शनिवार, 22 मई 2021

समकालीन दोहे महेश अनघ

चार घड़ी की दिल्लगी, चर्चा बारह मास
ऑक्सीजन पर चल रही, विद्वानों की सांस।

बाँह बड़े की जब गही, बौना हुआ शरीर 
चलना हुआ लकीर पर,धारण कर जंजीर ।

सबसे पहले मान्यवर, ऊंट करे जलपान
कुआँ खोदने के समय,चींटी का गुणगान ।

भाव बुलंदी पर हुए, और सितारे मंद
अँगुली में पहने हुए,अष्टधातु के छंद ।

गोरा पर्वत मोम का, काली किरण वियोग
इस अद्भुत संयोग को, कवि कहते है लोग ।

जीवन छाया जेठ की, मन पावस की धूप
खारे जल में देखिए, कभी हमारा रूप ।

हँसी हमारी दूबरी, दुख पलाश के फूल
जब सुलगे तब शुभ लगें ,महके तो प्रतिकूल ।

बधशाला है प्रेस की, राजा की टकसाल
इन दौनों के बीच में, कविता की ससुराल ।

कविता  कूदी आग में, बाकी बची लकीर
अब क्या करने आ रहे,ज्योतिष पीर फकीर ।

ये पलाश को ले गये, वे ले गये गुलाब
जंगल मेरे पास है,सीधा सरल हिसाब ।

शीतल जल रोटी गरम, मिल कर चले शरीर
इस कारण दौनों रखे, तुलसी और कबीर ।

राम राम कर जी रही, धरती आधी मौत
बरस बाद लौटे पिया,लेकर बिजुरी सौत ।

बादल मतवाला हुआ,छुआ धरा का गात
लाज शरम ऐसी तजी, दिन देखे न रात ।

कजरी गावै ब्याहता, बिटिया गाये मल्हार
पैंग हिंडोले पर चढ़ै, जैसा चढ़ै सवार ।

कलश भरे पुरवा खड़ी, पिछवाड़े के द्वार
घर में आये पाहुने, भाभी खोल किवार ।

सारस आये ताल पर, धरे सतोगुणी रुप
शरमा कर पीली पड़ी, स्वर्णपरी सी धूप ।

दिन में आधी रात है,रातें हुईं मसान
जो जागै शमशान में,होय ब्रह्म का ज्ञान ।

वन उपवन कुहरा घना, नदी धुंध की ओट
सूरज निकला काम पर, पहने ओवरकोट ।

दांतों की वीणा बजी,सांसों का संगीत
भीम पलासी पर हुई, मालकौंस की जीत ।

 लेकर नभ ने चन्द्रमा,बांटा धवल उजास
एक रुपये में लीजिए, धरती भरा कपास ।

जग जाहिर होने लगा, चकवा तेरा प्यार
ताजमहल हो जाएगा, अब सारा संसार ।

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