~।। वागर्थ ।। ~
प्रस्तुत करता है समर्थ नवगीतकार कृष्ण भारतीय जी के नवगीत ।
कृष्ण भारतीय जी के नवगीत विविध कथ्य , भाषा व शिल्प के मजबूत धरातल पर आमजन की पीड़ाओं व विवशताओं को स्वर देते हैं । अपने नवगीतोंं में जहाँ वह पर्यावरणीय क्षरण , नदी , जंगल आदि की दुर्दशा पर सियासत के किरदारों की संलग्नता पर आक्रोश व्यक्त करते हैं वहीं जीवन के खुरदुरे यथार्थ , लोकतंत्र में जन को ही मुँह सिल कर रहने का तंज , आपसी सौहार्द में राजनैतिक अवसरवादिता का पलीता व दुरूह समय में भी आशा की किरण जगाते कष्टप्रद सिलसिले घटने का ढाढस भी बँधाते हैं ।
उल्लेखनीय है कि आपके नवगीत जटिल बिम्बों व प्रतीकों के असंप्रेषणीय आडम्बर से मुक्त सहज सरल बोधगम्य शैली में पाठकों से रु-ब-रू होते हैं , यही सहजता ही उन्हें पठनीय , संप्रेषणीय व प्रभावी बनाती है ।
नवगीत पर वह अपने विचार रखते हुए कहते हैं कि
" नवगीत की रचनाधर्मिता महज लिखने या गुनगुनाने भर की नहीं बल्कि एक दायित्वबोध है ।दायित्व आम आदमी के प्रति , समाज के प्रति , देश के प्रति व वैश्विक स्तर पर । हम नवगीतकर्मी हकीकत की खुरदरी जमीन पर जीने वाले साहित्यिक हैं । नवगीत कल्पनालोक में प्रेमिका के गेसुओं में नहीं आम आदमी की ज़िन्दगी की बेहतरी में अपनी ऊर्जा ख़र्च करते हैं और उसी में खुशी तलाश करता है । याद रखिये ! शब्द बोलते भी हैं और संवाद करना भी जानते हैं । आज के नवगीत संवाद की मुद्रा में प्रखर हैं और मुखर भी हैं । गीत लिखना आसान नहीं है । एक गीत के लिए कई बार अपने अन्दर रचनाधर्मी को जीना मरना पडता है तब एक गीत का जन्म होता है । और इस वेदना का गवाह वही रचनाधर्मी है जिसने उसे भोगा है ।"
नवगीत पर आपके योगदान से इतर बात की जाए तो बेहद स्नेही व सरल स्वभाव आपको विशिष्ट बनाता है , वागर्थ आपके स्वस्थ्य व यशस्वी जीवन की कामना सहित हार्दिक बधाई प्रेषित करता है ।
प्रस्तुति
~।। वागर्थ ।। ~
सम्पादक मण्डल
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(१)
एक तार पर नट सी अपनी
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एक तार पर नट सी अपनी
नाच रही है ज़िन्दगी।
लचक रही है , इधर उधर
ये गजब संतुलन , है भइया
मुए पेट की खातिर , कैसे
नाच रही , ता ता थैय्या
कैसा कैसा पाठ बिचारी
बाँच रही है ज़िन्दगी ।
कुछ ताली भी बजीं , और
कुछ हे हे करके , रेंक दिए
कुछ ने देखा और चल दिए
कुछ ने सिक्के , फेंक दिए
चूल्हे पर सिकती रोटी की
आँच रही है ज़िन्दगी ।
देख ! आदमी को रोटी ने
नाच नचाए , बन्दर से
कैसे कैसे जख़्म , टीसते
होंगे , इसके अन्दर से
नंगे पैरों सनी खून सी
काँच रही है ज़िन्दगी ।
(२)
मैं तुझसे भी चार गुना अभिलाषी हूँ
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मैं चौंका जब कल कल करती ,
नदिया ने ,
तटबन्धों से कहा
बन्धु ! मैं प्यासी हूँ !
हरियाली के रचे बसे , जंगल रूठे ;
स्वच्छ जलों के झरते से झरने छूटे ;
बेशक़ीमती हीरे , परखे कौन यहाँ -
काँच बिके बाज़ारों में खुल कर झूठे ;
गंगा के तट पर संतों ने साफ़ कहा -
हूँ तप , पर आध्यात्मिक नहीं ,
सियासी हूँ !
वो दधीचि अब कहाँ कि जिनके वज्र बने -
अब हरिद्वार पटा है , कलुषित पंडों से ;
लहुलुहान ख़ुद्दारी के , टखने टूटे-
बीच सड़क पिटकर , गुंडों के डंडों से ;
और सियासत भोलेपन का ढोंग किए ,
हँसती है मैं चंट चतुर -
अय्याशी हूँ !
सब मिलते हैं गले मगर ख़ंजर लेकर -
ग़ैरों से ज़्यादा , अपनों से ख़तरा है ;
किसका रिश्ता सच्चा ,ग़ैरत वाला है -
लालच में डूबा , बस क़तरा क़तरा है ;
ऐसी होड़ मची है आपाधापी की ,
मैं तुझसे भी चार गुना -
अभिलाषी हूँ !
(३)
ताड़-सरीखे ऊँचे क़द का क्या करना?
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ताड़-सरीखे, ऊँचे क़द का
क्या करना ,
छोटे क़द के , सहज गुणी
व्यक्तित्व बनें ।
बातों में, झीने पर्दे हैं -
फ़र्क़ करें :
बात कसौटी पर , तौलें
फिर तर्क करें :
सहज , सुलभ , शालीन
रतन धन बने रहें
तपें आग में , स्वर्ण सरीखे
घने रहें :
बाड़ सरीखी , बेज़ा हद का -
क्या करना
गुण मद के हम , चकाचौंध -
अस्तित्व बनें ।
बनें कि सौ - सौ में भी , अलग -
खड़े दीखें :
अपने क़द में सबको , अलग -
बड़े दीखें :
चमके पीतल , नक़ली हीरों -
के घर में -
एक नगीने से हम , अलग -
जड़े दीखें :
जो देखा, जो समझा , जो कुछ -
ग्रहण किया -
अनुभव के , सात्विक निचोड़ के -
सत्व बनें ।
लम्बी चौड़ी हाँक , हाँक लें -
क्या होगा :
रख लें ऊँची नाक , नाक से -
क्या, होगा :
चोर सरीखा छत , आँगन -
गलियारों से,
खुली खिडकियाँ झाँक, झाँक लें -
क्या होगा :
अर्थहीन अनुवाद , किसी का -
क्या बनना,
लोग पढे , उस मूलमंत्र का -
तत्व बनें ।
(४)
ओंठो पर ताले लटका ले
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ओंठो पर ताले लटका ले
गूँगे सा चुप रहना सीख ।
सत्ता की जयकार ,
लगा बस -
प्रश्नों खड़े तू चुप हो जा
भूख लगी है ,
पेट दबा ले -
पानी पीकर जा सो जा
तपे तवे पर रोटी जैसा
सिकते सिकते दहना सीख ।
इतने साल दिए ,
हैं तुझको -
गुब्बारों के कितने रंग ;
भूखे संतों का ,
तप में ही -
है केवल जीने का ढंग ;
असुरों की सत्ता में गूँगे -
देवों सा अब रहना सीख ।
मेहनतकश या ,
सत्यवादियों -
के नसीब में पश्चाताप ;
भारत सी उर्वरा ,
धरा पर -
चोरों रहेंगे सबके बाप ;
गीली लकड़ी सा सुलगा कर -
आग धुएँ को सहना सीख ।
(५)
धूप कैसे आयेगी दालान में
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पाँव के नीचे जमीं खिसकी हुई
अर्श छूने का भरम पाले हुए ।
धूप कैसे आयेगी दालान में
शामियाने जब टँगे काले हुए ।
भीड में सौहार्द के -
भाषण हुए ,
ओंठ पर हैं नफ़रतों की गालियाँ
शहद में डूबी हुई -
शब्दावली ,
भीड उन्मादी बजाती तालियाँ ;
अचकनों पर खून के छींटे छुपे -
गरमियों में शाल हैं डाले हुए ।
मंदिरों का देवता -
हँसता रहे ,
पीठ से सब मस्जिदें ढकते रहे ;
सभ्यता की टोपियाँ -
पहने हुये ,
देवता को गालियाँ बकते रहे ;
मकड़ियों के इन गुफ़ाओं पर सदा -
झिलमिलाते गर्द के जाले हुए ।
भीड में हर ओर -
तलवारें खिंचीं ,
बस हवा में सिर्फ लहराती रहीं ;
इस धधकती आग में -
क्या क्या जला ,
वे कथायें शौर्य की गाती रहीं ;
शौर्य की गाथा जिसे माना गया -
पृष्ठ वो इतिहास के काले हुए ।
(६)
टूट मत
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टूट मत , ये भी सफर -
आराम से कट जाएगा ।
राह कच्ची , ईंट , पत्थर -
और कुछ काँटे भी हैं ;
आँधियां , तीखी हवाओं -
के पड़े चाँटे भी हैं ;
है ज़रा मुश्किल , ये आगे -
सिलसिला घट जाएगा ।
धूप की जलती मशालों -
की तपिश झुलसा रही ;
है बहुत धीमी मगर -
ठंडी हवा भी आ रही ;
ये तपिश का गेह भी -
फिर छाँव से ढक जाएगा ।
आग का दरिया न लाँघो -
काठ वाली नाव में ;
चल भले रस्ता बड़ा है -
कुछ ठहर हर गाँव में ;
देखना हमको सुरक्षित -
ठाँव तक ले जायेगा ।
(७)
इन हमामों में सभी नंगे खड़े हैं !
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शर्म का हर आवरण है छद्मवेशी -
इन हमामों में सभी नंगे खड़े हैं ।
आपदाओं में ठहाके मारता हैै
आँख का ठहरा हुआ बेशर्म पानी ;
मंच है आवाक दर्शक है ठगेे से -
कर्म में डूबी छलावों की कहानी ;
लोग आशंकित हुए इक दूसरे से -
कुुंभ में सब मस्त हर गंगे खड़े हैं ।
राम नामी ओढ़कर महंगा दुुुशाला -
सब बगूले आँख मींचे छटपटाये ;
ये नदी क्यों शान्ति बेबस सी पडी हैै -
एक मछली तो जरा डुबकी लगाये ;
अनमने सब एक भ्रम में काँपते हैं -
लोग गूँगे , क्षुब्ध , बेढंगे खड़े हैं।
आपदा में साँत्वना का सुर नहीं है -
कुछ दुराग्रह ग्रस्त भी चिल्ला रहे हैं ;
आपदा में दर्द क्या बाँटे किसी का -
किन्तु ये दहशत मुए फ़ैला रहे हैं ;
शांति मन के इन क्षणों में देखिए तो -
राह में अवरोध के पंगे खड़े हैं।
(८)
सप्तऋषि आकाश में बैठे हुए हैं
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जाल में अपने बुने खुद ही फँसे हम
और अब संत्रास में , बैठे हुए हैं !
घर जिसे कहते हैं , वो तोड़े -
हमीं ने ;
नर्म रिश्ते , बर्फ़ से जोडे़ -
हमीं ने ;
नेह भीगी सभ्यता के मोड़ ,
रस्ते -
कर दिये हैं , रेस के घोडे़ -
हमीं ने ;
और अब तन्हा झुलसते रेत घर में -
मृग तृषित की प्यास में बैठे हुए हैं !
अब गुलाबों सा महकना , खो -
दिए हैं ;
खूब कैक्टस क्यारियों में , बो -
दिए हैं ;
नर्म गद्दों में , कहाँ आती हैं
नींदें -
बरगदों से भी विमुख हम ,हो -
लिए हैं ;
कौन देगा ज्ञान इस रूखी धरा पर -
सप्तऋषि :आकाश में बैठे हुए हैं !
हर तरफ ही जश्न , मेले हो -
रहे हैं ;
और हम फिर भी अकेले ,हो -
रहे हैं ;
जो मिला दिल की जमीं बंजर -
लिए है ;
दोस्ती की आड़ में , ख़ंजर -
लिए है ;
सोचिए ! लेकर समन्दर की विरासत -
हम अबूझी प्यास में , बैठे हुए हैं !
(९)
सब गूँगी भाषा में रोए
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क्या हम जागे , क्या तुम सोए,
सब गूँगी भाषा में रोए !
किससे कहें व्यथा इस मन की ,
खुद में -
सभी कथा वाचक हैं ;
ग़ायब है , नायक नाटक से ,
सिर्फ़ कथा -
में खलनायक हैं ;
ऐसा कोई दृश्य दिखा तू जो -
राहत से नयन भिगोए !
तू मुझको , देखे कनखी से ,
मैं तुझको -
देखूँ गुपचुप सा ;
सब आँखों में ,पसर रहा है ,
गूँगा एक -
अँधेरा घुप सा ;
उग आये , जंगल काँटों के -
जबकि बीज फूल के बोए !
बच्चे से , बूढ़े हो बैठे ,
खेल रहे -
हैं ग़ुब्बारों से ;
सेंध लगा कर कौन गया है ,
पूछ रहे -
हैं दीवारों से ;
इतना तो है पता , सभी को -
दिन में चोर दरोग़ा होए।
(१०)
जंग लगे चिंतन
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जंग लगे चिन्तन का मंथन जारी है -
बडे बड़े विद्वान जुगाली करते है ।
सच को कहना झूठ कोई मजबूरी है -
एक अदद गूँगापन आड़े आता है :
एक भंगिमा चिपकी है कुछ चेहरों पर -
झूठ आइना चेहरे को दिखलाता है :
महका बाग बग़ीचा ख़ुश तो हैं लेकिन -
काट -छाँट तो फिर भी माली करते हैं ।
तर्कशील तथ्यों पर झल्लाता कोई -
तर्कहीन कह कर उनको बतलाते हैं ;
सहज गीत को जैसे ये कविता वाले -
काव्य विधा की धारा में झुठलाते हैं ;
विश्लेषण के अर्थशास्त्र से झुँझला कर -
उस पर भी ये दस्तखत जाली करते हैं ।
सब मंचों पर एक तमाशा जारी है -
खलनायक नायक को गाली देता है ;
नायक का किरदार न हावी हो जाए -
बिना बात हुड़दंग मवाली देता है ;
संवादों के पूरक हैं सब चोर यहाँ -
और लुटेरे प्रश्न सवाली करते हैं ।
- कृष्ण भारतीय
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परिचय -
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रचनाधर्मी नाम - कृष्ण भारतीय
पूरा नाम - कृष्ण कुमार भसीन
पिता - स्व० पी० एल० भसीन
माता - स्व० श्रीमति शीलावती
जन्म - 15 जौलाई , 1950 , एटा ( उत्तर प्रदेश )
वर्तमान - अवकाशप्राप्त अभियन्ता ।
वर्तमान - स्वतन्त्र लेखन ।
लेखन विधा - गीत , नवगीत , कविता , आलेख , कहानी , उपन्यास आदि ।
प्रकाशन - धर्मयुग , कादिम्बनी , साप्ताहिक हिन्दुस्तान , मधुमती , अग्रिमान , दैनिक जागरण, पुनर्नवा , चेतना स्रोत त्रैमासिक , पराग बाल मासिक , साहित्यसुधा , हस्ताक्षर , अनुभूति एवं साहित्य सुधा , नव किरण वेब पत्रिका व अन्य विभिन्न पत्र पत्रिकायों में नियमित प्रकाशन ।
समवेत संकलन - गीत प्रसंग 2, समकालीन गीतकोश , संवदिया ( नवगीत विषेशांक ) , नवगीत का मानवतावाद एवं अन्य ।
प्रकाशित कृतियाँ - हैं जटायु से अपाहिज हम ( नवगीत संग्रह )
धूप के कुछ कथानक - नवगीत संग्रह
सम्पादन - प्रेस में।
पता - बेस्टैक पार्क व्यू रेजीडेन्सी ,
टी - 2/ 503, पालम विहार , सेक्टर - 3,
गुरूग्राम - 122017 ( हरियाणा )
Email - kbhasin15@gmail.com
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