सीताराम पथिक के नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ
●
अम्मा के आँचल में क्या-क्या ?
लौंग लांयची चंदन चावल
मीठे गुड़ की एक डरी ।
अम्मा लगती मुझे परी ।
मैं लगता हूँ माँ को चँदा
मुनिया रोटी लगती है।
माँ को एक कदम से सारी
दुनिया छोटी लगती है।
माँ के आगे पानी भरती,
नैन झुकाए दोपहरी।
दुख में हँसती सुख में रोती
माँ भी अजब पहेली है।
सपने बुनती हुई बया बस
माँ की एक सहेली है।
अनगढ़ को गढ़ देती अम्मा
जहाँ-जहाँ से हैं गुजरी ।
बाहर से तो बहुत कड़क हैं
अंदर नर्म चिरौंजी हैं।
जो भी मिलता उनसे हँसता
लगता सब की भौजी हैं।
दो पीढ़ी के बीच सेतु है
अम्मा हिमगिरि से उतरी ।
कभी तवे में कभी घरी में
बीसों बार पलटती है।
माँ में जाने क्या जादू है
सबके हिस्से बटतीं है।
आँगन की तुलसी है अम्मा
रहती हरदम हरी भरी।
अम्मा लगतीं मुझे परी।
मीठे गुड़ की एक डरी।
●
चिट्ठी में लिख लिख कर के
कुछ माँ ने काटा है।
लगता है कुछ छिपा लिया
कुछ मुझसे बाँटा है।
आड़ी तिरछी कटी हुई
रेखाएँ कहती हैं
माँ भी पर्वत काट काट
नदिया सी बहती है
उस नदिया में ज्वार बहुत है
थोड़ा भाटा है।
अक्षर अक्षर चीख रहे हैं
पंक्ति पुकार रही
प्रश्नचिन्ह कह रहे हैं सारी
विपदा रही सही
चिंता में चिट्ठी चिपकी है
चिपका आटा है।
खत में खबर नहीं खेतों की
आंगन की घर की
लगता है बापू की पगड़ी
फिर सर से सरकी
लगता है घर में माँ- बापू
और सन्नाटा है।
चिट्ठी में लिख-लिख कर के कुछ
मां ने काटा है।
●
रोना मत ,रोना मत, रोना मत।
आग तुम्हारी मुट्ठी में है खोना मत।
दुख के पर्वत तुम्हें काटने दुनिया में,
फूल बताशे तुम्हें बांटने दुनिया में,
किसी राह में कोई कांटा बोना मत।
हरेक आंख की तुमको कविता पढ़नी है
हर ठोकर पर तुमको मूरत गढ़नी है
नर्म बिछौने पर ललचाकर सोना मत।
तुम हंस दोगे तो जंजीरे टूटेंगी
हर एक ठूंठ पर नई कोपलें फूटेंगी
जीना तो बस जीना जीवन ढोना मत।
रोना मत, रोना मत, रोना मत।
गीत 4
मकड़ी के जाले हैं, टूटे शिवाले हैं ,
अब केवल सपनों के गांव में ।
मितवा रे ! अंधड़ बदलाव में ।
दूध दही घी वाली,निर्झरिणी
लुप्त हुईं गड़ा द्वारे में
मदिरा का पंपा
छाई चोर गंध बारूदी
ऐसी की सूख गई
बगिया की चंपा
कई दंश वाले हैं,
बिषधर भी काले हैं,
फन काढ़े पीपल की छांव में ।
मितवा रे !सपनों के गांव में ।
आंगन के चौरे में
बिहंस रही नागफनी,
नाली में पनप रही तुलसी
चौके में सुबह शाम
चूल्हा सुलगाने में पुरखों की
रामायण झुलसी
होठों पर ताले हैं, रोटी के लाले हैं,
बेंड़ी है उन्नति के पांव में।
मितवा रे !सपनों के गांव में।
गीत 5
द्वंद नहीं करना एकाकी,
द्वंद नहीं करना।
भूल चूक से कभी हवा को
कहना न कुलटा,
पलट गया पुस्तक का पन्ना
यदि कोई उल्टा ,
कभी भी बिबशता में कोई
अनुबंध नहीं करना।
धूप सीढ़ियां चढ़कर
फिर से अंदर आएगी।
वर्षों से गुमसुम
बैठी फिर चक्की गाएगी।
आवेगो के अश्वों पर प्रतिबंध
नहीं करना।
बंजर धरती में बादल फिर
खुशियां औटेंगे,
दाबे हुए चोंच में दाना
पांखी लौटेंगे,
घर भर के रोशन दानों को
बंद नहीं करना।
द्वंद नहीं करना।
●
पत्ता पत्ता हरा रहे।
घर खुशियों से भरा रहे।
खेत न कोई सूखा हो,
चूल्हा न कोई भूखा हो ,
दरवाजे पर भिक्षुक का
दान हमेशा धरा रहे।
ठाकुर तुलसी चौरा हो,
पूजा का हर ब्यौरा हो ,
उजियारा तो इतना हो,
अंधियारा कुछ डरा रहे ।
हर कोने हरियाली हो ,
कहीं न कुछ भी खाली हो ,
जीवन उत्सव जैसे हो ,
कण-क्षण में मधु भरा रहे ।
घर पक्का या कच्चा हो ,
आदम हो ,मन बच्चा हो,
कड़वा हो या तीखा हो,
जो बोलें वह
खरा रहे ।
सबको सब की फिक्र रहे ,
इतिहासों में जिक्र रहे,
लोग देख अनुसरण करें ,
दुख शरणागत
परा रहे ।
नहीं किसी पर शंका हो,
ना सोने की लंका हो,
साफ सफाई इतनी हो,
जैसे की अप्सरा रहे।
पत्ता पत्ता हरा रहे।
घर खुशियों से भरा रहे।
●
असहयोग के इस मरुस्थल में ,
हम पौधे कैक्टस के।
भूखे प्यासे बिना सहारे
दिन काटे हंस-हंस के ।
लता फूल की तरह नहीं हम
लटके खिड़की से।
अपनी सुबह शाम होती है
गाली झिड़की से।
दुनिया हम पर ही आजमाती
तीर सभी तरकश के।
दुर्लभ है हर चीज हमें
सारी जिंदगानी में।
पहला हक है मनी प्लांट का
अब भी पानी में।
चुप रखता है आश्वासन का
नाग, हमें डस डस के।
दिखने में वेडौल कंटीली
अपनी काया है।
अपनी नहीं किसी के ऊपर
कोई छाया है।
नायक नहीं मात्र जोकर हैं।
हम तो सर्कस के।
दर्जा हरेक जगह हासिल है
हमें विरोधी का।
तन में, मन में, टंगा हुआ है
तमगा क्रोधी का।
अपनी नाव लक्ष्य तक बढ़ती
रेती में धंस धंस के।
हम पौधे कैक्टस के।
●
मन अक्सर घायल होता है
अपनों की ही चोट से।
भीष्म पिता पर जैसे अर्जुन ने,
शर मारे ओट से।
यह ऐतिहासिक युद्ध सत्य है
झूठ-मूठ की कथा नहीं।
अपने बीच में युगों-युगों से
छल छद्मों की प्रथा रही।
असल,हमेशा नीचा खाता
जग में केवल खोट से ।
दाग लगे या दुर्गति होवे
किसे फिक्र है राष्ट्र की।
सत्तासीन जहां पर नजरें
जन्मांधे धृतराष्ट्र की।
न्याय वहां पर नामुमकिन है,
निकले काली कोट से ।
द्वार द्वार बज उठी डुगडुगी
जाने किस व्यापार की ,
अर्थी सुबह शाम उठती है
संस्कृति और संस्कार की ,
देखो, तन क्या ,मन पर ठप्पा
लगा हुआ है नोट से।
तेल नहीं निकलेगा चाहे
जितना उलझो रेत से।
आग अभी आना बांकी है
हवा कहे संकेत से।
क्या किस्मत का लेखा जोखा
बदलेगा इक वोट से।
सब कुछ होते हुए निहत्थे
कुछ भी नहीं है हाथ में।
जैसे बिंदिया लाल नहीं,
चढ पाती विधवा मांथ में।
हर कोई भर रहा तिजोरी
अपनी लूट खसोट से।
गले बराबर पहुंच चुकी है
बढ़कर नदिया दर्द की,
क्या सचमुच ही लुप्त हो चुकीं
सारी नस्ले मर्द की,
देखो सीना छलनी कर रहा
फिर गांधी का गोडसे ।
मन अक्सर घायल होता है
अपनों की ही चोट से।
●
जब विपदा घर आई ।
अपने छिन गए,सपने छिन गए,
छिन गए चारों भाई।
नाते छिन गए रिश्ते छिन गए,
काजू छिन गए पिस्ते छिन गए,
छिन गई पाई पाई।
बचपन छिना खिलौने छिन गए,
स्नेहिल गोद बिछौने छिन गए,
हंसी नहीं टिक पाई।
घोड़े छिन गए हाथी छिन गए,
बचपन के सब साथी छिन गए,
छिन गए अक्षर ढाई।
किस्से और कहानी छिन गए,
संज्ञाओं के पानी छिन गए,
छिना वक्त सुखदाई।
खाने का हर जायका छिन गया,
घरवाली का मायका छिन गया,
हया,छिनी घबराई।
संकट की यह महा घड़ी है
शुक्र है अपने साथ खड़ी है
तुलसी की चौपाई।
जब विपदा घर आई।
●
एक सदी भर एक शख्स था,
सदा समय से तेज।
जिसके सत्य अहिंसा सन्मुख,
नतमस्तक अंग्रेज।
कद काठी थी बिल्कुल छोटी
तन में भी बस एक लंगोटी
परमारथ ही सारा जीवन
हाथों में भूखे को रोटी
मन था खुली रहल में जैसे,
रामायण का पेज।
समता का था महापुजारी ,
थे अस्पृश्य प्राण प्रिय भारी,
सत्याग्रह का सच्चा सैनिक
वंदनीय थी हर एक नारी ,
पाग शीश में देश प्रेम के
रंगों से लबरेज।
दीन हीन सा जीवन सादा,
कभी नहीं आडंबर लादा,
पर हिम्मत हिमगिर से ऊंची
वज्र सदृश फौलाद इरादा ,
गोली खा ली मगर सजा दी
आजादी की सेज।
मन था खुली रहल में
जैसे रामायण का पेज।।
●
कई दिनों से नहीं उतरती
आंगन में चिड़िया
और गिलहरी मैना के संग दाना खाने को।
डर लगता है थम ना जाए
हर चलती चक्की
और तरक्की मेरे घर पर आतुर छाने को।
कच्ची मिट्टी घास फूस की
चीजों से निर्मित
कैसे कह दूं यह घर मेरा,केवल मेरा है। कनखजूर छिपकलियां
अनगिन टंगी दीवारों पर मकड़ी मक्खी और कीटों का यही बसेरा है ।
कोर्ट कचहरी है ठाकुर की
तुलसी के नीचे ,सुबह शाम जहं बहुएं झुकतीं दीप जलाने को।
धरे कई मटके पर मटके,
सर की गोढरी पर
पनघट बड़े भोर पनिहारिन हर दिन जाती है,
द्वारे में हीरा मोती की
मनमोहक जोड़ी,
पिजड़े में मिट्ठू खूंटे में गाय रभांती है।
राम ही जाने सूरज क्या
संदेशा लाता है, सभी भागते अपने घर से दूर कमाने को ।
कुछ दिन से कुछ बदली बदली
हवा लग रही है,
सुदिन सुमंगल के अवसर पर आंख फड़कती है।
बोल फूटते नहीं कभी थे
जिन जिन होठों से,
आज बिजलियां वहीं
कड़कती और धड़कती हैं।
उम्मीदों की भरी हवाएं
ऐसे निकलीं कि सभी खोजते
अपने घर में ठौर ठिकाने को।
राह भूल कर कहीं से कोई ,
भूला भटका ही ,
चाह रहा हूं हर दिन,मेरे घर पर आए तो।
घर को करें पवित्र चरण रज
दे करके अपनी
और आंगन में खाए अपनी झूठ गिराए तो।
गुस्सा थूंके और बताएं बातें खुलकर
कि किसे भेज दूं अपने घर से
तुम्हें बुलाने को ।
कई दिनों से नहीं उतरती
आंगन में चिड़िया और गिलहरी मैना के संग दाना खाने को।
●
कुछ ना कुछ तो मिला सभी
को घर के हिस्सा बांट में ।
रखे गए कर्जे सिरहाने
सब बापू की खाट में।
जाने कहां-कहां से अनगिन
कंकर पत्थर जोड़ के।
अम्मा ने एक ख्वाब बुना था
अपने हाथ सिकोड़ के।
बिच्छू गोजर चढ़ आते थे
जब सोतीं थी टाट में ।
हर एक चीज निकल कोठों से,
आंगन में जब ढेर हुई।
सांस आखिरी ली तब घर ने
एक रत्ती न देर हुई।
आधा-आधा हुआ सभी कुछ
दोनों के ही लाट में ।
जोरों से आ गया पसीना
तब बेटों के माथ में ।
प्रश्न उठा जब अम्मा बापू रहेंगे
किसके साथ में।
बहुएं बोल उठीं जल्दी से,
गंगा जी के घाट में।
घर के पिछवाड़े कोने में
एक कुटिया फिर तनी गई।
सपनों की अर्थी ले अम्मा
रहने को अनमनी गईं।
बार-बार बिधना को कोसें
क्या लिख दिया ललाट में।
रखे गए कर्जे सिरहाने
सब बापू की खाट में ।
●
जिसने जैसे खत भेजे हैं
सारे रखे सहेज कर।
मैंने मन की मेज पर ।
छुई मुई सी पहली चिट्ठी
सहमी सी सकुचाई।
प्रिय के हाथों जैसे सौंपे
कोई वधू कलाई।
पंखुरी पंखुरी स्मृतियों की
बिखरी चहुंदिश सेज पर।
कुछ अलमस्त भोर सी बिल्कुल
अधसोई जगती,
घुटनों के बल
इधर उधर कुछ तुतलातीं भगतीं,
फाग बांधता पाग समूची,
इत्तर से लबरेज कर
कुछ चिट्टियां बिटिया की बातें,
कुछ हैं बच्चे की।
झरवेरी रसभरी
कहूं या अमिया कच्चे की।
कुछ का गुरुकुल में कब्जा है
कुछ का है कॉलेज पर।
जलते तन को शीतल करते
हैं जैसे झोंके।
गल में बहियां डाल चिट्ठियां
कुछ रस्ता रोकें।
बिटिया को मायके बुलवाती
अखियां बदली भेजकर।
करना ही है यदि पत्रों के
नखसिख की तुलना
देखें आप किसी चूजे के
पंखों का खुलना
शब्द शब्द कृति विश्वकर्मा की,
अंकित है हर पेज पर।
जिसने जैसे खत भेजे हैं
सारे रखे सहेज कर।
मैंने मन की मेज पर।
●
यह कैसा बैषम्य एक ही
मिट्टी के जब हम तुम लाला।
मैंने पाटी भूंख आंत की
तुमने खजुराहो गढ़ डाला।
कैसे पौ बारह हो जाते
तुमने जो भी फेंके पांसे।
सवा सेर गेहूं का कर्जा
चुका न पाती मेरी सांसे।
प्यास मेरी औंधे मुंह घट पर
तुम पीते हो छककर हाला ।
हम तुम दोनों एक योनि के
धरती पर आदम के जाए।
धूप हवा पानी त्रतु सारी
हम पर एक सा रंग लगाए।
प्रकृति हमें तब क्यों नहीं देती
एक बराबर तिमिर उजाला।
तुम पर न कोई पाबंदी
गगन चूमती सभी उड़ाने।
निर्वसना हर चीज हो गई
तभी मिले मुझको दो दाने।
संजय जैसी दृष्टि तुम्हारी
और मेरी आंखों में जाला ।
तुमने वैभव के बलबूते
लांघी है हर लक्ष्मण रेखा ।
दुख के दरवाजे पर एक पल
तुमने कभी पलट कर देखा।
मैं अर्थी का फूल और तुम
स्वागत की सतरंगी माला ।
मैंने जो भी सपने देखे
सब के सब वे रहे अधूरे।
दफ्न हुआ मैं हर एक नीव में
तुम बन बैठे स्वर्ण कंगूरे।
मैं भटकूं मृगया के पीछे
तेरे चरणों में मृगछाला ।
तेरे मेरे बीच अगर यह
खुदती नहीं भेद की खांई।
एक साथ हम बनकर रहते
एक दूजे की चिर परछाईं।
मैं बनता मुल्ले की छागल
और तुम बनते अमृत हाला ।
मैंने पाटी भूंख आंत की
तुमने खजुराहो गढ़ डाला ।
●
मोम के है पांव, पथ हैं आग के ।
जाए तो जाए कहां मन भाग के।
चिर व्यवस्था की नदी में बाढ़ है
घुट रही हैं दूधमुंही किलकारियां।
ओढ़कर रंगी लवादे रात दिन
कोई ममता पर चलाता आरियां।
दृष्टियों का भी गुलाबीपन घटा
बस गए दृगझील में दल नाग के।
दबे पांवों आ रही है त्रासदी
संवेदना के मृदुल अंखुए नोचने,
पूर्वजों के मील के पत्थर उखाड़े
अपने हाथों एक अंधी सोचने,
प्रणय को फिर से ग्रहण ने छू लिया,
वस्त्र पहने पर्व ने वैराग्य के।
कर रहे सब आत्मभक्षी साधना
कौन समझेगा भला इस त्रास को ।
मन हुआ विक्रम, बदन बेताल
झुके कंधे ढो रहे हैं लाश को।
पल-पल बदलती है लिखावट वक्त की,
हंस बैठे हैं शरण में काग के ।
जाए तो जाए कहां मन भाग के ।
मोम के हैं पांव पथ हैं आग के।
●
अर्थों को अब लज्जित करते
शब्द तार तार सारी मर्यादा पड़ी मगर,
नग्न देह पर पट नहीं धरते शब्द।
पहले थे पहचान ये अपनी संस्कृति के, मीठी मधुर जुबान पुरानी नव कृति के, ना जाने अब किससे डरते शब्द।
थे पहले दृढ स्तंभ हमारी भाषा के,
उम्मीदों पर टिके गगन थे आशा के,
अब असमय पत्ते सा झरते शब्द।
पहले थे संबोधन की आधारशिला ,
दृढ रिश्ते नातों से निर्मित लाल किला,
अब नहीं किसी की पीड़ा हरते शब्द।
आदर और सत्कार रहेंगे कब टिक के,
अपने बीच शब्द अब चलते प्लास्टिक के,
अब उड़ान ऊंची नहीं भरते शब्द।
शब्दों से कद काठी में अपशब्द बड़े,
फाड़ रहे हैं सबकी भजिया खड़े-खड़े,
बाहर आने से पहले अब नहीं संवरते शब्द।
जो अपशब्द खूब गढते हैं उनके नामों की। चर्चा होती है और वर्षा खूब इनामों की। इसीलिए आपत्तिजनक अब
बाना धरते शब्द।
●
मन मयूर सा नांच रहा है ।
किसके आने का
संदेशा बांच रहा है।
उद्धत प्रथम रश्मि सूरज की आने को,
तत्पर हैं सब बिहंंग एक संग गाने को, मौसम का मिजाज
भिनसारा जांच रहा है।
किस की चर्चा छिड़ी अधिखिली कलियों में।चहल-पहल बढ़ रही अचानक गलियों में।
कौन सर्द रातों में
बनकर आंच रहा है।
बरसों से बिछड़े कुछ शिकवे गिले मिले। एकबारगी पुष्प धरा के सभी खिले।
बुड्ढा चांद बैठ पिछवाड़े खांस रहा है।
अधरान धरी बांसुरिया
क्या कुछ बोल रही।
मलयागिरी का मट्ठा पूर्वा घोल रही।
मक्खन ढोता बादल कैसे कांख रहा है।
कांच सरीखे टूटे रिश्ते सभी जुड़े।
किसके घर की ओर रास्ते सभी मुड़े।
दो और दो को कौन जोड़ता पांच रहा है।
गीत 18
इंसानों को उम्र आजकल
मिलती प्यालो की।
फेहरिस्त लंबी है लेकिन
मन में ख्यालों की।
आज अभी है जो उसको ही
कल का पता नहीं।
प्रायः दंड उसे मिलता है
जिसकी खता नहीं।
चांदी काट रही है छककर
नस्ल दलालों की।
सबसे अधिक अमीर वही
है जो बैरागी है।
मुख्य अतिथि वन हर पुलाव के
घर में आगी है ,
चौकीदारी करें चिंगारी लकड़ी टालों की ।
न्याय सलीवों के ऊपर ही
रहे सदा लटका ।
हरेक क्षेत्र में झूठ है हावी
सच खाए पटका।
माया पसरी हुई चतुर्दिश
छल बल जालों की।
लज्जा सिसक रही कंखरी में
दब कर नंगों की।
धर्म क्षेत्र कलयुग में पहली
शाला दंगों की।
आगन चढ़े हुए हैं सारे
बलि दीवालों की ।
वक्त वक्त की बात है
प्यारे सब में फर्क दिखे।
स्वर्ग जिसे कहती थी दुनिया
बदतर नर्क दिखे।
मेहनत में फिर गया है पानी
कितने सालों की।
●
शुतुरमुर्ग बनने से कोई संकट नहीं टले।
हलाहल को धारो प्यारे शिव की तरह गले।
सोना जितना तपेगा उतना ज्यादा निखरेगा,
पारा जुड़ जाएगा चाहे जितना बिखरेगा,
टनो झूठ में जैसे दबकर सत्य नहीं बदले।
परजीवी की तरह सरलता
गिद्ध भोज होती।
अडचन से ही नए सृजन की
नई खोज होती।
धरा सिंधु की गहराई से रत्न सभी निकले ।
सूत्र छिपा हैं हर एक कर में
नव परिपाटी का।
श्रम है कुंभकार और भ्रम है
लोंदा माटी का।
हर सवाल का हल है यारों
तब क्यों हाथ मले ।
●
गैरों खातिर उत्साहित
अपनों में गुमसुम ।
एक डोरी में बंध करके भी
खिंचे खिंचे हम तुम।
खुली किताबें सारे जग को
पर स्वजनों को बंद,
कहीं निछावर सारा जीवन
कहीं वक्त कुछ चंद,
कहीं बिछाएं पलक पांवड़े
कहीं दवा ली दुम।
अपने बीच बना ही रहता
वही राग वही द्वंद
परदेसी आया तो चहुं दिस
बरस गया मकरंद ,
एक पल यह मन छुईमुई सा
दूजे खिला कुसुम ।
वर व्यवहार मात्र औपचारिक
बचे हुए हैं शेष,
घर-घर छिड़ी हुई महाभारत
फिर लिख रहे गणेश,
मानव के एक कर में कालिख
दूजे में कुमकुम।
सदियां संग संग बीती लेकिन
कोई नहीं जुड़ाव ,
अपने बीच नमक का रिश्ता
बढ़ा रहा है घाव,
एक दूजे की खोज खबर क्या,
पता नहीं मालूम।
●
तन पसरा रहता है घर में, मन हरदम यात्रा में रहता।
नंगे पांव निकलकर घर से हर एक दिशा में घूमा करता,
लड़ लेता कांटो से पहले फिर फूलों को चूमा करता,
पलधी मारे हुए पहाड़ों से उठकर चलने को कहता ।
कभी नीम चढ़ सुआ पकड़ता कभी काम करता खेतों में,
जड़ चेतन सबसे बतियाता अलग तरह के संकेतों में
भाग रही नदियां में नैया जैसे उल्टा सीधा बहता।
काबा काशी रोज घूमता नित गंगा में डुबकी मारे,
बजा बजा चर्चों के घंटे ,लंगर बांट चुका गुरुद्वारे,
रचता रहता चौबीस घंटे कभी नहीं कुछ उससे ढहता ।
काम क्रोध मद लोभ मोह के उस पर काम ना आते पहरे,
नारद जैसा श्राप है मन को दो पल से ज्यादा ना ठहरे
जिद्दी है नटखट बच्चे सा जिसको रोको उसी को गहता ।
-सीताराम "पथिक"
●
सभी पुराने जेवर बदले ।
देखो हवा ने तेवर बदले ।
हाथ जोड़ नैनो को भींचे,
सदियों खड़ी रही वह पीछे,
समय साध अपने स्वर बदले ।
पहले थी परियों का किस्सा
अब यथार्थ का पूरा हिस्सा
नापे अंबर जब पर बदले ।
चले हर जगह उसकी टांकी
कोई क्षेत्र नहीं है बांकी
जिधर देख ले मंजर बदले ।
खड़ी हुई अब सबसे आगे ,
दुनिया उसके पीछे भागे ,
श्रम से भ्रम को घर-घर बदले ।
●
खुशी मनाएं या कि गम।
नदी किनारे के बिरवे हम।
एक उधेड़बुन हरदम मन में जारी रहती है,
हरेक बदलती ऋतुएं हम पर भारी रहती है
गड्डी चलती हुई अचानक कहां पे जाए थम ।
नदी किनारे के बिरवे हम।
जीवन यापन को बस पानी नदी से लेते हैं,
ठौर ठिकाना अनगिन पंछी को हम देते हैं,
चलते हुए मुसाफिर
थककर दो पल लेते दम। नदी किनारे के विरवे हम।
आए दिन ही नदी हमारी जड़ें हिलाती है,
एहसानों का एक आईना रोज दिखाती है,
हंसती है वह जब हो जाती आंख हमारी नम।
नदी किनारे के विरवे हम।
कई बिरादर अपने हमको असमय छोड़ गए,
जाते जाते मन के अनगिन भ्रम भी तोड़ गए,
सब के सब लहुरे हो जाते संकट में हरदम।
नदी किनारे के बिरवे हम।
●
मैं बादल बन कर पत्र लिखूं ,
तुम धरती जैसे पढ़ लेना।
कुछ अगर दिखाई कम देवे,
मंदिर की सीढ़ी चढ़ लेना।
सबसे पहले गणनायक को ही ढाल बनाया है मैंने,
आड़ी तिरछी रेखाओं का
फिर, जाल बनाया है मैंने,
ले यादों की कुछ पंखुड़ियां
उनसे गुलदस्ता गढ़ लेना।
कुछ अगर-------चढ़ लेना।
क्या हाल बताऊं मैं अपना
मैं पास खड़ा सुर्खाबों के,
उड़ गए अचानक सब पंछी
नैनों में ठहरे ख्वाबों के,
मैं तारे गिनने बैठा हूं,
तुम चांद सरीखे कढ लेना।
कुछ अगर------- चढ़ लेना।
हो पास नहीं तो कोई भी
हर दिन ही मुझको ठग लेता,
मैं दर्द करूं जिससे साझा
वह वक्त सरीखे भग लेता,
अब सब कुछ तुम पर निर्भर है
जो निर्णय लेना दृढ़ लेना।
कुछ अगर दिखाई कम देवे
मंदिर की सीढ़ी चढ़ लेना ।
मंदिर की सीढ़ी चढ़ लेना ।।
●
गरमा- गरम चाय पीने से
अक्सर होंठ जला करते हैं।
गर्म खून निज मार्ग बना खुश उन्हें सुहाती लीक नहीं,
पर जीवन के कुछ मसलों में होती जल्दी ठीक नहीं,
बिना मनन कुछ करने वाले अक्सर हाथ मला करते हैं
एक साथ मुर्गी के अंडे पाने वाले ख्वाब न देख,
बिना विचारे लांघ रहा है फिर तू कोई लक्ष्मण रेख
उम्मीदों की सिय छद्मों से अक्सर लोग छला करते हैं
रोटी नून चबाकर खुश रह, जग बालों से आस न रख
मुश्किल की बकरी लौटेगी कोई आगे घास ना रख
चौकन्ना रह, अस्तीनों में अक्सर
नाग पला करते हैं
गरमा गरम चाय पीने से अक्सर होंठ जला करते हैं
अब क्या होगा राम
परिंदे घर न लौटे
सुबह से हो गई शाम
परिंदे घर ना लौटे।
बाहर निकल निकल कर अम्मा
पगडंडी की ओर निहारे।
जाने अनजाने चेहरों पर
खोजे मन के उत्तर सारे।
हो गई खबर तमाम
परिंदे घर ना लौटे।
लट्टू जैसे नाच रही है
मन में लिए हुए बेचैनी,
और करेजे में शंकाएं
चुभा रही हैं सुइयां पैनी,
करे नहीं विश्राम
परिंदे घर ना लौटे।
सूरज के जाते ही नभ मे
तारों के संग लौटा चंदा।
गाय बछेरू बापस लौटे,
लौटा गांव विदेशी बंदा।
लौटे आठो याम
परिंदे घर ना लौटे।
नारियल रोट पंजीरी के संग
कथा बद चुकी मंदिर जाके
सवा रुपैया देकर जंत्री
दिखवाई पंडित बुलवाके
हुए विधाता बाम
परिंदे घर ना लौटे।
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बहुत भूल पहले ही कर ली ,
करो नहीं अब कोई भूल।
मत तोड़ो डाली से फूल।
इसमें लगी हुई माली की
पूंजी सारे जीवन भर की ,
चारों ऋतुओं ने भी इसको
दुलराने में कहां कसर की,
पहरेदारी में कांटो
के
झूला , झूल रहा है फूल।
एक झुंड तितली का आता इसके पास खेलने खूब
राग भैरवी इसे सुनाते
भौंरे व्याकुलता में डूब
मधुमक्खी दिन भर लड़ियाती मगर चुभा देती है शूल।
हंसी खनकती जब जब इसकी लता वृक्ष दोनों कुर्बान
अजनबियों से कर लेती है गंध अचानक ही पहचान
हवा लगा देती है चंदन लेकर के बगिया की धूल।
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कोई सुनता नहीं थक गए हम चिल्लाके।
किससे साझा करें दर्द हम अपना जाके।
लगता है पूरी की पूरी बस्ती है गूंगे बहरों की ,
जाने क्या संदेशा देना चाह रही चुप्पी लहरों की,
हवा हड़बड़ी में भगती है गर्म धूप से कुछ बतिया के ।
दरवाजे सब बंद दिख रहे किस घर की सांकल खडकाएं,
करतीं थीं जो मदद सभी की नग्न खड़ी है वे संज्ञाएं,
शायद गलती कर बैठे हम, खुद ही इस बस्ती में आके।
राजा मंत्री संत्री सब की चौखट से हो हो कर लौटा,
झूठ मिला हर जगह लगाए सच्चाई का बड़ा मुखौटा,
अर्जी नहीं बढ़ाई आंगे पेशकार ने पैसे खाके ।
ऊंट के मुंह में जैसे जीरा ऐसी हैं सुविधाएं जन को, सुरसा बैठी है सत्ता में सत योजन खोले आनन को,
पेट रोज भरती जनता का ,नए-नए सपने दिखला के।
हार नहीं मानूंगा लेकिन मैं भी जिद्दी कम थोड़ा हूं,
संस्कृति इस शीश महल में एक ईट मै भी जोड़ा हूं,
अड़ा रहूंगा अंगद जैसे, घर लौटूंगा उत्तर पाके।
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मैं अकेला ही खड़ा हूँ
जा रहे सब छोड़कर।
उम्र के इस मोड़ पर।
जब शुरू यात्रा हुई थी
तब बहुत जन साथ थे।
शीश पर मेरे बुजुर्गों के
बहुत से हाथ थे।
फिक्र तब आती नहीं थी
पास मेरे दौड़ कर।
था सफर अनजान फिर भी
लोग खुद जुड़ते गए।
वक्त के सांचे में ढल कर
रास्ते मुड़ते गए।
हमसफर मुझको मिला था
बर्जनाएं तोड़कर।
घर में मेला सा लगा था
जब थे बच्चे पास में।
उड़ गए चूज़े सभी फिर
एक दिन आकाश में,
खुशी सहमी-सी खड़ी है
चुप्पियों को ओढकर।
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शहर पहली बार आया मैं
निठल्ले की तरह ।
कर लिया स्वीकार उसने
मुझको छल्ले की तरह।
सच कहूं कि मेरे घर पर
क्या मेरी औकात है।
जीभ की रक्षा के खातिर
जिस तरह से दांत है।
मैं खड़ा रहता हमेशा
दर पर पल्ले की तरह।
हो गई बूढ़ी तो क्या मां ,
ख्याल रखती है अभी
रोटियों में घी चुपड़ कर
दाल रखती है तभी,
चाहती है हर दिन बढूं मैं ,
बांस कल्ले की तरह।
नित सुबह से शाम तक मैं
काम करता हूं जहां,
हर अंधेरे को हटाकर घाम,
धरता हूं वहां,
सेठ वह रखता है मुझको
अपने गल्ले की तरह।
घर के बच्चों के लिए मैं
हूं खिलौना आज भी,
साज हूं तो मैं किसी के शीश
का हूं ताज भी,
पेश आता रहता सबसे,
गेंद बल्ले की तरह।
मेरे अंदर भी भरे हैं गुण के संग
अवगुण बहुत,
एक है अभिलाष मन में घर रहे
अक्षुण्ण बहुत,
शहर में औकात मेंरी
एक मोहल्ले की तरह ।
-सीताराम "पथिक"
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नहीं दिख रहे राम भरत से भाई बचे हुए ।
कलयुग में उस्तरा भांजते नाई बचे हुए।
इतना बड़ा अकाल पड़ा है मन के भावों में ,
मूत नहीं सकता है कोई रिसते घावों में
कैसे पट पाएंगे खंदक खाई बचे हुए।
संस्कार का पूर्ण सफाया न्याय खड़ा नंगा, सौ सौ
चूहे खाकर बिल्ला नहा रहा गंगा, बच्चों का जूठन मां प्रायः खाई बचे हुए ।
धरती आसमान तक तब में अब में फर्क हुआ, मझधारों में नहीं किनारे बेड़ा गर्क हुआ ,
परमारथ मर चुका मात्र अन्याई बचे हुए
नहीं दिख रहे राम भरत से भाई बचे हुए।
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खेल सांप सीढ़ी का दिखता
प्रायः रिश्तों में।
जिसको आप शरण देते हैं अपने बाड़े में ,
संकट में तब्दील वही हो गया गुमाड़े में ,
नम होते ही घुन लग जाता
काजू पिस्तों में ।
आप खर्चते जिसके पीछे जीवन की पूंजी,
कांटा लगने पर न मिलती उससे एक सूजी,
एक जिंदगी अपनी जीनी
पड़ती किस्तों में ।
ऐसा नहीं कि संबंधों में बिल्कुल आंच नहीं,
एक सहस्त्र झूठ में दबकर छुपता सांच नहीं
अब भी है कुछ लोग जिन्हें हम
गिनें फरिश्तों में।
सीताराम "पथिक"
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