मंगलवार, 31 मई 2022

कृति "धूप भरकर मुठ्ठियों में "पर चर्चा में इस बार प्रस्तुत हैं विवेक चतुर्वेदी जी निवासी :- उझानी ( बदायूँ ) उत्तर प्रदेश से प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ




❗समीक्षा ......१❗

धूप भरकर मुट्ठियों में देख ली पर
गोल  सूरज  हाथ  पे  रखते  नहीं

मुँह में रख लेते हैं रवि हनुमान जी
स्वाद लेकिन  धूप का  चखते नहीं

ठीक इसी तरह की परम्परा का निर्वहन करते हुए शिवपुरी ( म० प्र० )में जन्मे आदरणीय मनोज जैन जी ने रचा है :- " धूप भरकर मुट्ठियों में " नवगीत संग्रह। " एक बूँद हैं हम " वर्ष 2011 में प्रकाशित इनका प्रथम नवगीत संग्रह था जो मैंने नहीं पड़ा है लेकिन 2021 में प्रकाशित कृति " धूप भरकर मुट्ठियों में " पढ़ने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। 

काश ! अहिल्या की आँखों सा
हम बरसाते पानी

कुशल चितेरे ने विकास के
भित्ति-चित्र उकेरे
नाच रहे हैं वह समूह में
बना हाथ के घेरे

आदिमानवों ने छोड़ी है
अपनी अमिट निशानी

भीमबेटका का हर पत्थर
कहता एक कहानी

ये गीत मेरे नज़रिये से जैन साहब की उस विकास यात्रा का प्रमाण है जिसमें उन्होंने अपनी साहित्यक अभिरुचि को अपनी क़लम की छैनी से तराश के उसे जीवन्त रूप प्रदान किया है। 

मिले भूमिका जो हमें जब जहाँ भी
भले हो कठिन किन्तु जीवन्त कर दें
नहीं है असंभव मनुज के लिए कुछ
दुखों का सदा के लिए अंत कर दें

सुनिश्चित करें वर्ष या मास , दिन , पल
घड़ी कोई खाली नहीं बीत पाए

ये पंक्तियाँ स्वयं इस बात की साक्षी हैं कि मनोज जी ने अपने लेखन को किस तरह एक नया आयाम दिया और किस तरह अपने और समाज के लिए एक सार्थक दिशा का चयन किया और जब व्यवस्था पर कड़ा प्रहार करने की बारी आयी तो मनोज जी पीछे नहीं हटे और लिख डाला - 

खुली आँख में मिर्ची बुरके
समझें हमें अनाड़ी
मरणासन्न देश की हालत
फिर भी चलती नाड़ी

अब भी माला पहन रहे हैं
शर्म नहीं है शेष
चारों तरफ अराजकता है
कैसा यह परिवेश है कैसा यह देश

इसी तरह मनोज जी की नज़र जब देश की संस्कृति के उस कोने पर पड़ती है जहाँ चेतना जड़ के आगे झुकती हुई प्रतीत होती है तो जैन साहब कटाक्ष करते हैं -

चाँद सरीखा मैं अपने को
घटते देख रहा हूँ
धीरे-धीरे सौ हिस्सों में 
बँटते देख रहा हूँ

तोड़ पुलों को बना लिए हैं
हमने बेढब टीले
देख रहा हूँ मैं संस्कृति के
नयन हुए हैं गीले

नई सदी को परम्परा से
कटते देख रहा हूँ

गुरु शिष्य की परम्परा को कलंकित करने वाले एक असंवैधानिक दृष्टान्त को भी भेद के रख दिया है मनोज जी के दृष्टि-बाण ने

गुरु वसिष्ठ ने कहा द्रोण से
माँगे चलो अँगूठा

एक तीर से बैठे-ठाले
हिलीं हमारी चूलें
कल का लौंडा आज उजागर
कर सकता सब भूलें

चलो मढ़ें आरोप शीश पर
कुछ सच्चा कुछ झूठा

ऐसा नहीं कि मनोज जी स्नेहमयी भावनाओं से अछूते रहे हों - 

बलखाती नदिया के
हँसते हैं कूल
बेला के फूल खिले 
बेला के फूल

उम्मीदें करती हैं , 
सोलह सिंगार
मौसम ने बाँहों के
डाल दिए हार

होने को आतुर है
मीठी सी भूल

एक और अन्तरा जो मन को छूता है :-

सुनहरी-सुनहरी
सुबह हो रही है

कहीं शंख-ध्वनियाँ
कहीं पर अजानें
चली शीश श्रद्धा
चरण में झुकाने

प्रभा तारकों की
स्वतः खो रही है

कुल मिलाकर मनोज जी ने एक उत्कृष्ट , संवेदनशील और अन्तर्मन को छूने वाला नवगीत संग्रह अपने पाठकों के हाथ में दिया है पाठकों की भी ये ज़िम्मेदारी बनती है कि इसे अपने स्मृतिपटल पर यथोचित सम्मान के साथ अंकित करें और मनोज जी को इतना प्रेरित करें कि मनोज जी एक और बेहतरीन संग्रह आपको उपहार स्वरूप दे सकें। व्यस्तता के कारण मैं अपना मन्तव्य इस कृति के बारे में देर से दे सका इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ ............अभी और भी 2 कृतियाँ शेष हैं भले ही देर से सही उन पर भी अपना मन्तव्य अवश्य दूँगा।

विवेक चतुर्वेदी
निवासी :- उझानी ( बदायूँ ) उत्तर प्रदेश

रविवार, 29 मई 2022

शेखर अस्तित्व जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग

चर्चित नवगीतकार शेखर अस्तित्व जी के चार नवगीत
                         शेखर अस्तित्व जी बालाघाट मध्यप्रदेश से आते हैं बहुत अच्छे कवि के साथ ही आप बहुत प्यारे इंसान हैं । ध्यातव्य है कि अस्तित्व जी इन दिनों वॉलीवुड के लिए भी गीत लिख रहे हैं।
फ़िल्म संजू का एक गीत "कर हर मैदान फतह" के हिस्से का यश अस्तित्व जी के खाते में दर्ज होता है। 
                      ऐसी ही और भी तमाम उपलब्धियों की रोचक चर्चाएं हम आप से समय-समय पर करते रहेंगे! फिलहाल प्रस्तुत अस्तित्व जी के नवगीत इन नवगीतों का कथ्य बड़ा प्रभावी बन पड़ा है। शेखर अस्तित्व जी को समूह वागर्थ की अनन्त शुभकामनाएँ
प्रस्तुति वागर्थ
________________

एक

मुस्कुराने को न बोलो, 
जान के लाले पड़े हैं ।

साथ लाईट कैमरों के,
आ गए हैं दुख जताने ।
बैठकर फुटपाथ पर, 
फिर लग गए लोरी सुनाने ।
क्या बताएं सुनते सुनते 
कान में छाले पड़े हैं ।

सात दशकों से गरीबी,
को हटाने में लगे हैं ।
वो तो हट ना पाई, अब
फिर से पटाने में लगे हैं ।
खुद टमाटर हो गए, 
हम धूप से काले पड़े हैं ।

कसमसाती मुट्ठियां हैं,
किन्तु हैं जेबों के अंदर ।
हैं भिंचे जबड़े परन्तु,
क्षीण शक्ति का समंदर ।
कंठ में हैं शब्द सहमे, 
होंठ पर ताले पड़े हैं ।

भीड़ बोलो, भेड़ कह लो,
दोनों हैं पर्यायवाची ।
चल पड़े, हांका जिधर को,
कब स्वयं की चाह बांची !
हर गड़रिए को पता है, 
सोच पर जाले पड़े हैं ।

दो

यह कड़वी सच्चाई है
___________________

यह कडवी सच्चाई है
हर पत्थर पर काई है

कान उगे दीवारों के
होंठ खुले गलियारों के।
सुर्खी पाकर दमक उठे
काले मुँह अखबारों के

हँसकर बोला चपरासी
साहब अपना भाई है।
यह कडवी सच्चाई है
हर पत्थर पर काई है।

मस्ती है मनमानी है
लज्जा पानी पानी है।
हारा थका बुढापा है
घुटनाटेक जवानी है।

पंखुडियों के चेहरों पर
खुरची हुई ललाई है।
यह कडवी सच्चाई है
हक पत्थर पर काई है।

तीन

जैसे तैसे दिन बुनता हूँ
_________________________

जैसे - तैसे दिन बुनता हूं, रात 
उधड़ जाती है।
जितना पांव सिकोडूँ चादर 
छोटी पड़ जाती है ।

रोज़ हथेली के छाले कुछ और 
कड़े हो जाते,
रोज़ हृदय के घाव फूटकर और 
बड़े हो जाते 
सींचू ख़ून पसीना फिर भी, 
फसल उजड़ जाती है ।

व्यथा कथा के गीले आखर कागज़ 
पर फैलाते,
छिनी धूप की बात जोहते, खुद पर ही झल्लाते ।
दिनचर्या की थकी थकी सी, सांस उखड़ जाती है ।

बुझती आंखों में पथराए स्वप्न 
लिये जाता हूं ।
लम्हों पर पैबंद लगाकर उम्र 
सिये जाता हूं ।
उम्मीदों की लाश सुबह तक, और अकड़ जाती है ।

चार

लुटे हुए पोलिंग बूथों पर,
लोकतन्त्र के नारों जैसे ।
हम बासी अखबारों जैसे ।

मन ही मन इच्छा घुटती है,
सपनो की दुनिया लुटती है ।
रिश्वत के कांधों पे हर दिन,
डिग्री की अर्थी उठती है ।
रोज़गार दफ्तर के बाहर,
भटक रहे बेकारों जैसे ।
हम बासी अखबारों जैसे ।

दिन अंधियारे, रातें काली,
उजड़ी बगिया, बेसुध माली ।
चोरों के हाथों में हमने,
थाने की चाबी दे डाली ।
लॉक अप के पंखे से लटके,
मृत मानव अधिकारों जैसे ।
हम बासी अखबारों जैसे ।

पीर वही है, आग वही है,
चोट वही है, दाग वही है ।
सत्ता की बातें क्या करना,
केंचुल बदली, नाग वही है ।
बेबस, अंधी, गूंगी, बहरी,
संसद की दीवारों जैसे ।
हम बासी अखबारों जैसे ।

- शेखर "अस्तित्व"

मंगलवार, 24 मई 2022

ईश्वर दयाल गोस्वामी जी के नवगीत प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग


भीष्म गर्मी में तितर-बितर हुए जीवन को रेखांकित करते ईश्वर दयाल गोस्वामी के 
नवगीत 

        (1)    

बूँद-बूँद को तरसा गाँव                                  बूँद-बूँद को
तरसा गाँव  ।

चार बोर हैं
पाइपलाइन है,
घरों-घरों में
टोंटी नल है ।
कुएँ बहुत हैं
ताल खुदे हैं,
कहीं न लेकिन
किंचित जल है ।

सूखे पत्ते
रूठी छाँव ।

गैयें प्यासीं,
बकरीं प्यासीं,
गौरैया में 
छाई उदासी ।
तितर-बितर हैं
जीव-जन्तु भी,
प्यासा उल्लू
भरे उँघासी ।

कौओं की भी
सूखी काँव ।

उधर प्यास है,
इधर प्यास है,
प्यास खोजती
किधर प्यास है ।
खोज-खोज कर
लाते पानी
कुछ लोगों 
का ही प्रयास है ।

उल्टे पड़ते
सारे दाँव । 

बूँद-बूँद को 
तरसा गाँव ।           
       (2)        
 तप रहे हैं प्राण भी      
  
गर्मियों में
तपी धरती
तप रहे हैं प्राण भी ।

झकर उतरी जंगलों की
झुलसतीं हैं पत्तियाँ सब,
ठूँठ-से ठाँड़े हैं बिरछा,
सिसकतीं हैं डालियाँ सब ।

लपट लेकर
हवा आती 
तप रहे पाषाण भी ।

मर चुकी है काई सारी,
नदी जलती, घाट तपते ।
गैल सूनी पनघटों की,
कुएँ रीते,पाट तपते ।

सुलगती
अमराई छैयाँ,
तप रहे हैं त्राण भी ।

जरफराते पंख कोमल,
किलबिलाते चर-चरेरू ।
तपा खूँटा,गरम रस्सी,
तमतमाते  हैं  बछेरू ।

अँगीठी-सी
जिन्दगी का 
दग्ध है निर्वाण भी ।

गर्मियों में
तपी धरती
तप रहे हैं प्राण भी ।        
                        (3)                                                   :: भाप बहती है सबेरे ::                         --------------------------------               
भाप बहती 
है सबेरे,
तप रहे हैं
दिन घनेरे ।

आँख तपती,
कान तपते,
तप रही है
वात बहती ।
साँझ तपती,
याम तपते,
तप रही है
रात ढहती ।

चाँद ने 
नैना तरेरे ।
तप रहे हैं
दिन घनेरे ।

पत्तियों के
उजड़ने से
तप रही
संपूर्ण वन्या ।
मंद भावों 
की तपन से
तप रही है
धान्य-धन्या ।

जल रहे हैं
घर,बसेरे ।
तप रहे हैं
दिन घनेरे ।

तप रहे
नक्षत्र सारे,
कुण्डली के
मेल तपते,
लग्न,भाँवर
की तपन से
शुभाशुभ के
खेल तपते ।

दग्ध हैं अब
सात फेरे ।
तप रहे हैं
दिन घनेरे ।           
   
                             (4)                                                   :: गर्म साँसें,जल रहा मन ::                           -----------------------------------      
   गर्म साँसें,
जल रहा मन ।
चढ़ रहा
पारा,उपरितन ।।

नाक ढकते,
कान ढकते,
नख बराबर
बंद हैं, पर,
दग्ध-वायु
जोर देकर
खोल देती
देह के दर ।।

चिपचिपाता
स्वेद से तन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।।

आँख भारी,
होंठ सूखे,
तमतमाते
गाल मेरे ।
कंठ रीता,
प्रहर बीता,
कसमसाते
बाल मेरे ।।

धूप चढ़ती
घन-घनाघन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।।

घर तपा
आँगन तपा है,
ताल तपता
कूप तपता ।
पंछियों के
पर तपे हैं
प्रकृति का
रूप तपता ।

गर्म राका,
तप्त उडगन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।।

चढ़ रहा
पारा,उपरितन ।
गर्म साँसें,
जल रहा मन ।।


       पसीने के कोण 
  --------------------------                   
खींचती है
उष्ण-चतुर्भुज,
गर्मी अपने
बिन्दु-बिन्दु से ।।

खींचती है
वक्र रेखाएँ लपट कीं 
पसीने के 
कोण पर यह ।
बनाती है
वृत्त लू के बाह्य,भीतर
गली,घर 
औ' मोड़ पर  यह।।

फूँकती
पावक बराबर 
मेघ,नभ,रवि
और इन्दु से ।।

काटती हैं
वक्र किरणें,समानांतर
धैर्य की 
रेखाओं को भी ।
तोड़ती है
लू परिधि को 
व्यास को,
त्रिज्याओं को  भी ।।

आ रही हैं
उष्ण पवनें 
झील,सरिता
और सिंधु से ।

बनाती है
उष्ण-चतुर्भुज
गर्मी अपने
बिन्दु-बिन्दु से ।

     (6)                                                     नदी की पपड़ी उखड़ी ::     


 तपे,
घाट के पाट,
नदी की
पपड़ी उखड़ी ।।

कि उठती
गरम-गरम 
अब पीर ,
नदी के 
तप्त हृदय से ।
कि रीता
रस-रस 
मीठा नीर ,
रेत पर
लिखे प्रलय से ।।

थमा,
वाव का ताव,
वदी की
भाँवर मचली ।।

कि उठती
उद्गम से
जो हूक,
शोक के 
गीत सुनाती ।
हुई जो
पहले हम-
से चूक,
दृश्य वो 
आज दिखाती ।

लिए
ठूँठ का बोझ,
सदी की
काँवर पसरी ।
      000 
            ----- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।
 (7)       
 रूखा रे ! यह झाड़ ::               
 रूखा रे ! यह झाड़,
धूप में खड़ा, भरोसे ।।

चट-चट करती शाख,
तने से छाल उतरती ।
पत्ते गिरे ज़मीन,
तपन से आँच उभरती ।।

वर्षा की उम्मीद
हृदय में पाले-पोसे ।।

रस-रस सूखा नीर,
जड़ों से चीख निकलती ।
यह नैसर्गिक पीर,
दर्द के अर्थ बदलती ।।

ओ ! निर्दय रवि आज,
काव्य-मन तुझको कोसे ।।

रूखा रे ! यह झाड़,
धूप में खड़ा,भरोसे ।।
      
 (8)                                 

::: झर चुके सब पात सुख के :::


उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
झर चुके सब
पात, सुख के ।

चिटचिटाती
शाख, मन की,
चिपचिपाती
धाक, तन की ।
तड़फड़ाते
जीव-जन्तु,
कसमसाते 
प्रेम-तन्तु ।

उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
जहर सूखे
नाग-मुख के ।

धकधकाती
साँस, शव की,
चुभ रही है
फाँस, भव की ।
चरमराते
कर्म सारे ।
तपतपाते 
मर्म सारे ।

उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
मंद होते 
भाव, दुख के ।

तमतमाती
आँख-पुतली,
किलबिलाती
पाँख,तितली ।
उबलती है
नदी सूखी,
मचलती है 
सदी भूखी ।

उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
ताव उतरे
गरम-रुख के ।

उफ ! ये गर्मी,
हाय ! गर्मी,
झर चुके सब
पात, सुख के ।

     
     (9)                                                        सूरज से मनुहार 
-------------------------

अरे ! भाई सूरज
समझ,सोच,गुन ।

अजब तेरी भक्ति,
गजब तेरी शक्ति ।
मगर यार मेरी
जरा टेर सुन ।

अजब तेरी किरणें,
गजब तेज उनमें ।
मगर यार धरती 
को ऐंसे न घुन ।

कि सत ताप तेरा,
असत पाप मेरा ।
मगर यार फूलों
में काँटे न बुन ।

तेरे हाथ जीवन,
मेरे हाथ तन-मन ।
मगर मौत उसमें 
से अब तू न चुन ।

अरे ! भाई सूरज
समझ,सोच,गुन ।

                   --- ईश्वर दयाल गोस्वामी

मनोज जैन के दो नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ



मनोज जैन के दो नवगीत 
___________________

एक
_____

फतह,किया 
राजा ने
एक किला और।

सन्देशा भेज कहा 
स्वीकारो दासता।
वर्ना हम दिखलायें 
बाहर का रास्ता।

अब भी है समय 
हमें मानो 
सिरमौर।

रणभेरी बजी खूब 
देखकर सुभीता। 
कुटिल चाल चली
युद्ध राजा ने जीता।

परजा ने 
फिर ढूँढा
एक नया ठौर।

क्षत्रप सब राजा के 
संग साथ नाचें।
परजा के हाव-भाव 
एक एक जाँचे।

आया जी 
चमचों का
कैसा यह दौर।

हँसी-खुशी आका को
बोलो कब भाती।
राज करो फूट डाल 
नीति ही सुहाती।

बात रही
इतनी सी 
फरमाना गौर।

कौन यहाँ सच कहने 
सुनने का आदी।
पीटे जा राज पुरुष 
जोर से मुनादी।

पसरेंगे 
पैर नहीं
छोटी है सौर!

युग बीता अच्छा दिन 
एक नहीं आया।
ज्ञानी ने मूरख को
स्वप्न फिर दिखाया।

भूखों को 
घी चुपड़े
डाल रहा कौर।

दो
____

दिन पहाड़ से कैसे काटें !

चुप्पी ओढ़े 
रात खड़ी है,सन्नाटे दिन बुनता।
हुआ यंत्रवत 
यहाँ आदमी नहीं किसी की सुनता।

सबके पास 
समय का टोटा,किससे अपना सुख दुख बाँटें
दिन पहाड़ से कैसे काटें !

बात-बात में
टकराहट है यहाँ नहीं दिल मिलते।
ताले जड़े हुए 
होठों पर हाँ ना में सर हिलते।

पीढ़ीगत इस 
अंतराल की खाई कोअब कैसे पाटें!
दिन पहाड़ से कैसे काटें !

पीर बदलते
हाल देखकर पढ़ने लगी पहाड़े।
तोड़ रहा दम 
ढाई आखर उगने लगे अखाड़े।

मन में उगे 
कुहासे गहरे,इन बातों से कैसे छाँटें !
दिन पहाड़ से कैसे काटें !

मनोज जैन

परिचय
________

जन्म २५ दिसंबर १९७५ को शिवपुरी मध्य प्रदेश में।
शिक्षा- अँग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर

प्रकाशित कृतियाँ-
(1) 'एक बूँद हम' 2011 नवगीत संग्रह
(2) 'धूप भरकर मुठ्ठियों में' 2021 नवगीत संग्रह
पत्र-पत्रिकाओं आकाशवाणी व दूरदर्शन पर रचनाएँ प्रकाशित प्रसारित। निर्मल शुक्ल द्वारा संपादित "नवगीत नई दस्तकें" तथा वीरेन्द्र आस्तिक द्वारा संपादित "धार पर हम (दो)" में सहित लगभग सभी शोध संकलनों नवगीत संकलित

पुरस्कार सम्मान-
मध्यप्रदेश के महामहिम राज्यपाल द्वारा सार्वजनिक नागरिक सम्मान 2009 म.प्र.लेखक संघ का रामपूजन मिलक नवोदित गीतकार सम्मान 'प्रथम' 2010 अ.भा.भाषा साहित्य सम्मेलन का सहित्यप्रेमी सम्मान-2010, साहित्य सागर का राष्ट्रीय नटवर गीतकार सम्मान- 2011
राष्ट्रधर्म पत्रिका लखनऊ का राष्ट्रधर्म गौरव सम्मान 2013
अभिनव कला परिषद का अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान -2017

संप्रति-
सीगल लैब इंडिया प्रा. लि. में  मैनेजर
सोशल मीडिया पर चर्चित
समूह वागर्थ के संचालक
पता
मनोज जैन
106
विट्ठल नगर गुफ़ामन्दिर रोड
भोपाल
462030
सम्पर्क
9301337806
ईमेल- manojjainmadhur25@gmail.com

शुक्रवार, 20 मई 2022

डॉ शरद सिंह जी के नवगीत प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ


29 नवम्बर 1963 को मध्य प्रदेश के जिला पन्ना में  जन्मी एवम् भारतेन्दु मिश्र जी के सम्पादन में ' नवगीत एकादश ' की सहभागी कवि डॉ शरद सिंह जी का लेखन के प्रति रुझान बाल्यावस्था में ही अपनी माँ साहित्यकार डॉ विद्यावती ' मालविका ' जी की वजह से हुआ । वे मानती हैं कि उनकी कहानी ' गीला अंधेरा ' ,जिसकी नायिका सरपंच चुनी जाती है किन्तु उसकी सारी गतिविधियाँ पति द्वारा संचालित हैं ,  का प्लॉट उन्हें स्त्रियों के कष्टों से अधिक जोड़ गया । कहीं न कहीं यहीं से वह अपने स्त्री विमर्श लेखन की यात्रा का प्रारम्भ मानती हैं ।
   ऐसा नहीं है कि यथार्थवादी रचनाकार  शरद सिंह जी की क़लम सिर्फ़ स्त्री विमर्श पर ही चली हो , वे अपने समय की सभी विसंगतियों पर खुलकर अपना विरोध एवम् पीड़ा दर्ज़ करती हैं , किन्तु स्त्री विमर्श पर उनका लेखन निश्चित ही विशिष्ट स्थान रखता है । 

आइये पढ़ते हैं उनके कुछ नवगीत ।
---------------------------------------------------------------------------

(१)

छत पर पड़ी दरार
-----------------------
  
टूटी खिड़की
उखड़े द्वार
छत पर पड़ी दरार।

लालटेन की
बाती जैसे
धुंआ-धुंआ तक़दीर हुई ।
फटी चादरें
सीने में ही
उंगली में चुभ गई सुई ।

खाली जेबें
जागी आँखें ,
सपने लगें कटार।

बूढ़ी आँखों
हुआ मोतिया
दुनिया मकड़ी जाल लगे ।
निरे अपरिचित
जैसे मिलते
जन्मों से जो रहे सगे ।

घर के रिश्ते
बैर भुनाते ,
टूटे सभी करार।

कभी तो मुट्ठी
गरम रहेगी
बहना की शादी होगी ।
शायद चंगा
हो जाएगा
क्षुधा-तपेदिक का रोगी ।

कटे पेड़ का
हरियल सपना ,
हमको मिला उधार।
     --------

(२)
मुटिठयों में प्यास भींचे
---------------------------

धूप में जलते
दिवस
पथरा गए ।

फुनगियों पर
गिद्ध बैठे
टोहते
बंज़र बग़ीचे ।
जेठ की
तपती दुपहरी
मुट्ठियों में 
प्यास भींचे ।

फूलते-फलते
शहर
मुरझा गए ।

भीतरी मन
और आँगन
ओढ़ते
गहरी उदासी ।
रक्तपाती
रास्तों से
दूरियाँ हैं
बस, ज़रा-सी ।

आँख में पलते
सपन
धुंधला गए।
--------

(३)

पिंजरे में बेचैन सुआ
-------------------------

गीली लकड़ी
भीगी आँखें
धुआँ -धुआँ
छप्पर सारी रात चुआ ।

सिलवट वाले 
बिस्तर पर
बूँद-बूँद कर 
असगुन छाया ।
   मन का 
   कच्चा फर्श सिताया ।

उधड़ी सीवन
फूटी क़िस्मत
धुआँ-धुआँ
पिंजरे में बेचैन सुआ।

दस्तक वाली 
चौखट पर
सन्नाटे ने 
भीड़ लगाया ।
    घर का
    औंधापन गहराया ।

सूनी देहरी
टूटा दरपन
धुआँ-धुआल
हरदम बेहद बुरा हुआ।
--------

(४)

सून में निचाट में
--------------------

धूल है ललाट में
क़िस्मत ने डाल दिया
चक्की के पाट में ।

खण्डहर-सी
ज़िन्दगी
टूटता पलस्तर ।
अस्मत की
कोट का
उधड़ गया अस्तर ।

दर्दों की लाट में
त्राहि-त्राहि करता मन
सून में, निचाट में ।

आँगन के 
बीच में
मेंहदी की बाड़ ।
बैर भाव
झांकता
छप्पर को फाड़ ।

तौल और बाँट में
पर्दा ही शेष बचा
टूटे कपाट में ।

असगुन की
आहटें
और दिया बासी ।
रात-रात
जागती
बाबा की खाँसी ।

आँसू के घाट में
भूख के तपेदिक ने
डाल दिया खाट में।
    ----------

(५)

चिड़िया तरसे दाने-दाने
----------------------------

खुले पंख की बंद उड़ाने
    चिड़िया तरसे दाने-दाने।

इकलौते
सूरज से झाकें
मुट्ठी भर
किरणों के तिनके
शहरों की
परिपाटी बूझो
तुम किनके, हम किनके?

रिश्तों के हैं रिक्त खज़ाने
   तिल-तिल टूटे नेह सयाने।

सपनीलीं 
आखों की दुनिया
पलछिन
सपन सहेजे
मौसम ने
जैसे रख डाले
तेज़ धूप में खुले बरेजे

हर चेहरे बेबस, बेगाने
   मनवा गए दुखी तराने।
     ---------------

(६)

टूटती उड़ान
---------------

पथरीली रातें 
और दिवस बंजर।

बंधुआ-सी 
देह रहे 
हरदम बीमार ।
लोटे भर 
शोक और 
चुल्लू भर हार ।

अनुभूति घातें 
रचें खेल दुष्कर।

बाबा के
गमछे में 
टीस भरी गंध ।
अपनों ने 
फूँक दिए 
नेह के प्रबंध ।

जुदा-जुदा बातें 
अलग-अलग आखर ।

सकुचाई 
उम्मीदें 
टूटती उड़ान ।
तिनकों की 
झोपड़ी 
फूस का मचान ।

टुकड़ों-सी गातें
और दुखी छप्पर।
--------------

(७)

सपन कपासी
-----------------

मीलों लम्बी
घिरी उदासी
        देह ज़रा-सी।

कुर्सी, मेजें,
घर, दीवारें
सब कुछ तो मृतप्राय लगें

बोझ उठाते
अपनेपन का
पोर-पोर की तनी रगें

बंज़र धरती
नेह पियासी
       धार ज़रा-सी।

गलियां देखें
सड़के घूमें
फिर भी चैन न मिल पाए

राह उगा कर 
झूठे   सपने
नई यात्रा करवाए

रोती आंखें
सपन कपासी
     रात ज़रा-सी।
--------

(८)

दर्द लिखे बूटे
----------------

मन के रूमाल पर
दर्द लिखे बूटे।

रिक्शे का पहिया
गिने
तीली के दिन ।
पैडल पर पैर चलें
तकधिन-तकधिन।

भूख करे ताँडव
थकी देह टूटे।

अनब्याही बिटिया
सुने
बेबस रुनझुन ।
अहिवाती कंगन को
खाते हैं घुन ।

ड्योढ़ी का दर्पण
इंच-इंच फूटे।

चिल्लर की दुनिया
बुने
सपनों के घर ।
झुग्गी के तले उगे
रिश्ते जर्जर ।

दारू की बोतल
शेष भाग लूटे।
     --------

    -डॉ (सुश्री ) शरद सिंह

सोमवार, 16 मई 2022

सीताराम पथिक के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ


सीताराम पथिक के नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ


अम्मा के आँचल में क्या-क्या ?
लौंग लांयची चंदन चावल 
मीठे गुड़ की एक डरी ।
अम्मा लगती मुझे परी ।

मैं लगता हूँ माँ को चँदा 
मुनिया रोटी लगती है।
माँ को एक कदम से सारी
दुनिया छोटी लगती है।
माँ के आगे पानी भरती,
नैन झुकाए दोपहरी।

दुख में हँसती सुख में रोती 
माँ भी अजब पहेली है।
सपने बुनती हुई बया बस 
माँ की एक सहेली है।
अनगढ़ को गढ़ देती अम्मा 
जहाँ-जहाँ से हैं गुजरी ।

बाहर से तो बहुत कड़क हैं
अंदर नर्म  चिरौंजी हैं।
जो भी मिलता उनसे हँसता
लगता सब की भौजी हैं।
दो पीढ़ी के बीच सेतु है 
अम्मा हिमगिरि से उतरी ।

कभी तवे में कभी घरी में
बीसों बार पलटती है।
माँ में जाने क्या जादू है 
सबके हिस्से बटतीं है।
आँगन की तुलसी है अम्मा
रहती हरदम हरी भरी।

अम्मा लगतीं मुझे परी।  
मीठे गुड़ की एक डरी।
चिट्ठी में लिख लिख कर के 
कुछ माँ ने काटा है। 
लगता है कुछ छिपा लिया 
कुछ मुझसे बाँटा है।

आड़ी तिरछी कटी हुई 
रेखाएँ कहती हैं 
माँ भी पर्वत काट काट 
नदिया सी बहती है
उस नदिया में ज्वार बहुत है 
थोड़ा भाटा है।

अक्षर अक्षर चीख रहे हैं 
पंक्ति पुकार रही
प्रश्नचिन्ह कह रहे हैं सारी
विपदा रही सही
चिंता में चिट्ठी चिपकी है
चिपका आटा है।

खत में खबर नहीं खेतों की
आंगन की घर की 
लगता है बापू की पगड़ी 
फिर सर से सरकी 
लगता है घर में माँ- बापू 
और सन्नाटा है।
चिट्ठी में लिख-लिख कर के कुछ 
मां ने काटा है।


रोना मत ,रोना मत, रोना मत।
आग तुम्हारी मुट्ठी में है खोना मत।

दुख के पर्वत तुम्हें काटने दुनिया में, 
फूल  बताशे तुम्हें बांटने दुनिया में, 
किसी राह में कोई कांटा बोना मत।

हरेक आंख की तुमको कविता पढ़नी है 
हर ठोकर पर तुमको मूरत गढ़नी  है 
नर्म बिछौने पर ललचाकर सोना मत।

तुम हंस दोगे तो जंजीरे टूटेंगी
हर एक ठूंठ पर नई कोपलें फूटेंगी
जीना तो बस जीना जीवन ढोना मत। 
रोना मत, रोना मत, रोना मत।

गीत 4 
मकड़ी के जाले हैं, टूटे शिवाले हैं ,
अब केवल सपनों के गांव में ।
मितवा रे ! अंधड़ बदलाव में ।

दूध दही घी वाली,निर्झरिणी 
लुप्त हुईं गड़ा द्वारे में 
मदिरा का पंपा

छाई चोर गंध बारूदी 
ऐसी की सूख गई 
बगिया की चंपा

कई दंश वाले हैं, 
बिषधर भी काले हैं, 
फन काढ़े पीपल की छांव में ।
मितवा रे !सपनों के गांव में ।

आंगन के चौरे में 
बिहंस रही नागफनी,
नाली में पनप रही तुलसी

चौके में सुबह शाम 
चूल्हा सुलगाने में पुरखों की
रामायण झुलसी

होठों पर ताले हैं, रोटी के लाले हैं, 
बेंड़ी है उन्नति के पांव में।
मितवा रे !सपनों के गांव में।

 गीत 5 
द्वंद नहीं करना एकाकी,
द्वंद नहीं करना।

भूल चूक से कभी हवा को 
कहना न कुलटा,
पलट गया पुस्तक का पन्ना 
यदि कोई उल्टा ,

कभी भी बिबशता में कोई 
अनुबंध नहीं करना।

धूप सीढ़ियां चढ़कर 
फिर से अंदर आएगी।
वर्षों से गुमसुम
बैठी  फिर चक्की गाएगी।

आवेगो के अश्वों पर प्रतिबंध
नहीं करना।

बंजर धरती में बादल फिर  
खुशियां औटेंगे,
दाबे हुए चोंच में दाना 
पांखी लौटेंगे,

घर भर के रोशन दानों को 
बंद नहीं करना।
द्वंद नहीं करना।


पत्ता पत्ता हरा रहे। 
घर खुशियों से भरा रहे।

खेत न कोई सूखा हो,
चूल्हा न कोई भूखा हो ,
दरवाजे पर भिक्षुक का 
दान हमेशा धरा रहे। 

ठाकुर तुलसी चौरा हो,
पूजा का हर ब्यौरा हो ,
उजियारा तो इतना हो, 
अंधियारा कुछ डरा रहे ।

हर कोने हरियाली हो ,
कहीं न कुछ भी खाली हो ,
जीवन उत्सव जैसे हो ,
कण-क्षण में मधु भरा रहे ।

घर पक्का या कच्चा हो ,
आदम हो ,मन बच्चा हो,
कड़वा हो या तीखा हो, 
जो बोलें वह 
खरा रहे ।

सबको सब की फिक्र रहे ,
इतिहासों में जिक्र रहे,
लोग देख अनुसरण करें ,
दुख शरणागत 
परा रहे ।

नहीं किसी पर शंका हो, 
ना सोने की लंका हो,
साफ सफाई इतनी हो, 
जैसे की अप्सरा रहे।

पत्ता पत्ता हरा रहे। 
घर खुशियों से भरा रहे।


असहयोग के इस मरुस्थल में ,
हम पौधे कैक्टस के।
भूखे प्यासे बिना सहारे 
दिन काटे हंस-हंस के ।

लता फूल की तरह नहीं हम 
लटके खिड़की से।
अपनी सुबह शाम होती है 
गाली झिड़की से।
दुनिया हम पर ही आजमाती 
तीर सभी तरकश के।

दुर्लभ है हर चीज हमें 
सारी जिंदगानी में।
पहला हक है मनी प्लांट का 
अब भी पानी में।
चुप रखता है आश्वासन का
नाग, हमें डस डस के।

दिखने में वेडौल कंटीली 
अपनी काया है।
अपनी नहीं किसी के ऊपर
कोई छाया है।
नायक नहीं मात्र जोकर हैं।
हम तो सर्कस के।

दर्जा हरेक जगह हासिल है 
हमें विरोधी का।
तन में, मन में, टंगा हुआ है 
तमगा क्रोधी का।
अपनी नाव लक्ष्य तक बढ़ती
रेती में धंस धंस के।
हम पौधे कैक्टस के।


मन अक्सर घायल होता है 
अपनों की ही चोट से।
भीष्म पिता पर जैसे अर्जुन ने, 
शर मारे ओट से।
 
यह ऐतिहासिक युद्ध सत्य है
झूठ-मूठ की कथा नहीं।
अपने बीच में युगों-युगों से
छल छद्मों की प्रथा रही।
असल,हमेशा नीचा खाता 
जग में केवल खोट से ।

दाग लगे या दुर्गति होवे 
किसे फिक्र है राष्ट्र की।
सत्तासीन जहां पर नजरें 
जन्मांधे धृतराष्ट्र की।
न्याय वहां पर नामुमकिन है, 
निकले काली कोट से ।

द्वार द्वार बज उठी डुगडुगी
जाने किस व्यापार की ,
अर्थी सुबह शाम उठती है 
संस्कृति और संस्कार की ,
देखो, तन क्या ,मन पर ठप्पा
लगा हुआ है नोट से।

तेल नहीं निकलेगा चाहे 
जितना उलझो रेत से।
आग अभी आना बांकी है 
हवा कहे संकेत से।
क्या किस्मत का लेखा जोखा 
बदलेगा इक वोट से।

सब कुछ होते हुए निहत्थे 
कुछ भी नहीं है हाथ में।
जैसे बिंदिया लाल नहीं, 
चढ पाती विधवा मांथ में।
हर कोई भर रहा तिजोरी
अपनी लूट खसोट से।

गले बराबर पहुंच चुकी है 
बढ़कर नदिया दर्द की,
क्या सचमुच ही लुप्त हो चुकीं 
सारी नस्ले मर्द की, 
देखो सीना छलनी कर रहा
फिर गांधी का गोडसे ।
मन अक्सर घायल होता है 
अपनों की ही चोट से।
जब विपदा घर आई ।
अपने छिन गए,सपने छिन गए,
छिन गए चारों भाई।

नाते छिन गए रिश्ते छिन गए,
काजू छिन गए पिस्ते छिन गए, 
छिन गई पाई पाई।

बचपन छिना खिलौने छिन गए, 
स्नेहिल गोद बिछौने छिन गए,
हंसी नहीं टिक पाई।

घोड़े छिन गए हाथी छिन गए, 
बचपन के सब साथी छिन गए,
छिन गए अक्षर ढाई।

किस्से और कहानी छिन गए,
संज्ञाओं के पानी छिन गए,
छिना वक्त सुखदाई।

खाने का हर जायका छिन गया, 
घरवाली का मायका छिन गया, 
हया,छिनी घबराई।

संकट की यह महा घड़ी है
शुक्र है अपने साथ खड़ी है
तुलसी की चौपाई। 
जब विपदा घर आई।


एक सदी भर एक शख्स था,
सदा समय से तेज। 
जिसके सत्य अहिंसा सन्मुख,
नतमस्तक अंग्रेज।

कद काठी थी बिल्कुल छोटी
तन में भी बस एक लंगोटी
परमारथ ही सारा जीवन 
हाथों में भूखे को रोटी
मन था खुली रहल में जैसे,
रामायण का पेज।

समता का था महापुजारी ,
थे अस्पृश्य प्राण प्रिय भारी,
सत्याग्रह का सच्चा सैनिक 
वंदनीय थी हर एक नारी ,
पाग शीश में देश प्रेम के 
रंगों से लबरेज।

दीन हीन सा जीवन सादा,
कभी नहीं आडंबर लादा,
पर हिम्मत हिमगिर से ऊंची
वज्र सदृश फौलाद इरादा ,
गोली खा ली मगर सजा दी 
आजादी की सेज। 
मन था खुली रहल में 
जैसे रामायण का पेज।।


कई दिनों से नहीं उतरती 
आंगन में चिड़िया
और गिलहरी मैना के संग दाना खाने को।

डर लगता है थम ना जाए 
हर चलती चक्की
और तरक्की मेरे घर पर आतुर छाने को।

कच्ची मिट्टी घास फूस की 
चीजों से निर्मित 
कैसे कह दूं यह घर मेरा,केवल मेरा है। कनखजूर छिपकलियां 
अनगिन टंगी दीवारों पर मकड़ी मक्खी और कीटों का यही बसेरा है ।

कोर्ट कचहरी है ठाकुर की 
तुलसी के नीचे ,सुबह शाम जहं बहुएं झुकतीं दीप जलाने को।

धरे कई मटके पर मटके, 
सर की गोढरी  पर
पनघट बड़े भोर पनिहारिन हर दिन जाती है,
द्वारे में हीरा मोती की 
मनमोहक जोड़ी,
पिजड़े में मिट्ठू खूंटे  में गाय रभांती  है।

राम ही जाने सूरज क्या 
संदेशा लाता है, सभी भागते अपने घर से दूर कमाने को ।

कुछ दिन से कुछ बदली बदली 
हवा लग रही है, 
सुदिन सुमंगल के अवसर पर आंख फड़कती है।
बोल फूटते नहीं कभी थे
जिन जिन होठों से,
आज बिजलियां वहीं
कड़कती और धड़कती हैं।

उम्मीदों की भरी हवाएं
ऐसे निकलीं कि सभी खोजते
अपने घर में ठौर  ठिकाने को।

राह भूल कर कहीं से कोई ,
भूला भटका ही ,
चाह रहा हूं हर दिन,मेरे घर पर आए तो।

घर को करें पवित्र चरण रज
दे करके अपनी 
और आंगन में खाए अपनी झूठ गिराए तो।

गुस्सा थूंके और बताएं बातें खुलकर 
कि किसे भेज दूं अपने घर से 
तुम्हें बुलाने को ।

कई दिनों से नहीं उतरती 
आंगन में  चिड़िया और गिलहरी मैना के संग दाना खाने को।
कुछ ना कुछ तो मिला सभी
को घर के हिस्सा बांट में ।
रखे गए कर्जे सिरहाने 
सब बापू की खाट में।

जाने कहां-कहां से अनगिन 
कंकर पत्थर जोड़ के।
अम्मा ने एक ख्वाब बुना था 
अपने हाथ सिकोड़ के।

बिच्छू गोजर चढ़ आते थे 
जब सोतीं थी टाट में ।

हर एक चीज निकल कोठों से,
आंगन में जब ढेर हुई।
सांस आखिरी ली तब घर ने 
एक रत्ती न देर हुई।

आधा-आधा हुआ सभी कुछ
दोनों के ही लाट में ।

जोरों से आ गया पसीना 
तब बेटों के माथ में ।

प्रश्न उठा जब अम्मा बापू रहेंगे 
किसके साथ में।
बहुएं बोल उठीं जल्दी से,
गंगा जी के घाट में।

घर के पिछवाड़े कोने में
एक कुटिया फिर तनी गई।
सपनों की अर्थी ले अम्मा 
रहने को अनमनी गईं।

बार-बार बिधना को कोसें
क्या लिख दिया ललाट में।

रखे गए कर्जे सिरहाने 
सब बापू की खाट में ।

 ●

जिसने जैसे खत भेजे हैं 
सारे रखे सहेज कर।
मैंने मन की मेज पर ।

छुई मुई सी पहली चिट्ठी 
सहमी सी सकुचाई।
प्रिय के हाथों जैसे सौंपे 
कोई वधू कलाई।

पंखुरी पंखुरी स्मृतियों की 
बिखरी चहुंदिश सेज पर।

कुछ अलमस्त भोर सी बिल्कुल 
अधसोई जगती, 
घुटनों के बल
इधर उधर कुछ तुतलातीं भगतीं, 
फाग बांधता पाग समूची,
इत्तर से लबरेज कर 

कुछ चिट्टियां बिटिया की बातें, 
कुछ हैं बच्चे की।
झरवेरी रसभरी
कहूं या अमिया कच्चे की।

कुछ का गुरुकुल में कब्जा है 
कुछ का है कॉलेज पर।

जलते तन को शीतल करते
हैं जैसे झोंके।
गल में बहियां डाल चिट्ठियां 
कुछ रस्ता रोकें।
बिटिया को मायके बुलवाती
अखियां बदली भेजकर।

करना ही है यदि पत्रों के 
नखसिख की तुलना
देखें आप किसी चूजे के 
पंखों का खुलना 

शब्द शब्द कृति विश्वकर्मा की, 
अंकित है हर पेज पर।

जिसने जैसे खत भेजे हैं
सारे रखे सहेज कर।
मैंने मन की मेज पर।
यह कैसा बैषम्य  एक ही
मिट्टी के जब हम तुम लाला।
मैंने पाटी भूंख आंत की 
तुमने खजुराहो गढ़ डाला।

कैसे पौ बारह हो जाते 
तुमने जो भी फेंके पांसे।
सवा सेर गेहूं का कर्जा 
चुका न पाती मेरी सांसे।

प्यास मेरी औंधे मुंह घट पर 
तुम पीते हो छककर हाला ।

हम तुम दोनों एक योनि के 
धरती पर आदम के जाए।
धूप हवा पानी त्रतु सारी 
हम पर एक सा रंग लगाए।

प्रकृति हमें तब क्यों नहीं देती
एक बराबर तिमिर उजाला।

तुम पर न कोई पाबंदी 
गगन चूमती सभी उड़ाने।
निर्वसना हर चीज हो गई
तभी मिले मुझको दो दाने।

संजय जैसी दृष्टि तुम्हारी
और मेरी आंखों में जाला ।

तुमने वैभव के बलबूते
लांघी है हर लक्ष्मण रेखा ।
दुख के दरवाजे पर एक पल 
तुमने कभी पलट कर देखा।

मैं अर्थी का फूल और तुम
स्वागत की सतरंगी माला ।

मैंने जो भी सपने देखे 
सब के सब वे रहे अधूरे।
दफ्न हुआ मैं हर एक नीव में 
तुम बन बैठे स्वर्ण कंगूरे।

मैं भटकूं मृगया  के पीछे
तेरे चरणों में मृगछाला ।

तेरे मेरे बीच अगर यह 
खुदती नहीं भेद की खांई।
एक साथ हम बनकर रहते 
एक दूजे की चिर परछाईं।
 
मैं बनता मुल्ले की छागल 
और तुम बनते अमृत हाला ।

मैंने पाटी भूंख आंत की 
तुमने खजुराहो गढ़ डाला ।

 ●

मोम के है पांव, पथ हैं आग के ।
जाए तो जाए कहां मन भाग के।

चिर व्यवस्था की नदी में बाढ़ है 
घुट रही हैं दूधमुंही किलकारियां।
ओढ़कर रंगी लवादे रात दिन 
कोई ममता पर चलाता आरियां।

दृष्टियों का भी गुलाबीपन घटा
बस गए दृगझील में दल नाग के।

 
दबे पांवों आ रही है त्रासदी 
संवेदना के मृदुल अंखुए  नोचने,
पूर्वजों के मील के पत्थर उखाड़े 
अपने हाथों एक अंधी सोचने,
प्रणय को फिर से ग्रहण ने छू लिया, 
वस्त्र पहने पर्व ने वैराग्य के।

कर रहे सब आत्मभक्षी साधना 
कौन समझेगा भला इस त्रास को ।
मन हुआ विक्रम, बदन बेताल 
झुके कंधे ढो रहे हैं लाश को।

पल-पल बदलती है लिखावट वक्त की,
हंस बैठे हैं शरण में काग के ।

जाए तो जाए कहां मन भाग के ।
मोम के हैं पांव पथ हैं आग के।


अर्थों को अब लज्जित करते 
शब्द तार तार सारी मर्यादा पड़ी मगर,
नग्न देह पर पट नहीं धरते शब्द।

पहले थे पहचान ये अपनी संस्कृति के,  मीठी मधुर जुबान पुरानी नव कृति के, ना जाने अब किससे डरते शब्द।

थे पहले दृढ स्तंभ हमारी भाषा के, 
उम्मीदों पर टिके गगन थे आशा के, 
अब असमय पत्ते सा झरते शब्द।

पहले थे संबोधन की आधारशिला ,
दृढ रिश्ते नातों से निर्मित लाल किला, 
अब नहीं किसी की पीड़ा हरते शब्द।

आदर और सत्कार रहेंगे कब टिक के, 
अपने बीच शब्द अब चलते प्लास्टिक के,
 अब उड़ान ऊंची नहीं भरते शब्द।

शब्दों से कद काठी में अपशब्द बड़े, 
फाड़ रहे हैं सबकी भजिया खड़े-खड़े, 
बाहर आने से पहले अब नहीं संवरते शब्द।

जो अपशब्द खूब गढते हैं उनके नामों की। चर्चा होती है और वर्षा खूब इनामों की। इसीलिए आपत्तिजनक अब 
बाना धरते शब्द।


मन मयूर सा नांच रहा है ।
किसके आने का 
संदेशा बांच रहा है।

उद्धत प्रथम रश्मि सूरज की आने को, 
तत्पर हैं सब बिहंंग एक संग गाने को, मौसम का मिजाज 
भिनसारा जांच रहा है।

किस की चर्चा छिड़ी अधिखिली कलियों में।चहल-पहल बढ़ रही अचानक गलियों में।

कौन सर्द रातों में 
बनकर आंच रहा है।

बरसों से बिछड़े कुछ शिकवे गिले मिले। एकबारगी पुष्प धरा के सभी खिले।
बुड्ढा चांद बैठ पिछवाड़े खांस रहा है।

अधरान धरी बांसुरिया 
क्या कुछ बोल रही।
मलयागिरी का मट्ठा पूर्वा घोल रही।
मक्खन ढोता बादल कैसे कांख रहा है।

कांच सरीखे टूटे रिश्ते सभी जुड़े।
किसके घर की ओर रास्ते सभी मुड़े।
 दो और दो को कौन जोड़ता पांच रहा है।

 गीत 18 

इंसानों को उम्र आजकल 
मिलती प्यालो की।
फेहरिस्त लंबी है लेकिन 
मन में ख्यालों की।

 
आज अभी है जो उसको ही 
कल का पता नहीं।
प्रायः दंड उसे मिलता है 
जिसकी खता नहीं।

चांदी काट रही है छककर 
नस्ल दलालों की।

सबसे अधिक अमीर वही
है जो बैरागी है।
मुख्य अतिथि वन हर पुलाव के 
घर में आगी है ,
चौकीदारी करें चिंगारी लकड़ी टालों की ।

न्याय सलीवों के ऊपर ही 
रहे सदा लटका ।
हरेक क्षेत्र में झूठ है हावी 
सच खाए पटका।
माया पसरी हुई चतुर्दिश 
छल बल जालों की।

लज्जा सिसक रही कंखरी में 
दब कर नंगों की।
धर्म क्षेत्र कलयुग में पहली 
शाला दंगों की।
आगन चढ़े हुए हैं सारे 
बलि दीवालों की ।

वक्त वक्त की बात है 
प्यारे सब में फर्क दिखे।
स्वर्ग जिसे कहती थी दुनिया 
बदतर नर्क दिखे।

मेहनत में फिर गया है पानी 
कितने सालों की।

शुतुरमुर्ग बनने से कोई संकट नहीं टले।
हलाहल को धारो प्यारे शिव की तरह गले।

सोना जितना तपेगा उतना ज्यादा निखरेगा,
पारा जुड़ जाएगा चाहे जितना बिखरेगा,
टनो झूठ में जैसे दबकर सत्य नहीं बदले।

परजीवी की तरह सरलता 
गिद्ध भोज होती।
अडचन से ही नए सृजन की 
नई खोज होती।
धरा सिंधु की गहराई से रत्न सभी निकले ।

सूत्र छिपा हैं हर एक कर में 
नव परिपाटी का।
श्रम है कुंभकार और भ्रम है 
लोंदा माटी का।
हर सवाल का हल है यारों 
तब क्यों हाथ मले ।


गैरों खातिर उत्साहित 
अपनों में गुमसुम ।
एक डोरी में बंध करके भी 
खिंचे खिंचे हम तुम।

खुली किताबें सारे जग को 
पर स्वजनों को बंद,
कहीं निछावर सारा जीवन
कहीं वक्त कुछ चंद,
कहीं बिछाएं पलक पांवड़े
कहीं दवा ली दुम।

अपने बीच बना ही रहता 
वही राग वही द्वंद 
परदेसी आया तो चहुं दिस 
बरस गया मकरंद ,
एक पल यह मन छुईमुई सा 
दूजे खिला कुसुम ।

वर व्यवहार मात्र औपचारिक 
बचे हुए हैं शेष,
घर-घर छिड़ी हुई महाभारत 
फिर लिख रहे गणेश, 
मानव के एक कर में कालिख
दूजे में कुमकुम।

सदियां संग संग बीती लेकिन 
कोई नहीं जुड़ाव ,
अपने बीच नमक का रिश्ता 
बढ़ा रहा है घाव,
एक दूजे की खोज खबर क्या, 
पता नहीं मालूम।
तन पसरा रहता है घर में, मन हरदम यात्रा में रहता।

नंगे पांव निकलकर घर से हर एक दिशा में घूमा करता,
लड़ लेता कांटो से पहले फिर फूलों को चूमा करता,
पलधी मारे हुए पहाड़ों से उठकर चलने को कहता ।

कभी नीम चढ़ सुआ पकड़ता कभी काम करता खेतों में,
जड़ चेतन सबसे बतियाता अलग तरह के संकेतों में
भाग रही नदियां में नैया जैसे उल्टा सीधा बहता।

काबा काशी रोज घूमता नित गंगा में डुबकी मारे,
बजा बजा चर्चों के घंटे ,लंगर बांट चुका गुरुद्वारे,
रचता रहता चौबीस घंटे कभी नहीं कुछ उससे ढहता ।

काम क्रोध मद लोभ मोह के उस पर काम ना आते पहरे,
नारद जैसा श्राप है मन को दो पल से ज्यादा ना ठहरे
जिद्दी है नटखट बच्चे सा जिसको रोको उसी को गहता ।
-सीताराम "पथिक"
सभी पुराने जेवर बदले ।
देखो हवा ने तेवर बदले ।

हाथ जोड़ नैनो को भींचे,
सदियों खड़ी रही वह पीछे,
समय साध अपने स्वर बदले ।

पहले थी परियों का किस्सा
अब यथार्थ का पूरा हिस्सा
 नापे अंबर जब पर बदले ।

चले हर जगह उसकी टांकी
कोई क्षेत्र नहीं है बांकी
जिधर देख ले मंजर बदले ।

 खड़ी हुई अब सबसे आगे ,
दुनिया उसके पीछे भागे ,
श्रम से भ्रम को घर-घर बदले ।
खुशी मनाएं या कि गम।
 नदी किनारे के बिरवे हम।
एक उधेड़बुन हरदम मन में जारी रहती है,
हरेक बदलती ऋतुएं हम पर भारी रहती है
गड्डी चलती हुई अचानक कहां पे जाए थम ।
नदी किनारे के बिरवे हम।
जीवन यापन को बस पानी नदी से लेते हैं,
ठौर ठिकाना अनगिन पंछी को हम देते हैं,
 चलते हुए मुसाफिर  
थककर दो पल लेते दम। नदी किनारे के विरवे हम।
आए दिन  ही नदी हमारी जड़ें हिलाती है,
एहसानों का एक आईना रोज दिखाती है,
हंसती है वह जब हो जाती आंख हमारी नम।
 नदी किनारे के विरवे हम।
कई बिरादर अपने हमको असमय छोड़ गए,
जाते जाते मन के अनगिन भ्रम भी तोड़ गए,
सब के सब लहुरे हो जाते संकट में हरदम।
नदी किनारे के बिरवे हम।

   

मैं बादल बन कर पत्र लिखूं ,
तुम धरती जैसे पढ़ लेना।
कुछ अगर दिखाई कम देवे,
मंदिर की सीढ़ी चढ़ लेना।

सबसे पहले गणनायक को ही ढाल बनाया है मैंने,
आड़ी तिरछी रेखाओं का
फिर, जाल बनाया है मैंने,
ले यादों की कुछ पंखुड़ियां
उनसे गुलदस्ता गढ़ लेना।
कुछ अगर-------चढ़ लेना।

क्या हाल बताऊं मैं अपना
मैं पास खड़ा सुर्खाबों के,
उड़ गए अचानक सब पंछी
नैनों में ठहरे ख्वाबों के,
मैं तारे गिनने  बैठा हूं,
तुम चांद सरीखे कढ लेना।
कुछ अगर------- चढ़ लेना।

हो पास नहीं तो कोई भी
हर दिन ही मुझको ठग लेता, 
मैं दर्द करूं जिससे साझा                    
वह वक्त सरीखे भग लेता,
अब सब कुछ तुम पर निर्भर है
जो निर्णय लेना दृढ़ लेना।

कुछ अगर दिखाई कम देवे
 मंदिर की सीढ़ी चढ़ लेना ।
मंदिर की सीढ़ी चढ़ लेना ।।


गरमा- गरम चाय पीने से 
अक्सर होंठ जला करते हैं।

गर्म खून निज मार्ग बना खुश उन्हें सुहाती लीक नहीं,
पर जीवन के कुछ मसलों में होती जल्दी ठीक नहीं,
बिना मनन कुछ करने वाले अक्सर हाथ मला करते हैं

एक साथ मुर्गी के अंडे पाने वाले ख्वाब न देख,
बिना विचारे लांघ रहा है फिर तू कोई लक्ष्मण रेख
उम्मीदों की सिय छद्मों से अक्सर लोग छला करते हैं

रोटी नून चबाकर खुश रह, जग बालों से आस  न रख
मुश्किल की बकरी  लौटेगी कोई आगे घास ना रख
चौकन्ना रह, अस्तीनों में अक्सर
नाग पला करते हैं




गरमा गरम चाय पीने से अक्सर होंठ जला करते हैं



अब क्या होगा राम 
परिंदे घर न लौटे
सुबह से हो गई शाम 
परिंदे घर ना लौटे।

बाहर निकल निकल कर अम्मा 
पगडंडी की ओर निहारे।
जाने अनजाने चेहरों पर 
खोजे मन के उत्तर सारे।

हो गई खबर तमाम 
परिंदे घर ना लौटे।

लट्टू जैसे नाच रही है 
मन में लिए हुए बेचैनी,
और करेजे में शंकाएं 
चुभा रही हैं सुइयां पैनी,
करे नहीं विश्राम 
परिंदे घर ना लौटे।

सूरज के जाते ही नभ मे 
तारों के संग लौटा चंदा।
गाय बछेरू बापस लौटे, 
लौटा गांव विदेशी बंदा।
लौटे आठो याम 
परिंदे घर ना लौटे।

नारियल रोट पंजीरी के संग
कथा बद चुकी मंदिर जाके
सवा रुपैया देकर जंत्री 
दिखवाई पंडित बुलवाके
हुए विधाता बाम 

परिंदे घर ना लौटे।





बहुत भूल पहले ही कर ली ,
करो नहीं अब कोई भूल।
मत तोड़ो डाली से फूल।

इसमें लगी हुई माली की 
पूंजी सारे जीवन भर की ,
चारों ऋतुओं ने भी इसको 
दुलराने में कहां कसर की,
पहरेदारी में कांटो 
के 
झूला , झूल रहा है फूल।
एक झुंड तितली का आता इसके पास खेलने खूब
राग भैरवी इसे सुनाते 
भौंरे व्याकुलता में डूब
मधुमक्खी दिन भर लड़ियाती मगर चुभा देती है शूल।

हंसी खनकती जब जब इसकी लता वृक्ष दोनों कुर्बान
अजनबियों से  कर लेती है गंध अचानक ही पहचान
हवा लगा देती है चंदन लेकर के बगिया की धूल।

कोई सुनता नहीं थक गए हम चिल्लाके।
 किससे साझा करें दर्द हम अपना जाके।

लगता है पूरी की पूरी बस्ती है गूंगे बहरों की ,
जाने क्या संदेशा देना चाह रही चुप्पी लहरों की,
हवा हड़बड़ी में भगती है गर्म धूप  से कुछ बतिया के ।

दरवाजे सब बंद दिख रहे किस घर की सांकल खडकाएं,
करतीं थीं जो मदद सभी की नग्न खड़ी है वे संज्ञाएं,
शायद गलती कर बैठे हम, खुद ही इस बस्ती में आके।

राजा मंत्री संत्री सब की चौखट से हो हो कर लौटा,
झूठ मिला हर जगह लगाए सच्चाई का बड़ा मुखौटा,
अर्जी नहीं बढ़ाई आंगे पेशकार ने पैसे खाके ।

ऊंट के मुंह में जैसे जीरा ऐसी हैं सुविधाएं जन को, सुरसा बैठी है सत्ता में सत योजन  खोले आनन को,
पेट रोज भरती जनता का ,नए-नए सपने दिखला के।

हार नहीं मानूंगा लेकिन मैं भी जिद्दी कम थोड़ा हूं,
संस्कृति इस  शीश महल में एक ईट मै भी जोड़ा हूं,
अड़ा रहूंगा अंगद जैसे, घर लौटूंगा उत्तर पाके।


मैं अकेला ही खड़ा हूँ
जा रहे सब छोड़कर।
उम्र के इस मोड़ पर।

जब शुरू यात्रा हुई थी 
तब बहुत जन साथ थे।
शीश पर मेरे बुजुर्गों के 
बहुत से हाथ थे।
फिक्र तब आती नहीं थी 
पास मेरे दौड़ कर।

था सफर अनजान फिर भी 
लोग खुद जुड़ते गए।
वक्त के सांचे में ढल कर 
रास्ते मुड़ते गए।
हमसफर मुझको मिला था 
बर्जनाएं तोड़कर।

घर में मेला सा लगा था 
जब थे बच्चे पास में।
उड़ गए चूज़े सभी फिर
एक दिन आकाश में,
खुशी सहमी-सी खड़ी है 
चुप्पियों को ओढकर।




शहर पहली बार आया मैं 
निठल्ले की तरह ।
कर लिया स्वीकार उसने 
मुझको छल्ले की तरह।

सच कहूं कि मेरे घर  पर
क्या मेरी औकात है।
जीभ की रक्षा के खातिर 
जिस तरह से दांत है।
मैं खड़ा रहता हमेशा 
दर पर पल्ले की तरह।

हो गई बूढ़ी तो क्या मां ,
ख्याल रखती है अभी
रोटियों में घी चुपड़ कर 
दाल रखती है तभी,
चाहती है हर दिन बढूं मैं ,
बांस कल्ले की तरह।

नित सुबह से शाम तक मैं 
काम करता हूं जहां,
हर अंधेरे को हटाकर घाम, 
धरता हूं वहां,
सेठ वह रखता है मुझको 
अपने गल्ले की तरह।

घर के बच्चों के लिए मैं 
हूं खिलौना आज भी,
साज हूं तो मैं किसी के शीश  
का हूं  ताज भी,
पेश आता रहता सबसे, 
गेंद बल्ले की तरह।

मेरे अंदर भी भरे हैं गुण के संग 
अवगुण बहुत,
एक है अभिलाष मन में घर रहे 
अक्षुण्ण बहुत,
शहर में औकात मेंरी 
एक मोहल्ले की तरह ।
-सीताराम "पथिक"
नहीं दिख रहे राम भरत से भाई बचे हुए ।
कलयुग में उस्तरा भांजते नाई बचे हुए।

इतना बड़ा अकाल पड़ा है मन के भावों में ,
मूत नहीं सकता है कोई रिसते घावों में 
कैसे पट पाएंगे खंदक खाई बचे हुए।

संस्कार का पूर्ण सफाया न्याय खड़ा नंगा, सौ सौ
चूहे खाकर बिल्ला नहा रहा गंगा, बच्चों का जूठन मां प्रायः खाई बचे हुए ।

धरती आसमान तक तब में अब में फर्क हुआ, मझधारों में नहीं किनारे बेड़ा गर्क हुआ ,
परमारथ मर चुका मात्र अन्याई बचे हुए 

नहीं दिख रहे राम भरत से भाई बचे हुए।

खेल सांप सीढ़ी का दिखता 
प्रायः रिश्तों में।

जिसको आप शरण देते हैं अपने बाड़े में ,
संकट में तब्दील वही हो गया गुमाड़े में ,
नम होते ही घुन लग जाता 
काजू पिस्तों में ।

आप खर्चते जिसके पीछे जीवन की पूंजी,
कांटा लगने पर न मिलती उससे एक सूजी,
एक जिंदगी अपनी जीनी 
पड़ती किस्तों में ।

ऐसा नहीं कि संबंधों में बिल्कुल आंच नहीं, 
एक सहस्त्र झूठ में दबकर छुपता सांच नहीं
अब भी है कुछ लोग जिन्हें हम 
गिनें फरिश्तों में।


सीताराम "पथिक"

शुक्रवार, 6 मई 2022

सीताराम "पथिक" के दो नवगीत प्रस्तुति वागर्थ ब्लॉग

सीताराम "पथिक"
के दो नवगीत 
प्रस्तुति
वागर्थ ब्लॉग


1-
जाने कहॉं खो गए 
नानी दादी के किस्से ।
राजा रानी के ऋषि मुनि 
शहजादी के किस्से।

जगह जगह से बैरंग 
चिट्ठी सी चिड़िया लटके।
तिनका तक रखने के खातिर 
कितने वन भटके।
उस चिड़िया से पूछो तो 
आबादी के किस्से।

आधी दुनिया जीत चुके थे 
जो इक गोटी से ।
हार गए लेकिन लाठी पर 
टिकी लंगोटी से ।
झूठे हैं या जादू हैं 
आजादी के किस्से।

जिस डाली पर बैठे हैं हम 
उसको काट रहे।
दिखा रहा जो हमें आईना 
उसको डांट रहे ।
उपलब्धी पर हावी हैं 
बर्बादी के किस्से।

इक पसली का चरखा मिल से 
भिड़ कर टूट गया।
संग में चला स्वराज, 
कहीं नुक्कड़ में छूट गया।
खत्म हो गए सत्याग्रह के 
खादी के किस्से ।

अदब और तहजीबों का अब 
यहां अकाल पड़ा।
जगह-जगह बेशर्म दुशासन 
ठोके ताल खड़ा।
राज खुशामद का, अब चलते 
चांदी के सिक्के ।
जाने कहॉं खो गए 
नानी दादी के किस्से।

2-
अपने मन की बात किसी से 
कहना मुश्किल है।
घर हो गया अजायबघर -सा 
रहना मुश्किल है।

जीवन है शतरंज और हैं पिद्दी जैसे हम 
राई जैसी खुशी और हैं खाई जैसे गम 
अपने बलबूते लंका का 
ढहना मुश्किल है ।

आँख मूँदकर भेड़ बकरियों जैसे चलना है।
किस पर करें यकीन चतुर्दिस पसरी छलना है।
धारा के विपरीत मीन -सा 
बहना मुश्किल है ।

ज्यादा देर नहीं उड़ पाते पंछी सपनों के।
व्यंग बाण अतिशय चुभते हैं मन में अपनों के।
नफरत से निर्मित दुर्गों का 
ढहना मुश्किल है।

सीताराम पथिक
_____________

मंगलवार, 3 मई 2022

साहित्यिक समूह और एडमिन _______________________


वैचारिकी
_______

      साहित्यिक समूह और एडमिन 
      _______________________

                                     वर्तमान समय सोशल मीडिया का समय है। जब हर कोई बहती गंगा में हाथ धोने पर तुला हो, तो भला हमारी साहित्यिक बिरादरी ही पीछे क्यों रहे ! 
हाल ही में एक आकर्षक विज्ञापन पर मेरी नजर पड़ी " रिसर्च-सेंटर " शब्द पर मेरा ध्यान गया।पड़ताल करने पर पता लगा कि वहाँ रिसर्च को छोड़ कर बाक़ी वह सब है, जिसकी वहाँ कोई जरूरत है ही नहीं!
    शोध संस्थान ? ऐसा नहीं कि इन संस्थानों में शोध नहीं हो रहा है। हो रहा है! पर विषय थोड़ा अलग है मसलन "नए लेखक को कैसे फसाये रखना है ? इसी का एक और रूप है साहित्यिक समूह!
         इन दिनों, खूब समूह बन रहे हैं प्रयोग के तौर पर आप एक समूह छोड़ कर देखें अगले आधे घण्टे में आप स्वयं को गुलीवर इन लिलिपुट की तर्ज पर, नए दस-बीस समूहों में पाएंगे।
                        ऐसी स्थिति में आपका टेंशन बजाय कम होने के और बढ़ जाना स्वाभाविक है। अब आप नए एडमिन रूपी दस-बीस छत्रपों की छत्र-छाया में होते हैं। ऐसे में आप स्वयं के कम नए छत्रपों के वश में ज्यादा होते हैं !
        लॉकडॉउन के दौरान सुपर सोनिक स्पीड से पेज उभरे और लगभग हर चौथा एरा-गैरा कवि पेज पर विराजमान मिला। जिसे न तो पढ़ने का शऊर था न ही लिखने की तमीज़ ! दरअसल पेज उन महारथियों के लिए ज्यादा कारगर सिद्ध हुआ जो खास तौर से मंचीय कवि थे और जिनका काम धंधा लगभग लॉकडाउन के चलते खत्म की कगार पर था। ऐसे लोग अपनी भड़ास आखिर निकालते तो निकालते कहाँ ?     
                      हाशिये पर आए मन्चियों को पेज ने सम्हाल लिया और पेज चल निकले। पेज पर आते ही नकली सिक्के ने असली को चलन से बाहर कर दिया। अक्षय वरदान प्राप्त व्हाट्सएप्प समूहों का तब से लेकर अब तक, कोई कुछ भी नहीं उखाड़ पाया। इनके स्वयम्भू एडमिन जो स्वयं गुरू घटाल भी होते हैं, जिन्हें भले ही कुछ नहीं आता हो पर मज़ाल है कि कोई इन्हें आईना दिखाने की हिम्मत जुटा सके! शायद ही इनकी मजबूत पकड़ से कोई सदस्य बच सका हो !
                  आइए मुद्दे की बात पर आते हैं। लेखन के नाम पर समूहों के इन एडमिन-कम-सरगनाओं ने ताबड़ तोड़ फर्जीवाड़ा फैलाया, जिसका लाभ कभी प्रकाशक बन कर लिया तो कभी आयोजक बनकर। इन लालाओं का लेते रहना ही एक मात्र शगल है।
                                   बेचारे भोलेभाले सदस्य एक अदद मात्र सर्टिफिकेट यानि की रद्दी के टुकड़े के लालच में कभी भी स्वयं से साक्षात्कार कर मंथन से नवनीत नहीं निकाल पाते और ना ही यह सोच पाते है कि क्या इन समूह बनाम गिरोह और इनके एडमिनस सरगना हमें और हमारी प्रतिभा को कहीं लगातार कुंद करते तो नहीं चले जा रहे हैं।
      पिछले आठ दस वर्षों से मिले समूहों के अनुभव के आधार पर मैंने कई प्रतिभाओं को एडमिन रूपी कापालिक पिशाचों के हाथों नष्ट होते देखा है।
                 उन्हें सम्मान रूपी कागज के टुकड़े का टोना बाँधे रहता है।सदस्य को मुलालते में रखा जाता है। कभी सदस्य के गले में "निराला" तो कभी "महीयसी" का तमगा लटका दिया जाता है। और तमगे की नकली चमक में प्रतिभा की असली दमक कब और कहाँ खो जाती पता ही नहीं चलता।
                           दिल से नहीं दिमाग से भी सोचें। आप यदि हमें यानि (वागर्थ) में, रचनाएँ प्रकाशनार्थ भेज रहे हैं तो हमें भूले से भी फर्जी फेसबुक सर्टिफिकेटस, स्तरहीन साझा संकलनों का व्योरा ( जिन्हें आपके और प्रकाशक के अलावा कोई भी नहीं जानता और ना ही जानने में किसी की दिल चस्पी है।), ना दें। हमें उन साप्ताहिक पत्रों का सन्दर्भ भी नहीं दें जिनका कोई पाठक वर्ग ही नहीं होता ऐसे पत्र सिर्फ आपको भ्रामक आत्म सन्तोष भर पहुँचाते हैं।
        हमें सिर्फ रचनाएँ भेजें, प्रकाशन योग्य सामग्री हमारा सम्पादन मण्डल स्वयं निकाल लेगा और बिना किसी निजी स्वार्थ और अपेक्षा से वागर्थ में प्रकाशित कर देगा। अच्छा साहित्य पढ़ें। अच्छे लोगों से जुड़ें।    
             ऐसे समूहों को आज ही छोड़ें जहाँ कुछ  "एनर्जी वैम्पायर" उर्फ "एडमिन" आपकी ऊर्जा को चूसकर, लगातार आपको नष्ट कर रहे हों।
             अंत में, जैसा की हम सभी इस तथ्य से भलीभाँति परिचित हैं कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं आपको भी पढ़ते पढ़ते यह लगने लगा होगा की यह महाशय सिर्फ डार्क साइड पर लगातार फोकस किये जा रहे हैं। सो मित्रों ऐसा भी नहीं की इसके उज्ज्वल पक्षों को हम बिल्कुल भुला देंगे।इसी सोशल मीडिया ने हमें अच्छी प्रतिभाओं से मिलने का मौका भी दिया लेकिन सँख्याबल में इनकी संख्या नगण्य है। 
       और हाँ, नवगीत के नाम से भड़कें नहीं, हम भी गीत के नाम से नहीं भड़कते। हम गीत का नवगीत का दोनों का समान रूप से आदर करते हैं । पर आपके लाख कहने से भी हम गज़ल को सजल नहीं कहेंगे।
   अच्छे गीत / नवगीत वागर्थ में प्रकाशनार्थ सादर आमन्त्रित हैं।

मनोज जैन 
    प्रस्तुति
    वागर्थ