गुरुवार, 19 जनवरी 2023

वागर्थ ब्लॉग में आज प्रस्तुत हैं मुकेश कुमार मिश्र जी के नवगीत : प्रस्तुति और टिप्पणी अनामिका सिंह

ब्लॉग वागर्थ में आज
प्रस्तुति और टीप 
एडमिन अनामिका सिंह

कहा ही जाता है कि सरल होना और सरल लिखना सबसे कठिन होता है किन्तु आज हम जिस शख्सियत के गीतों से रू-ब-रू होंगे उनके गीतों और स्वभाव में सरलीकरण इनबिल्ट है । मुकेश जी से हमारा साहित्यिक परिचय लगभग पाँच वर्ष पुराना है , हम साहित्यिक समूह ’ काव्या ’ - सतत साहित्य यात्रा ’ में साथ रहे । हमें नहीं याद आता कि रचनाओं पर प्रतिक्रियाओं के अतिरिक्त हमारा कभी संवाद हुआ हो । फिर भी हमने पाया कि यह बेहद शान्त और सरल स्वभाव के धनी हैं । छंद पर गहरी पकड़ रखने वाले मुकेश जी की दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । अभी हाल ही में आपका नवगीत संग्रह ’ फटी हुई बनियान ’ आया है । गौर करने वाली बात है कि आपके नवगीतों की विषयवस्तु रोज़मर्रा के परिवेश से जुड़ी है , ऐसे विषय जिन पर आमतौर पर हर लेखक की दृष्टि नहीं जाती ,आप उन पर बड़ी सहजता से सार्थक और विचारणीय बात कह जाते हैं। आपके नवगीतों में विषय वैविध्य कमाल का है । वाश बेसिन, बल्ब, बनियान, इनर आदि के स्वाभाविक स्वरूप पर बात करते हुए बड़े सलीके से आप उसे एक मोड़ पर आकर व्यापक सरोकारों से जोड़ देते हैं । ’ घूरे ’ सीरीज के आपके नवगीत विशेष प्रभावी बन पड़े हैं, चाहे वह घूरे की दुकान हो ,  घूरे की बीवी का मायके जाना हो या  घूरे टीवी पर के जरिए आत्ममुग्ध लोगों पर लक्ष्य साधना हो ! लब्बोलुआब यह कि छोटे मीटर , लो पिच पर आपके गीतों का थ्रो लंबा है । सद्य प्रकाशित संग्रह और अच्छे गीतों पर आपको हार्दिक बधाई एवम् शुभकामनाएँ ।


(1)

चूल्हे का जलना
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इतना भी आसान नहीं है,
चूल्हे का जलना ।

लाचारी, निर्धनता कोई,
बात नहीं छोटी।
अब भी कुछ भी करवा सकती,
केवल दो रोटी।
किस बच्चे को अच्छा लगता,
रस्सी पर चलना।

सोचो कैसा लगता होगा,
सुनकर यह उस पल।
जब मालिक कहता, मज़दूरी,
मिल पायेगी कल।
दिनभर मेहनत करने पर भी,
पडे़ हाथ मलना।

कभी पसीना नहीं सूखता,
जिन जिन माथों पर।
अक्सर उनके चूल्हे मिलते,
हैं फुटपाथों पर।
बहुत प्रतीक्षा पर होता है,
सूरज का ढलना।

(2)

मछुआरों के जाल
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कभी मछलियों से पूछा क्या,
रुककर उनका हाल?

समझ न पाया पता नहीं क्यों,
मिला इन्हें जीवन?
यहाँ मनुष्यों के खाने को,
क्या कम था भोजन?
कभी किसी की सब्जी बनना,
कभी किसी की दाल।

मृत्यु न हो उसके ही हाथों,
जिसके हाथ पली।
यही कामना करती मिलती,
अक्सर हर मछली।
छीन लिए जायें अब सारे,
मछुआरों के जाल ।

किसी ताल में कई मछलियाँ,
भाग रहीं सरपट।
किसी-किसी को मस्ती दिखती,
मुझको अकुलाहट।
जिसको राजा से ख़तरा, वह,
किससे करे सवाल।

(3)

पुनर्विचार
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हमें बैठकर करना होगा,
इसपर पुनर्विचार।

जिन-जिन पर रखनी थी हमको,
हरदम कड़ी नज़र।
आश्रित होते गये अनवरत,
उनके ही ऊपर।
हिला रहे हैं वही लोग सब,
भारत का आधार।

जिन पटलों पर सबसे ज्यादा,
काम पडे़ लम्बित।
पता नहीं है वही सभी क्यों,
होते सम्मानित?
किसकी मेहनत बढ़ी निरंतर,
किसकी बढ़ी पगार?

अच्छाई अपनालेने को,
कौन करे प्रेरित।
सही राह पर चलने वाले,
जब हैं प्रतिबंधित।
और वहीं कर्मठ लोगों को,
डपट रहे मक्कार।

(4)

घूरे की बीवी
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जब बच्चों सँग गयी मायके,
घूरे की बीवी।

चौका, बर्तन, झाड़ू, पोछा,
कितना अधिक कठिन,
पता चला जब दो दिन उसके,
गुज़रे पत्नी बिन।
किसे समय जो आन करे अब,
बन्द पड़ी टीवी,

खाना, पीना, पढ़ना हो या,
धुलने हों कपड़े।
छोटे-छोटे काम स्वयं के,
लगते बडे़-बड़े।
अक्सर धौंस जमाने वाला,
निकला परजीवी।

लगता जैसे चिढ़ा रहा हो,
हँसकर हर कोना।
इतना सरल नहीं होता है,
सिर पर घर ढोना।
मिर्च समझते थे, वह निकली,
आम, सेब, कीवी।

(5)

सच्चा इंसान
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कौन रखेगा अब लोगों के,
होंठों पर मुस्कान।

कभी भीड़ या सन्नाटे में,
जब कोई डूबे।
सुख-सुविधा के बावजूद मन,
अनायास ऊबे।
भाग-दौड़, दुनियादारी से,
दुनिया हो हैरान।

एक दूसरे के ऊपर सब,
बरसायें कोड़े।
कोई खंजर, चाकू ताने,
कोई बम फोड़े।
इस भीषण व्यापारिक युग में,
कौन करेगा दान।

उसके अवदानों को आखि़र,
कौन कहेगा कम।
नमक नहीं, जो लगा रहा हो,
घावों पर मरहम।
इंसानों में मुझको लगता,
वह सच्चा इंसान।

मुस्काने का एक बहाना,
खोज न पाते हैं।
हँसी ठहाके वालों को तब,
पास बुलाते हैं।
दूर नहीं कर पाते अपनी,
उलझन जब भगवान।

(6)

चौकी का दीवान
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इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

शान्ति-व्यवस्था ड्यूटी करते,
निपटाते झगड़े।
गिरफ्तार उनको करते हैं,
जो उनसे तगडे़।
चौबीसों घंटे चलने पर,
आती नहीं थकान।
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

सबकुछ करने पर भी उनका,
जीत न पाये मन।
जिन जिन की रक्षा करने में,
लगा दिया जीवन।
वही लोग तैयार खडे़ हैं,
लेकर तीर कमान।
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

कभी रोकने पर अड़ जायें,
यदि चोरी, डाका।
करवा देते उन्हें निलम्बित,
चोरों के काका।
चौकीदारों का जीवन कब,
रहा यहाँ आसान।
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

अच्छी निगरानी करता है,
अपने इधर उधर।
छोटी छोटी चीज़ों पर भी,
रखता कड़ी नज़र।
लेकिन वही नहीं दे पाता,
है अपनों पर ध्यान।
इतना सरल नहीं है होना,
चौकी का दीवान।

(7)

फटी हुई बनियान
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ऐसे पोछा नहीं बनी है,
फटी हुई बनियान।

अलग तरह का ही जलवा था,
जब थी नयी नयी।
महँगे कपड़ों से भी पहले,
पहनी वही गयी।
सदा बुलन्दी पर रहती क्या,
किसी व्यक्ति की शान।

युवा अवस्था में कामों को,
माना काम नहीं।
जीवन के इस अन्तिम क्षण में,
भी आराम नहीं।
थके हुये बूढ़े लोगों का,
बचा कहाँ सम्मान।

नहीं रहा उपयोगी जो भी,
फेंक दिया जाता।
किसको अच्छा लगता है जो,
पडे़ पडे़ खाता।
शायद ऐसा करने से ही,
बची रहे पहचान।

इस दुनिया के जड़ चेतन से,
इतना कहना है।
जीना है तो यहाँ कुछ न कुछ,
करते रहना है।
बिन बोले सबको देने को,
यह प्रायोगिक ज्ञान।

(8)

आने वाला साल
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परिवर्तन से भरा हुआ हो,
आने वाला साल।

पहले से ही कर दो उसकी,
यों पतली हालत।
हमला करने की दुश्मन की,
पडे़ नहीं हिम्मत।
हमलावर के छूटें छक्के,
देख-देखकर ढाल।

कमा सके हर कोई इतना,
नित्य न्यूनतम धन।
लेना पडे़ न उसको किंचित,
सरकारी राशन।
फिर भी बने घरों में सब्जी,
रोटी, चावल, दाल।

अपना हित-अनहित अच्छे से,
समझ सके जनता।
रावण कौन, कौन रघुराई,
सबको रहे पता।
सज्जन के चक्कर में कोई,
चुने नहीं चण्डाल।

(9)

घूरे टीवी पर
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घूरे की कविता आयेगी,
परसों टीवी पर।

समय, दिवस, चैनल का नम्बर,
लिखकर आज हुजू़र।
भेज रहे सबको यह मैसेज,
सुनना इसे ज़रूर।
जैसे बता रहे हों सबसे,
सबके घर जाकर।

शूट हुआ है इस चैनल पर,
मेरा कविता पाठ।
केवल इतना सा ही लिखकर,
फोटो डाली आठ।
मानो इस घटना से उनकी,
किस्मत गयी सँवर।

कुछ को हँसी, मजा़ कुछ-कुछ को,
कुछ को आया क्रोध।
कविता सुनने का आया जब,
भीषण सा अनुरोध।
सभी जानते थे इतना क्यों,
छलक रही गागर।

फोटो खींच, तुम्हें भेजूंगा,
देखूंगा प्रोग्राम।
हँसी हँसी में यही टिप्पणी,
कर बैठे सतनाम।
रिप्लाई है, ऋणी रहूँगा,
प्रियवर जीवनभर।

(10)

घूरे की दुकान
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घूरे की जूता सिलने की,
छोटी एक दुकान।

कोई-कोई अक्सर आता,
कोई कम आता।
कोई नौकर भेज-भेजकर,
जूते सिलवाता।
किन्तु लगा लेता वह इससे,
बडे़-बडे़ अनुमान।

ज्यादा आते यहाँ, रबड़ या,
प्लास्टिक के जूते।
लेकिन वे सारे आते हैं,
अपने बल-बूते।
भले पहनते श्रमिक उन्हें या,
फिर मज़बूर किसान।

सभी, मोह महँगे जूतों का,
त्याग नहीं पाते।
लेकिन जूते सिलवाने भी,
स्वयं नहीं जाते।
और इस तरह ऊँचाई पर,
रखते अपनी शान।

बडे़ ब्रांड वाले जूतों के,
हुए नहीं दर्शन।
भले प्रतीक्षा में उनकी ही,
बीत रहा जीवन।
क्या इस युग में शबरी के घर,
आयेंगे भगवान।

मुकेश कुमार मिश्र
लखनऊ

परिचय
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नाम- मुकेश कुमार मिश्र पिता।
पिता- स्व0 श्री शिव प्रसाद मिश्र।
माता- श्रीमती मिथिलेश कुमारी ।
जन्म तिथि- 20/08/1987
जन्म स्थान - ग्राम व पोस्ट रामापुर, कौड़िया बाजार, गोण्डा, उ०प्र०।
हालपता- म०न०- 33 रिजर्व पुलिस लाइन, लखनऊ।
शैक्षिक योग्यता-भौतिकी में परास्नातक ।
संप्रति-उत्तर प्रदेश सरकार के गृह विभाग के अधीन कार्यरत ।

प्रकाशित कृतियाँ- 1- थाना (मुक्तक संग्रह (2019)
2- फटी हुई बनियान (नवगीत संग्रह(2022)

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