गुरुवार, 9 सितंबर 2021

लोक, राग और प्रतिरोध की अद्भुत कवयित्री हैं डाॅ. शान्ति सुमन : राजा अवस्थी


प्रख्यात नवगीत समीक्षक राजा अवस्थीजी ने  डॉ.शान्ति सुमन जी के व्यक्तिव और कृतित्व पर यह आलेख वागर्थ के लिए विशेष रूप से तैयार किया है।एतदर्थ कविवर राजा अवस्थी जी का समूह वागर्थ और ब्लॉग वागर्थ कृतज्ञमन से आभार व्यक्त करता है।
              विशेष : यह आलेख वागर्थ की सामग्री है अतः इसे हम  ब्लॉग में संरक्षित कर रहे हैं। इस सामग्री का अन्यत्र उपयोग वर्जित है।
सम्पादक 




  लोक, राग और प्रतिरोध की अद्भुत कवयित्री हैं    
                   डाॅ. शान्ति सुमन 
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                    गीत जो आदिम काव्य रूप भी है, जो अभी अपने स्वर्ण काल में ही था और महाप्राण निराला, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत जैसे शिखरस्थ सृजनधर्मी मनीषी गीत लिख रहे थे। इसी समय निराला की ही रचनाओं के सिरे पकड़कर गीत कविता को कविता के हाशिए पर धकेलने के षड्यंत्र शुरू हो गए। निराला जी भी इस बात को जान-समझ चुके थे। यह यूँ ही नहीं हुआ कि बीसवीं सदी का पांँचवाँ दशक बीतते-बीतते निराला जी ने मुक्त छंद में लिखना बंद कर दिया। फिर उन्होंने केवल गीत ही लिखे। यही वह समय था, जब मुक्तछंद की चेतना, कविता के नए स्वर, नई अनुभूति के साथ निराला जी के नई कहन के गीत आ रहे थे। एक तरफ प्रगतिवादी कविता, प्रयोगवादी कविता एक लय से आबद्धता के बीच लय से विचलन की ओर बढ़ रही थी, तो दूसरी ओर गीत एक नई कथन भंगिमा और लोक सम्पृक्ति के साथ व्यष्टि केंद्रित अभिव्यक्ति से समष्टि केन्द्रित  अभिव्यक्ति के लिए बेचैन था। डॉ. शिव बहादुर सिंह भदौरिया, ठाकुर प्रसाद सिंह और राजेंद्र प्रसाद सिंह जैसे गीतधर्मी कवि ही नहीं, तारसप्तक के कवियों के गीतों में भी यह बेचैन विचलन देखा जा सकता है। यह अलग बात है कि वह सब लोग इस लोकसम्पृक्त बेचैनी को समर्थ होते हुए भी सँभाल नहीं पाए या यह कहें कि गीत कविता की संभावनाओं का कमतर आकलन करने के कारण एक सुविधाजनक मार्ग अपना लिया। किंतु, कुछ लोग थे, जो इस लोकधर्मी काव्ययात्रा पर निरंतर चल रहे थे। परिणाम का प्रथम पुष्प 1958 में  'गीतांगिनी' के रूप में सामने आया। 
                    किसी भी स्थापित विधा के कुछ बदले हुए रुप में रूपांतर और फिर उस रूपांतरित विधा के स्थापित होने में एक लंबा समय लगता है। गीत कविता के नवगीत कविता के रूप में रूपांतरित होकर स्थापित होने में भी लंबा समय लगा। इसमें जिन नवगीत रचना धर्मियों का महत्वपूर्ण योगदान है उनमें प्रख्यात नवगीत कवयित्री शांति सुमन का नाम 'नींव' और शीर्ष के भी कुछ गिने-चुने रचनाकारों में शामिल है। डॉ शिव बहादुर सिंह भदौरिया, ठाकुर प्रसाद सिंह, डाॅ. जीवन शुक्ल, उमाशंकर मालवीय, डॉ उमाशंकर तिवारी, रामचंद्र चंद्रभूषण, भगवान स्वरूप सरस, विद्यानंदन राजीव, देवेंद्र शर्मा इंद्र, मधुकर अस्थाना, कुमार रवींद्र, अनूप अशेष, अमरनाथ श्रीवास्तव, नचिकेता, शलभ श्रीराम सिंह, मुकुट बिहारी सरोज, महेश अनघ, राम सेंगर, माहेश्वर तिवारी आदि के साथ विशेष रूप से डॉ शांति सुमन जी का नाम कई कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है। यद्यपि ये सभी भिन्न-भिन्न ढब और ढंग के बड़े नवगीत  कवि हैं। 
                    जिन दिनों नवगीत-कविता पर गद्य कविता के पैरोकार प्रहार कर रहे थे। उपेक्षित कर रहे थे, तब गीत कविता और वह भी नवगीत कविता के पक्ष में खड़े रहना किसी जोखिम से कम नहीं था, साथ ही यह बहुत चुनौती भरा भी था। दिनेश्वर प्रसाद सिंह 'दिनेश' कहते हैं - "ऐसे में बिहार के एक छोटे शहर मुजफ्फरपुर से नई उम्र की एक कवयित्री ने अपने को बेहिचक दाँव पर लगाया और नवगीत के पक्ष में उठ खड़ी हुई। वह शांति सुमन ही थीं, जिन्होंने समय के अनुसार अपनी गीत रचना की जमीन बदलकर जनवादी गीतों की रचना भी की और चर्चित भी हुईं। 
                    एक आलेख में डॉ. शांति सुमन जी पर संक्षिप्त में भी कुछ कह पाना बहुत मुश्किल काम है, क्योंकि ये वह शांति सुमन हैं, जिनके यहाँ नवगीत कविता की सारी विशेषताएँ मिलती हैं। उनके नवगीत जनवादी गीतों के लिए चर्चित हुए किंतु आत्मीय राग आत्मीय संबंध और उनमें पगी पूरी लोक संवेदना से भरे नवगीत विद्युत समाज के साथ-साथ शेष भारतीय समाज में जन-जन के द्वारा स्वीकारे और सराहे गये। शांति सुमन नवगीत कविता को जीने वाली कवयित्री हैं। अपनी निष्ठाओं के लिए चुनौती स्वीकारने और अन्तर की अनुभूति को शब्द देने के जोखिम भी उठा लेने वाली कवयित्री हैं। कविता में जहांँ एक ओर महिषी महादेवी वर्मा थीं, वहाँ और भी बहुत सारी कवयित्रियाँ रहीं होंगी, जो मंचों पर कविता पढ़ती रहीं होंगी, किंतु नवगीत कविता जैसी उपेक्षित की जा रही काव्य धारा के साथ आना और उसके साथ बने रहना बड़े जीवट का काम था। जीवट के साथ मैं इसे डाॅ. शांति सुमन की समर्थ पारखी दृष्टि के सानिध्य में लिया गया निर्णय मानता हूँ। नवगीत कविता जैसी सामर्थ्य से भरी कविता को जीना और उसके साथ बने रहना, पूरे देश में श्रोताओं तक उसके आस्वाद को पहुंचाना! वह भी जनवादी वैचारिक दृष्टि के साथ! सामान्य रचनाकार के वश की बात नहीं थी। यह शांति सुमन ही कर सकती थीं। उन्होंने किया भी, और वह भी तब, जब उनके साथ मंच पर खड़ी दिखने वाली कोई दूसरी नवगीत कवयित्री दूर-दूर तक नहीं थी। शांति सुमन सच में ही नवगीत कविता की पहली कवयित्री हैं। 
                    अपनी रचना-धर्मिता पर शांति सुमन एक जगह लिखती हैं कि, "समय की तमाम चुनौतियों और संघर्षों को अपने गीतों में रेखांकित करती हुई मैं अपनी रचनाधर्मिता में सक्रिय हूंँ। संघर्षों से जूझने के लिए मेरे गीत मेरे औजार हैं। शोषण के खूनी जबड़ों को तोड़ना जहांँ इनका लक्ष्य रहा, वहीं जनता के हिस्से की धूप, उनके उजास, उनकी हरियाली, उनके बसंत, उनके सुख-चैन, उनके खेत-खलिहान, उनके घर-पास- पड़ोस, उनकी हंसी, उनकी बची हुई जिंदगी को बचा लेने की अनन्य आकांक्षा भी इन गीतो में भरी हुई है।" इस वक्तव्य की रोशनी में शांति सुमन जी की नवगीत कविता को समझने का उपक्रम किया जा सकता है। उनकी ही नहीं, बल्कि पूरी 
नवगीत कविता को समझने के सूत्र इस वक्तव्य में तलाशे जा सकते हैं। 
                    आमजन हर अन्याय, शोषण और दमन का प्रतिकार करने की भावना से गले तक भरा होता है। शुभचिंतकों की शुभचिंता के छद्म को भी जानता है और यह बात लोक-समाज की नब्ज पहचानने वाली कवयित्री डॉक्टर शांति सुमन अच्छी तरह जानती हैं, तभी तो वह लिखती हैं, कि     
       भीतर-भीतर आग बहुत है 
       बाहर तो सन्नाटा है 
       घर तक पहुंचाने वाले वे 
       धमकाते राहों में 
       जाने कब सींगा बज जाए 
       दिल चुभे बाहों में 
       कहने को है तेज रोशनी 
       कालिख को ही बाँटा है 

                   डाॅ. शांति सुमन वह नवगीत कवयित्री हैं, जिन्होंने लंबे, बहुत लंबे समय तक मंचों का उपयोग जन-जन तक गीत कविता को पहुँचाने और बचाने के लिए किया। कवि सम्मेलन के मंचों पर मुकुट बिहारी सरोज, उमाकांत मालवीय, माहेश्वर तिवारी, नचिकेता आदि कुछ नामों के साथ जो एक स्वर नवगीत कविता की धूम मचा रहा था, वह डॉ. शांति सुमन का ही स्वर था। यहाँ भी नवगीत कविता का एक ही स्त्री स्वर सुनाई पड़ता है। आज मंचों पर डॉ. कीर्ति काले सक्रिय हैं किंतु वे पूरी तरह मंचों को ही समर्पित हो चुकी हैं। आज नवनीत कविता में डाॅ. पूर्णिमा वर्मन, अरुणा दुबे, मधु प्रधान, डॉ रंजना गुप्ता, मंजू लता श्रीवास्तव, शीला पांडे, भावना तिवारी, मधु शुक्ला, शशि पुरवार, गरिमा सक्सेना, अनामिका सिंह, नूपुर झा आदि अच्छे नवगीत लिख रही है, किंतु छठवें - सातवें दशक के आसपास स्त्री रचनाकार के रूप में केवल डॉ शांति सुमन ही नवगीत कविता लिख रहीं थीं। और, इसे सामान्य घटना की तरह नहीं देखा - लिखा जा सकता। यह एक उल्लेखनीय घटना थी और नवगीत कविता के इतिहास में इस बात का उल्लेख सदैव किया जाएगा। 
                    डाॅ. शांति सुमन का जन्म , पालन-पोषण और शिक्षा मध्यम वर्गीय परिवार , पड़ोस और संस्कृति में हुआ है। मध्यम वर्गीय संस्कृति की पूँजी और विशेषता आपसी संबंध, इन संबंधों के भीतर बहती अबाध रागात्मकता की निर्मल नदी है। इनके गीतों में ये संबंध और उनकी रागात्मकता के बड़े उल्लास, करुणा, जीवटता और मार्मिकता भरे चित्र मिलते हैं। ये चित्र बहुत व्यंजना भरे हैं और भीतर तक प्रभावित करने वाले हैं। यही कारण है कि बहुत अधिक छपने और पढ़ी जाने वाली कवयित्री होने के साथ वे जब तक मंचों पर जाती रहीं, तब तक वे बहुत ज्यादा और साग्रह  सुनी जाने वाली कवयित्री रहीं हैं। 
                    करुणा कविता का उत्स होने के साथ-साथ कविता का प्राण भी होती है। वहा जहांँ असहायता के भाव प्रकट करती है, वहीं सामर्थ्य भर हमारी चाहना को भी प्रकट करती है। करुणा से करुणा उपजती है, इस तरह कविता एक वांछित वातावरण बनाने में सफल होती है। किसी भी काव्य में कोई बनावटी संवेदना कभी करुणा का स्रोत नहीं हो सकती। किसी कवि और सामान्य व्यक्ति में यही भेद है, कि कवि का किसी स्थिति, दृश्य, विचार या उचित चाहना के साथ अपनी संवेदना के साथ एक्य स्थापित हो जाता है। यही एक्य उसकी करुणा को एक आक्रोश और प्रतिरोध के रूप में भी प्रकट करता है। डाॅ शांति सुमन की कविता उनके भीतर भरी अगाध संवेदनशीलता का प्रमाण है। इसी संवेदनशीलता के कारण वे जहाँ जनवादी गीतों का सृजन कर पाती हैं, वहीं निरन्तर निर्मल प्रवाह व राग से भरे आत्मीय संसर्ग के नवगीत भी सिरजती हैं। उनके ह्रदय में भरी करुणा का अंदाजा इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है-  
       दुख रही है अब नदी की देह 
       बादल लौट आ। 
                    डाॅ. शांति सुमन समूची मानवीयता के सुख-दुख, कठिनाई, पीड़ा, संत्रास, संघर्ष और आशा-निराशा अपनी कविता में इतने आत्मीय भाव से व्यक्त करती हैं, कि उनके जीवन के वे सभी अंग, जो हमारे समाज के भी अंग हैं, कविता में चित्रायमान हो उठते हैं। जब वे कहती हैं - "दुख रही है अब नदी की देह /बादल लौट आ।" तो नवगीत कविता की इस अकेली पंक्ति की बहुकोणीय व्यञ्जना हमें संवेदना और करुणा से भर देती है। इसमें जहाँ एक ओर 'नदी', नदी के अतिरिक्त भी कोई अर्थ देती है, वहीं बादल को पुकारता करुण स्वर 'बादल' को भी नया अर्थ देता है। ऐसा केवल एक पंक्ति अथवा एक नवगीत में नहीं है, बल्कि यह उनके शिल्प की विशेषता भी है। उनके कई - कई नवगीत कविताओं में हम यह देखते हैं। 
                         प्रतीकात्मकता अपनी मोहकता के चरम पर शांति सुमन जी की नवगीत कविताओं में उभरकर सामने आती है। 
       गीतों में छंदों के जैसे 
       पत्ते आये हैं पेड़ों में 
           कितने यतन किये रखने के 
           सब पीले फूल हथेली में 
           मन तो उलझा-उलझा रहता है 
           दिन-दिन भर किसी पहेली में 

       कितना टूट-टूट बह जाता 
       सागर के गहन थपेड़ों में। 

                    इस पियराई को डॉ. शांति सुमन जी ने अपने और भी कुछ गीतों में प्रयोग किया है। यह कितनी निजी, आत्मीय और राग भरी आकांक्षा का प्रतीक है। वहीं 'सागर' ऐसी विकराल और सदैव उपस्थित ऐसी स्थितियों का प्रतीक है, जिनके आगे आकांक्षाओं से भरा मन टुकड़ा-टुकड़ा हारता रहता है। इस 'टुकड़े-टुकड़े हारने' की मार्मिकता को समझते हुए इन पंक्तियों को लिखते हुए रचनाकार की संवेदना को अनुभव करना भावक को, पाठक को उन रागात्मकता भरी मार्मिक अनुभूतियों की गहन गहराई में डुबो सकता है। 

                    मुहावरे लोक भाषा ही नहीं लोक जीवन में भी प्राणों की तरह बसते हैं। डॉ. शांति सुमन कहती हैं- "मुहावरों से भरी भाषा देशज  शब्दों के प्रयोग के साथ बिम्बों में प्रकृति और मानव जीवन के संस्पर्श नवगीत की विशेष संपदा हैं।" नवगीत कविता मनुष्य जीवन की आशाओं, आकांक्षाओं, संघर्षों से भरे जीवन की, उसके राग- विराग की कविता है। ये आशाएँ- आकांक्षाएँ,ये संघर्ष, ये राग विराग जिस मनुष्य की हैं, जिस मनुष्य का जीवन हैं, वह मनुष्य ही तो लोक को रचता है। यही कारण है, कि नवगीत कविता लोक की भी कविता है। नवगीत कविता में लोक-जीवन, लोक-भाषा, लोक-आकांक्षा, सब कुछ अपने जीवंत रूप में चित्रित होता है। यही लोक डॉ. शांति सुमन की कविता का प्राण है। यद्यपि मिथिला का जीवन उनके गीतों में भरा हुआ है, किंतु यहाँ चित्रित जीवन, यहाँ का संघर्ष, यहाँ की आत्मीयता, यहाँ की भाषा भी इस तरह चित्रित है, कि वह मिथला और मैथिली की खुशबू रखने के साथ पूरे भारतीय निम्नवर्गीय, मध्यमवर्गीय जीवन संघर्ष, जीवन स्थितियों, आशाओं-आकांक्षाओं का ही चित्रांकन लगती हैं। इनके सृजन में जगह-जगह इस लोक के संस्पर्श से प्राणवन्त अनुभूतियाँ हैं। 
                      
                       यह टिप्पणी मुझे वागर्थ के लिए कुछ नवगीतों के आलोक में लिखनी थी, किंतु जब मैंने लिखना शुरू किया, तो शुरूआत से ही बहकने लगा और ऐसे बहका कि स्वयं को संँभाल पाना मुश्किल हो गया। इस बहकाव का बहुत आत्मगत कारण हो सकता है। किसी कवि-कलाकार के सृजन से स्वयं को गुजारने की कोशिश में यह हो सकता है और ऐसी स्थिति में सारा कुछ गड्डमड्ड भी हो सकता है। ज्यादा संभावना इसी बात की रहती है। क्योंकि, यह दुरूह कार्य है। इसलिए यहाँ यह लिखना स्थगित करने के सिवाय दूसरा उपाय नहीं है। किन्तु, डाॅ शान्ति सुमन जी पर कुछ विस्तार से लिखने का बड़ा मन है। यद्यपि एक बड़ा सत्य यह भी है कि डॉ शांति सुमन जी के समकालीन, समवय और वरिष्ठों तक के नवगीत संसार के विवेचन-विश्लेषण पर किए गये उपलब्ध कार्य को देखें, तो डॉ शांति सुमन ऐसी नवगीत कवयित्री ठहरती हैं, जिन पर सर्वाधिक रचनाकारों, समीक्षकों-आलोचकों ने अपनी टिप्पणी से लेकर बड़े-बड़े आलेख तक लिखे हैं। डॉ शांति सुमन की गीत रचना के सौंदर्य शिल्प और रचना दृष्टि पर लगभग 820 पृष्ठों में दो ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रसिद्ध आलोचक डॉ शिवकुमार, मिश्र डॉ विजेंद्र नारायण सिंह, कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह, डाॅ. मैनेजर पांडेय, डॉ रवि भूषण, नचिकेता, रमेश रंजक, दिनेश्वर प्रसाद सिंह 'दिनेश', राजेंद्र प्रसाद सिंह, उमाकांत मालवीय, डॉ. रेवती रमण, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद, सत्यनारायण, डॉ. सुरेश गौतम, डाॅ. ओम प्रभाकर, डॉ. वशिष्ठ अनूप, कुमार रवीन्द्र, देवेंद्र कुमार, मधुकर सिंह, यश मालवीय, डॉ महेंद्र नेह, नंद कुमार, डॉ विष्णु विराट, लालसा लाल तरंग, डॉ. राधेश्याम शुक्ल, डॉ. राधेश्याम बंधु, डाॅ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', डॉ. परमानंद श्रीवास्तव, डाॅ. ओमप्रकाश सिंह, जय चक्रवर्ती, आरसी प्रसाद सिंह, भारत भूषण, प्रणव सिन्हा, मदन कश्यप, भारत भारद्वाज, डॉ वंशीधर सिंह, सीता महतो, डॉ महाश्वेता चतुर्वेदी, वीरेंद्र आस्तिक, श्री कृष्ण शर्मा, अनूप अशेष, मधुकर अस्थाना, दिवाकर वर्मा, माधव कांत मिश्रा, डॉ. मधुसूदन साहा, आदि और भी कितने ही विद्वान समीक्षक- आलोचक रचनाकार डॉ शांति सुमन जी के  नवगीत कविता सृजन पर लिख चुके हैं। ऐसी दशा में अब उनके रचनाकर्म पर लिखना उन पर पहले ही लिखें-कहे जा चुके को दोहराने के खतरे को आमंत्रित करने से कम नहीं है। इस खतरे के आभास के साथ जल्दबाजी में कुछ और कहने से रुक जाना ठीक लगता है। आगे कुछ ठहर कर इत्मीनान से गहन चिंतन के साथ कुछ कह पायें इसी उम्मीद के साथ - 

राजा अवस्थी, कटनी
9131675401 
Email - raja.awasthi52@gmail.com


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