वागर्थ प्रस्तुत करता है :-
युवा कवयित्री अनामिका सिंह जी के नवगीत
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वर्तमान में, मंच और मंच की वाचिक परम्परा को छोड़ दें, और गीत नवगीत के सम्बन्ध में बात को केन्द्रित करें तो, जो तथ्य हमारे सामने आता है वह है नवगीत के व्यापक सन्दर्भ में महिला रचनाकारों की नगण्य उपस्थिति ! हम में से हर एक जानता है कि नवगीत विधा में महिला रचनाकारों की उपस्थिति को कायदे से देखा जाय तो, आरम्भ से ही उँगलियों पर गिने जाने लायक रही है।
इधर हिन्दी पट्टी में नवगीत सृजन के मामले में कुछ रचनाकारों ने बहुत तेजी से अपनी असरदार उपस्थिति दर्ज करायी है, उनमें से कुछेक नाम निर्विवाद रूप से हमारे सामने आते हैं अनामिका सिंह जी का नाम उनमें से एक है।
अनामिका सिंह जी की रचना प्रक्रिया के मूल में जहाँ एक ओर समसामयिकता,समकालीनता,वैचारिक प्रतिबद्धता , जनपक्षधरता और प्रतिरोध के प्रबल स्वर हैं, तो वहीं दूसरी ओर टटके बिम्ब और देशज शब्दों के मोहक और अनूठे प्रयोगों की बहुलता भी है ।
आज की प्रस्तुति को हमने दो भागो में समेटा है, पहले भाग में आप पढ़ेंगे अनामिका सिंह जी के चौदह नवगीत और दूसरे भाग में प्रस्तुत नवगीतों पर कटनी के चर्चित युवा नवगीतकवि और समालोचक राजा अवस्थी जी का एक आलेख
समूह वागर्थ इस अवसर पर अनामिका सिंह जी को हार्दिक बधाइयाँ देता है,और उनके उज्ज्वल भविष्य की मंगलकामानाएँ करता है। आपकी टिप्पणियाँ रचनाकार का मार्गदर्शन करती हैं , एतदर्थ समूह में अपनी महती टीप जरूर जोड़ें ।
प्रस्तुति
समूह
वागर्थ सम्पादन मण्डल
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(१)
आँत करे उत्पात
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रिक्त उदर में जले अँगीठी ,
आँत करे उत्पात ।
हर कातर स्वर करे अनसुना
विकट पूस की रात
कौन्तेय को लघुतर करने
खींचें खड़ी लकीर ।
दानवीर कंबल वितरित कर,
खिंचवाएँ तस्वीर ।
आँगन में है कुहरा ,घर में
औंधी पड़ी परात ।
प्यास न अधरों की बुझ पायी,
भरा नयन में नीर ।
खरपतवार उगे हैं जब भी,
रोपी आस उशीर ।
नीति पिण्ड भी नित नव रह -रह,
करते उल्कापात ।
आश्वासन ही आश्वासन पर,
देख रहा गणतंत्र ।
हाकिम फूँकें लाल किले से,
विफल हुए वे मंत्र ।
वादों की नंगी तकली पर ,
सूत रहे हैं कात ।
(२)
चिरैया बचकर रहना
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परिधि तुम्हारे पंखों की लो
रहे हितैषी खींच
चिरैया बचकर रहना ।
रूढ़िवाद की पैरों में मिल
बेड़ी डालेंगे ।
तेरे चिंतन में पगली ये
आग लगा देंगे ।
रखें चरण दस्तार न झूठे
लें न प्रेम से भींच
चिरैया बचकर रहना
जगत हँसाई का कानों में
मंतर फूँकेंगे ।
करने वश में तुझे नहीं ये
जंतर चूकेंगे ।
छल के हारिल कर के धोखा
देंगे आँखें मींच
चिरैया बचकर रहना
साँसें कितनी ली हैं कैसे,
बही निकालेंगे ।
चाल-चलन की पोथी पत्री
सभी खँगालेंगे ।
संघर्षो से हुई प्रगति पर,
उछल न जाये कीच ।
चिरैया बचकर रहना
(३)
टूट रहा करिहाँव-
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गौरेया कट्टी कर बैठी ,
करे न कागा काँव ।
साथ नदी के देखो पानी ,
गया नयन का सूख ।
सुरसा सम है मुख फैलाये ,
आज अर्थ की भूख ।।
बिरवे काट रही भौतिकता ,
धूप पी रही छाँव ।
पूत कमाऊ की सालों से ,
बाट जुहारे गैल ।
ओसारे में भादों उतरा ,
टपक रही खपरैल ।
लाठी देख बुढ़ापे का अब
टूट रहा करिहाँव ।
चौमासे में अनगिन करते ,
क्षेत्र निरंतर जाप ।
जहाँ जरूरत वहीं बरसना
सुन सागर की भाप ।
पिछले बरस बहाये तूने ,
कितने गाँव गिराँव ।
(४)
बदहाली के पोषक चुप क्यों
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जगमग करती है जग सारा ,
तम की यह तस्वीर ।
चकाचौंध में डूबी आँखें ,
क्या समझेंगी पीर ।।
माटी के पुतले पोखर की ,
माटी नित -नित घोल।
अथक परिश्रम से रजकण में ,
रोटी रहे टटोल ।।
घट बर्तन गुल्लक बचपन की
राजा रानी कीर ।
दीवाली रोशन करने हित ,
गढ़ते दीप अनूप ।
किंतु उन्हीं का जीवन देखो ,
पीड़ा का स्तूप ।।
बदहाली के पोषक चुप क्यों ,
प्रश्न यही गंभीर ।
महँगाई से हाँफ रहा धिक् ,
पुश्तैनी व्यवसाय ।
उम्मीदों का चाक थमा है ,
काया अति कृशकाय ।
आड़ा गाड़ा है जीवन में ,
विपदा ने शहतीर ।
(५)
क्या खोया क्या पाया
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क्या खोया क्या पाया हमने
होकर अधुनातन ।
उन्नति के हित नित्य चढ़े हम
अवनति की सीढ़ी ।
संवादी स्वर मूक हु़ए हैं ,
पीढ़ी दर पीढ़ी ।
रिश्तों में अनवरत बढ़ा है
घातक विस्थापन ।
दादी नानी परी कहानी
सब बीते किस्से ।
चंपक नंदन सब चंपत , है
सूनापन हिस्से ।
बचपन में ही है बच्चों से
बचपन की अनबन ।
काट मूल मशगूल अर्थ की ,
छाछ बिलोने में ,
अनुभव के आकाश बिठाये
हमने कोने में ।
उधड़ गयी है जोड़ -गुणा में ,
रिश्तों की सीवन ।
चैन हमारा रहीं निरंतर ,
लिप्सायें पीती ।
निहित स्वार्थ में अपनेपन की ,
हर अँजुरी रीती ।
समाधान अब शेष समय में ,
सिल उधड़ी तुरपन ।
(६)
एक क़ल़म पर सौ खंजर हैं
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इसको रोए उसको रोए
बोल भला किस -किस को रोए
एक क़लम पर सौ खंजर हैं।
सच के सुआ बेधती कीलें ,
घात लगाए वहशी चीलें।
धन कुबेर के कासे खाली
मसले कलियों को खुद माली
गुलशन सारा धुआँ -धुआँ है
बदहवास सारे मंजर हैं ।
रेहन पर हैं सत्ताधारी
कुटिल नीतियाँ हैं दोधारी
भाषण लच्छेदार सुनाएँ
हर अवसर पर विष टपकायें
विध्वंसों की भू उर्वर है
सद्भावी चिंतन बंजर हैं
लोक तंत्र में लोक रुआँसा
खल वजीर ने फेंका पाँसा
लिखी दमन की चंट कहानी
सकते में है चूनर धानी
धन्नामल हैं रंगमहल में
सड़कों पर अंजर पंजर हैं ।
(७)
बंधक चंदन की सुवास
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हमने तुलसी चौरे मेटे
सींची नागफनी ।
देकर निर्वासन पुष्पों को
कृत्रिम इत्र मिले ।
बंधक चंदन की सुवास कर ,
विषधर नहीं हिले ।
आँख कान की संदर्भों पर
सच से नहीं बनी
सद्भावों से रहे अपरिचित
खुद के लिए जिये ।
आयातित यश मंडन खातिर ,
तलवे चूम लिये ।
रीढ़ झुका दी दरबारों में ,
जो कल रही तनी ।
रिश्तों के अंकुर झुलसाने,
मठ्ठा डाल दिया,
अंतहीन लिप्सा के विष को
जीवन हेतु पिया ।
मूल्यों की लोलुपता ने की,
पग-पग राहजनी ।
(८)
हुई भूख अति ढीठ
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उम्मीदों के कैसे होंगे,
भारी फिर से पाँव।
धँसी आँख ज़िंदा मुर्दे की,
मिली पेट से पीठ ।
आज़ादी भी प्रौढ़ हो चली,
हुई भूख अति ढीठ।
बंजर धरती बनी बिछौना,
सिर सूरज की छाँव॥
कड़वा तेल नहीं शीशी में,
ख़त्म हो गया नून ।
दो टिक्कड़ अंतड़ियाँ माँगें,
हुआ है गीला चून ।
जा मुंडेर से कागा उड़ जा,
लेकर कर्कश काँव ॥
मौला मेरे रख दो काला,
पथवारी तावीज़ ।
अल्हड़ मुनिया आ पहुँची है
यौवन की दहलीज़ ।
पहन मुखौटे फिरें भेड़िये,
कब लग जाए दाँव ।
(९)
सत्ता की मेहराब
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धरती का भगवान हुए क्यों
सपने लहूलुहान ।
नीति नियंता कभी न अफरे
जितने भी आये ।
तारणहार तुम्हारे हमने
छद्म गीत गाये ।
सत्ता की महराब, पीर क्या
समझें छप्पर छान ।
उचित मूल्य फसलों का हलधर
कब-कब हैं लाये ।
खड़ी फसल चौपाये चरते ,
पथ पर दोपाये ।
कृषि प्रधान है देश हमारा
भूखा मगर किसान ।
खेतों तक कब जन की सत्ता
आएगी चलकर ।
कृषक सुबकते , हाकिम भरते
नित कुबेर का घर ।
कृषक हितों की बात छलावा
पूँजीवाद महान !
(१०)
रोटी का भूगोल
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राजकोष भरकर भी क्यों है
रीता ही कश्कोल ।
कितनी सदियाँ बीतीं अब तक,
फूँके कितने मंत्र ।
राजमहल के किन्तु न होते,
खत्म कभी षड़यंत्र ।
उदर भूख के मारे खोजें,
रोटी का भूगोल ।
पोर-पोर में पीर बसी है,
हृदय उठा सैलाब ।
श्वेत रंग के बगुले भी अब,
रोज बढ़ाते दाब ।
घूरे पर है भाग्य देश का,
रोटी रहा टटोल ।
राज काज का वैभव पाने,
रचते कुटिल प्रपंच ।
रजत वर्क में झूठ परोसें,
लम्बे-चौड़े मंच ।
माहुर गंगाजली बताएँ
कहते पी मधु घोल ।
(११)
लानत रख लो जन गण मन की
राजा निकले पाथर तुम ।
साँसें पड़ीं शांत जितनी भी
उन सबके हो हत्यारे
दृष्य भयावह टर सकते थे
लेकिन तुमने कब टारे ।
संसाधन की डोर डाढ़ में
बैठे रहे दबाकर तुम
बेशर्मी भी शर्मसार है
इतने हुए अमानव हो
चोला ओढ़े हो मानुष का
लेकिन घातक दानव हो
अफरोगे कब बोलो आखिर
कितने मुण्ड चबाकर तुम
हाहाकार मचा हर घर में
कब रेंगी जूँ कानों पर
मला अँधेरा तुमने सबकी
साँसों संग विहानों पर
आत्म मुग्धता की मूरत हो
बैठै साँस ठगाकर तुम ।
(१२)
आग लगा दी पानी में
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रामराज की जय हो जय हो
आग लगा दी पानी में
मंदिर-मस्जिद में बैठा,उस
बुत के पढ़े कसीदे ।
अखिल विश्व की सत्ता,
ने ही मूँद लिए हैं दीदे
फिर कोई जोखू बन आया
असलम दुःखद कहानी में
ठकुरसुहाती करें चौधरी
डाल बुद्धि पर ताला
लगा विवेकी चिंतन में है
जातिवाद का जाला ।
घायल बचपन हुआ बिलोते
कट्टर धर्म मथानी में ।
अनाचार की विषबेलों ने
जहर हवा में घोला
पाखण्डी चेले करते हैं
रोज - रोज ही रोला
न्याय तुला भी नहीं उड़ेले
पानी चढ़ी जवानी में ।
(१३)
रूढ़ियों की बेड़ियाँ
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दूर. तक छाया नहीं है , धूप है
पाँव नंगे राह में कीले गड़े
लोक हित चिंतन बना
साधन हमें
खोदना है रेत में
गहरा कुआँ
सप्तरंगी स्वप्न देखे
आँख हर
दूर तक फैला
कलुषता का धुआँ
कर रहे पाखण्ड
प्रतिनिधि बैर के
हैं ढहाने दुर्ग
सदियों के गढ़े
रूढ़ियों की बेड़ियाँ
मजबूत हैं
भेड़ बनकर
अनुकरण करते रहे
स्वर उठे कब हैं
कड़े प्रतिरोध के
जो उठे असमय वही
मरते रहे
सोच पीढ़ी की
हुई है भोथरी
तर्क , चिंतन में
हुए पीछे खड़े
हो सतह समतल
सभी के ही लिए
भेद भूलें वर्ग में
अब मत बँटें
खोज लें समरस
सभी निष्पत्तियाँ
शाख रूखों से नहीं
ऐसे छँटें
काट दें नाखून
घातक सोच के ,
चुभ रहे सद्भाव के
बेढ़ब बढ़े ।
(१४)
जय जय जय बस बोल जमूरे
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आँख मींच ले सच्चाई पर ,
मत होंठो को खोल जमूरे।
प्रश्न नहीं हैं जिनके उत्तर ,
उन प्रश्नों पर कान नहीं दे ।
आत्म मुग्ध हो सुनते जाना
निंदाओं पर ध्यान नहीं दे।
डाल बुद्धि पर कुलुफ़ कड़ा तू
जय जय जय बस बोल जमूरे ।
उसके सिर रख इसकी टोपी
खूब अफर कर पल्लेदारी.
दरबारी रागों को गाकर
पुख्ता कर ले दावेदारी
दबा काँख में भले कटारी ,
मुँह में मिश्री घोल जमूरे ।
समाधान की बात करें जो,
उन क़लमों की नोंक तोड़ दे।
समरसता के गीत पढ़ें जो ,
उनकी दुखती रग मरोड़ दे ।
भली करेंगे राम फोड़ तू ,
सद्भावों के ढोल जमूरे ।
~ अनामिका सिंह
परिचय -
अनामिका सिंह
जन्म - ९ अक्टूबर १९७८ कन्नौज (इन्दरगढ )
शिक्षा - परास्नातक ( विज्ञान वर्ग )
सम्प्रति - बेसिक शिक्षा विभाग उत्तर प्रदेश फिरोजाबाद में कार्यरत
ई मेल - yanamika0081@gmail.com
संपर्क सूत्र -9639700081
पता -
अनामिका सिंह W/O
नीरज कुमार सिंह
स्टेशन रोड ,गणेश नगर ,शिकोहाबाद
जिला -फिरोजाबाद
सभी नवगीत मानवीय मूल्यों की अक्षुण्णता को विश्वास में रखकर रचे गए हैं । भाव-शिल्प व कथ्य के सुगठित संयोजन में देशज शब्दों के प्रयोग रचनाधर्मिता में चार चाँद लगा दिए हैं ।
जवाब देंहटाएंकवयित्री उत्तम रचनाओं के लिए बधाई की पात्र हैं ।