रविवार, 30 मई 2021

कृष्ण भातरीय जी के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ समूह

~।। वागर्थ ।। ~

               प्रस्तुत करता है समर्थ नवगीतकार कृष्ण भारतीय जी के नवगीत ।
          कृष्ण भारतीय जी के नवगीत विविध कथ्य , भाषा व शिल्प के मजबूत धरातल पर आमजन की पीड़ाओं व विवशताओं को स्वर देते हैं   ।  अपने नवगीतोंं में जहाँ वह पर्यावरणीय क्षरण , नदी , जंगल आदि की दुर्दशा पर सियासत के किरदारों की संलग्नता पर आक्रोश व्यक्त करते हैं वहीं जीवन के खुरदुरे यथार्थ , लोकतंत्र में जन को ही मुँह सिल कर रहने का तंज , आपसी सौहार्द में राजनैतिक अवसरवादिता का पलीता व दुरूह समय में भी आशा की किरण जगाते कष्टप्रद सिलसिले घटने का ढाढस भी बँधाते हैं । 
    उल्लेखनीय है कि आपके नवगीत जटिल बिम्बों व प्रतीकों के असंप्रेषणीय आडम्बर से मुक्त सहज सरल बोधगम्य शैली में पाठकों से रु-ब-रू होते हैं , यही सहजता ही उन्हें पठनीय , संप्रेषणीय व प्रभावी बनाती है ।
    नवगीत पर वह अपने विचार रखते हुए कहते हैं कि 
  " नवगीत की रचनाधर्मिता महज लिखने या गुनगुनाने भर की नहीं बल्कि एक दायित्वबोध  है ।दायित्व आम आदमी के प्रति , समाज के प्रति , देश के प्रति व वैश्विक स्तर पर । हम नवगीतकर्मी हकीकत की खुरदरी जमीन पर जीने वाले साहित्यिक हैं । नवगीत कल्पनालोक में प्रेमिका के गेसुओं में नहीं आम आदमी की ज़िन्दगी की बेहतरी में अपनी ऊर्जा ख़र्च करते हैं और उसी में खुशी तलाश करता  है । याद रखिये ! शब्द बोलते भी हैं और संवाद करना भी जानते हैं । आज के नवगीत संवाद की मुद्रा में प्रखर हैं और मुखर भी हैं । गीत लिखना आसान नहीं है । एक गीत के लिए कई बार अपने अन्दर रचनाधर्मी को जीना मरना पडता है तब एक गीत का जन्म होता है । और इस वेदना का गवाह वही रचनाधर्मी है जिसने उसे भोगा है ।"
     नवगीत पर आपके योगदान से इतर बात की जाए तो बेहद स्नेही व सरल स्वभाव आपको विशिष्ट बनाता है , वागर्थ आपके स्वस्थ्य व यशस्वी जीवन की कामना सहित हार्दिक बधाई प्रेषित करता है ।

                                                     प्रस्तुति
                                               ~।। वागर्थ ।। ~
                                                सम्पादक मण्डल

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(१)

एक तार पर नट सी अपनी 
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एक तार पर नट सी अपनी 
नाच रही है ज़िन्दगी।

लचक रही है  ,  इधर उधर 
ये गजब संतुलन , है भइया 
मुए पेट की खातिर ,  कैसे 
नाच  रही , ता   ता   थैय्या 

कैसा कैसा पाठ बिचारी 
बाँच रही है ज़िन्दगी ।

कुछ ताली भी बजीं  , और 
कुछ हे हे करके , रेंक  दिए 
कुछ ने देखा और चल दिए 
कुछ ने  सिक्के , फेंक  दिए 

चूल्हे पर सिकती रोटी की 
आँच रही है ज़िन्दगी ।

देख ! आदमी को रोटी ने 
नाच  नचाए  ,  बन्दर   से 
कैसे कैसे जख़्म ,  टीसते 
होंगे  ,  इसके  अन्दर   से 

नंगे पैरों सनी खून सी 
काँच रही है ज़िन्दगी ।

(२)

मैं तुझसे भी चार गुना अभिलाषी हूँ
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मैं चौंका जब कल कल करती ,
नदिया  ने  ,  
तटबन्धों  से कहा 
बन्धु ! मैं प्यासी हूँ !

हरियाली  के  रचे  बसे , जंगल  रूठे ;
स्वच्छ  जलों के  झरते से  झरने छूटे ;
बेशक़ीमती  हीरे , परखे  कौन  यहाँ -
काँच बिके बाज़ारों में खुल कर झूठे ;

गंगा के तट पर संतों ने साफ़ कहा -
हूँ तप , पर आध्यात्मिक नहीं ,
सियासी हूँ !

वो दधीचि अब कहाँ कि जिनके वज्र बने -
अब  हरिद्वार  पटा  है , कलुषित  पंडों  से ;
लहुलुहान    ख़ुद्दारी     के  ,   टखने    टूटे-
बीच  सड़क  पिटकर ,  गुंडों  के  डंडों   से ;

और सियासत भोलेपन का ढोंग किए ,
हँसती है मैं चंट चतुर -
अय्याशी हूँ !

सब मिलते हैं गले मगर ख़ंजर लेकर -
ग़ैरों  से  ज़्यादा , अपनों से ख़तरा है ;
किसका रिश्ता सच्चा ,ग़ैरत वाला है -
लालच में डूबा , बस क़तरा क़तरा है ;

ऐसी होड़ मची है आपाधापी की ,
मैं तुझसे भी चार गुना -
अभिलाषी हूँ !

(३)

ताड़-सरीखे ऊँचे क़द का क्या करना? 
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ताड़-सरीखे, ऊँचे क़द का 
क्या करना , 
छोटे क़द के , सहज गुणी 
व्यक्तित्व बनें । 

बातों में, झीने पर्दे हैं - 
फ़र्क़ करें :
बात कसौटी पर , तौलें
फिर तर्क करें :
सहज  , सुलभ , शालीन 
रतन धन बने रहें 
तपें आग में , स्वर्ण सरीखे 
घने रहें :

बाड़ सरीखी , बेज़ा हद का - 
क्या करना
गुण मद के हम  , चकाचौंध - 
अस्तित्व बनें । 

बनें कि सौ - सौ में भी , अलग  - 
खड़े दीखें :
अपने क़द में सबको , अलग - 
बड़े दीखें :
चमके पीतल  , नक़ली हीरों - 
के घर में - 
एक नगीने से हम , अलग - 
जड़े दीखें :

जो देखा, जो समझा , जो कुछ - 
ग्रहण किया - 
अनुभव के , सात्विक  निचोड़ के - 
सत्व बनें । 

लम्बी चौड़ी हाँक , हाँक लें - 
क्या होगा :
रख लें ऊँची नाक , नाक से - 
क्या, होगा :
चोर सरीखा छत , आँगन - 
गलियारों से, 
खुली खिडकियाँ झाँक, झाँक लें - 
क्या होगा :

अर्थहीन अनुवाद , किसी का - 
क्या बनना, 
लोग पढे , उस मूलमंत्र का - 
तत्व बनें ।

 
(४)

ओंठो पर ताले लटका ले
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ओंठो   पर  ताले   लटका   ले 
गूँगे सा चुप रहना सीख ।

सत्ता की जयकार ,
 लगा बस -
 प्रश्नों खड़े तू चुप हो जा 
भूख लगी है ,
पेट दबा ले -
पानी  पीकर जा  सो जा 

तपे  तवे   पर  रोटी   जैसा 
सिकते सिकते दहना सीख ।

इतने साल दिए ,
हैं तुझको -
गुब्बारों के कितने रंग ;
भूखे संतों का ,
तप में ही -
है केवल जीने का ढंग ;

असुरों की सत्ता में गूँगे -
देवों सा अब रहना सीख ।

मेहनतकश या ,
सत्यवादियों -
के नसीब में पश्चाताप ;
भारत सी उर्वरा ,
धरा पर -
चोरों  रहेंगे सबके बाप ;

गीली लकड़ी सा सुलगा कर -
आग धुएँ को सहना सीख ।

(५)

धूप कैसे आयेगी दालान में
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पाँव के नीचे जमीं  खिसकी हुई 
अर्श  छूने का भरम पाले हुए ।
धूप  कैसे   आयेगी  दालान   में 
शामियाने  जब  टँगे  काले  हुए ।

भीड में सौहार्द के -
भाषण हुए ,
ओंठ पर हैं नफ़रतों की गालियाँ 
शहद में डूबी हुई -
शब्दावली ,
भीड  उन्मादी  बजाती  तालियाँ ;

अचकनों पर खून के छींटे छुपे -
गरमियों  में  शाल हैं डाले  हुए ।

मंदिरों का देवता -
हँसता रहे ,
पीठ से सब मस्जिदें ढकते रहे ;
सभ्यता की टोपियाँ -
पहने हुये ,
देवता  को  गालियाँ बकते  रहे ;

मकड़ियों के इन गुफ़ाओं पर सदा -
झिलमिलाते  गर्द  के   जाले   हुए ।

भीड में हर ओर -
 तलवारें खिंचीं ,
बस हवा में सिर्फ लहराती रहीं ;
इस धधकती आग में -
क्या क्या जला ,
वे कथायें शौर्य की गाती  रहीं ;

शौर्य की गाथा जिसे माना गया -
पृष्ठ  वो  इतिहास के काले  हुए ।

(६)

टूट मत
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टूट मत , ये भी  सफर -
आराम से कट जाएगा ।

राह कच्ची , ईंट  , पत्थर -
और  कुछ  काँटे  भी  हैं ;
आँधियां , तीखी हवाओं -
के   पड़े   चाँटे   भी   हैं ;

है ज़रा मुश्किल , ये आगे -
सिलसिला  घट  जाएगा ।

धूप की जलती मशालों -
की तपिश  झुलसा रही ;
है   बहुत  धीमी    मगर -
ठंडी  हवा भी  आ  रही ;

ये   तपिश  का   गेह  भी -
फिर छाँव से ढक जाएगा ।

आग का दरिया न लाँघो -
काठ   वाली    नाव   में ;
चल  भले रस्ता  बड़ा  है -
कुछ  ठहर  हर  गाँव  में ;

देखना हमको सुरक्षित -
ठाँव  तक   ले  जायेगा ।

(७)

इन हमामों में सभी नंगे खड़े हैं !
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शर्म का हर आवरण है छद्मवेशी -
इन  हमामों में सभी नंगे खड़े  हैं ।

आपदाओं  में   ठहाके  मारता  हैै
आँख का ठहरा हुआ बेशर्म पानी ;
मंच  है  आवाक  दर्शक  है ठगेे  से -
कर्म  में डूबी  छलावों  की  कहानी ;

लोग आशंकित हुए इक दूसरे से -
कुुंभ में सब मस्त हर गंगे खड़े हैं ।

राम  नामी ओढ़कर  महंगा  दुुुशाला -
सब  बगूले  आँख   मींचे  छटपटाये ;
ये नदी क्यों शान्ति बेबस सी पडी हैै -
एक  मछली तो जरा डुबकी  लगाये ;

अनमने सब एक भ्रम में काँपते हैं -
लोग   गूँगे ,  क्षुब्ध ,  बेढंगे   खड़े   हैं।

आपदा  में साँत्वना का सुर नहीं  है -
कुछ दुराग्रह ग्रस्त भी चिल्ला  रहे हैं ;
आपदा में दर्द क्या बाँटे किसी का -
किन्तु ये दहशत मुए फ़ैला रहे हैं ;

शांति मन के इन क्षणों में देखिए तो -
राह  में   अवरोध  के  पंगे  खड़े   हैं।

(८)

सप्तऋषि आकाश में बैठे हुए हैं
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जाल में अपने बुने खुद ही फँसे हम 
और  अब  संत्रास  में , बैठे  हुए  हैं !

घर जिसे कहते हैं , वो तोड़े -
हमीं ने ;
नर्म  रिश्ते ,  बर्फ़  से  जोडे़ -
हमीं ने ;
नेह भीगी सभ्यता के मोड़ ,
रस्ते -
कर  दिये  हैं , रेस के घोडे़ -
हमीं ने ;

और अब तन्हा झुलसते रेत घर में -
मृग तृषित की प्यास में बैठे हुए हैं !

अब गुलाबों सा महकना , खो -
दिए हैं ;
खूब कैक्टस क्यारियों में , बो -
दिए हैं ;
नर्म  गद्दों में , कहाँ  आती  हैं 
नींदें -
बरगदों से भी विमुख हम ,हो -
लिए हैं ;

कौन देगा ज्ञान इस रूखी धरा पर -
सप्तऋषि :आकाश में बैठे हुए हैं !

हर तरफ ही जश्न , मेले  हो -
रहे हैं ;
और हम फिर भी अकेले ,हो -
रहे हैं ;
जो मिला दिल की जमीं बंजर -
लिए है ;
दोस्ती  की  आड़  में ,  ख़ंजर -
लिए है ;

सोचिए ! लेकर समन्दर की विरासत -
हम  अबूझी  प्यास  में , बैठे  हुए  हैं !

(९)

सब गूँगी भाषा में रोए
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क्या हम जागे , क्या तुम सोए,
सब गूँगी भाषा में रोए !

किससे कहें व्यथा इस मन की ,
खुद में -
सभी कथा वाचक हैं ;
ग़ायब है , नायक नाटक से ,
सिर्फ़ कथा -
में खलनायक हैं ;

ऐसा कोई दृश्य दिखा तू जो -
राहत से नयन भिगोए !

तू मुझको , देखे कनखी से ,
मैं तुझको -
देखूँ गुपचुप सा ;
सब आँखों में ,पसर रहा है ,
गूँगा एक -
अँधेरा घुप सा ;

उग आये , जंगल काँटों के -
जबकि बीज फूल के बोए !

बच्चे से , बूढ़े हो बैठे ,
खेल रहे -
हैं ग़ुब्बारों से ;
सेंध लगा कर कौन गया है ,
पूछ रहे -
हैं दीवारों से ;

इतना तो है पता , सभी को -
दिन में चोर दरोग़ा होए।

(१०)

जंग लगे चिंतन
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जंग लगे चिन्तन  का मंथन जारी है -
बडे  बड़े विद्वान  जुगाली करते  है ।

सच  को कहना झूठ कोई मजबूरी  है -
एक  अदद  गूँगापन   आड़े  आता  है :
एक भंगिमा चिपकी है कुछ चेहरों पर -
झूठ  आइना  चेहरे  को दिखलाता  है :

महका बाग बग़ीचा ख़ुश तो हैं लेकिन -
काट -छाँट तो फिर भी माली करते  हैं ।

तर्कशील  तथ्यों पर झल्लाता  कोई -
तर्कहीन  कह कर उनको बतलाते  हैं ;
सहज गीत को जैसे  ये कविता वाले -
काव्य विधा की धारा में झुठलाते हैं ;

विश्लेषण के अर्थशास्त्र से झुँझला कर -
उस  पर भी ये दस्तखत जाली करते  हैं ।

सब  मंचों पर एक तमाशा जारी  है -
खलनायक नायक को गाली देता है ;
नायक का किरदार न हावी हो जाए -
बिना  बात  हुड़दंग  मवाली देता  है ;

संवादों के पूरक हैं सब चोर यहाँ -
और लुटेरे प्रश्न  सवाली करते हैं ।

            - कृष्ण भारतीय 
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परिचय -
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रचनाधर्मी नाम - कृष्ण भारतीय 
पूरा नाम - कृष्ण कुमार भसीन 
पिता - स्व० पी० एल० भसीन
माता - स्व० श्रीमति शीलावती 
जन्म - 15 जौलाई , 1950  , एटा ( उत्तर प्रदेश  )
वर्तमान - अवकाशप्राप्त अभियन्ता ।
वर्तमान - स्वतन्त्र लेखन ।
लेखन विधा  - गीत , नवगीत , कविता , आलेख , कहानी , उपन्यास आदि । 
प्रकाशन  -  धर्मयुग , कादिम्बनी , साप्ताहिक हिन्दुस्तान , मधुमती , अग्रिमान , दैनिक जागरण,                         पुनर्नवा , चेतना स्रोत त्रैमासिक , पराग बाल मासिक , साहित्यसुधा  , हस्ताक्षर , अनुभूति एवं साहित्य  सुधा , नव किरण  वेब पत्रिका व अन्य विभिन्न पत्र पत्रिकायों में नियमित प्रकाशन ।
समवेत संकलन - गीत प्रसंग 2, समकालीन गीतकोश ,  संवदिया ( नवगीत विषेशांक ) , नवगीत का मानवतावाद एवं अन्य ।
प्रकाशित कृतियाँ  - हैं जटायु से अपाहिज हम ( नवगीत संग्रह )
                             धूप के कुछ कथानक - नवगीत संग्रह 
सम्पादन - प्रेस में।

पता - बेस्टैक पार्क व्यू रेजीडेन्सी , 
टी - 2/ 503, पालम विहार , सेक्टर - 3,
गुरूग्राम - 122017 ( हरियाणा )
Email - kbhasin15@gmail.com
मों० 09650010441

शनिवार, 29 मई 2021

समकालीन दोहा की दसवीं कड़ी प्रस्तुति : वागर्थ

दसवीं कड़ी
दिनेश शुक्ल 
के समकालीन दोहे

समकालीन दोहा की दसवीं कड़ी में प्रस्तुत हैं 
 दिनेश शुक्ल जी के दोहे
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                     समकालीन दोहे को लेकर जहाँ तक मेरा मानना है, हममें से वह हर एक दोहाकार जो, समकालीन दोहे पढ़ने या लिखने में जरा भी रुचि रखता है; वह कम से कम दिनेश शुक्ल जी के नाम से तो अपरिचित नहीं हो सकता। दोहे जैसे विस्मृत छन्द को समकालीन कविता में पुनर्स्थापित करने में जिन दोहाकारों का नाम प्रथम पंक्ति में लिया जाता है; दिनेश शुक्ल जी का नाम उन नामों में से सबसे पहले क्रम पर रखा जाता है। 

                     जैसे आज भी सुपर स्टार शाहरुख खान या महानायक अमिताभ बच्चन के नृत्य की भंगिमाओं में  पुराने जमाने के अभिनेता भगवान दादा की छवि सुस्पष्ट दिखाई देती है, वैसे ही समकालीन दोहों में हमें जो भाषा का स्वरूप वर्तमान में दिखाई पड़ता है; वह सब शुक्ल जी के काम का ही विस्तार है। शुक्ल जी ने विलुप्तप्राय दोहे को सबसे पहले घिसी -पिटी और लिजलिजी भाषा की कैद से रिहाई दिलाने में अपना योगदान सुनिश्चित किया इसी के साथ उन्होंने एक बड़ा काम और किया, दोहा छन्द में  विषय  वैविध्य का बीजारोपण कर  समकालीन दोहा को जन सरोकारों से जोड़ दिया।
     13 ,11 मात्राओं वाले दोहे के जीर्ण -शीर्ण शरीर में नवीनता के प्राण फूँकने से; देखते ही देखते मृतप्राय दोहा  फीनिक्स पक्षी की भाँति अपने नए स्वरूप उठ खड़ा हुआ।
          वातावरण निर्मिति के बाद दिनेश शुक्ल जी के समकालीन दोहे,तत्कालीन ख्यातलब्ध पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होने लगे।
        हंस से लेकर नया ज्ञानोदय तक सभी चर्चित पत्रिकाओं ने  दोहाकारों के लिए  पत्रिकाओं में प्रकाशन के रास्ते खोल दिए । इसी के साथ अन्य समकालीन दोहाकारों ने भी अपने अपने स्तर पर समकालीन दोहों के लिए शानदार वातावरण बनाया।
        दिनेश शुक्ल जी के खाते में (१) 'पानी की बैसाखियाँ'(२) 'जागे शब्द गरीब ' कुल जमा दो कृतियाँ दर्ज हैं। शुक्ल जी का दोहा संग्रह 'पानी की बैसाखियाँ' हिन्दी  साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद उत्तर प्रदेश द्वारा  वर्ष 1995 में 'साहित्य भारती' पुरस्कार से सम्मान राशि सहित पुरस्कृत हुआ तदुपरांत हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग राज उत्तर प्रदेश द्वारा वर्ष 1998 में हिंदी साहित्य में दोहे जैसे विस्मृत छन्द को अपनी ऊर्जावान रचना धर्मिता से समकालीन कविता में पुनर्स्थापित करने के उल्लेखनीय कार्य हेतु हिन्दी की श्रेष्ठ मानद उपाधि 'साहित्य महोपाध्याय' से सम्मानित किया गया।

     आइए पढ़ते हैं दिनेश शुक्ल जी के समकालीन दोहे
प्रस्तुति
मनोज जैन
वागर्थ 
सम्पादक मण्डल
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               मजहब की ये बोलियाँ, कड़वी जैसे नीम।
               धर्म यहाँ पर हो गया,पानी घुली अफ़ीम।।

               लोग आधुनिक हो गए,कहलाये ये सभ्य।
               मन से तो बौने रहे,आदिम वही असभ्य।।

                     गलियारे जब से हुए ये सोचों के तंग।
           दीन, धरम की सड़क पर चढ़ा लहू का रंग।।

                    परम्परा की गली में,कैद खड़ा ये धर्म।
                 पीढ़ी ने समझे नहीं, ये मजहब के मर्म।।

                     उम्मीदें मुरझा गईं स्वप्न हुए सब धूल।
                 उत्तर की भाषा रही, प्रश्नों के प्रतिकूल।।

                      ये संसद के आँकड़े जारी हुए बयान।
               जनमत को बहला रहे तोते चतुर सुजान।।

              मरे नमक की खाल पर, बैठ हँसे ये तख्त।
              साँप बना फुँफकारता कसे कुन्डली वक्त।।

            जोड़ भाग बाकी गुणा हासिल दुख का तीन।
                    कंप्यूटर युग में हुए बच्चे यहाँ मशीन।।

         कठिन साधना शब्द की,कठिन शब्द का पंथ।
                या तो जोगी साधता या साधक या संत।।

       दुख की जात न थी यहाँ कल तक सुनो सुजान।
                  पंडित काजी ने रचे इनके नए विधान।।

                   केवल बदले साथियों दुर्योधन के नाम।
                 रोज महाभारत लड़ा हमने आठों याम।।

                 कभी बने सेवक यहाँ, कभी बने ये भूप।
             यहाँ बदलते भेड़िये नित नित अपना रूप।।

            बहा स्वेद की इक नदी ,कर अमृत का दान।
                 किस्तों में करते रहे लोग यहाँ विषपान।।

                 उनके दिन जैसे फिरे सब के फिरें हुजूर।
                        बंदर बैठे खा रहे सेजों पर अंगूर ।।

              समय महाजन खाँसता,लेने आया ब्याज ।
         लो गिरवी फिर रख दिया प्रजातंत्र का ताज ।।

                  दीवारों पर छिपकली दरवाजों पर कीट।
              फटे समय के चित्र को कब तक देते पीठ।।

                 द्वारे पर सूखा खड़ा सर पर खड़े चुनाव। 
                अनबोले दुख दे गए, प्रजातंत्र के घाव ।।

                 आँखों में आंसू भरे,समय करे विषपान।
                शब्दों की चादर फटी ओढ़े हैं रसखान ।।

                 रहिमन तो मारे गए फिर सरयू के तीर ।
              तुम होते इस दौर जो बचते कहाँ कबीर ।।
 
                  नहीं आरियों को पता,कैसे कटते पेड़ ।
                 या दुख जाने पेड़ ये या दुख जाने मेड़।।

               प्रजातंत्र करता रहा नित-नित नए प्रयोग।
          जिसने चाहा कर लिया,आपने हित उपयोग।।

                      नाम पढ़े खाने चढ़े निगरानी सौगात।
                     झोली में डाले गए, कटे अंगूठे हाथ।।

                    शहरों में कर्फ्यू लगा,लोग घरों में कैद।
                 बूढ़े रमजानी मरे बिन हकीम बिन वैध।।

                आम आदमी बन गया,हरी भरी इक मेड़।
              जब जी चाहा चर गई, राजनीति की भेड़।।

                   बस्ती- बस्ती हादसे हर घर तंगी क्लेश।
                   अपशकुनों के गाँव में पैदा हुए दिनेश।।

                                                      दिनेश शुक्ल
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नवगीत की समालोचना पर पंकज परिमल जी एक आलेख : प्रस्तुति समूह वागर्थ

।। नवगीत-आलोचना की  सम्यक् भाषा के जन्म से पहले।।
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अगर मुझे मेरी धृष्टताओं के लिए क्षमा किया जाय, तो मैं कहना चाहूंगा कि नवगीत की आलोचना का बहुत हल्ला होने के बावजूद सत्य यह ही है कि उसका अभी तक  जन्म भी नहीं हुआ है; विकसित होकर युवावस्था तक पहुंचना या प्रौढ़ावस्था की परिपक्वता हासिल करना तो बहुत दूर की बात है। यद्यपि परिदृश्य में ऐसे कई नवगीत समीक्षक या आलोचक मौजूद हैं जो प्रोफेसरान या सेवानिवृत्ति प्राप्त प्रोफेसर-गण हैं और बनिए के मुनीम की दृष्टि से देखने पर उनके आलोचना-कार्य का काफी वैशद्य और  विस्तार भी है; किंतु न तो आलोचना के स्पष्ट टूल्स उनके पास हैं और न नवगीत की परख करने की किसी पद्धति का उन्होंने स्पष्ट उल्लेख ही किया है। वह पद्धति निरापद है या प्रश्नों से परे और सर्वमान्य है, यह प्रश्न तो बाद में ही उठेगा, किंतु उनके वक्तव्य लगातार इस आशय के आते रहते हैं कि नवगीत की सम्यक् आलोचना के लिए हमें 'स्ट्रेट फॉरवर्ड' या यों कहें कि लट्ठमार तरीका अपनाना चाहिए, अर्थात् हमें मठाधीश, ठेकेदारों, झंडाबरदरों, रहनुमाओं प्रभृति परोक्ष उल्लेखों से बचकर नामोल्लेख सहित प्रत्यक्ष आलोचना के क्षेत्र में कदम रखना चाहिए। कहना न होगा कि उनका यह वक्तव्य वास्तव में हमें सही दिशा में बढ़ने का हौसला देगा, किंतु प्रत्यक्ष आलोचना के अनेक खतरे हैं। ऐसे में उचित यही है कि जो लोग नवगीत की समीक्षा में अपनी जोर- आजमाइश करें, वे अपनी समीक्षा को व्यक्ति के स्थान पर प्रवृत्ति की आलोचना पर केंद्रित करें। कम-से-कम तब तक, जब तक कि नवगीत-समीक्षा में  कम-से-कम आधा दर्जन नाम अन्य साहित्य समीक्षा-परिदृश्यों के आलोचकों यथा श्री रामविलास शर्मा,श्री नामवर सिंह प्रभृति बड़े कद के न हों। बड़े कद के आलोचक-नामों की छत्रछाया में छोटे और मँझोले कद के आलोचकों का भी हौसला बुलंद हो जाता है, क्योंकि उन्हें आलोचना की एक सधी-सधाई गाइड-लाइन और तौरतरीके मिलते रहते हैं और  वे भी मजबूती से अपनी बात को कहने का साहस जुटा पाते हैं। अन्यथा वे मान्य और शुद्ध, साथ ही तथाकथित नवगीतकारों के कोपभाजन ही बनते हैं और आलोचना-परिदृश्य से अदृश्य हो जाने में ही अपना भला देखते हैं। यह एक ऐसा विशिष्ट कारण है कि नवगीत-परिदृश्य आलोचकों की उपस्थिति से विरहित है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं  कि नई कविता के साथ ऐसा कोई संकट नहीं। उसके पास अपने आलोचक भी हैं, अपने आलोचना के औजार भी हैं और अपनी आलोचना की विकसित की हुई भाषा भी है; और इस भाषा में भी नवता का दरवाजा हमेशा खुला हुआ प्रतीत होता है।

मैंने जिम दिनों अनियतकालीन पत्रिका 'निहितार्थ'  के नवगीत पर दो विशिष्ट अंक निकाले थे, उनमें से दूसरे अंक में ही मैंने उत्तर प्रदेश के एक महानगर के निवासी दो नवगीतकारों की प्रत्यक्ष आलोचना की थी; लेकिन इसका नतीजा मेरे लिए पूरे नगर की ओर से वैमनस्य बढ़ाने वाला और मेरी पत्रिका का बहिष्कार करने वाला ही निकला। इसका नतीजा यह हुआ कि मैंने तीसरा अंक निकाला ही नहीं। यद्यपि अंक न निकलने के कारण और भी थे, किंतु यह भी एक प्रमुख कारण रहा। 

आलोचक के कद और संरक्षण की बात मुझ पर भी लागू होती है; और मैं भी इससे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित और आहत होता हूँ। ऐसे में यदि मेरा रवैया परोक्ष आलोचना की ओर मुड़ जाए तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है!

पुनः, यही निवेदन करना चाहता हूँ कि सुविधा के तौर पर ही नहीं, सिद्धांत के तौर पर भी मैं अब इस मान्यता का हो चला हूँ कि आलोचना तो अवश्य होनी चाहिए, किंतु व्यक्तियों की नहीं, प्रवृत्तियों की। क्या अवांछित प्रवृत्तियों की आलोचना पर्याप्त नहीं रहेगी? माना कि व्यक्तियों की भी आलोचना होनी चाहिए, पर यह वर्तमान परिदृश्य में आलोचक के लिए एक निरापद स्थिति नहीं है; खासतौर से तब, जब नवगीत सर्जकों में घनघोर आलोचना-असहिष्णुता गहराई तक जड़ जमाए हुए बैठी हुई हो। हमारा जो भला होना है या और स्पष्ट कहूं कि नवगीत का जो भला होना है, वह प्रवृत्तियों की आलोचना से ही हो जाएगा और व्यक्तियों की आलोचना करने की हमें आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। एक बात और, जिन व्यक्तियों की हम आलोचना करना चाहते हैं, वे किसी-न- किसी प्रकार से, चाहे अपने पद और प्रतिष्ठा के कारण, चाहे अपनी आयु के कारण, या चाहे अपने सर्जन-कर्म की विपुलता के कारण और न कि बाह्याभ्यंतर गुणवत्ता के कारण  एक आदरणीय स्थान प्राप्त कर चुके हैं। यह आदरणीयता कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों और राज्य के संस्थानों द्वारा प्रदत्त पुरस्कारों और सम्मानों के कारण हो या उनके व्यापक जनसंपर्क के कारण, या अन्य किसी कारण से, जिस कारण का उल्लेख यहाँ न हो पाया हो। हम जब व्यक्तियों का असम्मान करते हैं, तो उन संस्थानों का भी सम्मान इस सब में सम्मिलित हो जाता है; और एक नकारवादी परिदृश्य विकसित होने लगता है। यह भी कोई शुभ लक्षण या संकेत नहीं है। इसलिए, नवगीत की आलोचना के पथ पर बढ़ते हुए हमें एक कंटकाकीर्ण वन में से उपयुक्त मार्ग बनाते हुए व स्वयं को निरापद स्थिति में रखते हुए एक अच्छी सी वीथिका का निर्माण करना ही पड़ेगा; भले ही इस कार्य में कितना ही समय क्यों न लग जाय।

वर्तमान में जो नवगीत का आलोचना परिदृश्य-है,  अगर उसे किसी बिंब से परिभाषित करने की या व्याख्यायित करने की ज़रूरत आन पड़े, तो मैं कहना चाहूंगा कि यह किसी गँदले तालाब के किनारे पर खड़े होकर उसमें लगातार कंकर डालने जैसा है; जिस कंकर के जाते ही वर्तुलाकृत लहरें उठनी प्रारंभ हो जाती हैं। 'फेसबुक'  प्रभृति सोशल मीडिया के मंचों पर एकाध टिप्पणी या छोटा-मंझोला आलेख प्रक्षिप्त करना, एक तालाब में कंकरी फेंकने के समान है, जिसके उत्तर में आने वाली टिप्पणियाँ या तो पक्ष की वर्तुल लहरें होती हैं, या प्रतिपक्ष की। क्या ये लहरें आलोचना का कोई परिदृश्य बना पाएँगी? केवल चिंताएँ करने से कोई समाधान नहीं निकलने वाला; और इन चिंताओं का ऐसी स्थिति में कोई अर्थ भी नहीं है।  

पुनः मैं अपनी बात को व्यक्तियों के स्थान पर प्रवृत्तियों की आलोचना पर लाना चाहता हूँ। यह सोच भी समीचीन नहीं है कि जो लोग विश्वविद्यालयीन पठन-पाठन की परंपरा से और आलोचना-शास्त्र की प्राचीन या अधुनातन परंपरा से किसी-न-किसी रूप में जुड़े हुए नहीं हैं, वह न तो नवगीतकार ही हो सकते हैं,  और न ही नवगीत-समीक्षक। यद्यपि इस बात से इनकार करने का कोई ठोस कारण भी नहीं है कि नवगीत-समीक्षा या किसी भी प्रकार और साहित्य-विधा की समीक्षा एक अकादमिक स्तर का कार्य है और इसे साहित्य के पठन-पाठन की महाविद्यालयीन परंपरा या शोध-पीठों के ही अधिकार-क्षेत्र में रहना चाहिए, जो किसी-न-किसी प्रकार, चाहे अध्ययन की परंपरा से, या अध्यापन की परंपरा से  गहराई से जुड़े हुए हों और ऐसे भी आलोचना के टूल्स को अपने टूलबॉक्स में या तूणीर में रखते हों, जिनका सामान्य सर्जक या कवि को ज्ञान ही नहीं होता; या जिनका वह प्रयोग अपने कार्य में करने वाला ही नहीं है। कहते हैं कि खोटा बेटा और खोटा सिक्का भी त्याज्य नहीं होते और उनके भी किसी आपात्काल में काम में आ जाने की संभावना बनी रहती है। यहाँ मेरा आशय दंडी, भामह, लोल्लट आदि से भी है और पाश्चात्य आलोचकों और उनके आलोचना-निकषों से भी उतना ही है। फिर भी मैं कहूँगा कि आलोचक की अंतर्दृष्टि और बहिर्दृष्टि ही ज़्यादा काम के औज़ार हैं, बशर्ते कि संबंधित आलोचक को कविता किंवा नवगीत की आत्मा,पराभौतिक और भौतिक स्वरूप की भी सम्यक् जानकारी हो। केवल कुछ प्राच्य और प्रतीच्य समीक्षकों के नामोल्लेख से कुछ हासिल नहीं होने वाला। मैं ऐसी आलोचना को सतही और छद्म आलोचना कहना पसंद करूँगा।

आज की नवगीत-समीक्षा  सुविधा और संपर्कों पर आश्रित है।  हमें  जो यत्र-तत्र समारोहों में  या डाक द्वारा एकल या सामूहिक  नवगीत-संग्रह प्राप्त हो जाते हैं,  हम उन्हें ही अपनी आलोचना के केंद्र में ले लेते हैं; और उन पुस्तकों से बाहर तो हमारी दृष्टि अर्थात् हमारे आलोचकों की दृष्टि जाती ही नहीं। उस आलोचना में भी पारस्परिकता का और सौमनस्य का पलड़ा ही भारी रहता है, और कटुतम आलोचना की भाषा तो आलोचकों को आती ही नहीं। काश, वे थोड़ी-सी शिक्षा राजनीतिज्ञों से ले लेते तो उनकी जुबान पर शहद के स्थान पर थोड़ा-सा करेले वाला कसैला स्वाद भी आ जाता।  अभी तक जिन लोगों को वास्तव में नवगीत-समीक्षा का केवल अध्यापकीय दृष्टिकोण से ही ज्ञान है, उन्हें इस बात का खतरा महसूस होने लगता है  कि उनकी आलोचना को भी खारिज कर दिया जाएगा और उनके आलोचक पद को भी नकार दिया जाएगा। हो सकता है कि इस नकार की आँच उनके स्वयं के रचनाकर्म तक भी पहुंच जाए।

ऐसी दुविधा की स्थिति में, एक संतुलित और  मध्यम मार्ग अपनाने में भला क्या बुराई है। इसलिए वे नाम लेकर जब प्रत्यक्ष आलोचना किंवा समीक्षा करते हैं तो संबंधित नवगीतकार को बड़े-बड़े विशेषणों से संबोधित करना शुरू कर देते हैं।  नए रचनाकारों पर उनकी कृपादृष्टि को रहना भी चाहिए, किंतु इसके साथ यह भी चाहिए कि वे उनका उचित मार्गदर्शन भी करते चलें। लेकिन ऐसा होता हुआ कहीं, और किसी सूरत में नहीं दीखता। 

नवगीत-सर्जना का एक और संकट यह है कि न तो नवगीत-सर्जना को प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में समुचित स्थान मिल पाता है और न काव्यपाठ के  कवि-सम्मेलनी मंचों पर। यदि किन्हीं शहरों में कुछ अधिक नवगीतकार हैं, तो भी वहां संपन्न होने वाली नवगीत-गोष्ठियों में अपनी बारी आने पर नवगीत गायन या वाचन का ही माहौल होता है; और उसकी वस्तुनिष्ठ समीक्षा का माहौल और गुण-दोष-विवेचन का माहौल इन गोष्ठियों में भी नहीं होता। पत्रिकाएँ और अख़बार तो बहुत दूर की बात है।

तो, नवगीत-सर्जना से जुड़ने वाले जो हमारे नए नवगीतकार हैं, वे लगातार एक दुविधा की स्थिति में रहते हैं कि उनके नवगीत का प्रस्थान-बिंदु क्या होना चाहिए। कवि-सम्मेलन का मंच, पत्र-पत्रिकाएँ अथवा कमराबंद काव्य गोष्ठियाँ। जिन लोगों को कवि सम्मेलन का मंच मोहक लगता है, उनका नवगीत भी कविसम्मेलनी लटके-झटके सीखने की दिशा में बढ़ने लगता है; और लोकप्रियता को ही  कुछ नवगीतकार अपना साध्य मान लेते हैं। इसमें एक भली बात यह होती है कि नवगीत के मामले में जब 'क्रिएटिव आर्ट' के स्थान पर 'परफॉर्मिंग आर्ट' जुड़ने लगती है तो उसकी  गीति और लय में  निखार आने लगता है। मंच नवता का भी सम्मान करना जानता है, किंतु 'परफॉर्मिंग आर्ट' वहाँ 'क्रिएटिव आर्ट' पर भारी पड़ने लगती है। 

लय में निखार के लिए कवि का छंद-ज्ञान भी काम आता है, जो गीत के लिए या नवगीत के लिए एक त्याज्य गुण कतई नहीं है। जिन लोगों की छंदगत रचाव में निष्ठा या आस्था कमजोर है,  उनकी रचनाएँ न तो पत्रिकाओं के काम आती हैं और न मंच के।  इस बात को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, उतना ही अच्छा है। जब कुछ टिप्पणीकार इस बात की कंकर सोशल मीडिया के तालाब में फेंकते हैं कि नवगीत के लिए छंद अत्यावश्यक है, तो वे लोग बाहर से कुछ न कहकर भीतर-ही-भीतर तिलमिलाने लगते हैं, जिन्हें इस बात का पूरा अहसास भी रहता है कि उनकी नवगीत-सर्जना छन्द के मामले में दोषपूर्ण और कमज़ोर है। किसी-न-किसी प्रकार उन्हें यह भी पता लग जाता है कि उनकी रचनाओं का छंद-शिल्प कमजोर है,पर वे इस बड़ी कमजोरी को अपनी पद-प्रतिष्ठा और व्यापक मान्यता की रेशमी चादर से ढकने की उद्यमिता में लग जाते हैं। वे उसे सुधारने की अपेक्षा यह कंकर प्रक्षिप्त करने लगते हैं कि नवगीत के लिए छंद-शिल्प अनावश्यक है; और नवगीतकार शिल्प स्वयं गढ़ लेता है। यह मेरी समझ में सच से दूर  भागने वाली बहुत बड़ी बात है।

बिना किसी का नाम लिए यह भी कहना चाहूंगा कि कुछ लोग गीत किंवा नवगीत के शिल्प के नाम पर निकृष्ट प्रयोग और गर्हित प्रयोग करने में सन्नद्ध हैं और जिन्होंने समूचे नवगीत-परिदृश्य को प्रश्नों के एक बड़े-से घेरे के बीच में लाकर खड़ा कर दिया है। इन लोगों ने और लोगों की देखादेखी यह तो मान लिया है कि नवगीत को एक मुखड़ा या ध्रुवपंक्ति चाहिए, और फिर एक अंतरा या बंद। और, इस प्रकार के तीन अंतरों का नवगीत बन जाए तो वे शायद किला जीत लें। अभी एक नवगीत-संग्रह इसी धारणा के आधार पर एक आयोजन में देखने को मिला, जिसे देखना भी आत्मा के कष्ट का एक बहुत बड़ा कारण बना। अब भी यदि उस संग्रह की याद आ जाती है तो मन कड़वा हो जाता है। नाम लेने से क्या फायदा! यह एक नवोदित-से नवगीतकार का संग्रह है जो किसी आचार्य की छत्रछाया में नवगीत-लेखन की दीक्षा ले चुके हैं; किंतु उनके आचार्य छंदज्ञ होने का दावा करने के बावजूद अपने तथाकथित चेले को नवगीत में छंद की आवश्यकता का ज्ञान शायद नहीं दे पाए। इन पर टिप्पणी  करना इसलिए भी व्यर्थ है कि उनकी नवगीत-साधना संग्रह-पर-संग्रह छपवाने के बावजूद सिरे नहीं चढ़ने वाली और सिद्धि नहीं प्राप्त करने वाली। लिखने, रचने और सिरजने के मूलभूत अंतरों को जब तक नहीं समझा जाएगा, तब तक यही स्थिति रहने वाली है, और यह अंतर न केवल समझे जाने योग्य है, अपितु इसे व्यापक तौर पर समझाया जाना भी ज़रूरी है।
हो सकता है अपनी उद्यमिता व संपर्कों के बल पर तथाकथित नवगीत-लेखक कुछ उत्तरीयों, मालाओं और कुछ पुरस्कारों की व्यवस्था वे कर लें जाएँ। पर, इससे वे नवगीतकारों के बीच में यथायोग्य सम्मान प्राप्त कर पाएंगे, यह बिल्कुल नहीं कहा जा सकता। 

दूसरी बात यह, कि मेरी दृष्टि में रचना का सम्मान प्रथम है और रचनाकार का सम्मान बाद में। मैं इस धारणा का व्यक्ति हूं, जो यह मानता है कि व्यक्ति की सर्जना में उसके व्यक्तित्व की, उसकी भाषा की और उसके सोच की छाप अवश्य रहती है, और इस छाप को कोई नहीं चुरा सकता। जब सोशल मीडिया से मेरे तीन-चार नवगीत चुरा लिए गए, तो आरंभिक तौर पर मुझे पीड़ा हुई; किंतु मैंने इस पीड़ा के बोझ को अपने काँधों से झटककर फेंक दिया। कारण, कि एक धारणा ने मेरे मन में स्थायी तौर पर घर कर लिया। वह यह , कि भाषा बदलने के बावजूद, छंद बदल जाने के बावजूद, नई कविता हो जाने के बाद भी, और गद्य में भी; मेरी एक सर्वनिष्ठ व्यक्तिगत छाप मेरी रचनाओं में हमेशा बनी रहती है, और इसे कोई चोर, कोई फेसबुकिया चोर चुराकर नहीं ले जा सकता। इसलिए मैंने इस प्रकार की चोरियों की चिंता करना बंद कर दिया। जहाँ तक तथाकथित नवगीतकार की बात है,वे भी अपने सो-कॉल्ड नवगीतों पर अपनी यही छाप डालते चलते हैं और इस प्रकार, कि जिसने उन्हें उनके तीन-चार सो-कॉल्ड नवगीत पढ़ लिए हैं, वे बिना नाम के ही उनके नवगीत को पहचान सकते हैं। यद्यपि यह भी एक उनकी उपलब्धि है; पर मेरी समझ से अपने सृजन-कर्म पर नाज़ करने वाली उपलब्धि तो नहीं। बात  यह है कि नवगीत के नाम पर भी वे दो ही प्रमुख नियम जानते हैं। एक तो यह कि उसमें तीन बंद या अन्तरे होने चाहिएँ। दूसरा यह है कि उनके ये तीन बंद चार-चार पंक्तियों के भी हो सकते हैं और दो-दो पंक्तियों के भी। लेकिन, जो जरूरी बात उनके संज्ञान से बाहर है, वह यह कि उनके नवगीत में रिद्म अथवा लय का कोई स्थान नहीं है। स्पष्टत:, उनके नवगीतों में छंद का भी कोई स्थान नहीं।तीसरी चिंता की बात यह है, कि उनके नवगीत का कोई केंद्रीय भाव नहीं होता और उनके बंद 'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा' की स्थिति को प्राप्त हैं। यह स्थिति उनका इस परिदृश्य में बहुत दूर तक साथ नहीं देने वाली।

चलिए, तथाकथित वरिष्ठ नवगीतकार का भी चर्चा बिना उनका शुभ नाम लिए किए लेता हूँ। कमोबेश उनके यहाँ भी नवगीत ऐसी ही स्थिति से दो-चार हो रहा है। एक नवगीत-समीक्षक ने एक आयोजन में कहा कि ज़रूरी नहीं है कि आप किसी शास्त्रीय छंद के बारे में ही जानते हों या उसकी संरचना ही आपको ज्ञात हो; उसका मात्रा- भार आपको ज्ञात हो, किंतु जब आप किसी गीत या नवगीत की पहली ध्रुवपंक्ति और पहले बंद में उसका प्रयोग कर लेते हैं तो शेष बंदों-अंतरों में और टेकों में भी उसी पहले बंद वाला नियम अपनाना चाहिए। कदाचित् उन समीक्षक महोदय का यह आशय नहीं था कि इन ध्रुवपंक्तियों  या अंतरों में लय-विहीनता  भी स्वीकार्य है। उनका आशय यह था कि पहले बंद तक जिसका पालन किया जाए, उसे  ही नियम की तरह बाद के बंदों/अंतरों में भी अनुकरण किया जाए। यहाँ तक समीक्षक महोदय की बात बिल्कुल ठीक है। कोई इसका गलत अर्थ निकाले तो इसके लिए समीक्षक को या उसकी दी हुई व्यवस्था को दोष नहीं दिया जा सकता। 

मेरी दृष्टि में तथाकथित छद्म नवगीतकार महोदय का एक गीत अभी-अभी आया, जिसमें उन्होंने पहले पहली टेक की पंक्तियों में जो संरचना व्यक्त की, उसी का पालन उन्होंने बाद की ध्रुव-पंक्तियों में भी किया, किंतु इन पंक्तियों में न तो कोई  छन्द-विधान है, न लय, और न ही अर्थ की स्पष्टता। अर्थ की स्पष्टता का अभाव नवगीत की कमी का एक दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु है। इस स्पष्टता का अभाव कई कारणों से उत्पन्न होता है, जिसमें प्रचलित भाषा का तिरस्कार और नवीन शब्दों का निर्माता होने का मोह भी शामिल होता है। कहना न होगा कि ये स्वनामधन्य वरिष्ठ नवगीतकार नवीन शब्दों का निर्माण कर लेते हैं; ऐसे शब्दों का निर्माण कर लेते हैं जो न व्याकरण के निकष पर खरे होते हैं और न लोक द्वारा स्वीकृत पद्धति की कसौटी पर। लोक भी शब्दों को किसी- न-किसी कसौटी पर आजमाकर ही प्रयोग में लाता है और तत्पश्चात् उन्हें मान्य करता है। जो शब्द न तो लोक के निकष पर खरे हों और न भाषा-व्याकरण के, वे शब्द किसी भी रचना के निर्माता नहीं हो सकते।

नवगीत और नवता के नाम पर किसी भी प्रकार के भाषाई उपद्रव की छूट किसी को नहीं मिल जाती। यह बिजली या टेलीफोन के तार जोड़कर सर्किट पूरा कर देने की कलाबाजी किसी व्यक्ति को नवगीतकार नहीं बना देती, बल्कि  सर्जक ही नहीं बनाती, नवगीत तो बहुत बाद की बात है। पर यह बात तथाकथित लोगों के भेजे में कैसे डाली जाय? हमारे लिए  यह ज़रूर मंथन का विषय होना चाहिए। हम शायद मंथन इसलिए भी नहीं करते कि हमें पता है कि समय का सूप अपनी स्मृतियों की फटक-छान से ऐसी सर्जना और ऐसे सर्जक को फटककर अलग कर ही देगा। दूसरी बात यह कि यह नवगीतकार भी केवल छंदों का गणित करना जानते हैं और नवगीत के केंद्रीय तत्व से किसी प्रकार का लेना-देना ज़रूरी नहीं समझते। गीत का ही विस्तार नवगीत में हुआ है और  गीत की छाया नवगीत में व्याप्त है। नवगीत गीत की ही मानस- संतान है और उसके गुणधर्मों से अलग होकर अपना सम्मान नहीं प्राप्त कर सकता। उर्दू कविता में जिस प्रकार नज़्म का अपना एक केंद्रीय भाव होता है, गीत/नवगीत में भी उसी केंद्रीय भाव की आवश्यकता होती है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता
जो नवगीतकार नवगीत में 3 छंदों की आवश्यकता का निर्देशन करते हैं, उनका भी  मूल सिद्धांत यही है कि पहले छंद में गीत की प्रस्तावना आती है, दूसरे छंद में उसका अर्थ-विस्तार आता है और तीसरे छंद में उसका उपसंहार आता है। यदि इसी मान्यता को आगे बढ़ाया जाय,तो न तो एक छंद का गीत स्वीकार किया जा सकता है और न तीन से अधिक छंदों  वाले गीत को उचित मान्यता दी जा सकती है। लेकिन इस धारणा का भी मूल भाव यही है कि पूरे गीत में एक ही केंद्रीय भाव की इयत्ता रहती है, और इसे भानुमति का कुनबा नहीं समझा जा सकता।

नवगीत की आलोचना इतना सहज और सरल विषय नहीं है कि उसे एक, दो या कुछेक लेखों में समेटा जा सके। इसके लिए निरंतर और ईमानदार प्रयासों की महती आवश्यकता है। जब तक हम में यह साहस उत्पन्न नहीं हो  जाता कि हम नाम लेकर या नवगीत के टुकड़ों के उद्धरण देकर अपनी आलोचना को आगे बढ़ाएँ, तब तक हमें परोक्ष आलोचना के बिंदुओं से ही संतोष करना पड़ेगा और उसके औज़ारों को माँजना और पैना करना पड़ेगा।

पंकज परिमल
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शुक्रवार, 28 मई 2021

नवगीत विमर्श में विद्यानन्द राजीव जी के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ

~।। वागर्थ ।। ~ 
         प्रस्तुत करता है नवगीत के सशक्त हस्ताक्षर विद्यानंदन राजीव के नवगीत 
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https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=355331712532846&id=100041680609166
विद्यानंदन राजीव जी के नवगीतोंं में मानवेतर प्रकृति का समन्वय और समकालीन बोध की संलग्नता व चिंतन है । अपने संकलन ' छीजता आकाश ' , जोकि उस समय खासा चर्चित रहा , की भूमिका में वह कहते हैं कि   " आज के गीत में कथ्य के स्तर पर नयापन देखा जा सकता है ।  प्रकृति चित्रण , मानवीय प्रेम जैसे परम्परागत प्रसंगों में वायवी कल्पना के स्थान पर यथार्थ -अनुभूति देखी गई है ।  मध्यमवर्गीय संत्रास , निम्नवर्ग की रूढ़ियाँ और पीड़ा , जीवन के विभिन्न स्तरों पर बिखराव , परिवार का विघटन , समाज और मानव संबंधों जैसे अनेक विषयों को गीत ने जिस कुशलता और सहजता के साथ स्वीकार किया है वह अभूतपूर्व है , संक्षेप में कहें तो आज का गीत पूर्व की अपेक्षा , जीवन के अधिक निकट है , उसमें अनुभूति की व्यापकता और विविधता है । " 
     इस आधार पर भी यदि उनके गीतों पर दृष्टि डाली जाए तो वह आमजन की घनीभूत पीड़ाओं का तल स्पर्श करते हैं । बारिश जो कि कई लोगों के लिए अक्सर रूमानी अनुभूति का विषय हो सकता है किन्तु वह उसके स्याह पक्ष पर चिंतन करते  हैं ...

टूटा छप्पर ओसारे का 
छत में पड़ी दरार 
फेंक गई गठरी भर चिन्ता 
बारिश की बौछार 

पहले -पहले काले बादल 
लाये नहीं उमंग 
काम काज के बिना 
बहुत पहले से मुट्ठी तंग 
किस्मत का छाजन रिसता है 
क्या इसका उपचार ... ( बारिश की बौछार )

अफसोस कि विश्व की तमाम आबादी इस किस्मत की छाजन से बुरी तरह संक्रमित है ।

    समय की कमजोर नब्ज पर हाथ रखते व ऐसी स्थितियों के उत्तरदायी किरदारों की संदिग्ध भूमिका पर वह प्रश्न चिन्ह  लगाते हैं ...

उत्पीड़न 
अपराध बोध से 
कोई दिशा नहीं है खाली
रखवाले 
पथ से भटके हैं
जन की कौन करे रखवाली ....( खूँखार हवाएँ )

' पाहुन गाम की कहो ' संवाद शैली के इस नवगीत में वह सवाल करते हैं कि जिस रामराज की दुहाई सत्ताएँ देती आईं हैं वह हक़ीक़त में मूल तक पहुँचा भी है या नहीं ..

वादे के साथ वहाँ पहुँचा है 
कितना कुछ कहो राम राज .....(पाहुन गाम की कहो )

तंत्र की कुटिल , दोमुँही नीति जो लोकलुभावन वादे तो करती है किन्तु हकीकत के धरातल पर क्रियान्वयन उल्टा होता है ...ऐसी ही विद्रूप नीतियों तथा जुबान से गुलाटी मार जाने पर एक गीतांश ..

ऊँचे आसन बैठ मछेरे 
घात लगाए हैं

जाल बिछे हैं , वंशी की 
डोरी में चारा है
जालसाज हैं लहरें
जिनसे जीवन हारा है 
जिस जल ने थी 
कसम उठाई साथ निभाने की 
उसने सीखी चाल नयी
कहकर फिर जाने की 
देख हमें आवसन्न 
सभी ने जश्न मनाए हैं .. (मछेरे घात लगाए )

और लगभग सूखे जैसी स्थितियों में वह किसानों व आमजन की व्यथा से व्यथित हो इन्दर राजा से सीधा संवाद भी साधते हैं , संवाद भी ऐसा कि जिसमें देशज शब्दों की उपस्थित से लोक जीवन व उसकी व्यथा  जीवंत हो उठती है ..

जी भर कर न बरसे 
हमरे छप्पर छानी 
रेत उड़ी सूखी नदिया की 
करुण कहानी
वृक्ष हो गए खंकड़ 
उजड़ी खेती बारी 
शब्द -विहीन घरौंदे की 
अपनी लाचारी 

अचरज ! यह कैसी निठुराई ?
इंदर राजा ......             ( ये दिन भी बीते )

विषयवस्तु की विविधता व सहज कहन आपके नवगीतों का वैशिष्ट्य है जिनसे गुजरते हुए पाठक को कहीं भी एकरसता नहीं महसूस होती । आपके नवगीत न सिर्फ़ समस्या पर बात करते हैं बल्कि समाधान का अन्वेषण और अपेक्षित परिवर्तन हेतु आह्वान भी करते हैं ....

समय आ गया
लिखो नया इतिहास
पसीने का ।

जिसकी लगन ,
सदा माटी को
मुसकानें देती
जिसकी यश-गाथा
कहती है, हरी-भरी खेती
जिसका स्वर है मुखर
कुदाली की अविरल लय में
जो बूढ़ा दिखलाई देता है
चढ़ती वय में

उसे दिखाना होगा अवसर
जीवन जीने का ! 

.....(लिखो नया इतिहास )

स्त्री विमर्श पर वह खुलकर इस समाज , जोकि एक तरफ स्त्री को पूजने का ढोंग करता है वहीं अवसर पाने पर उसका दैहिक , मानसिक , आर्थिक शोषण करने से नहीं चूकता । ऐसी तल्ख हक़ीक़त को वह अपने नवगीत में बिना किसी लाग लपेट के ज्यों का त्यों रखते हैं और सोचने को विवश भी करते हैं कि समाज इतना असंवेदनशील क्यों है कि यहाँ विवशता भी बिकती है और खरीदार भी वही पुजारी हैं जो कंजक पूजन में शामिल होते हैं...

नारी के सम्मान परम-पद
का जो दम भरते
वे ही उन्मादी रातों में
चीर-हरण करते

कल्मष के हाथों
अभाव की
कालिख धो आई !..( होटल हो आई )

एक गीतकार के लिए उसके गीत से बढ़कर कुछ नहीं , गीत ही उसकी आस्था का केन्द्र व आत्मबल होता है और गीत ही विषम परिस्थितियों में वह प्रकाश स्तम्भ होता है जिससे अंधकार की सरणियों में भी उम्मीद की लौ जलती रहती है ..

जब अँधेरे का उठा सर
हो नहीं नत 
रोशनी की हो जब कि बेहद
जरूरत 
उस घड़ी ओ बंधु 
मेरे गीत से संवाद करना ...(गीत से संवाद )

  ऐसे प्रातिभ नवगीतकार की नवगीत दशक में अनुपस्थिति खलती तो है ही साथ ही यह भी सोचने पर विवश करती है कि आखिर किसी महत्वपूर्ण विधा के महत्वपूर्ण कार्य में सम्मिलित होने न होने के मापदंड क्या रहे होंगे / रहते हैं ....

     सारे किन्तु - परन्तु से परे रहकर बात की जाए तो विद्यानंदन जी का नवगीत विधा के विकास में व्यापक  योगदान रहा जिसको किसी भी सूरत में नजरअंदाज़ नहीं किया जा सकता ।
     वागर्थ अपनी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ उनको स्मरण कर नमन करता है ।

                                               प्रस्तुति 
                                         ~।। वागर्थ ।। ~
                                         सम्पादक मण्डल 

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(१)
बारिश की बौछार
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टूटा छप्पर ओसारे का
छत में पड़ी दरार ,
फैंक गई गठरी भर चिन्ता
बारिश की बौछार ।

पहले पहले काले बादल
लाये नहीं उमंग
काम काज के बिना
बहुत पहले से
मुट्ठी तंग

किस्मत का छाजन रिसता है
क्या इसका उपचार ।

कब से पड़ा कठौता खाली
दाना हुआ मुहाल
आँखों के आगे
मकड़ी का
घना घना सा जाल

नहीं मयस्सर थकी देह को
कोदों और सिवार ।

खुशियाँ लिखी गई हैं
अब तक भरे पेट के नाम
सपने देखे गए
मजूरी के
अब तक नाकाम

कैसे खो जाए ऋतु स्वर में
अंतर्मन लाचार ।

(२)

खूँख्वार हवाएँ
--------------------
बस्ती बस्ती
आ पहुँची है
जंगल की खूँख्वार हवाएँ !

उत्पीड़न
अपराध बोध से
कोई दिशा नहीं है खाली
रखवाले
पथ से भटके हैं
जन की कौन करे रखवाली

चल पड़ने की
मजबूरी में
पग पग उगती हैं शंकाएँ !

कोलाहल
गलियों -गलियारे
जगह-जगह जैसे हो मेला
संकट के क्षण
हर कोई पाता
अपने को ज्यों निपट अकेला

अपराधों के
हाथ लगी हैं
रथ के अश्वों की वल्गाएँ ।

(३)
हिरना खोजे जल
----------------------          
प्यासे होंठ नयन चिन्ताकुल
हिरना खोजे जल
आज हमारे भीतर-बाहर
मरुथल ही मरुथल !

गये सूखते
आशाओं के
जंगल हरे भरे
भाव-विहग
सूनी डालों पर
बैठे डरे-डरे

आशाओं का
आमुख है
आने वाला कल !

होते रहे अपशकुन
गगन में
उड़ती हैं चीलें
जाल दरारों के बुनती हैं
रीत गई झीलें

हिंसक मौसम है
नदिया की
निगल गया कलकल !

बादल बेईमान
वचन से
कैसा मुकर गया
हिलता नहीं घोंसला
कजरी गाती नहीं बया

कवलित हुई
काल से
असमय
पनघट की हलचल !

(४)
कई बिनोवा आए
----------------------

कई विनोबा आये 
खाली हाथों
चले गए
मेहनत के मंसूबे
पहले जैसे
छले गए ।

पीड़ा गुमसुम रही
मंच से
गाई गई ग़ज़ल !

पकडे रहे लोग आँचल
छाया दीवानी का
हुआ नहीं आरम्भ
प्रगति की
अग्नि-कहानी का

बलिपथ पर
चलने कीकोई
करता नहीं पहल

(५)
अलख 
----------
       
कलपेंगे मन-प्राण
अभी
महुआ के झरने तक !

जुगत कठिन होती है
एक समय
कुछ खाने की
कितनी मादक गंध
अन्न के 
दाने-दाने की

जंगल-जंगल फिरना पड़ता है
दिन ढरने तक !

आँखें रहीं प्रतीक्षा में
कब
चूल्हा रोज़ जले
नन्हें छौने 
अलख जगावें
मिलकर पेड़ तले

नींद न होगी अभी
क्षुधा का वेग
ठहरने तक !

व्यर्थ गए सब जतन
जागरण के
उजियारे के
फिरे नहीं दिन अब भी
बनवासी बेचारे के

शेष बचेगा क्या
आँधी का
 वेग उतरने तक ।
 
(६)
नया इतिहास लिखो
------------------------     
समय आ गया
लिखो नया इतिहास
पसीने का ।

जिसकी लगन 
सदा माटी को
मुसकानें देती
जिसकी यश-गाथा
कहती है, 
हरी-भरी खेती

जिसका स्वर है मुखर
कुदाली की अविरल लय में
जो बूढ़ा दिखलाई देता है
चढ़ती वय में

उसे दिखाना होगा अवसर
जीवन जीने का !

आज़ादी का सूरज जब 
सिर के ऊपर चढ़ आया
तब भी इसकी बस्ती में
है, अंधकार छाया

अकर्मण्य चोरी कर लेते
हैं, इसके फल को
उचित मान मिल सका नहीं
है ,इस गंगा जल को

नहीं जौहरी आँक सके जो
मोल नगीने का ।
          
(७)

जनगण मेरा वंश 
----------------------
सूर्य-पुत्र हूँ
बस औरों के लिए
जिया करता
अंधकार से डरने का
इतिहास नहीं मेरा !

पिता-सूर्य ने पहरा सौंपा
संध्या वेला में
इसीलिए तो महासमर यह
हँस-हँस खेला मैं

सारी रात उजाले की
संपदा लूटा डाली
अपनी झोली भरने का
इतिहास नहीं मेरा !

झोंके चले और लौ मेरी
सौ-सौ बार हिली
झांझा मिला, किसी के
फिर आँचल की ओट मिली

इतने बड़े विरोधों में भी
मन न कभी टूटा
संकट देख बिखरने का
इतिहास नहीं मेरा !

मेरी लौ पर राह खोजती
आँखें लगी रहीं
कितनी ही श्वासें
बस मेरी खातिर जगी रहीं
जनगण मेरा वंश
बस्तियाँ मेरा ठाँव सदा
निर्जन बीच विचरने का
इतिहास नहीं मेरा !

भोर देखकर सूर्य
लोग मन में ऐसे फूले
मेरी शौर्य-समर गाथा को
पलभर में भूले

मैं अनाम रहने में ही
सुख पाता रहा सदा
यश के साथ ठहरने का
इतिहास नहीं मेरा !

(८)
पाहुन, गाम की कहो
---------------------------

गुबरीले हाथों में
झाड़ू थामे सीता
भीगते पसीने में राम की कहो ।
पाहुन गाम की कहो ।।

वादे के साथ वहां पहुंचा है
कितना कुछ कहो राम - राज
अथवा जनसत्ता के भोले
राजा के सर
अब भी है कांटों का ताज
बहती है गर्म नदी
तेज दहकता सूरज
कहो तनिक उसी
तीरथधाम की कहो |
पाहुन गाम की कहो ||

पहुंच सकी है क्या कुछ
वहां गली-गलियारे
पारिजात की भीनी गंध
करता पीले-पपड़ाये
होठों का जुड़पाया
जीते छंदों से संबंध
काले चेहरों को
ढकती काली चादर से
उस गुमसुम
धुंधुवाती शाम की कहो |
पाहुन गाम की कहो ।

(९)
मछेरे घात लगाए 
----------------------

ऊँचे आसन बैठ मछेरे
घात लगाए हैं ।

जाल बिछे हैं,वंशी की 
डोरी में चारा है
जालसाज हैं लहरें
जिनसे जीवन हारा है
जिस जल ने थी 
कसम उठाई साथ निभाने की

उसने सीखी चाल नयी
कह कर फिर जाने की

देख हमें अवसन्न
सभी ने जश्न मनाये हैं ।

जन का तंत्र किन्तु
बदनीयत अधिकारों की है
कितनों की ही जीने की 
उम्मीद छीन ली है
अनुभव होती घुटन
टूटती-जुड़ती सांसों में
कितना बेचारा है प्राणी
इन संत्रासों में

जहां किया विश्वास
वहीं पर धोखे खाए हैं ।

(१०)

ये दिन भी बीते 
--------------------
वाट जोहते मौसम के
ये दिन भी बीते
कैसे हमरी याद न आई
इन्दर राजा!

जी भर कर न बरसे
हमरे छप्पर जानी
रेत उड़ी सूखी नदिया की
करुण कहानी
वृक्ष हो गये खंकड़
उजड़ी खेती बारी
शब्द-विहीन घरोंदे की
अपनी लाचारी

अचरज यह कैसी निठुराई
इंदर राजा!

बगुले दिखे न नभ में
नहीं पपीहा बोले
नीम-गाछ की टहनी
सूनी, बिना हिंडोले
सूखे जल के स्रोत
हाथ में रीती गागर
चिंता व्याप रही है
बस्ती में, घर-बाहर

अब तो जीने पर बन आई
इंदर राजा ।

(११)
गीत से संवाद करना
------------------------

जब अंधेरे का उठा सर
हो नहीं नत
रोशनी की हो जब कि बेहद 
जरूरत
उस घड़ी ओ बंधु
मेरे गीत से संवाद करना ।

नित्य दुमुहे आचरण को
पर लगेंगे
मधुमुखी हो संत जन
अक्सर ठगेंगे
चाटुकारों से सजे
दरबार होंगे
कलियुगी राजा
अधिक खूंखार होंगे
उस घड़ी ओ बंधु
मेरी साफगोई याद करना ।

वस्तुत: यह रास्ता
कांटों भरा है
किन्तु दृढ़ निश्चय
भला किससे डरा है
दंभियों के अहम्
तोड़े हैं इसी ने
आंधियों के पंथ 
मोड़े हैं इसी ने
सामने हो समर, मेरे
धैर्य का आस्वाद करना ।

(१२)

अंतर्ध्यान हुए
------------------
और अचानक
जन - नायक जी
अंतर्ध्यान हुए!

द्वारे जनता का हुजूम था
वाट जोहता था
सभी सोच में
महाभाग के
दर्शन होंगे क्या?
खुलते ही कपाट ,धड़कन
हो जाती वेगवती
कौन जानता
 विषम अवस्था
कितनी त्रासद थी

नायक जी
यों ओझल होकर
और महान हुए!

निकल गये जब दबे 
पांव,श्रीमन् पिछवारे से
मिला दुखद संदेश
खड़े ड्योड़ी हरकारे से
हारे- थके उदास जनों के
चेहरे उतर गये
सभी क्षोभ के सागर में 
ज्यों गहरे उतर गये

प्रजातंत्र के स्वप्न
इस तरह
लहूलुहान हुए ।

(१३)
ये फणी
----------

ये फणी अब
आदमी के वेश में
संवेदना को डस रहे हैं।

इन दिनों अक्‍सर
धवल पोशाक में हैं
कब उचित अवसर मिले,
इस ताक में हैं

द्रोहियों का ले सहारा
कोटरों में बस रहे हैं।

वे जहाँ भी, जि़न्‍दगी उस
जगह अति असहाय होती
क्रूरता ऐसी, कि जिसमें
भावना मृतप्राय होती,

लोग इन का लक्ष्‍य बन कर
त्रस्‍त और विवश रहे हैं।

बढ़ रहे इंसानियत की ओर
पग को रोकते हैं
अमन के उद्भूत होते
मधु स्‍वरों को टोकते हैं,

निगलते मासूमियत को
ये भयावह अजदहे हैं ।

(१४)

होटल हो आई
-------------------
महानगर की बेटी
कल ही/होटल हो आई !

लेकर गई वहाँ उसको
पैसे की मजबूरी
लाज-शरम से कर ली
इसने कोसों की दूरी

भूख पेट की
शील-सुधा की 
पूँजी खो आई !

नारी के सम्मान परम-पद
का जो दम भरते
वे ही उन्मादी रातों में
चीर-हरण करते

कल्मष के हाथों
आभाव की
कालिख धो आई !

इस कीचड़ में पाँव न
उसने ख़ुशी-ख़ुशी मोड़े
जीने की खातिर
मर्यादा के बंधन तोड़े

इस समाज के
अधःपतन की
खेती बो आई !

महानगर की बेटी
कल ही होटल हो आई !

                    -  विद्यानंदन राजीव 

________________________________________________

परिचय 
,----------
नाम: विद्यानन्दन राजीव 
जन्म : 04 जुलाई 1931
ग्राम कठहरा अलीगढ़ उ.प्र.
शिक्षा : एम.ए.हिन्दी स्वर्णपदक,एल.टी.विशारद सिद्धान्त रत्न 
पिता : स्व.पं.गोकुल चंद शर्मा आयुर्वेदिक होम्यो चिकित्सक।
माँ:स्व.श्रीमती वसुमती देवी।
पत्नी : श्रीमती उर्मिला शर्मा।
व्यवसाय : पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग,म.प्र.उच्च शिक्षा विभाग।

प्रकाशन :-गीत संग्रह-
(1)पंछी और पवन
(2 )पथ के गीत
(3)गीत गंध।

नवगीत संग्रह :-
(1)छीजता आकाश
(2) हिरना खोजे जल
(3) हरियल पंखी धान
(4) हमने शब्द तराशे।

समवेत गीत संग्रह में रचनाएँ :-
(1) संगम पर मिलती धाराएँ।
(2) नवगीत अर्द्धशती।
(3) नवगीत: नई सदी के 
(4)शब्दपदी।
(5) हरियर धान रुपहरे चावल।

संकलित :-
नवगीत सन्दर्भ और सार्थकता, अनेक शोध ग्रंथों में, हिन्दी के स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में।

पी-एच.डी. : सम्पन्न शोधकार्य :
(1) आगरा विश्वविद्यालय 2007 विषय "नवगीत की अवधारणा के संदर्भ में विद्यानन्दन राजीव के गीतों का अनुशीलन।"
(2) ग्वालियर विश्वविद्यालय 2011 विषय-विद्यानन्दन राजीव के नवगीतों में युग चेतना।"

सम्मान:-
मध्यप्रदेश लेखक संघ-भोपाल के प्रतिष्ठित सम्मान "आदित्य अक्षर"साहित्य तीन दर्जन सम्मान और पुरस्कार।

गद्य लेखन :-
भूमिकाओं समालोचनात्मक निबन्ध, समीक्षाएँ, वार्ता,फीचर साक्षात्कार आदि से सम्बन्धित लगभग पचास आलेख।

प्रसारण :- देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में विगत 50 वर्षों से प्रकाशन।
आकाशवाणी और दूरदर्शन की गीत गोष्ठियों, चर्चाओं में सहभागिता।
विमर्श : नई ग़ज़ल (त्रैमासिक) सं.डॉ.महेंद्र अग्रवाल का कवि के नवगीतों पर केंद्रित विमर्शपरख विशेषांक।
संपादन : "संकल्परथ" मसिकी निराला विशेषांक के अतिथि संपादक के रूप में संपादन।
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन

समकालीन दोहा की नौवीं कड़ी में दोहाकार यश मालवीय : प्रस्तुति वागर्थ समूह

समकालीन दोहा की नौवीं कड़ी 
_______________________
बजा रहे हैं डूबकर अमजद अली सरोद : यश मालवीय
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समकालीन दोहा की नौवीं कड़ी में प्रस्तुत हैं यश मालवीय जी के समकालीन दोहे 
            यश मालवीय जी अपने समय की छान्दसिक  हिन्दी कविता, खासतौर से नवगीत के चर्चित प्रमुख हस्ताक्षरों में से एक हैं, यदि इन्हें नवगीत का पर्याय कहा जाय  तो भी यह बात अतिश्योक्ति की श्रेणी में नहीं गिनी जाएगी।
       यश मालवीय जी के समकालीन दोहों पर चर्चा करते समय मुझे यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं लगता कि यहाँ उन दोहाकारों का सन्दर्भ दिया जाय जिन्होंने हजारों की संख्या में दोहे लिखे हैं। हाँ, यह बात भी बिल्कुल सही है कि यश मालवीय जी के यहाँ दोहों की संख्या हजारों में भले ही न हो, पर जितने भी दोहे उनके खाते में दर्ज हैं, वे सब के सब मारक हैं,पैने हैं, नुकीले हैं। संग्रह के लगभग सभी दोहे अपने समय के प्रतिबिंम्ब हैं। हाल ही में मुझे उनकी एक कृति 'चिनगारीके बीज' से गुजरने का सौभाग्य मिला पूरी कृति में एक भी दोहा ऐसा नहीं मिला जिसे भरती की श्रेणी में डाला जाय।
     किसी ने ठीक ही कहा है यदि आपको किसी भी देश की सच्ची तस्वीर देखना है तो वहाँ के कवियों से मित्रता करें ! कवि का चयन करते समय यह ध्यान रखें कि चयन कवि का करना है चारण का नहीं !
      यश मालवीय जी के प्रस्तुत समकालीन दोहे युगीन सच्चाइयों का यथार्थ दस्तावेज हैं जिसमें अपने समय का सम्पूर्ण लेखा-जोखा बिना किसी पक्षपात के देखा जा सकता है। निःसन्देह समकालीन दोहे के सन्दर्भ में यश मालवीय जी का योगदान अविस्मरणीय है। प्रकारान्तर से कहें तो यश मालवीय समकालीन दोहा के महत्वपूर्ण दोहाकार हैं साथ ही समकालीन दोहा के वे प्रमुख आइकॉन हैं।
   उन्हें बहुत बधाइयाँ 
_________________

प्रस्तुति 
मनोज जैन
वागर्थ सम्पादक मण्डल
__________________

ये कैसी बारीकियाँ, कैसा तंज महीन।
                   हम बोले मर जाएँगे,वो बोले आमीन ।।

                      दोहे तोड़ें रूढि की, तनी हुई सी रीढ़।
               कबिरा है तनहा बहुत, आस पास है भीड़।।

                       जैसे अपना ही लहू ,पीता है इन्सान।
     कुछ भी कर पाता नहीं, कण कण का भगवान ।।

                 बादल उड़ते राख के, फसल रही है सूख ।
                छुपा रही मुँह जिन्दगी, चिढ़ा रही है भूख।।

                  धुँआ कटेगा आँख का, धधकेंगे अंगार ।
                     धारदार होंगे यही, जंग लगे हथियार।।

                    खून सने जबड़े लिए,बैठा आदमखोर ।
                घर घर पर बारूद की, घटा घिरी घनघोर।।

            सुबह-सुबह छत पर चढ़ी, बिटिया-जैसी धूप ।
                 गीले आंगन देखती,अपना ही प्रतिरूप ।।

                       हर हत्या पर दे रहे,हत्यारों को दाद।
                     दिल्ली में बैठे हुए,सरकारी नक्काद।।

               राम काज कीन्हें बिना,उन्हें कहाँ विश्राम।
               जो तुलसी के राम थे,अब कुर्सी के राम।।

                    केला बिस्कुट संतरा, गुड्डा गुड़िया गेंद।
            सब कुछ ग़ायब हो गया,किसने मारी सेंध।।

            कबिरा ने ऊँचा किया, झुका हुआ हर माथ।
                रहा आग से खेलता, लिये लुकाठी हाथ।।

               हवन कुण्ड सा देश है मुँह  फैलाती आग।
                किसे पड़ी है जो यहाँ छेड़े बादल राग ।।

                 चिनगारी के बीज से उगा आग का पेड़।
               आँखें करती ही रहीं, सपनों से मुठभेड़ ।।

                 अवरोही बादल भरें,फिर घाटी की गोद।
               बजा रहे हैं डूबकर,अमजद अली सरोद।।

                कदम कदम पर जिंदगी,दर्द रही है झेल।
                ज्यों सुरंग के बीच से,गुजर रही है रेल।।

                  आँखों में आसावरी, सांसो में कल्यान।
               सहे किस तरह हैसियत,बूँदों वाले बान ।।

                 अँधियारे के पंख से, झरती काली रात ।
            चलो यहाँ मिलकर करें,उजियारे की बात।।

                कैलेण्डर उल्टा हुआ,पड़ी हवा की मार ।
                अर्थहीन सी हो गयी, कील ठुकी दीवार ।।

                नहीं सिपाही एक भी, बने हुए सब चोर ।
                     बच्चों के संसार में,बड़े मचाएँ  शोर ।।

                    यह कैसी बरसात है, घिरा नहीं है मेह।
                     बना रहा है घोंसला, फिर कोई संदेह।।

                  उत्सव के दिन आ गए,हँसे खेत-खपरैल।
                 एक हँसी में धुल गया,मन का सारा मैल।।

             लहर लहर में गा उठे,लय गति यति अनुभाव।
                 भरे गाल के ताल पर,चली होंठ की नाव।।

                   माँग भरी तो गिर पड़ा,दरपन पर सिंदूर।
                        सन्नाटे में बज उठा,सपनों का संतूर।।

                     धीरे धीरे खिल गई,तन पर मन की धूप।
                         याद तुम्हारी हो गई,साँची का स्तूप।।

                   जलता ख़ुद की आग में,राहत का सामान।
                  बादल भागे छोड़कर,जलता हुआ मकान।।

                   सबको आँचल में लिये,कौशल्या सी शाम।
                     हर बालक है लक्ष्मण,हर बालक है राम।।

बुधवार, 26 मई 2021

दीपक पंडित के दोहे

आज कुछ समकालीन दोहे:

नेताओं  का क्या धरम, क्या उनका ईमान।
अपने मुँह से कर रहे, अपना ही गुणगान।।

झूठा  उनका  नाम  है, झूठी  उनकी शान।
बाहर  से  सज्जन दिखें, भीतर से शैतान।।

लोकतंत्र   ज़ख़्मी   हुआ , टूटे   उसके  पैर।
हिटलरशाही  राज में, नहीं किसी की ख़ैर।।

कैसा  अद्भुत  देश  है, कैसा  अद्भुत   राज।
सच  है  पाँवों  में पड़ा, झूठ बना सरताज।।

दर्पण   से  दर्पण  कहे , बदल  गये  हालात।
असली चेहरा ढूँढना, अब है मुश्किल बात।।

जलने  को  लकड़ी  नहीं, ना गहने को हाथ।
लाशों  की  यह  दुर्दशा, सबने  छोड़ा साथ।।

दुनिया में इस देश  का , चाहे  जो  हो  हाल।
हरदम  बस चलती रहे, पैसों की टकसाल।।

समकालीन दोहे:

सारी  बातें  भूलकर ,  इतना   ले  तू  जान।
पैसा   ही   ईमान  है , पैसा   ही  भगवान।।

सच्ची  बातों  से  यहाँ, कब चलता है काम।
जितना बोले झूठ जो, उतना उसका नाम।।

कैसा    यह   संत्रास   है , कैसा   हाहाकार।
लगे  हुए  चारों  तरफ़, लाशों  के  अम्बार।।

दावों   पर   दावे   यहाँ , करते   नेता  लोग।
भूखों  नंगों  का  मगर , करते  हैं  उपयोग।।

लेकर   चाकू  हाथ  में, सब  करते  हैं  वार।
जितनी  गहरी  धार  है, उतनी  गहरी मार।।

सच का उनकी बात से, कब होता आभास।
पतझर को कहने लगे, लोग यहाँ मधुमास।।

तिनका तिनका जोड़कर, लोग बनाते नीड़।
पर  उनको  ही  तोड़ने, आप  जुटाते भीड़।।

जो   मन   को   शीतल  करें, बोलें   ऐसे  बोल।
शब्दों   में   रस   घोलिये, शब्द  बड़े  अनमोल।।

वक्त   बदलता   देखकर, सबने   बदली  चाल।
कोई    सौदागर    बना, कोई    नटवर   लाल।।

पेड़ों    को   मत   काटिये, पेड़ों   से   हैं   प्राण।
हो   जायेंगे   पेड़  बिन, सबके  सब  निष्प्राण।।

आँखों   में   सपने  लिये, चलते   अपनी   राह।
मंज़िल  पर  ही अब रुकें, बस इतनी सी चाह।।

जो करना है आज कर, कल का किसको ज्ञान।
जो  पल   तेरे   हाथ  है, उसको   अपना  मान।।

पानी पर दोहे :

पानी  पर   प्रस्तावना , लिखने  बैठे   आज ।
पानी  पानी  हो  गई  , अब  पानी की लाज ।।

पानी  पर  होने  लगे , अब  आपस में युद्ध ।
पानी  ना  दूषित  करें  , इसको  रक्खें शुद्ध ।।

पानी  ही  तो  मान  है  ,  पानी  ही  सम्मान ।
इसके कारण ही हुआ , हम सबका उत्थान ।

नदियों  में  जबसे  मिला , उद्योगों  का मैल ।
हर  सरिता  के  नीर में , ज़हर गया है फैल ।।

पानी   की   तासीर   से  ,  बचकर   रहें  जनाब ।
पानी   भी   ना  अब  कहीं , बन   जाये  तेजाब ।।

नदिया  नदिया  ना  रही  ,  है   बस  सूखी  रेत ।
पानी  ही  जब  ना  मिले  ,  कैसे   पनपें   खेत ।।

पानी   से   ही  जीत  है  ,  पानी   से   ही  हार ।
जीवन   में  सबसे  अहम , पानी  का  किरदार ।।

चुप  होकर  मैं सुन रहा , पानी की आवाज़ ।
सबने दूषित कर दिया , देखो मुझको आज ।।

पीड़ा हरती थी कभी ,  अब   देती  है   रोग ।
नदिया  दूषित  हो  गई , कैसे   बने   कुयोग ।।

कोई कुछ कहता नहीं , सब  बैठे चुपचाप ।
बेसबरी  बढ़ने लगी , कुछ तो करिये आप ।।

ऐसा ना हो एक दिन , अपना  आपा खोय ।
पानी पानी ही रहे , अब यह ज़हर  न होय ।।

ना पानी का देश है , ना पानी की जात ।
लेकिन सबसे है अहम , पानी की औक़ात ।।

पानी को मत यूँ गवाँ , बूंद - बूंद का मोल ।
पानी की कीमत समझ , पानी है अनमोल ।।

सदा रहा है आग से , पानी का अनुराग ।
पानी में जाकर बुझी , जब भी भड़की आग ।।

खूँ से क्यों लथपथ हुई , काश्मीर की झील ।
किसने आकर ठोक दी , उसके दिल में कील ।।

आँखों में पानी नहीं , ना ही कोई लाज ।
पानी को सुनती नहीं , पानी की आवाज़ ।।

पानी पर खिंचने लगी , आपस में शमशीर ।
पानी से लिक्खी हुई , पानी की तकदीर ।।

पानी से बचकर रहो , बहुत तेज है मार ।
चट्टानें भी काट दे , यह पानी की धार ।।

पानी पानी सब जगह , करता हाहाकार ।
ख़बरों में भीगा हुआ , सबका सब अख़बार ।।

पानी सबकी आस है , पानी ही विश्वास ।
पानी से ही बुझ सकी , बड़े बड़ों की प्यास ।।

हिम , पानी औ' भाप हैं , पानी के ही रूप ।
क्या नदिया पानी बिना , क्या पानी बिन कूप ।।

पानी की इज़्ज़त करो , पानी सबसे खास ।
पानी से सम्भव हुआ , सभ्यता का विकास ।।

पानी ही तो राग है , पानी ही आलाप ।
पानी बिन ऐसा लगे , जीवन है अभिशाप ।।

क्या पानी का धर्म है , क्या पानी की जात ।
पर पानी के सामने , किसकी क्या औक़ात ।।

हिन्दी-दिवस पर कुछ दोहे

हिन्दी  हिन्दी सब करें, हिन्दी पढ़े न कोय।
जो हिन्दी पढ़ने लगे , वो दुनिया का होय।।

हिन्दी के अधिकार पर, क्यों उठते हैं प्रश्न?
अंग्रेजी   के   वास्ते ,  होते   ख़ूब  प्रयत्न।।

हिन्दी   से   होने  लगा ,  स्कूलों  में  खेल।
बच्चे  अब  होने  लगे , हिन्दी  में ही फेल।।

फैला  है  चारों  तरफ़ ,  हिन्दी  का संसार।
हिन्दी  ही आचार  है, हिन्दी  ही व्यवहार।।

हिन्दी का इस देश में, मत करिये अपमान।
हिन्दी सबका मान है, हिन्दी ही अभिमान।।

दोहे

राजा  के  दरबार में , हुआ अजब सत्कार।
जिसने  जिसने  सच  कहा , पड़ी उसी को मार।।

एड़ी  चोटी  एक  कर , जोते खेत किसान।
उसकी फ़सलों को मगर, ले लेता परधान।।

सबके  मन  में  बैर  है , सबके मन में खोट।
जिसको अपना मानिये, वो ही करता चोट।।

रिश्तों  के  अब देखिये , उलझे हैं सब तार।
सींचा जिनको प्यार से , आज बने हैं ख़ार।।

सपनों के आकाश में , जब जब उड़े पतंग।
तब  तब उसको काटने , मौसम बदले रंग।।

आज के हालात पर कुछ दोहे:

भीड़-तंत्र के नाम पर, कैसा यह उत्पात।
मानवता देने लगी, दानवता को मात।।

घर में ही बनवास है, घर में ही है जेल।
लोगों का मरना हुआ, अब संख्या का खेल।।

जो रोटी के वास्ते, मरते हैं हर रोज।
उनके जीने का तनिक, रस्ता लीजे खोज।।

दुनिया के बाज़ार में, सबकी टूटी साख।
ख़ुशियाँ बिकती थीं जहाँ, अब बिकती है राख।।

विश्व-पटल पर इन दिनों, बदल गये सब ढंग।
सबका अपना रूप है, सबके अपने रंग।।

मिस्टर ड्रैगन नाम है, ख़ूब मचाये शोर।
कोरोना के रूप में, फैला चारों ओर।।

सबको अपना ही समझ, करता है उपचार।
भारत देखो बन गया, सबका तारनहार।।

कोरोना पर दोहे

कोरोना जिससे बढ़े , मत करिये वो काज।
कोरोना  के रूप में, काल खड़ा है आज।।

कोरोना  के  कोप  का, ख़ुद ही लें संज्ञान।
सबसे  अब दूरी रखें, आप सभी श्रीमान।।

बाहर  निकलें  जब  कभी , पहन लीजिये मास्क।
हाथों को धोया करें, समझ ज़रूरी टास्क।।

बढ़ते  बढ़ते  बढ़  गया , देखो  चारों ओर।
कोरोना  के  सामने , हर  कोई  कमजोर।।

घर  से  बेघर  जो  हुए , लौट  रहे  हैं  गाँव।
शहरों में तो ना मिली, उनको असली ठाँव।।

दिन  पर दिन बढ़ने लगे, इधर-उधर विद्रोह।
जिनका मकसद तोड़ना, लीजे उनकी टोह।।

उनको  यूँ  मत  छोड़िये , वो सब हैं शैतान।
आर - पार  की  जंग का, कर दीजे ऐलान।।

जो  सेवा  के  भाव  से , करते  अपने काम।
उनकी   कोशिश   को   कभी , करिये  मत नाकाम।।

आज के दोहे

सच्चाई की हर परत, खोल सके तो खोल।
जितना  रुतबा झूठ का, उतने ऊँचे बोल।।

दाना- पानी कुछ नहीं, पंछी सब बेहाल।
सूरज देखो पी गया, सब नदिया औ ताल।।

ढूँढे से मिलता नहीं, अब जीवन में चैन।
कोई भी कहता नहीं, प्यार भरे दो बैन।।

सब कुछ ही महँगा हुआ, क्या रोटी क्या नून।
आँखों से बहने लगा, देखो सारा ख़ून।।

धीरे धीरे चुक गये, जीवन के अनुराग।
उड़ते उड़ते उड़ गया, सारा छंद- पराग।।

ऐसे ही बढ़ता रहे, प्यार भरा व्यवहार।
किसी तरह ना हो खड़ी, रिश्तों में दीवार।।

पल पल ही सच की यहाँ, टूट रही है शाख।
उतना ही है वह सही, जितनी जिसकी साख।।

रामायण सीरियल के आज के एपिसोड पर  कुछ दोहे:

अति  घमंड जिसमें भरा, उसकी मति फिर जाय।
जिसके  सर  पर  काल  हो , उसको  कौन बचाय।।

रावण  लड़ने के लिये, फिर आया है आज।
उसके  सम्मुख  राम  हैं, लेने सर औ ताज।।

शिव का पक्का भक्त है, रावण को है ज्ञात।
लंका  के  इस  युद्ध में, उसकी होगी मात।।

जानबूझ कर कर रहा, बढ़-चढ़ कर संग्राम।
रावण  ख़ुद  यह  जानता, मुक्त करेंगे राम।।

कुछ दोहे

राहों   का   रोड़ा   बने , जो   बेग़ैरत  लोग।
उनको  जड़  से  काटिये , बने  हुए हैं रोग।।

घर - घर इनको ढूँढिये, फिर करिये उपचार।
इनके   हठ  के  सामने , हर  कोई  लाचार।।

उनके   दिल  में  दर्द है , ना  कोई  अनुराग।
अन्दर केवल जल रही, नफ़रत वाली आग।।

कर्क   रोग  सा  देखिये , फैले  चारों  ओर।
ऊपर   से   गाली  बकें , ये  ऐसे  मुँहजोर।।

इनका  चिट्ठा  खोलिये , ये जग में कुख्यात।
आतंकों  से   कम  नहीं , इनके  ये उत्पात।।

एक दिवस के ही लिये, चलते क्यों अभियान।
हर दिन होना चाहिये, हिंदी का सम्मान।।

हिंदी सबका मान है, हिंदी ही अभिमान।
हिंदी से मिलता हमें, सबसे ज़्यादा ज्ञान।।

हिंदी सबके सामने, करती है ऐलान।
हिंदी भाषा के लिये, सब हैं एक समान।।

हिंदी हममें यूँ बसी, ज्यों शरीर में प्राण।
हिंदी बिन जीवन लगे, जैसे हो निष्प्राण।।

हिंदी का अपना अलग, होता है संसार।
हिंदी में आचार हो, हिंदी में व्यवहार।।

शिक्षक-दिवस पर कुछ दोहे:

शिक्षक से बढ़कर नहीं, इस दुनिया में कोय।
जिसके भीतर ज्ञान हो, वो ही शिक्षक होय।।

शिक्षा को मत त्यागिये, ये ही रहती पास।
किसी वजह मत कीजिये, शिक्षक का उपहास।।

गुरु की महिमा जानिये, कीजे कुछ अनुमान।
ये सच है मिलते नहीं, गुरु के बिन भगवान।।

जहाँ जहाँ यह ज्ञान है, वहाँ वहाँ है तीर्थ।
गुरु को जो है पूजता, होता वह उत्तीर्ण।।

शिक्षा तो इक धर्म है, मत समझो व्यवसाय।
बस शिक्षा का ज्ञान ही, जीवन का अभिप्राय।।

दोहे

महँगाई की मार से, बिगड़े हैं सुरताल।
साँस-साँस गिरवी हुई, जीवन हुआ मुहाल।।

पानी जग में एक सा, करता नहीं दुराव।
शीतलता से है भरा, पानी  का बरताव।।

बदला  बदला  रूप है , बदली बदली चाल ।
फिर  चुनाव का ज़ोर है , बदले हैं सुरताल ।।

पनघट पनघट प्यास है , आँगन आँगन भूख ।
ख़ुशियों के तो पेड़ सब , आज गये हैं सूख ।।

अपने  ही  मद  में  भरे , लोग रहे हैं झूम ।
लोभ और लालच भरे , स्वान रहे हैं घूम ।।

सूखे   सूखे   ताल   हैं  ,  सूखे  सूखे  कूप ।
अबके मौसम ने लिया , कैसा भीषण रूप ।।

कहने  को  सब एक  हैं , लेकिन करते भेद ।
शासन की इस नाव में , जगह जगह हैं छेद ।।

महँगाई  की  बोलिये  , कब  तक झेलें मार ।
यहाँ   वहाँ  चारों  तरफ़  ,  फैला  भ्रष्टाचार ।।

धीरे  धीरे  आ  रहा  ,  कैसा  यह  बदलाव ।
जीवन  के  हर पृष्ठ पर , फैला है बिखराव ।।

 की  बात   पर  ,  कैसे   हो  विश्वास ।
जितना जिसका दायरा , उतनी उसकी प्यास ।।

समय-रेत पर जब लिखा , हमने अपना नाम ।
तेज  हवा  कहने  लगी , पहले ख़ुद को थाम ।।

अब  धर्मों  के  नाम  पर  ,  होता  है  व्यापार ।
सच्चाई  दिखती  नहीं  ,  झूठ  मगर  भरमार ।।

मरते  खपते  हो  गये  ,  हमको  कितने साल ।
तब भी  हम  बदहाल थे , अब भी हैं बदहाल ।।

अपने में डूबे रहे , बन सबसे अनजान ।
ख़ुद की सेवा कर रहे , नहीं किसी का ध्यान ।।

वादों से भरमा रहे , वो जनता को आज ।
पर जनता भी जानती , उनके असली काज ।।

जब कुर्सी उनको मिली , भूल गये कर्तव्य ।
सारी जनता जानती , क्या है उनका सत्य ।।

पैसों  की  पीछे  सभी , होते  हैं आकृष्ट ।
पैसा ही लेकिन बना , सबका असली कष्ट ।।

सारे सपने हैं गलत , गलत सभी अनुमान ।
जीना मुश्किल हो गया , मरना है आसान ।।

रिश्तों ने संसार में , खोये अपने अर्थ ।
जो थे बरगद की तरह , वो लगते हैं व्यर्थ ।।

आया हूँ तेरी शरण , सारी दुनिया छोड़ ।
सारे बंधन तोड़ के , मुझको ख़ुद से जोड़ ।।

इस  झूठे  संसार का , बस इतना है सार ।
लोभ-मोह को छोड़ दे , हो जायेगा पार ।।

लोभ-मोह  से क्या मिला , आया कुछ ना हाथ ।
साथ कभी कुछ आय ना , जाये कुछ ना साथ ।।

लोभी  है  दुनिया  सभी , लोभी आदम जात ।
मोह-जाल में जो फँसा , उसके दिन भी रात ।।

लोभ-मोह  का  खेल  है  , यह  सारा  संसार ।
इस चक्कर में जो फँसा , उसकी पक्की हार ।।

ईश्वर  को  भी  खो  दिया , छोड़ा सब घरबार ।
लोभ-मोह   के   फेर   में  ,  हो   बैठे  बेकार ।।

सावन  सावन  सब  करें , पर  भीगे ना कोय ।
जो  इसमें  भीगे कभी ,  ख़ुद सावन सा होय ।।

सावन  बरसे  झूम  के , सजनी  को  तरसाय ।
ऐसा  सावन आय कब , जो साजन को लाय ।।

मन  की  सारी  भावना , है  साजन  के  नाम ।
साजन ही गर ना मिले , क्या सावन का काम ।।

सावन   के   मेले   लगे , झूलें  सखियाँ  संग ।
तरह  तरह  के  खेल  हैं , तरह  तरह  के रंग ।

जा  बसे  परदेस  सजन , बदला जीवन राग ।
सावन  में  भी जल रही , है विरहा की आग ।।

यह  जग  मायाजाल है , हो जाता सब नाश ।
ना अपनी है यह ज़मीं , ना अपना आकाश ।।

कैसी  रेलम - पेल  है , कैसी  भागम - भाग ।
सबकी अपनी दौड़ है , सबकी अपनी आग ।।

सच्चाई   समझे  नहीं , कौन  इसे  समझाय ।
इस दुनिया के खेल में , सच झूठा पड़ जाय ।।

महँगाई  की  हर  घड़ी  ,  बढ़ती  जाये  मार ।
इसके  चलते  हो  गये , सबके  सब  लाचार ।।

तोड़े   से   टूटे   नहीं  ,  ऐसा   इसका  जोड़ ।
है  अटूट  यह  प्रार्थना , मत  तू इसको छोड़ ।।

नफ़रत की इस आग में , सब कुछ ही जल जाय ।
जो कोई भड़काए इसे , वो ख़ुद ही मिट जाय ।।

दुनिया की रफ़्तार से , मेल न अपना होय ।
इसकी रेलम - पेल में , सुख - चैना सब खोय ।।

जागन की बेला भई , बिस्तर रहा रिझाय ।
यह तन तो है आलसी , कौन इसे समझाय ।।

प्राणी अपनी देह पर , काहे को इतराय ।
माटी की यह देह है , माटी में मिल जाय ।।

मन में है पीड़ा घनी , अखियन बरसे नीर ।
अँसुवन की इस बेल से , झरने लगे कबीर ।।

मीरा के मन में नहीं , किसी तरह का खोट ।
चाहे विष-प्याला पिये , रहे श्याम की ओट ।।

बस इस पल की बात कर , कल की चिन्ता छोड़ ।
जाने अगले पल ले ले, जीवन कैसा मोड़ ।।

नफ़रत की इस आग में , सब कुछ ही जल जाय ।
जो कोई भड़काए इसे , वो ख़ुद ही मिट जाय ।।

दुनिया की रफ़्तार से , मेल न अपना होय ।
इसकी रेलम - पेल में , सुख - चैना सब खोय ।।

जागन की बेला भई , बिस्तर रहा रिझाय ।
यह तन तो है आलसी , कौन इसे समझाय ।।

प्राणी अपनी देह पर , काहे को इतराय ।
माटी की यह देह है , माटी में मिल जाय ।।

मन में है पीड़ा घनी , अखियन बरसे नीर ।
अँसुवन की इस बेल से , झरने लगे कबीर ।।

मीरा के मन में नहीं , किसी तरह का खोट ।
चाहे विष-प्याला पिये , रहे श्याम की ओट ।।

कुछ दोहे :-

आँखों के दर पर रुकी, सपनों की बारात ।
बहकी सी ये रात है , बहके से जज़्बात ।।

अपने दिल की बात कर , अब तो चुप्पी तोड़ ।
अन्दर का संगीत सुन , ख़ुद को मुझसे जोड़ ।।

अरमानों की आग में , सुलग रहा यह रूप।
ऐसे में तुम आ मिलो , बन जाड़े की धूप।।

बदला बदला रूप है , बदली बदली चाल ।
गोरी नैहर छोड़ के , आ पहुँची ससुराल ।।

बेटी घर की लाज है , चाहे जिस घर होय ।
प्यार और समृद्धि के , बीज वहीं पर बोय ।।

सबकी अपनी धुन अलग , सबका अपना राग ।
उतना ही बस वो जले , जितनी जिसमें आग ।।

पहले तू समझा नहीं , फिर पीछे क्यूँ रोय ।
अपने मन के मैल को , साबुन से क्यूँ धोय ।।

जगह जगह भटका किये , कुछ ना आया हाथ ।
समय बुरा जब आ गया , सबने छोड़ा साथ ।।

कैसे - कैसे कष्ट हैं , कैसे - कैसे रोग ।
जीवन के इस मोड़ पे , काम न आये योग ।।

मरना तो आसान है , जीना मुश्किल होय ।
कुछ पाने की होड़ में , अपना सब कुछ खोय ।।

बातें  उसकी  यूँ  चुभें  ,  जैसे  चुभते  तीर ।
ज्यों ज्यों वो बातें करे , त्यों त्यों बढ़ती पीर ।।

बाँहों भर आकाश है , आँखो भर संसार ।
लेकिन  दोनों से बड़ा , साजन तेरा प्यार ।।

नैनों  में  सजने  लगी , सपनों  की   बारात ।
आँखों आँखों में सजन , कर ली हमने बात ।।

बढ़ते बढ़ते बढ़ गई , साजन दिल की बात ।
पाते - पाते   पा  लिया  ,  मैंने  तेरा  साथ ।।

सूरज अब दिखला रहा , अपना असली रूप ।
सब  छाया को ढूँढते , ज्यों - ज्यों बढ़ती धूप ।।

चढ़ता सूरज देखकर , सबका मन अकुलाय ।
जो  पेड़ों  को  काटता , वह  क्यों छाया पाय ।।

बढ़ती  गर्मी  देख  कर , सबका धीरज खोय ।
पीने  को  पानी  नहीं  ,  पंछी  व्याकुल  होय ।।

धरती  का  पारा  चढ़ा , दिखे  रूप विकराल ।
गर्मी   के   चलते  हुए  ,  सबके  सब  बेहाल ।।

गर्मी   ने  हैं   कर  दिये  ,  बन्जर  सारे  खेत ।
नदियों  में  पानी  नहीं , बस  दिखती  है  रेत ।।

ज्यों-ज्यों जंगल कट रहे , त्यों-त्यों बढ़ता ताप ।
पहले  जंगल  काटते  ,  फिर   पछताते  आप ।।

खेत   सभी  बन्जर  हुए   ,  सूखे  सारे  स्त्रोत ।
जाने  वो  किस  आस  में  , खेत  रहे  हैं जोत ।।

रोटी के लाले पड़े , सबने छोड़ा साथ ।
मेहनत किस्मत में लिखी , जिनके छोटे हाथ ।।

सबसे सच्चा प्यार है , बाकी सब बेकार ।
दुनिया के बाज़ार में , किसको मिलता प्यार ।।

रिश्तों में खिंचने लगी , अनदेखी दीवार ।
अपने अब अपने नहीं , चलती है तलवार ।।

सबका अपना रूप है , अपनी ही पहचान ।
जो तुझको अच्छा लगे , उसको अपना मान ।।

ढाई आखर प्रेम का , मतलब समझ न आय ।
जितना इसको बूझिये , उतना ही उलझाय ।।

सुनो ज़रा तुम ध्यान से , जीवन का संगीत ।
अगर करोगे प्रीत तुम , भायेगा मनमीत ।।

जीवन भर चलता रहे , सपनों का संसार ।
मुझसे कभी न दूर हो , मेरा अपना प्यार ।।

सोचो तो हैं सब अलग , देखो तो सब एक ।
अन्दर मन में मैल है , बाहर दिखते नेक ।।

कैसा तिरछा खेल है , कैसी तिरछी चाल ।
वो ही मालामाल हैं , जिनकी है टकसाल ।।

हर घर में बिखराव है , हर आँगन दीवार ।
अपनों से ही जीत है , अपनों से ही हार ।।

बाहर से सब ठीक है , लेकिन भीतर द्वंद ।
ऐसे में तुम ही कहो , कैसे हो आनन्द ।।

रोटी की इस जंग में , कबिरा भूखा सोय ।
महंगाई की मार से , बचकर रहा न कोय ।।

पढ़े-लिखों ने अब किया , आपस में ही युद्ध ।
देशप्रेम के नाम पर , बटने लगे प्रबुद्ध ।।

चाहे वो कुछ भी करें , उनसे जनता क्रुद्ध ।
जो विकास की राह को , करते हैं अवरुद्ध ।।

बाहर से अच्छे बनें , मन के अन्दर खोट ।
जनसेवा के नाम पर , माँग रहे जो वोट ।।

मायानगरी है बुरी , क्यों करता है होड़ ।
अपनी चिंता छोड़के , सब कुछ उसपे छोड़ ।।

किसी तरह बुझती नहीं , यह विरहा की आग ।
नागन जब डस जाय तो , मुँह से निकले झाग ।।

ये है दरिया आग का , तैर सके तो तैर ।
प्रेमरोग लग जाय तो , दुनिया होती ग़ैर ।।

काम ऐसा न करो , वक्त बुरा जो आय ।
दिल में जितना प्यार है , सिक्कों में ढल जाय ।।

जायें तो जायें कहाँ , कैसे हो उपचार ।
इक कमरे में रह रहा , सब का सब परिवार ।।

आँगन-आँगन धूप है , आँचल-आँचल छाँव ।
कहीं और मत जाइये , सबसे अच्छा गाँव ।।

कितनी कितनी दूर से , आये हैं सब लोग ।
बरसों में है बन पड़ा , जुड़ने का संजोग ।।

इक छोटी सी बात पर , काहे को इतराय ।
किसमें कितना ज़ोर है , आज पता लग जाय ।।

अम्बर तो हँसता रहे , धरती पर है बोझ ।
कैसे इसको कम करें , तू इसका हल खोज ।।

जिधर जिधर भी देखिये , कष्टों की भरमार ।
कबिरा सच ही कह गए , दुखिया सब संसार ।।

ख़ुशबू तेरी साँस की , साँसों में घुल जाय ।
जो बस मुझको ही नहीं , सारा घर महकाय ।।

किससे रक्खें प्रीत अब , किससे रक्खें आस ।
जीवन के इस मोड़ पर , कोई न रहता पास ।।

जाने क्योंकर बन रहा, वह इतना मासूम ।
बिना पढ़े ही जानते, हम ख़त का मजमूम ।।

घर की साँकल खोल दी , साँकल मन की खोल ।
जीवन को यूँ मत गवाँ , जीवन है अनमोल ।।

रस्ता-रस्ता हम चले , सहरा-सहरा प्यास ।
उतना ही वह दूर है , लगता जितना पास ।।

जाने क्यों वो लड़ रहे , आपस में बिन बात ।
मैं उनसे कुछ भी कहूँ , क्या मेरी औक़ात ।।

दोहा बोला दर्द से , होकर बहुत अधीर ।
अब ना तो वो बात है , और ना वो कबीर ।।

मदिरालय से उठ गए , सारे इंतेज़ाम ।
सब तो पीकर चल दिये , खाली मेरा जाम ।।

रंगत भी उतरी हुई , ख़्वाइश भी नाकाम ।
अब तो मरकर ही हमें , आयेगा आराम ।।

किसी और से युद्ध का , हमें भला क्या काम ।
ख़ुद से ही चलता रहा , अपना तो संग्राम ।।

हर कोई आया यहाँ , करने को कुछ काम ।
सबका ही स्वागत यहाँ , सबका एहतराम ।।

देने वाले ने दिये , सबको दो - दो हाथ ।
ताकत बढ़ जाती अगर , सबका मिलता साथ ।।

मान न अपना खोइये , चाहे कुछ भी होय ।
जाकर वहाँ न बैठिये ,  पूछे जहाँ न कोय ।।

कैसी ओछी सोच है , कैसे कुत्सित ख़्वाब ।
हर कोई पहने हुए , झूठा एक नकाब ।।

ख़ुद्दारी कैसी यहाँ , कैसा यहाँ ज़मीर ।
सच्चाई अब बन गई , फटी हुई तस्वीर ।।

सुख ने छोड़ा साथ जब , दुख ने थामा हाथ ।
किस्मत से हम जूझते , किस्मत अपने साथ ।।

नेताओं की बात पर , कभी न देना ध्यान।
वादे उनके झूठ सब , झूठे सभी बयान ।।

गरमी , सर्दी व बारिश , करते अत्याचार ।
बदला बदला सा लगे , मौसम का व्यवहार ।।

सच्चाई से दूर तू  , चाहे जितना भाग ।
घेरेगी इक दिन तुझे ,ये है ऐसी आग ।।

सोने की चिड़िया यहाँ , बिकती है बेमोल ।
देश-देश में घूमते , लेकर हम कशकोल ।।*

हर कोई यह चाहता , सँवरें उसके काम ।
दुनिया है सबकी मगर , अपने तो बस राम ।।

सबकी बातें मान वो , हरदम धोखा खाय ।
सच्चाई तो है अलग , कौन उसे समझाय ।।

जल संरक्षण कीजिये , इसका नहीं विकल्प ।
इससे  जन  अरु  देश का , होवे कायाकल्प ।।

पानी  दूषित  हो  गया  , बिगड़े  उसके  काज ।
पानी मन में सोचता , क्या कल था क्या आज ।।

कैसे - कैसे धर्म हैं , कैसे - कैसे लोग ।
जो अपने अधिकार का , करते गलत प्रयोग ।।

युगों युगों से हो रहा , अबला संग अन्याय ।
न्याय उसे भी मिल सके , करिये तुरंत उपाय ।।

इस देश के विकास का , सब करते उल्लेख ।
सच्चाई है सामने , देख सके तो देख ।।

दिल को छलनी कर दिया , ऐसा किया प्रहार ।
दोस्त से हमको मिला , कैसा यह उपहार ।।

बादल बरसें ज़ोर से , कैसा तेज बहाव ।
तूफ़ाँ में कैसे चले , यह काग़ज़ की नाव ।।

कुर्सी भी बिकने लगी , कैसा अजब विधान ।
राजनीति के खेल में , सब जायज़ श्रीमान ।।

दया-धरम के नाम पर , सबने जोड़े हाथ ।
नाजायज़ बच्चे मगर , दर-दर फिरें अनाथ ।।

बेटा छोड़े गाँव तो , मुँह से निकले हाय ।
दिल से ये निकले दुआ , वापस जल्दी आय ।।

सीमा की दोनों तरफ़ , कैसा अजब तनाव ।
बटवारे की चोट के , अब तक रिसते घाव ।।

जीवन भी क्या चीज़ है , पल-पल बदले रूप ।
कभी घटा घनघोर है , कभी चमकती धूप ।।

बाहर-बाहर प्यार है , भीतर-भीतर द्वेष ।
लालच के संसार में , अक्सर रहता क्लेश ।।

जीवन के इस मोड़ पे , सबके टूटे साज़ ।
ख़ुद को भी अब ना सुने , ख़ुद की ही आवाज़ ।।

कैसी भागम - भाग है , कैसी रेलम - पेल ।
ख़ुद में ही उलझा हुआ , यह जीवन का खेल ।।

बातें - बातें हर तरफ़ , बातों का ही ज़ोर ।
इन सबसे ऊँचा मगर , ख़ामोशी का शोर ।।

कुछ तो तुमको पढ़ लिया , कुछ पढ़ना है शेष ।
हम कितना भी जान लें, तुम हो सदा विशेष ।।

उससे जब मिलते नहीं , इस जीवन के तार ।
सात जनम की बात फिर , करना है बेकार ।।

किससे बिनती कीजिए , किसके जोड़ें हाथ ।
दुनिया है सबकी मगर , अपने दीनानाथ ।।

सबके दिल में पीर है , सबके भीतर आग ।
जितना गहरा दर्द है , उतना गहरा राग ।।

आनी - जानी देह पर , काहे को इतराय ।
जीवन की जो जोत है , जाने कब बुझ जाय ।।

तेरा - मेरा क्या करे , सब कुछ उसका होय ।
जिस पर तेरा हक़ नहीं , उसके लिए क्यों रोय ।।

जीवन-यापन के लिए , मानव करता श्रम ।
खाना-पीना-ओढ़ना , जीवन का उपक्रम ।।

आँखों में तो लाज है , लेकिन दिल में प्यार ।
जाने कितने रूप में , लेता यह विस्तार ।।

कहने को है बूंद पर , सागर इसमें समाय ।
पलकों पर ठहरे अगर , ये मोती बन जाय ।।

कबिरा-कबिरा सब करें , मगर न समझे कोय ।
ढाई आखर जो गुने , वो ही कबिरा होय ।।

बाहर से तो मेल है , भीतर से अलगाव ।
ऊपर-ऊपर प्रेम है , अन्दर है टकराव ।।

रोजी- रोटी के लिए , बाहर निकले पाँव ।
याद बहुत आए मगर , हमको अपने गाँव ।।

कैसी भागम-भाग है , कैसी छाँटम-छाँट ।
राजनीति की हाट में , मचती बन्दर-बाँट ।।

हमने जब जब राह में , सच का थामा हाथ ।
सबके सब बैरी हुए , सबने छोड़ा साथ ।।

नदिया तट जाकर सुनो , पानी के उद्गार ।
करते हैं क्यों लोग अब , मेरा ही व्यापार ।।

जल को दूषित कर रहे  , आ आकर सब लोग ।
बस इसलिए सब शहर को , घेर रहे हैं रोग ।।

थोड़ी सी तो शर्म हो , थोड़ी सी हो लाज ।
कच्चे चिट्ठे खोल दें , नेताओं के आज ।।

बातों बातों में यहाँ , खिंचने लगी लकीर ।
सच्ची बातें यूँ लगें , जैसे कोई तीर ।।

धीरे धीरे खुल रही , सबकी असली पोल ।
सच्चाई के नाम पर , बोले झूठे बोल ।।

समझाये कोई भले , चाहे जितनी बार ।
हर कोई होता यहाँ , आदत से लाचार ।।

देखे हमने सब नगर , देखे हैं सब घाट ।
जितने मीठे बोल हैं , उतनी गहरी काट ।।

लोगों की क्या बात है , लोगों का क्या खेद ।
दिल ने ही समझे नहीं , दिल के सारे भेद ।।

हर हालत हर काल में , कर्मों के सन्देश ।
इस जीवन का सार हैं , गीता के उपदेश ।।
08)
उसकी ही बस साध है , और न दूजा काम ।
आती-जाती साँस में , बसे हुए घनश्याम ।।

विश्व गौरैया - दिवस पर कुछ दोहे :

अब   कोई  करता  नहीं  ,  गौरैया  का  मान ।
उसके बिगड़े हाल पर , नहीं किसी का ध्यान ।।

तिनका - तिनका वो चुने , और बनाये नीड़ ।
लेकिन  उसके पास में , रहती हरदम भीड़ ।।

बचपन  के दिन याद हैं , वह आती थी रोज़ ।
दाने - तिनके की सदा , करती थी वो खोज ।।

घर - आँगन छूटे सभी ,  छूटा अब वो गाँव ।
गौरैया  दिखती  नहीं  ,  रूठे  उसके  पाँव ।।

गौरैया  का  साथ  था , जीवन का अनुराग ।
जब   से   गौरैया  गई  ,  बिगड़े  सारे  राग ।।

अब भी थोड़ा वक्त है , ख़ुद को ले तू साध ।
दाना - पानी डाल के  , उससे  कर  संवाद ।।

हिन्दी राजभाषा दिवस पर कुछ दोहे : -

हिन्दी  भाषा  है बनी , हम  सबका सम्मान ।
हिन्दी सर का ताज है , हिन्दी ही अभिमान ।।

हरदम  ही  ज़िन्दा रहे , हिन्दी  का अनुराग ।
उसके भी क्या भाग हैं , दे जो हिन्दी त्याग ।।

हिन्दी ही  चिन्हित हुई , सबके  मन में आज ।
हिन्दी  भाषा  बन  गई , हर जीवन का राज ।।

हिन्दी पर तकरार क्यों , क्यों इस पर मतभेद ।
हिन्दी तो  है एक कवच , मत  तू  इसको भेद ।।

विश्व महिला दिवस पर कुछ दोहे :

नारी   के   उत्थान   के  ,  जुमले   हैं   बेकार ।
अब तक मिल पाया नहीं , नारी को अधिकार ।।

जब  तक  समझेगा  जहाँ  , नारी को बस देह ।
तब  तक  के  होगा  नहीं , आपस का यह नेह ।।

घर  के  भीतर  ही नहीं , जब नारी का सम्मान ।
अधिकारों  की  बात  पर , मत करिये अपमान ।।

महिला  दिवस  मनाइये  , पर  यह लीजे जान ।
हर   कीमत  ऊँचा   रहे  ,  नारी  का  सम्मान ।।

नारी   से   ही   मान   है  ,  नारी   से  सम्मान ।
नारी  से  मिलता  हमें  ,  सारे  जग  का  ज्ञान ।।

अपनी छाया देखकर , मानव  डरता आज ।
अनजानी सी लग रही , अपनी ही आवाज़ ।।

अपने मन को साफ़ कर , बाहर की तू छोड़ ।
उससे  बन्धन  जोड़  के , सारे  बन्धन तोड़ ।।

जीवन की इस राह में , तू  ही  नहीं जब संग ।
कैसे  फिर उड़ पायगी , सपनों  की  ये पतंग ।।

मन  में  तेरे  है  कसक , होठों पर सत्कार ।
बदला बदला सा लगे , अपना ही व्यवहार ।।

एक ज़रा सी बात को , दिल पर मत ले यार ।
जाने  कब  चलना पड़े , हो  जा  तू  तैय्यार ।।

इस  दुनिया का आदमी , ख़ुद  से भी नाराज़ ।
ख़ुद को ही चुभने लगे , ख़ुद अपने अल्फा़ज़ ।।

जिसके काँधे तू चढ़ा , उसका छोड़ा हाथ ।
कैसी   तेरी   सोच   है , कैसी   तेरी  बात ।

ऐसी  वाणी  बोलिये , जो   ठंडक  पहुँचाय ।
बातें  ऐसी  सोचिये , जो  मन  को   हर्षाय ।।

ख़ुद को पाना है अगर , अपने भीतर झाँक ।
मन  के भीतर ही छुपी , तेरी असली आँख ।।

काश कभी तुम जानते , जीवन का यह राज़ ।
रोके  से  रुकती  नहीं , भीतर  की  आवाज़ ।।

अनजाने   में   हो  गई  ,  हमसे  कैसी  भूल ।
जब  फूलों  की  चाह  में , काँटे किये कबूल ।।

‎रिश्तों  में  आने  लगा , कैसा यह अलगाव ।
‎सेना  पर  होने लगा , अक्सर अब पथराव ।।

मन  में  टेसू  खिल  उठे , ऐसी  चली  बयार ।
कानों  में  घुलने  लगी  , बातों   की  रसधार ।।

तन  पर  मेरे राज कर , मन बस में कर लेय ।
मौसम की क्या बात है , मौसम हुआ अजेय ।।

गोरी   की  चूनर  उड़े  ,  दहके  उसके  गाल ।
बासन्ती   उन्माद  में , बहकी  उसकी  चाल ।।

तुझको  पूरी  छूट  है , चाहे  जिसको लूट ।
इस दुनिया में न्याय की , कमर गई है टूट ।।

मार-काट जिसने करी , उसके सँवरे काज ।
उसके ही सर पर सजा , सम्मानों का ताज ।।

रहते  भारत  देश  में , पर  करते   बदनाम ।
जैसी  जिनकी  सोच  है , वैसे  उनके काम ।।

जात-धरम के नाम पर , करते  हैं  जो भेद ।
जिस  थाली  में  जीमते , उसमें  करते छेद ।।

यह  इक सच्ची बात है , कर लीजे स्वीकार ।
जो जितना सच्चा बने  , वो  उतना  लाचार ।।

दोहा छंद : साल

सभी  तरह ख़ुशहाल हो , आने वाला साल ।
कुछ  दे तो कुछ ले गया , जाने वाला साल ।।

खट्टे  मीठे  स्वाद  से  ,  भरा   रहा  यह वर्ष ।
कभी  हुए  अपकर्ष  तो , कभी  हुए उत्कर्ष ।।

अबके  हमसे  हो  गई  ,  जाने  कैसी  भूल ।
शूलों  से  चुभने  लगे  ,  श्रद्धा के सब फूल ।।

जुड़ी  हुई  नववर्ष  से  ,  उम्मीदों  की  डोर ।
अँधियारे  के  बाद  हो , उजियाले  की भोर ।।

जाने  वाले  साल  को  , दीजे  कुछ उपहार ।
बोरी - बिस्तर  बाँध  के , चलने  को  तैयार ।।

अब  तो  भ्रष्टाचार  के  ,  मिलते  नहीं  सबूत ।
पर्दे   में   छिपने  लगी  ,  लोगों  की  करतूत ।।

वो   ही  नेता  श्रेष्ठ  है  ,  जो  भी  बोले  नीच ।
जो  सबका  आदर करे , उसकी कॉलर खींच।

सर्दी पर दोहे :

सर्दी  की  इस  धूप   में , मौसम  लगता  खास ।
शाल  व  स्वेटर ओढ़कर , मन उड़ता आकाश ।।

पारा   लुढ़का   रात भर  ,  सबके   सब  हैरान ।
ठिठुर  रहा  फुटपाथ  पर , सोया   हिन्दोस्तान ।।

दिन  भी  कुछ  छोटे  लगें ,  लम्बी   लागे  रात ।
अब  मुश्किल  से  जेब से , बाहर  निकलें हाथ ।।

सर्दी   आई    देखकर   ,  कपड़े   बदलें   रूप।
लोग  सभी  रहने  लगे  ,  मौसम  के  अनुरूप ।।

रातों   में   जलते   दिखें  , चाहे   जहाँ  अलाव ।
कुछ  ऐसे  भी  लोग  अब , करने  लगे  बचाव ।।

हर कोई छलता हमें , क्या अपना क्या ग़ैर ।
इसी लिए हमको नहीं , आज किसी से बैर ।।

मन   में   है   मूरत  बसी , सूरत   चाहे दूर ।
मीरा को घनश्याम का , हरदम  रहे  सुरूर।।

अपनापन दिल में नहीं , बस लफ़्ज़ों का खेल ।
दिल  ही जब मिलते नहीं , कैसे हो फिर मेल।।

पानी  पर  लिक्खे हुए , पानी के अनुबंध ।
पानी सबको मिल सके , ऐसा करो प्रबंध ।।

पानी  के  कारण रहे , जीवन  में अनुराग ।
पानी  से  फसलें  उगें , पानी   छेड़े   राग ।।

पानी  पानी  सब करें , पर ना जानें मोल ।
पानी  पर  भारी पड़े , राजनीति के बोल ।।

मत कर तू अब ऐ मना , पानी से खिलवाड़ ।
इस  धरती का संतुलन , पानी दे न  बिगाड़ ।।

काग़ज़ पर पानी गिरे , काग़ज़ ही गल जाय ।
आँसू  मिट्टी  पर  गिरे , मिट्टी   में  ढल जाय ।।

पानी  का  क्या रूप है , क्या इसका आकार ।
पानी   ही   आधार   है , पानी   ही   विस्तार।।

बादल   में   पानी  बसा , आँखों   में  विश्वास ।
बुधिया  की उम्मीद पर , टंगा  है  आकाश ।।

दीपक पंडित
9179413444
26/05/2021