गुरुवार, 12 जनवरी 2023

संध्या सिंह जी के पाँच नवगीत : प्रस्तुति ब्लॉग वागर्थ

नवगीत पर एकाग्र ब्लॉग वागर्थ अपने समय के चर्चित नवगीतकारों के नवगीतों को प्रकाशित करता आया है। हमारी इस श्रंखला में आज प्रस्तुत हैं, चर्चित नवगीत कवि संध्या सिंह जी के पाँच नवगीत।
ब्लॉग वागर्थ के लिए इन नवगीतों पर अग्रलेख चर्चित लघुकथाकार/प्रख्यात समीक्षक कान्ता रॉय जी ने लिखा है। 
                                 ब्लॉग वागर्थ कान्ता रॉय जी का और सामग्री सहयोग के लिये संध्या सिंह जी का कृतज्ञ मन से आभार व्यक्त करता है।
         संपादक ब्लॉग वागर्थ
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चिंतन को प्रश्रय देने वाली संध्या सिंह के पाँच नवगीत
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इन कविताओं को पढ़ते हुए मन आद्र हो उठा है। मन में कई लहरें उठी और मचली भी। बचपन की यादों को साथ लेकर जवानी की बरसात हुई, मन और अधिक भींगा, भींगता ही गया। जीवन के सभी अवसान से अवसित अवस्थाओं में कभी फूल तो कभी शूल सी बिंधित स्मृतियाें का तर्पण हुआ। प्रश्न स्वयं से किया कि सभी रचनाएं अलग होते हुए भी एक दूसरे पर निर्भर होकर क्यों चल रही हैं? इस सवाल का जवाब कविताएं दे रही थी।
प्रथम कविता 'मना रही नववर्ष लाडली' बेटियों की वास्तविक स्थिति को लेकर रची गई है। उत्तर पाने के लिए कविता प्रश्न उठाती है कि देश की लाडलियों का कल्याण 'लाडली योजना' भी क्यों नहीं कर पा रही है? यह देखकर मन क्षुब्ध हो उठता है कि बेटियां आज भी बचपने को तरसती है। एक तरफ बाल विमर्श और दूसरी तरफ अन्यायपूर्ण व्यवहार के चिट्ठे। दोहरे आचरण को इंगित करती सभी पंक्तियां बेटियों के प्रति दृष्टिकोण में समाजिक बदलाव की बातों पर ध्यान दिलाने की सफल कोशिश करती है।
द्वितीय कविता 'वही पुराना वक्त' मानव चेतना और उससे जुड़ी भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं। मनुष्य का जीवन अड़ियल,जिद्दी,सख्त अतीत से अनुबंधित है। वह कभी पीठ पर लद कर तो कभी पीछे कभी आगे आगे चलता रहता है। यादों की मंजूषा में बीते हुए दिन सदैव के लिए संचित रहते हैं। चाहे वर्तमान कितना भी सशक्त और सम्पन्न हो, उस पर अतीत हमेशा ही भारी पड़ जाता है। शब्दों के पैने धार ही काव्य का सौंदर्य है।
तृतीय कविता का शीर्षक 'जहाँ जहाँ हम छूट गए थे' पढ़ते हुए हृदय में कसक पैदा करता है। मनुष्य टुकड़े टुकड़े में बंटा हुआ होता है। यही कारण है कि वह जीवन में कभी भी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता है। अपूर्णता से भरा हुआ हृदय उन तमाम छूटे हुए पलों को प्राप्त करना चाहता है। यह कविता अपने अंदर कथ्य के अनेकों मोती समेटे हुए समंदर की गहराई लेकर आगे बढ़ती है।
चतुर्थ कविता 'जारी है ये सफ़र समय का' आध्यात्मिक चिंतन को प्रश्रय देने में समर्थ है। जीवन के लय का टूटना, किसी आवेशित पल में उसका आधार छूटना मोह के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है।
पाँचवी कविता 'बाहर कोई धुआँ न कालिख, भीतर जलते नगर हमारे ' में आपने जिस तरह से शब्दों की चित्रकारी की है वह अद्भुत है। आपकी सभी कविताएं जीवन के निकट हैं। 
सूखती, रूक्ष मानवीय व्यवहार को लेकर चिंतित इन कविताओं में करूणा और संवेदनाओं का प्रतिस्थापन के प्रयास हैं। जीवन के रूदन के साथ समन्वय स्थापित करती हुई सभी कविताएं एक नवीन स्वप्न लेकर खड़े होने की चेष्टा करती हैं।
इन कविताओं को रचने वाली स्वप्नदृष्टा कवयित्री संध्या सिंह को बहुत बहुत बधाई प्रेषित है।

 कान्ता रॉय,भोपाल
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एक
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मना रही नववर्ष लाडली 
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वही पुरानी 
चप्पल पहने 
उसी घिसे उधड़े स्वेटर में 
मना रही नववर्ष लाडली 

ढेर लगे 
बर्तन धोने को 
पानी गर्म मिला तो खुश है 
फटा हुआ 
दीदी का कुरता 
माँ ने बैठ सिला तो खुश है 

नयी फिनाइल 
की खुशबू से 
चहक-चहक कर कोने-कोने
पोंछ रही है फर्श लाडली 

केक चौकलेट 
गुब्बारों के 
बीच भला उसको क्या लेना 
मिला हुआ 
बासी हलवा भी 
घर जा कर अम्मा को देना 

नए वर्ष की 
नयी धूप के 
धवल पृष्ठ पर स्याह रंग से 
लिखती है संघर्ष लाडली 

बचा रहे 
बचपन बच्चों में 
गरमा-गरम बहस टी.वी.पर
भोले मन से 
रुक-रुक सुनती 
फूली रोटी परस-परस कर 

कथनी करनी 
के अंतर को 
देख-देख़ कर सोच रही है 
मिथ्या बाल विमर्श लाडली 

दो

' वही पुराना वक्त '

कितना भी मनुहार करें पर 
अड़ियल , जिद्दी , सख्त 
कपड़े बदल बदल कर आता 
वही पुराना वक्त

रोज़ जगाता सुई चुभा कर 
छडी दिखा कर सच दिखलाता 
मरुथल में जब नीर दिखे तो 
रेत उड़ा कर भरम मिटाता

पर हम भूल समय की फितरत 
सपनों पर आसक्त 
कपड़े बदल बदल कर आता 
वही पुराना वक्त ...

तीन
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जहाँ जहाँ हम छूट गए थे 
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कभी हवा ले गयी 
उड़ा कर 
कभी भँवर में डूब गए थे
चलो वहाँ से 
लायें खुद को
जहाँ-जहाँ हम छूट गए थे 

कहीं नीम के 
नीचे छूटे 
मीठी एक निम्बोली जैसे 
कहीं पिता की 
चौखट पर है 
अब भी सजे रंगोली जैसे 

खड़े आज भी 
उसी गली में 
मीत जहाँ पर रूठ गए थे 
चलो वहाँ से 
लायें खुद को
जहाँ जहाँ हम छूट गए थे 

कभी भीड़ में भी
तन्हा थे 
कभी रहा जंगल में मेला 
कभी समय से 
हम खेले थे 
कभी समय भी हमसे खेला 

कहीं खड़े थे 
चट्टानों से 
कहीं काँच से टूट गए थे 
चलो वहाँ से 
लायें खुद को
जहाँ जहाँ हम छूट गए थे 

कभी लिए 
अपमान आँख में
खड़े भीड़ में मुट्ठी भीचें 
कभी पिघल कर 
बूँद बूँद में
हमने दर्द अकेले सींचे 

कहीं एक 
हल्की ठोकर से 
संयम के घट फूट गए थे 
चलो वहाँ से 
लायें खुद को
जहाँ जहाँ हम छूट गए थे 

चार
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जारी है ये सफ़र समय का 
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कभी गूँजना 
आलापों का 
कभी भंग हो जाना लय का 
सुख-दुख सब
गठरी में बाँधे
जारी है ये सफ़र समय का

कभी जाम 
चक्का गाड़ी का 
मिलती कभी पटरियाँ टूटीं 
कभी लक्ष्य की 
ओर भागते 
ज़रा ज़रा सी खुशियाँ छूटीं 

कभी बुद्धि के 
कोलाहल में 
मौन हुआ संगीत हृदय का

कभी बहस के 
चक्रवात में 
छूट गया आधार किसी से 
कहीं निरर्थक 
रही शिकायत
कहीं व्यर्थ मनुहार किसी से 

रह कर 
आँधी की बस्ती में 
भूल गये अहसास मलय का

पाँच
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भीतर जलते नगर हमारे
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बाहर कोई 
धुआँ न कालिख 
भीतर जलते नगर हमारे 
उम्र हिरन-सी 
दौड़ रही है 
मगर रुके हैं सफ़र हमारे 

दिनचर्या के 
ऑक्टोपस की 
जकड़ रही हैं अष्ट भुजाएं 
दूर किनारे पर 
दिखती हैं
फुरसत की हिलती शाखाएं 

सींच-सींच कर
सबके उपवन 
सूख चुके हैं शजर हमारे 

कभी सजावट 
शयनकक्ष की
कभी किचन में स्वाद बने हैं 
कभी नींव में 
पत्थर जैसे 
कभी जड़ों में खाद बने है

रस्म रिवाजों की 
चादर से 
ढके जा रहे असर हमारे 

अकड़ी गरदन
तनी भृकुटियाँ
लोग कहाँ भीतर झाकेंगे
जो बिन मोल 
मिला जीवन में
उसकी क्यों कीमत आंकेंगे 

ज़िम्मेदारी 
सुरसा जैसी 
निगल रही है हुनर हमारे

उधर, धधकते 
अंगारे हैं 
इधर, सिल्लियाँ बिछी हुई हैं 
पगडंडी पर
पाँव उठे तो 
हम पर नज़रें टिकी हुई हैं 

अगर पढ़ो तो 
आँखें पढ़ लो 
सिले हुए हैं अधर हमारे

संध्या सिंह
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परिचय 
नाम ---- संध्या सिंह
जन्म तिथि ---- 20 जुलाई 1958 
जन्म स्थान – ग्राम लालवाला , तहसील देवबंद , जिला सहारनपुर |
शिक्षा  ---- स्नातक विज्ञान , मेरठ विश्वविद्यालय |
सम्प्रति  -- हिन्दी संस्थान , रेडिओ , दूरदर्शन , निजी चैनल, अनेक साहित्यिक कार्यक्रम में एवं व्यवसायिक समृद्ध मंचों पर भी काव्य पाठ , समय समय पर अनेक पत्र पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में निरंतर रचनाएँ प्रकाशित , इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र लेखन |
प्रकाशित पुस्तकें -- ---- 
तीन प्रकाशित काव्य संग्रह ‘आखरों के शगुन पंछी ‘, "उनींदे द्वार पर दस्तक " एवं  ‘मौन की झनकार’ 
पुरस्कार – 
सम्मान एवं पुरस्कार 
अपने प्रथम नवगीत संग्रह ‘’ मौन की झंकार ‘ पर दुबई की संस्था ‘’अभिव्यक्ति विश्वम ‘ की ओर से "अंकुर पुरस्कार २०१६ " से पुरस्कृत 
अभिनव कला परिषद् भोपाल की और से शब्द शिल्पी २०१७ सम्मान से सम्मानित 
हिंदुस्तानी अकादमी दिल्ली द्वारा आयोजित गीत प्रतियोगिता में प्रथम स्थान 
राज्य कर्मचारी संस्थान द्वारा 2018 में स्री लेखन पर सम्मानित
आयाम संस्था पटना द्वारा स्त्री लेखन पर 2017 में सम्मानित 
समन्वय संस्था सहारनपुर द्वारा सृजन सम्मान 2018 
एवं समय समय पर अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित


           चर्चित साहित्यकार
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कान्ता रॉय
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जन्म : दिनांक- 20 जूलाई, 1969, कोलकाता
शिक्षा : बी.ए. 
सम्प्रति :
सहायक निदेशक : दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय, भोपाल (रबीन्द्रनाथ   टैगोरे विश्वविद्यालय द्वारा पदस्थापित)
निदेशक   :  लघुकथा शोध-केंद्र भोपाल, मध्यप्रदेश
प्रधान   सम्पादक: लघुकथा वृत्त, मासिक (मई 2018 से प्रारंभ)
संस्थापक   :  अपना प्रकाशन (जनवरी 2018 से प्रारंभ)
लेखन की विधाएँ :
लघुकथा, कहानी, गीत-गज़ल-कविता  और आलोचना
अनुभव : पूर्व  प्रशासनिक अधिकारी, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिंदी भवन, भोपाल
प्रस्तुति
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