शनिवार, 22 मई 2021

राजा अवस्थी जी एक आलेख काव्यालोचना और सैद्धांतिकी प्रस्तुति : वागर्थ

            काव्यालोचना और सैद्धांतिकी 
                    (संदर्भ-नवगीत) 
                 किसी भी कला-कृति, साहित्यिक - कृति की समीक्षा अथवा आलोचना करते समय यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि समीक्षा का आधार क्या होना चाहिए? पिछली सदी में कविता में मुक्त- छंद के काव्य-विधा के रूप में अस्तित्व में आने के बाद  मुक्त छंद लिखने वाले कवियों ने ही कविता की आलोचना करना आरंभ किया। इस आलोचना से कविता के शास्त्रीय, सैद्धांतिक और प्रभावाभिव्यंजक तत्वों को बाहर कर दिया गया। ऐसा करने से उन्हें सुविधा यह हुई कि अब कविता के शिल्प से उनका सरोकार नाम मात्र का ही रह गया और वे कविता के नाम पर ठेठ गद्य भी लिखने के लिए स्वतंत्र हो गए। उनकी आलोचना के केंद्र में व्याख्यात्मक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और मार्क्सवादी आलोचना ही रही। परिणाम यह हुआ कि मुक्त-छंद की कविता छंद-मुक्त हुई और फिर गद्य-कविता के रूप में भी आ गई। काव्यालोचना से सैद्धांतिक आलोचना को पूरी तरह बहिष्कृत करना सायास भी हो सकता है। ऐसा करने से इन आलोचकों को, जो कविता की सैद्धांतिकी पर बात करके गद्य पाठ की ओर जा रही कविता का बचाव नहीं कर सकते थे, एक सुविधा प्राप्त हो गई। यही कारण रहा होगा कि कविता के सैद्धांतिक पक्ष पर बात करना बंद कर दिया दया। परिणाम यह हुआ कि मुक्त-छंद वाली कविता के शिल्प की सैद्धांतिकी का विकास ही नहीं हो पाया। यद्यपि 'निराला की साहित्य साधना' लिखते समय डॉ. रामविलास शर्मा ने उनकी मुक्त-छंदाश्रयी कविताओं के शिल्प पर विश्लेषणात्मक दृष्टि से कुछ बात की है। किन्तु यह प्रक्रिया दूसरे और आलोचकों ने नहीं अपनाई। शिल्प की कोई सैद्धांतिकी का विकास न होने के कारण, जिस लय और प्रवाह में निराला और उनके बाद के वे बहुत सारे कवि भी मुक्त छंद में सृजन कर रहे थे, जो गीत से छिटककर मुक्त छंद में गए थे,  वे तो उस विराट लय की रक्षा अपनी कविताओं में करते हैं किन्तु बाद के ऐसे कवि जो सीधे ही मुक्त - छंद में कविता लिखने लगे थे, उस लय और प्रवाह को नहीं साध पाये। या यह कहें, कि ज्यादातर कवि नहीं साध पाये। ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि उन्हें लय और छंद की समझ और ज्ञान न रहा हो या फिर यह भी हो सकता है, कि कविता में आलोचक शिल्प पर बात नहीं कर रहे थे, इसलिए उन्हें इसका ज्ञान प्राप्त करना जरुरी न लगा हो। किन्तु जो लय और प्रवाह कविता का आवश्यक अंग माने जाते हैं, वे ज्यादातर कवियों के यहाँ मुक्त - छंद कविता से गायब हो चुके थे। 
                            आज की हिंदी काव्यालोचना में कविता के कथ्य मात्र पर ही बात की जाती है। तो, जहाँ तक कथ्य की बात है, तो कोई भी कथ्य किसी भी विधा में कहा जा सकता है, किंतु किसी कथ्य को किसी विधा के भीतर स्थान पाने के लिए उस विधा विशेष की सैद्धांतिकी पर खरा उतरना ही होता है। यही कारण है कि कोई भी गद्य रचना कहानी, लघु कहानी, लंबी कहानी, उपन्यास, लघु उपन्यास या निबंध तब तक नहीं कही जा सकती, जब तक कि उस विधा विशेष के सैद्धांतिक मानदंडों को पूरा न करती हो। यह दृढ़ मान्यता पश्चिमदेशीय भाषाओं के साहित्यकारों और भारतीय साहित्यकारों में भी पहले भी थी और आज भी है। गद्य कविता के आलोचकों ने सैद्धांतिकी को नकार कर कविता का बड़ा नुकसान कर दिया। छांदसिक कविता मैं उसकी सैद्धांतिकी का विकास पहले ही हो चुका था। वहाँ कविता के शिल्प की जांच-परख के उपकरण पहले से ही उपलब्ध थे। इसलिए छांदसिक कविता ने कविता की सैद्धांतिकी का पालन करते हुए अपनी यात्रा निरंतर रखी और वहाँ अराजकता या मनमानी के अवसर बहुत नहीं बन पाये। यद्यपि कविता को इस समय के काव्य-आलोचक आलोचना की परिधि से बहुत गुपचुप तरीके से बाहर कर चुके थे। वे भूलकर भी अपनी आलोचना, विमर्श अथवा चर्चा में छांदसिक कविता पर बात नहीं करते थे। यदाकदा उनके आपसी संवादों में छांदसिक कविता उपहास का विषय भी बनती थी। बहुत संभव है कि इन आलोचकों को अपने समय की छांदसिक कविता का उनका अध्ययन ही बहुत न्यून अथवा शून्य रहा हो। 
                        सैद्धांतिकी का पालन करने के साथ बदलते युग, युगानुभूति, मनुष्य की चुनौतियों और उसकी युगीन संवेदनाओं को स्वर देने के लिए गीत ने अपने सैद्धांतिक मानदंडों को स्वीकार करते हुए चुनौती स्वीकार की। किंतु, यह काम आसान नहीं था, इसलिए गीत ने कुछ नये सैद्धांतिक सूत्रों के प्रयोग करने शुरू किये। इन्हीं नये सैद्धांतिक सूत्रों के प्रयोग का ही परिणाम था, कि गीत के भीतर से ही नवगीत एक स्वतंत्र विधा के रूप में अस्तित्व में आया। ' नवगीत' शब्द की विधा के रूप में घोषणा बीसवीं सदी के छठवें दशक के अंत में हुई और तब से लगातार नवगीत-कविता लिखी जा रही है। प्रतिवर्ष शताधिक नवगीत-कविता संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। लगातार नवगीत लिखे जा रहे हैं। प्रतिवर्ष शताधिक नवगीत-कविता संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। सरकारी साहित्यिक प्रतिष्ठानों द्वारा पुरस्कृत भी होने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में शोधग्रंथ भी लिखे जा रहे हैं। बावजूद इसके नवगीत की आलोचना में भी अभी तक उसके सैद्धांतिक पक्ष पर बहुत कम काम हुआ है। नवगीत  के शिल्प को लेकर निरंतर एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है। कुछ लोग सनातनी छंदों को गीत में फिट करके नवगीत लिख रहे हैं। यह कुछ गलत भी नहीं है, यदि ऐसा करते हुए नवगीत  की संवेदना, उसके युगबोध, उसकी भाषा को सम्यक स्थान दिया गया हो, किंतु कुछ लोग दोहा-नवगीत, मुक्तक-नवगीत, विष्णुपद- नवगीत जैसे नाम भी देकर अपनी अभिनवता सिद्ध करने में लगे हुए हैं। यह तो स्पष्ट है कि इस तरह के नाम हास्यास्पद हैं और विचित्र वेशभूषा धारण किए जोकर की तरह उचकते हुए करतब करने के सिवा कुछ नहीं। किन्तु, नवगीत के शिल्प पर एक स्पष्ट राय का बनना  बहुत जरूरी है। नवगीत की समीक्षा या आलोचना करते समय नवगीत के मानदंडों पर ही उसे परखा जाना चाहिए। नवगीत के शिल्प के आधार पर भी बात की जानी चाहिए। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है कि गीत पर उपलब्ध सैद्धांतिकी से कुछ अलग चीजें भी नवगीत ने अपनाई है। उन पर स्पष्ट होना आवश्यक है। नवगीत पर बात करते हुए देखना जरूरी है उसके भीतर गीत के शिल्पगत सभी मानदंड पूरे हो रहे हैं कि नहीं? किन्तु, छंद के स्तर पर नवगीत ने जो मानदंड स्वीकारें हैं, उन पर भी वह खरा उतरता है अथवा नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं, कि शिल्पगत प्रयोग करते हुए उसमें कहीं विचलन आया हो! यदि ऐसा है तो उसे अवश्य इंगित करना चाहिए अन्यथा यह एक उदाहरण की तरह मानकर और लोग भी यदि ऐसा करने लगे, तो यह कुहासा बढ़ता ही चला जाएगा। यह कुछ समय के लिए स्थाई भी हो सकता है, किंतु जब भी उनको देखा-परखा जाएगा और कोई आलोचक सच कहने का साहस कर बैठा, तो इस तरह की रचनाओं को किस कोटि में गिना जाएगा! यह विचारणीय है। 
                       आज ऐसे कविता संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं, जिनके मुखपृष्ठ पर विधा के रूप में 'गीत - नवगीत संग्रह' अथवा 'नवगीत संग्रह' छपा होता है। यहाँ यह समझना आवश्यक है, कि 'गीत - नवगीत संग्रह' का तात्पर्य यह है कि संग्रह में गीत और नवगीत दोनों तरह की कविताएँ संकलित हैं। किन्तु, पुस्तक के भीतर इस तरह का कोई विभाजन या वर्गीकरण नहीं मिलता, ताकि पाठक यह जान-समझ सके, कि कौन - सी कविता गीत है और कौन-सी कविता नवगीत? ऐसे संग्रह भी प्रकाशित होते हैं, जिन पर मुखपृष्ठ पर' नवगीत संग्रह' अंकित होता है और भीतर गीत और नवगीत दोनों तरह की कविताएँ होती हैं, किन्तु गीत और नवगीत के अलग - अलग खण्ड या इस तरह का कोई वर्गीकरण नहीं होता । ऐसी स्थिति में पाठक उन रचनाओं को पढ़ता है और बहुत संभव है कि अपेक्षित प्रभाव भी ग्रहण करता हो। किन्तु, यदि वह यह जानना ही चाहे कि कौन-सी कविता गीत है और कौन - सी नवगीत, तो उसे यह समझना मुश्किल हो जाता है। एक बड़ी समस्या का आरम्भ तब होता है, जब कोई नया रचनाकर कवि ऐसे संग्रह को पढ़कर गीत और नवगीत को समझकर नवगीत लिखना चाहता है और उसे एक अबूझ भ्रम के सिवा कुछ नहीं मिलता। इसका उत्तरदायी वह रचनाकार ही होता है। प्रश्न उठता है, कि ऐसा किया क्यों जाता है? तो समझ में आता है कि संभवतः ऐसा करने का एक कारण यह भी हो सकता है कि रचनाकार स्वयं स्पष्ट नहीं हो । इसलिए नवगीत कवि को नवगीत के शिल्प और सैद्धांतिकी के विषय में बहुत स्पष्ट होना चाहिए, ताकि वह इस तरह की स्थिति निर्मित करने से बच सके। यदि किसी पुस्तक में गीत और नवगीत दोनों शामिल करना ही है, तो पुस्तक के भीतर उनके अलग - अलग खण्ड अवश्य होने चाहिए। 
                 संक्षेप में कहें कि कविता चाहे वह मुक्त छंद की कविता हो चाहे छांदसिक कविता हो, उसके सृजन के समय रचनाकार को उसकी सैद्धांतिकी का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। किसी भी तरह की कविता पर चर्चा, समीक्षा, आलोचना करते समय भी उसके सैद्धांतिक  पक्ष पर बात अवश्य होनी चाहिए। ऐसा करने से ही  सैद्धांतिकी  के विकास की राह निकलेगी और कविता के गठन में अराजकता की व्याप्ति से बचा जा सकेगा। अब आवश्यकता इस बात की है, कि नवगीत - कविता के शिल्प पर पर्याप्त शोध और विचार-विमर्श हो।नवगीत के लिए गीत के शिल्प में कितने और किस तरह के प्रयोग उचित होंगे, ताकि उसकी गीतात्मकता की रक्षा हो सके और नवगीत की आधुनिकता, युगबोध आदि तत्व भी बने रहें। 
                        
                                   राजा अवस्थी 
                            गाटरघाट रोड, आजाद चौक 
                           कटनी-483501 (मध्य प्रदेश)

3 टिप्‍पणियां:

  1. वर्नमान परिपेक्ष्य में नवगीत की शिल्प अनिवार्यता और उसके महत्व पर अद्भुत विमर्श । राजा अवस्थी जी जैसे समर्थ नवगीतकार की चिंता वस्तुत:सभी गीतकारों की चिंता है।
    भाई राजा अवस्थी जी को इस संग्रहणीय आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई ।

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  2. अत्यंत ज्ञानवर्धक और तथ्यपरक आलेख, नव लेखकों को इससे अवश्य लाभ होगा

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  3. आदरणीय मर्मज्ञ जी एवं आदरणीय बसंत शर्मा जी आपका बहुत - बहुत धन्यवाद। ये प्रतिक्रियाएँ मुझे इन विषयों पर और विचार करने एवं लिखने के लिए प्रेरित करेंगी। सादर आभार आप द्वय का।

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