रविवार, 30 मई 2021

कृष्ण भातरीय जी के नवगीत : प्रस्तुति वागर्थ समूह

~।। वागर्थ ।। ~

               प्रस्तुत करता है समर्थ नवगीतकार कृष्ण भारतीय जी के नवगीत ।
          कृष्ण भारतीय जी के नवगीत विविध कथ्य , भाषा व शिल्प के मजबूत धरातल पर आमजन की पीड़ाओं व विवशताओं को स्वर देते हैं   ।  अपने नवगीतोंं में जहाँ वह पर्यावरणीय क्षरण , नदी , जंगल आदि की दुर्दशा पर सियासत के किरदारों की संलग्नता पर आक्रोश व्यक्त करते हैं वहीं जीवन के खुरदुरे यथार्थ , लोकतंत्र में जन को ही मुँह सिल कर रहने का तंज , आपसी सौहार्द में राजनैतिक अवसरवादिता का पलीता व दुरूह समय में भी आशा की किरण जगाते कष्टप्रद सिलसिले घटने का ढाढस भी बँधाते हैं । 
    उल्लेखनीय है कि आपके नवगीत जटिल बिम्बों व प्रतीकों के असंप्रेषणीय आडम्बर से मुक्त सहज सरल बोधगम्य शैली में पाठकों से रु-ब-रू होते हैं , यही सहजता ही उन्हें पठनीय , संप्रेषणीय व प्रभावी बनाती है ।
    नवगीत पर वह अपने विचार रखते हुए कहते हैं कि 
  " नवगीत की रचनाधर्मिता महज लिखने या गुनगुनाने भर की नहीं बल्कि एक दायित्वबोध  है ।दायित्व आम आदमी के प्रति , समाज के प्रति , देश के प्रति व वैश्विक स्तर पर । हम नवगीतकर्मी हकीकत की खुरदरी जमीन पर जीने वाले साहित्यिक हैं । नवगीत कल्पनालोक में प्रेमिका के गेसुओं में नहीं आम आदमी की ज़िन्दगी की बेहतरी में अपनी ऊर्जा ख़र्च करते हैं और उसी में खुशी तलाश करता  है । याद रखिये ! शब्द बोलते भी हैं और संवाद करना भी जानते हैं । आज के नवगीत संवाद की मुद्रा में प्रखर हैं और मुखर भी हैं । गीत लिखना आसान नहीं है । एक गीत के लिए कई बार अपने अन्दर रचनाधर्मी को जीना मरना पडता है तब एक गीत का जन्म होता है । और इस वेदना का गवाह वही रचनाधर्मी है जिसने उसे भोगा है ।"
     नवगीत पर आपके योगदान से इतर बात की जाए तो बेहद स्नेही व सरल स्वभाव आपको विशिष्ट बनाता है , वागर्थ आपके स्वस्थ्य व यशस्वी जीवन की कामना सहित हार्दिक बधाई प्रेषित करता है ।

                                                     प्रस्तुति
                                               ~।। वागर्थ ।। ~
                                                सम्पादक मण्डल

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(१)

एक तार पर नट सी अपनी 
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एक तार पर नट सी अपनी 
नाच रही है ज़िन्दगी।

लचक रही है  ,  इधर उधर 
ये गजब संतुलन , है भइया 
मुए पेट की खातिर ,  कैसे 
नाच  रही , ता   ता   थैय्या 

कैसा कैसा पाठ बिचारी 
बाँच रही है ज़िन्दगी ।

कुछ ताली भी बजीं  , और 
कुछ हे हे करके , रेंक  दिए 
कुछ ने देखा और चल दिए 
कुछ ने  सिक्के , फेंक  दिए 

चूल्हे पर सिकती रोटी की 
आँच रही है ज़िन्दगी ।

देख ! आदमी को रोटी ने 
नाच  नचाए  ,  बन्दर   से 
कैसे कैसे जख़्म ,  टीसते 
होंगे  ,  इसके  अन्दर   से 

नंगे पैरों सनी खून सी 
काँच रही है ज़िन्दगी ।

(२)

मैं तुझसे भी चार गुना अभिलाषी हूँ
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मैं चौंका जब कल कल करती ,
नदिया  ने  ,  
तटबन्धों  से कहा 
बन्धु ! मैं प्यासी हूँ !

हरियाली  के  रचे  बसे , जंगल  रूठे ;
स्वच्छ  जलों के  झरते से  झरने छूटे ;
बेशक़ीमती  हीरे , परखे  कौन  यहाँ -
काँच बिके बाज़ारों में खुल कर झूठे ;

गंगा के तट पर संतों ने साफ़ कहा -
हूँ तप , पर आध्यात्मिक नहीं ,
सियासी हूँ !

वो दधीचि अब कहाँ कि जिनके वज्र बने -
अब  हरिद्वार  पटा  है , कलुषित  पंडों  से ;
लहुलुहान    ख़ुद्दारी     के  ,   टखने    टूटे-
बीच  सड़क  पिटकर ,  गुंडों  के  डंडों   से ;

और सियासत भोलेपन का ढोंग किए ,
हँसती है मैं चंट चतुर -
अय्याशी हूँ !

सब मिलते हैं गले मगर ख़ंजर लेकर -
ग़ैरों  से  ज़्यादा , अपनों से ख़तरा है ;
किसका रिश्ता सच्चा ,ग़ैरत वाला है -
लालच में डूबा , बस क़तरा क़तरा है ;

ऐसी होड़ मची है आपाधापी की ,
मैं तुझसे भी चार गुना -
अभिलाषी हूँ !

(३)

ताड़-सरीखे ऊँचे क़द का क्या करना? 
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ताड़-सरीखे, ऊँचे क़द का 
क्या करना , 
छोटे क़द के , सहज गुणी 
व्यक्तित्व बनें । 

बातों में, झीने पर्दे हैं - 
फ़र्क़ करें :
बात कसौटी पर , तौलें
फिर तर्क करें :
सहज  , सुलभ , शालीन 
रतन धन बने रहें 
तपें आग में , स्वर्ण सरीखे 
घने रहें :

बाड़ सरीखी , बेज़ा हद का - 
क्या करना
गुण मद के हम  , चकाचौंध - 
अस्तित्व बनें । 

बनें कि सौ - सौ में भी , अलग  - 
खड़े दीखें :
अपने क़द में सबको , अलग - 
बड़े दीखें :
चमके पीतल  , नक़ली हीरों - 
के घर में - 
एक नगीने से हम , अलग - 
जड़े दीखें :

जो देखा, जो समझा , जो कुछ - 
ग्रहण किया - 
अनुभव के , सात्विक  निचोड़ के - 
सत्व बनें । 

लम्बी चौड़ी हाँक , हाँक लें - 
क्या होगा :
रख लें ऊँची नाक , नाक से - 
क्या, होगा :
चोर सरीखा छत , आँगन - 
गलियारों से, 
खुली खिडकियाँ झाँक, झाँक लें - 
क्या होगा :

अर्थहीन अनुवाद , किसी का - 
क्या बनना, 
लोग पढे , उस मूलमंत्र का - 
तत्व बनें ।

 
(४)

ओंठो पर ताले लटका ले
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ओंठो   पर  ताले   लटका   ले 
गूँगे सा चुप रहना सीख ।

सत्ता की जयकार ,
 लगा बस -
 प्रश्नों खड़े तू चुप हो जा 
भूख लगी है ,
पेट दबा ले -
पानी  पीकर जा  सो जा 

तपे  तवे   पर  रोटी   जैसा 
सिकते सिकते दहना सीख ।

इतने साल दिए ,
हैं तुझको -
गुब्बारों के कितने रंग ;
भूखे संतों का ,
तप में ही -
है केवल जीने का ढंग ;

असुरों की सत्ता में गूँगे -
देवों सा अब रहना सीख ।

मेहनतकश या ,
सत्यवादियों -
के नसीब में पश्चाताप ;
भारत सी उर्वरा ,
धरा पर -
चोरों  रहेंगे सबके बाप ;

गीली लकड़ी सा सुलगा कर -
आग धुएँ को सहना सीख ।

(५)

धूप कैसे आयेगी दालान में
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पाँव के नीचे जमीं  खिसकी हुई 
अर्श  छूने का भरम पाले हुए ।
धूप  कैसे   आयेगी  दालान   में 
शामियाने  जब  टँगे  काले  हुए ।

भीड में सौहार्द के -
भाषण हुए ,
ओंठ पर हैं नफ़रतों की गालियाँ 
शहद में डूबी हुई -
शब्दावली ,
भीड  उन्मादी  बजाती  तालियाँ ;

अचकनों पर खून के छींटे छुपे -
गरमियों  में  शाल हैं डाले  हुए ।

मंदिरों का देवता -
हँसता रहे ,
पीठ से सब मस्जिदें ढकते रहे ;
सभ्यता की टोपियाँ -
पहने हुये ,
देवता  को  गालियाँ बकते  रहे ;

मकड़ियों के इन गुफ़ाओं पर सदा -
झिलमिलाते  गर्द  के   जाले   हुए ।

भीड में हर ओर -
 तलवारें खिंचीं ,
बस हवा में सिर्फ लहराती रहीं ;
इस धधकती आग में -
क्या क्या जला ,
वे कथायें शौर्य की गाती  रहीं ;

शौर्य की गाथा जिसे माना गया -
पृष्ठ  वो  इतिहास के काले  हुए ।

(६)

टूट मत
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टूट मत , ये भी  सफर -
आराम से कट जाएगा ।

राह कच्ची , ईंट  , पत्थर -
और  कुछ  काँटे  भी  हैं ;
आँधियां , तीखी हवाओं -
के   पड़े   चाँटे   भी   हैं ;

है ज़रा मुश्किल , ये आगे -
सिलसिला  घट  जाएगा ।

धूप की जलती मशालों -
की तपिश  झुलसा रही ;
है   बहुत  धीमी    मगर -
ठंडी  हवा भी  आ  रही ;

ये   तपिश  का   गेह  भी -
फिर छाँव से ढक जाएगा ।

आग का दरिया न लाँघो -
काठ   वाली    नाव   में ;
चल  भले रस्ता  बड़ा  है -
कुछ  ठहर  हर  गाँव  में ;

देखना हमको सुरक्षित -
ठाँव  तक   ले  जायेगा ।

(७)

इन हमामों में सभी नंगे खड़े हैं !
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शर्म का हर आवरण है छद्मवेशी -
इन  हमामों में सभी नंगे खड़े  हैं ।

आपदाओं  में   ठहाके  मारता  हैै
आँख का ठहरा हुआ बेशर्म पानी ;
मंच  है  आवाक  दर्शक  है ठगेे  से -
कर्म  में डूबी  छलावों  की  कहानी ;

लोग आशंकित हुए इक दूसरे से -
कुुंभ में सब मस्त हर गंगे खड़े हैं ।

राम  नामी ओढ़कर  महंगा  दुुुशाला -
सब  बगूले  आँख   मींचे  छटपटाये ;
ये नदी क्यों शान्ति बेबस सी पडी हैै -
एक  मछली तो जरा डुबकी  लगाये ;

अनमने सब एक भ्रम में काँपते हैं -
लोग   गूँगे ,  क्षुब्ध ,  बेढंगे   खड़े   हैं।

आपदा  में साँत्वना का सुर नहीं  है -
कुछ दुराग्रह ग्रस्त भी चिल्ला  रहे हैं ;
आपदा में दर्द क्या बाँटे किसी का -
किन्तु ये दहशत मुए फ़ैला रहे हैं ;

शांति मन के इन क्षणों में देखिए तो -
राह  में   अवरोध  के  पंगे  खड़े   हैं।

(८)

सप्तऋषि आकाश में बैठे हुए हैं
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जाल में अपने बुने खुद ही फँसे हम 
और  अब  संत्रास  में , बैठे  हुए  हैं !

घर जिसे कहते हैं , वो तोड़े -
हमीं ने ;
नर्म  रिश्ते ,  बर्फ़  से  जोडे़ -
हमीं ने ;
नेह भीगी सभ्यता के मोड़ ,
रस्ते -
कर  दिये  हैं , रेस के घोडे़ -
हमीं ने ;

और अब तन्हा झुलसते रेत घर में -
मृग तृषित की प्यास में बैठे हुए हैं !

अब गुलाबों सा महकना , खो -
दिए हैं ;
खूब कैक्टस क्यारियों में , बो -
दिए हैं ;
नर्म  गद्दों में , कहाँ  आती  हैं 
नींदें -
बरगदों से भी विमुख हम ,हो -
लिए हैं ;

कौन देगा ज्ञान इस रूखी धरा पर -
सप्तऋषि :आकाश में बैठे हुए हैं !

हर तरफ ही जश्न , मेले  हो -
रहे हैं ;
और हम फिर भी अकेले ,हो -
रहे हैं ;
जो मिला दिल की जमीं बंजर -
लिए है ;
दोस्ती  की  आड़  में ,  ख़ंजर -
लिए है ;

सोचिए ! लेकर समन्दर की विरासत -
हम  अबूझी  प्यास  में , बैठे  हुए  हैं !

(९)

सब गूँगी भाषा में रोए
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क्या हम जागे , क्या तुम सोए,
सब गूँगी भाषा में रोए !

किससे कहें व्यथा इस मन की ,
खुद में -
सभी कथा वाचक हैं ;
ग़ायब है , नायक नाटक से ,
सिर्फ़ कथा -
में खलनायक हैं ;

ऐसा कोई दृश्य दिखा तू जो -
राहत से नयन भिगोए !

तू मुझको , देखे कनखी से ,
मैं तुझको -
देखूँ गुपचुप सा ;
सब आँखों में ,पसर रहा है ,
गूँगा एक -
अँधेरा घुप सा ;

उग आये , जंगल काँटों के -
जबकि बीज फूल के बोए !

बच्चे से , बूढ़े हो बैठे ,
खेल रहे -
हैं ग़ुब्बारों से ;
सेंध लगा कर कौन गया है ,
पूछ रहे -
हैं दीवारों से ;

इतना तो है पता , सभी को -
दिन में चोर दरोग़ा होए।

(१०)

जंग लगे चिंतन
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जंग लगे चिन्तन  का मंथन जारी है -
बडे  बड़े विद्वान  जुगाली करते  है ।

सच  को कहना झूठ कोई मजबूरी  है -
एक  अदद  गूँगापन   आड़े  आता  है :
एक भंगिमा चिपकी है कुछ चेहरों पर -
झूठ  आइना  चेहरे  को दिखलाता  है :

महका बाग बग़ीचा ख़ुश तो हैं लेकिन -
काट -छाँट तो फिर भी माली करते  हैं ।

तर्कशील  तथ्यों पर झल्लाता  कोई -
तर्कहीन  कह कर उनको बतलाते  हैं ;
सहज गीत को जैसे  ये कविता वाले -
काव्य विधा की धारा में झुठलाते हैं ;

विश्लेषण के अर्थशास्त्र से झुँझला कर -
उस  पर भी ये दस्तखत जाली करते  हैं ।

सब  मंचों पर एक तमाशा जारी  है -
खलनायक नायक को गाली देता है ;
नायक का किरदार न हावी हो जाए -
बिना  बात  हुड़दंग  मवाली देता  है ;

संवादों के पूरक हैं सब चोर यहाँ -
और लुटेरे प्रश्न  सवाली करते हैं ।

            - कृष्ण भारतीय 
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परिचय -
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रचनाधर्मी नाम - कृष्ण भारतीय 
पूरा नाम - कृष्ण कुमार भसीन 
पिता - स्व० पी० एल० भसीन
माता - स्व० श्रीमति शीलावती 
जन्म - 15 जौलाई , 1950  , एटा ( उत्तर प्रदेश  )
वर्तमान - अवकाशप्राप्त अभियन्ता ।
वर्तमान - स्वतन्त्र लेखन ।
लेखन विधा  - गीत , नवगीत , कविता , आलेख , कहानी , उपन्यास आदि । 
प्रकाशन  -  धर्मयुग , कादिम्बनी , साप्ताहिक हिन्दुस्तान , मधुमती , अग्रिमान , दैनिक जागरण,                         पुनर्नवा , चेतना स्रोत त्रैमासिक , पराग बाल मासिक , साहित्यसुधा  , हस्ताक्षर , अनुभूति एवं साहित्य  सुधा , नव किरण  वेब पत्रिका व अन्य विभिन्न पत्र पत्रिकायों में नियमित प्रकाशन ।
समवेत संकलन - गीत प्रसंग 2, समकालीन गीतकोश ,  संवदिया ( नवगीत विषेशांक ) , नवगीत का मानवतावाद एवं अन्य ।
प्रकाशित कृतियाँ  - हैं जटायु से अपाहिज हम ( नवगीत संग्रह )
                             धूप के कुछ कथानक - नवगीत संग्रह 
सम्पादन - प्रेस में।

पता - बेस्टैक पार्क व्यू रेजीडेन्सी , 
टी - 2/ 503, पालम विहार , सेक्टर - 3,
गुरूग्राम - 122017 ( हरियाणा )
Email - kbhasin15@gmail.com
मों० 09650010441

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