मंगलवार, 7 सितंबर 2021

महेश कटारे सुगम के नवगीत

 नवगीत
          महेश कटारे सुगम

जब से सुना है 
आ रहे मेहमान 
हूँ बहुत हैरान

भूखा आटे का कनस्तर
माह की बूढ़ी अवस्था 
तेल, घी, मिर्ची सभी 
सामान की बिगड़ी व्यवस्था
आखिरी साँसे समेटे
जी रही मेरी गृहस्थी 
खा रहा परिवार मेरा
आजकल हर चीज सस्ती 
खुश नहीं हूँ
लग रहा है 
आ रहे शैतान
हूँ बहुत हैरान


गर्भिणी अर्धांगिनी का 
हो रहा है आम का मन 
दो दिनों से तप रहा है 
पुत्र का भी तोतलापन 
छन गई है शर्ट मेरी
पेंट भी जर्जर हुआ है 
पीठ चप्पल की घिसी है 
कर्ज फिर भी अनछुआ है
 जानता हूँ किंतु फिर भी 
बन रहा अनजान
हूँ बहुत हैरान 

आगमन जब है सुनिश्चित
तो खिलाना ही पड़ेगा
खूब बेमन ही सही 
सामान तो लाना पड़ेगा 
बढ़ गई सामर्थ्य से 
ऊपर ये मेरे सर उधारी
खर्च के दिन चढ़ रहे हैं 
कर्ज़ के हैं पाँव भारी 
दो मुझे
कुछ बेच आऊँ
व्याह की पहचान
हूँ बहुत हैरान

2
 नवगीत

 रोज़ ऐसी शाम आती 

देहरी की पीठ पर बैठा हुआ 
अर्धांगिनी का सुर्ख चेहरा 
भी बहुत ही अनमना था
आंख की त्योरी चढ़ी 
कुछ क्रोध का कोहरा तना था 
लाख समझाया 
कि दफ्तर में बहुत ही काम है
किंतु वह मानी नहीं उखड़ी हुई सी गुरगुराई
बोल कुछ निकले नहीं पर 
मन ही मन में बुदबुदाई
आंख से आंसू की धारा बह गई
गिर गई आंचल में आकर
सिरफिरा उधम मचाती
रोज ऐसी शाम आती ....,

पूछा कारण 
तो बताया जिंदगी भर आपने
बस धोंस दफ्तर की दिखाई
रोती गुड़िया कॉपियों को 
खत्म मुन्ने की दवाई 
चार दिन से शक्कर का 
एक भी दाना नहीं है 
सुबह नौ से रात के दस तक
ये कैसी नौकरी है 
घूमने की चाह बच्चों की
जवां होकर मरी है 
पापा पापा रट लगा कर
तंग करते 
आप क्या जानो मैं उनको
पीट कर कैसे सुलाती 
रोज ऐसी शाम आती...... 

3
नवगीत 

आज है रविवार 
-------------.

आज है अवकाश पर 
परिवार की हर इक समस्या 
मूक मुंह बाए खड़ी है 
लकड़ियां लाना पिसाना
और जाने काम कितने 
ज़िन्दगी भर हड़बड़ी है 
रोज़ से भी बोझ का गट्ठा बड़ा है 
और कब तक ढो सकूंगा भार
आज है रविवार ......................

रोज़ ही साँसें थकी मांदी
जमुहाई पर जमुहाई 
शाम को घर लौटतीं हैं 
नन्हे मुन्नों की 
शिकायत पूर्ण भाषा तोतली सी भी 
मेरा दम घोंटती है 
रोज़ कल की अनचुकाई किश्त सी 
कर नहीं पाता कभी भी प्यार 
आज है रविवार ...........................

मांग का हर माह
पत्नी के लिए आश्वासनों के
सुख दिखाकर ही बितांना 
ली गयी पिछली उधारी के 
समूचे बिल चुकाकर 
अंत में भखुरी हुई जेबें दिखाना 
संघर्ष की झूठी शहों पर जीत जाना 
जीत कर भी हारता हर बार 
आज है रविवार ........................

4
नवगीत 

वे कहते हैं 
लोकतंत्र है अनुशासन है 
कैसे मानें 

बढे आ रहे 
घने अँधेरे खुनी पंजे 
कसते चले जा रहे 
भय के और शिकंजे 
वे कहते हैं 
पूर्ण सुक्षित घर आँगन है 
कैसे मानें 

श्रम की किस्मत में 
अतृप्ति का राज काज है 
पूँजी के माथे पर 
सुख ,समृद्धि ताज है 
वे कहते हैं 
सुखी देश का जन गण मन है 
कैसे मानें 

5
 नवगीत 

देखी देखी हमने देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 

बैठी देखी चौपालों में 
हाथों के उभरे छालों में 
रोज़ रोज़ के जंजालों में 
चावल औ रोटी ,दालों में 
करती हुई मज़ूरी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 
मन से डूबे अवसादों में 
घायल होते संवादों में 
जुड़े करों की फरियादों में 
भिक्षा जैसी इमदादों में 
बिन मोती की सीपी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 
देखी सब्ज़ी के थैलों में 
देखी बाज़ारों मेलों में 
बेकसूर कैदी जेलों में 
ठुसे जानवर से रेलों में 
सह जाने की खूबी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 
देखी भोजन की थाली में 
चिथड़े पहने घरवाली में 
माँ,बहिनों वाली गाली में 
बीमारी और बदहाली में 
बेहद ही पथरीली देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 
देखी है रूखे बालों में
फ़टे हुए चिथड़े गालों में 
बिन दरवाज़े ,बिन तालों में 
खाली कुठिया में आलों में
फ़ैली बेतरतीबी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 
 देखी छप्पर औ छानों में 
देखी घुने हुए दानों में 
देखी देहरी ,दालानों में 
देखी खोती पहचानों में 
पसरी हुई गरीबी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 
देखी है दुनियादारी में 
हर नाते रिश्तेदारी में 
पाने की मारामारी में 
वफादार में गद्दारी में 
सारी दुनिया डूबी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 
सीमाओं पर लड़ते देखी 
शिखरों पर भी चढ़ते देखी 
कोठी,बंगले गढ़ते देखी 
दुःख,दर्दों में सड़ते देखी 
पर खुशियों से दूरी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी

6
 नवगीत

अम्मा

घर में नहीं अकेली अम्मा
तुलसी का घरुवा
गुटका रामायण का 
भगवानों से सजा हुआ इक सिंहासन
एक दुधारू गैया 
चितकबरी बिल्ली 
कच्चा सोंधा लिपा पुता घर का आंगन 
रुद्राक्ष की माला
चंदन का टीका
प्रेमभाव के रंग बसाये सांसो में
सूर्यदेव को अर्घ्य 
शाम संजा बाती 
तिथियों के उपवास बसे विश्वासों में
हिलमिल रहते साथ चैन से
सब की बनी सहेली अम्मा
घर में नहीं अकेली अम्मा 


बेटों को वरदान
बहू को आशीषें 
दुआ मांगती रहती है भगवानों से
छोड़ अकेला गए 
नहीं कुछ इसका गम
प्यारे हैं फिर भी वह ज्यादा प्राणों से
कितना कुछ खोया
कितना कुछ पाया है
साफ-साफ सब कुछ लिक्खा है यादों में
उस घर से अब तो 
उनकी अर्थी निकले 
ऐसी है एक साध अधूरी साधों में 
आई थी जिस घर में बनकर
 दुल्हन नई नवेली अम्मा
 घर में नहीं अकेली अम्मा


खुशियों के पैबंद 
मुसीबत की कीलें 
भाव रहित चेहरे को नहीं बदल पाते
दर्दों के एहसास 
अभावों के तूफां
भावों के आंगन में नहीं टहल पाते 
अनुभव की चादर
मन की हरियाली से 
खुश रहने की भाषा उनको  भाती है 
रिश्तों वाली पौध 
प्रेम के पानी से
सिंचित कैसे करें नीति येआती है 
झुकी कमर ले तनी खड़ी है 
इक अनबूझ पहेली अम्मा 
घर में नहीं अकेली अम्मा

7

द्वार पर है गंदगी की टाल 
और पिछले द्वार पर गंदी गलीमें 
सूअरों की मिल्कियत है

धूपबत्ती का धुआँ
एक कोने को बहुत कुंठित हुआ महका रहा था 
और पिछले सींखचों से 
गोद में दुर्गंध लेकर 
वायु झोंका आ रहा था 
कह रहा था हर महक बहकाव है 
और यह दुर्गंध ही बस आजकल की जिंदगी की असलियत है ..................?.. 


रोग के बैक्टीरिया 
घर को न जाने क्या समझ स्वच्छंद होकर घूमते हैं 
पीर के ऊंचे शिखर 
जिंदगी के आसमां को 
रात दिन ही चूमते हैं 
दर्द बोला आंसुओं से
मैं बहूँ तुम भी बहो
घाव अपनी वल्दियत है.......


परिचय



नाम-महेश कटारे "सुगम"
जन्म.. 24 जनवरी 1954 में ललितपुर जिले के पिपरई गाँव में.

प्रतिष्ठित हिंदी पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित

प्रकाशन..... कहानी, कविता, गीत, नवगीत, बाल साहित्य,ग़ज़ल और बुंदेली ग़ज़ल के दो दर्जन से अधिक संग्रह प्रकाशित.

सम्मान..... हिंदी अकादमी दिल्ली के सह भाषा सम्मान सहित अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं द्वारा सम्मानित.

उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों में सम्मिलित.

पता-काव्या चंद्रशेखर वार्ड, माथुर कालोनी बीना, जिला सागर, म. प्र. पिन 470113

मोबाइल नम्बर-9713024380

मेल आईडी- prabhatmybrother@gmail.com

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