नभ में
मैं तो उड़ना चाहूँ
डिगूँ न पथ से मुश्किल को ये
कहते कहते रहना है
मुझको बहना हरदम बहना
बहते बहते रहना है।

साँसों की माला में जाने
कितनी उलझन आयी
बिखरे हैं सब ख्वाब सुहाने
हृदय कली मुरझायी
फिर भी आँधी तूफानों से
लड़ते लड़ते रहना है
मुझको तपना हरदम तपना
तपते तपते रहना है।

2

दे दो मोबाइल 
-----------------

घर बैठे मैं बोर हो गया, दे दो मोबाइल
लम्बी चौड़ी बात करूंगा, कर नम्बर डाइल

मम्मी तो घर के कामों में 
व्यस्त रहती है
ऑनलाइन कक्षा से दीदी 
पस्त रहती है

अर्ज़ी अपनी मोबाइल की, कहां करूँ फ़ाइल?
घर बैठे मैं बोर हो गया, दे दो मोबाइल।।

मोबाइल से जब भी चाहूं 
गाना मैं सुन लूँ
यूट्यूब पे वीडियो देखूं, 
गूगल से गुण लूँ

बिन उसके मैं पंगु जैसा, खो गयी स्माइल।
घर बैठे मैं बोर हो गया, दे दो मोबाइल।।

फेसबुक , इंस्टा व्हाट्सएप पे
फ्रेंड बनाऊं ख़ूब
तरह तरह के गेम्स मैं खेलूं
उसमें जाऊँ डूब

फ़ोटो अपनी खींचवाऊँगा दे दे स्टाइल
घर बैठे मैं बोर हो गया, दे दो मोबाइल

3

देशभक्ति गीत 
__________

देश ये मेरा रंग रंगीला सब देशों में आला
इसकी महिमा हैं सब गाएं क्या गोरा क्या काला

भूख गरीबी में जो उलझे 
उनको दे अधिकार
सबको मिले सुरक्षा शिक्षा 
कौशल बढ़े अपार
हर जाति हर धर्म बोली को हृदय से इसने पाला
इसकी महिमा हैं सब गाएं क्या गोरा क्या काला

बड़े बुजुर्गों की हो सेवा 
रिश्तों में हो प्यार
मानवता की सेवा का ही 
मन में हो संस्कार
लोकतंत्र का मंदिर है ये संविधान शिवाला
इसकी महिमा हैं सब गाएं क्या गोरा क्या काला

अनुभव राज
_________


    परिचय

_________
नाम- अनुभव राज
जन्मतिथि- 12/08/2004
जन्मस्थान- मुज़फ़्फ़रपुर बिहार
पता- माड़ीपुर, मुज़फ़्फ़रपुर-842001
ईमेल- anubhvraj808@gmail.com
शिक्षा- बारहवीं
गायन में जूनियर डिप्लोमा
विद्यालय- राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय ब्रह्मपुरा, मुज़फ़्फ़रपुर

प्रकाशन- नेशनल बुक ट्रस्ट,  हस्ताक्षर, काव्यांजलि, सुवासित, साहित्य सुधा, पद्यपंकज, साहित्य सुषमा ई पत्रिका, नटखट चीनू, अमेरिका से प्रकाशित पत्रिका सेतु,  मालंच, सच्चा दोस्त, सिटी फ्रंट अखबार में रचनाएँ प्रकाशित

सम्मान- श्री हिंदी पुस्तकालय समिति, डीग द्वारा श्री ग्यासिराम गोयल हिंदी बाल साहित्य सम्मान 2021

विशेष-1. राज्य निःशक्तता आयुक्त द्वारा एक दिन का कमिशनर बना
2.राजीवगांधी फाउंडेशन द्वारा चलाये जा रहे ऑनलाइन कार्यशालाओं के अंतर्गत काव्य पाठ, कथापाठ, वाद विवाद, बाल पत्रकारिता, बाल साहित्य,  परिचर्चा एवं अन्य गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी
3 कई प्रतियोगिताओं में स्थान प्राप्त करना ( बालमन फाउंडेशन द्वारा 'मेरी माँ' प्रतियोगिता मे द्वितीय स्थान), प्रेमचंद जयंती समारोह 2016 में काव्य पाठ में प्रथम स्थान और 2019 में द्वितीय स्थान
4. दिव्यांग आइडल एवं अन्य गायन प्रतियोगिताओं में सहभागिता
5. फेसबुक पर लाइव  काव्य एवं संगीत की प्रस्तुति देना
अभिरुचि- संगीत, पेंटिंग, पर्यटन, कविताएं करना

गुरुवार, 16 सितंबर 2021

कवि परिचय में डाॅ. कृष्ण कुमार श्रीवास्तव : प्रस्तुति वागर्थ



डाॅ. कृष्ण कुमार श्रीवास्तव : 

संक्षिप्त परिचय: 

जन्म : 1973 ग्राम -पोस्ट मधुकरपुर , जनपद -रायबरेली (उ.प्र.)
पिता का नाम - श्री शिवा शंकर‌ श्रीवास्तव
माता का नाम- स्व. विमला श्रीवास्तव
 आरंभिक पढ़ाई-
रायबरेली (उ.प्र.)

उच्च शिक्षा-काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी (उ.प्र.)

प्रकाशन : 1-आलोचना की प्रगतिशील परंपरा 
          2- भूमण्डलीकरण और दाम्पत्य संबंध
3- कथाकार शिवमूर्ति( संपादन)
प्रकाशनाधीन:
शिल्पांचल का हिंदी कथा साहित्य

विभिन्न पुस्तकों और पत्रिकाओं में शोधपत्र प्रकाशित, साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएं , पुस्तक समीक्षाएं,एवं आलेख प्रकाशित


अध्यापन: बैसवारा पी. जी. काॅलेज, लालगंज, रायबरेली ,उ.प्र.

फिरोज़ गांधी काॅलेज , रायबरेली(उ.प्र.) 

संप्रति : एसोसिएट प्रोफेसर एवं‌ अध्यक्ष  -हिंदी विभाग, आसनसोल गर्ल्स काॅलेज, आसनसोल , प. बंगाल,713304

बुधवार, 15 सितंबर 2021

राजेन्द्र श्रीवास्तव जी के लोरी गीत




लोरी 

1-
 अब मत रो,चुप हो जा
 बहिना प्यारी, सो जा। 

 मत रो बहना सो जा-
 छोटी बहना , सो जा। 
  
 मम्मी-पापा आओ
 ढेर खिलौने लाओ। 
 गुड़िया को ले आना
 सुन्दर जूता-मोजा। 

  बरखा रानी आजा
  गुड़िया को नहला जा
  रेशम जैसे बालों को
   तू बूँदों से धो जा। 
          ***

2- 
अपनी बिटिया रानी को, लेकर गोद सुलाऊँ
ला ला  ला ला ला लोरी,  बिटिया तुम्हे सुनाऊँ 

गुड़िया हो जापानी तुम
बिटिया मेरी स्यानी तुम
जल्दी-से सो जाती हो, जब-जब तुम्हे सुलाऊँ 

चंदा सुंदर और भला
सोने वह चुपचाप चला
तुम भी अब चुप हो जाओ, झूला तुम्हे झुलाऊँ। 

दादा भैया भी सोया
ना मचला ना ही रोया
तुम पलकों को बंद करो, मैं निंदिया को बुलाऊँ। 
             ***

3- 
मेरे भैया मेरे भैया जल्दी-से सो जाओ
मेरे राजा भैया तुम, सपनों में खो जाओ

सपने में फिर आएगी, 
 सबसे सुंदर लाल परी
पर्वत कभी दिखाएगी,
 और कभी नदिया गहरी
चाँद-सितारों से भी तुम, भैया मिलकर आओ।

सपने में फिर आएगा, 
राजा जी का घोड़ा
बहुत तेज दौड़ेगा वह,
पानी पीकर थोड़ा
करना खूब सवारी तुम, उसको चने खिलाओ। 
                   ****. राजेन्द्र श्रीवास्तव

डॉ रामवल्लभ आचार्य जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

1
 पत्तल दोने हम

~~~~~~~~~ 

कर उपयोग फेंक देते सब
पत्तल दोने हम । 

जब भी पड़ी ज़रूरत अपनी
हमको मान दिया ।
बाण चलाने प्रत्यंचा सा
हमको तान दिया ।
नींद खुली तो हरदम टूटे
सपन सलोने हम ।। 

रखा मोतियों की माला में
हमको धागे सा ।
बंधन समझ काट फेंका फिर
निपट अभागे सा ।
कभी मुकुट सा शीश चढ़ाया
खालिस सोने हम ।। 

वशीकरण का मंत्र समझकर
जब चाहा फूँका ।
वर्ना कोई नहीं हमारी
ड्योढ़ी पर ढूँका ।
सभी यहाँ जादूगर
उनके जादू टोने हम ।। 

स्वाद बढ़ाने को पापड़ सा
हमको सें दिया ।
वर्ना दूध पड़ी मक्खी सा
बाहर फेंक दिया ।
करने सिद्ध रसोई
चूल्हे चढ़े भगोने हम ।।
     - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

2

जब उनकी पीड़ा गाता हूँ 

जीवन भर गुमनाम रहें जो
दुपहर में भी शाम रहें जो
जब उनकी पीड़ा गाता हूँ
कवि का धर्म निभा पाता हूँ ॥ 

जो श्रम सीकर की स्याही से
लिखते रहे प्रगति की गाथा ।
लेकिन शोषण की छुरियों से
कटवाते सपनों का माथा ।
बने रहे जो सदा खिलौने,
हुए न आशाओं के गौने,
जब उनको दुलरा पाता हूँ ।
कवि का धर्म निभा पाता हूँ ॥ 

रची नहीं जिनके हाथों में
विधि ने सुख सुविधा की रेखा ।
जिन महलों को रहे सिरजते
उनमें रहकर कभी न देखा ।
बार बार उजड़ा घर जिनका ।
हुई जिंदगी तिनका तिनका ।
मन में उन्हें बसा पाता हूँ ।
कवि का धर्म निभा पाता हूँ ।। 

दो रोटी के लिये दरबदर
फिरते जो घरबार छोड़कर ।
रहना पड़ता दूर अकेले
संबंधों से पीठ मोड़कर ।
अपनों की यादों में जीते,
घूँट आँसुओं के नित पीते,
जब उनको अपना पाता हूँ ।
कवि का धर्म निभा पाता हूँ ॥
        - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
3

कैसे सोयें हम.? 

नींद उड़ा देती हैं चिन्तायें 
दुनिया भर की,
गोली अगर नहीं खायें तो
कैसे सोयें हम.? 

आज फीस बच्चों की देना
कल तक बिजली का बिल भरना ।
रोज़ एक झंझट आ जाती
नया प्रश्न हर दिन हल करना ।
कौन भार ढोये घर भर का
अगर न ढोयें हम.? 

पुश्तैनी मकान का झगड़ा
खोजबीन बच्ची के वर की ।
तौल मोल के रिश्ते सारे
और बलायें दुनिया भर की ।
सभी व्यस्त हैं, अपना दुखड़ा
किससे रोयें हम.? 

घर में घरवाली के ताने
दफ्तर में साहब की झिड़की ।
बंद पड़े दिल के दरवाजे
संवेदन की खुले न खिड़की ।
मन के बंजर खेत
कहाँ पर आँसू बोयें हम.? 

दिन दिन बढ़ता बोझ कर्ज़ का
ऊपर से खुद की बीमारी ।
गिन गिन कर हर दिवस गुजरता
एक एक पल लगता भारी ।
अच्छे दिन की बाट
बताओ कब तक जोयें हम.? 
    - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

4

 मेंढक हम अपने ही कूप के 

अपनी ही दुनिया में
रहते हैं सदा मगन ,
उतना समझें जितना 
दिखता है हमें गगन,
जग से हम कटे कटे
अपनी पर डटे डटे
अंधभक्त हम अपने भूप के । 

लघुता में प्रभुता के
करते हैं हम दर्शन,
असुरों का देवों सा
करते वंदन अर्चन,
करते अभिमान सदा
गाते हैं गान सदा
अहो वचन और अहो रूप के । 

अवतल दर्पण में हम
छबि अपनी देख रहे,
क्षुद्र सी लकीरों को
समझ बड़ी रेख रहे,
सार सार छोड़ रहे
थोथे को जोड़ रहे 
फटकैया ऐसे हम सूप के । 

न्याय की गुहार करें
जुल्म की कचहरी में,
बादल की छाँह गहें 
जेठ की दुपहरी में,
भूख और प्यास सहें
करते उपवास रहें
सहते अन्याय सदा धूप के ।
      - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

5

दिया तले अँधियारा है 

सूरज है मक्कार यहाँ पर
और चाँद आवारा है ।
किसकी आशा करें बताओ
दिया तले अँधियारा है ॥ 

पुरवाई जब भी चलती है
महल खंडहर हो जाते ।
अमिय बाँटने वाले 
अवसर पाकर विषधर हो जाते ।
रातों  के हाथों में गिरवी
रखा हुआ उजियारा है ॥
किसकी आशा करें बताओ
दिया तले अँधियारा है ॥ 

बादल जब जब भी झरते हैं
नहलाते तेज़ाबों से ।
सच का कैसे करें सामना
डर जाते हम ख्वाबों से ।
शबनम की हर बूँद हमें अब
लगती ज्यों अंगारा है ॥
किसकी आशा करें बताओ
दिया तले अँधियारा है ॥ 

फिरते यहाँ सियार 
अोढ़कर खालें अक्सर हिरणों की ।
धरती को मिलती खूनी सौगात
भोर की किरणों की ।
छलता रहा हमेशा सबको
खुशियों का हरकारा है ॥
किसकी आशा करें बताओ
दिया तले अँधियारा है ॥
         - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

6

डूबे यान सपन के 

बढ़ते बढ़ते उम्र 
ज़िदगी उतरी अपनी
घाटे में  । 

कितने सारे महल रेत के
थे अपनी जागीरी में ।
मन भी बादशाह होता था
खाली जेब अमीरी में ।
बचपन वाली यादें अब भी
मुखरित हैं सन्नाटे में ॥ 

खेल खेल में  हम दुनिया के
देश खरीदा करते थे ।
गत्ते के डिब्बों में  अनगिन
नोट करारे धरते थे ।
लुटी अचानक सब धन दौलत
नमक तेल में  आटे में ॥ 

चाँद सितारे रहे खेलते
संग हमारे रातों में ।
चलते थे अपने जहाज भी
पानी भरी परातों में ।
डूबे सारे यान स्वप्न के
समय सिंधु के भाटे में ॥
     - डा. राम वल्लभ आचार्य

7

नहीं किसी ने समझी पीड़ा
बूढ़ी सांसों की । 

रोज़ समय की मकड़ी
बुनती रोगों के जाले  ।
किसको दिखलायें हम जाकर,
अंतर के छाले ।
कौन सुनेगा राम कहानी
दिल की फाँसों की ॥ 

जीवन भर हम रहे खेलते
जुआँ धड़कनों का ।
आँगन में हम रहे पूरते
चौक उलझनों  का ।
समझ न पाये चाल कभी
किस्मत के पाँसों की ॥ 

खूब सहेजे जीवन भर
अरमानों के भाँडे ।
किन्तु रहे बनकर हम केवल
होली के डाँडे ।
आग लगेगी, मिली पालकी
जिस दिन बाँसों की ॥
          - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य

8

 दोधारी तलवार 

इक तो आमदनी कम, 
उस पर 
मँहगाई की मार हुई है ।
लगता है ज़िंदगी हमारी
दोधारी तलवार हुई है ॥ 

करके अपना खून पसीना 
हमने तो सोना उपजाया ।
कौड़ी मोल खरीद ले गये
ऊपर से एहसान जताया ।
तन का कर्ज़ उतारें कैसे
धड़कन कर्ज़ेदार हुई है ॥ 

कब तक उम्मीदें बोयें हम
कब तक फसल अश्रु की काटें ।
कब तक कोरे वादे सींचें,
झूठी उम्मीदों को चाटें ।
साँस साँस गिरवी है अपनी
फिर भी खुशी उधार हुई है ॥ 

आश्वासन की पूँजी लेकर
कब तक घूमें बाजारों में ।
खाली हाथों में सपने ले
शामिल हैं हम लाचारों में ।
कब तक करें भरोसा इस पर
किस्मत ही लाचार हुई है ॥
         - डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
9
 आँगन की ढिंग बने 

बन न सके हम "अहा "
सदा ही "उई " रहे  । 

बागड़ बनकर. रहे 
मगर छँटते आये ।
बढ़ना चाहा बहुत
मगर घटते आये ।
बन न सके तलवार
सदा ही सुई रहे  ॥ 

रहे स्वयं तम में
लेकिन उजियार किया ।
अपने दुश्मन को भी
हमने  प्यार दिया ।
बाती बनकर जले
सदा ही रुई रहे । 

धरती छोड़ी नहीं
न रहे बिछौनों में  ।
घर में जगह बनाई
लेकिन कोनों में  ।
आँगन की ढिंग बने
सदा ही छुई रहे ॥ 

नहीं किसी को भी
हमने दूजा समझा  ।
करना ही सत्कार
सदा पूजा समझा  ।
होकर भी एकात्म 
सदा ही दुई रहे ॥
  -  डा‌ॅ. राम वल्लभ आचार्य

10

 मन में  इतनी उलझन 

मन में  इतनी  उलझन
जितने सघन सतपुड़ा  वाले  वन,
हल्दीघाटी  हुई जि़ंदगी
चेरापूंजी  हुए नयन । 

जयपुर जैसे  लाल गुलाबी
रहे  देखते  हम सपने,
लेकिन चम्बल के  बीहड़  से
रहे  गुजरते  दिन अपने,
कब से प्यास संजोये  बैठा 
बाढ़मेर सा व्याकुल मन । 

दिल्ली  जैसा  दिल बेचारा  
जीवन प्रश्नों  से जूझे,
उत्तर किन्तु  अबूझमाड़  से
रहे  अभी तक अनबूझे,
पीड़ायें नित रास रचातीं
समझ हृदय को वृन्दावन । 

चाहा बहुत. मगर. अाशायें
शांति निकेतन बनीं  नहीं,
चैन हृदय का हुआ. गोधरा
जिसने  खुशियाँ  जनीं नहीं,
इच्छाएँ हरसूद हो गईं
उजड़ा  जिनका घर अांगन ।
        - डा राम वल्लभ आचार्य

परिचय
______


डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
परिचय
जन्म - ४ मार्च १९५३ , भोपाल (म. प्र.)
पिता- स्व. पं. बृज वल्लभ आचार्य
शिक्षा - B. Sc., B.A.M.S.
व्यवसाय - चिकित्सा 
प्रकाशित कृतियाँ - राष्ट्र आराधन, गीत श्रंगार, सुमिरन, गाते गुनगुनाते, अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो, पांचजन्य का नाद चाहिये, जय जिनेन्द्र, परशुराम भजनांजलि (सभी गीत संकलन) ।
समवेत संकलनों में  सहभागिता  - शब्दायन,  गीत अष्टक - २, समकालीन गीत कोष, नयी सदी के स्वर ।
अन्य उल्लेखनीय तथ्य - विभिन्‍न पत्र - पत्रिकाओं में गीत, कहानी, व्यंग्य एवं साहित्य , धर्म, संस्कृति, विज्ञान एवं चिकित्सा संबंधी  लेखों का प्रकाशन । अाकाशवाणी द्वारा  AIR-65 के अंतर्गत अनुबंधित गीतकार । अाकाशवाणी एवं दूरदर्शन के क्षेत्रीय, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय. नेटवर्क पर काव्यपाठ, वार्ता,  कहानी,  नाटक, टेलि फिल्म, संगीतबद्ध गीतों तथा संगीत रूपकों का प्रसारण । अनेक धारावाहिकों व टेलिफिल्मों के लिए शीर्षक गीतों तथा फिल्म अहिंसा के पुजारी के लिए गीतों का लेखन । वीनस,  टी. सीरीज,  ई. एम. आई. एवं अन्य कंपनियों द्वारा अनूप जलोटा, रूप कुमार राठौर, उदित नारायण,अनुराधा पौड़वाल, घनश्याम वासवानी,  कल्याण सेन राजेन्द्र काचरू, प्रभंजन चतुर्वेदी  सहित अनेक कलाकारों के स्वर में अाॅडियो- वीडियो कैसेट्स व सीडीज़ जारी । मधुकली वृन्द द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर आधारित संगीत रूपक " मुक्ति का महायज्ञ " की देश के अनेक मंचों पर दृश्य श्रव्य प्रस्तुति।
विशेष - महाकौशल, जागरण, राष्ट्र का आव्हान, गोराबादल एवं परशुधर के संपादकीय विभागों  का कार्यानुभव ।
प्रमुख सम्मान - अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, तुलसी साहित्य सम्मान, पवैया परस्कार ( गीत संग्रह- गीत श्रंगार के लिये) , साहित्य श्री सम्मान,  राष्ट्रीय नटवर गीत सम्मान, राजेन्द्र अनुरागी बाल साहित्य सम्मान,  साहित्य परिषद (म. प्र. शासन) का जहूर बख्श बाल साहित्य सम्मान, श्रेष्ठ साधना सम्मान,  चंद्र प्रकाश जायसवाल बाल साहित्य सम्मान, भारत भाषा भूषण सम्मान सहित अन्य अनेक सम्मान ।
पूर्व संपादक , प्रकाशक - "आरोग्य सुधा "(मासिक पारिवारिक स्वास्थ्य पत्रिका) 
प्रादेशिक अध्यक्ष - मध्य प्रदेश लेखक संघ ।
पता - 101,रोहित नगर फेस-1 बावड़िया कला, भोपाल म. प्र. 462.039 (निवास)
ई-3/325 अरेरा कलोनी भोपाल म. प्र.  462.016 (कार्यालय) ।

परिचय डॉ रामवल्लभ आचार्य

डाॅ. राम वल्लभ आचार्य
परिचय
जन्म - ४ मार्च १९५३ , भोपाल (म. प्र.)
पिता- स्व. पं. बृज वल्लभ आचार्य
शिक्षा - B. Sc., B.A.M.S.
व्यवसाय - चिकित्सा 
प्रकाशित कृतियाँ - राष्ट्र आराधन, गीत श्रंगार, सुमिरन, गाते गुनगुनाते, अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो, पांचजन्य का नाद चाहिये, जय जिनेन्द्र, परशुराम भजनांजलि (सभी गीत संकलन) ।
समवेत संकलनों में  सहभागिता  - शब्दायन,  गीत अष्टक - २, समकालीन गीत कोष, नयी सदी के स्वर ।
अन्य उल्लेखनीय तथ्य - विभिन्‍न पत्र - पत्रिकाओं में गीत, कहानी, व्यंग्य एवं साहित्य , धर्म, संस्कृति, विज्ञान एवं चिकित्सा संबंधी  लेखों का प्रकाशन । अाकाशवाणी द्वारा  AIR-65 के अंतर्गत अनुबंधित गीतकार । अाकाशवाणी एवं दूरदर्शन के क्षेत्रीय, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय. नेटवर्क पर काव्यपाठ, वार्ता,  कहानी,  नाटक, टेलि फिल्म, संगीतबद्ध गीतों तथा संगीत रूपकों का प्रसारण । अनेक धारावाहिकों व टेलिफिल्मों के लिए शीर्षक गीतों तथा फिल्म अहिंसा के पुजारी के लिए गीतों का लेखन । वीनस,  टी. सीरीज,  ई. एम. आई. एवं अन्य कंपनियों द्वारा अनूप जलोटा, रूप कुमार राठौर, उदित नारायण,अनुराधा पौड़वाल, घनश्याम वासवानी,  कल्याण सेन राजेन्द्र काचरू, प्रभंजन चतुर्वेदी  सहित अनेक कलाकारों के स्वर में अाॅडियो- वीडियो कैसेट्स व सीडीज़ जारी । मधुकली वृन्द द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर आधारित संगीत रूपक " मुक्ति का महायज्ञ " की देश के अनेक मंचों पर दृश्य श्रव्य प्रस्तुति।
विशेष - महाकौशल, जागरण, राष्ट्र का आव्हान, गोराबादल एवं परशुधर के संपादकीय विभागों  का कार्यानुभव ।
प्रमुख सम्मान - अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान, तुलसी साहित्य सम्मान, पवैया परस्कार ( गीत संग्रह- गीत श्रंगार के लिये) , साहित्य श्री सम्मान,  राष्ट्रीय नटवर गीत सम्मान, राजेन्द्र अनुरागी बाल साहित्य सम्मान,  साहित्य परिषद (म. प्र. शासन) का जहूर बख्श बाल साहित्य सम्मान, श्रेष्ठ साधना सम्मान,  चंद्र प्रकाश जायसवाल बाल साहित्य सम्मान, भारत भाषा भूषण सम्मान सहित अन्य अनेक सम्मान ।
पूर्व संपादक , प्रकाशक - "आरोग्य सुधा "(मासिक पारिवारिक स्वास्थ्य पत्रिका) 
प्रादेशिक अध्यक्ष - मध्य प्रदेश लेखक संघ ।
पता - 101,रोहित नगर फेस-1 बावड़िया कला, भोपाल म. प्र. 462.039 (निवास)
ई-3/325 अरेरा कलोनी भोपाल म. प्र.  462.016 (कार्यालय) ।

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

समकालीन कविता में सामाजिक सरोकार, मेरी प्राथमिकताएंँ एवं प्रतिबद्धताएंँ।" - श्यामलाल शमी (साभार सम्वेदनात्मक आलोक से)


"समकालीन कविता में सामाजिक सरोकार, मेरी प्राथमिकताएंँ एवं प्रतिबद्धताएंँ।"
                               - श्यामलाल शमी
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समकालीन कविता में सामाजिक सरोकार का होना अत्यंत आवश्यक है। एक गंभीर एवं सामाजिक बात यह भी है कि जनसंघर्ष से निरपेक्ष रहकर साहित्यकर्म आज के युग में करना एक बेमानी एवं अनर्गल प्रक्रिया है। मेरी दृष्टि में कविता वह है जो समय सापेक्ष, देशज एवं समाज से गहरे जुड़ी हो। साहित्य दर्पण में जब तक तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के दिग्दर्शन नहीं होते, तब तक वह दर्पण धुँधला है, जिसमें सब कुछ स्पष्ट नहीं दीख रहा है। एक संवेदनशील एवं चेतनायुक्त रचनाकार इन सामाजिक परिस्थितियों से विलग नहीं रह सकता। वह एक सामाजिक प्राणी होने के नाते इन परिस्थितियों को देखता, परखता, महसूसता और कुछ सीमा तक उनसे प्रभावित भी होता है। यदि यह बात हम सामाजिक आंदोलन, जनसंघर्ष एवं विभिन्न प्रकार की जनसमस्याओं के संदर्भ में लें, तो यह कहा जा सकता है कि एक रचनाकार का इनसे सीमा संबंध नहीं होता है, परन्तु कहीं न कहीं वह इनसे जुड़ाव अवश्य महसूस करता है। चूँकि वह इसी समाज के बीच रहता है। अतः समाज में व्याप्त विसंगतियाँ, विकृतियाँ एवं बिडंबनाएँ रचनाकार के मन में एक प्रकार के 'नकार' का भाव उत्पन्न कर देतीं हैं और वह समय-समय पर इन्हीं विद्रूपताओं के विरुद्ध अपनी आवाज़ अपनी रचनाओं के माध्यम से उठाता रहता है। इस संबंध में यह कहना भी समीचीन होगा कि यहीं से उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता उजागर होती है। गहनता से देखें तो यहाँ कविता न तो मार्क्सवादी या समाजवादी होती है और न प्रगतिशील अथवा जनवादी होती है। वरन् यहाँ यह नितांत मानवतावादी होती है। रचना के केन्द्र में एक ऐसा मानव भी है जो, 'आम आदमी' है। इस 'आम आदमी' के विषय में न तो कोई गंभीरता से कहता है और न कोई सुनता है। कविता चाहे मुक्तछंद अथवा छंदबद्ध हो रही हो, उसमें 'आम आदमी' का प्रतिनिधित्व उतना नहीं हो रहा है जितने की साहित्य से अपेक्षा की जाती है। कविताओं में आज भी मध्यवर्गीय अथवा अपने एवं अपने आसपास के पारिवारिक जीवन की त्रासदियों का ही निरूपण हो रहा है। यहाँ तक कि वामपंथी कविता में भी समाज की आर्थिक विसंगतियों का ही चित्रण होता रहा है। परन्तु हमारे देश में, जहाँ विभिन्न जाति, धर्म, समुदाय, संस्कृति के जनमानस निवास करते हैं, वहाँ आर्थिक विसंगतियों से भी अधिक सामाजिक विसंगतियाँ हैं। यह एक सोचनीय विषय है और कविता लेखन में इस तथ्य से विमुख नहीं हुआ जा सकता है।

रचनाकारों को समझना चाहिए कि हमारा बहुसंख्यक समाज 'आम आदमी' से बना है। इस समाज की सामाजिक समस्याओं से बिना दो-चार हुए लिखना, मेरे अभिमत में कोरी लफ़्फ़ाजी है। मैं अपनी कहूँ तो कह सकता हूँ कि मैं जिस गाँव-गँवई अंचल, समाज एवं वर्ग से आया हूँ, वहाँ मैंने घोर निराशा, अभाव, गरीबी, शोषण, पीड़ा, अत्याचार एवं अन्याय, सामाजिक विषमताओं की जटिल एवं विकट दुरभिसंधियों को बड़े निकट से देखा और महसूस किया है। इन दुरभिसंधियों से निजात पाने के संघर्ष में, मैं इस वंचित एवं पीड़ित जनसमुदाय के साथ कहीं न कहीं जुड़ा एवं खड़ा रहा हूँ। यानि कि जीवन की अनुभूतिजन्य व्यथा-कथा में रचे-बसे अपने गीतों-नवगीतों में इस उत्पीड़ित जनमानस की पीड़ा, कुण्ठा एवं त्रासदियों के मर्म को छूता रहा हूँ। यह सच है कि हमारे समाज का बहुसंख्यक वर्ग 'आम आदमी' से बना है, किन्तु इस 'आम आदमी' की परिधि के बीच एक ऐसा वर्ग भी है जो सदियों से शोषित, वंचित गरीब दलित-आदिवासी है। यह समुदाय आज भी विकास एवं उन्नति के अंतिम पायदान पर खड़ा है। बिडंबना यह है कि इस जनमानस को समाज का भ्रष्ट, शोषक एवं बाहुबली वर्ग आगे ही नहीं बढ़ने देना चाहता है।

यों तो नवगीत की जीवन्त विधा में नगरीय-ग्रामीण जीवन एवं लोकजीवन की रोमानियत तथा त्रासदियों को उकेरा जाता रहा है। किन्तु यह भी बेबाक सत्य कथन है कि नवगीतकारों ने भी अपने नवगीतों या गीतों में इस दलित-आदिवासी जनसमुदाय को समुचित स्थान नहीं दिया है। दलित चेतना के इस जनसंघर्ष में साथ देने के लिए मैंने यथार्थ की भावभूमि पर रचित इन नवगीतों का आश्रय लिया है। क्योंकि अपनी वाचिक एवं गेय परम्परा के कारण सभी साहित्यिक मूल्यों, प्रतिमानों एवं मान्यताओं का निर्वाह करते हुए मानव हृदय की कोमल भावनाओं को जगाने एवं झकझोरने के निमित्त जितनी मारक क्षमता गीत-नवगीत में होती है उतनी क्षमता संभवतः छंदमुक्त कविता में हो ही नहीं सकती है। हमारे लोकगीत आज भी हमारी लोकसंस्कृति एवं लोकपरम्परा के वाहक हैं। यदि हम स्वतंत्रता आंदोलन का स्मरण करें तो पायेंगे कि आजादी के दीवानों का साथ गीतों एवं तरानों ने ही दिया था। यहाँ भी गीत की वाचिक एवं गेय परम्परा हमारे साथ रही है, जो हृदय एवं मस्तिष्क को मार्मिक एवं सहज भावनाओं से छूती रही है। 

मैंने नवगीतों में देश के दलित-आदिवासी एवं सर्वहारा वर्ग की उस समूची मानवता के दुख-दर्द को उकेरा है, जो सदियों से और आज भी दमन, अत्याचार, शोषण, छुआछूत, तिरस्कार, अपमान एवं अमानवीय सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनैतिक दुर्व्यवहार से जूझते हुए अपने अस्तित्व, अस्मिता, स्वाभिमान तथा सुखमय जीवन-यापन के लिए अपनी समस्त ऊर्जा के साथ संघर्षरत हैं। मैंने अपने इन नवगीतों में बिना किसी पूर्वाग्रह के बड़े खुले हृदय से वही 'कहा' है जिसे इस जनसमुदाय ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी 'सहा' यानि कि वंचित समाज के त्रासद जीवन की अनुभूत पीड़ाओं का एक लेखा-जोखा कहा जा सकता है। यदि मैं यों कहूँ कि मैंने अपने इन नवगीतों में दलित चेतना की अभिव्यक्ति की पहल करके एक 'गीतात्मक सौंदर्य शास्त्र' गढ़ने की ईमानदार कोशिश की है, तो अतिशयोक्ति न होगी।
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     || संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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कवि का नाम : श्यामलाल शमी
जन्म : 15 जून, 1935 ई.
ग्राम-एलमपुर, अलीगढ़ [उ.प्र.]
शिक्षा : एम.कॉम. बारहसैनी कॉलेज
अलीगढ़, आगरा विश्वविद्यालय।

प्रकाशन एवं प्रसारण : पाँखुरियाँ नोंच दीं, हर डगर संत होती है, नयी रोशनी एवं नया उजाला [बाल- गीत संग्रह] एवं 'जो सहा सो कहा' गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशित। गीतायन, अधर प्रिया, दहकते स्वर, आस्था के स्वर, ज्योति कलश, सादृश्य, समन्वय आदि काव्य-संग्रहों में गीत-नवगीत संगृहीत। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत प्रकाशित। 'क्षत्रप सुनें' काव्य- संग्रह यंत्रवत। आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ, अल्मोड़ा, इलाहाबाद तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ, भोपाल से साक्षात्कार के साथ गीत प्रसारित।

संपादन : 'संघर्ष के स्वर' [दलित-आदिवासी कवि- कवयित्रियों का वृहद काव्य-संकलन] संपादित। 'उत्तर प्रदेश रोजगार पत्रिका' प्रशिक्षण एवं सेवायोजन निदेशालय, लखनऊ उ.प्र.तथा श्रावस्ती विशेषांक लखनऊ का संपादन।

सम्मान : दसवाँ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य
(युवा मंडल) गाजियाबाद द्वारा वर्ष- 2002 में वरिष्ठ साहित्य-सर्जक,आश्वस्त संस्था उज्जैन द्वारा 1994 में कबीर काव्य-रत्न सम्मान से सम्मानित।

देहावसान : 12 फरवरी, 2019 ई.।

सम्प्रति :  उत्तर प्रदेश राज्य सेवायोजन के क्षेत्रीय सेवायोजन अधिकारी पद से सेवानिवृत्त उपरांत, जीवन के अंतिम क्षणों तक स्वतंत्र लेखन।
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सोमवार, 13 सितंबर 2021

कवि परिचय श्यामलाल शमी



|| संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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कवि का नाम : श्यामलाल शमी
जन्म : 15 जून, 1935 ई.
ग्राम-एलमपुर, अलीगढ़ [उ.प्र.]
शिक्षा : एम.कॉम. बारहसैनी कॉलेज
अलीगढ़, आगरा विश्वविद्यालय।

प्रकाशन एवं प्रसारण : पाँखुरियाँ नोंच दीं, हर डगर संत होती है, नयी रोशनी एवं नया उजाला [बाल-गीत संग्रह] एवं 'जो सहा सो कहा' गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशित। गीतायन, अधर प्रिया, दहकते स्वर, आस्था के स्वर, ज्योति कलश, सादृश्य, समन्वय आदि काव्य-संग्रहों में गीत-नवगीत संगृहीत। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत प्रकाशित। 'क्षत्रप सुनें' काव्य- संग्रह यंत्रवत। आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ, अल्मोड़ा, इलाहाबाद तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ, भोपाल से साक्षात्कार के साथ गीत प्रसारित।

संपादन : 'संघर्ष के स्वर' [दलित-आदिवासी कवि-कवयित्रियों का वृहद काव्य-संकलन] संपादित। 'उत्तर प्रदेश रोजगार पत्रिका' प्रशिक्षण एवं सेवायोजन निदेशालय, लखनऊ उ.प्र.तथा श्रावस्ती विशेषांक लखनऊ का संपादन।

सम्मान : दसवाँ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य (युवा मंडल) गाजियाबाद द्वारा वर्ष- 2002 में वरिष्ठ साहित्य-सर्जक,आश्वस्त संस्था उज्जैन द्वारा 1994 में कबीर काव्य-रत्न सम्मान से सम्मानित।

देहावसान : 12 फरवरी, 2019 ई.।

सम्प्रति :  उत्तर प्रदेश राज्य सेवायोजन के क्षेत्रीय सेवायोजन अधिकारी पद से सेवानिवृत्त उपरांत, जीवन के अंतिम क्षणों तक स्वतंत्र लेखन।
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श्यामलाल शमी जी के नवगीत साभार संवेदनात्मक आलोक समूह प्रस्तुति : वागर्थ

【1】
  || विद्रोह फूटेगा ||
  ----------------------

   आदमी कब तक
     सहेगा क्रूरता
एक दिन विद्रोह फूटेगा

चक्कियों से हड्डियों का
      चूर्ण बोलेगा
हाँ! कढ़ावों खौलता जो
       खून डोलेगा
    देखना, चलता रहा
      यदि इस तरह 
  धैर्य का यह बांँध टूटेगा

   बस्तियाँ फूंँकी गईं तो
     आह! निकलेगी
   ताप से संघर्ष की यह
       बर्फ पिघलेगी
   होश मत खो रे ज़माने
           बात सुन
कब तलक सुख-चैन लूटेगा ?

सौख्य-सुविधा के महाजन
      विष नहीं रोपो
     आम जनता के
 छिने अधिकार को सौंपों
    भूख का कंकाल
      दस्तक दे रहा
 सब जमा पूंँजी समेटेगा

      - श्यामलाल शमी
---------------------------------------------------------
【2】
|| बात बोलेगी ||
--------------------

 हम रहें या ना रहें 
फिर भी, हमारी बात बोलेगी
एक दिन तो दमन का
        प्रतिकार होगा ही

इस कहानी का कथानक
आदि से इति दर्द में डूबा है
आमजन भटकाव लादे
फिर रहा, कैसा अजूबा है ?
चल मजूरा चल ठिकाना
ढूंँढते हैं इस भुवन में खुद
द्वार पर हम -सा कोई
           प्रतिकार होगा ही

आपदा की बर्फ़ जब पिघले
आस्था की धूप निकलेगी
यह तभी होगा कि- जब
मजलूम दुनिया रंग बदलेगी
जब तलक असमान वितरण
साधनों का देश में होगा
दुख रमे, सुख-चैन
         बंटाढार होगा ही

पूँजियों ने तो इजाफ़ों के
किले चहुँओर गढ़ डाले
निर्धनों को, पर अभी
'दो जून रोटी' के पड़े लाले
चूसता जो खून जनता
इस सदन से ढूंँढकर लाओ
कोई तो मक्कार-
          दाढ़ी जार होगा ही
                •••

      - श्यामलाल शमी
---------------------------------------------------------
【3】
|| आर्तनाद ||
----------------

हाय गरीबी, बुन ना पाई
   बिना मूँज खटिया
बिन पैसों के पड़ी हुई है
   बाँस, फूँस-टटिया 

हाड़तोड़ मेहनत में अपना
     सारा तन सूखा
पड़ी भूख से पेट पपड़ियाँ
    कुनवा सब भूखा
रही सहालग में अबके फिर
    बिन ब्याही बिटिया

श्रम-धन मांँगा मिले 'धनी' से
      लट्ठ-लात-घूंँसे
हम भी पिटे, जाति को गाली
      रक्त-मांँस चूसे
  ऐसे निर्दय धनवालों को
      'मार जाय गठिया'

भोर भये पर गई शौच को
     जोरू 'ननुआ' की
 घेर खेत में लिया, दुष्टता
    मुखिया-बबुआ की
भागी इज्जत बचा, फंँसी थी
      मच्छी ज्यों कँटिया

शोषण-अत्याचारों का जग
     कब तक लूटेगा?
मत गरमाओ खून अधिक
     लावा बन फूटेगा
  जाने कब उद्धार करेगी
     राजनीति घटिया
             •••

       - श्यामलाल शमी
---------------------------------------------------------
 【4】
|| हम त्रिशंकु से ||
----------------------

हम त्रिशंकु से
घृणा पटल पर
टंँगे हुए हैं, अब अभी
ऊंँच-नीच के
रंग आदमी
रंँगे हुए हैं अब अभी

गांँव देश के
अभी अठारह-सदी
बीच जीते हैं
सड़ी मानसिकता में,
हम अपमान
घूंँट पीते हैं
प्रतिदिन पिटें
कहीं न कहीं, सच
ठगे हुए हैं, अब अभी

क्या मजाल है
'उनके' आगे
हम खटिया पर बैठें ?
देश स्वतंत्र हुआ
फिर भी 'वे'
अहम्-भाव में ऐंठें
जाति-व्यवस्था
के बाणों से
 बिंधे हुए हैं, अब अभी

'उनको' खलता
जूता-चप्पल
अच्छे वस्त्र पहनना
पढ़ना-लिखना
और कि अपने
अधिकारों को लड़ना
ढेढ़-ढोर
सम्बोधन पीछे
लगे हुए हैं, अब अभी 
             •••

       - श्यामलाल शमी
---------------------------------------------------------
【5】
|| दुखिया किसको टेरे ||
-----------------------------

 विषम परिस्थितियांँ, मुँहबाँये
     ठाढ़े चोर-लुटेरे
कोई रक्षक नहीं गांँव में
  दुखिया किसको टेरे

मेहनतकश की पीठ काम से
   झुकी, जर्जरी काया
बंशी बजे निठल्लों के घर
    भूखा 'रामलुभाया'
 भक्तों-ओझाओं के तो
  आडम्बर ढोंग घनेरे

पुनर्जन्म-फल, नरक-स्वर्ग भय,
    पाप-पुण्य के जादू
परमातम-आतम के नाहक
     पडो फेर ना दादू
मन में छूत-अछूत रमा तो
    काहे माला फेरे ?

एकलव्य-शंबूकों को अब
    धोखे नहीं परोसो
अहंकार को छोड़ कुलीनों
   समरसता को पोसो
चमरौटी भी खुली हवा ले
   सांँसें, सांँझ-सवेरे 
           •••

      - श्यामलाल शमी
---------------------------------------------------------
【6】
|| साखी बोल कबीरा ||
-----------------------------

 अपनी 'बानी' कह रैदासा,
अपनी 'साखी' बोल कबीरा

खरी-खरी
सच्ची, अक्खड़
पैनी, अनगढ़ -सी
लागलपेट बिना
सपाट पर,
मन की उजली
इस वाणी में निहित जागरण
ज्ञान-मार्ग का यही समीरा

ठोंक-ठोंक लिख
सच तो कड़वा
होता ही है
पर, संघर्षों
छुपा मुक्ति-पथ
होता भी है
पहले कब
साहित्य तुम्हारा मान्य,
दशा अब भी यह वीरा ?

'उनको' निर्धारित
करने दे
भाषा-शैली
मूर्धन्य ये लोग
चदरिया
जिनकी मैली
'रामविलासों' 'नामवरों' की
बहसों में मत उलझ फकीरा
              •••

        - श्यामलाल शमी
---------------------------------------------------------
【7】
|| जाति के बंधन तोड़ो ||
------------------------------

दे सकते हो तो
मानव-अधिकार दो

बुध समय की
तरह जाति के
बंधन तोड़ो
मानव एक समान
आज वह
नाता जोड़ो
वंचित-पीड़ित को तुम
प्यार-दुलार दो

एक समूची
क़ौम रहे
पशु से भी बदतर
कब तक यह
अन्याय रहेगा
इस भू पर
प्रेम, सहिष्णुता का
तुम उपहार दो

सोये थे दुखियारे
अब कुछ
जाग गये हैं
माना, उनके लक्ष्य
व अनुभव
नये-नये हैं
उनकी प्रगति न रोको
नव विस्तार दो
          •••
      - श्यामलाल शमी
---------------------------------------------------------
【8】
|| एकता का सूरज ||
-------------------------

नामचीन सत्ता-दलाल
अब क़ौमें बांँट रहे हैं
दलितों में अतिदलित
कौनसे, गिन-गिन छांँट रहे हैं ?

दलित-आदिवासी का जैसे,
बहुत भला कर डाला
पिछड़ों को भी तो 
अतिपिछड़ों के सांँचे में ढाला
थोड़ी खिसकी है जमीन
कर बंदरबांँट रहे हैं !

गोट यही इनमें न
एकता का सूरज उगने दो
कौड़ी पाँसा फेंक न
इनमें स्वाभिमान जगने दो
ओने-पौने दामों
बस्तर-जंगल काट रहे हैं !

बड़ी योजनाएंँ कागज पर
बड़े-बड़े हैं वादे
सब विकास लाभों को
चटकर जाते हरामजादे
कलुआ के बापू तो
अब भी जूते गाँठ रहे हैं
               •••

         - श्यामलाल शमी
---------------------------------------------------------
【9】
|| जाति न पीछा छोड़े ||
-----------------------------

चाहे हो भूकम्प
और चाहे
हो लहर सुनामी
जाति न पीछा
छोड़े अपना
ढोये सतत गुलामी

सामूहिक था
भोज मगर
प्रभुओं ने साथ न खाया
धर्म भ्रष्ट
आरोप हमारे
माथे पर चिपकाया
विपदा में भी
उच्च वर्ण है
छुआछूत अनुगामी

मुर्दों को भी
ऊंँच-नीच की
खाई, खंदक लाया
अलग बना
शमशान, क्योंकि
अपनी
अछूत थी काया
डसने बैठे
हाथ न डालो
यह सर्पों की बामी

पुनर्वास की
सूची में भी
नाम नहीं था अपना
हम झोपड़ियों
से वंचित
पक्के घर
उनको बनना
थोड़ी राहत राशि हमें
उनके गुर्को ने थामी

उठा ले गये
दलित नारियांँ
अनाचार
को बल से
तब क्या
छूत नहीं लगती थी
पूछे कोई इनसे ?
करें भयानक
पाप कि-
अत्याचारों के ये हामी
          •••

     - श्यामलाल शमी
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【10】
|| तुम क्या जानो पीर ||
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सहानुभूति औ'
स्वानुभूति में
बड़ा फर्क है भाई

तुमने कब
पत्थर तोड़े हैं
मैला ढोया
करी चमारी ?
नहीं तुम्हारी
फटी बिवाई
तुम क्या जानो
पीर हमारी
मेहनतकश की
मुफ्तखोर
खा जाते
यहांँ कमाई

लाठी-डंडे खाये
कब-कब
कहांँ बैठकर
जूते गांँठे ?
काढ़ी कब
खालें पशुओं की
खाये कब
गालों पर चाँटे ?
शोषण-गाथा का
यथार्थ, जहांँ
सबरी देह पिराई

इसीलिए कहता,
दलितों को
अपनी व्यथा-कथा
लिखने दो
करो नहीं
घुसपैठ यहांँ भी
बिना वजह
बहसें मत छेड़ों
मजलूमों के
इस लेखन में
सच की
खिली जुन्हाई
           •••

  - श्यामलाल शमी
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|| संक्षिप्त जीवन परिचय ||
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कवि का नाम : श्यामलाल शमी
जन्म : 15 जून, 1935 ई.
ग्राम-एलमपुर, अलीगढ़ [उ.प्र.]
शिक्षा : एम.कॉम. बारहसैनी कॉलेज
अलीगढ़, आगरा विश्वविद्यालय।

प्रकाशन एवं प्रसारण : पाँखुरियाँ नोंच दीं, हर डगर संत होती है, नयी रोशनी एवं नया उजाला [बाल-गीत संग्रह] एवं 'जो सहा सो कहा' गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशित। गीतायन, अधर प्रिया, दहकते स्वर, आस्था के स्वर, ज्योति कलश, सादृश्य, समन्वय आदि काव्य-संग्रहों में गीत-नवगीत संगृहीत। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गीत-नवगीत प्रकाशित। 'क्षत्रप सुनें' काव्य- संग्रह यंत्रवत। आकाशवाणी दिल्ली, लखनऊ, अल्मोड़ा, इलाहाबाद तथा दूरदर्शन केंद्र लखनऊ, भोपाल से साक्षात्कार के साथ गीत प्रसारित।

संपादन : 'संघर्ष के स्वर' [दलित-आदिवासी कवि-कवयित्रियों का वृहद काव्य-संकलन] संपादित। 'उत्तर प्रदेश रोजगार पत्रिका' प्रशिक्षण एवं सेवायोजन निदेशालय, लखनऊ उ.प्र.तथा श्रावस्ती विशेषांक लखनऊ का संपादन।

सम्मान : दसवाँ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य (युवा मंडल) गाजियाबाद द्वारा वर्ष- 2002 में वरिष्ठ साहित्य-सर्जक,आश्वस्त संस्था उज्जैन द्वारा 1994 में कबीर काव्य-रत्न सम्मान से सम्मानित।

देहावसान : 12 फरवरी, 2019 ई.।

सम्प्रति :  उत्तर प्रदेश राज्य सेवायोजन के क्षेत्रीय सेवायोजन अधिकारी पद से सेवानिवृत्त उपरांत, जीवन के अंतिम क्षणों तक स्वतंत्र लेखन।
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शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

ममता बाजपेयी के नवगीत


 गीत  1
मन रखने को मीठी मीठी बातें करता है 
अपनी ही बातों से बेटा रोज़ मुकरता है

ज्यों ज्यों बड़ा हुआ है  त्यों त्यों बढ़ी बीच की दूरी
 पीढ़ी का अंतर कह लो या इसे कहो मजबूरी 
खान-पान पहनावा बोली दृष्टिकोण बदले हैं
 समझाइश को तर्कों की राजधानी करता है
अपनी ही बातों से बेटा
रोज़ मुकरता है

जो मां पिता हुआ करते थे उसके लिए फरिश्ते 
आज उन्हीं से रेशा रेशा उधड़ रहे हैं रिश्ते 
आंखों को नदिया कर देता औ सपनों को पानी 
शब्दों की कैची से जब सम्मान कतरता है
अपनी ही बातों से बेटा
रोज़ मुकरता है

छूट गया घर द्वार नौकरी जब से बड़ी लगी है 
पैसा रुतबा सुविधाओं की अनबुझ प्यास जगी है 
देर रात तक जागा करता और देर से उठता 
लैपटॉप की सोहबत में ही वक्त गुजरता है
 अपनी ही बातों से बेटा रोज़ मुकरता है

एकाकीपन ढोते -ढोते नयन सांझ के छलके 
और पुतलियों में अनचाहे घिरने लगे धुंधलके 
 आशा और निराशा में संवाद हुआ करता है जितनी बात बढ़ाओ उतना दर्द उभरता है 
अपनी ही बातों से बेटा रोज़ मुकरता है

ममता बाजपेई
 गीत 2

राम के आदर्श पर चलना नहीं स्वीकार हमको सिर्फ उनके नाम की करते रहे जय कार हैं

राम पत्थर से तराशी एक मूरत भर नहीं हैं
या कि पन्नों पर उकेरी एक सूरत भर नहीं हैं 
राम मन के रावणों को जीतने की योजना हैं
 और अंतस में बिचरते द्वंद का परिहार हैं

राम तप हैं राम साहस त्याग भी वैराग भी
 नम्रता सुचिता सहजता सत्य भी अनुराग भी
 राम के रामत्व का तो अर्थ केवल चेतना है
 राम तो बस आचरण हैं धैर्य के आगार हैं

राम तो विश्वास भर हैं लक्ष्य का सामर्थ्य भी हैं
राम जीने की कला है जिंदगी का अर्थ भी हैं
 बीत कर बीता नहीं जो राम अनबीता समय हैं
 राम मग हैं राम युग हैं राम ही संसार हैं

है यहां पर कौन जिसने राम के मन को छुआ है
 राम के व्यक्तित्व को  लिखना कहां संभव हुआ है शब्द के वश में नहीं है भाव के अतिरेक लिखना 
आर्त हैं आंखें क़लम की वेदना के ज्वार  हैं

ममता बाजपेई
गीत 3
आँखों से नींदें उलीचने वाले दिन 
कहाँ गए उल्लास खींचने वाले दिन

दिन जो खट्टी अमियाँ की फाँकों   जैसे 
दिन जो महकी बगिया की साँसों जैसे
 दिन जो ठग्गी मिठुआ की बातों जैसे
 दिन जो रंगी फगुआ की तानों जैसे
धरती पर आकाश खींचने वाले दिन
 कहाँ गए उल्लास सींचने वाले दिन

दिन जो कोरे बिस्तर पर तकिया जैसे 
दिन जो छुप-छुप कर बाँची चिठिया जैसे
 दिन जो पैरों में दो-दो बिछिया जैसे 
दिन जो रेशम की पीली अंगिया जैसे
 बाहों में मधुमास भींचने वाले दिन 
कहां गए उल्लास देखने वाले दिन

दिन जो झीने  घूंघट की चितवन जैसे
 दिन जो रीझे दर्पण की धड़कन जैसे
 दिन जो कच्चे यौवन की ठनगन जैसे
 दिन जो भीगे मौसम की सिहरन जैसे 
पलकों में एहसास मींचने वाले दिन 
कहां गए उल्लास सीखने वाले दिन

ममता बाजपेई
गीत 4
शोख़ अंदाज़ में नर्म आवाज़ में 
रात भर बादलों ने कही शायरी

धड़कनों के सुनाए नए शेर कुछ 
भावना की तरह धार सा बह गया 
चूमकर पंखुरी  मौन कचनार की
 पल्लवों की नरम सेज पर ढह गया
 अंक में भर लिया मदभरी गंध को 
सरसराती हवा हो गई सहचरी

हाथ गहकर बरसती हुई बूंद का 
वो उतरने लगा झील में ताल में
 देख कर फिर धरा के नवल रूप को 
वो उलझने लगा रूप के जाल में 
बात मासूम सी कुछ कही इस तरह
 बात सुनकर धरा हो गई बावरी

साँस के तार सा दृष्टि के हार सा
 बंधनों में बंधा तो सरल हो गया
 शब्द के सार सा अर्थ के भार सा
 अंत में एक पूरी ग़ज़ल हो गया
 गुनगुनाने लगी बिजलियां फिर उसे
 प्रीति के राग से हर दिशा गुंजरी

ममता बाजपेई
 गीत 5
जब-जब किया समय ने घायल
 तब तब हमने क़लम उठाई

दबा हुआ था जो सीने में लगा कठिन दुनिया से कहना 
लेकिन कहने से भी ज्यादा मुश्किल था चुप रहकर सहना 
तब हमने कोरे पन्नों पर गीतों की यह फसल उगाई

संवेदन के हल कुदाल से मन की माटी को पलटाया थोड़ी पीड़ा थोड़ी खुशियां कुछ सपनों का खाद मिलाया 
 सींचा बेचैनी के जल से  बो दी उसमें ग़ज़ल रुबाई

जब गाया हमने तड़पन को सबको अपनी लगी कहानी मेरी पीर जगत की होकर बनी तरल नदिया का पानी धार धार बहती है अब तो घाट घाट फिरती बौराई

हमें पता ही नहीं चला कब गीतकार बन गए अचानक भूल गए मन की मृगतृष्णा दुख के चर्चे हुए अमानक हंस वाहनी के चरणों में अर्पित साँसों की शहनाई

 जब-जब किया समय में घायल 
तब तब हमने कलम उठाई

ममता बाजपेई
गीत 6
छाँव के नज़दीक आकर धूप ने कान में कुछ कुनकुनी बातें कहीं

बात सुनते ही न जाने क्या हुआ
 खिल गया मौसम बहारें आ गईं
 लाज की झरने लगी मंदाकिनी
 रूप की शीतल फुहारे छा गईं
 रीझते मनुहारते परिवेश ने प्रीति की घनघोर बरसातें कहीं

शब्द जब संवेदना में ढल गए
शेष  कहने को नहीं कुछ भी रहा 
आवरण झीने हुए अभिमान के
 दृष्टि ने फिर दृष्टि से सब कुछ कहा
 मौन भाषा के मुखर संवाद ने 
गुनगुनाती चांदनी रातें कहीं

सुर्ख सिंदूरी सुबह सा मन हुआ
 धुंध सी छटने लगी हर ओर से
 देह की देहरी लिखे रंगोलिका
 स्वप्न बतियाते नयन की कोर से
 कल्पनाओं के उमगते वेग ने
 धड़कनों की घात प्रतिघातें कहीं
ममता बाजपेई
[ गीत 7
फूटती संवेदनाऐं साध कर गीत रसवंती लिखे मैंने

पृष्ठ पलटे कुछ पलाशों के कुछ तहें कचनार की खोली चिट्ठियां बाँची गुलाबों की रातरानी साँस में घोली
 बाँह फागुन की गुलाबी थामकर
 गीत बासंती लिखे मैंने

पर्वतों की गोद जब छोड़ी अर्थ जाना तब किनारों का पनघटों  की प्यास पहचानी रूप ओढा चांद तारों का अधखुली पलकें ख़ुमारी आँज कर
 गीत लजवंती लिखे मैंने

उंगलियों के नरम पोरों में अनगिनत संभावनाएं थी
 पर हथेली की लकीरों में नाचने की भूमिकाऐं थीं बांसुरी से तार दिल के बांधकर गीत बैजंती लिखे मैने

विस्मयदिक बोध से रिश्ते प्रश्नवाचक हो गया जीवन पूर्ण वाचक चिन्ह से सपने संधि के विच्छेद सी तड़पन दर्द की सारी लकीरें लांघ कर
 गीत अरिहंती लिखे मैंने

ममता बाजपेई
गीत 8

फिर किसी संवेदना की चीख गूंजी फिर किसी उन्माद ने मूँछें मरोड़ी

एक दहशत सी हवा में घुल रही 
क्रूरता के नित्य नूतन सिलसिले हैं
 पोत कर कालिख़ समय के पृष्ठ पर 
कौन सा इतिहास हम रचने चले हैं 
फिर किसी मृगलोचना ने मान  खोया
 फिर किसी संताप ने  आंखें निचोड़ीं

बढ़ रहे बेखौफ अंधी राह पर 
सभ्यता के दिग्भ्रमित बागी क़दम
 छोड़ पावन प्रेम करुणा न्याय को
 जा रहे आखिर कहां किस ओर हम
 फिर किसी आराधना के हाथ काँपे
 फिर किसी विश्वास ने उम्मीद तोड़ी

क्यों हुए इतने जटिल व्यवहार में
 क्यों प्रकृति के हो गए प्रतिकूल हम
 ज़िन्दगी के पांव में गड़ने लगे
 क्यों हुए आखिर नुकीले शूल हम 
फिर किसी संचेतना ने प्रश्न पूछे
 फिर किसी एहसास में निश्वास छोड़ी

ममता बाजपेई
गीत 9

सुख ने सदा तरेरी आंखें दुख ने हमको बहुत सम्हाला

दबे पाँव आया चुपके से धीरे से कुंडी खटकाई
 भींच लिया भरकर बाहों में और पीठ पर धौल जमाई बैठ गया गलबहियाँ होकर आंखों को पुरनम कर डाला

पुष्प गुच्छ टूटे सपनों का थमा दिया मेरे हाथों में
 पूरी रात खुली पलकों से गुज़र गई बातों बातों में बेचैनी की कथा सुना कर दिया नींद को देश निकाला

फिर समझाए सूत्र समय के सिर पर फेरा हाथ प्यार से चेतन कर लो अपने मन को हो जाओगे मुक्त भार से उम्मीदों के द्वार बंद कर 
जड़ लो इच्छाओं पर ताला

दुख की सख्त कलाई गहकर 
 आने लगा रास अब  जीना धीरज के प्याले में भरकर सीख गए चिंताएं पीना जीवन का सारांश सिखाकर अंधियारे में भरा उजाला

ममता बाजपेई
गीत 10
नानी रख दो फोन चलो खेलें
सोफे पर नाना कमरे में फोन खेलती नानी 
अपनी ही दुनिया में गुमसुम कहते नहीं कहानी 
जान रहे दुनिया की बातें मुझसे है अननोन
 चलो खेलें

ऑफिस में पापा बिजनेस में बिजी बहुत है मम्मा 
उनकी अपनी है मजबूरी अपने छम्मा छम्मा
 गाड़ी बंगले का है शायद उनके सिर पर लोन
 चलो खेलें

खेल खिलौने तो ढेरों हैं लेकिन यार नहीं है 
बाग बगीचे मोर कबूतर के उपहार नहीं है
 एक फ्लेट में दो कमरों का छोटा सा है जोन
चलो खेलें

सुबह सवेरे की हड़बड़ में चल देता हूं पढ़ने
 होमवर्क का बोझ पीठ पर आंखों में है सपने 
थकी थकी लगती है अब तो सांसो की रिंगटोन 
चलो खेलें

ममता बाजपेई

मधुशुक्ला जी के नवगीत

गीत-(1)

स्वर मौसम के---

हैं बुझे- बुझे  स्वर मौसम के 
चल रही हवाएँ भी उदास। 
 चुपचाप खड़ा चौराहे पर 
मुँह लटकाये ये अमिलतास ।

उल्लास हीन इस जीवन के 
हो गये रंग सारे फीके 
क्या फागुन क्या बरखा, बसंत 
सारे दिन एक तरह दीखे 
घिर रही दिनोंदिन ये कैसी 
 मायूसी मन के आस-पास। 

अब कहाँ हवाओं से आती
 वो महुवाई मादक सुगन्ध 
खो गये कहाँ अमराई में 
गुंजित कोयल के मधुर छंद 
अब रंग कहाँ भर पाता है 
सपनों में ये गुमसुम पलाश ।

छलका करते थे रस कितने 
सखियों की हंसी ठिठोली में  
गाता था फागुन  झूम झूम 
संग होरियारों  की टोली में 
हो गया मौन धीरे-धीरे 
मुखरित त्यौहारों का हुलास। 

थे पान बतासो से मीठे 
रिश्ते देवर भौजाई  के  
चलते थे किस्से कई दिनों  
फिर भंग मिली  ठंडाई के 
खो गयी कहाँ वो नेह पगी 
गुझियों के भीतर की मिठास।  
       ------------------
गीत--(2)

(समय लेकिन चल रहा है )
       

जिन्दगी ठहरी हुई है,
समय लेकिन चल रहा है ।

मौन, ये गुमसुम दिशायें
 क्या न जाने सोचती हैं 
रात दिन अपने  सवालों 
के ही उत्तर खोजती हैं 
भटकती  इन बियाबानो 
में सुबह से शाम तक 
प्यास की आकुल चिरैया 
 पंख अपने नोचती है 
सफर है अब तक अधूरा 
और सूरज ढल रहा है ।

खनकते सिक्के पलों के 
हम खरचते जा रहे हैं 
कीमती दिन कोडि़यों के
मोल बिकते जा रहे हैं 
रह गये थे रेत से ,
दो चार दिन जो हाथ में 
मुट्ठियों से वक्त की पल छिन
 सरकते जा रहे हैं 
उम्र के सोपान चढ़ते 
बर्फ सा तन गल रहा है ।

मनचला शिशु भाग्य का 
मुझसे अकारण रूठ जाता 
देखती हूँ जिसमें खुद को 
वही दर्पण टूट जाता 
पकड़ती  हूँ  फिर वही 
तिनका सहारे के लिये 
भँवर में हर बार मेरे 
हाथ से जो छूट जाता ।
नित नयी काया बदल कर 
मोह का मृग छल रहा है ।

मौसमों में अब कहाँ वो रंग, 
खुशबू ,ताजगी है 
मन के रिश्तों में न दिखती 
वो सहजता, सादगी है 
खो गयी सुधियाँ सभी
 इन अनुभवों की  भीड़ में 
रह गयी मन को कहाँ 
अब किसी से नाराजगी है 
गोद में विश्वास के ये वहम
 कैसा पल रहा है ?
     -----------
गीत-3

(अब कहाँ रिश्ते बचे) 

बन गये हिस्से सभी 
किस्से कहानी के 
अब कहाँ रिश्ते बचे, 
वो आग पानी के 

डोर से जिसकी बँधे थे,
 गाँव-घर-आँगन 
साथ रहते थे सदा 
बनकर घनी छाजन 
पड़ गयीं ढीली बहुत
 विश्वास की कड़ियाँ 
जोड़ती थीं जो दिलों में 
सहज अपनापन 
घोलती थीं गंध जिनकी
 प्रीति साँसों में 
झर गये वो फूल सारे
 रातरानी के। 

माँग कर एक-दूसरे से 
आग लाते थे 
नित नये संवाद के 
रिश्ते बनाते थे 
आस्थाएँ-भावनाएँ 
 रीतियां कुल की 
साथ मिल -झुल कर
 सहजता से निभाते थे 
हो गईं हैं रेत भावों की
 सरस नदियाँ 
उड़ गये हैं रंग जैसे
 जिन्दगानी के। 

खो गये जाने कहाँ
मौसम उछाहो के ?
वो उमंगें, वो खुशी, 
वो रंग चाहों के 
लौटती थीं जिस डगर से
 खुशनुमा ऋतुएँ 
मुड़ गये जाने किधर
 वो मोड़ राहों के? 
गूंजते थे सुर जहाँ पर  
फाग, कजरी के 
चल रहे चर्चे वहाँ 
अब राजधानी के। 
अब कहाँ रिश्ते बचे 
वो आग पानी के। 
    ---‐-------
 गीत--(4)

[दुविधाओं की काई] 

मन तो चाहे अम्बर छूना 
पाँव धंसे  हैं खाई ।
दूर खड़ी हंसती है मुझ पर 
मेरी ही परछाई। 

विश्वासों की पर्त खुली 
तो खुलती चली गई 
सम्बन्धों की बखिया 
स्वयं उधडती चली गई 
चूर हुए हम स्थितियों से 
करके हाथापाई। 

इच्छाओं का कंचनमृग 
किस वन में भटक गया 
बतियाता था जो मुझसे 
वो दर्पण चटक गया 
अपना ही सुर अब कानों को
 देता नहीं सुनाई। 

परिवर्तन की जाने कैसी 
उल्टी हवा चली 
धुआँ-धुआँ हो गयीं दिशाएँ 
सूझे नहीं गली 
जमी हुई हर पगडंडी पर 
दुविधाओं की काई। 
   --‐----‐---‐--‐-
 गीत - (5)

(हम जंगली बबूल हो गये )

काँटे -काँटे देह हो गई, 
रेशा-रेशा फूल हो गये ।
राजपथों ने ठुकराया तो 
हम जंगली बबूल हो गये ।

किससे कहते पीड़ा मन की 
क्यों मैंने वनवास चुना है 
इच्छाओं को छोड़ तपोवन 
ये कठोर उपवास चुना है 
धारा के संग बह न सके तो 
नदिया के दो कूल हो गये ।

अनचाहे उग आते भू पर
नहीं किसी ने रोपा मुझको 
क्रूर समय ने सदा मरूथलों 
के हाथों ही सौपा मुझको 
ऐसे  गये तराशे हर पल 
पोर -पोर हम  शूल हो गये । 

रहे सदा ही सावधान हम   
मौसम की शातिर चालों से  
इसीलिये हैं मुक्त अभी तक   
छद्म हवाओं के  जालों  से   
इस जग ने इतना सिखलाया
 अनुभव के स्कूल हो गये । 

जब जब बढ़ती  तपन ह्रदय की
खिलते फूल मखमली पीले 
भरते एक हरापन मन में 
रंग धूप के ये चटकीले 
सुधियों ने जिसको दुलराया
 ऐसी मीठी भूल हो गये ।

भूल  सभी संताप ह्रदय के  
रहे  पथिक को  छाँव  लुटाते 
सांझ लौटते  बिहगो के संग 
गीत रहे जीवन के गाते 
ढाल लिया खुद को कुछ ऐसा 
हर  युग के अनुकूल हो गये ।
         ----------------
 गीत--(6)


(आओ इक पाती )

खोई- खोई सुबह लिखें 
अलसाई शाम लिखें 
आओ इक पाती रूठे 
मौसम के नाम लिखें।  

लिखे मेघ जो भेजे तुमने , 
आकर लौट गये 
प्यासे मन को  तनिक और 
तड़पाकर लौट गये 
कुछ छल गया अषाढ़ 
छल रहा कुछ  सावन-भादों 
साँस तोड़ती फसलों का 
आखिरी सलाम लिखें। 

तुम क्या रूठे, जीवन की 
सब खुशियाँ रूठ गईं 
शुभ सकुनो वाली कलशी 
हाथों से छूट गई 
सूख गयी पल में बगिया 
 हरियाये सपनों की 
चुका रहे भूलों का अपनी 
क्या-क्या दाम लिखें। 

पाँव जमाकर आ बैठी है 
धूप मुंडेरों पर 
ढूँढ़े रैन बसेरा पंछी 
 सूखे पेड़ो पर 
मौन हुआ संगीत तटों का
उजड़ गये मेले 
रेत-रेत होती नदिया के 
दर्द तमाम लिखें। 

कुशल क्षेम की चिट्ठी आये 
वर्षों बीत गये 
सोधी मिट्टी वाले सारे 
 रिश्ते रीत गये 
राह देखते धुँधलायी 
आँखें  सीवानों की 
लौटेंगे मन के गोकुल में 
कब घनश्याम लिखें ।
आओ इक पाती रूठे 
मौसम के नाम लिखें। 
  --------‐---------
 (7)

(हम ललित  निबन्ध हो गये )

 गीतों के  बन्द  हो  गये  
पोर -पोर छन्द हो गये. 

पलट रही पुरवाई  
पृष्ठ नये  मौसम के  
तोड़  रहे  सन्नाटे 
कोकिल सुर  पंचम के 
गहरे अवसादों में 
ठहरे संवादों में 
घोल रही  हैं  सुधियाँ 
राग नये  सरगम के  
प्रीति की यूँ बाँसुरी  बजी 
प्राण  घनानन्द हो गये. 

शब्द  लगे अखुँवाने  
फिर  सूनी शाखों में 
अर्थ लगे गहराने 
महुँआई आँखों में 
बौराये भावों में 
मौसमी  भुलावों में 
वायवी उड़ानों के 
स्वप्न लिये पाँखों में 
मन ने आकाश छू लिया 
हम ललित  निबन्ध  हो गये. 

भरमाते हैं  मन को 
मृग जल इच्छाओं के 
भटक रहे पाने को 
छोर हम दिशाओं के 
अनबूझी चाहों  के 
अन्तहीन राहों के 
सम्मोहन में उलझे 
जंगली हवाओं के 
खुद को खोजते रहे
 कस्तूरी गंध हो गये। 
 ‐‐---------

(8)

बोझ सदी  के ढोए 

विश्वासों की दरकी  गागर  
अब किस  घाट  डुबोए
सोच रही  धनिया  किसके 
काँधें  सिर  धर कर रोए. 

फुर्र हुए आशा  के  पंछी 
मौन हुईं सब डालें 
लौट रहीं अनसुनी पुकारें 
पत्थर हुये  शिवाले  
तार -तार तन की चादर 
क्या धोए  और  निचोए. 

कभी बाढ़ से जूझे  सपने  
और कभी  सूखे से 
 लिये खरोंचें मौसम की 
दिन हुये  बहुत  रूखे से 
बंजर  रिश्तों  में आखिर 
कितने  समझौते  बोए. 

आगे कुँआ  दुःखों  का 
पीछे चिन्ताओं की खाईं 
हुई न घर में शुभ  शकुनों की
बरसों से पहुँनाई
दो पल के जीवन की खातिर
बोझ सदी के ढोए.
सोच रही  धनिया  किसके 
काँधे सिर धर कर  रोए.

(9)

"अंगारे दिन"

देखे इन आँखों ने कितने 
तीखे -मीठे  खारे  दिन 
सोच रहे हैं गुमसुम  बैठे 
देहरी और दुवारे दिन. 


कभी  बर्फ -सी शीतल सिहरन 
कभी धूप -सी चुभन लिये 
क्या दिन थे  वे तितली जैसे 
कोमल -कोमल छुवन लिये. 
रखे हुये हैं  अब हाथों में 
ज्यों जलते अंगारे दिन. 

सरक रही है सर-सर, सर-सर
रेत  समय की मुठ्ठी  से 
गुम हो गये कहाँ सब अक्षर
आते-आते चिठ्ठी से 
पलट रहे हैं झोली अपनी 
क्या जीते, क्या हारे दिन. 

सूने तट पर खड़ा अकेला 
देता मन  आवाज किसे ?
बीते कल की बात हुई वो 
ढूँढे दर -दर आज जिसे 
लौट चले जब दूर क्षितिज को 
हारे थके बिचारे दिन. 
सोच रहे हैं गुमसुम बैठे 
देहरी और दुवारे दिन. 

(10)

"कथा -कहानी वाले"

कथा -कहानी वाले सारे
  जंगल लुप्त हुए
जाने कहाँ उड़ गये कौवे 
गिद्ध विलुप्त हुए. 

पौ फटते ही झुण्ड बना कर 
चिड़ियों का घर आना 
लिपे हुये आँगन  से  जाने 
क्या चुग -चुग कर खाना 
और नीम पर बैठ चोंच से 
पंखों को खुजलाना 
देख उन्हें मन का ताजे 
फूलों सा खिल- खिल जाना 
शेष अभी है जिनकी भीगी 
खुशबू साँसों में 
अंतर में वो  सहज  खुशी के 
झरने सुप्त हुए. 

याद रहा आ मुझे गाँव का 
वह वट वृक्ष पुराना 
मोर ,गिद्ध, तोते ,कौवों का 
था जो बड़ा ठिकाना 
कहते  थे रहती भूतों की 
इसमें कई टोलियाँ
दिन ढलते ही थम जाता 
उस पथ से आना -जाना 
मारा मंत्र किसी ने बरगद
 पल में ठूँठ हुआ 
और भूत भी जैसे 
सब शापों से मुक्त हुये 

सुनी हुई दादी से थी 
बचपन में एक कहानी 
एक राजा था, शीला -लीला 
थी उसकी दो रानी 
मिला दण्ड  ऐसा था 
 "लीला"को अपनी करनी का
बनी  नगर की "कौवा हकनी "
वो  पुर  की  पटरानी 
उड़ा ले गई क्या वो"  लीला "
  सारे कौवों  को
या फिर उनके मध्य नये 
समझौते गुप्त  हुये. 
जाने कहाँ उड़ गये 
कौवे गिद्ध विलुप्त हुए. 
‐‐-------------
गीत --(11) 

[बहुत दिनों से ] 

बहुत दिनों से गीत न मैंने कोई नया रचा 

बाँध सकें भावों को ऐसे शब्द नहीं  सूझे 
रहे  भेद मौसम की चालों के भी अनबूझे 
बिखर गयीं छन्दों की कडियाँ आपाधापी में 
अहसासों में पहले जैसा स्पन्दन नहीं बचा। 

सूखी नदी नेह की मन के पत्ते जर्द हुये 
संवादों की धूप बिना सब रिश्ते सर्द हुये 
बाहर पसरा हुआ दूर तक एक अबोला सा 
पर भीतर ही भीतर रहता अन्तर्द्वन्द्व मचा। 

समय सारिणी के कोल्हू में जुता हुआ हर दिन 
बोझ तले पिस रहीं थकन के आशायें अनगिन 
पंख नोचते हैं पिंजड़े में सपनों के पंछी 
रहा समय ऊँगली में मुझको बस दिनरात नचा। 

लगी झाँकने पानी से धुँधली परछाई सी 
छंटने लगी झील के जल से जैसे काई सी 
खोल गया यादों की कितनी एक साथ  पर्ते 
आज पुराने बटुये का इक मुड़ा-तुड़ा पर्चा। 
बहुत दिनों से गीत न मैंने कोई नया रचा। 
            -----------‐-----------



संक्षिप्त परिचय 

              मधु शुक्ला 

जन्मस्थान ----लालगंज, रायबरेली (उ. प्र. 
शिक्षा ------एम.ए.(हिन्दी एवं संस्कृत) 

लेखन की विधा - गीत, ग़ज़ल, कहानी समीक्षायें एवं साहित्यिक   आलेख ।

प्रकाशन --------देश की प्रायः सभी स्तरीय साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन भोपाल द्वारा निरन्तर कविताओं का पाठ व प्रसारण, देश के अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय काव्य मंचों   द्वारा काव्यपाठ , हिन्दी संस्थान लखनऊ,  साहित्य अकादमी देहरादून, एवं साहित्य अकादमी भोपाल के मंचों से एकल काव्य पाठ एवं आलेखों का वाचन ।
साथ ही नवगीत के नये प्रतिमान, शब्दायन,  गीत वसुधा, नवगीत का लोकधर्मी स्वरूप,  गीत सिन्दूरी-गन्थ कपूरी , सदी के नवगीत,  नवगीत का मानवतावाद,समकालीन गीत कोश  आदि नवगीत के प्रायः सभी उल्लेखनीय संग्रहों में सहभागिता ।

प्रकाशित संग्रह --------"आहटें बदले समय की " गीत संग्रह (2015)

सम्मान ----- अनेक सम्मानों से सम्मानित, जिनमें उल्लेखनीय हैं----------------------------                                                                                                   0 "आहटें बदले समय की " पुस्तक पर म. प्र. साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा दुष्यन्त कुमार सम्मान -2017
 
0 नटवर गीत सम्मान 2012 

0अभिनव कला परिषद  भोपाल द्वारा शब्द शिल्पी सम्मान 2017

0निराला साहित्य संस्था डलमऊ (उ. प्र.) द्वारा मनोहरा देवी कवयित्री सम्मान -2016 

0  म .प्र. लेखक संघ द्वारा कस्तूरी देवी महिला लेखिका  सम्मान  --2021

सम्प्रति --- व्याख्याता (संस्कृत ) 
       शासकीय कस्तूरबा उ. मा. वि. भोपाल( म. प्र.) 

सम्पर्क ------6-साई हिल्स, कोलार रोड, 
भोपाल -462042 म. प्र. 
मोबाइल ---09893104204 
Email -----madhushukla111@gmail.com

रमेश यादव के नवगीत






-
          कीर्तिशेष रमेश यादव जी के दो नवगीत
          ____________________________

         जरूरी नहीं है की कवि का परिचय दस-बीस पेज का हो और खाते में दस-पचास संग्रह और दो-चार आलोचनात्मक ग्रन्थ हों तभी वह चर्चा में आएगा।
                                                      चर्चा में लाता है कवि का मौलिक चिंतन और धारदार कथ्य आइए पढ़ते हैं कीर्तिशेष कवि रमेश यादव जी के ऐसे ही धारदार कथ्य के दो गीत ।
           प्रस्तुति
           वागर्थ 

1
संचय की क्षमता न रही तो त्यागी हो गए 

_____________________________

संचय की क्षमता न रही तो 
त्यागी हो गए
नंगा किया समय ने तो 
वैरागी हो गए

जीवन के कड़वेपन से हम प्यार नहीं करते
मन के सूरज का ढलना स्वीकार नहीं करते
सोने के पानी में हमने पीतल पाला है
हमने मरघट पर मधुवन का पर्दा डाला है

जहाँ व्यवस्था स्वारथ के पग 
पूज नहीं पाई
भृकुटि तानकर हम जनहित में 
बागी हो गए

पतझर की ऋतु में टेसू के फूल हो गए हम
और इस तरह मौसम के अनुकूल हो गए हम
निद्रा पर जागृति की तख़्ती टाँगें रहते हैं
निरुद्देश्य हैं पर जुलूस में आगे रहते हैं

अक्षमता के आँगन जबसे
राग 'द्वेष' जन्मा
इसी राग के अनु होकर 
अनुरागी हो गए

                              
      2                          

बहुत महँगा पड़ेगा

शहर के बारूद में रहना
साथ रखना फुलझड़ी चिन्तन
इस दिमागी धूप के वन में
रोपना यह चांदनी सा मन
                    बहुत महँगा पड़ेगा

पुज रहीं षड़यंत्र की नदियाँ
हस्तियाँ जिन में नहाती हैं
सभ्यता का नाम है  बँगला
कुर्सियाँ सूरज कहाती हैं
सामने सबके नहीं करना
मित्र, यह भागीरथी-पूजन
                     बहुत महँगा पड़ेगा

कोई पूछे तो पसीने को
सिर्फ़ काला धन बता देना
मुख़बिरों से कुछ नहीं छुपता
सत्य का सोना हटा देना
त्यागकर नंगे जुआघर को
मन्दिरों को सौंपना अर्चन 
            ‌          बहुत महँगा पड़ेगा

खिचड़ियाँ अंजाम तक पहुँचें
साजिशों का घी उबलता है
आँच की कोई कमी ना हो
इसलिए इनसान जलता है
नीचता की इस तिजोरी में
मत रखो ऊँचाइयों का धन
                       बहुत महँगा पड़ेगा
                               
                               
3
रूप की किताब का
हर पन्ना पुष्प-दंश
और मुझे पढ़ना है बार-बार

यह छुअन कबूतर के पंखों सी
ज्यों फूलों की कटार पर कोई
जगती है धूप मगर लगता है
अब तक क्यों चाँदनी नहीं सोई

प्यार का कशीदा हूँ
अधरों के रेशम पर
और मुझे कढ़ना है बार-बार

यह कुन्तल-वन, उस पर सूनापन
चन्दन के पात सरसराते हैं
रस के क्षण गंधवती साँसों पर
पारे की आत्मा झुलाते हैं

चित्र हो गया हूँ मैं
काजल की चौखट में
और मुझे मढ़ना है बार-बार

बाँहों पर झूलते-मचलते से
देहयष्टि के सुघड़ सवेरे हों
उस पल मुस्कान सहम जाती है
जिस पल नीलाभ नयन घेरे हों

संयम का हर प्रयास
मंत्र-मुग्ध विषधर सा
और मुझे लड़ना है बार-बार


                      --रमेश यादव, भोपाल.

डाॅ अरुण तिवारी गोपाल के आठ नवगीत

 आठ,नवगीत 

 नवगीत---1

 ,गीत  में ???होना चाहिए

गीत में क्या चाहते हो तुम, 
                    सुनाऊंगा, सुनो,ताली,बजाओ॰॰॰
दर्द से छीने हुए कुछ कहकहे हैं।
टेंटुआ दाबे ,,पुराने अजदहे हैं   ।।
भूख है, माला नहीं पर,गुन-
               -गुनाऊंगा ,सुनो, ताली बजाओ॰॰॰१

गाँव सब जंगल हुए, परधान,भिड़हा ।
आमजन बचता हुआ लाचार खरहा ।।
हो चुके आशीष ही धृतराष्ट्र 
                  गाऊँगा  ,सुनो, ताली बजाओ॰॰२

इस सियासी ढोर ने हर फसल खाई ।
जाम सीलिंग फैन ने अर्थी झुलाई ।।
बाप पागल हो नचे डिस्को, 
                 बताऊंगा, सुनो, ताली बजाओ॰॰३
नवगीत--2
शीर्षक--

रामधनी की दुल्हन काटे चढ़े क्वाँर की धान! 

बरसाती जमुना सी  , जूडा पूरा  खोले है   ।
फसल काटती फ़सल फसल से जादा डोले है ।।
हिरनी सहमे मेड़ पर खड़ा ताक रहा शैतान ॰॰1

धान नहीं वो खून पसीना नुनने आई है   ।
बिटिया का गौना,अम्मा की यही दवाई है ।।
नहीं मिले मजदूर अकेले जुटी लगाये जान॰॰२

कोंछे से ही पोंछ पसीना,बिजना कर लेती ।
छांह हमारी दुश्मन हमको कहाँ छांह देती ।।
हंसे पीठ पर दबा पेट है कितना बेईमान ॰3

बूढ़ा बाल रंगे भौजी कहकर खीसें बाये ।
सरके बिस्तर की बातों के नश्तर सरकाये ।।
रतीराम को दूर भेज मंगवाए बीड़ी पान ॰4
 
नवगीत--3 
 शीर्षक-कितना है मजबूर किसान ॰॰॰॰

राजनीति ये खाजनीति अपनी खुजलाओ तुम।
ऊंट सी बढ़ी बिटिया खातिर घर बतलाओ तुम।।
बेबस बाप न देख सकी मर गई किया कल्यान॰1

फसल बचे घर की फसलें कब तक दांव लगाये ।
माँ है धरती!फट जाये!!आसमान गिर जाये!!!
रात चिलम पी,यूँ बर्राया,सुबह निकल गये प्रान॰

मर महुआ के टपके धरती कहाँ फटा करती ।
दो कांधे,छै आंसू,और मिली घर की परती ।।
कफन वही चिथड़ा था जिसमें खांसखांस दीजान ।
नवगीत 4

 पवन बासन्ती---

पवन बासन्ती अगर तुम हो ?
                            सुनो,  हवा का विष हरो॰॰

गाँव का  प्रह्लाद खुद लोफड़  हुआ है। 
वो बुआ बिल्ली का खुद लोमड़ हुआ है।।
रात भर बस्ती जली,होली  कहाँ ?
                           करो ,कुछ तो करो॰॰॰१

फागुनी थिरकन हवा की तोड़ दी ?
तितलियों की आंख किसने फोड़ दी??
सूर वारिस शाह के पद गा रहे ?
                    कि  भव बाधा हरो॰॰२

स्वप्न खेलें रँग ,हकीकत स्याह है ।
पेट में होरी, अधर पर आह  है ।।
भूख उसको चौधरी  घर ले गई  !!
                     जियो, गर तो मरो !!॰॰॰३

नवगीत-5

 वोट दो,चाहे मरो सब, बात इतनी जान लो,
भाइयों बहनों!!!
है अघोरी भूख मेरी बिलबिला सकती नहीं ॰॰॰॰॰

आग बखरी में लगी आँगन बुलउवा चल रहा है। 
नाचती लंगड़ी बुआ को देख नउआ जल रहा है।।
चौधरी पगड़ी संभाले,टुन्न होकर, कह रहा है,,
भाइयों बहनों!!!
आग,तो चौपाल का छप्पर जला सकती नहीं ॰1

भेड़िये हैं, मेमनों को ,कर रहे हैं आज सानी।
लोमड़ी को कम न समझो,भेड़ियों की खास नानी
गाँव भर शमशान करकेगिद्ध हंस कर कह रहा है
भाइयों बहनों!!!
मुकुट को ये जन-चितायें,कुछ हिला सकती नहीं॰

गेरुए, नीले,हरे सौ सांप गर्दन कस रहे हैं। 
ये,करोना,एक से हैं,लाश गिन गिन हंस रहे हैं।।
लाशखोरी कुर्सियों के पांव चाटें और कहते, 
भाइयों बहनों!!!
नीति क्या?यदि आपदाअवसर दिला सकती नहीं 


नवगीत--6
 अब देखना!!!!
फिर बघर्रे ने बकरियों को सुलहनामा दिया,,
                                               अब देखना!!

घर गृहस्थी, हार खेती,में, चकरघिन्नी हुई।
इस करोना में मिटा सिन्दूर  मरघिन्नी हुई।।
फिर बिलौटे ने बया को मुफ्त बैनामा किया, 
                                            अब देखना!!

शौक फिर से बेंच छाँकड़ ,एक बोतल ले गई।
बेबसी फिर भूख के घर स्वयं आंचल दे गई।।
घुंघरुओं को मुकुट ने, रनिवास का झामा दिया, 
                                        अब देखना!!

लेखनी फिर लोक मन की पीर को दुत्कार कर।
भोगवादी,बजबजाहट,में नचे, अभिसार कर।।
मंच ,पन्नों, ने कमाई को,गज़ब, ड्रामा किया,
                                       अब देखना!!

नवगीत-07
खिन्न ह्रदय की आज बाँसुरी मौन हुई..
आँगन में बेमन शोरों की भीड़ हुई..
संवेदन के अर्घ्य चढाऊँ मैं किसको,
घर की तुलसी नस्ल बदलकर चीड़ हुई..

छुन्नी मुन्नी ओढे चुन्नी ना घूमे,
बैठ बरोठे कोने मोबाइल चूमे..
तडी़ मार,अक्कड़ बक्क्ड़,आइस पाइस,
भूले,छुन्ना,नीली फिल्मों में झूमे..
घर में सम्बन्धों की छत्तें ध्वस्त हुईं,
बस आँगन में दीवारों की भीड़ हुई..१.संवेदन के..

आसों बुढी़ गैया भैया बेक गये.,
तब से अम्मा बहुत दुखी हैं जाने क्यों..
कहती हैं अब बडे़ हो गए सब बच्चे,
पुरखों को,उनकी बातों को माने क्यों..
बूढा़ नीम बहुत रोया सबने देखा,
खूँटे की बछिया,को टीसों हीड़ हुई..२..संवेदन के..

जीवन बाजारू रिश्ते रुजगारी हैं,
चुम्मा चुम्मा वेद रिचा पर भारी हैं..
विश्वासों में तके बघर्रा बैठा है,
आमन्त्रण लाक्षागृह ओढे़ भारी हैं..
प्रगति हुई ऊँची जैसे स्कर्ट हुई है,
बहुत स्वस्थ है दुनिया बस गुम रीढ़ हुई..३
संवेदन के.
                    ----डॉ.अरुण तिवारी "गोपाल"

नवगीत--8


फोन भर दुनिया, हैं, सांसें, जब तलक पेमेण्ट हैं।
                              हर ओर डेवलपमेंट हैं!!

वेद पीडीएफ खुली,संग अप्सरा का एड था।
ॐके संग,स्क्रीन पर, सेनेटरी का पैड था ।
ज्ञान-भक्ति-प्रेम की ये सोल के काॅन्टेन्ट हैं ,,
                                तप बहुत अर्जेन्ट हैं!!

पुस्तकें बूढ़ीं,अभागे मन लिये,घूरे गईँ। 
सीढ़ियाँ खुद ही उतरकर,वेब-कंगूरे गईँ।।
पुस्तकालय नग्न, कपड़े,ऐप के पेटेण्ट हैं,,
                           व्यास अब मर्चेंट हैं!!

अब किसी अभिमन्यु को गर्भस्थ पारायण कहाँ। 
आज जीवनयुद्ध बीहड़तर हुआ सबको यहाँ।।
आनलाइन अर्जुनों के कृष्ण ही सरवेण्ट हैं,,
                          मठ हुए कान्वेंट हैं


डाॅ अरुण तिवारी गोपाल 
8299455530
aruntiwarigopal@gmail.com


परिचय
_______


 नाम-डाॅ अरुण तिवारी गोपाल 
उपनाम-गोपाल 
शिक्षा-एम एस सी(भौतिकी), एम ए        
       ( हिन्दी ,संस्कृत ), पी एच डी, नेट,
जन्मदिन-29अगस्त,          
           1973, ग्राम- कुढ़ावल ,पो -देरापुर,जिला -           -कानपुर देहात
व्यवसाय-अध्यापन 
कृतियाँ-उत्तरछायावादी काव्य धारा (523पृष्ठ का,शोध ग्रन्थ,2009),पसीजे तुम नहीं क्यों (नवगीत/गीत संग्रह, 2012),तुलसीदास के निराला और मानसमेरु के मंजुल(समीक्षा कृति,2011),साहित्य की असाहित्यिक गतिविधियां(निबंध संग्रह),सुमिरन(चुने हुए छायावादी गीत अद्यतन),द अन्डरलाइन पत्रिका के गीत  विशेषांक) का सम्पादन ,विभिन्न राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में नवगीत, गीत, गजलें, लेख, समीक्षा, समालोचना के शताधिक पत्रों में उपस्थिति। 

सम्मान/उपाधियां-1-पद्मेश प्राच्य विद्यापीठ,कानपुर द्वारा, 1994,'दुर्गा प्रसाददुबे'पुरुष्कार महामहिम राज्यपाल श्री मोतीलाल वोहरा जी के कर कमलों से। 
2-पारथ प्रेम समिति उरई द्वारा,' गीत ऋषि' सम्मान 2003
3-औरैया हिन्दी प्रोत्साहन निधि द्वारा 2009में, 
4-मानस संगम कानपुर द्वारा, 2017में 
5-'संस्कृति वाचस्पति '-कालिदास अकादमी दिल्ली से, 16-12-17को 
6-'प्रमोद तिवारी स्मृति सम्मान'महाकवि सारंग जी की संस्था, दीपांजलि से,4/8/18
7-उन्नाव की शब्दगंगा संस्था द्वारा 'शब्द साधक'सम्मान। 
8-विवेक भारती'की मनदोपाधि,2020,गोला,खीरी
प्रभृति संस्थाओं द्वारा अन्य पचासों सम्मान, पर असली सम्मान तो सृजन की प्रेरणा है।
सम्पर्क सूत्र-117/69,तुलसीनगर, काकादेव, कानपुर नगर,208025
aruntiwarigopal@gmail.com