मंगलवार, 31 जनवरी 2023

संवेदनात्मक आलोक पटल पर चर्चा : प्रस्तुति : ब्लॉग वागर्थ


लोकप्रिय पटल
संवेदनात्मक आलोक समूह के सदस्यों द्वारा मनोज जैन मधुर के दो नवगीतों पर हुई चर्चा की एक विनम्र प्रस्तुति।

प्रस्तुति
ब्लॉग वागर्थ

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 || महत्वपूर्ण सूचना ||
--------------------------
आज रविवार को इस पटल का 109 विशेषांक दिया जाना था। कुछ तकनीकी कारणों से हम अंक प्रकाशित नहीं कर पा रहे हैं इसका हमें खेद है।

        रविवार एवं बुधवार दो नवगीतों के विमर्श क्रम में इस बार भोपाल मध्य प्रदेश से देश का प्रतिनिधित्व कर रहे लोकप्रिय कवि एवं 'वागर्थ' फेसबुक समूह के एडमिन मनोज जैन 'मधुर' जी के दो नवगीतों पर विमर्श हो रहा है। 

       आपकी बेबाक समीक्षात्मक टिप्पणियों/प्रतिक्रियाओं की हमें बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी। पटल के लिए किया गया आपका किंचित सहयोग नवगीत के संवर्धन में सहायक होगा। 
सादर।


          🌍📚🖋️🌹🛐
      संयोजक/संस्थापक सदस्य
        'संवेदनात्मक आलोक'
   विश्व नवगीत साहित्य विचार मंच


 विमर्श हेतु : दो नवगीत
【1】
|| बम-बम भोले ||
----------------------

                 - मनोज जैन 'मधुर'

धूनी रमा प्रेम से बंदे !
बोल जोर से 
बम - बम भोले ।

पूँजीपतियों के
हाथों की 
कठपुतली है देश हमारा
इनके ही सारे
संसाधन 
आम आदमी है बेचारा

निजीकरण में 
जीवन नैया
खाने लगी रोज हिचकोले ।

सपनों की झाँकी
में खुद को
राज कुँवर जैसा पाते हैं
सपने तो हैं 
काँच सरीखे
टूटे और बिखर जाते हैं

वह आवाज़ 
दबा दी जाती 
जो विरुद्ध सत्ता के बोले ।

कदम-कदम पर
नफरत बोते 
हमने कुत्सित मन को देखा
रौंद रहे हैं 
प्रतिमानों को
मिटा रहे हैं निर्मित रेखा

मारा करते 
शान्ति दूत को 
बदल-बदल नफरत के चोले ।
           •••

    【2】
|| उगने लगे अखाड़े ||
--------------------------

चुप्पी ओढ़े रात खड़ी है
सन्नाटे दिन बुनता
हुआ यंत्रवत 
यहाँ आदमी
नहीं किसी की सुनता 

सबके पास
समय का टोटा
किससे !
अपना सुख - दुख  बाँटें
दिन पहाड़ से कैसे काटें !

बात-बात में
टकराहट है
यहाँ नहीं दिल मिलते
ताले जड़े हुए 
होठों पर
हाँ ना में सिर हिलते

पीढ़ीगत इस 
अंतराल की
खाई को अब कैसे  पाटें!
दिन पहाड़ से कैसे काटें !

पीर बदलते
हाल देखकर
पढ़ने लगी पहाड़े
तोड़ रहा दम 
ढाई आखर
उगने लगे अखाड़े

मन में रहे 
कुहासे गहरे
इन बातों से  कैसे  छाँटें !
दिन पहाड़ से कैसे काटें !
             •••

निवास : 106, विट्ठलनगर, गुफामन्दिर रोड,
    भोपाल- 462 030 [मध्य प्रदेश]
     मोबाइल 9301337806


 मनोज जैन के दोनों गीत अच्छे। सरल सहज शब्दों में अपनी बात कहते हुए।
बहुत बधाई।

जय चक्रवर्ती
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सरल शब्दों में विडम्बनाओं विसंगतियों को स्वर दिये हैं मनोजजी जैन ने। हार्दिक बधाई ।

कुँवर उदय सिंह अनुज
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 इस तरह के सुझाव देने से बचें... सुझाव की ये पंक्तियाँ नवगीत के अनुरूप नहीं हैं... नवगीत में लय और प्रवाह बहुत आवश्यक है... नवगीत के लिए लम्बी साधना की आवश्यकता होती है तब कहीं नवगीत सध पाता है.... मनोज मधुर के नवगीत  प्रायः बहुत सधे हुए होते हैं... उस्मानी जी आप भी नवगीत को इस समूह से सीखकर लिखने का अभ्यास कर सकते हैं... नवगीत के शिल्प में अभी सलाह देने से परहेज करें... 

-डा० जगदीश व्योम
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आदाब आदरणीय मंच।

नवगीत के स्थापित कवि महोदय की दोनों रचनायें पीड़ाओं और विडंबनाओं से परिपूर्ण हैं।

पहली रचना

दूसरी रचना के जैसा दमदार शीर्षक पहली रचना माँग रही है । पहली रचना का शीर्षक *नफ़रत के चोले* या *आज के हिचकोले* जैसा कुछ हो सकता है मेरे विचार से।

आगे के सभी बंध बेबाक टिप्पणियाँ हैं परिस्थितियों पर। आम आदमी की जद्दोजहद है पूँजीपतियों से, निजीकरण से, सपनों और यथार्थ से, सत्ता से, नफ़रतों और वर्जनाओं से, अशान्ति-दानवों से।  विचारोत्तेजक सृजन। हार्दिक बधाई रचनाकार महोदय को।

*दूसरी रचना* -  बढ़िया शीर्षक। ऐसा ही दमदार शीर्षक पहली रचना माँग रही है । 

इस दूसरी रचना में भी वैश्वीकरण,विकास और भौतिकता की तथाकथित दौड़ और होड़ में आम आदमी और रिश्तों के साथ जीवनशैली की बिगड़ी तस्वीर शाब्दिक व चित्रित की गई है।

पहाड़/पहाड़े, आखर/अखाड़े,  चुप्पी/सन्नाटे, खाई आदि का बेहतरीन प्रयोग।

तुकान्त में बाँटे/काटें ,  छाँटे/काटें  पर तो विशेषज्ञ ही मार्गदर्शन प्रदान कर सकेंगे। 

बेहतरीन विचारोत्तेजक नवगीतों हेतु. हार्दिक बधाई आदरणीय मधुर जैन 'मधुर' जी। 
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मंच संचालक महोदय।
शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

पहला नवगीत सत्ता का यथार्थ प्रतिबिंबित करता है। सत्ता और पूँजीपतियों की साँठगाँठ से आम आदमी कैसे ठगा जाता है, दृष्टव्य है-

सपनों की झाँकी 
में खुद को 
राज कुँवर जैसा पाते हैं
सपने तो हैं 
काँच सरीखे
टूटे और बिखर जाते हैं

भौतिकता और अर्थवाद के पाटे में आदमी किस तरह एकाकी, यंत्रवत रहने को विवश हुआ है, उसकी बड़ी सुंदर झाँकी है दूसरे नवगीत की इन पंक्तियों में-

चुप्पी ओढ़े रात खड़ी है
सन्नाटे दिन बुनता
हुआ यंत्रवत 
यहाँ आदमी
नहीं किसी की सुनता

दोनों बेजोड़, अपनी बात कहने में सफल नवगीत। आदरणीय मनोज जैन जी को बहुत-बहुत बधाई। 


   -नंदन पंडित 
गोण्डा- उत्तर प्रदेश

आदरणीय मनोज जैन जी  नवगीत के सुपरिचित हस्ताक्षर हैं।नवगीत के संदर्भ में उनका कार्य और लेखन अनूठा तथा उल्लेखनीय है।प्रस्तुत दोनों नवगीतों में समय की विडंबना ,राजनीतिक- धार्मिक पाखंड और विसंगतियों की बेबाक अभिव्यक्ति हुई है, और ऐसा लेखन समय की जरूरत भी है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से दोनों नवगीत सशक्त हैं ।इनमें कमियां देखना हमारा दृष्टि दोष ही होगा।
   सादर आभार सहित.

रघुवीर शर्मा
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 आज विमर्श हेतु मनोज जैन जी के दोनों ही नवगीत सामयिक हैं । पहले गीत में आजकल के सियासी दौर को गीत  के माध्यम से शब्द दिए हैं तथा दूसरे नवगीत  में आमजन के बढ़ते एकाकीपन  का चित्रण ।
दोनों ही लाजवाब नवगीत । जैन जी को हार्दिक बधाई ।
आदरणीय रामकिशोर दाहिया जी को चयन हेतु हार्दिक बधाई ।

नवगीत विमर्श में आज प्रिय बंधु मनोज मधुर जी के नवगीत प्रस्तुत किए गए हैं।
मनोज भाई को पढ़ना, व्यंग्य की तीक्ष्ण धार को, गहनतम परतों में महसूस करना है। पहले नवगीत का मुखड़ा ही, कबीर की उलटबांसियों की याद दिला देता है।
निजीकरण में जीवन नैया,
आज के हालात और आम व्यक्ति की पीड़ा का मिला-जुला लेखा है।
सपनों का बिखरना उनकी नियति है ।


उगने लगे अखाड़े

आदमी यंत्रवत ही है क्योंकि, कल का एक अर्थ मशीनों से वाबस्ता है। दिल नहीं मिलने के समीकरण तो शाश्वत हैं।
जिनके संतुलन के लिए प्रयास भी नहीं किए जाते हैं।
खूबसूरत गीतों के लिए मनोज भाई को साधुवाद

और आदरणीय दाहिया जी के इस सतत् श्रम और साहित्य-समर्पण के लिए उन्हें बेहद बधाई।
 मैं उस्मानी साहेब की बात से सहमत हूँ।
तुकांत परिमार्जनीय हैं।
उम्मीद करता हूँ मनोज भाई इसका संज्ञान लेंगें

ब्रजेश शर्मा विफल
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 नवगीत के इस विश्व विख्यात पटल पर आज नवगीत के जाने माने हस्ताक्षर प्रिय बंधु मनोज जी के दो नवगीत विमर्श हेतु प्रेषित किये गये हैं। दोनों ही नवगीत बेजोड़ हैं। निम्न विशेष --

मारा करते
शांति दूत को
बदल-बदल नफरत के चोले।

एवं

तोड रहा दम
ढाई आखर
उगने लगे अखाड़े

बहुत सुंदर कहन हैं, जो विचारने को उकसाते हैं। बंधु मनोज जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।


बृजेश सिंह
गाजियाबाद

 नवगीत के अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर आज आदरणीय श्री मनोज जैन के दोनों नवगीत अनुपम भावाभिव्यक्ति के प्रतीक हैं । पहले नवगीत में वर्तमान राजनीतिक परिवेश में पूँजीपतियों की भूमिका और निजीकरण द्वारा उनके पोषण का सशक्त चित्रण किया गया है । ऐसे वातावरण में आमजन के -
सपने तो हैं , काँच सरीखे /टूटे और बिखर जातें हैं... ।
द्वितीय नवगीत - उगने लगे अखाड़े - में आज के दौर में  अन्तर्मन का द्वन्द्व बाहर निकल कर टकराहट के रूप में सामने आ रहा है । झूठे दिखावे की व्यस्तता में लोगों को  स्वार्थ की आँखों से दूसरे की पीड़ा नही दिखती है । लोगों की विवशता है कि -
होठों पर हाँ ना में सिर हिलते....
दोनों नवगीत भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से उत्कृष्ट एवं प्रभावशाली  हैं । 


-महेन्द्र नारायण 
कांधला , शामली
उ०प्र०
 मनोज जैन जी से मेरी मुलाक़ात ,भारत भवन,भोपाल में हुई थी ।वे बहुत ही सरल हृदय गीतकार है। यहाँ प्रस्तुत दोनों गीत अति सुंदर हैं ।उन्हें बधाई पर मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि यदि एक रचनाकार किसी दूसरी भाषा के शब्द का प्रयोग कर रहा हो तो उच्चारण के स्तर पर वह शुद्ध रहे तो अच्छा जैसे रोज़,ख़ुद, कांच,क़दम क़दम,नफ़रत आदि ।पर यह एक सुझाव मात्र है ।

मुकुट सक्सेना

मनोज जी के नवगीतों की सहज संप्रेषणीयता
लुभाती है।
राज्य की कल्याणकारी अवधारणा को ख़ारिज करते हुए जनतंत्र में जो पूंजीवाद की घुसपैठ सरकार के माध्यम से हो रही है,उसी की पड़ताल करता है नवगीत,,बम बम भोले।
निजीकरण और यांत्रिकता के इस दौर में
मनुष्य की निजता पूंजीपति के यहां गिरवी है।ऐसी स्थिती में व्यक्ति से व्यक्ति की ,समाज से समाज की मुलाकातें और संवाद क्षीण हो चले हैं,,,।रोजी रोटी की व्यवस्था जुटाने में ही समय लग जाता है,सबके पास समय का टोटा है ।परस्पर प्रेम बीज का अंकुरण भी बाधित है।कुछ ऐसे ही कुहासे के संजाल में फंसे आदमियों की सुचिंतित अभिव्यक्ति है,यह नवगीत उगने लगे अखाड़े।
सुंदर गीतों के लिए मनोज जैन जी को बधाई। दाहिया सर को साधुवाद।


अरुण सातले

 आदरणीय बन्धु मनोज जैन जी के दोनों नवगीत सामयिक विषमता और जीवन की दुरूहता के जीवन्त उदाहरण हैं. "बम-बम भोले" का उद्घोष जहां कम में जीवनयापन की प्रेरणा देता है वहीं पूंजीवाद और सत्ता की दुरभि संधियों को भी रेखांकित करता है. बांकी है- इन दोनों के बीच पिस रहा आम आदमी.

दूसरा गीत जीवन की आपाधापी को संजीदगी से बयान करता है. 

मनोज जैन जी को इन जनपक्षधर गीतों के स्रजन लिए हार्दिक बधाई. 

सादर 

अशोक शर्मा 'कटेठिया'
कानपुर/जयपुर.
 वागर्थ पर मनोज भाई के दोनों गीत पढ़ चुका हूँ।दोनों समय से मुठभेड़ करते, सुंदर नवगीत हैं।बधाई।

श्यामसुंदर तिवारी
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 मनोज जैन 'मधुर' जी के दोनों नवगीत प्रभावशाली हैं... कथ्य, शिल्प, लय और प्रवाह की दृष्टि से उत्तम नवगीत हैं...  मनोज जी को हार्दिक बधाई.


-डा० जगदीश व्योम

भक्ति पद से शुरू कर राजनीतिक व्यंग्य मिश्रित यह पहली रचना वास्ता में दो विधाओं को मिलाकर सृजित नया प्रयोग माना जा सकता है। पुर्वांचन में गाए जाने वाले फगुआ गीतों में प्रयास ऐसे मिश्रित विषय का प्रयोग खूब देखा जाता है पर वह क्षेत्र विशेष और सीमित समय के लिए होता है पर मनोज जी का यह  प्रयोग काफी अच्छा और हर मौसम के मिजाज को जमता हैं।

 मनोज भाई के इस नवगीत में तीखा व्यंग।बम ..बम भोले, चाहे कोई कुछ भी बोल कर भोली भाली जनता को बेवकूफ बनालें ।ढोंगी साधू ,बाबा ही नहीं इसमें तो राजनेता भी शामिल हैंजोझूठे वादे करके दिवा स्वप्न दिखलाते हैं । सत्य को आईना दिखलाती रचना।लैक गीतों में प्राय:इस शब्दावली का प्रयोग किमा जाता है एक सम्बोधन के रूप में । भक्ति के मुखड़े का व्यंग विधा में नया प्रयोग क्षेत्र विशेष में प्रयोग की जाने वाली उक्ति का नवगीत के मुखड़े के रूप में प्रयोग । धन्यवाद मनोज भाई आपकी कल्पना शीलता के लिये बधाई ‌
दूसरा गीत :-
उगने लगे अखाड़े
चुनाव रूपी युद्ध की प्रक्रिया प्रारम्भ जिसमें उन्हीं के शब्दों में :-चुप्पी ओढ़े रात खड़ी है /
सन्नाटे दिन बुनता/हुआ यंत्रवत्
यहाँ आदमी/नहीं किसी की सुनता ।*
आज का व्यक्ति य़त्रवत् मशीन हो गया है ।अपने कार्य से ही उसे फुर्सत नहीं । इसलिये कोई किसी की नहीं सुनता समय का टोटा सबके पास है ।अपने सुख दुख स्वयं सहो और दु:ख भरे पहाड़ से दिन काटो । विचारों में मतभेद और सोच में अंतर होने से बात बात पर टकराहटें हैं ।लैगों में सामंजस्य और समन्वय की भावना न होने से सहभागिता नही होती ।आज का मनुष्य नि:स्वार।थ भाव त्याग कर स्वार्थी होगया है। अपनी स्वार्थ गत भावना के कारण वह अकेला पड़ गया ।पहले ऐसा नहीथा सब मिलजुल कर रहते और कार्य करते थे परंतु नई पीढ़ी नये विचार के साथ अहम् का भावयह अऔतर होने से वह स्वयं एकाकी हो गया ।अब प्रश्न है कि इस खाई को कैसे पाटा जाये सभी की पीर पहाड़े पढ़ने लगी परंतु मूल ढाई आखर प्रेम का भूल गई ।जब तक यह धुंध नही छंटती कुहासे और गहरे होते जायेंगे ।आवश्यकता है इस स्वार्थ की धुंध को समाप्त कर ढाई आखर प्रेम का पढ़ने ।प्रकृति का नियम आपका किया ही आपको प्रतिक्रिया के रूप में सामने आयेगा । धन्यवाद मनोज भाई एवं दहिया जी इन गीतों को फिर से मंच पर डालने के लिये ।

समझदार हो गया है इसीलिये अब वह किसी की नहीं सुनता ।


उषा सक्सेना
प्रिय भाई मनोज जैन मधुर जी आपकी यह टिप्पणी कई मायनों में उल्लेखनीय है। व्यक्ति में दृष्टि सम्पन्नता कविता से ज्यादा महत्वपूर्ण है और इस समय आप में दिखाई देती है। डॉक्टर जगदीश व्योम साहब ठीक ही कहते हैं कि आपकी वैचारिकी में अमूलचूल बदलाव हुआ है। मेरी ओर से और पटल संचालन टीम की ओर से भी साधुवाद।
                     

           रामकिशोर दाहिया
                    कटनी

 

 आदरणीय मनोज जैन ‘मधुर’ जी नवगीत की दुनिया के एक जाने-माने हस्ताक्षर हैं। अपेक्षानुसार उनके दोनों ही नवगीत सामयिक व्यवस्था पर धारदार व्यंग्यात्मक् टिप्पणी है। 
प्रथम नवगीत में देश के संसाधनों के निजीकरण तथा नीतप्रति नफ़रत को बढ़ावा देती राजनीतिक वातावरण में जनता को ‘धूनी रमाने’ व ‘बम-बम भोले’ बोलने का रोचक व्यंग्य है। दूसरे नवगीत में “ढाई आखर” की कबीरयत मरणासन्न स्तिथि से जुड़ी पीर है। ये गीत पीढ़ीयों से चलती दूरियाँ व द्वेष की खाई कैसे पाटी जाए पर एक गंभीर प्रश्न पूछता है। मधुर जी को हार्दिक बधाई व दाहिया जी का आभार। 

राय कूकणा आस्ट्रेलिया


 संवेदनात्मक आलोक के पटल पर प्रस्तुत मनोज जैन मधुर के दो बहुत स्तरीय गीत पढ़े,  मनोज   मधुर स्थापित नवगीत कार है,  और उन्होंने  नवगीतो में अपनी अलग पहचान बनाई है,  यहां प्रस्तुत दोनों गीत भी अपनी अलग धार और लहजे के कारण सहज ही आकृष्ट करते हैं। 
पहले गीत में उन्होंने समाज में धर्म के नाम नकली मुखौटे लगा कर जनता को ठगने वाले एवं पूंजीपतियों और सत्ता धारियों के  हाथों ठगी जाती शोषित, पीड़ित जनता की वेदना  को व्यंगात्मक लहजे में व्यक्त किया है, वहीं दूसरे गीत " दिन पहाड़ से  कैसे काटे " में इस जटिल समय और जीवन की विसंगतियों से उत्पन्न अवसाद जनित पीड़ा को बहुत मार्मिकता से अभिव्यक्त किया है।  भाषा, शिल्प और प्रवाह की दृष्टि से दोनों ही गीत  सहज सम्प्रेषणीय और प्रभावी बन पड़े हैं। मनोज जी  को दोनों  सुंदर गीतों के लिए बहुत-बहुत बधाई। एवं आ दहिया जी को इस प्रस्तुति हेतु साधुवाद!

मधु शुक्ला, भोपाल।
भाई मनोज के गीतों से रूबरू हों और उस पर कुछ कहा न जाय यह संभव नही । हम जिसे समकालीन युगबोध कहते हैं उससे जुडे़ रहना मनोज जी के नवगीतों की सबसे बडी़ विशेषता है , गीत लिखते हुए उन्हे एक अरसा हो गया है अतः स्वाभाविक रूप से उनकी अपनी एक अलग शैली विकसित हो चुकी है जिससे वह अपनी बात को प्रभावी तरीके से कह लेते हैं । प्रस्तुत दोनो गीत इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैंं । 
  बहुत  कुछ लिखना चाहता हूँ परंतु स्वास्थ्यगत कारणों से नही लिख पा रहा । भाई मनोज और आपको बहुत बहुत साधुवाद ।


डॉ अजय पाठक
बहुत बहुत शानदार गीत! अधिक क्या कहें! जिनके नवगीत पढ़कर लिखना शुरु किया! उनमें से कुछ की बानगी के रूप में पटल प्रस्तोता दाहिया जी ने पटल पर रखे। आदरणीय मनोज भाईसाब को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं! आपकी लेखनी से ऐसे ही समसामयिक समस्याओं और आडम्बरों की सच्चाई लिखी जाती रहे! 

गणतंत्र ओजस्वी, आगर


 वर्तमान राजनैतिक व सामाजिक परिदृश्य को रेखांकित करते हुए दोनों नवगीत प्रासंगिक हैं। जब कलम सीधे संवाद करते हुए आगे बढ़ती है, तब उसकी महत्ता स्वतः ही बढ़ जाती। समर्थ लेखनी व रचनाकार को हार्दिक बधाई।

राम नरेश रमन, मोठ(झाँसी)
 मनोज जी के गीत वर्तमान को जिस लय में गा रहे हैं वह लय इन गीतों को कालजयी संगीत की संगत दे रही है ।
इन गीतों के प्रतीक सुंगम संगीत को शास्त्रीय संगीत का प्रतिरूप देने के लिए प्रतिबद्ध हैं कथ्य की कसाबट तबले के ताल का संगत आभास देते हुए दोनों गीतों को न केवल मधुरता प्रदान कर रही है बल्कि वर्तमान के सभी कलुष और कटु अनुभवों को जिस ढंग से अभिव्यक्त कर रही है उसमें मेघ-मल्हार और भैरवी का अनूठा संगम एक साथ तालबद्ध हुआ है कवि का कर्तव्य है कि वह समस्याओं को उजागर भी करे और समस्या उत्पन्न करने बाली हमारी लचर राजनीतिक व्यवस्था को फटकार भी लगाए जोकि मनोज जी उक्त दोनों गीतों में पूरी सफलता के साथ कर रहे हैं ।
हार्दिक बधाई ।
दादा दाहिया जी का आभार ।

              -- ईश्वर दयाल गोस्वामी
                 छिरारी (रहली),सागर
                 मध्यप्रदेश ।
                 मो.- 8463884927

 मनोज जैन जी एक सशक्त नवगीतकार हैं। समय की पदचाप को पहचानते हैं ।पहले नवगीत में वे वर्तमान की यथार्थ स्थितियों से रूबरू होते हैं और सच कहने से हिचकते नहीं हैं। इसी तरह दूसरे गीत में कठिन दिनचर्या, जटिल परिस्थितियाँ किस तरह हमारे जीवन बोध को समाप्त करती जा रही हैं, को बड़ी प्रभावी रूप  से कवि व्यक्त करता है।


रमेश गौतम 
रायबरेली
आदरणीय मनोज जैन मधुर जी का प्रथम नवगीत बम बम भोले* सत्ता के केन्द्रीकरण का कटु सत्य उजागर कर रही साथ ही  पूंजीपतियों की सत्ताधारियों से सांठगांठ के मध्य आम जनता के शोषण की गाथा को सशक्तता एंव सटीकता से प्रस्तुत कर रही है । सर्वप्रथम तो शानदार नवगीत की रचना हेतु आदरणीय मनोज जैन जी को बधाई । यह नवगीत आम इंसान की तकलीफों को दर्शाने के साथ ही विकास और खुशहाली के ढांचे का ताना-बाना बुनती झूठी कहानी की सत्यता दिखा रहा । समाज को और सत्ता को जगाती उत्कृष्ट रचना 

बम-बम भोले

धूनी रमा प्रेम से बंदे !
बोल जोर से 
बम - बम भोले ।

ईश्वर को भी अपने कुकृत्यों में शामिल  करने की नाकाम कोशिश करते ढोगीं लोगो पर सटीक व्यंग 

पूँजीपतियों के
हाथों की 
कठपुतली है देश हमारा
इनके ही सारे
संसाधन 
आम आदमी है बेचारा

निजीकरण में 
जीवन नैया
खाने लगी रोज हिचकोले ।

प्रगति और विकास की झांकी दिखाती रचना (किसकी प्रगति हो रही और कौन तकलीफ पा रहा )

सपनों की झाँकी
में खुद को
राज कुँवर जैसा पाते हैं
सपने तो हैं 
काँच सरीखे
टूटे और बिखर जाते हैं

खुशहाली का सुन्दर सपना देखता आम आदमी गढ्ढे में कैसे गिराया गया है यह हकीकत दर्शा रहा यह नवगीत

वह आवाज़ 
दबा दी जाती 
जो विरुद्ध सत्ता के बोले ।

न कहकर भी सब कुछ कहती रचना बस मौन रहो आँखे मींचे ।

कदम-कदम पर
नफरत बोते 
हमने कुत्सित मन को देखा
रौंद रहे हैं 
प्रतिमानों को
मिटा रहे हैं निर्मित रेखा

अनेकता में एकता को भुला कितनी सारी रेखायें सभी के मन में खींचीं गई और खींचती जा रही सब कुछ कह गई यह रचना

मारा करते 
शान्ति दूत को 
बदल-बदल नफरत के चोले 
 
मर्मस्पर्शी पंक्तियां सत्य को कितनी दफा मारा जायेगा ।
निशब्द हूं! अहिंसा और सत्य के पुजारी को हम सब  आज भी सुकून नही दे सके 

आदरणीय दहिया जी एव संवेदनात्मक आलोक पटल के संचालकों  को असीम आभार  मर्मस्पर्शी नवगीत की प्रस्तुति के लिये


अँजना वाजपेई
जगदलपुर

 आज पटल पर मनोज जैन "मधुर" के 2 नवगीत पढ़े।पहला नवगीत "बम-बम भोले" देश की वर्तमान स्थितियों की विवेचना बड़ी ही खूबसूरती से  कर रहा है ।व्यंग में भी माधुर्य है।
सपनों की झांकी में/खुद को राजकुंवर जैसा पाते हैं।
पर सपने तो सपने ही हैं।काँच की तरह टूट बिखर जाते हैं एक आम आदमी की पीड़ा  का चित्रण मन को उद्वेलित करता है।जो जिम्मेदार हैं वेअपने मद में चूर हैं। 
दूसरा गीत  राजनीति की ओर इंगित करता प्रतीत हो रहा है जो समाज को जोड़ने के स्थान पर तोड़ रही है ---तोड़ रहा दम ढाई आखर /उगने लगे अखाड़े । कवि की पीड़ा सामाजिक स्थितियों को लेकर भी है पीढ़ियों में जो विचारों का अन्तर आ गया है जो दूरियों को और बढ़ा रहा वह कैसे दूर हो ।कम शब्दों में गहन अर्थ समेटे सशक्त नवगीतों  के लिये मनोज जैन बधाई के पात्र हैं


मधु प्रधान जी

 जैसा कि समस्त सम्मानित साहित्यकारों ने  ' वागर्थ ' संचालक आदरणीय मनोज जैन जी के प्रस्तुत गीतों पर अपनी सराहनीय और ऊर्जादायी उपस्थिति दर्ज़ की है ,हमारी प्रतिक्रिया भी आप सभी से इतर नहीं है । कहना यह भी है कि इधर  आपके गीतों का स्वर और बोल्ड और निस्पक्ष हुआ है । धर्म के नाम पर जो पाखण्ड समाज में फल-फूल रहा है , उस पर आपने अपने गीतों के जरिए आक्रामक रुख अपनाया है ।  इस स्वर का , इस मुखरता का स्वागत है । सत्ता प्रतिष्ठानों की कारगुजारियाँ किसी से छिपी नहीं है , यह बात और है कि उनको अपने लेखन में अनावृत्त करने , लानत -मलानत करने का काम हर साहित्यकार नहीं कर पा रहा है । प्रसन्नता है कि मनोज जी
लिख पा रहे हैं -

कदम -कदम पर 
नफरत बोते
हमने कुत्सित मन को देखा 

रौंद रहे हैं प्रतिमानों को
मिटा रहे हैं 
निर्मित रेखा ।

मारा करते 
शान्ति दूत को
बदल-बदल नफरत के चोले ।

प्रतिरोधी स्वर के समानान्तर ही आप अपने गीतों में सामाजिक , मानवीय , वैयक्तिक असंगतियों पर अपनी वाज़िब चिंता दर्ज़ कराते रहते हैं, ' उगने लगे अखाड़े ' उसी कड़ी को आगे बढ़ाता है । अच्छे गीतों हेतु आपको हार्दिक बधाई। भविष्य में आपका यह स्वर और मुखर और दृढ़ हो , इस हेतु सादर शुभकामनाएँ ।

          ' संवेदनात्मक आलोक ' पटल पर आपके गीतों की प्रस्तुति निश्चित ही सराहनीय है , इस हेतु आदरणीय रामकिशोर दाहिया जी विशेष धन्यवाद के पात्र हैं।

-अनामिका सिंह
शिकोहाबाद
फिरोजाबाद
(283135)

प्रस्तुति
ब्लॉग वागर्थ
__________


बुधवार, 25 जनवरी 2023

जय चक्रवर्ती जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ ब्लॉग


ब्लॉग शेयरिंग में आज 
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चर्चित नवगीत कवि 
जय चक्रवर्ती जी की फेसबुक वॉल से साभार दो नवगीत
प्रस्तुति
वागर्थ
________

एक
_____

हो गया शामिल समूचा गांव
दर्शक-मंडली में
एक जोकर मंच पर 
बहला रहा है दिल सभी का.

झूठ के लाखों 
सुनहरे 
संस्करण हैं पास उसके
सत्य को 
दुत्कारते संवाद सारे 
खास उसके

है गज़ब अंदाज़ 
उसकी इस अजब जादूगरी का.

चाल है ऐसी 
कि 
जैसे आ गया भूचाल कोई
तालियां फटकारता है 
यों कि 
ज्यों कव्वाल कोई

टाँग खूंटी पर दिया है
भेष-भाषा का सलीका.

पात्र नाटक मंडली के 
कैद हैं 
नेपथ्य में सब
चीखती है 
विदूषक की अदाएं ही 
मंच पर अब

बाँधता है डोर सबसे
है नहीं लेकिन किसी का

दो
____

किस मिट्टी के हो तुम गाँधी
रोज तुम्हारी हत्या का-
हो रहा रिहर्सल,
पर तुम वैसे के वैसे हो
किस मिट्टी के हो तुम गाँधी ?

यूँ तो धर्म सभा में हो तुम
मगर यहाँ
गोडसे बड़ा है.
सभाध्यक्ष खुद हत्यारे के
आगे
धनुषाकार खड़ा है.

पीना पड़ता रोज तुम्हें विष
लेकिन जैसे के तैसे हो
किस मिट्टी के हो तुम गाँधी?

दहशत में हैं सत्य, अहिंसा, प्रेम
और 
सद्भभाव तुम्हारे.
मंदिर मस्जिद के चेहरे पर
चस्पा हैं
नफ़रत के नारे.

रोम रोम है छलनी, आखिर
इतना सब सहते कैसे हो
किस मिट्टी के हो तुम गाँधी?

नाम तुम्हारा लिखकर
नुक्कड़ नुक्कड़ हैं 
मुस्तैद सलीबें.
रोजाना ईजाद हो रहीं
तुम्हें
मिटाने की तरकीबें.

तनिक नहीं बदले हो लेकिन
तुम बिल्कुल पहले जैसे हो
किस मिट्टी के हो तुम गाँधी?

तीन
___

कुछ ज़मीनें अब नई तोड़ो!
---------------------------------

गीत की फसलें उगाने के लिए 
कुछ ज़मीनें  
अब  नई तोड़ो!

कब तलक बोते रहोगे 
शब्द अपने  एक धरती पर 
कब तलक रोते रहोगे
दैन्य को-दुख को परस्पर

उठो,अब तेवर नए लेकर 
बढ़ो
ये पुराने अस्त्र सब छोड़ो!

लोग बदले,
वक्त बदला,वक्त की रफ्तार बदली 
तुम युगों से हो खड़े
जिस धार पर, वह धार बदली 

वक्त से आंखें मिलाकर चलो 
या फिर 
वक्त अपनी ओर मोड़ो!

फूल बरसाओगे कब तक
हाँ-हुज़ूरी की डगर में 
गीत को लेकर चलो अब
असहमतियों के नगर में 

आग लिक्खो आग को ,
और फिर- 
यह आग जीवन-राग से जोड़ो!

जय चक्रवर्ती

मंगलवार, 24 जनवरी 2023

महेश कटारे सुगम जी के गीत नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

महेश कटारे सुगम जी के गीत नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ
विरले कवि ही ऐसे होते हैं, जिनके हिस्से में जीते जी उनके सामने ही अपार यश आ जाता है। महेश कटारे सुगम ऐसे ही जनकवि हैं। आज महेश जी उम्र के सत्तरवें सोपान पर आ पहुँचे हैं। समूह वागर्थ जनकवि महेश कटारे सुगम को इस अवसर पर शुभकामनाएँ देता है।
प्रस्तुत हैं सुगम जी के 
गीत नवगीत

एक

बहिना ने राखी के कच्चे 
धागे भेज दिए 
पाती में लिख दिया की 
बीरन आ न पाऊंगी

गुड़िया का स्कूल ,
ललन की ज़िम्मेदारी है 
सासू माँ को गठुआ
और दिल की बीमारी है 
पीहर में इस बार मल्हारें 
गा न पाऊंगी .

उर्दा बोये थे खेतों में
मौसम मार गया 
खाद बीज जो भी 
डाला था सब बेकार गया
सूखे मन सावन की 
खुशियां मना न पाऊंगी .

गहने गिरवी रखे दूसरा 
बीज नया लाये
तब जाकर खेतों में 
फिर से बौनी कर पाए 
नंगे हाथ,गला लेकर मैं 
आ न पाऊंगी 

मन से टूट चुके वे रहना 
साथ ज़रूरी है 
ढाढस उन्हें बँधाना खुश 
रखना मज़बूरी है 
उन्हें अकेला छोड़ फर्ज मैं 
निभा न पाऊंगी 

भेंट क्वारें माँ को भौजी 
को दुलार कहना 
गुड़िया,लल्लन को फूफा 
का खूब प्यार कहना 
बाकी बातें मैं चिठिया में 
बता न पाऊंगी 

दो

जन कवि 
केदारनाथ अग्रवाल जी 
को समर्पित 

केन तट बैठे हुए हैं 
आज भी केदार बाबू 

आज भी बहते हुए जल में 
कहीं कुछ ढूंढते हैं 
ऊँघती चट्टान से कुछ प्रश्न 
अब भी पूछते हैं 

धार से लिपटे हुए हैं 
आज भी केदार बाबू 

ज़िंदगी जड़ता के चारों ओर
अब भी नाचती है 
धार में लेटी हुई चट्टान 
डूबा साधती है
दर्द से ऐंठे हुए हैं 
आज भी केदार बाबू 

पूछते हैं धार से देखी कभी 
ऐसी निराशा 
पास ही होते हुए जल दिख 
रहा है घाट प्यासा 
प्रश्न पर लेटे हुए हैं 
आज भी केदार बाबू 

रोज़ सूरज ऊँगकर सब को 
सवेरा बांटता है 
किन्तु दादुर के लिए कब ये 
अँधेरा काटता है 
जाल में सिमटे हुए हैं 
आज भी केदार बाबू 

प्यार करते मछलियों से 
रोज़ दाना डालते हैं 
सर्प के विष दंत पैने खौफ 
बनते,सालते हैं 
प्यार में पैठे हुए हैं 
आज भी केदार बाबू 

तीन

कोई तुमसे प्यार करे तो 
क्यों बोलो 

तुमने जो पीठों में खंज़र 
घोंपे हैं 
धोखे ही धोखे अब तक तो 
सोंपे हैं 
कोई फिर जयकार करे तो 
क्यों बोलो 

माना मेरे सपने सभी 
अभागे हैं 
रात रात भर जो नींदों में 
जागे हैं 
मन उनको स्वीकार करे तो 
क्यों बोलो 

हरयाली का शोर हुआ 
सहराओं में 
खुशहाली का छद्म उगाया 
गाँवों में 
अब कोई आभार करे 
तो क्यों बोलो 
कोई तुमसे प्यार करे तो 
क्यों बोलो 

चार

नवगीत 

देखी देखी हमने देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 

बैठी देखी चौपालों में 
हाथों के उभरे छालों में 
रोज़ रोज़ के जंजालों में 
चावल औ रोटी ,दालों में 
करती हुई मज़ूरी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 

मन से डूबे अवसादों में 
घायल होते संवादों में 
जुड़े करों की फरियादों में 
भिक्षा जैसी इमदादों में 
बिन मोती की सीपी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 

देखी सब्ज़ी के थैलों में 
देखी बाज़ारों मेलों में 
बेकसूर कैदी जेलों में 
ठुसे जानवर से रेलों में 
सह जाने की खूबी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 

देखी भोजन की थाली में 
चिथड़े पहने घरवाली में 
माँ बहिनों वाली गाली में 
बीमारी और बदहाली में 
बेहद ही पथरीली देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 

देखी है रूखे बालों में
फ़टे हुए चिथड़े गालों में 
बिन दरवाज़े ,बिन तालों में 
खाली कुठिया में आलों में 
फ़ैली बेतरतीबी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 

देखी छप्पर औ छानों में 
देखी घुने हुए दानों में 
देखी देहरी ,दालानों में 
देखी खोती पहचानों में
पसरी हुई गरीबी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी

देखी है दुनियादारी में 
हर नाते रिश्तेदारी में 
पाने की मारामारी में 
वफादार में गद्दारी में 
सारी दुनिया डूबी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 
सीमाओं पर लड़ते देखी 

शिखरों पर भी चढ़ते देखी 
कोठी,बंगले गढ़ते देखी 
दुःख,दर्दों में सड़ते देखी 
पर खुशियों से दूरी देखी 
मुफ़लिस की मज़बूरी देखी 

पाँच

पलक पलक पर आंसू बैठे 
दिल में बैठे गम 
कहाँ आ गए हम

रिश्तों की तस्वीरों में 
नफरत के रंग भरे 
त्याग तपस्या की चौखट पर 
कर्म सभी बिखरे 
कदम कदम पर धोखे बैठे 
डगर डगर पर तम 
कहाँ आ गए हम 

जंग लगे संघर्षों के बल 
समाधान चाहें 
बुढयाये सिद्धांत बताते 
रहे गलत राहें 
चुके हुए नारे के नीचे 
झुके हुए परचम 
कहाँ आ गए हम 

नकद मुनाफों के चक्कर में 
घाटे भूल गए 
खतरनाक साज़िश के झूले 
हंसकर झूल गए 
समझौतों की गलत नीति को
समझ लिया मरहम
कहाँ आ गए हम 

छह

ये रंग फरेबी उतरेगा 
ये नशा कभी तो टूटेगा 

जब स्वप्न सुनहरे बिखरेंगे
अरमान सभी ज़ख़्मी होंगे 
विश्वास का सूरज डूबेगा 
चर्चित चेहरे दागी होंगे 
मुद्दत से मौन चाहतों का 
जब धैर्य प्रतीक्षित छूटेगा

जब राष्ट्रवाद का छद्म रूप 
नफ़रत की फ़सल उगायेगा 
संकीर्ण सोच की घुटन तले 
भाई चारा मर जायेगा 
ये पूंजीवादी सोच सुनो 
सुख,शांति सभी की लूटेगा

जब तथाकथित उद्धारक ये 
कश्कोल हमें पकड़ा देंगे 
अपनी तिजोरियां भर लेंगे 
जीवन को नर्क बना देंगे 
जब काम न होगा हाथों को 
लावा बन गुस्सा फूटेगा

इस मंहगाई की मार सभी 
जब सह सहकर थक जायेंगे 
लाचार तरक्की के पहिये 
जब घिसटेंगे, रुक जायेंगे 
तब जन मानस का ये रेला 
गाली दे, मिट्टी कूटेगा

सात

जिन लोगों ने तेल लगाया 
उन लोगों का काम हो गया 
मैंने बात न्याय की, की तो 
नाम मेरा बदनाम हो गया 

दो घोड़ों पर पैर जमाकर
लूट रहे हो हंसा हँसाकर
जाने कितने घर फूंके हैं 
रामायण की कथा सुनाकर
कितनी बार कहा है छोडो 
अवसरवादी ये परिभाषा 
बस इतनी सी बात बताई 
तो काला परिणाम हो गया 

इसे तोडना ,उसे बनाना 
इसे गिरना उसे उठाना 
उनके इस बेहूदेपन से 
तंग आ गया सभी ज़माना 
मैं बोला आचरण सम्भालो 
कहने लगे बने रहने दो 
बस इतनी सी बात कही तो 
मेरा चैन हराम हो गया 

खींचा अज़ब तरह का पाला 
फिर उसको काला कर डाला 
बोले ,इस पर चलो किन्तु हाँ 
पैर तुम्हारा पड़े न काला 
मैं बोला यह तर्क नहीं है 
बोले तर्कहीन बन जाओ 
मेरे नामुमकिन कहने पर 
बस आखिरी सलाम हो गया 

आठ

झूठे प्रेम समंदर से तुम 
मुझको दूर खड़ा रहने दो 
वरना मेरे विश्वासों का 
नाहक खानदान टूटेगा 

अपनी मोहक मुस्कानों से 
मेरे मन को करो न गंदा 
पाखंडी शीतल आहों से 
तप्त हृदय को करो ना ठंडा 
जहर बुझी अमृतवाणी की
तुम मुझ पर बरसात मत करो
वरना मेरी कड़वाहट का 
नाहक स्वाभिमान टूटेगा

अपने सिंदूरी सपनों को
मेरे पास नहीं आने दो
खुशियों को बेमन पीड़ा से 
पीड़ित गीत नहीं गाने दो 
शहनाई के सामंती स्वर
मेरे द्वार नहीं छेड़ो तुम
वरना मेरे दुख दर्दों का 
नाहक मान पान टूटेगा

पीड़ा मेरे घर सोई है 
दस्तक देकर नहीं जगाओ 
मेरी विधवा इच्छाओं से 
नहीं व्याह का ढोंग रचाओ
बार बार कहता हूं देखो 
धन दौलत का गुमाँ मत करो
वरना दबे हुए शोलों का
तुम पर आसमान टूटेगा

परिचय
________

नाम-महेश कटारे "सुगम"
जन्म.. 24 जनवरी 1954 में ललितपुर जिले के पिपरई गाँव में.
प्रतिष्ठित हिंदी पत्र पत्रिकाओं हंस,नया ज्ञानोदय,इंडिया टुडे,इन साइड, इंडिया,साक्षात्कार,प्रयोजन,कला समय, कथादेश,वीणा,अविलोम,इंगित,निकट, अभिव्यक्ति,संविदा, साहित्य भारती, म. प्र.विवरणिका,वर्तमान साहित्य,हरिगंधा, लहक,साहित्य सरस्वती, स्पंदन, नान्दी, अक्षर शिल्पी, राग भोपाली,शब्द शिखर, बुंदेलखंड कनैक्ट,अविलोम,शब्द संगत, व्यंग्य यात्रा,सरिता,इंद्रप्रस्थ भारती,अर्बाबे कलाम,अनामा,शुचि प्रिया,सुख़नवर, सरस्वती सुमन,संबोधन,समकाल, इलैक्ट्रॉनिकी,भू भारती,कहानियाँ मासिक चयन,कथाबिंब,सुमन,सौरभ,पराग, लोटपोट,बाल भारती,अच्छे भैया,देवपुत्र, चकमक आदि में रचनाएँ प्रकाशित.

प्रकाशन..... 
उपन्यास
रोटी पुत्र
कहानी संग्रह
1.....प्यास.
2......फसल
कविता संग्रह
पसीने का दस्तख़त.
नवगीत संग्रह
तुम कुछ ऐसा कहो.
बाल गीत संग्रह
हरदम हंसता गाता नीम.
लंबी कविता
1....वैदेही विषाद.
2.......प्रश्न व्यूह.
ग़ज़ल संग्रह
आवाज़ का चेहरा, दुआएँ दो दरख़्तों को, सारी खींचतान में फ़रेब ही फ़रेब है, आशाओं के नये महल, शुक्रिया, अयोध्या हय हय, ख़्वाब मेरे भटकते रहे, कुछ तो है, ऐसी तैसी, ला हौल बला कुब्बत,प्रतिरोधों के पर्व.
बुंदेली गजल संग्रह
गाँव के गेंवड़े, बात कैसे दो टूक  कका जू, अब जीवे कौ एकई चारौ, कछू तौ गड़बड़ है, सुन रये हौ.
ग़ज़ल गलियारा सीरीज़ के पांच ग़ज़ल संकलन संपादित
संपादन
महेश कटारे "सुगम "का रचना संसार.(डाॅ.संध्या टिकेकर) . 
महेश कटारे " सुगम " की श्रंगारिक ग़ज़लें ( प्रवीन जैन) . 
सम्मान..... हिंदी अकादमी दिल्ली  सहभाषा सम्मान,जनकवि मुकुट बिहारी सरोज सम्मान ग्वालियर (म.प्र.),स्पेनिन सम्मान रांची ( झारखंड),जनकवि नागार्जुन सम्मान गया ( बिहार) , लोकभाषा सम्मान दुष्यंत संग्रहालय भोपाल ( म. प्र.)  गुंजन साहित्य सदन जबलपुर म.प्र. द्वारा लोक साहित्य अलंकरण सहित अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं द्वारा सम्मानित.
पुरस्कार
कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (कथा बिंब) मुंबई
रामनारायण शास्त्री (स्वदेश) कथा पुरस्कार म. प्र.
उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों में सम्मिलित.
कुछ विश्वविद्यालयों से शोध
पता-काव्या चंद्रशेखर वार्ड, माथुर कालोनी बीना, जिला सागर, म. प्र. पिन 470113
मोबाइल नम्बर-9713024380
मेल आईडी- prabhatmybrother@gmail.com

सोमवार, 23 जनवरी 2023

मधुश्री जी की कृति चल बंधु उस ठौर चलें का फ्लैप : मनोज जैन

परम्परा और नवता का अद्भुत सामंजस्य : 'चल! बन्धु उस ठौर चलें'
                          -----
 सोशल मीडिया पर अत्यधिक सक्रिय रहने के जो धनात्मक परिणाम मेरे सामने आए, उनमें मित्रों की भारी संख्या में इज़ाफा होना भी एक बड़ा परिणाम रहा है। देश के हर एक प्रदेश में दर्जनों मित्र ऐसे हैं जिन्हें पढ़ना-सुनना और उनके लिखे को गुनना सुखकर प्रतीत होता है।हमारी सूची में मधुश्री का नाम ऐसे ही मित्रों में शुमार है।
      नवगीत पर एकाग्र फेसबुक पर चर्चित पटल वागर्थ के मंच से जुड़ीं, मधुश्री मुंबई महाराष्ट्र से आती हैं; और छान्दसिक रचानाएँ लिखती हैं। साहित्य की अनेक विधाओं में अपनी सृजनात्मक उपस्थिति सुनिश्चित कराने वाली मधुश्री का मन गीत-संगीत में रमता है। गीत लिखना उन्हें पसन्द हैं।
      छान्दसिक कविता में भले ही उनका रुझान पारम्परिक गीत-नवगीत दोनों में हो, परन्तु उम्र के चौथेपन में उनका झुकाव नवगीत की ओर अधिक है। इस आशय के संकेत, हमें उनकी पाण्डुलिपि "चल बन्धु उस ठौर चलें" की रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में देखने से मिलता है। गीतकार न तो नितांत वैयक्तिक भावों का उद्गाता होता है और  न ही समाज का तटस्थ प्रेक्षक। गीत की सार्थकता तभी है जबकि उसमें सामूहिक भाव वैयक्तिक भाव के माध्यम से व्यक्त हुआ हो ऐसा गीत ही शाश्वत, सर्वग्राह्य,सम्प्रेषणीय होकर समाज को दिशा दे सकेगा। 
        परम्परा और नवता का अद्भुत सृजनात्मक सामन्जस्य अपने गीतों में बनाये रखना रचनाकार के कृतित्व का वैशिष्ट्य है। मधुश्री के गीत नवगीत इसी श्रेणी में आते हैं। कृति चल ! 'बंधु उस ठौर चलें' की विषय वस्तु विविधतापूर्ण है, जो मधुश्री की प्रतिभा का परिचय देने के लिये पर्याप्त हैं। मधुश्री अपने पाठकों को कभी आशा तो कभी निराशा तो कभी सुख- दुख के झूले में झुलाती हैं। जीवन एक गीत है। जीव,अपने जन्म से मृत्यु तक जैसा सूझता है गाने का प्रयास करता है। कवयित्री ने इस भाव को कई गीतों में सलीके से बाँधा है। अपने हिस्से में आये पल-क्षण का उपयोग वह पूरी चेतना से शिद्दत के साथ करती हैं।
         गीतों में गहरी आध्यात्मिक और दार्शिनिक अनुभूतियाँ समाहित हैं। तभी तो वह एक गीत में कहती हैं। 

"ये सफर अंतिम सफर है
कौन जाने
दे रही दस्तक हवाएंँ
द्वार क्या खोलूंँ कभी ।
कामनाओं के तृणों की
बाँध कर मुठ्ठी अभी।
आंँधियांँ कब द्वार तोड़े 
कौन जाने।

 कुल मिलाकर मधुश्री के गीत पाठक मन पर अपना भरपूर असर छोड़ते हैं।
        मधुश्री को जितना उनके गीतों से जाना उसी को आधार मानते हुए कहा जा सकता है कि संगीत की मर्मज्ञ मधुश्री आलाप लेते समय आरोह-अवरोह में भले ही पूरी सजगता बरतना जानती हों पर, काव्य के अलंकारों, शब्दों, अर्थों और उनके प्रयोगों में अभी उन्हें बहुत कुछ जानना शेष है। इस सन्दर्भ में अच्छी बात यह है की मधुश्री निरन्तर प्रयासरत हैं। आशा है वे साहित्य में अपनी पकड़ जल्द ही संगीत जैसी बना सकेंगी।
              •••

मनोज जैन "मधुर"
106, विट्ठलनगर नगर, गुफामन्दिर रोड, भोपाल.
462 030 मोबाइल : +91 93013 37806

गुरुवार, 19 जनवरी 2023

वागर्थ ब्लॉग में आज प्रस्तुत हैं मुकेश कुमार मिश्र जी के नवगीत : प्रस्तुति और टिप्पणी अनामिका सिंह

ब्लॉग वागर्थ में आज
प्रस्तुति और टीप 
एडमिन अनामिका सिंह

कहा ही जाता है कि सरल होना और सरल लिखना सबसे कठिन होता है किन्तु आज हम जिस शख्सियत के गीतों से रू-ब-रू होंगे उनके गीतों और स्वभाव में सरलीकरण इनबिल्ट है । मुकेश जी से हमारा साहित्यिक परिचय लगभग पाँच वर्ष पुराना है , हम साहित्यिक समूह ’ काव्या ’ - सतत साहित्य यात्रा ’ में साथ रहे । हमें नहीं याद आता कि रचनाओं पर प्रतिक्रियाओं के अतिरिक्त हमारा कभी संवाद हुआ हो । फिर भी हमने पाया कि यह बेहद शान्त और सरल स्वभाव के धनी हैं । छंद पर गहरी पकड़ रखने वाले मुकेश जी की दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । अभी हाल ही में आपका नवगीत संग्रह ’ फटी हुई बनियान ’ आया है । गौर करने वाली बात है कि आपके नवगीतों की विषयवस्तु रोज़मर्रा के परिवेश से जुड़ी है , ऐसे विषय जिन पर आमतौर पर हर लेखक की दृष्टि नहीं जाती ,आप उन पर बड़ी सहजता से सार्थक और विचारणीय बात कह जाते हैं। आपके नवगीतों में विषय वैविध्य कमाल का है । वाश बेसिन, बल्ब, बनियान, इनर आदि के स्वाभाविक स्वरूप पर बात करते हुए बड़े सलीके से आप उसे एक मोड़ पर आकर व्यापक सरोकारों से जोड़ देते हैं । ’ घूरे ’ सीरीज के आपके नवगीत विशेष प्रभावी बन पड़े हैं, चाहे वह घूरे की दुकान हो ,  घूरे की बीवी का मायके जाना हो या  घूरे टीवी पर के जरिए आत्ममुग्ध लोगों पर लक्ष्य साधना हो ! लब्बोलुआब यह कि छोटे मीटर , लो पिच पर आपके गीतों का थ्रो लंबा है । सद्य प्रकाशित संग्रह और अच्छे गीतों पर आपको हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएँ ।


(1)

चूल्हे का जलना
------------------

इतना भी आसान नहीं है,
चूल्हे का जलना ।

लाचारी, निर्धनता कोई,
बात नहीं छोटी।
अब भी कुछ भी करवा सकती,
केवल दो रोटी।
किस बच्चे को अच्छा लगता,
रस्सी पर चलना।

सोचो कैसा लगता होगा,
सुनकर यह उस पल।
जब मालिक कहता, मज़दूरी,
मिल पायेगी कल।
दिनभर मेहनत करने पर भी,
पडे़ हाथ मलना।

कभी पसीना नहीं सूखता,
जिन जिन माथों पर।
अक्सर उनके चूल्हे मिलते,
हैं फुटपाथों पर।
बहुत प्रतीक्षा पर होता है,
सूरज का ढलना।

(2)

मछुआरों के जाल
--------------------

कभी मछलियों से पूछा क्या,
रुककर उनका हाल?

समझ न पाया पता नहीं क्यों,
मिला इन्हें जीवन?
यहाँ मनुष्यों के खाने को,
क्या कम था भोजन?
कभी किसी की सब्जी बनना,
कभी किसी की दाल।

मृत्यु न हो उसके ही हाथों,
जिसके हाथ पली।
यही कामना करती मिलती,
अक्सर हर मछली।
छीन लिए जायें अब सारे,
मछुआरों के जाल ।

किसी ताल में कई मछलियाँ,
भाग रहीं सरपट।
किसी-किसी को मस्ती दिखती,
मुझको अकुलाहट।
जिसको राजा से ख़तरा, वह,
किससे करे सवाल।

(3)

पुनर्विचार
------------

हमें बैठकर करना होगा,
इसपर पुनर्विचार।

जिन-जिन पर रखनी थी हमको,
हरदम कड़ी नज़र।
आश्रित होते गये अनवरत,
उनके ही ऊपर।
हिला रहे हैं वही लोग सब,
भारत का आधार।

जिन पटलों पर सबसे ज्यादा,
काम पडे़ लम्बित।
पता नहीं है वही सभी क्यों,
होते सम्मानित?
किसकी मेहनत बढ़ी निरंतर,
किसकी बढ़ी पगार?

अच्छाई अपनालेने को,
कौन करे प्रेरित।
सही राह पर चलने वाले,
जब हैं प्रतिबंधित।
और वहीं कर्मठ लोगों को,
डपट रहे मक्कार।

(4)

घूरे की बीवी
--------------

जब बच्चों सँग गयी मायके,
घूरे की बीवी।

चौका, बर्तन, झाड़ू, पोछा,
कितना अधिक कठिन,
पता चला जब दो दिन उसके,
गुज़रे पत्नी बिन।
किसे समय जो आन करे अब,
बन्द पड़ी टीवी,

खाना, पीना, पढ़ना हो या,
धुलने हों कपड़े।
छोटे-छोटे काम स्वयं के,
लगते बडे़-बड़े।
अक्सर धौंस जमाने वाला,
निकला परजीवी।

लगता जैसे चिढ़ा रहा हो,
हँसकर हर कोना।
इतना सरल नहीं होता है,
सिर पर घर ढोना।
मिर्च समझते थे, वह निकली,
आम, सेब, कीवी।

(5)

सच्चा इंसान
---------------

कौन रखेगा अब लोगों के,
होंठों पर मुस्कान।

कभी भीड़ या सन्नाटे में,
जब कोई डूबे।
सुख-सुविधा के बावजूद मन,
अनायास ऊबे।
भाग-दौड़, दुनियादारी से,
दुनिया हो हैरान।

एक दूसरे के ऊपर सब,
बरसायें कोड़े।
कोई खंजर, चाकू ताने,
कोई बम फोड़े।
इस भीषण व्यापारिक युग में,
कौन करेगा दान।

उसके अवदानों को आखि़र,
कौन कहेगा कम।
नमक नहीं, जो लगा रहा हो,
घावों पर मरहम।
इंसानों में मुझको लगता,
वह सच्चा इंसान।

मुस्काने का एक बहाना,
खोज न पाते हैं।
हँसी ठहाके वालों को तब,
पास बुलाते हैं।
दूर नहीं कर पाते अपनी,
उलझन जब भगवान।

(6)

चौकी का दीवान
-------------------
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

शान्ति-व्यवस्था ड्यूटी करते,
निपटाते झगड़े।
गिरफ्तार उनको करते हैं,
जो उनसे तगडे़।
चौबीसों घंटे चलने पर,
आती नहीं थकान।
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

सबकुछ करने पर भी उनका,
जीत न पाये मन।
जिन जिन की रक्षा करने में,
लगा दिया जीवन।
वही लोग तैयार खडे़ हैं,
लेकर तीर कमान।
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

कभी रोकने पर अड़ जायें,
यदि चोरी, डाका।
करवा देते उन्हें निलम्बित,
चोरों के काका।
चौकीदारों का जीवन कब,
रहा यहाँ आसान।
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

अच्छी निगरानी करता है,
अपने इधर उधर।
छोटी छोटी चीज़ों पर भी,
रखता कड़ी नज़र।
लेकिन वही नहीं दे पाता,
है अपनों पर ध्यान।
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

(7)

फटी हुई बनियान
-------------------

ऐसे पोछा नहीं बनी है,
फटी हुई बनियान।

अलग तरह का ही जलवा था,
जब थी नयी नयी।
महँगे कपड़ों से भी पहले,
पहनी वही गयी।
सदा बुलन्दी पर रहती क्या,
किसी व्यक्ति की शान।

युवा अवस्था में कामों को,
माना काम नहीं।
जीवन के इस अन्तिम क्षण में,
भी आराम नहीं।
थके हुये बूढ़े लोगों का,
बचा कहाँ सम्मान।

नहीं रहा उपयोगी जो भी,
फेंक दिया जाता।
किसको अच्छा लगता है जो,
पडे़ पडे़ खाता।
शायद ऐसा करने से ही,
बची रहे पहचान।

इस दुनिया के जड़ चेतन से,
इतना कहना है।
जीना है तो यहाँ कुछ न कुछ,
करते रहना है।
बिन बोले सबको देने को,
यह प्रायोगिक ज्ञान।

(8)

आने वाला साल
-----------------

परिवर्तन से भरा हुआ हो,
आने वाला साल।

पहले से ही कर दो उसकी,
यों पतली हालत।
हमला करने की दुश्मन की,
पडे़ नहीं हिम्मत।
हमलावर के छूटें छक्के,
देख-देखकर ढाल।

कमा सके हर कोई इतना,
नित्य न्यूनतम धन।
लेना पडे़ न उसको किंचित,
सरकारी राशन।
फिर भी बने घरों में सब्जी,
रोटी, चावल, दाल।

अपना हित-अनहित अच्छे से,
समझ सके जनता।
रावण कौन, कौन रघुराई,
सबको रहे पता।
सज्जन के चक्कर में कोई,
चुने नहीं चण्डाल।

(9)

घूरे टीवी पर
---------------

घूरे की कविता आयेगी,
परसों टीवी पर।

समय, दिवस, चैनल का नम्बर,
लिखकर आज हुजू़र।
भेज रहे सबको यह मैसेज,
सुनना इसे ज़रूर।
जैसे बता रहे हों सबसे,
सबके घर जाकर।

शूट हुआ है इस चैनल पर,
मेरा कविता पाठ।
केवल इतना सा ही लिखकर,
फोटो डाली आठ।
मानो इस घटना से उनकी,
किस्मत गयी सँवर।

कुछ को हँसी, मजा़ कुछ-कुछ को,
कुछ को आया क्रोध।
कविता सुनने का आया जब,
भीषण सा अनुरोध।
सभी जानते थे इतना क्यों,
छलक रही गागर।

फोटो खींच, तुम्हें भेजूंगा,
देखूंगा प्रोग्राम।
हँसी हँसी में यही टिप्पणी,
कर बैठे सतनाम।
रिप्लाई है, ऋणी रहूँगा,
प्रियवर जीवनभर।

(10)

घूरे की दुकान
----------------

घूरे की जूता सिलने की,
छोटी एक दुकान।

कोई-कोई अक्सर आता,
कोई कम आता।
कोई नौकर भेज-भेजकर,
जूते सिलवाता।
किन्तु लगा लेता वह इससे,
बडे़-बडे़ अनुमान।

ज्यादा आते यहाँ, रबड़ या,
प्लास्टिक के जूते।
लेकिन वे सारे आते हैं,
अपने बल-बूते।
भले पहनते श्रमिक उन्हें या,
फिर मज़बूर किसान।

सभी, मोह महँगे जूतों का,
त्याग नहीं पाते।
लेकिन जूते सिलवाने भी,
स्वयं नहीं जाते।
और इस तरह ऊँचाई पर,
रखते अपनी शान।

बडे़ ब्रांड वाले जूतों के,
हुए नहीं दर्शन।
भले प्रतीक्षा में उनकी ही,
बीत रहा जीवन।
क्या इस युग में शबरी के घर,
आयेंगे भगवान।

मुकेश कुमार मिश्र
लखनऊ

परिचय
---------

नाम- मुकेश कुमार मिश्र पिता।
पिता- स्व0 श्री शिव प्रसाद मिश्र।
माता- श्रीमती मिथिलेश कुमारी ।
जन्म तिथि- 20/08/1987
जन्म स्थान - ग्राम व पोस्ट रामापुर, कौड़िया बाजार, गोण्डा, उ०प्र०।
हालपता- म०न०- 33 रिजर्व पुलिस लाइन, लखनऊ।
शैक्षिक योग्यता-भौतिकी में परास्नातक ।
संप्रति-उत्तर प्रदेश सरकार के गृह विभाग के अधीन कार्यरत ।

प्रकाशित कृतियाँ- 1- थाना (मुक्तक संग्रह (2019)
2- फटी हुई बनियान (नवगीत संग्रह(2022)

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

संध्या सिंह जी के पाँच नवगीत : प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

नवगीत पर एकाग्र ब्लॉग वागर्थ अपने समय के चर्चित नवगीतकारों के नवगीतों को प्रकाशित करता आया है। हमारी इस श्रंखला में आज प्रस्तुत हैं, चर्चित नवगीत कवि संध्या सिंह जी के पाँच नवगीत।
ब्लॉग वागर्थ के लिए इन नवगीतों पर अग्रलेख चर्चित लघुकथाकार/प्रख्यात समीक्षक कान्ता रॉय जी ने लिखा है। 
                                 ब्लॉग वागर्थ कान्ता रॉय जी का और सामग्री सहयोग के लिये संध्या सिंह जी का कृतज्ञ मन से आभार व्यक्त करता है।
         संपादक ब्लॉग वागर्थ
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चिंतन को प्रश्रय देने वाली संध्या सिंह के पाँच नवगीत
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इन कविताओं को पढ़ते हुए मन आद्र हो उठा है। मन में कई लहरें उठी और मचली भी। बचपन की यादों को साथ लेकर जवानी की बरसात हुई, मन और अधिक भींगा, भींगता ही गया। जीवन के सभी अवसान से अवसित अवस्थाओं में कभी फूल तो कभी शूल सी बिंधित स्मृतियाें का तर्पण हुआ। प्रश्न स्वयं से किया कि सभी रचनाएं अलग होते हुए भी एक दूसरे पर निर्भर होकर क्यों चल रही हैं? इस सवाल का जवाब कविताएं दे रही थी।
प्रथम कविता 'मना रही नववर्ष लाडली' बेटियों की वास्तविक स्थिति को लेकर रची गई है। उत्तर पाने के लिए कविता प्रश्न उठाती है कि देश की लाडलियों का कल्याण 'लाडली योजना' भी क्यों नहीं कर पा रही है? यह देखकर मन क्षुब्ध हो उठता है कि बेटियां आज भी बचपने को तरसती है। एक तरफ बाल विमर्श और दूसरी तरफ अन्यायपूर्ण व्यवहार के चिट्ठे। दोहरे आचरण को इंगित करती सभी पंक्तियां बेटियों के प्रति दृष्टिकोण में समाजिक बदलाव की बातों पर ध्यान दिलाने की सफल कोशिश करती है।
द्वितीय कविता 'वही पुराना वक्त' मानव चेतना और उससे जुड़ी भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं। मनुष्य का जीवन अड़ियल,जिद्दी,सख्त अतीत से अनुबंधित है। वह कभी पीठ पर लद कर तो कभी पीछे कभी आगे आगे चलता रहता है। यादों की मंजूषा में बीते हुए दिन सदैव के लिए संचित रहते हैं। चाहे वर्तमान कितना भी सशक्त और सम्पन्न हो, उस पर अतीत हमेशा ही भारी पड़ जाता है। शब्दों के पैने धार ही काव्य का सौंदर्य है।
तृतीय कविता का शीर्षक 'जहाँ जहाँ हम छूट गए थे' पढ़ते हुए हृदय में कसक पैदा करता है। मनुष्य टुकड़े टुकड़े में बंटा हुआ होता है। यही कारण है कि वह जीवन में कभी भी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता है। अपूर्णता से भरा हुआ हृदय उन तमाम छूटे हुए पलों को प्राप्त करना चाहता है। यह कविता अपने अंदर कथ्य के अनेकों मोती समेटे हुए समंदर की गहराई लेकर आगे बढ़ती है।
चतुर्थ कविता 'जारी है ये सफ़र समय का' आध्यात्मिक चिंतन को प्रश्रय देने में समर्थ है। जीवन के लय का टूटना, किसी आवेशित पल में उसका आधार छूटना मोह के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है।
पाँचवी कविता 'बाहर कोई धुआँ न कालिख, भीतर जलते नगर हमारे ' में आपने जिस तरह से शब्दों की चित्रकारी की है वह अद्भुत है। आपकी सभी कविताएं जीवन के निकट हैं। 
सूखती, रूक्ष मानवीय व्यवहार को लेकर चिंतित इन कविताओं में करूणा और संवेदनाओं का प्रतिस्थापन के प्रयास हैं। जीवन के रूदन के साथ समन्वय स्थापित करती हुई सभी कविताएं एक नवीन स्वप्न लेकर खड़े होने की चेष्टा करती हैं।
इन कविताओं को रचने वाली स्वप्नदृष्टा कवयित्री संध्या सिंह को बहुत बहुत बधाई प्रेषित है।

 कान्ता रॉय,भोपाल
_______________


एक
___
मना रही नववर्ष लाडली 
__________________

वही पुरानी 
चप्पल पहने 
उसी घिसे उधड़े स्वेटर में 
मना रही नववर्ष लाडली 

ढेर लगे 
बर्तन धोने को 
पानी गर्म मिला तो खुश है 
फटा हुआ 
दीदी का कुरता 
माँ ने बैठ सिला तो खुश है 

नयी फिनाइल 
की खुशबू से 
चहक-चहक कर कोने-कोने
पोंछ रही है फर्श लाडली 

केक चौकलेट 
गुब्बारों के 
बीच भला उसको क्या लेना 
मिला हुआ 
बासी हलवा भी 
घर जा कर अम्मा को देना 

नए वर्ष की 
नयी धूप के 
धवल पृष्ठ पर स्याह रंग से 
लिखती है संघर्ष लाडली 

बचा रहे 
बचपन बच्चों में 
गरमा-गरम बहस टी.वी.पर
भोले मन से 
रुक-रुक सुनती 
फूली रोटी परस-परस कर 

कथनी करनी 
के अंतर को 
देख-देख़ कर सोच रही है 
मिथ्या बाल विमर्श लाडली 

दो

' वही पुराना वक्त '

कितना भी मनुहार करें पर 
अड़ियल , जिद्दी , सख्त 
कपड़े बदल बदल कर आता 
वही पुराना वक्त

रोज़ जगाता सुई चुभा कर 
छडी दिखा कर सच दिखलाता 
मरुथल में जब नीर दिखे तो 
रेत उड़ा कर भरम मिटाता

पर हम भूल समय की फितरत 
सपनों पर आसक्त 
कपड़े बदल बदल कर आता 
वही पुराना वक्त ...

तीन
___

जहाँ जहाँ हम छूट गए थे 
__________________

कभी हवा ले गयी 
उड़ा कर 
कभी भँवर में डूब गए थे
चलो वहाँ से 
लायें खुद को
जहाँ-जहाँ हम छूट गए थे 

कहीं नीम के 
नीचे छूटे 
मीठी एक निम्बोली जैसे 
कहीं पिता की 
चौखट पर है 
अब भी सजे रंगोली जैसे 

खड़े आज भी 
उसी गली में 
मीत जहाँ पर रूठ गए थे 
चलो वहाँ से 
लायें खुद को
जहाँ जहाँ हम छूट गए थे 

कभी भीड़ में भी
तन्हा थे 
कभी रहा जंगल में मेला 
कभी समय से 
हम खेले थे 
कभी समय भी हमसे खेला 

कहीं खड़े थे 
चट्टानों से 
कहीं काँच से टूट गए थे 
चलो वहाँ से 
लायें खुद को
जहाँ जहाँ हम छूट गए थे 

कभी लिए 
अपमान आँख में
खड़े भीड़ में मुट्ठी भीचें 
कभी पिघल कर 
बूँद बूँद में
हमने दर्द अकेले सींचे 

कहीं एक 
हल्की ठोकर से 
संयम के घट फूट गए थे 
चलो वहाँ से 
लायें खुद को
जहाँ जहाँ हम छूट गए थे 

चार
___

जारी है ये सफ़र समय का 
___________________
कभी गूँजना 
आलापों का 
कभी भंग हो जाना लय का 
सुख-दुख सब
गठरी में बाँधे
जारी है ये सफ़र समय का

कभी जाम 
चक्का गाड़ी का 
मिलती कभी पटरियाँ टूटीं 
कभी लक्ष्य की 
ओर भागते 
ज़रा ज़रा सी खुशियाँ छूटीं 

कभी बुद्धि के 
कोलाहल में 
मौन हुआ संगीत हृदय का

कभी बहस के 
चक्रवात में 
छूट गया आधार किसी से 
कहीं निरर्थक 
रही शिकायत
कहीं व्यर्थ मनुहार किसी से 

रह कर 
आँधी की बस्ती में 
भूल गये अहसास मलय का

पाँच
___

भीतर जलते नगर हमारे
__________________

बाहर कोई 
धुआँ न कालिख 
भीतर जलते नगर हमारे 
उम्र हिरन-सी 
दौड़ रही है 
मगर रुके हैं सफ़र हमारे 

दिनचर्या के 
ऑक्टोपस की 
जकड़ रही हैं अष्ट भुजाएं 
दूर किनारे पर 
दिखती हैं
फुरसत की हिलती शाखाएं 

सींच-सींच कर
सबके उपवन 
सूख चुके हैं शजर हमारे 

कभी सजावट 
शयनकक्ष की
कभी किचन में स्वाद बने हैं 
कभी नींव में 
पत्थर जैसे 
कभी जड़ों में खाद बने है

रस्म रिवाजों की 
चादर से 
ढके जा रहे असर हमारे 

अकड़ी गरदन
तनी भृकुटियाँ
लोग कहाँ भीतर झाकेंगे
जो बिन मोल 
मिला जीवन में
उसकी क्यों कीमत आंकेंगे 

ज़िम्मेदारी 
सुरसा जैसी 
निगल रही है हुनर हमारे

उधर, धधकते 
अंगारे हैं 
इधर, सिल्लियाँ बिछी हुई हैं 
पगडंडी पर
पाँव उठे तो 
हम पर नज़रें टिकी हुई हैं 

अगर पढ़ो तो 
आँखें पढ़ लो 
सिले हुए हैं अधर हमारे

संध्या सिंह
________

परिचय 
नाम ---- संध्या सिंह
जन्म तिथि ---- 20 जुलाई 1958 
जन्म स्थान – ग्राम लालवाला , तहसील देवबंद , जिला सहारनपुर |
शिक्षा  ---- स्नातक विज्ञान , मेरठ विश्वविद्यालय |
सम्प्रति  -- हिन्दी संस्थान , रेडिओ , दूरदर्शन , निजी चैनल, अनेक साहित्यिक कार्यक्रम में एवं व्यवसायिक समृद्ध मंचों पर भी काव्य पाठ , समय समय पर अनेक पत्र पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित , इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र लेखन |
प्रकाशित पुस्तकें -- ---- 
तीन प्रकाशित काव्य संग्रह ‘आखरों के शगुन पंछी ‘, "उनींदे द्वार पर दस्तक " एवं  ‘मौन की झनकार’ 
पुरस्कार – 
सम्मान एवं पुरस्कार 
अपने प्रथम नवगीत संग्रह ‘’ मौन की झंकार ‘ पर दुबई की संस्था ‘’अभिव्यक्ति विश्वम ‘ की ओर से "अंकुर पुरस्कार २०१६ " से पुरस्कृत 
अभिनव कला परिषद् भोपाल की और से शब्द शिल्पी २०१७ सम्मान से सम्मानित 
हिंदुस्तानी अकादमी दिल्ली द्वारा आयोजित गीत प्रतियोगिता में प्रथम स्थान 
राज्य कर्मचारी संस्थान द्वारा 2018 में स्री लेखन पर सम्मानित
आयाम संस्था पटना द्वारा स्त्री लेखन पर 2017 में सम्मानित 
समन्वय संस्था सहारनपुर द्वारा सृजन सम्मान 2018 
एवं समय समय पर अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित


           चर्चित साहित्यकार
____________________

कान्ता रॉय
_________
जन्म : दिनांक- 20 जूलाई, 1969, कोलकाता
शिक्षा : बी.ए. 
सम्प्रति :
सहायक निदेशक : दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय, भोपाल (रबीन्द्रनाथ   टैगोरे विश्वविद्यालय द्वारा पदस्थापित)
निदेशक   :  लघुकथा शोध-केंद्र भोपाल, मध्यप्रदेश
प्रधान   सम्पादक: लघुकथा वृत्त, मासिक (मई 2018 से प्रारंभ)
संस्थापक   :  अपना प्रकाशन (जनवरी 2018 से प्रारंभ)
लेखन की विधाएँ :
लघुकथा, कहानी, गीत-गज़ल-कविता  और आलोचना
अनुभव : पूर्व  प्रशासनिक अधिकारी, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिंदी भवन, भोपाल
प्रस्तुति
______


शुक्रवार, 6 जनवरी 2023

साकीबा पटल पर नवगीतों पर चर्चा की एक झलक


साकीबा के मंच पर प्रस्तुत नवगीतों पर प्राप्त टिप्पणियों का एक कोलाज

             सुंदर एवं‌ सधी-कसी कविताएं हैं।‌ गीतों की लय में राजनीतिक बोध का मुखर होना बहुत जरूरी है और वह शुरूआती दो कविताओं में सटीक रूप से लक्षित हुआ है। 
२. 'उठी भागवत' कविता तो दर्पण की भांति दिखाई देती है जिसमें सांस्कृतिक ह्रास का तेजहीन चेहरा स्पष्ट दिखाई देता है। हम सब जानते हैं भागवत कथाओं में 'कथा-तत्व' का क्या गज़ब पतन हुआ है और ऐसी कथाएं, एक बड़े स्तर पर, चंदा इकट्ठा करने और धर्म बेचने की क्रियाओं का अड्डा बन चुकी हैं। कवि ने इस नस को कसकर पकड़ लिया है और उसके स्पंदनों की अभिव्यक्ति अपनी इस कविता में दे दी है।  
३. 'चमचों का दौर' में समकालीन राजनीतिक लोकव्यवहारों को निशाना बनाते हुए चमचागिरी का उद्घाटन किया गया‌। 'भूखों को घी चुपड़े कौर' डालना एक शानदार अभिव्यक्ति है। 
४. मनोज जी की भाषा की सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी की उसमें जबरदस्ती का काठिन्य नहीं है और वे सरल शब्दों‌‌ के माध्यम से ही अपनी इच्छित भावभूमि का चित्र खींच दे रहे हैं। कविताओं को दो-तीन बार पढ़ा और पाया कि लय बनी रही। लय गीतों को अपने ऊपर से गुजारने वाला‌ पुल है। मनोज जी ने मजबूत पुल बनाए हैं।
पुष्पेंद्र पाठक
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अच्छी कविताएं हैं। सशक्त अभिव्यक्ति है।

एक पाठक
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मनोज जी के गीतों में यह खास है कि उनमें एक ही विचार ने अपना विस्तार पाया है। समकालीन चिंताएं उनमें है
ब्रज श्रीवास्तव
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             नव गीत के व्याकरण के बहुत अच्छी तरह वाकिफ नहीं हूं लेकिन भाव ने प्रभावित किया।नए बिम्ब के साथ ताज़े खयाल के अरास्ता सभी नवगीत अच्छे लगे।नवगीतों में राजनीति से ले कर आम आदमी की पीड़ा की झलक मिलती है जो गांव से जुड़ी है मनोज जी को बहुत बधाई।
गज़ाला तबस्सुम
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मस्त है ,खड़ी भाषा में कड़वा पिला दिया।

नीलिमा करैया
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साकीबा के माध्यम से मनोज जी के नवगीतों से रूबरू हुए।राजनैतिक परिदृश्य और सामाजिक उधेड़बुन  की सरल शब्दों में अभिव्यक्ति दी है।
सोनू यशराज
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 मनोज जैन मधुर जी की रचनाएं पटल पर रखने के लिए मधु दीदी का आभार
ये नवगीत साहित्य जगत के अनमोल मोती हैं।
पहली रचना
गंगा नहाते हैं की तंज भरी प्रेरणा ने जागृत कर दिया।
दूसरी रचना हर हर गंगे
समाज की विद्रूप मानसिकता को दर्शा रही है।
धर्मिक सभाओं  की असलियत पर तीखी प्रतिक्रिया देती रचना उठी भागवत
समाज को आइना दिखा रही है।
दर्पण में झलकता है परायापन
इस कविता को पढ़ कर आंखे छलक आईं।

सुनीता पाठक
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आदरणीय सर जी के गीत बहुत ही प्रभावशाली तरीके से अपने भावों में पिरो व्यक्त किया है ....
आपको लेखन की बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं 

प्रमोद कुमार चौहान
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गीत सुगढ़ बन पड़े हैं , सीखने के लिये काफी कुछ है ।
अजय कुमार श्रीवास्तव
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 मनोज जैन मधुर जी के सभी नवगीत सहज, सरल तथा व्यंजनात्मक भाषा में सामाजिक विसंगति और विद्रूपता को उजागर करते हैं ।
बधाई 
हरगोविन्द मैथिल
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मनोज जी मेरे प्रिय गीतकार हैं 
शिल्प सौष्ठव और भाव की कसौटी पर शुद्ध खरे तीखे गीत l
आरंभ के दो गीत सिस्टम पर जबरदस्त कटाक्ष करते हैं l मनोज जी प्रतिरोध  अलग अंदाज के लिए जाने जाते हैं l 
"मंदिर के चंदे से पंडित जी की चुकी उधारी" 
"जो भी पास तुम्हारे भक्तों करके जाना दान"
 "सूख कर कांटा हुआ है झोंपडी का तन"
                 बड़े बर्छीले तेवर रहे हैं मनोज जी के मेरी ओर से साधुवाद इतने महत्वपूर्ण विषय उठाने के लिए l कसे शिल्प पर पुनः पुनः बधाई l
संध्या सिंह , लखनऊ
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मनोज जी का स्वागत ।
नवगीत के लिये यह नाम जाना माना है ।
धीरे धीरे चढ़े सभी के
फिर से उतरे चोले.. 
आज का सच उजागर करती हुई ऐसी अनेक पंक्तियों से भरे आपके गीत प्रभावित करते हैं ।
आज के गांव राजनीति के अखाड़े बन चुके हैं । ऐसे में संवेदनशील मन अगर वहां जाने से मुकरता है तो क्या अजब है ।
भावपूर्ण गीत रचनाओं के लिए मनोज जी आपको बधाई ।
अधिवक्ता, चित्रलेखा
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सभी कविताएं कम शब्दों में गहरी बात कह रही हैं। 
सीमा जैन
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१. लगता है चार्वाक दर्शन को आत्मसात करते हुए 'गंगा नहाते हुए' रची गई है।
२. राम-राम जपना पराया माल अपना जैसी कुछ भावनाएं हिलोरे ले रही है, लोगों को लगता है कोई देख नहीं रहा, कोई समझ नहीं रहा पर सच्चाई इसके विपरीत है बस कोई कहता नहीं है, बहुत अच्छा व्यंग्य, समस्या पर करारी चोट...
३. पता ही नहीं चला कब हम झूठी शान और दाल-भात के चक्कर में सुंदरवन के डेल्टा बन गए।
४. सबने अपने-अपने स्वार्थ सिद्ध किये, भागवत की आड़ में।
५. सामूहिक रूप से रचना रचकर, भावनाओं से खेलता हुआ, चपत लगाता हुआ 'विराजा गादी पर महाराज'
६. चमचों का ऐसा दौर चला कि भले लोग स्वाभाविक रूप से किनारे हो चले।
७. आज आभासी दुनिया, वास्तविक दुनिया से अधिक प्रिय लगने लगी है शायद यही हमारा दुर्भाग्य है।
मनोज जैन जी को जन्मदिवस की देर से ढेरों शुभकामनाएं, आपकी लेखनी यूं ही प्रहार करती रहे; बिना किसी लाग-लपेट के...
पंकज राठौर
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नवगीत के माध्यम से राजनीतिक उठापटक का जीवंत चित्रण, प्रत्येक पंक्ति अपने में भाव समेटे हुए है।
आदरणीय मनोज जी को शुभकामनाएं
डॉ रश्मि दीक्षित
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सर्वप्रथम मनोज जी को जन्मदिन की अनंत हार्दिक शुभकामनाएं। आपके नवगीत अद्भुत है। इनका कहन सरल किन्तु मारक है। आपकी रचनाशीलता को प्रणाम।
एक पाठक

 आ.मनोज जैन मधुर जी के सभी नवगीत अच्छे बन पड़े है। अच्छे सृजन के लिए बधाई

रेखा दुबे
_______

मनोज जी का हमारे बीच अपने नवगीत रखने के लिए आभार, आपके गीतों व आपसे फेसबुक पर निरंतर दो सालों से परिचित हूँ । वागर्थ समूह में आपके गीत पढता रहा हूँ। आज साकीबा के अपने समूह में आप के गीतों पर बात रखते हुए सुखद अनुभव कर रहा हूँ। नवगीतकाराओं में आप एक जाना पहचाना नाम है। परम्परागत गीतों में जिस तरह कहन, भाषा बिंब, ली तुक बानगी में बदलाव कर नवगीतों का चलन चालू हुआ उसने गीत परम्परा को नया सा कर दिया। उसे प्रेम, करुणा, सामाजिक विषयों से आगे ले जाकर समसामयिक राजनीति, आर्थिक व सांस्कृतिक समस्याओं के लिए नई आवाज़ के रूप में रखा गया है। यह केवल सुखद ही नही वरन अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण कार्य भी साबित हुआ है। देश का बहुत बड़ा तबका जो गीत के पंक्तियों को ही दोहराकर अपने मन के भावों को आसानी से व्यक्त करता है। उसके लिए गीत बोध का बहुत सहज व सरल माध्यम है। अतः नवगीत में जिस तरह मनोज जी व और भी जो नवगीतकार हैं। नये प्रयोग करके आज के समय के सच को आम आदमी के बहुत पास तक पहचाने का सार्थक कार्य किया है। 

मनोज जी के नवगीतों के अपने तेवर, अपने संदर्भ, व लय है जिसमें वे भावों को पिरोते हुए, पाठक को समय की मुख्यधारा में ले आते है। उसे अपडेट करते है। सूचना तथ्य से आज के समय की आर्थिक राजनीतिक, सामाजिक यथार्थ से, आप नवगीतों में दृष्टि का पैनापन व युगबोध का टटकापन मौजूद है। अतः इन नवगीतों को समझने के लिए कल्पना दुरूह शब्दावलियों, अबूझ प्रतीकों से होकर गुजरना नही पड़ रहा है। बल्कि आपकी रचना में आसानी से हम अपने आसपास  को महसुसते है। एक विषय को कई कोणों से व्यक्त करना और उसमें समय के मर्म का उदघाटन करते चलना आपकी खास शैली है। यथा- 
" मन मुआफ़िक चल रहा सब
दिन दहाड़े तंत्र हमको 
लूट लेता है।
खड़ा है तैनात रक्षा में
कौन उसको लूटने की
छूट देता है। 

आप अपने नवगीत में अपने नए मुहावरा गढ़ते है। और वस्तुस्तिथि को गहरे से हमारे सामने रखते है। जैसे आप कहते है।
" मान लो यह ऐश -ट्रे
अपनी कठौती है
और हम
गंगा नहाते है। 

आज के छल प्रपंच, पाखंड, लोभ लालच पर में करारा तंज कसते हुए अपने इन नवगीतों में हमारे विवेक को समझ की नई रौशनी देते है । 
" लाज को घूँघट दिखाया
पेट को थाली ।
आप तो भरते रहे पर
हम हुए खाली,

आप अपने नवगीत में भाषाई प्रयोग को लेकर भी कॉफी खुले,व  प्रयोगधर्मी है। म्यूज़िक, डिस्को ऐश ट्रे आदि शब्दों को अपने ही अंदाज में वे बड़े सटीक तरीके से अर्थ व भावों के साथ  समेट लेते है। 

आपकी शैली भाषा, कथ्य, विषय सभी कुछ बहुत प्रभावित करते है। आपका व साकीबा का बहुत आभार।

मिथिलेश राय
___________

 मनोज जैन जी के गीत अर्थवान है, अपने समय को शब्दबद्ध करते हैं। इन गीतों में जो याद रह जाएंगे वे हैं, 
द्वार-दर्पण में झलकता है परायापन
और हम बहुत कायल हुए हैं
आभार।
राजेश्वर वशिष्ठ
__________

 गीतकार मनोज जैन के नवगीत भोपाल मंच पर सुनने का का अवसर मिला था मुझे दो साल पहले। सुनकर यही लगा था  कि कवि मनोज जैन आधुनिक भावबोध के गीतकार हैं। हालांकि उनका शिल्प पूर्ववर्ती गीतकारों से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं है। उनके सभी गीत लगभग उसी फार्म है, जिसके लिए कुंवर बेचैन,  रामावतार राही, भारत भूषण, दिनेश सिंह आदि गीतकार जाने गए। सिर्फ उनकी संवेदना के भिन्न पहलुओं और समयबोध ने उनके गीतों के आकर्षण  को  कम नहीं होने दिया। गीतकार मनोज जैन के सभी गीतों ने मुझे गहरे तक प्रभावित किया। उनके गीतों में शिल्प का सहज सौंदर्य है तो  वर्तमान भावबोध की अप्रतिम छविया। गीत गंगा नहाते हैं,  हो या बोल रहे हैं हर हर गंगे - इनमें भारतीय समाज  की विडम्बनाएं साफ-साफ उभर आती हैं।
हम बहुत कायल हुये" गीत को ही देखिए। 'आंख को सपने दिखाये/प्यास को पानी। इस तरह होती रही रोज मनमानी। शब्द भर टपका दिये दो, होठ के आभार के।'
राजनीति और समाजनीति में पिछले दस वर्षों से क्या हो रहा है देख ही रहे हैं आप। इसकी तनी हुई प्रत्यंचा-सी अभिव्यक्ति गीत संख्या तीन और चार में स्पष्ट देखी जा सकती है। ' खड़े जुगत में घात लगाकर, चारों ओर शिकारी। गीत 'उठी भागवत' को ही देखें । गीतकार ने समाज के अंतर्विरोधों और विसंगतियों की रीढ़ पर प्रहार किया है। 'विराजा गादी पर महाराज' कवि का  एक अन्यंतम गीत है। इस पर लंबी बातचीत हो सकती है। अपने युगबोध को बहुत गहरे से पकड़ा है कवि ने। मंच को आनंदित करनेवाला गीत   है- 'चमचों का दौर' । इसमें सब कुछ है जो एक मंचीय गीत में होना चाहिए।
गीतकार मनोज जैन के गीतों को पढ़ने की व्यग्रता बहुत दिनों से थी। साकीबा ने आकर पूरी की। इन शानदार गीतों के लिए गीतकार भाई मनोज जैन 'मधुर' को बहुत बधाई और मधु सक्सेना जी बहुत आभार।
हीरालाल नागर
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 मनोज जी को जन्मदिन की शुभकामनाएं पटल पर प्रस्तुत 
व्यवस्था और पाखंड पर लिखे गीत प्रभावित करते हैं , गीत विधा में उनका मजबूत दखल है
बधाई 
वनिता बाजपेयी
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 आदरणीय मनोज सर ,जन्मदिन की हार्दिक बधाई...
संवेदनपरक... गहरे शाब्दिक अर्थ लिए उद्गार ...अनुभूतियों की यथार्थपरक व्यंजना...
सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक विद्रूपताओं से गहरी छटपटाहट.. उथलपुथल मन की आवाज पाठकों तक पहुँचाने नवगीत सृजन...
पवित्र गंगा मैया के लिए भटकती युवा पीढ़ी के क्रियाकलापों व भावनाओं  प्रति आक्रोश... पाश्चात्य रूझान से क्षीण होती संस्कृति 
 धार्मिक आडंबर ..भागवत पुराण वांचन की आधुनिक भावभंगिमाएं...पाखंडपन उजागर करता... हरे मुरारी के नाम पर हरते दान.. 
चमचों की राजनीति... व्यवस्थाओं की पोल खोलती..
अपने अंतर्मन को खंगालती पंक्तियाँ.. दर्पण में झलकता परायापन ..
शानदार..सघन शाब्दिक अर्थ लिए सौन्दर्यपरक लयात्मक नवगीतों से समृद्ध पटल..
बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय मनोज सर
बहुत-बहुत आभार, मधुदीदी

एक पाठक 
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 अच्छाई आपके भीतर है जोकि आपकी रचनाधर्मिता में स्पष्ट दिख भी रही है, लोगों ने सिर्फ सराहा ही नहीं बल्कि आपसे प्रेरणा भी ली है और अपनी लेखनी में धार भी दी है..
पंकज राठौर
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आदरणीय मनोज जी को जन्मदिन दिन की हार्दिक बधाई 
आपके नवगीतों से  पहली बार परिचय हुआ, पढ़कर  सुखद अनुभूति हुई | अलग अलग विषयों पर लिखी गई
गीतों की भाषा  और भाव   बड़े सघन व आकर्षित  करने वाले  हैं  .... आपको  शुभ कामनाएं !
भावना सिन्हा
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आदरणीय मनोज जी,  गिने-चुने उन सर्जकों में से हैं, जो नवगीत की नैया को मँझधार से किनारे पर लाने का जतन कर रहे हैं। नवगीत के निकष पर संतुष्ट करते आपके नवगीत में समाहित गहन अर्थ और आशय भी आसानी से अपनी अभिव्यक्ति दे जाते हैं। 
नवगीत की माँग अनुरूप अभिधा या व्यंजना का सहारा लेकर जन सरोकार समाज के सामने ले आते हैं। मुखर स्वर में अपनी बात कहते नवगीत पाठक को सचेत करते हैं, उद्देलित करते हैं, समाधान की छटपटाहट जगा देते हैं। मुहावरे, लोकोक्तियाँ, बिम्ब और विमर्श, शिल्प विधान पाठक को चमत्कृत करते हैं। 
आज आपके नवगीत पढ़कर स्वयं को समृद्ध अनुभूत कर रहा हूँ। 
हार्दिक बधाई। 
साकीबा साधुवाद।
राजेन्द्र श्रीवास्तव
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 छोड़ो छोड़ो काम रोज के।पढ़ो गीत तुम भी मनोज के।
ब्रज श्रीवास्तव
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मनोज जैन प्रतिबद्ध गीतकार हैं। धारदार भाव व भाषा में अपनी बात को कहते हुए कब समय को सामने लाकर खड़ा कर देते हैं पता ही नहीं चलता। बधाई इन नवगीतों और जन्मदिन के लिए
गीता पण्डित
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आदरणीय मनोज जी 
नमस्ते ।
जन्मदिन तो निकल चुका पर बधाइयाँ जाती दी जाएँ कम हैं । सो बहुत-बहुत बधाइयाँ पुनः । आप स्वस्थ रहें ऐसा ही अच्छा-अच्छा लिखते रहें और हम सब पढ़ते रहें। सादर वैसे तो आपको पढ़ते रहे हैं  फेस बुक पर भी और वैसे भी।निश्चित ही इस प्रकार का लेखन गाॅड गिफ्ट लगता है। कभी-कभी मन सोचता है कि ईर्ष्या का भाव जागृत न हो जाए पर जानते हैं यह हमारी प्रवृति  में दूर-दूर तक नहीं पर एक ललक उठती है कि काश! हम भी कुछ लिख पाते। रात को सोते हुए ही किसी लेखक की आत्मा कुछ देर के लिये परकाया प्रवेश कर कुछ अच्छा-अच्छा लिखवा ले हमसे!आपकी  कलम से तो परिचय है ही अब बात  रचनाओं पर।

1-गङ्गा नहाते हैं 

गङ्गा नहाना एक मुहावरा हैऔर अगर इसे शीर्षक के रूप में  प्रयुक्त किया है तो निश्चित ही गहरा अर्थ रखता है। इस मुहावरे का अर्थ होता है किसी बड़े(कठिन)व जरूरी कर्तव्य को पूरा करना। सामान्यतः मकान बनवाना ,बेटी की शादी या तीर्थ वगैरह के लिये यह प्रयुक्त  होता है क्योंकि वो तो जरूरी और कठिन कर्तव्य  हैं  पर बद्रीनाथ और केदारनाथ तीर्थ करना भी सबके लिये सहज नहीं। यहाँ 1-जरूरी 2-कर्तव्य और तीसरा- पूरा होना; तीनों  अलग-अलग महत्वपूर्ण बिंदु  हैं । और जब तीनों  मिलकर पूर्ण विराम पर पहुँचते हैं तब-मुहावरा सार्थक  होता है गङ्गा नहा लिये।
तंत्र की कूटनीतिक चालों और पैतरों को इस नवगीत में बखूबी व्यक्त किया है आपने। मीठा बोल कम तोल कहें लुभावने वादे पर करनी कुछ और; या मुख में  राम बगल में  छुरी। और बस इसी तरह की कूटनीतिक चालों  से अपना काम का काम और नाम का नाम बस; काम हुआ या नहीं, कैसे  किया और क्या  किया यह समझ पाते और पता चला उन्हें जो करना कर लिया और गङ्गा नहा लिये। पर आपके आखिरी पद ने स्पष्ट किया कि आपने" मन चंगा" से कठौती में  गङ्गा"
को लक्ष्य किया है  तब भी-
मन चंगा  नहीं होने पर भी चंगेपन के दिखावे के साथ नकली गङ्गा को किस तरह की कठौती में किस तरह से दिखाया जा सकता है ।यह आपके नव गीत से सिद्ध हुआ ।
2 -बोल रहे हैं हर-हर गङ्गे
यह नवगीत भी पहले नवगीत की तर्ज पर ही है। इस शीर्षक  को नारा भी कह सकते हैं,स्मरण भी और प्रातः वन्दन भी।यहाँ नर्मदा जी हैं तो हर हर नर्मदे प्रचलित
है;राधे-राधे,राम-राम,जय श्री कृष्णा की तरह। सब एक दूसरे को इसी तरह कहकर अभिवादन करते हैं नमस्ते कीऔपचारिकता नहीं  चलती।
यहाँ  तो गीत स्वतः अपना परिचय दे रहा  है। धर्म के नाम पर राजनीति की चालें  बिछ रही है। यह कविता बहुत महत्वपूर्ण तीखे तेवर वाली है। सच को शब्द-रूपी तलवार की तेज धार की तरह प्रस्तुत किया है आपने।यहाँ आपकी फोटो  में  दिखता आपका  सरल व्यक्तित्व सख्त और निडर नजर आया
दिल को देखो चेहरा न देखो  
चेहरे ने लाखों (करोड़ों)
को लूटा।
पुती हुई है कालिख मन पर
लेकिन चमक ललाट रहे हैं ।
शासन -गङ्गा घाट
वहाँ के चौकीदार-
 राजनेता
तो खेवनहार तो ये ही हैं  जिस घाट लगा दें या किसी घाट  ही ण न लगाएँ, बीच में .....
 3- हम बहुत कायल हुए हैं
 कायल शब्द  यहाँ  बखूबी प्रयुक्त हुआ 
किसी  के गुण विशेष के प्रति आकर्षण के लिये इस शब्द  को व्यंग्य में  पिरोकर रचना  को धारदार  बना दिया आपने। ऐसा लग रहा है पढ़ते हुए जैसे यही सब तो जी रहे हैं  अपन सब!
यहाँ  आपकी सृजनात्मकता के  हम ही कायल हुए।
4-उठी भागवत
इस रचना  में वर्तमान में  धार्मिक आडम्बरों में  आसक्त जनता की दीवानगी, छलावा और (सब जगह नहीं  पर कहीं-कहीं ) पाखंड को निशाना बनाया है। वैसे तो हम स्वयं बहुत धार्मिक हैं पर अंधभक्ति, अंधविश्वास और अंधश्रद्धा से दूर हैं। ईश्वर के अस्तित्व को अगर आप स्वीकार करते हैं  तो हर कार्य आप पवित्र मन से ,कर्तव्य बद्धता से करते हैं  क्योंकि आप जानते हैं कि ईश्वर अदृश्य है पर देख रहा है।गलत,बुरा या गंदा बोलते हुए डरता है क्योंकि जानता है कि वह सब सुन रहा है। बिनु पद चले सुने बिनु काना,
कर बिनु कर्म करे विधि नाना।।
आनन रहित सकल रस भोगी,
बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी।। 
तो बस ,ईश्वर के प्रति समर्पण ,स्वभाव को प्रेमिल,विवेकी और सरल रखता है । हल्का सा भय बुराइयों के प्रति सचेत  रखता है। मुश्किलों में  वही सर्वशक्तिमान है जानकर भीड़  जुट जाती है। भगवान की बात करने वाला  स्वयं भगवान के कितने निकट है यह समझना कठिन नहीं।
अच्छा लिखा है आपने-
वाचक ने पाखण्ड पसारा
नेता ने छल परसा
और यह सब नजर आता है।
5-विराजा गादी पर महाराज
यह रचना भी पूर्व रचना की सहचरी है।
यहाँ तो सिर्फ पाखण्ड ही पाखण्ड है।बहुरूपिये की कला निखर कर नजर आ रही है ।
6-चमचों का दौर
यह चमचों का ही दौर है।चम्मचों की तरह चमचों में  भी क्वालिटी होती है।
कुटिल चालों  से ही राजा बना जा सकता है। राजनेताओं  से ज्यादा भ्रष्ट कोई  नहीं और नेतागिरी  से ज्यादा भ्रष्टाचार ......नहीं-नहीं!भ्रष्टाचार तो सब जगह है,हर क्षेत्र में । जितना बड़ा पद उतना  बड़ा भ्रष्टाचार! अनेक मिलेंगे।

क्षत्रप सब राजा के
संग साथ नाचें
 प्रजा के हाव-भाव
 एक एक जाँचे

7-दर्पण में  झलकता है परायापन

 इस रचना ने गंभीर  कर दिया। और मन थोड़ा  सा आर्द्र हो उठा । एक पल याद  आया -
छोड़ आए हम वो गलियाँ
काश  समय पलट पाए।पर ऐसा होता नहीं ।
अपेक्षाओं  के टूटने का दर्द  महसूस  हुआ  मनोज भाई!
अगर द्वार ही दर्पण है और वहीं परायापन  नजर आ जाए तो अंदर प्रवेश  कैसे हो?
बहुत ही करुण सृजन है यह आपका ।अपनेपन के खोने की पीड़ा दिल तोड़ देती है।
अब बात लेखन और काव्य सौंदर्य पर-
क्या  कहें  और क्या न कहें ।
 हमें  नवगीतों  की विशेषताओं की ,बारीकियों की कोई  जानकारी नहीं ।काव्य अपने हर रूप में  हमें  लुभाता है।
शब्द-शक्ति में कहें  तो आपने  लक्षणा  और व्यंजना  का भरपूर  प्रयोग किया वाक्यार्थ के अनुरूप ।
 बल्कि  व्यंजना  और लक्षणा से ही रचनाओं में तीखे कटाक्ष और तीखे महसूस हुए।मुहावरे लक्षित  अर्थ  के द्योतक  हैं ।शब्द गुण में  ओज अथिक महसूस हुआ । चुप्पी शैतान की तरह खामोशी से पैनी बात कहने में  आप निपुण हैं ।
शब्द-संयोजन बिलकुल  परफेक्ट है आपका। एक भी शब्द  व्यर्थ  नहीं 
और शैली की जादूगरी ऐसी कि आप किसी शब्द की जगह भी नहीं  बदल सकते।
मुहावरों  का प्रयोग जान डाल गया। मुहावरे  कम शब्दों  में  बड़ा अर्थ  प्रतिध्वनित करते हैं ।
गङ्गा नहाना
कश लगाना
दिन दहाड़े लूटना
छूट देना
धुएँ  के छल्ले उड़ाना
कठौती में  गङ्गा तो आ जाए पर मन तो चंगा हो!
और गलत को सही साबित  करने की अपनी चालाकियाँ।  
सामयिक विषयों पर ज्वलंत आक्षेप है आपकी रचनाओं  में ।
रचनाओं में  प्रभावशीलता, व्यंग्य और अभिव्यक्ति  की तीव्रता  सहज और सरल शैली में  महसूस  हुई।
आह! थोड़े लिखे को अधिक  समझें । आजकल इतनी रात तक जागते नहीं  पर लिखना जरूरी था।
 इतने बेहतरीन  सृजन के लिये  अनेकानेक बधाइयाँ  और भविष्य के लिये शुभकामनायें ।
मधु  बहुत-बहुत आभार  तुम्हारे पढ़वाने लिये, पर शहद सी मीठी और  प्यारी बहन।से गुजारिश है कि 5 रचनाएँ कविता, या गीत की दृष्टि से पर्याप्त होती हैं।
अंत में  साहित्य की बात व ब्रज जी  का भी आभार  इतना  अच्छा- अच्छा पढ़ाकर पटल को प्रतिष्ठित करने के साथ हम सबको  भी प्रतिस्थापित और प्रतिष्ठित करने के लिये।
नीलिमा करैया
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 मनोज जी के नवगीत पढ़कर मन में तृप्ति का भाव जगा। साथ ही एक अपूर्व पाठकीय आनन्द भी मिला। छन्द जिसे लापरवाह या अ-मौलिक कविगण तुकबन्दी, मुलम्मागीरी, भौंडी गायकी आदि के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, ऐसे लोगों के निशाने पर कई दशकों से है जो छन्दोबद्धता को जीवन की बढ़ती हुई जटिलताओं, ऊहापोहों और सूक्ष्मतम द्वन्द्वों के प्रस्तुतीकरण में बाधा मान रहे हैं। मनोज जी जैसे सर्जक जो हर शब्द और हर बिम्ब की खोज में समय लगाते हैं और खानापूरी करने वाली तुकों और जगह भरने वाली बतकही से संतुष्ट नहीं होते, छन्द के प्रयोग का औचित्य अपने नवगीतों से ठहराने का साहस रखते हैं। उनके पास कहन की नवीनता भी है, अभिव्यक्ति की सामान्यता से बचकर निकलने का धैर्य भी है। समाज उनके विचारों के गलियारों में लैम्पपोस्ट की तरह अपनी मौजूदगी बिखेरता है। ज़िन्दगी जिसके अर्थ और सौन्दर्य का अनुसन्धान सृजन का प्राप्य माना जाता है, उनके नज़दीक गौरैया की तरह बेहद आत्मीय अंदाज़ में आती है।
    मनोज जी के नवगीतों पर मैं अलग-अलग टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ। सुधीजन उनके बारे में अपने विचार पहले ही व्यक्त कर चुके हैं।
    मेरा मानना है कि अच्छी कविता हर स्थिति में अच्छी कविता होती है। उसका वैशिष्ट्य, उसकी तरलता, उसकी धार पाठकों को उनकी सहृदयता और संवेदना के मुताबिक़ पृथक्-पृथक् ढंग से छूती है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह किस तरह के शिल्प में है यानी छन्द में है या मुक्त अंदाज़ में किसी बड़ी जीवन-स्थिति को रच रही है।
    भाषा कई बार गहरे मक़सद रचती है। वह सिर्फ़ कहती नहीं, पूछती भी है, बताती भी है, टोकती भी है, घूरती भी है, वक़्त ज़रूरत आगाह भी करती है, हमारी सुस्तियों और जम्हाइयों का मज़ाक भी बनाती है, कभी-कभी हमारी किसी नासमझी के लिए हमें धिक्कारती भी है, कायरतापूर्ण समझौते करने की हमारी आदत में दख़ल भी देती है।
    साहित्य हमें अपने दैनन्दिन विचारों से बाहर निकालकर उन अभिव्यक्तियों के मैदान में ले जाता है जिसकी दूब की एक-एक पत्ती रचनाकार ने सँवारी होती है। यह यात्रा कितनी ही छोटी हो, कई अर्थों में नायाब होती है। हम नये तजुर्बों से रूबरू होते हैं, दुनिया के तमाम अनदेखे-अनसोचे संघर्षों को समझते हैं, जीवन की ऊष्मा को अपने अन्तर्जगत में कुछ इस तरह महसूस करते हैं जैसे हमारा कुछ छूटा हुआ हमारे पास उस रचनाकार की पंक्तियों  के माध्यम से वापस आ रहा हो।
    मनोज जी के सातों नवगीत हमें कुछ विशिष्ट अनुभूतियां देते हैं जिसके लिए वह बधाई के पात्र हैं।
    वह स्वस्थ, प्रसन्न, सक्रिय और इसी तरह कवितामय रहें, उनके जन्मदिन के अवसर पर मेरी यह शुभकामना है।

सत्येन्द्र कुमार रघुवंशी
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 बढ़िया गीत
जिनमें विचार भी हैं और शानदार शिल्प भी
बधाई मनोज जी
राज नारायण बोहरे
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एक से बढ़कर एक रचनाएँ! नीलिमा जी और सत्येंद्र जी की टिप्पणियों ने ऐसा उत्साहित किया कि चाय चूल्हे पर जल गयी और मैं नवगीतों का जूस मजे लेकर पीती रह गयी। वाह!
गीता चौबे
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 प्रमोद कुमार चौहान: आदरणीय सर जी के गीत बहुत ही प्रभावशाली तरीके से अपने भावों में पिरो व्यक्त किया है ....
आपको लेखन की बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं 

प्रमोद कुमार चौहान
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मनोज जी का स्वागत ।
नवगीत के लिये यह नाम जाना माना है ।

धीरे धीरे चढ़े सभी के
फिर से उतरे चोले.. 
आज का सच उजागर करती हुई ऐसी अनेक पंक्तियों से भरे आपके गीत प्रभावित करते हैं ।

आज के गांव राजनीति के अखाड़े बन चुके हैं । ऐसे में संवेदनशील मन अगर वहां जाने से मुकरता है तो क्या अजब है ।

भावपूर्ण गीत रचनाओं के लिए मनोज जी आपको बधाई ।

सर्वप्रथम मनोज जी को जन्मदिन की अनंत हार्दिक शुभकामनाएं।

आपके नवगीत अद्भुत है। इनका कहन सरल किन्तु मारक है। आपकी रचनाशीलता को प्रणाम

आदरणीय मनोज सर ,जन्मदिन की हार्दिक बधाई...
संवेदनपरक... गहरे शाब्दिक अर्थ लिए उद्गार ...अनुभूतियों की यथार्थपरक व्यंजना...
सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक विद्रूपताओं से गहरी छटपटाहट.. उथलपुथल मन की आवाज पाठकों तक पहुँचाने नवगीत सृजन...
पवित्र गंगा मैया के लिए भटकती युवा पीढ़ी के क्रियाकलापों व भावनाओं  प्रति आक्रोश... पाश्चात्य रूझान से क्षीण होती संस्कृति 
 धार्मिक आडंबर ..भागवत पुराण वांचन की आधुनिक भावभंगिमाएं...पाखंडपन उजागर करता... हरे मुरारी के नाम पर हरते दान.. 
चमचों की राजनीति... व्यवस्थाओं की पोल खोलती..
अपने अंतर्मन को खंगालती पंक्तियाँ.. दर्पण में झलकता परायापन ..
शानदार..सघन शाब्दिक अर्थ लिए सौन्दर्यपरक लयात्मक नवगीतों से समृद्ध पटल..
बहुत-बहुत बधाई, आदरणीय मनोज सर
बहुत-बहुत आभार, मधुदीदी
एक पाठक
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अच्छाई आपके भीतर है जोकि आपकी रचनाधर्मिता में स्पष्ट दिख भी रही है, लोगों ने सिर्फ सराहा ही नहीं बल्कि आपसे प्रेरणा भी ली है और अपनी लेखनी में धार भी दी है..
पंकज राठौर
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हमारे समय के महत्वपूर्ण नवगीत कवि प्रिय बंधु मनोज जैन जी को जन्मदिन पर अशेष मंगलकामनाएँ।
अपने लेखन में निरन्तर परिष्कार की जैसी ललक उनमें दिखती है, वैसी अन्यत्र कम ही मिलती है। उनके पहले नवगीत संग्रह 'एक बूँद हम' के नवगीत भी शानदार हैं। किन्तु 'धूप भरकर मुट्ठियों में' में वे एक नये तेवर के साथ दिखाई देते हैं। और अब उसके बाद के उनके नवगीत, जो हम इधर पढ़ रहे हैं, उनका तेवर उल्लेखनीय है। इधर के नवगीतों में वे आधुनिक भावबोध से बाहर निकलते हैं। यह जद्दोजहद उनके पहले दोनों संग्रहों में भी दिखाई पड़ती है, किन्तु इधर की नवगीत कविताओं में गहरी समकालीनता मिलती है। इस बात पर मेरी हार्दिक बधाई।
                  मनोज जैन जितना अपनी नवगीत कविताओं के लिए जाने जाते हैं, उतना ही वे नवगीत पर एकाग्र अपने फेसबुक समूह के लिए भी पहचाने जाते हैं।
                 आज प्रस्तुत नवगीत कविताओं के लिए मनोज जैन जी को पुनः बधाई।
सादर
राजा अवस्थी, कटनी
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एक दम करारे नव गीत।
शब्द की टंकार, व्यंग्य में।

विसंगतियों पर कटाक्ष करते।
पाठक को उद्वेलित करते।

अपनी लय में बहा ले जाने को आतुर।
सहज, भावप्रवण।

मनोज जी बधाई

मनोज जी की रचनाएं। सहज, सरल, स्पष्ट रूप से सीधे सीधे अपने समय की चिंताओं को व्यक्त करती है। उत्कृष्ट सृजन
प्रदीप गवांडे
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बहुत सही कहा 
आज मनोज जी के नवगीतों में gp को गुलज़ार कर दिया ।
सरल तरल कविताये ही मन को लुभाती हैं । धन्यवाद मधु दीदी 
आभार मनोज जी।
अर्चना नायडू
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 मनोज जी के नवगीत सहज सरल और गेय शैली में हैं जो पाठक और श्रोता दोनों को भावविभोर कर देते हैं
डॉ पद्मा शर्मा 
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ठंडी शाम में सबका गर्म स्वागत के साथ सुबह से शाम तक पटल पर मनोज जी के नवगीत महक रहा है—-
सभी नवगीत-
गंगा नहाते हैं
बोल रहे हैं हर हर गंगे
हम बहुत क़ायल
उठी भागवत
बिराजा गाड़ी पर महाराज
चमचों का दौर
सभी नवगीत गीत के साथ समाज पे जहां पर ज़रूरत है वहाँ चोट करती हुई बहुत ही मारक नवगीत

अजय श्रीवास्तव
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प्रस्तुति वागर्थ