सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

शीला पाण्डेय जी के नवगीत

~ ।।वागर्थ।। ~

    में आज पढ़ते हैं शीला पाण्डेय जी के नवगीत।

     शीला पाण्डेय जी साहित्यिक गलियारे का बेहद सक्रिय नाम हैं । आपके दो नवगीत संग्रह ' परों को तोल ' एवम्  ' गाँठों की करधनी ' प्रकाशित हो चुके हैं । आपके नवगीतों में व्यवस्था विरोध , सामाजिक विसंगतियाँ, स्त्री विमर्श , प्रेम एवम् लोकजीवन  के  सहज दृश्य उपलब्ध हैं । 
    उल्लेखनीय है कि आपने ' सूरज है रूमाल में ' नवगीत समवेत संकलन का संपादन किया । इस संकलन में विशेष श्रम और समय लगा इस महत्वपूर्ण नवगीत साझा संकलन पर नवगीत समाचोकों का ध्यान जाना चाहिए।हमारा अपना मानना है यदि काम हुआ है तो देर -सबेर बोलेगा ही ।
         वागर्थ आपको हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता है ।

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(१)

गाँठों की करधनी 
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भीत ढहाकर नींव खोदते ,
ईंट बिछाते हैं ।
नये मसीहा देश जोत
मजदूर उगाते हैं ।

सोने के सब महल बनेंगे ,
जन्नत के तहखाने भीतर ।
भोग-योग का न्यौता देंगें ,
मारेंगे सब विषधर, चीतर ।

सड़कों पर सैलाब बहाये ,
हमें जगाते हैं ।

काँधों-काँधों देश उठेगा ,
देश-विदेशी साथी लेकर .
हौदा रख प्राचीन मनौती ,
सज निकलेगा हाथी थेथर ।

झुंड-मुंड बलिदान चढ़ाकर 
भोग लगाते हैं ।

गाँठों की करधनी चीर से ,
पेट छुपाकर तन के ऊपर ।
गिरहस्थी का कलश शीश पर,
पैर थिरकते मन के ऊपर ।

निर्जन किलो हजारों मीटर 
पाँव भगाते हैं ।

(२)

 राजा ने आचार संहिता
जन-जन से स्वीकार करा ली ।

कर्ज़ा  डूबा, पूँजी डूबी
पूँजी पति की शान बढ़ी ।
यत्र-तत्र सर्वत्र चतुर्दिक 
बेनामी पतवार गढ़ी ।
नाव खेवइया राज सिपाही 
खेये तिरे विदेशी भूमि ,
उसी नाव से जनता ने भी 
अपनी गठरी पार करा ली ।

राजधर्म व्यापार सरीखा ,
राजा साहब दे निपटाये ।
झूठ, दम्भ, पाखंड हमेशा 
जिम्मेदारी कब ले पाये ।
इसी राह की संस्कृति बुनती 
जनता मनबढ़ चली हनक से,
रिश्ते-नाते, दीन धरम में
करके घातें, रार करा ली ।

राज-पाट का मान बेंच कर 
घाट-घाट का पाट बेंच दो
मानवता का वध कर के फिर 
लोकतंत्र को काट बेंच दो ।
खुली तिजोरी लूट-पाट के 
जनता के मुँह ताला जड़ना,
इसके -उसके सबके बाबत
चौतरफा  तलवार उठा ली ।

(३)

मौन में हलचल
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मौन में हलचल बड़ी है
शोर बाहर थम गया है
सिंधु सा तूफान गहरा
रोकने में दम गया है

घुमचियों के लाल- काले
रंग से दोनों जुडे हैं
ख़्वाब की यायावरी में
गंध केसर के उड़े हैं 

झर पड़े हैं फूल सारे
वायु में कुछ रम गया है ।

पंछियों, पेड़ों, हवाओं
ने नये अनुवाद पाए
बाजरों ने बालियों को
खत लिखे, प्रिय मुस्कराए

बाग़ का कचनार बहका
गूँजता सरगम नया है ।

पान में थोड़ा बताशा
सौंफ, मिसरी घुल गयी है
सुर्ख लम्हों में उनींदी
चाँदनी घुल-मिल गयी है 

प्रेम पगने की मधुरता 
में कहीं क्षण थम गया है । 
            
(४)

साग खोट लाएँ
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चलो चलें खेतों से
साग खोट लाएँ ।

माया, सुभद्रा
हे सखियाँ सहेली ,
धूप खिली जाड़े की
दोपहर नवेली ।

उठो, हाथ डलिया लो
सरसों और बथुआ
चना ओट लाएँ ।

गेहूँ के खेतों से
सरसों हैं पाये,
बथुआ भी कोंइछा में
फूला समाये ।

बातों का गलचउरा ,
हँसिनियाँ खेतों में,
झुकीं छोट जाएँ ।

नून, मिर्च, लहसुन
की चटनी, हथेली ।
धरे खेत बैठी है ,
पंगत, सहेली ।

अँचरा से पोंछ-पोंछ
चना खोट गाल भरें
हँसें लोट जाएँ ।

(५)

हमला  
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कर रहा सैय्याद हमला
बुलबुलें पिंजरों में जाएँ ।

बाहरी आबो-हवा की
लत लगेगी, धूप ओढ़ें ।
सीढ़ियाँ चढ़कर, खिलेंगे
नित नये कुछ फूल लोढ़ें ।

तरु किसी सत्ता की पहुँचें
फिर फलों को बीन खाएँ ।

संविधानों में कसी ये
क़ैद की विरुदावली भी ।
पालना पिंजरों में चूज़े,
थापना रोटी भली भी ।

सेविका बन जन्मना है ,
यह कहीं मत भूल जाएँ !

तीज, त्योहारों, महावर
की गठरियाँ फेंक भागें ।
आँख में फिर आँख डालें
बाज को भी मार टाँगें ।

घेर दें साँचें में उल्टे ही
घिरें, दीवार पाएँ ।

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परिचय
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नाम--शीला पांडे
जन्म--30 जनवरी 1968
शिक्षा--एम.एस.सी. ( कार्बनिक रसायन ), एम.ए ( प्राचीन इतिहास )

प्रकाशित कृतियाँ--
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बाल साहित्य--
सांची की गुड़िया ( बाल कहानी-संग्रह --चार संस्करण ), उत्तर भारत की लोककथाएँ
( बाल कहानी संग्रह-बाल लोक साहित्य -दो संस्करण ), भूली बिसरी लोककथाएं 
(बाल लोककथाएं 2021 )-【उपरोक्त तीनो के प्रकाशक --सूचना प्रसारण मंत्रालय,
भारत सरकार, प्रकाशन विभाग, दिल्ली 】ताल कटोरा--( बाल कविता- संग्रह ) 
【 न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, दिल्ली 】
निबंध-संग्रह--समय में घेरे--( साहित्य भंडार, इलाहाबाद )
कविता-संग्रह-
मुक्त पलों में ( अतुकांत कविता-संग्रह ), रे मन गीत लिखूँ में कैसे -गीत-संग्रह

परों को तोल( नवगीत-संग्रह --दो संस्करण ), गाँठों की करधनी ( नवगीत- संग्रह ) प्रलेक प्रकाशन मुम्बई

संपादन--
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सूरज है रूमाल में ( स्त्री नवगीतकर संचयन ) श्वेतवर्णा, दिल्ली, 21 श्रेष्ठ बालमन की कहानियाँ, उत्तर प्रदेश ( समवेत बाल कहानी संग्रह उ प्र) डायमंड बुक्स,दिल्ली

अनुवाद--
नील विहग( मोरिस मेटर लिंक--'ब्ल्यू बर्ड' ) यश  प्रकाशन, दिल्ली

प्रकाशनाधीन साहित्य--
आलोचना --
निर्वासिनी का युद्ध (आलेख-स्त्री-विमर्श ),पुस्तकों से गुजरते हुए ( समीक्षाएं ) एवं
अन्य ।
कृतियों पर शोध--
समय में घेरे ( निबंध-संग्रह ) पर एम.फिल.कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी, हरियाणा

विशेष--10 दिवसीय 'लखनऊ पुस्तक मेला' की कार्यक्रम प्रभारी का दायित्व निर्वहन

पुरस्कार एवं सम्मान--
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पुस्तकों पर पुरस्कार--

उत्तर भारत की लोककथाएं--उ प्र हिन्दी संस्थान द्वारा बलभद्र प्रसाद दीक्षित 
सर्जना पुरस्कार 2014, एवं अन्य पुरस्कार
सांची की गुड़िया--उ प्र हिन्दी संस्थान द्वारा नामित सूर-पुरस्कार 2017, भारतीय
प्रकाशक संघ द्वारा बाल साहित्य 2016 प्रथम पुरस्कार, सलिला संस्थान सलूम्बर,
राजस्थान द्वारा बाल साहित्य पुरस्कार 2019 एवं अन्य पुरस्कार ।
सम्मान---
साहित्य गौरव सम्मान 2017, 
( उ प्र राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान,लखनऊ द्वारा साहित्य परिक्रमा सम्मान 2019)
( अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा )
प्रोफ महेंद्र प्रताप स्मृति विशेष साहित्य सम्मान 2018, ( सांची की गुड़िया ) एवं
अन्य ।
संस्थापक एवं अध्यक्ष--

आकाशगंगा ,न्यास ( साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था ) लखनऊ, भारत
साहित्यिक विदेश यात्रा
एवं आयोजन-- सिंगापुर, वियतनाम, कम्बोडिया और थाईलैंड ।
अध्यक्षता--- हिन्दी भाषा पर वैश्विक परिचर्चा
( भारतीय महावाणिज्य दूतावास,
वियतनाम -अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी उत्सव )
वर्तमान---
स्वतंत्र लेखन के साथ आकाशगंगा न्यास के माध्यम से साहित्यिक एवं सांस्कृतिक
गतिविधियों का आयोजन एवं संपादन ।
सम्पर्क---1/82 विक्रान्त खंड, गोमतीनगर, लखनऊ 226010
                मो 9935119848, 9140262314,
                ईमेल- sheelapandey657@gmail.com
                 Akashganga2019@gmail.com

रविवार, 27 फ़रवरी 2022

।।वागर्थ।।~ प्रस्तुत करता है बाबा नागार्जुन के दो गीत।

।।वागर्थ।।~ प्रस्तुत करता है बाबा नागार्जुन के दो गीत।
1
उनको प्रणाम!
जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ प्रणाम।

कुछ कंठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमंत्रित तीर हुए;
रण की समाप्ति के पहले ही
जो वीर रिक्त तूणीर हुए!
उनको प्रणाम!

जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार,
मन की मन में ही रही, स्वयं
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!

जो उच्च शिखर की ओर बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह भरे,
पर कुछ ने ले ली हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम

एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को निकले,
हो गए पंगु, प्रति-पद जिनके
इतने अदृष्ट के दाव चले!
उनको प्रणाम

कृत-कृत नहीं जो हो पाए,
प्रत्युत फाँसी पर गए झूल
कुछ ही दिन बीते हैं, फिर भी
यह दुनिया जिनको गई भूल!
उनको प्रणाम!

थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दु:खांत हुआ,
या जन्म-काल में सिंह लग्न
पर कुसमय ही देहाँत हुआ!
उनको प्रणाम

दृढ़ व्रत औ' दुर्दम साहस के
जो उदाहरण थे मूर्ति-मंत?
पर निरवधि बंदी जीवन ने
जिनकी धुन का कर दिया अंत!
उनको प्रणाम!

जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
उनको प्रणाम!

2

जान भर रहे हैं जंगल में
गीली भादों
रैन अमावस

कैसे ये नीलम उजास के
अच्छत छींट रहे जंगल में
कितना अद्भुत योगदान है
इनका भी वर्षा-मंगल में
लगता है ये ही जीतेंगे
शक्ति प्रदर्शन के दंगल में
लाख-लाख हैं, सौ हज़ार हैं
कौन गिनेगा, बेशुमार हैं
मिल-जुलकर दिप-दिप करते हैं
कौन कहेगा, जल मरते हैं
जान भर रहे हैं जंगल में

गीली भादों
रैन अमावस

जुगनू है ये स्वयं प्रकाशी
पल-पल भास्वर पल-पल नाशी
कैसा अद्भुत योगदान है
इनका भी वर्षा मंगल में
इनकी विजय सुनिश्चित ही है
तिमिर तीर्थ वाले दंगल में
इन्हें न तुम 'बेचारे' कहना
अजी यही तो ज्योति-कीट हैं
जान भर रहे हैं जंगल में

गीली भादों
रैन अमावस

परिचय
_________
जन्म : १९११ ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन ग्राम तरौनी, जिला दरभंगा में।

परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा। सुविख्यात प्रगतिशील कवि एवं कथाकार। हिन्दी, मैथिली, संस्कृत और बंगला में काव्य रचना। मातृभाषा मैथिली में "यात्री" नाम से लेखन।मैथिली काव्य संग्रह "पत्रहीन नग्न गाछ" के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

छह से अधिक उपन्यास, एक दर्जन कविता संग्रह, दो खण्ड काव्य, दो मैथिली (हिन्दी में भी अनूदित) कविता संग्रह, एक मैथिली उपन्यास, एक संस्कृत काव्य "धर्मलोक शतकम" तथा संस्कृत से कुछ अनूदित कृतियों के रचयिता।

निधन : ५ नवम्बर १९९८।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

समीक्षा


 

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

जगदीश श्रीवास्तव जी के नवगीत प्रस्तुति : वागर्थ

 वागर्थ प्रस्तुत करता है वरेण्य कवि जगदीश श्रीवास्तव जी के आठ नवगीत


                                     आज की पूरी प्रस्तुति का सौजन्य एवं श्रेय वरेण्य कवि दादा मयंक श्रीवास्तव जी को जाता है। इन नवगीतों को पढ़कर एक बात ही जहन में आती हैं नवगीत कथ्य और शिल्प के स्तर पर 1984 में कितना समृद्ध और दमदार था।

जगदीश श्रीवास्तव जी के नवगीत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं।

प्रस्तुति

वागर्थ


_______


एक

गंध रोटी की

______________


जिन्दगी 

चलती रही है 

बैलगाड़ी में 

हर तरफ 

फैली हुई है 

गंध रोटी की !

लिख रही 

है जो व्यथा 

केवल लंगोटी की 

जिन्दगी 

छलती रही है 

                  रेलगाड़ी में 


चरमरा कर 

रह गई 

काँधा लगाए हैं 


हम सदी के 

बोझ को 

सर पर उठाए हैं 

डूबने से 

बच गई है 

                 उम्र खाड़ी में 


चीमटा-

खुरपी कुदाली 

जो बनाते हैं 

खून-भट्टी में वही 

हर दिन जलाते हैं 

जिन्दगी 

गिरवी रखी है 

                 एक झाड़ी में 


मंजिलों

से बेखबर 

दिन रात चलती है 

जब अलावों-सी 

दिलों में 

आग जलती है 

बोझ ढ़ोते 

उम्र गुजरी है -

                   तगाड़ी में


दो

सफ़ीलों पर

_____________


एक मोटी

पर्त काई की छा गई

        बेजान 

        झीलों पर !


लोग कद को

ढूंढते हैं-

आज बौनों में 

और 

बहलाते हैं फिर 

झूठे खिलौनों में 


एक आदमखोर 

सी दहशत 

        घूमती 

        सारे कबीलों पर 


द्वार चौखट-

खिड़कियां 

टूटी सलाखें हैं

सुलगती 

चिनगारियों- सी 

आज आँखें हैं 


उतरती है 

रोशनी-

        छत से 

        सफीलों पर!


तीन

___

आख़री कन्दील

__________________


बुझ 

रही है

रात की

अब-

आख़री 

          कन्दील!


पर्वतों के 

हाथ पर

ठहरा हुआ आकाश

झूलता -सा 

दीखता

जिसमें नया विश्वास


धूप में

तन को

सुखाती घाटियों में

                      झील!


चार

धूप की किरचें

_________________


आँख में

चुभने

लगी हैं

धूप की किरचें


घूमता है दिन- 

किसी

हारे जुआरी -सा

धूप ने मारे

लहर को

शब्द-भेदी बाण

दूर है जल

सिसकते हैं

घाट के पत्थर

रेत में टूटे

 घरौंदे

जल रहे हैं प्राण


हवा तक की

आँख में

अब 

भर गईं मिरचें


      पाँच

सड़कों पर

____________


शहरों में

            मिला नहीं काम


अंधियारा

काटते रहे


अंधापन 

बाँटते रहे


पगडंडी 

            पूछ रही नाम


भीतर से

टूटते रहे


दोस्त मगर

लूटते रहे


कहाँ कहाँ 

              हुए इंतक़ाम


सूनापन

फैलता रहा


सड़कों पर 

खेलता रहा


बोझ सदा 

              ढोती है शाम!


छह

बजरों में फूल

________________


इस तरह से 

बाजुओं को तान     

                      जो बना दे भीड़ में पहचान


बात में

वो बात पैदाकर

पत्थरों में 

आग पैदाकर

           नीव महलों की 

                 हिला दे तू

        जोश अपना फिर

                 दिखा दे तू


                     तोड़ दे गतिरोध की चट्टान


मत उलझ

बेकार बातों में 

बिषभरी-

रंगीन रातों में

                  पोथियाँ इनकी

                        जला दे तू

                  हस्तियॉं इनकी 

                        मिटा दे तू

             

                  करवटें ले देह में दिनमान

जिन्दगी

जिसका करे विश्वास

तू बना ऐसा 

नया इतिहास

                आज फिर दुहरा 

                  न पिछली भूल

                    बजरों में फिर 

                    खिला दे फूल


                  पीढ़ियाँ जिसका करें सम्मान


सात

_____


धार के

विपरीत 

बहना है


जो खिलाफत में

खड़ा होगा

ज़ुल्म से 

वो ही

लड़ा होगा


लहर से यह 

बात कहना है


अब न 

हम पर

कहर टूटेगा

आँधियों में

तीर छूटेगा


अहम का

हर किला 

ढहना है।


आठ

लिख पसीने से

__________________

गीत अपना 

पत्थरों पर

लिख पसीने से


      तोड़ दे ऐसी व्यवस्था 

      जिसमें आदनखोर

      आदमी को आदमी

      पूरा निगलते हैं।


       तू सुखा दे खून लेकिन 

       कुछ नहीं होगा 

       रक्तरंजित हाथ जब 

       शोले उगलते हैं।


सोख सागर

मत उलझ 

ज्यादा सफीने से


          कब तलक आवाज़

          रक्खोगे तिज़ोरी में

          जहन में अंगार 

          हाथों में मशालें हैं

         

          मुल्क बातों से कभी 

          आगे नहीं बढ़ता

          वो खिलौना समझकर

          हमको उछाले हैं।


आग निकले 

पीठ, गर्दन

रीढ़ सीने से

         


जगदीश श्रीवास्तव

______________________


परिचय

जन्म- १५ नवंबर १९३७

शिक्षा- एम.ए. हिंदी एवं भूगोल, बीएड, साहित्यरत्न।

कार्यक्षेत्र- लेखन एवं अध्यापन। विदिशा के जगदीश श्रीवास्तव अपने गीतों की लय, उनके सामाजिक सरोकार तथा छंद सौंदर्य के कारण जाने जाते हैं।

प्रकाशित कृतियाँ-

गजल एवं गीत संग्रह- तारीखें 1978

मुक्तक संग्रह- बूँद 2005

नवगीत संग्रह- शहादत के हस्ताक्षर 1982, जलते हे सवाल 2005

सम्मान व पुरस्कार-

नटवर गीत सम्मान सहित अनेक सम्मानों व पुरस्कारों से सम्मानित।

संप्रति- सेवानिवृत्त व्याख्याता, शिक्षा विभाग, मध्य प्रदेश।

सम्पर्क

गुप्तेश्वर मन्दिर विदिशा मध्यप्रदेश

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

कुसुम कोठारी जी के दो गीत प्रस्तुति : वागर्थ


चर्चित कवयित्री कुसुम कोठारी जी राजस्थान से आती हैं। सोशलमीडिया पर खासी सक्रिय कुसम कोठारी जी अच्छी समीक्षक हैं। ब्लॉग जगत में आप की सक्रिय रचनात्मक उपस्थिति प्रेरक है।
प्रस्तुत हैं दो गीत

एक
____
आधुनिकता
______________

कितना पीसा कूटा लेकिन
तेल बचा है राई में
बहुओं में तो खोट भरा है
गुण दिखते बस जाई में।

हंस बने फिरते हैं कागा
जाने कितने पाप किये
सौ मुसटा गटक बिलाई
माला फेरे जाप किये
थैला जब रुपयों से भरता
खोट दिखाता पाई में।।

पछुवाँ आँधी में सब उड़ते
हवा मोल  जीवन सस्ता
बैग कांध पर अब लटकी है
गया तेल  लेने बस्ता
अचकन जामा छोड़ छाड़ कर 
दुल्हा सजता  टाई में।।

पर को धोखा देकर देखो
सीढ़ी एक बनाते हैं
बढ़ी चढ़ी बातों के लच्छे
रेशम बाँध सुनाते हैं
परिवर्तन की चकाचौंध ने
आज धकेला खाई में।।

गुण ग्राही संस्कार तालिका
आज टँगी है खूटी पर
औषध के व्यापार बढे हैं 
ताले जड़ते बूटी पर
सूरज डूबा क्षीर निधी में
साँझ घिरी कलझाई में।।

दो
___

भूख और निर्धन

काले बादल निशि दिन छाये
चाबुक बरसाता काल खड़ा।
सूखी बगिया तृण-तृण बिखरी
आशाओं का फूल झड़ा।।

चूल्हा सिसका कितनी रातें
उदर जले दावानल धूरा
राख ठँडी हो कंबल मांगे
सूखी लकड़ी तन तम्बूरा
अंबक चिर निद्रा को ढूंढ़े
धूसर वसना कंकाल जड़ा।।

पोषण पर दुर्भिक्ष घिरा है
खंखर काया खुडखुड़ ड़ोले
बंद होती एकतारा श्वांसे 
भूखी दितिजा मुंँह है खोले
निर्धन से आँसू चीत्कारे
फिर देखा हर्ष अकाल पड़ा।।

आर्द्र विहिन सूखा तन पिंजर
घोर निराशा आँखे खाली
लाचारी की बगिया लहके
भग्न भाग्य की फूटी थाली
पल क्षण लगता जाने कब को 
पके बिना फल डाली सड़ा।।

परिचय:-
नाम - कुसुम कोठारी । 
उपनाम 'प्रज्ञा'।
शिक्षा- राजस्थान विश्व विद्यालय से स्नातक।
रुचि-कविता,लेख, कहानियाँ लघुकथा लिखना, प्रकृति पर लेखन पहली पसंद।
ब्लाॅग-मन की वीणा।
फ़ेसबुक पर नियमित रचनाएँ प्रेसित।
क़रीब सात साल से लेखन कार्य में - स्वांत सुखाय लेखन और
छंदबद्ध लेखन में रुझान, दोहा, सौरठा, रोला, कुण्ड़लिया, चौपाई, घनाक्षरी, सवैया सहित विभिन्न छंद , गीतिका, मुक्तक, गीत, नवगीत आदि विधाओं में लेखन।

प्रकाशित पुस्तकें :-एकल संग्रह
१."मन की वीणा कुंडलियाँ"
२."मन की वीणा नवगीत-गीत सौरभ।
प्रकाशित साझा संग्रह: 
१.अंजुमन ।
२.मधुकर ‌।
३.झरोखा ।
४.गीत गूँजते हैं ।
५.विज्ञात नवगीत माला ।
६.नन्ही फुलवारी ।
७.ये कुण्डलियाँ बोलती है।
८ गुँजन ( हाइकु विधा ) ।
९ विज्ञात बेरी छंद सौ छंद
१० विज्ञात के साक्षात्कार में साक्षात्कार।
११ अक्षय गौरव ई-पत्रिका में कहानी" माँ का मन" ।
१२ काव्य रश्मियाँ।
email :
kusumdevikothari@gmail.com